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Hindu Mantavya: August 2015
HinduMantavya
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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तेरह श्लोक 19-34

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग » ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌ ॥१९॥ भावार्थ :  प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥19॥ ...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तेरह श्लोक 01-18

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग » ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय श्रीभगवानुवाच इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥१॥    भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर 'क्षेत्र' (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय बारह श्लोक 13-20

भक्तियोग » भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१३॥ संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१४॥ भावार्थ :  जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय बारह श्लोक 01-12

भक्तियोग » साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय अर्जुन उवाच एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥१॥   भावार्थ :  अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय दस श्लोक 19-42

विभूतियोग » भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन श्रीभगवानुवाच हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१९॥         भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे कुरुश्रेष्ठ! अब मैं जो मेरी दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिए प्रधानता से कहूँगा; क्योंकि मेरे विस्तार का अंत...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय दस श्लोक 12-18

विभूतियोग » अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति तथा विभूति और योगशक्ति को कहने के लिए प्रार्थना अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥१२॥ आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा । असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१३॥ भावार्थ :  अर्जुन बोले- आप परम...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय दस श्लोक 08-11

विभूतियोग » फल और प्रभाव सहित भक्तियोग का कथन अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥८॥ भावार्थ :  मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत्‌ की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत्‌ चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय दस श्लोक 01-07

विभूतियोग » भगवान की विभूति और योगशक्ति का कथन तथा उनके जानने का फल श्रीभगवानुवाच भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१॥ भावार्थ :  श्री भगवान्‌ बोले- हे महाबाहो! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझे अतिशय...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय छ: श्लोक 37-47

आत्मसंयमयोग » योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः । अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥३७॥    अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अयतिः – असफल योगी; श्रद्धया – श्रद्धा से; उपेतः – लगा हुआ, संलग्न; योगात् – योग से;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय छ: श्लोक 33-36

आत्मसंयमयोग » मन के निग्रह का विषय अर्जुन उवाच योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन । एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥३३॥ अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; यः-अयम् – यह पद्धति; योगः – योग; त्वया – तुम्हारे द्वारा; प्रोक्तः – कही गई; साम्येन – समान्यतया; मधुसूदन – हे मधु...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय छ: श्लोक 11-32

आत्मसंयमयोग » विस्तार से ध्यान योग का विषय शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥११॥ शुचौ – पवित्र; देशे – भूमि में; प्रतिष्ठाप्य – स्थापित करके; स्थिरम् – दृढ़; आसनम् – आसन; आत्मनः – स्वयं का; न – नहीं; अति – अत्यधिक; उच्छ्रितम् – ऊँचा; न –...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय छ: श्लोक 05-10

आत्मसंयमयोग » आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥ उद्धरेत् – उद्धार करे; आत्मना – मन से; आत्मानम् – बद्धजीव को; न – कभी नहीं; आत्मानम् – बद्धजीव को; अवसदायेत् – पतन होने दे; आत्मा – मन; एव...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय छ: श्लोक 01-04

आत्मसंयमयोग » कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥१॥ श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; अनाश्रितः – शरण ग्रहण किये बिना; कर्म-फलम् – कर्मफल की; कार्यम् – कर्तव्य; कर्म- कर्म; करोति...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 16-20

पुरुषोत्तमयोग » क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥ भावार्थ :  इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार (गीता अध्याय ७ श्लोक ४-५ में जो अपरा और परा प्रकृति के नाम से कहे गए...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 12-15

पुरुषोत्तमयोग » प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का विषय यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌ । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌ ॥१२॥ भावार्थ :  सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है- उसको तू मेरा ही तेज...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 07-11

पुरुषोत्तमयोग » जीवात्मा का विषय श्रीभगवानुवाच ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥   भावार्थ :  इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है (जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों में...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 01-06

पुरुषोत्तमयोग » संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय       श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥१॥ श्रीभगवान् उचाव - भगवान ने कहा; ऊर्ध्व-मुलम् - ऊपर की ओर जडें; अध: - नीचे की ओर; शाखम् - शाखाएँ; अश्वत्थम् - अश्वत्थ वृक्ष...

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श्रीरामचरितमानस - मानस निर्माण की तिथि

बालकाण्ड » मानस निर्माण की तिथि सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥२॥ भावार्थ:-अब मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर...

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श्रीरामचरितमानस - श्री रामगुण और श्री रामचरित्‌ की महिमा

बालकाण्ड » श्री रामगुण और श्री रामचरित्‌ की महिमा मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥२॥ भावार्थ:-वे (श्री रामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और...

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श्रीरामचरितमानस - श्री नाम वंदना और नाम महिमा

बालकाण्ड » श्री नाम वंदना और नाम महिमा चौपाई : बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥१॥ भावार्थ:-मैं श्री रघुनाथजी के नाम 'राम' की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का...

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श्रीरामचरितमानस - श्री सीताराम-धाम-परिकर वंदना

बालकाण्ड » श्री सीताराम-धाम-परिकर वंदना चौपाई : बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥१॥ भावार्थ:-मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली श्री सरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरी...

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श्रीरामचरितमानस - भगवान शिव, पार्वती आदि की वंदना

बालकाण्ड » वाल्मीकि, वेद, ब्रह्मा, देवता, शिव, पार्वती आदि की वंदना सोरठा : बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित॥१४ घ॥ भावार्थ:-मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ, जिन्होंने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने...

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श्रीरामचरितमानस - कवि वंदना

बालकाण्ड » कवि वंदना चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥२॥ भावार्थ:-मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता...

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श्रीरामचरितमानस - राम भक्तिमयी कविता की महिमा

बालकाण्ड » तुलसीदासजी की दीनता और राम भक्तिमयी कविता की महिमा जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥२॥ भावार्थ:-मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल...

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श्रीरामचरितमानस - रामरूप से जीवमात्र की वंदना

बालकाण्ड » रामरूप से जीवमात्र की वंदना जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥(ग)॥ भावार्थ:-जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ॥७ (ग)॥ ...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार श्लोक 33-42

( ज्ञान की महिमा ) श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥३३॥ श्रेयान् – श्रेष्ठ; द्रव्य-मयात् – सम्पत्ति के; यज्ञात् – यज्ञ से; ज्ञान-यज्ञः – ज्ञानयज्ञ; परन्तप – हे शत्रुओं को दण्डित करने वाले; सर्वम् – सभी; कर्म – कर्म; अखिलम् – पूर्णतः; पार्थ – हे...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार श्लोक 24-32

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )     ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ । ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥२४॥   ब्रह्म - आध्यात्मिक; अर्पणम् - अर्पण; ब्रह्म - ब्रह्म; हविः - घृत; ब्रह्म - आध्यात्मिक; अग्नौ - हवन रूपी अग्नि में; ब्रह्मणा - आत्मा द्वारा; हुतम् -...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार श्लोक 19-23

( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा ) यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥१९॥   यस्य – जिसके; सर्वे – सभी प्रकार के; समारम्भाः – प्रयत्न, उद्यम; काम – इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा पर आधारित; संकल्प – निश्चय; वर्जिताः – से रहित...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार श्लोक 10-18

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय ) वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥१०॥   वीत – मुक्त; राग – आसक्ति; भय – भय; क्रोधाः – तथा क्रोध से; मत्-मया – पूर्णतया मुझमें; माम् – मुझमें; उपाश्रिताः – पूर्णतया स्थित; बहवः – अनेक;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय चार श्लोक 01-09

( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय ) श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥१॥   श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; इमम् – इस; विवस्वते – सूर्यदेव को; योगम् – परमेश्र्वर क्र साथ अपने सम्बन्ध की विद्या को; प्रोक्तवान् – उपदेश दिया;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तीन श्लोक 36-43

( काम के निरोध का विषय )   अर्जुन उवाचः अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३६॥   अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अथ – तब; केन – किस के द्वारा; प्रयुक्तः – प्रेरित; अयम् – यः; पापम् – पाप; चरति –...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तीन श्लोक 25-35

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )     सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥२५॥ सक्ताः – आसक्त; कर्मणि – नियत कर्मों में; अविद्वांसः – अज्ञानी; कुर्वन्ति – करते हैं; भारत – हे भारतवंशी; कुर्यात् –...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तीन श्लोक 17-24

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )     यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥१७॥   यः – जो; तु – लेकिन; आत्म-रतिः – आत्मा में ही आनन्द लेते हुए; एव – निश्चय ही; स्यात् – रहता है;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तीन श्लोक 09-16

( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण )     यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥९॥    यज्ञ-अर्थात् – एकमात्र यज्ञ या विष्णु के लिए किया गया; कर्मणः – कर्म की अपेक्षा; अन्यत्र – अन्यथा; लोकः – संसार; अयम् – यह; कर्म-बन्धनः – कर्म...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय तीन श्लोक 01-08

कर्मयोग » ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण   अर्जुन उवाच   ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥१॥   अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; ज्यायसी – श्रेष्ठ; चेत् – यदि; कर्मणः – सकाम कर्म...

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श्रीरामचरितमानस - संत-असंत वंदना

बालकाण्ड » संत-असंत वंदना बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥२॥ भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर...

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श्रीरामचरितमानस - खल वंदना

बालकाण्ड » खल वंदना चौपाई : बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥१॥ भावार्थ:-अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं।...

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श्रीरामचरितमानस - ब्राह्मण-संत वंदना

बालकाण्ड » ब्राह्मण-संत वंदना बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥२॥ भावार्थ:-पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज...

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श्रीरामचरितमानस - गुरु वंदना

बालकाण्ड » गुरु वंदना बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥५॥ भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का...

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श्रीरामचरितमानस - मंगलाचरण

बालकाण्ड  » प्रथम सोपान-मंगलाचरण श्लोक : वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥१॥   भावार्थ : अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ ...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 27-29

( भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन ) स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥२७॥ यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः । विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥२८॥     स्पर्शान् – इन्द्रियविषयों यथा ध्वनि को; कृत्वा – करके; बहिः – बाहरी; बाह्यान् – अनावश्यक; चक्षुः – आँखें; च – भी;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 13-26

( ज्ञानयोग का विषय ) सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी । नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥१३॥ सर्व – समस्त; कर्माणि – कर्मों को; मनसा – मन से; संन्यस्य – त्यागकर; आस्ते – रहता है; सुखम् – सुख में; वशी – संयमी; नव-द्वारे – नौ द्वारों वाले;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 07-12

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )  योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥७॥ योग-युक्तः – भक्ति में लगे हुए; विशुद्ध-आत्मा – शुद्ध आत्मा; विजित-आत्मा – आत्म-संयमी; जित-इन्द्रियः – इन्द्रियों को जितने वाला; सर्व-भूत – समस्त जीवों के प्रति; आत्म-भूत-आत्मा – दयालु;...

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 01-06

( सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय ) अर्जुन उवाच सन्न्यासं कर्म णां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्र्चितम् ॥१॥ अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; संन्यासम् – संन्यास; कर्मणाम् – सम्पूर्ण कर्मों के; कृष्ण – हे कृष्ण; पुनः – फिर; योगम् – भक्ति; शंससि –...

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नौवाँ अध्याय श्लोक 26-34

( निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा )      पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ २६ ॥  भावार्थ :  जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण...

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नौवाँ अध्याय श्लोक 20-25

( सकाम और निष्काम उपासना का फल)     त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥ २० ॥  भावार्थ :  तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष (यहाँ स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक देव...

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नौवाँ अध्याय श्लोक 16-19

( सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन )    अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ । मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥ १६ ॥  भावार्थ :  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप...

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नौवाँ अध्याय श्लोक 11-15

( भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और दैवी प्रकृति वालों के भगवद्भजन का प्रकार )    अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥ ११ ॥            भावार्थ :  मेरे परमभाव को (गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में देखना चाहिए) न...

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नौवाँ अध्याय श्लोक 07-10

( जगत की उत्पत्ति का विषय )   सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥ ७ ॥   भावार्थ :  हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में...

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नौवाँ अध्याय श्लोक 01-06

( प्रभावसहित ज्ञान का विषय )   श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥ १ ॥  भावार्थ :  श्री भगवान बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त...

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आठवाँ अध्याय श्लोक 23-28

( शुक्ल और कृष्ण मार्ग का विषय )   यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः । प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥  भावार्थ :  हे अर्जुन! जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिए, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान ने इसका नाम 'सृति',...

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आठवाँ अध्याय श्लोक 08-22

( भक्ति योग का विषय )   अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥ ८ ॥  भावार्थ :  हे पार्थ! यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ मनुष्य...

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