HinduMantavya
Loading...
, ,

सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत अष्टम समुल्लास की समीक्षा | Ashtam Samullas Ki Samiksha

Google+ Whatsapp

॥सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत अष्टमसमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते॥
 
 


॥सृष्टि उत्पत्ति प्रकरण॥

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५४,
 
पुरुष एवेदँ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्य्म्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥४॥ -{यजुः अ० ३१/ मं० २}
इसका अर्थ स्वामी जी यह लिखते हैं कि- "हे मनुष्यो! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव का स्वामी जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है; वही पुरुष इस सब भूत भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है
समीक्षक— स्वामी जी के अर्थों की कैसी विचित्र महिमा है कि इस मंत्र में जीव प्रकृति और ईश्वर का वर्णन कर बैठे हैं, वेदान्त विषय में आता तो बात कुछ और होती, पर स्वामी जी ठहरें आदत से मजबूर अर्थ का अनर्थ किये बगैर उनसे रहा भी नहीं जाता, देखिये इसका अर्थ यह है कि--

(इदम्)- यह, (यत्)- जो, (भूतम्)- ब्रह्मसंकल्प जगत् है, (च)- और, (यत्)- जो, (भाव्यम्)- भविष्य संकल्प जगत् है, (उत)- और, (यत्)- जो, (अन्नेन)- बीज वा अन्न परिणाम वीर्य से, (अतिरोहति)- वृक्ष नर पशु आदि  रूप से प्रकट होता है, (सर्वम्)- वह सब, (अमृतत्वस्य)- मोक्ष का, (ईशान:)- स्वामी, (पुरूष:)- परमेश्वर, (एव)- ही है उसका अन्य न होने से ब्रह्म से उत्पन्न होने से सब जगत् ब्रह्म रूप ही है, इससे ब्रह्म अनन्त है, अब क्योकि स्वामी जी जीव जगत जड प्रकृति में ब्रह्म का भेद मानते हैं इससे ऊपर वाली श्रुति से विरोध पडेगा, और सुनिये,

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५४,
 
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म ॥५॥ -तैनिरीयोपनि०
इसका अर्थ स्वामी जी यह लिखते हैं कि- "जिस परमात्मा की रचना से ये सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं जिससे जीव और जिस में प्रलय को प्राप्त होते हैं; वह ब्रह्म है, उस के जानने की इच्छा करो

समीक्षक— यह क्या स्वामी जी इतना ही पद लिखकर गड़प गये, (जिससे जीव) इससे तो प्रत्यक्ष है कि जिस परमात्मा से जीव उत्पन्न होते हैं और स्वामी जी आगे इनको नित्य भी मानते हैं, धन्य हे! तुम्हारी बुद्धि, नित्य भी मानना और जन्म भी कहना यह वेद विरोधी लेख अर्थ कर्ता को रसातल में क्यों न ले जायेगा, सीधा सा अर्थ है कि जिससे यह प्राणी उत्पन्न होते, उसी से जीते और अन्त में उसी में प्रवेश करते हैं उसे ही ब्रह्म जानों, अब जीव और प्रकृति नित्य और पृथक न रहे, और सुनिये,

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५५,
 
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥१॥
~ऋ०मं० १। सू० १६४। मं० २०॥
शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥२॥ ~यजुः० अ० ४०। मं० ८॥
(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश (सयुजा) व्याप्य व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न भिन्न हो जाता है वह तीसरा अनादि पदार्थ इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्षरूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनश्नन्) न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप; तीनों अनादि हैं
समीक्षक— जिस प्रकार बारिश की पहली बुंद गिरते ही वन के सभी मेंढक खुशी से झुम उठते है ठीक वही दृष्टांत स्वामी जी पर है, बस उनके नियोगी चैलों और उन्हें द्वैतप्रकरण को यह श्रुति सजीवन मूल है, परन्तु उनके अंदर इतनी बुद्धि कहाँ जो इस श्रुति का आशय समझ सकें, वास्तव में इसका अर्थ यह है सुनिये,
प्रथम तो इस मंत्र में यह प्रश्न है कि यह मंत्र चेतन में भेद सिद्ध करता है या भोक्ता अभोक्ता रूप पक्षियों के भेद को सिद्ध करता है, जो चेतन भेद साधक कहों तो इस मंत्र में ऐसा कोई पद नहीं जो चेतन में भेद साधन करें, इस कारण चेतन में भेद नहीं, किन्तु दो सुपर्णों का बोधन करता है, वह भी सुपर्ण वेद प्रतिपाद्य होने चाहिए, मंत्र का अर्थ दो सुपर्ण है (सयुजा)- परस्पर सम्बन्ध वाले, (सखाया)- समान प्रिति वाले अर्थात जिनका प्रतित होना तुल्य है वे दोनों, (समान)- एक, (वृक्षं)- वृक्ष को, (परिषस्वजाते)- आश्रय कर रहे हैं, (तयो:)- उन दोनों में, (अन्य:)- एक, (पिप्पलं स्वाद्वत्ति)- वृक्ष फल को भोक्ता है और दूसरा, (अनश्नन्)- न भोक्ता हुआ, (अभिचाकशीति)- प्रकाश करता है, वही प्रकाश करने वाला सुपर्ण मंत्र प्रतिपाद्य है यथाहि
 
एकः सुपर्णः स समुद्रमा विवेश स इदं विश्वं भुवनं वि चष्टे।
तं पाकेन मनसापश्यमन्तितस्तं माता रेळ्हि स उ रेळ्हि मातरम्॥ ~ऋग्वेद {१०/११४/४}
अर्थ यह है कि (एकः)- एक, (सुपर्णः)- प्राणवायु उपाधिक सुपर्णवत् सुपर्ण है, (स:)- वह, (समुद्रम्)- समुद्रवत् विस्तृत अन्तरिक्ष को, (आविवेश)- प्रवेश करता है, (स:)- वह प्राणोपाधिक परमात्मा, (इदम्)- इस, (विश्वं भुवनम्)- सर्व लोक को, (विचष्टे)- पश्यति प्रकाश करता है, (तम्)- उस प्राण देव को, (पाकेन मनसा)- परिपक मन में उपासक, (अन्तित:)- अपने हृदयकमल में (अपश्यम्)-देखता हुआ किस प्रकार से, जो (तम्)- उस प्राणदेव को अध्ययनकाल में, (माता)- माँ कहें सो, (रेळ्हि)- अपने आप में लीन कर लेती है, और तूष्णींभावकाल में वह प्राणदेव, (मातरम्)- वाक् को अपने में लीन कर लेता है, एक तो सुपर्ण इस मंत्र से प्राणोपाधिक ईश्वर चेतन प्रतिपाद्य है, यहाँ जो लीनता कहीं है वह केवल उपाधि धर्म का व्यवहार है विशिष्ट में करा है, और जो प्राण उपाधिक ईश्वर प्रतिपाद्य इस मंत्र में न होता तो सर्व जगत् प्रकाशता कैसे कहते, वेद निघण्टु अध्याय ३/ खंड ११ मे, (विचष्टे) पश्यतिकर्मा कहीं है इससे केवल जड़ प्राण इस मंत्र में प्रतिपाद्य नहीं और केवल चेतन भी प्रतिपाद्य नहीं, क्योकि वाक् में लीनता कहीं है इससे प्राणोपाधिक चित् प्रतिपाद्य है यह सुपर्ण तो केवल प्रकाशक अभोक्तारूप से मंत्र प्रतिपाद्य है और भोक्तारूप बुद्धि उपाधिक जीव चित् है तथाहि
 
तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः संहत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियते।
एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धवति।
यत्र सुप्तो न कं चन कामं कामयते न कं चन स्वप्नं पश्यति ॥ ~बृ० उ० {४/३/१९}
जैसे इस प्रसिद्ध आकाश में श्येन बड़े शरीर वाला वा सुपर्ण अल्प शरीर वाला बाज है वह अधिक भ्रमण करने से श्रम को प्राप्त होकर पंखों को (संहत्य) विस्तार करकें, (संलय) अपने नीड़ को, (ध्रियते) अनवस्थित हो गमन करता है वैसे यह, (पुरूष) जीव बुद्धि उपाधिक, (अन्त) अन्तरस्थान जो हृदयकमल है, वहाँ को दोड़ता है जहाँ सोता हुआ कुछ भी, (काम) विषय को, (नकामयते) नहीं चाहता और कुछ स्वप्न भी नहीं देखता, इस श्रुति में सुपर्ण दृष्टांत से जो बुद्धि उपाधिक जीव सुपर्णवत् जाग्रत स्वप्नसुपुप्ति में गमन करने वाला द्वितीय सुवर्ण कर्मफल भोक्ता प्रतिपादन करा है, सो यह दो सुपर्ण वाक्यान्तर प्रतिपाद्य ही (द्वा सुवर्णा) इत्यादि मंत्रों से कहें गये हैं, उन दोनों को प्राण बुद्धि उपाधि भेद से भेद वेदान्तियों के सिद्धांत में स्वीकृत ही है, चेतन ब्रह्म सर्वात्मरूप से (यो ऽसाव् आदित्ये पुरुषः सो ऽसाव् अहम्०) इस मंत्र में प्रतिपादन करा है, उसके भेद का साधन कौन है? अर्थात उसके भेद का साधक कोई मंत्र नहीं, यह भेद केवल मोह और उपाधि से प्रतीत होता है वास्तव में जीव कुछ और नहीं है, आत्मा जीवरूप से मोह के होने से प्रतीत होता है यह मंत्र ही कहता है देखिये--
 
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ ~कठोपनिषद {२/२/१२}
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः॥

सब देहधारियों में आत्मा रूप से निवास करने वाला तथा सबको नियन्त्रण में रखने वाला परमेश्वर एक रूप वाला होकर भी अनेक रूप धारण कर लेता है, और जो विद्वान अपने भीतर स्थित उस ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेतें है वह समस्त उपाधि रहित होकर उस ब्रह्म मे ही लीन हो जाते है, एक ही इस शरीर में पूर्ण पुरुष परमात्मा निगूढ़ है, यह स्वयं अनीश बुद्धि से मोह को प्राप्त होकर सोचता है, संसार में कर्ता हूँ सुखी दुखी हूँ ऐसा जन्म मरणादि अनुभव करता है और जब नित्य तृप्त शोकरहित (ईशम्) अपने ब्रह्मरूप अनन्यता से देखता है अर्थात साक्षात्कार करता है तब शोकरहित हो जाता है देह से पृथक अपने स्वरूप के साक्षात्कार से समस्त उपाधि रहित होकर इसकी महिमा अर्थात सर्वात्म्य सर्वज्ञादिपन को प्राप्त होता है, यहाँ महिमा का यही अर्थ है कि अपने ब्रह्मरूप को प्राप्त होता है, इस कारण वास्तव में वह एक ही है, मोह से भेद तथा दो प्रतीत होते हैं

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५५,
 
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ ~श्वे० उप०{४/५}
प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इन का कारण कोई नहीं, इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फंसता है और उस में परमात्मा न फंसता और न उस का भोग करता है
समीक्षक— दयानंद ने तृतीया समुल्लास पृष्ठ ५१ पर, (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेयी, तैत्तिरेयी, छान्दोग्य और बृहदारण्यक) यह दश उपनिषद ही प्रमाण माने हैं और यह श्रुति श्वेताश्वतर उपनिषद का है जो उनके प्रमाण किये उपनिषद में नहीं है, अपने अर्थसिद्धि को यह उपनिषद भी मान लिया, और दूसरे के प्रमाण में कहते हैं कि हम यह नहीं मानते, भला इसमें मंत्रों का प्रमाण क्यों नहीं लिखा।
स्वामी जी ने यहाँ यह सोचा होगा कि एक अज शब्द जीववाचक और दूसरा ईश्वरवाचक है, परन्तु यहाँ ईश्वर का ग्रहण करोगे तो (जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः) इस श्रुति भाग की असंगति होगी, क्योकि भोग लिया है, भोग पूर्व काल में जिससे उस प्रकृति को त्याग देता है, ऐसा अर्थ होने से परमेश्वर में सुख दुख साक्षात्कार भोग मानना असंगत है, इसलिए यहाँ अनुत्पन्न साक्षात्कार और उत्पन्न साक्षात्कार जीवों का ग्रहण है, स्वामी जी यहाँ जीवों को जन्म रहित कहते हैं और इससे पूर्व सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४३ पर, यह लिखा है कि (जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता) यहाँ उसका परिछिन्न मानकर जन्म मानते हैं, स्वामी जी के परस्पर विरुद्ध लेखों को कहाँ तक दिखावें, स्वामी जी ने तो मुर्खता की सारी सिमाये ही पार कर दी, कहीं जीव का जन्म लिखते हैं तो कहीं नित्य मानते हैं, धन्य हे! स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि, देखिए इस श्रुति से पूर्व की स्तुतियों से यही सिद्ध होता है कि सब जगत ईश्वर रूप ही है सब लोक और प्राणी उससे ही उत्पन्न होते हैं, अब जब कुछ ईश्वर ने ही उत्पन्न किया है तो प्रकृति नित्य कैसे?
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः आकाशाद्वायुः वायोरग्निः अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी पृथिव्या ओषधयः ओषधीभ्योन्नम् अन्नात्पुरुषः स वा एष पुरुषोऽन्न्नरसमयः॥ १
इद सर्वमसृजत यदिदं किञ्च ॥~तैत्तरी० उप०
उस आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औषधि से अन्न, अन्न से वीर्य, और वीर्य से पुरूष इस कारण अन्नरसमय यह पुरुष अन्नरसमय है,
जो कुछ भी है सब परमेश्वर ने बनाया है। और
 
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥१॥
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास॥२॥
~ऋग्वेद {म० १०, सु० १२९, मं० १-२}

इत्यादि वेद मंत्र जो पीछे लिख आये हैं कि प्रलय काल में सत् रज तम प्रकृति आदि कुछ भी नहीं था, सिवाय एक ईश्वर के इस कारण प्रकृति को नित्य मानना ठीक नहीं।

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५९,
सर्वशक्तिमान् का अर्थ इतना ही है कि परमात्मा बिना किसी के सहाय के अपने सब कार्य पूर्ण कर सकता है

समीक्षक— स्वामी जी की बुद्धि किसी बालक जैसी है, देखों कहीं तो यह लिखा है कि बिना प्रकृति के वह कुछ नहीं कर सकता, और कहीं लिखा है कि वह बिना सहाय कार्य कर सकता है, सर्व शक्तिमत्ता तो ईश्वर की उड़ गई,

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५९,
जब वह प्रकृति से भी सूक्ष्म और उन में व्यापक है तभी उन को पकड़ कर जगदाकार कर बना देता है

समीक्षक— दयानंद के इस लेखानुसार मानों प्रकृति कहीं भागी जाती होगी, ईश्वर उसके पीछे दौड़ता है, वह उसे पकडता होगा और प्रकृति नाहीं करती होगी, लेकिन ईश्वर उसे जगदाकार कर बना देता होगा, धन्य हे! स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि,

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १५९,
(प्रश्न) क्या कारण के बिना परमेश्वर कार्य को नहीं कर सकता?
(उत्तर) नहीं
समीक्षक— देखों स्वामी जी पूर्व तो लिख आये कि उसे कार्य कारणादि की कुछ अपेक्षा नहीं, वह बिना सहाय सब कार्य कर सकता है, और अब यहाँ यह गड़बडी, यही तो स्वामी जी के भंग की तरंग है कि स्वामी जी को अपने पूर्व लिखें लेखों का भी स्मरण नहीं रहता।
 

॥आदि सृष्टि प्रकरण॥


 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १६६,
(प्रश्न) सृष्टि की आदि में एक वा अनेक मनुष्य उत्पन्न किये थे वा क्या?
(उत्तर) अनेक। क्योंकि जिन जीवों के कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे उन का जन्म सृष्टि की आदि में ईश्वर देता है। क्योंकि
‘मनुष्या ऋषयश्च ये' ~[यजुर्वेद अध्याय ३१, मुंडकोप० ९, मुं० २/७/१]
'ततो मनुष्या अजायन्त’ ~यह यजुर्वेद में लिखा है।
इस प्रमाण से यही निश्चय है कि आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों, सहस्रों मनुष्य उत्पन्न हुए
समीक्षक— स्वामी जी ने तो मानों असत्य बोलने का ठेका ले रखा है, जब मूहँ खोलते है तो असत्य ही बोलते हैं, देखिये ‘मनुष्या ऋषयश्च ये' यह वाक्य यजुर्वेद में कहीं नहीं लिखा, किन्तु यजुर्वेद में 'साध्याऽऋषयश्च ये' यह लिखा है सो इससे भी दयानंद की लिखीं बात सिद्ध नहीं होती, सुनिये यह मंत्र इस प्रकार है कि--
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातम् अग्रतः।
तेन देवा ऽ अयजन्त साध्या ऽ ऋषयश् च ये॥ ~यजुर्वेद {३१/९}
(ये)- जो, (साध्या: देवा: च ऋषय:)- साध्य देवता और ऋषि है उन्होंने, (अग्रतः)- सृष्टि के पूर्व, (जातम्)- उत्पन्न हुए, (तम्)- उस, (यज्ञम्)- यज्ञ साधन भूत, (पुरूषम्) विराट पुरुष को, (बर्हिषि)- आत्मा में, (प्रौक्षन्)- प्रोक्षण कर, (तेन)- उस पुरुष द्वारा, (अयजन्त)- यज्ञ किया।
और फिर लिखा है कि यह वाक्य मुंडकोपनिषद ९, मुंड० २/७/१ सो सुनिये यह भी स्वामी जी ने मिथ्या ही लिखा है, इससे विदित होता है कि स्वामी जी ने कभी मुंडकोपनिषद उठा कर भी नहीं देखा, क्योकि पुरे मुंडकोपनिषद में कुल ३ ही मुंडक है, और इनमें से प्रत्येक मुंडक में दो-दो खंड है अर्थात पुरे मुंडकोपनिषद में कुल  मिलाकर ६ खंड है, जबकि दयानंद लिखते हैं कि यह वाक्य द्वितीय मुंडक के सातवें खंड का पहला मंत्र है, जबकि द्वितीय मुंडक में केवल २ ही खंड है फिर दयानंद ने यह सातवां खंड कहाँ से पैदा कर दिया, और यह जो 'मुंडकोपनिषद ९' ऐसा लिखा है यह क्या है?
अब न्याय दृष्टि से विचारियें कि दयानंद ने वेदों के नाम से कैसी-कैसी झूठी गपौड उडाई है, सृष्टि के आदि में थोक के भाव से, सैकड़ों सहस्रों मनुष्य उत्पन्न नहीं हुए, सृष्टि के आरम्भ में प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, ब्रह्मा जी से विराट, विराट से मनु और मनु से मरीचि, अत्रि, अंगिरा आदि दश महर्षि उत्पन्न हुए, यह बात वेद, उपनिषद, मनुस्मृति आदि से पूर्व वर्णन कर आये हैं,
और सुनिये आगे जो स्वामी जी ने यह दूसरा पद 'ततो मनुष्या अजायन्त’ लिखा है सो यह भी यजुर्वेद में कहीं नहीं लिखा, यह वाक्य यजुर्वेद का नहीं किन्तु शतपथ ब्राह्मण का है, सो इससे भी दयानंद की कपोल कल्पित बात सिद्ध नहीं होती, बल्कि इससे तो उल्टा स्वामी जी का ही पक्ष बिगाड़ता है देखिये स्वामी जी ने 'ततो मनुष्या अजायन्त’ जो यह वाक्य लिखा है इसका अर्थ तो यह हुआ कि तत्पश्चात मनुष्य उत्पन्न हुए, और यह हम पूर्व ही सिद्ध कर आये हैं कि--
 
भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः॥ ~अथर्ववेद {१९/२२/२१}
(भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे) अर्थात सबसे प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए,
 
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत्।
अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः॥३२॥
तपस्तप्त्वासृजद्यं तु स स्वयं पुरुषो विराट्।
तं मां वित्तास्य सर्वस्य स्रष्टारं द्विजसत्तमाः॥३३॥
अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम्।
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश॥३४॥
मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च॥३५॥ ~मनुस्मृति {१/३२-३५}

३२ से ३५ तक के इन श्लोकों का आशय यह है कि तत्पश्चात उन्होंने "संसार की वृद्धि के अर्थ अपने आधे भाग से पुरुष और आधे भाग से स्त्री की सृष्टि की, उनसे प्रथम विराट, विराट से मनु और मनु से दस महर्षि मरीचि, अत्रि, अंगिरा आदि महर्षि उत्पन्न हुए, और ठीक यही बात दयानंद भी मानते हैं देखिये तभी तो उन्होने अपने "सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में पृष्ठ १६८ पर यह लिखा है कि-- ब्रह्मा का पुत्र विराट, विराट का पुत्र मनु और मनु से मरीचि, अत्रि, अंगिरा आदि दश ऋषि उत्पन्न हुए, इससे यही सिद्ध हुआ कि स्वामी जी भी यह मानते हैं कि आदि में प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए और उन्होंने ही सब लोकों, मनुष्य आदि की सृष्टि की है, परन्तु इस बात को खुलकर स्वीकार करने में स्वामी जी की फटती है, क्योकि उन्होंने यह सोचा होगा जो इस बात को खुलकर स्वीकार कर लिया तो उनका यह कपोल मत सनातन धर्म से भिन्न कैसे दिखेगा? इस कारण स्वामी जी ने यह बात कल्पना कर ली कि आदि में सैकड़ों सहस्रों मनुष्य उत्पन्न हुए, परन्तु यह सैकड़ों सहस्रों मनुष्य किस प्रकार उत्पन्न हुए? यह नहीं लिखा, जब तुम्हारा यह मत है बिना स्त्री पुरुष के संयोग के मनुष्य उत्पन्न नहीं हो सकता, तो फिर जो यह आदि में सैकड़ों सहस्रों मनुष्य उत्पन्न हुए लिखा है, क्या यह सब मनुष्य आसमान से टपके थे? यहाँ इस बात का प्रमाण क्यों न लिखा? या यह सैकड़ों सहस्रों मनुष्य भी आपकी ही भांति ग्यारह नियोग से उत्पन्न हुए थे इसलिए आपके लिए यह कह पाना कठिन है कि कौन किससे उत्पन्न हुआ? आपका तो समझ में आता है कि आपको अपने माता पिता का नहीं मालूम कि वे कौन थे? इस कारण अपने आत्मचरित में माता पिता का नाम छोड़ सब लिखा है, लेकिन सब मनुष्यों को अपनी ही भांति नियोग से उत्पन्न मान लेना यह तो गलत है, अरे सैकड़ों सहस्रों नहीं तो कम से कम दो चार का नाम लिखकर अपना मत तो प्रकट करते, तब हम बताते की आप कितने सही और कितने गलत हैं वैसे तो आपके ही द्वारा पृष्ठ १६८ पर लिखे इस एक वाक्य से कि-- ब्रह्मा का पुत्र विराट, विराट का पुत्र मनु और मनु से मरीचि, अत्रि, अंगिरा आदि दश ऋषि उत्पन्न हुए, इससे ही आपकी सब बातों का खंडन हो गया,

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १६६,
(प्रश्न) मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई?
(उत्तर) त्रिविष्टप अर्थात् जिस को ‘तिब्बत’ कहते हैं
पुनः पृष्ठ १६७ पर यह लेख है कि--
(प्रश्न) फिर वे यहाँ कैसे आये?
(उत्तर) जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव अविद्वान् जो असुर, उन में सदा लड़ाई बखेड़ा हुआ किया, जब बहुत उपद्रव होने लगा तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकर यहीं आकर बसे, इसी से इस देश का नाम ‘आर्यावर्त्त’ हुआ
पुनः लेख है कि--
(प्रश्न) प्रथम इस देश का नाम क्या था और इस में कौन बसते थे?
(उत्तर) इस के पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे
समीक्षक— देखिये इस गवर्गण्ड को क्या अंड संड बके जा रहा है, लिखा है कि आदि में मनुष्यों की सृष्टि तिब्बत में हुई, अब कोई इस भंगेडानंद से यह पूछे कि यह बात इसने किस आधार पर लिखीं हैं, यहाँ इस बात में कोई प्रमाण क्यों न लिखा? अब तक तो केवल अंग्रेज ही कहते थे कि आर्य ईरान से आये थे, पर यह क्या इस दयानंद को यह क्या हो गया, यह तो उनसे भी दो कदम आगे निकल कर उससे भी आगे तिब्बत में मनुष्यों की उत्पत्ति लिख मारी, और अब जरा एक दृष्टि दयानंद के इस लेख पर डालकर देखें लिखा है कि-- "जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव अविद्वान् जो असुर, उन में सदा लड़ाई बखेड़ा हुआ किया, जब बहुत उपद्रव होने लगा तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का नाम ‘आर्यावर्त्त’ हुआ
और पुनः पृष्ठ १६८ पर लिखा है कि-- इस के पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे"
अब कोई इस भंगेडानंद से यह पूछे कि इसने कौन से वेदानुसार यह तिब्बत से आने वाली बात लिखीं है, और जो यह 'त्रिविष्टप' को तिब्बत लिखा है यह कौन से कोश में से निकाला है, जहाँ तक मैं जानता हूँ पूर्वकाल वा नवीनकाल का हमारे मत का कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है जिसमें यह बात लिखीं हो, और जहाँ तक स्वामी जी के इस लेख की बात है तो वे तो थे ही थियोसोफिकल सोसायटी नामक ईसाई मिशनरी सभा के सदस्य सो यह बात उन्होंने वही से सिखी होगी, जिसे उन्होंने यहाँ लिख मारा न जाने दयानंद ने इससे अपना क्या लाभ सोचा होगा, अंग्रेजों ने ईरान कहा तो स्वामी जी ने तिब्बत लिखकर चुतियापंति का पहला सर्टिफ़िकेट हासिल करने की दौड़ में सबको पीछे छोड़ दिया, इससे दयानंद और उनके तथाकथित तिब्बती पूर्वजों की मूर्खता भी सिद्ध होती हैं कि 'त्रिविष्टप' जिसका अर्थ स्वर्ग के सदृश हुआ उसे छोड़, उससे श्रेष्ठ आर्यावर्त को जाना, अब जबकि दयानंद ने यह माना कि आर्यावर्त सब भूगोल में श्रेष्ठ स्थान है तो सिद्ध है कि परमेश्वर ने प्रथम सृष्टि इसी देश में कि होगी, और यह भी एक बड़ी अद्भुत बात लिखी कि उत्पत्ति होते ही लड़ाई हुई और इस लड़ाई में विजयी आर्य ही हारे, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, इससे तो यह सिद्ध हुआ कि दयानंद और उनके नियोगी चमचे सब दिन से आर्यावर्त में नहीं रहते थे, क्योकि इससे पूर्व वह तिब्बत में रहते हैं, इससे वह तिब्बती हुए, और इस देश को  उत्तम जान यहाँ आ बसे, सिद्धांत यह कि वेदशास्त्र में जो कुछ आर्यावर्त की महिमा लिखीं हैं दयानंद ने उस पर धूल डाल दी, और यह बात कौन से ग्रंथ में लिखी है कि मनुष्यों की सृष्टि तिब्बत में हुई, जो बिना प्रमाण हमारे अक्ल से पैदल दयानंदी भाई 'त्रिविष्टप' से तिब्बत दयानंद की इस कपोल कल्पना को सही मानते हैं तो ईरान से आर्य अंग्रेजों का यह कथन प्रमाण क्यों नहीं? दयानंद की कपोल कल्पना किस आधार पर सत्य जान लिया, और यदि ऐसा मानते हो कि आर्यों के इस देश में आने से इस देश का नाम आर्यावर्त पड़ा तो इससे पूर्व जिस देश में रहते थे उसका नाम तिब्बत क्यों? उसका नाम भी आर्यवर्त होना चाहिए था और जैसा कि देखने में आता है कि जो जहाँ का होता है उसे उसी नाम से जाना जाता है जैसे ईरान के रहने वाले ईरानी, यूरोप के रहने वाले यूरोपियन, उसी प्रकार तिब्बत के रहने वाले तिब्बती हुए और आर्यावर्त में रहने वाले आर्य कहलाते हैं परन्तु दयानंद तो अंग्रेजों की ही भाँति इससे उल्टी ही बात लिखते हैं इससे ही दयानंद की बुद्धि का पता चलता है, सुनिये आर्य कहीं से आयें नहीं किन्तु सदा से इसी देश में रहने वाले हैं इसी से इस देश को आर्यावर्त कहते हैं जैसा कि मनुस्मृति में लिखा है कि--
 
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादा समुद्राच्च पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः॥ ~मनुस्मृति {२/२२}
पूर्वी (बंगाल के) समुद्र से लेकर पश्चिमी (अरब देश के) समुद्र तक हिमालय और विन्ध्याचल के मध्य स्थित जितना देश हैं उसको आर्यावर्त कहते हैं, और अब दयानंद की उस बात का उत्तर लिखते हैं जिसमें उन्होंने लिखा है कि-- इसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और तिब्बतियों के आने से पूर्व इस देश में कोई नहीं बसता था
 
सरस्वतीदृशद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते॥ ~मनुस्मृति {२/१७}
सरस्वती नदी जो कि गुजरात और पंजाब देश के पश्चिम भाग में बहती है और दृषद्वती नदी जो कि नेपाल के पूर्व भाग में बहती है इन दोनों पवित्र नदियों के मध्य जितना देश हैं वह आर्यावर्त की अपेक्षा से पुण्य देश है और देवताओं द्वारा निर्मित है उसको ब्रह्मावर्त कहते हैं, क्योकि ब्रह्मा जी ने प्रथम मनुष्यों की सृष्टि इसी स्थल में की इस कारण पूर्वकाल में इस देश का नाम ब्रह्मावर्त हुआ, इसके पश्चात अन्य देश बसे और सब देशों के मनुष्यों ने इस देश से विद्या सीखी, सुनिये--
 
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ ~मनुस्मृति {२/२०}
इस देश के उत्पन्न हुए विद्वानों से सारी पृथ्वी के मनुष्य अपने चरित्र और विद्याओं को सीखें यही के लोगों से सबने विद्या सीखी यहाँ यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्मावर्त ही सब की सृष्टि का मूल स्थान है और यही से और देशों को विद्या गईं,

हाँ यदि अब भी दयानंद के नियोगी चमचे यही हठ ठान कर बैठे हैं कि हम तो स्वयं को तिब्बती ही मानेंगे तो, फिर गिरों अंधकूप में हमें क्या?

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १६७,
 
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।
तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते॥ ~मनुस्मृति {२/२०}

समीक्षक— अब जरा एक दृष्टि इस श्लोक पर डालिये, इस श्लोक में भी दयानंद ने उसी प्रकार उल्ट फेर किया हैं जैसा अन्य वेदादि श्रुतियों के साथ किया हैं देखों यहाँ 'देशं ब्रह्मावर्तं' यह पद आया है जिसे दयानंद ने बदलकर उसके स्थान पर 'देशमार्यावर्त्तं' लिख लोगो को भ्रमित करने का प्रयास किया है इसका अर्थ पूर्व लिख आये हैं, अब यहाँ दयानंद से यह प्रश्न है कि जब वह स्वयं निर्मित उल्टी सीधी संस्कृत को ही प्रमाण मानते हैं तो फिर उन्हें मनुस्मृति आदि का बता लोगों को भ्रमित क्यों करना? सिधा सिधा लिख देते की हम मनुस्मृति आदि ग्रंथों को नहीं  बल्कि  स्वयं निर्मित वाक्यों को ही प्रमाण मानते हैं, वेदादि शास्त्रों में मिलावट कर लोगों को भ्रमित क्यों करना?

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १६८,
 
आर्यवाचो म्लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥१॥ ~मनु० {१०/४५}
म्लेच्छदेशस्त्वतः परः॥२॥ ~मनु० {२/२३}
जो आर्यावर्त देश से भिन्न देश हैं वे दस्युदेश और म्लेच्छदेश कहाते हैं
समीक्षक— देखों इस गपोड़ियें को क्या अंड संड लिखा है, यहाँ दयानंद ने यह लीला रची की आधा श्लोक लिखकर आधा श्लोक गडप गये, सुनिये पुरा श्लोक इस प्रकार है कि--
 
मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः।
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥ ~मनुस्मृति {१०/४५}
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र द्वारा अपने क्रियालोप अर्थात अपने कर्तव्यों का त्याग करने से जो अधमजाति उत्पन्न होती है वह दस्यु कहलाती है, फिर चाहे वो मलेच्छ भाषा बोलने वाले हो या आर्य भाषा बोलने वाले, यह इसका अर्थ है,
इसका अर्थ यह नहीं कि इससे भिन्न देश दस्यु देश कहातें है, बल्कि इसका भाव यह है कि आर्यावर्त देश में भी कर्महीन, क्रियाभ्रष्ट लोगों का नाम दस्यु प्रचलित था और जो आधा ही श्लोक प्रमाण मानोगे तो इस श्लोकानुसार (आर्यवाचो म्लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः) जितने लोग स्वयं को आर्य कहते हैं उन सबकी दस्यु संज्ञा हो जायेगी, इससे ही दयानंद की बुद्धि का पता चलता है, दयानंद ने यह नहीं जाना कि इस आधे श्लोक से सबकी दस्यु संज्ञा हो गई फिर चाहे वह मलेच्छ भाषी हो या फिर आर्य भाषी,

और अब एक दृष्टि दयानंद के इस अर्थ पर डालिये, दयानंद ने लिखा है कि-- "जो आर्यावर्त देश से भिन्न देश हैं वे दस्युदेश और म्लेच्छदेश कहाते हैं" इससे तो यह सिद्ध हुआ कि दयानंद और उनके नियोगी चमचे इस देश में आने से पूर्व म्लेच्छदेश (तिब्बत) में रहा करतें थे, इससे दयानंद लेखानुसार उनकी और उनके नियोगी चमचों की मलेच्छ और दस्यु संज्ञा हुई, अर्थात मलेच्छ और दस्यु कोई और नहीं बल्कि तिब्बत से आकर बसे दयानंद और उनके नियोगी चैले ही है, और हमारे इस आर्यावर्त को सब भूगोल में श्रेष्ठ स्थान जानकर यहाँ आ बसे और स्वयं को आर्य पुत्र कथन करने लगे? इससे ही स्वामी जी की बुद्धि का पता चलता है कि उनमें कितनी बुद्धि रही होगी, उन्हें तो अपने पूर्व लिखें लेखों का भी स्मरण नहीं रहता, ऐसा चुतिया व्यक्ति मैंने अपने जीवन में नहीं देखा जो अपने लेख से अपने ही मत का खंडन करता है देखिये जब यहाँ यह माना कि इस आर्यावर्त देश से भिन्न देश दस्युदेश और मलेच्छदेश कहाते है तो इससे तो यही सिद्ध होता कि इस देश में आने से पूर्व दयानंद, उनके पूर्वज और उनके नियोगी चमचे सब के सब मलेच्छदेशी हुए, इसी कारण बोलता हूँ कि यह आधा अधुरा श्लोक लिखकर अर्थ का अनर्थ करना सही नहीं है, सिर्फ अपना स्वार्थ साधने के चक्कर में दयानंद ने यह अधूरा श्लोक यहाँ लिखा है परन्तु उन्होंने यह नहीं सोचा था कि इससे तो उनका ही मत बिगाड़ता, अपने विरुद्ध वह स्वयं खंडन कर रहे हैं, यह स्वामी जी के भंग की तरंग नहीं तो क्या है? भला जिसे अपने पूर्व लिखें लेख ही स्मरण न रहते हो ऐसे भंगेडी की बातों का क्या प्रमाण?

 
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास पृष्ठ १७१,
(प्रश्न) सूर्य चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं?
(उत्तर) ये सब भूगोल लोक और इनमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती हैं क्योंकि-
एतेषु हीदँ सर्वं वसुहितमेते हीदँ सर्वं वासयन्ते तद्यदिदँ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ ~शत० का० १४
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं, जिस लिये वास के निवास करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह?
समीक्षक— अपने इस लेख से तो स्वामी जी ने चुतियापंति के सारे रिकॉर्ड ही तोड़ दिये, इस लेख को पढ़ने मात्र से ही पता चलता है कि दयानंद में कितनी बुद्धि रही होगी, यहाँ प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वाला दोनों ही उच्च कोटि के चुतिया है, देखिये प्रथम तो दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में पृष्ठ १३२ पर यह लिखा है कि- "तेंतीस देवता अर्थात, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र" यहाँ स्वामी ने इन्हें चेतन मान तेंतीस देवों में से यह आठ वसुगण कथन किये, और फिर यहाँ उन्हें जड़ मानकर, उनमें मनुष्यादि प्रजा बसा दी, अब प्रथम तो यहाँ दयानंद से यह प्रश्न है कि इनमें से तुम्हारा कौन सा कथन सत्य मानें? यह आठ वसुगण जो आपने यहाँ कथन किये हैं उन्हें आप क्या मानते हैं जड़ या फिर चेतन?
दूसरा प्रश्न-- जो तुमने यह लिखा है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र आदि ये सब भूगोल लोक है, सो यहाँ यह बताओ कि जल, अग्नि, वायु, आकाश को भूगोल किस आधार पर लिखा है? क्या जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि की भूगोल आकृति आपने कहीं देखी है? इनमें मनुष्यादि प्रजा के बसने योग्य ठोस धरातल है जो इन्हें भूगोल लोक कथन कर दिया, और आकाश जो अनन्त है जिसका अन्त कोई नहीं जानता, आपने उसे भी भूगोल कथन कर दिया, आपके दिमाग का कोई स्क्रु ढिला तो नहीं है।
तीसरा प्रश्न-- अग्नि और सूर्य जो कि सब कुछ भस्म करने का सामर्थ्य रखते हैं आपने उनमें मनुष्यादि प्रजा की मिथ्या कल्पना किस आधार पर की? जबकि आपने स्वयं अपने एकादश समुल्लास में मंत्रों की सिद्धि को नकारते हुए यह तर्क दिया है कि-- "जो कोई यह कहें कि मंत्र से अग्नि उत्पन्न होता है तो वह मंत्र के जप करने वाले के हृदय और जिह्वा को भस्म कर देवें" और इसके विपरीत यहाँ यह दौगलापन दिखाया कि अग्नि सूर्य आदि में मनुष्यादि की सृष्टि लिख मारी, यहाँ तुम्हारा वो सिद्धांत की अग्नि अपने सम्पर्क में आने वाले सब पदार्थ मनुष्यादि को भस्म कर देवें कहाँ घुस गया, यह खड़ा बाल आपमें सनातन मत के विरुद्ध ही क्यों दिखता है? कहिये क्या आपके इस लेखानुसार अग्नि सूर्य आदि में मनुष्यादि प्रजा का होना सम्भव है? क्या यह मनुष्यादि जीवों को भस्म न कर देंगे?
स्वामी जी सूर्य पर मनुष्यादि प्रजा होने की कल्पना करते हैं सो उनसे यह प्रश्न है कि जिस सूर्य का सतही तापमान लगभग ६०००ºC (छ: हजार डिग्री सेल्सियस) और सतही दबाव इतना है कि धातु तक को तरल में परिवर्तित कर दें उस पर मनुष्यादि प्रजा होने जैसी असम्भव बात स्वामी जी के दिमाग में आयी कैसे? यहाँ पृथ्वी पर ही ४०-५०ºC तापमान पर मनुष्य का तेल निकल जाता है और स्वामी जी है कि मनुष्यादि को सूर्य पर बसा रहे हैं धन्य हे! भंगेडानंद जी आपकी बुद्धि,
और सुनिये अपने इस चुतियों वाले लेख में दयानंद ने जो यह शतपथ ब्राह्मण से श्रुति प्रमाण लिखा है और इसका यह अर्थ लिखा है कि-- "एतेषु हीदँ सर्वं वसुहितमेते हीदँ सर्वं वासयन्ते तद्यदिदँ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ ~शत० का० १४
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं। जिस लिये वास के निवास करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह"
यह अर्थ भी दयानंद ने मिथ्या कल्पना किये हैं इस श्रुति का यह अर्थ नहीं बनता, यह मिथ्या अर्थ दयानंद ने अपनी बुद्धि अनुसार कल्पना किया है सो दयानंद का यह अर्थ मानने योग्य नहीं है, सुनिये यह श्रुति इस प्रकार है कि--
अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ ~शतपथ ब्राह्मण {१४/६/९/४}
अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र, यह आठ देव अष्ट वसु इस कारण कहाते है क्योंकि इन्हीं से सम्पूर्ण जगत् सन्निहित है इसलिए इन्हें वसुगण कहते हैं और यही अपने-अपने गुण, कर्म से सबको बसाते है, भाव यह है कि यह आठ वसुगण अपने-अपने गुण कर्म से मनुष्यादि जीवों के बसने योग्य परिस्थिति उत्पन्न करते है, जैसे सूर्य अपने ताप और प्रकाश आदि गुण से सब जगत् को प्रकाशित करता और जल को वाष्प में परिवर्तित कर वर्षा करता है जैसे पृथ्वी मनुष्यादि जीवों के के लिए आश्रय स्थल रूप में और अन्न औषधि आदि से मनुष्यादि जीवों का पालन पोषण करती है, इसी प्रकार यह अष्ट वसु अपने अपने गुणों से मनुष्यादि आदि जीवों को बसाते अर्थात उनके अनुकूल परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं, यह इसका अर्थ है जो दयानंद ने कुछ का कुछ लिख दिया, इसमें यह कही नही लिखा कि सूर्य तारों आदि में मनुष्यादि प्रजा बसते है, यह मिथ्या अर्थ तो दयानंद के कपोल भंडार से निकलें है, इस कारण यह मानने योग्य नहीं,
हाँ यह बात सब विद्वानों के मन में अवश्य आती है कि इस विशाल ब्रह्मांड में पृथ्वी जैसे और भी ग्रह हो सकते हैं, जिनमें शायद हमारी ही भांति मनुष्यादि जीव रहते हो, परन्तु सूर्य तरों आदि ऊर्जा स्रोतों पर मनुष्यादि प्रजा की कल्पना करना सिवाय चुतियों के और किसी के बुद्धि में नहीं आ सकती।


॥इति चुतियार्थप्रकाश अष्टमसमुल्लासस्य खंडनम् समाप्तम्॥



Share This Article:

Related Posts

0 comments

डाउनलोड "दयानंद वेदभाष्य खंडनं " Pdf Book

डाउनलोड "दयानंद आत्मचरित (एक अधूरा सच)" Pdf Book

.

Contact Us

Name

Email *

Message *