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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत पञ्चम समुल्लास की समीक्षा | Pancham Samullas Ki Samiksha

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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत पञ्चमसमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते


 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९२,
 
वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः।
चतुर्थमायुषो भागं त्यक्त्वा संगान् परिव्रजेत्॥ ~मनु०{६/३३}
इस प्रकार वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात् पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ होके आयु के चौथे भाग में संगों को छोड़ के परिव्राट् अर्थात् संन्यासी हो जावे।
(प्रश्न) गृहाश्रम और वानप्रस्थाश्रम न करके-संन्यासाश्रम करे उस को पाप होता है वा नहीं?
(उत्तर) होता है और नहीं भी होता, जो बाल्यावस्था में विरक्त हो कर विषयों में फंसे वह महापापी और जो न फंसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरुष है

समीक्षक— अब दयानंद के लेख से ही दयानंद के सन्यासी होने की परीक्षा करते हैं, तुमने ७५ वर्ष से पूर्व ही सन्यास ले लिया, और विषय संग भी नहीं छोड़ा, तो फिर तुम्हें विषयों में फंसे रहने से पाप ही हुआ, तुमने लक्ष्यों की प्राप्ति का प्रबंध किया, पलंग पर शयन होता, बड़े बड़े तकिये लगे रहते, तरह तरह के स्वादिष्ट भोजन होते, पैर धुलाने को कहार नौकर, चटनी, मुरब्बे, पुरी, हलवे के बिना भोजन अच्छा नहीं लगता था, दुशाले ओढ़े जाते, हुक्का पिया जाता था, पांव में विलायती बूंट, घड़ी आदि पहने जाते, स्वार्थ सिद्धि हेतु ईसाइयों के साथ उठना बैठना था, जहां ठहरते कोठी बंगलों में ही ठहरते इत्यादि फिर तुम्हें इन संगों के करने से पाप ही हुआ

 
 
सत्यार्थ प्रकाश पंञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९३,
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥
~कठ० (वल्ली २ मं० २४)
जो दुराचार से पृथक् नहीं, जिसको शान्ति नहीं, जिस का आत्मा योगी नहीं और जिस का मन शान्त नहीं है, वह संन्यास ले के भी प्रज्ञान से परमात्मा को प्राप्त नहीं होता

समीक्षक— स्वामी जी तुम्हारे अंदर तो शान्ति नाम मात्र भी नहीं थी, जहाँ किसी ने तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहा झट उसको उत्तर देने को कटिबद्ध गालियों की वर्षा करने लगे, अपनी इस सत्यार्थ प्रकाश को ही ले लों, द्वितीय, तृतीया और एकादश समुल्लास में गालियों की वर्षा कर रखी है, आत्मा भी तुम्हारी योगी नहीं थी क्योंकि जब चित्त की वृत्ति ही शान्त न हुई तो फिर आत्मा में योग कहाँ, मन भी तुम्हारा शान्त नहीं था कही कुछ लिखा तो कहीं कुछ हमेशा थुक कर चाटने वाला काम किया इस कारण तुम्हारा सन्यास लेना व्यर्थ ही हुआ

 
सत्यार्थ प्रकाश पंञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९३,
 
अविद्यायामन्तरे वर्त्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
जघंन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥
~मुण्ड० (१ खण्ड २ मं० ८)
जो अविद्या के भीतर खेल रहे, अपने को धीर और पण्डित मानते हैं, वे नीच गति को जानेहारे मूढ़ जैसे अन्धे के पीछे अन्धे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं वैसे दुःखों को पाते हैं

समीक्षक— पंडिताभिमान भी स्वामी जी में थोड़ा नहीं है, देखिए तृतीया समुल्लास में ही विद्या के घमंड में आकर ब्रह्मा से लेकर जैमिनी तक के ग्रंथों में अशुद्धता बता दिया जिन आप्त पुरूषों के बारे में यह लिखा कि वे बड़े विद्वान, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे उन्हीं के ग्रंथों में वेद विरुद्धता ठहराते हो यहाँ तक कि ब्राह्मण ग्रन्थों में भी वेद विरुद्धता ठहरा दिया सर्वशास्त्रवित् महात्मा लोग जो वेदार्थ को सम्यक् प्रकार से जानते थे तुमने उनका अर्थ भी विरुद्ध बताया, सो यह श्रुति तुम्हारे ऊपर ठीक बैठती है, तुम जैसे लोगों की यही दशा होनी चाहिए, और तुम तो हो भी अंधे के चैले सो उसके लक्षण आना तो स्वाभाविक है यह श्रुति तुम पर बराबर बैठती है

 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९३,
 
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे॥
~मुण्ड० ३ । खण्ड २। मं० ६॥
जो वेदान्त अर्थात् परमेश्वर प्रतिपादक वेदमन्त्रें के अर्थज्ञान और आचार में अच्छे प्रकार निश्चित संन्यासयोग से शुद्धान्तःकरण संन्यासी होते हैं, वे परमेश्वर में मुक्ति सुख को प्राप्त हो; भोग के पश्चात् जब मुक्ति में सुख की अवधि पूरी  हो जाती है तब वहां से छूट कर संसार में आते हैं। मुक्ति के विना दुःख का नाश नहीं होता
समीक्षक— न जाने यह कीड़ा तुम्हारी में कहां से घुस गया की मुक्ति के बाद जीव वापस लौट आता है भला वह मुक्ति कैसी जिसके बाद भी जीव जन्म-मरण के बंधन से मुक्त नहीं होता, यह तुम्हारे मन की गढ़ंत ही हैं क्योंकि इस श्रुति में ऐसा कहीं नहीं लिखा कि मुक्ति के बाद जीव वापस लौट आता है, देखिए इसका सही अर्थ इस प्रकार है,-
"विचार जन्य विज्ञान से जिन्होंने वेदांत के अर्थों को यथार्थ जाना है और वे यत्नशील सर्वस्वत्यागरूप सन्यास योग से  शुद्ध चित्त है ऐसे साधक शरीर त्याग ब्रह्मलोक में परम अमृतत्व मुक्ति को प्राप्त होकें, जन्ममरण के बंधन से मुक्त होते हैं,

इसकी विशेष व्याखा नवम समुल्लास के मुक्ति प्रकरण में करेंगे

 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९४,
लोकैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च पुत्रैषणायाश्चोत्थायाथ भैक्षचर्यं चरन्ति॥ ~शत० कां० १४॥
लोक में प्रतिष्ठा वा लाभ धन से भोग वा मान्य पुत्रदि के मोह से अलग हो के संन्यासी लोग भिक्षुक हो कर रात दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं

समीक्षक— दयानंद केवल नाम के ही सन्यासी है यह बात इनके इस लेख से ही सिद्ध हो जाती है क्योंकि स्वामी जी में तो यह इच्छाएं कूट-कूट कर भरी हुई हैं देखिए- लोकैषणा के अर्थ लोक में जन निन्दा करें वा स्तुति, और अप्रतिष्ठा करें तो भी जिसके चित्त में कुछ हर्ष, शोक न हो वही सन्यासी कहलाने योग्य है, लेकिन स्वामी जी की यदि कोई निंदा करता है तो उन्हें कितना दुख होता है तुरन्त उसकों उत्तर देने में कटिबद्ध हो गालियों की वर्षा करने लगते हैं, वित्तैषणा का त्याग भी तुम्हारे अन्दर नहीं पाया जाता, धन की इच्छा यहाँ तक है कि उसकी पूर्ति नहीं होती, धन की प्राप्ति के लिए कैसे-कैसे प्रयत्न किए, भीख मांग-मांग कर अपना निजी यंत्रालय खोला, उसके बाद भी पुस्तकों के मुल्य दोगुने, तीनगुने रखें, तुम्हारी पुस्तक कोई और न छाप सकें इसलिए उसकी रजिस्ट्री करवाईं, पुस्तक विक्रय के व्यवहार से धन आने पर भी व्याकरण की पुस्तक छापने को फिर से धन की सहायता ली, उपदेश मंडली के नाम से एकलक्ष्य रूपया एकत्रित करने में ययथाशक्ति प्रयत्न किया गया, लोभ ने तुम्हारे मन में यहाँ तक निवास किया था कि धनवानों पूंजीपतियों से प्रितिसमेत घंटों वर्ता होती थी, ईसाई मिशनरी सभा और अंग्रेजी दफ्तरों के चक्कर काटा करते थे, निर्धनों की तो बूझ ही न थी, प्रतिष्ठा इतनी चाहते थे कि कोठी, बंगलें और महलों में ही ठहरते थे, पुत्र तो था ही नहीं परन्तु जो मुख्य सेवकादि है उनमें तुम प्रीती करते हो, और उनके सुख दुख में हर्ष, शोक प्रकट करते हो, क्योकि तुमने ही इसी के ऊपर पृष्ठ ९४, पर लिखा है कि जो देहधारी है वह दुख सुख की प्राप्ति से पृथक नहीं रहा सकता, तो लिजिए तुम तीनों एषणाओं से मुक्त नहीं, इसलिए सन्यासी भी नहीं हो, क्योकि तीनों एषणाओं को केवल वही जीत सकता है जो संसार के व्यवहार से कोई सम्बन्ध न रखता हो,

 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९४,
 
प्राजापत्यां निरूप्येष्टि सर्ववेदसदक्षिणाम्।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रवजेद् गृहात्॥
 प्रजापति अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति के अर्थ इष्टि अर्थात् यज्ञ करके उस में यज्ञोपवीत शिखादि चिह्नों को छोड़ आहवनीयादि पांच अग्नियों को प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांच प्राणों में आरोपण करके ब्राह्मण ब्रह्मवित् घर से निकल कर संन्यासी हो जावे

समीक्षक— दयानंद का यह अर्थ भी गलत ही है दयानंद ने यहाँ सर्व वेदस् का अर्थ यज्ञोपवीतादि से लिया है जबकि इसका अर्थ सर्वस्व से है यहाँ प्रजापत्य इष्टि की सर्व वेदस् दक्षिणा लिखीं हैं अब स्वयंवविचार कर देखें कि उक्त इष्टि की दक्षिणा सर्वस्व हो सकती है वा यज्ञोपवीतादिक जिसमें थोड़ी भी बुद्धि होगी वह सर्वस्व ही कहेगा, क्योकि वैराग्य के बिना सन्यास का ग्रहण वृथा है, और जिसने धनादि सर्वस्व पदार्थों का त्याग न किया उसमें वैराग्य कहाँ,

 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९५,
इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग-द्वेष को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्त्तकर मोक्ष के लिये सामर्थ्य बढ़ाया करे

समीक्षक— स्वामी जी में तो विद्या ज्ञान, वैराग्य, जितेन्द्रियता भी नहीं थी, विषय भोग की इच्छा पूर्ण थी, जो विद्या और ज्ञान यथार्थ होता तो परस्पर विरुद्ध शास्त्र प्रतिकूल युक्ति रहित लेख क्यों लिखते, वैराग्य के विरुद्ध धन आदि पदार्थों में राग क्यों होता ? विषय भोग की इच्छा न होती तो उत्तमोत्तम भोजन और वस्त्रों से क्या प्रयोजन था?

 
 सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९६,
सब भूतों से निर्वैर रहे

समीक्षक— आर्य समाज को छोड़कर तो तुम्हारा सबसे विरोध ही था, और प्राचीनाचार्यों के ललिए तुमने कैसे-कैसे दुर्वाक्यों का प्रयोग किया है, यहाँ तक कि आप्त पुरूषों के ग्रंथों का भी अपमान किया, अर्थात तुम सन्यासी नहीं  थे,

 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९५,
जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे तो संन्यासी को उचित है कि उस पर आप क्रोध न करे

समीक्षक— स्वामी जी ने यह बात लिखने को तो लिख दी पर क्या कभी इसका पालन भी किया, कोई तुम पर क्रोध करें और तुम उस पर न करों यह असंभव है, यहाँ तक कि जो लोग तुम्हारी सेवा में लगे रहते थे उनका हृदय भी तुम्हारी क्रोधाग्नि से भस्म हो जाता, जो कोई तुम्हारे दोषों को दोष कहता उसका भी तिरस्कार होता था, सैकड़ों दृष्टांत तुम्हारी बनाई शास्त्रार्थों की पुस्तकों में विद्यमान है, गालियाँ तुम बेधड़क बकते थे, अपने इस सत्यार्थ प्रकाश में ही देख लिजिए, और बिना क्रोध कोई गालियाँ नहीं बकता इससे सिद्ध होता है कि आप केवल नाम के सन्यासी थे,

 
 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९८,
सम्यङ् नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यङ् न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स संन्यासः, स प्रशस्तो विद्यते यस्य स संन्यासी जो ब्रह्म और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात् स्थित और जिस से दुष्ट कर्मों का त्याग  किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिस में हो वह संन्यासी कहाता है
समीक्षक— वाह जी वाह! क्या अर्थ किया है? दुष्ट कर्मों का त्याग करने का नाम सन्यास है फिर तो श्रेष्ठ आचरण वाले सब ही गृहस्थ पुरूष सन्यासी हो गये, ऐसे तो सब हैं श्रेष्ठ आचरण पुरूष घर बैठे सन्यासी बन जावें, इसलिए तुम्हारा यह सिद्धांत गलत है सुनिए जिसने सर्वस्व त्याग दिया अर्थात जो संसार के व्यवहार से कोई सम्बन्ध नहीं रखता वह सन्यासी होता है
 
सत्यार्थ प्रकाश पञ्चम समुल्लास पृष्ठ ९९,
 
विधानि च रत्नानि विविक्तेषूपपादयेत्॥ ~{मनु० ११/६}
नाना प्रकार के रत्न सुवर्णादि धन संन्यासियों को देवें
समीक्षक— वाह रे धूर्तानंद वाह! धन का लोभ तेरे मन में इस प्रकार घर किया हुआ कि उसकी पूर्ति ही नहीं होती, लोगों से ज्यादा से ज्यादा द्रव्य हडपनें को यह छल कपट फैलाया की मनुस्मृति के नाम से मिथ्या श्लोक कल्पना कर लिया, सारी मनुस्मृति छान मारों पर यह श्लोक कहीं नहीं मिलने वाला,  कई दयानंदी इसके उत्तर यह श्लोक देते हैं कि दयानंद ने इस श्लोक के आशय से यह श्लोक कल्पना किया है,
 
धनानि तु यथाशक्ति विप्रेषु प्रतिपादयेत्।
वेदवित्सु विविक्तेषु प्रेत्य स्वर्गं समश्नुते॥
~मनुस्मृति [अ० ११, श्लोक ६]
प्रथम तो कोई इन स्वामी जी से यह पूछे की उसके बाप का राज चल रहा है जो जब चाहा मूहँ उठा के उल्टी सीधी संस्कृत गढ़ उसे मनुस्मृति का बता दिया, वो भी ऐसी बात कल्पना की जो शास्त्र विरुद्ध तो है ही साथ ही इस श्लोक से भी कोई सम्बन्ध नहीं रखता, विद्वान जन स्वयं विचारें इसमें कहीं भी सन्यासी को द्रव्य देने का पद लिखा ही नहीं है, किन्तु वेदविद् ब्राह्मणों को जो वेदों का ज्ञाता है उसको धनादि का दान देना कथन किया है देखिए इसका अर्थ इस प्रकार है- “जो ब्राह्मण वेदों का ज्ञाता और कुटुंबी हो ऐसे ब्राह्मणों को यथाशक्ति दान दक्षिणा देना चाहिए, ऐसे ब्राह्मणों को दान देने से शरीर त्यागाने उपरान्त स्वर्ग की प्राप्ति होती है”
सन्यासी का यहाँ कोई प्रकरण नहीं, दयानंद ने तो ऐसी अद्भुत बात कह दी जो बात किसी धर्मशास्त्र में न लिखीं होगी, सन्यासी को तो चाहिए कि--
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।
अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः॥
~मनुस्मृति [अ० ६, श्लोक ३५]
इन तीनों ऋणों (देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण) से उद्धार होकें, मन को मोक्ष में लगावें, इन तीनों ऋणों से मुक्त हुए बिना जो मोक्ष की इच्छा रखता है अर्थात सन्यासी होता है वह नरक में गिरता है,स्वामी जी ने इस श्लोक को न विचारा, और देखिए-
एककालं चरेद्भैक्षं न प्रसज्जेत विस्तरे।
भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति॥ 
~मनुस्मृति [अ० ६, श्लोक ५५]
सन्यासी को चाहिए कि एक समय भिक्षा मांगकर उसी से अपना पालन करें, उसे एक से ज्यादा बार भिक्षा मांगने की प्रवृत्ति से दूर रहना चाहिए, एक से अधिक बार भिक्षा मांगने के लोभ में फंसा सन्यासी विषयों में फंसने लगता है,ठीक स्वामी जी की भांति, और सुनिए,
अभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः।
अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बध्यते॥
~मनुस्मृति [अ० ६, श्लोक ५८]
आदर सहित मिलने वाली स्वादिष्ट भिक्षा की सन्यासी को उपेक्षा करनी चाहिए, क्योकि उसके स्वाद में रस नहीं लेने पर भी सन्यासी को वह यजमान के स्नेह बंधन में जकड़ती है,
परन्तु स्वामी जी के तो प्रतिदिन विविध प्रकार के उत्तमोत्तम भोजन बनते थे, सन्यासी को पेड़ के नीचे भूमि पर ही सोना, बैठना, एक समय भोजन करना आदि लिखा है जिसने सर्वस्व त्याग कर दिया जो संसार के व्यवहार से कोई सम्बन्ध न रखता उसे सन्यासी कहते हैं, क्योकि बिना वैराग्य सन्यास नहीं होता और जिसने धनादि सर्वस्व पदार्थों का त्याग न किया उसमें वैराग्य कहाँ इसलिए जिसका धनादि से मोह भंग नहीं हुआ वह सन्यासी नहीं हो सकता, भला जिसने सर्वस्व त्याग कर दिया जिसे संसार के व्यवहार से कुछ भी सम्बन्ध नहीं वह नाना प्रकार के रत्न सुवर्णादि धन का क्या करेगा? सन्यासी के लिए तो यह सब धूल समान ही है लेकिन स्वामी जी में इनमें से एक भी लक्षण नहीं मिलता, इस कारण उनका सन्यास लेना व्यर्थ ही हुआ,


॥इति चुतियार्थप्रकाश पञ्चमसमुल्लासस्य खंडनम् समाप्तम्॥



 

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