आर्य समाज एवं नास्तिको को जवाब,
आर्य समाज मत खण्डन,
दयानंद का कच्चा चिट्ठा,
दयानंदभाष्य खंडनम्,
दयानन्द कृत वेदभाष्यों की समीक्षा
स्वामी दयानंद एकादश नियोग की देन | Swami Dayanand Aekadas Niyog KI Dain
सनातन
धर्म से भिन्न दयानंद द्वारा चलाए गये वेद विरुद्ध मतों में से एक मत है पशुधर्म नाम
से विख्यात “नियोग प्रथा” दयानंद ने अपने तथाकथित ग्रंथ “सत्यार्थ प्रकाश” में लगभग
पूरा एक समुल्लास इस पशुधर्म नियोग पर ही लिखा है, और वेदादि शास्त्रों के अर्थ का
अनर्थ कर अपने अनुयायियों के साथ साथ समस्त भारतवर्ष को इस महाअधर्म व्यभिचार नियोग नामक अंधकूप में धकेलने
का असफल प्रयास किया है, वेद मनुस्मृति आदि के अर्थ का अनर्थ कर नियोग सिद्ध किया है
जिससे धर्म के न जानने वाले लोगों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है, सो इस लेख के
माध्यम से मैं दयानंद के उन मिथ्या भाष्यों की धज्जियां उडाते हुए, प्रमाण के साथ यह
सिद्ध करकें दिखाऊंगा की दयानंद द्वारा चलाया यह पशुधर्म नियोग वेद विरुद्ध होने से मनुष्यों के लिए निषिद्ध है
अर्थात मनुष्यों को यह पशुधर्म त्यागने योग्य है, सो अब एक एक करकें दयानंद के उन सभी
वेद विरुद्ध भाष्यों का खंडन करते हैं जिनके अर्थ का अनर्थ कर दयानंद ने नियोग सिद्ध
किया है सुनिये--
(दयानंद कृत ॠग्वेदभाष्य, भाष्य-१)
सोम: प्रथमो विविदे गन्ध्र्वो विविद उत्तरः।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तु रीयस्ते मनुष्यजाः॥
~ऋ० {मं० १०, सू० ८५, मं० ४०}
दयानंद
अपने ऋग्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि—
“हे स्त्री! जो (ते) तेरा (प्रथमः) पहला विवाहित (पतिः) पति तुझ को (विविदे)
प्राप्त होता है उस का नाम (सोमः) सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से सोम जो दूसरा नियोग
होने से (विविदे) प्राप्त होता वह, (गन्धर्व:) एक स्त्री से संभोग करने से गन्धर्व,
जो (तृतीय उत्तरः) दो के पश्चात् तीसरा पति होता है वह (अग्निः)- अत्युष्णतायुक्त होने
से अग्निसंज्ञक और जो (ते) तेरे (तुरीयः) चौथे से लेके ग्यारहवें तक नियोग से पति होते
हैं वे (मनुष्यजाः) मनुष्य नाम से कहाते हैं | जैसा (इमां त्वमिन्द्र) इस मन्त्रा में ग्यारहवें पुरुष तक स्त्री नियोग
कर सकती है, वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री तक नियोग कर सकता है”
समीक्षक-- स्वामी जी ने तो ऐसी हठ ठानी है कि अर्थों का अनर्थ कर दिया है इस मंत्र
का यह अर्थ नहीं जैसा कि स्वामी नियोगानंद जी ने किया है देखिए इसका सही अर्थ इस प्रकार
है कि--
सबसे
(प्रथम:)= पहले, (सोम:)= सोम, (विवदे)= इस कन्या को प्राप्त हो, {अर्थात कन्या के माता
पिता सब से पहले तो ये देखें कि उसका पति 'सोम' है या नहीं, पति का स्वभाव सौम्य है
या नहीं, तत्पश्चात इस कन्या को (गन्धर्व:)= 'गां वेदवायं धारयति' ज्ञान की वाणियों
को धारण करने वाला हो, यह (उत्तर:)= अधिक उत्कृष्ट होता है, कि{ सौम्यता यदि पति का
पहला गुण है तो ज्ञान की वाणियों को धारण करना उसका दुसरा गुण है, (तृतीय:)= तीसरा,
(अग्नि:)= प्रगतिशील मनोवृत्ति वाला हो {अर्थात तेरा पति वह है जो आगे बढ़ने की वृत्तिवाला
हो }, (तुरीय:)=चौथा, (मनुष्यजा:)= वह मनुष्य की संतान हो, {अर्थात जिसमें मानवता हो,
जिसका स्वभाव दयालुता वाला हो क्रूरता वाला नहीं}, (ते)= तेरा, (पति:)= पति है
भाव
यह है कि—“कन्या व उसके माता पिता उसके पति में निम्न विशेषताएं अवश्य देखें कि पहला
तो वह सौम्य हो सौम्यता पति का पहला गुण है, दुसरा गन्धर्व ज्ञान की वाणियों को धारण
करने वाला हो अर्थात ज्ञानी हो, तीसरा प्रगतिशील मनोवृत्ति वाला हो, चौथा वह मनुष्यजा
मनुष्य की संतान हो अर्थात जिसमें मानवता हो जिसका स्वभाव दयालुता वाला हो क्रूरता
वाला नहीं”
इस मंत्र
में कहीं भी नियोग तो क्या नियोग कि गंध तक नहीं है परन्तु स्वामी नियोगानंद जी ने
इसके अर्थ का ऐसा अनर्थ किया कि पूछें मत, अब बुद्धिमान लोग एक बार स्वयं स्वामी जी
द्वारा किये भाष्य पर दृष्टि डालकर बताए कि दयानंदी लोग क्या उसी स्त्री से विवाह करते
हैं जो प्रथम एक से विवाह और दो से नियोग कर चुकी है?
धन्य
हे! यही तो धर्म और स्वामी जी की शर्म है और पूर्व के विरुद्ध यहाँ ही दूसरा विवाह
निकाल दिया,
अब विचारने
की बात है यदि स्वामी नियोगानंद जी का किया अर्थ माने तो, न जाने वह पहला विवाहित सोम
संज्ञावाला पति अपने जीते जी अपनी पत्नी गन्धर्व संज्ञावाले नियोगी पति को क्यों देगा?
और वह गन्धर्व नियोगी अपने जीते हुए अग्नि संज्ञावाले नियोगी पति को क्यों देगा? और
चौथा ही पति मनुष्य क्यों कहाता है? क्या वे पिछले तीन किसी जानवर की सन्तान हैं?
और तीसरे
को ही अग्नि कि संज्ञा क्यों? शायद वो हमेशा यह सोच कर जलता रहता हो कि पहले के समान सुकुमारतादि गुण और में
क्यों नहीं इत्यादि इत्यादि। इस कारण दयानंद के किये सब अर्थ भ्रष्ट है
इसके
अतिरिक्त और भी मंत्र जैसे--
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां
सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं
कृधि॥
~ऋ० {मं० १०, सू ० ८५, मं० ४५}
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप
शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि
सं बभूथ॥
~ऋ० {मं० १०, सू० १८, मं० ८}
इत्यादि
मंत्रों के अर्थ का अनर्थ करकें नियोग बनाया है अर्थात नियोग झूठ से सिद्ध किया है,
जबकि इन सभी मंत्रों में कहीं भी नियोग की गन्ध तक नहीं है।
सिर्फ
अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दयानंद ने वेद मंत्रों के साथ कैसा अनर्थ किया वह आप
सबके सामने ही है, और सुनिये
(दयानंद कृत ऋग्वेदभाष्य, भाष्य-२)
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां
सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि॥
~ऋ० {मं० १०, सू ० ८५, मं ० ४५}
दयानंद
अपने ऋग्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि—
“हे
(मीढ्व इन्द्र) वीर्य सेचन में समर्थ ऐश्वर्ययुत्तफ पुरुष !तू इस विवाहित स्त्री वा
विध्वा स्त्रिायों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर, इस विवाहित स्त्री में दश
पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान !हे स्त्री !तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त
पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ”
समीक्षक-- धन्य है! स्वामी जी कलयुग तो धिरे-धिरे आता था अपने उसे शीघ्र प्रवर्त
करने का ढंग निकाला, जैसा कि आपने अपने सत्यार्थ प्रकाश में इस श्रुति के अर्थ यह लिखा
कि "एक स्त्री चार नियुक्त पुरुषों के अर्थ और दो अपने लिए पुत्र उत्पन्न कर लें"
यह तो जैसे घर की खेती समझ ली की जब गये पुत्र हो गया, कन्या का कोई नाम ही नहीं बस
पुत्र ही पुत्र होंगे, यदि यह ईश्वर की आज्ञा है तो ईश्वर सत्यसंकल्प है सबके पुत्र
ही उत्पन्न होने चाहिए कन्या एक भी नहीं, बस सारा नियोग यही समाप्त हो जाता है, परन्तु
यह देखने में नहीं आता तुम तो अपने मिथ्या भाष्यों से ईश्वर को भी झूठा बनाते हो, इसलिए
इस श्रुति का अर्थ यह नहीं बनता जैसा तुमने किया है बहुत से लोग निसंतान भी होते हैं
यह व्यभिचार प्रचार मूर्ख नियोग समाजीयों के साथ साथ समस्त भारतवासियों को घोर अंधकार
में डालने वाला है, इसमें वेद मंत्रों को क्यों सानते हो? यदि इतनी ही ज्यादा खुजाई
मच रही थी तो कोई अपनी ही मिथ्या संस्कृत बना लेते, तुम्हारे चैले तो उसे भी पत्थर
की लकीर मान लेते, देखिए वेदों में ऐसी बातें कभी नहीं होती, यह मंत्र विवाहप्रकरण
का है जो आशीर्वाद के अर्थ में है और इसका अर्थ इस प्रकार है कि--
हे
(इन्द्र)= इन्द्र परमएश्वर्य युक्त देव (मीढ:) सर्वसुखकारी पदार्थों की वृष्टि करने
वाले, (त्वम्)= आप, (इमाम्)= इस स्त्री को भी, (सुपुत्राम् सुभगम्)= पुत्रवती धनवती (कृणु)= करें और, (दश)= दश इसमें,
(पुत्रान्)= पुत्रों को धारण करो, भाव यह है कि दश पुत्र पैदा करने के अदृष्ट इस स्त्री
में स्थापित करों, और (एकादशं)= ग्यारहवां, (पतिम्)- पति को, (कृधि)= करों अर्थात जीवित
पति और जीवित पुत्र इसको करों, यह मंत्र आशिर्वाद के अर्थ है, जो स्वामी नियोगानंद
जी ने कुछ का कुछ लिख दिया है, और स्वामी जी ने यह न सोचा कि यदि एकादश पति पर्यन्त
नियोग करने की ईश्वर की आज्ञा है, तो ईश्वर तो सत्यसंकल्प है तब तो सब स्त्रीयों के
दश-दश पुत्र से कम नहीं होने चाहिए यदि दश से कम होंगे तो ईश्वर का संकल्प निष्फल होगा,
इससे स्वामी जी का किया अर्थ अशुद्ध है।
अब विचारने
की बात यह है कि इसमें नियोग प्रचारक कौन सा शब्द है? जिस मंत्र मे नियोग कि गंध तक
नही है स्वामी नियोगानंद जी ने उसे भी नियोग से जोड दिया, दयानंद जी ने तो यह समझ लिया
कि हमारे अनुयायी हमारे वाक्यों को पत्थर की लकीर मानते हैं और वेदभाष्य भी हमारा किया
ही मानते हैं इसलिए जो चाहे सो अंड संड बकवास किये जायें, इस हिसाब से तो तुम्हारे
मत में किसी के दश से कम पुत्र नहीं होने चाहिए और जिनके दश से कम है वह तुम्हारे वाक्यानुसार
कुछ चिंता करें, और दश संतान में समय कितना लगेगा यह न लिखा तुमने। और सुनिये,
(दयानंद कृत ऋग्वेदभाष्य, भाष्य-३)
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप
शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि
सं बभूथ॥
~ऋ० {मं० १०, सू० १८, मं० ८}
अपने
ऋग्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि—
“हे (नारि) विध्वे तू (एतं गतासुम) इस मरे हुए पति की आशा छोड़ के (शेषे)
बाकी पुरुषों में से (अभि जीवलोकम) जीते हुए दूसरे पति को (उपैहि) प्राप्त हो और (उदीष्र्व)
इस बात का विचार और निश्चय रख कि जो (हस्तग्राभस्यदिधिषो:) तुम विध्वा के पुनः पाणिग्रहण
करने वाले नियुक्त पति के सम्बन्ध् के लिये नियोग होगा तो (इदम्) यह (जनित्वम्) जना
हुआ बालक उसी नियुक्त (पत्युः) पति का होगा और जो तू अपने लिये नियोग करेगी तो यह सन्तान
(तव) तेरा होगा। ऐसे निश्चययुक्त (अभि सम् बभूथ) हो और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का
पालन करे”
समीक्षक-- स्वामी जी का यह भाष्य पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी के सर में
बुद्धि कम गोबर ज्यादा भरा है देखिए, इधर पति मरा पड़ा है, स्त्री जिसका वह पालक पोषक
नाथ था, उसके शोक में विलाप करती है, और स्वामी जी उसी समय उसको कहने लगे कि इसे छोड़
औरों को पति बना लें, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, स्वामी जी ने सिर्फ अपना स्वार्थ साधने
के लिए वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ किया है देखिए इसका सही अर्थ इस प्रकार है--
हे
(नारि)= स्त्री, तेरे पति मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं इसलिए, (उदीर्ष्व)= उठ और
इस, (जीवलोकम् अभि)= जीवित संसार अपने पुत्रादि और घर-परिवार का तू ध्यान कर, इस प्रकार
(गतासुम)= गत प्राण, (एतम्)= इस पति के, (उपशेष)= समीप बैठ शौक करने का क्या लाभ?
(एहि)= उठ और अपने घर को गमन कर, (हस्तग्राभस्य)= अपने गर्भ में सन्तान को स्थापित
करने वाले, (तव पत्यु:)= अपने पति की,(इदं जनित्वम्)= इस सन्तान को, (अभि)= ध्यान करती
हुई, (संबभूथ)= अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए यत्नशील हो।
अब विचारने
की बात यह है इसमें नियोग प्रचारक कौन सा शब्द है? इस मंत्र में तो नियोग का कुछ भी
आशय नहीं निकलता, और जबकि उसके पास बालक मौजूद हैं फिर भला उसे इस महाअधर्म व्यभिचार
नियोग की क्या आवश्यकता है? अब बुद्धिमान स्वयं विचारें की स्वामी जी ने इसमें कितने
मंत्रार्थ बदले हैं और अर्थ का अनर्थ कर लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया है। और
सुनिये,
(दयानंद कृत ऋग्वेदभाष्य, भाष्य-४)
अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा पशुभ्यः
सुयमा सुवर्चाः।
प्रजावती वीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं
गार्हपत्यं सपर्य॥
~अथर्व० {का० १४, अनु० २, मं० १८}
दयानंद
अपने ऋग्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि—
“हे
(अपतिघ्न्यदेवृघ्नि) पति और देवर को दुःख न देने वली स्त्री तू (इह) इस गृहाश्रम में
(पशुभ्यः) पशुओं के लिये (शिवा) कल्याण करनेहारी (सुयमा) अच्छे प्रकार धर्म-नियम में
चलने (सुवर्चाः) रूप और सर्वशास्त्रा विद्यायुक्त (प्रजावती) उत्तम पुत्र पौत्रादि
से सहित (वीरसूः) शूरवीर पुत्रों को जनने (देवृकामा) देवर की कामना करने वाली (स्योना)
और सुख देनेहारी पति वा देवर को (एधि) प्राप्त होके (इमम्) इस (गार्हपत्यम्) गृहस्थ
सम्बंधी (अग्निम्) अग्निहोत्रा का (सपर्य) सेवन किया करें”
समीक्षक-- स्वामी जी यहाँ भी अर्थ का अनर्थ करने से न चूंके, देखिए इस मंत्र में
“देवृकामा” इस पद से यह अर्थ सिद्ध नहीं होता
कि वह देवर से भोग करना चाहती है, और जबकि पति है तो भला वह दुसरे पुरुष की इच्छा क्यों
करेगी? और कामना विद्यमानता में नहीं होती, अविद्यमानता में होती है, यदि वह देवर को
पति रूप में चाहती तो “देवरि पतिकामा”
ऐसा प्रयोग हो सकता है, सो मंत्र में किया नहीं इससे नियोग सिद्ध नहीं होता, किन्तु
यह ऐसे स्थान का प्रयोग है, जिस स्त्री के देवर नहीं वह चाहती है कि यदि मेरे ससुर
के बालक हो तो मैं देवर वाली होऊं, ऐसी स्त्री को देवृकामा कहते हैं, जैसे भ्रातृ रहित
कन्या में “भ्रातृकामा” यह प्रयोग बनता है कि मेरे भाई
हो तो मैं बहन कहाऊं, ऐसे ही यह देवृकामा शब्द है इससे नियोग सिद्ध नहीं होता, अब इसका
यथार्थ अर्थ सुनिए--
हे स्त्री
तू, (अपतिघ्न्यदेवृघ्नि)= पति और देवर को दुख न देने वाली, (एधि)= वृद्धि को प्राप्त
हो, अर्थात देवर आदि कुटुम्बियों से विरुद्ध मत करना, (इह)= इस गृहाश्रम में, (पशुभ्य:)=
पशुओं के लिये, (शिवा)= कल्याणकारी, (सुयमा)= अच्छे प्रकार धर्म नियम में चलने वाली,
(सुवर्चा:)= रूप गुणयुक्त, (प्रजावती)= उत्तम पुत्र पौत्रादि सहित, (वीरसू:)= वीर पुत्रों
को जन्म देने वाली, (देवृकामा)= देवर के होने की प्रार्थना करने वाली, (स्योना)= सुखिनी,
(इमम्)= इस, (गार्हपत्यम्)= गृहस्थ सम्बन्धी, (अग्रिम्)= अग्निहोत्र को, (सपर्य)= सेवन
किया करें।
यह इसका
अर्थ है स्वामी जी ने यह नहीं सोचा कि उनका यह भाष्य और भी कोई देखेगा तो क्या कहेगा?
यह विवाह सम्बन्धी मंत्र नियोग में लगाये हैं, धन्य है तुम्हारी बुद्धि, अब यदि तुम्हारी
अश्लील बुद्धि में केवल उल्टी बातें ही आती है तो सुनिये इस श्रुति में कथन है कि--
तदा रोहतु सुप्रजा या कन्या विन्दते
पतिम्॥ ~अथर्व० {१४/२/२२}
स्योना भव श्वशुरेभ्यः स्योना पत्ये
गृहेभ्यः।
स्योनास्यै सर्वस्यै विशे स्योना
पुष्टायैषां भव॥ ~अथर्व० {१४/२/२७}
हे स्त्री
तू ससुर, पति और घर के कुटुम्बियों सभी के अर्थ सुख देने वाली हो।
अब यदि
तुम्हारा किया अर्थ ही सही माने तो यहाँ पति, ससुर दोनों के लिए (स्योना) पद आया है
अर्थात सुख देने वाली हो एवं सब ही कुटुम्बियों को सुख देने वाली लिखा है, तो क्या
जो पति के संग व्यवहार करें, वही सबके साथ करें? यह कभी नहीं हो सकता पति को और प्रकार
का सुख, और ससुरादि को सेवा आदि से सुख देती है, यह नहीं कि सुख देने से सबके संग भोग
के ही अर्थ हो जाये, इससे स्वामी जी के किये सब अर्थ भ्रष्ट है मिथ्या है,
इससे
यही सिद्ध होता है कि स्वामी का चलाया यह महाअधर्म व्यभिचार नियोग झूठ से सिद्ध होता
है, इसी प्रकार दयानंद ने अन्य ग्रंथों के अर्थ का अनर्थ कर नियोग सिद्ध करने का असफल
प्रयास किया है,
दयानंदी-- तुम नियोग को वेद विरुद्ध कहते हो तो क्या जो ये मनुस्मृति आदि ग्रंथों
में नियोग कथन किया है वह सब मिथ्या है?
देखिये
स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में मनुस्मृति से नियोग का प्रमाण देते हुए यह लिखा
है कि—
“प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योsष्टौ
नरः समाः।
विद्यार्थं षड् यशोsर्थं वा कामार्थं
त्रीस्तु वत्सरान्॥१॥
वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे दशमे
तु मृतप्रजाः।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥२॥
~मनु० {९/७६,८१}
विवाहित
स्त्री जो विवाहित पति धर्म के अर्थ परदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या और कीर्ति के
लिये गया हो तो छः और धनादि कामना के लिये गया हो तो तीन वर्ष तक बाट देख के, पश्चात्
नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर ले, जब विवाहित पति आवे तब नियुक्त पति छूट जावे॥१॥
वैसे
ही पुरुष के लिये भी नियम है कि वन्ध्या हो तो आठवें (विवाह से आठ वर्ष तक स्त्री को
गर्भ न रहै), सन्तान होकर मर जायें तो दशवें, जब-जब हो तब-तब कन्या ही होवे पुत्र न
हों तो ग्यारहवें वर्ष तक और जो अप्रिय बोलने वाली हो तो सद्यः उस स्त्री को छोड़ के
दूसरी स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लेवे॥२॥“
क्या
इन प्रमाणों से नियोग सिद्ध नहीं होता? कहिये!
समीक्षक-- यह अर्थ दयानंद के कपोल भंडार से निकलें है, इन दोनों ही श्लोकों में
कहीं भी नियोग तो क्या नियोग की गंध तक नहीं है, और यह क्या बात हुई कि यहाँ पहला श्लोक
तो ९ वें अध्याय का ७६ वां और दूसरा श्लोक ८१ वां लिखा है और इन दोनों का दयानंद ने
एक ही प्रसंग लगा दिया, जबकि इनमें से एक में भी नियोग तो क्या नियोग की गंध तक नहीं
है, देखों इससे पहले यह श्लोक हैं कि--
विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत्कार्यवान्नरः।
अवृत्तिकर्शिता हि स्त्री प्रदुष्येत्स्थितिमत्यपि॥७४॥
विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता।
प्रोषिते त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः॥७५॥
प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ
नरः समाः।
विद्यार्थं षड्यशोऽर्थं वा कामार्थं
त्रींस्तु वत्सरान्॥७६॥
इसका
अर्थ यह है कि-- जब कोई पुरुष परदेश को जाये तो प्रथम स्त्री के खान पान का प्रबंध
करता जाये, क्योकि बिना प्रबंध क्षुधा के कारण कुलीन स्त्री भी दूसरे पुरुष की इच्छा
कर सकती हैं॥७४॥
खान
पान की व्यवस्था करकें परदेश जाने के अनन्तर उस पुरुष की स्त्री नियम अर्थात पतिव्रत
से रहकर अपना समय व्यतीत करें, और जब भोजन को न रहे या पुरुष पुरा बंदोबस्त करकें न गया हो तो पति के परदेश होने तक शिल्पकर्म जो
निन्दित न हो अर्थात सूत कातना हस्त से काढना आदि कर्मों से गुजरा करें॥७५॥
यदि
वह परदेश धर्म कार्य को गया हो तो आठ वर्ष, विद्या पढने गया हो तो छ: वर्ष, धन यश को
गया हो तो तीन वर्ष तक राह देखें, पश्चात पति के पास जहाँ हो वहाँ चली जावें॥७६॥
अब तुम
ही बताओ कि इसमें नियोग की बात कहा से आ गई और यह हम पहले ही कह चुके हैं कि मनु जी
इस महाअधर्म नियोग का समर्थन नहीं करते, बल्कि मनु जी तो इसे पशुधर्म बताते हुए, इस
महाअधर्म व्यभिचार नियोग की घोर निंदा करते हैं, सुनिये मनु जी नियोग की निंदा करते
हुए मनुस्मृति में यह लिखते हैं कि--
नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः
कीर्त्यते क्व चित्।
न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः॥
{९.६५}
पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो
वा मृतस्य वा।
पतिलोकमभीप्सन्ती नाचरेत्किं चिदप्रियम्॥
{५/१५६}
कामं तु क्सपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः
शुभैः।
न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते
परस्य तु॥ {५/१५७}
आसीता मरणात्क्सान्ता नियता ब्रह्मचारिणी।
यो धर्म एकपत्नीनां काङ्क्षन्ती
तमनुत्तमम्॥ {५/१५८}
अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम्।
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम्॥
{५/१५९}
मृते भर्तरि साढ्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये
व्यवस्थिता।
स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते
ब्रह्मचारिणः॥ {५/१६०}
अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते।
सेह निन्दामवाप्नोति परलोकाच्च
हीयते॥ {५/१६१}
पतिं हित्वापकृष्टं स्वमुत्कृष्टं
या निषेवते।
निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति
चोच्यते॥ {५/१६३}
व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके
प्राप्नोति निन्द्यताम्।
शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च
पीड्यते॥ {५/१६४} ~मनुस्मृति
जो वेद
मंत्र विवाह के संबंध में कहें गए हैं उसमें न तो नियोग का वर्णन है और न ही विधवा
विवाह का॥
अगले
जन्म में अच्छा पति पाने की इच्छा रखने वाली
स्त्री को इस जन्म में विवाहित पति की जीवन-अवधि में अथवा उसकी मृत्यु हो जाने पर उसे
बुरा लगने वाला कोई कार्य नहीं करना चाहिए॥१५६॥
स्त्री
अपने पति की मृत्यु हो जाने के पश्चात फल-फूल और कन्द-मूल खाकर अपना शरीर चाहे सुखा
ले पर भूल कर भी दूसरे पुरूष के संग की इच्छा न करें॥१५७॥
पतिव्रता
स्त्री को पति के मृत्यु के बाद पुरा जीवन क्षमा, संयम, तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते
हुए गुजारना चाहिए, उसे सदाचारणी स्त्रीयों द्वारा आचरण योग्य उत्तम धर्म का पालन करने
पर गर्व करना चाहिए॥१५८॥
यदि
किसी स्त्री के पति की मृत्यु बिना किसी संतान को उत्पन्न किए हो जाए तब भी स्त्री
को अपनी सद्गति के लिए दूसरे पुरुष का संग नहीं करना चाहिए,॥१५९॥
सन्तान
उत्पन्न नही करने वाले ब्रह्मचारीयों की तरह पति की मृत्यु के बाद ब्रह्मचर्य पालन
करने वाली स्त्री पुत्रवती नही होने पर भी स्वर्ग प्राप्त करती है॥१६०॥
पुत्र
प्राप्ति की इच्छा से जो स्त्री पतिव्रत धर्म को तोड़ कर दूसरे पुरुष के साथ संभोग
करती है उसकी इस संसार में निंदा होती है तथा परलोक में बुरी गति मिलती है॥१६१॥
कम गुणों
वाले अपने पति का त्याग कर जो स्त्री अधिक गुणों वाले अन्य पुरुष का संग करती हैं वह
इस संसार में निंदा का पात्र बनती है और दो पुरूषों की अंकशायिनी बनने का कलंक लगवाती
है॥१६३॥
पति
के सिवाय दूसरे पुरुष से संभोग करने वाली विवाहित स्त्री इस संसार में निंदा का पात्र
तो बनती ही है और मरने के बाद गीदड़ की योनि
में जन्म लेती हैं, वह कोढ़ जैसे अनेक असाध्य रोगों से पीड़ा पाति है॥१६४॥
अब कहों
क्या तुमने और तुम्हारे इस निर्बुद्धि दयानंद ने मनुस्मृति में यह श्लोक नहीं देखें?
अवश्य देखें होंगे परन्तु लिखते कैसे इच्छा तो भारतवर्ष की समस्त स्त्रीयों को व्यभिचारीणी
बनाने की थी, भारतवर्ष को इस पशुधर्म की ओर धकेलने की थी, और देखिये तुम्हारे स्वामी
जी ने जो यह दूसरा श्लोक लिखा है, (वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे०) इसके अर्थ भी
गडबड लिखें हैं, सुनिये इसका सही अर्थ इस प्रकार है कि--
वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे दशमे
तु मृतप्रजाः।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥
पत्नि
यदि वन्ध्या हो तो आठ वर्ष, बार-बार मृत बच्चों को जन्म देती हो तो दश वर्ष, या केवल
कन्याओं को ही जन्म देती हों तो ग्यारह वर्ष उपरान्त पति दुसरा विवाह करने का अधिकारी
है और यदि पत्नि अप्रिय बोलने वाली है तो पति तत्काल दुसरा विवाह कर सकता है।
यह इसका
अर्थ है, अब कहों इसमें नियोग की बात कहाँ से आ गई, भला इसमें नियोग विषयक ऐसा कौन
सा पद है जिससे कि नियोग सिद्ध होता है, यह नियोग की बात तुम्हारे स्वामी जी के कपोल
भंडार से प्रकट हुई है, इस कारण दयानंद के किये सभी अर्थ अशुद्ध होने से, मानने योग्य
नहीं,
दयानंदी-- तो क्या मनुस्मृति से नियोग सिद्ध नहीं होता?
समीक्षक-- नहीं, और इस बात का प्रमाण हम पूर्व लिख आये हैं।
दयानंदी-- यदि ऐसा मानते हो तो सुनिये, स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के
चतुर्थ समुल्लास में पुनः मनुस्मृति से प्रमाण लिखा है कि—
“देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिाया सम्यघ् नियुक्तया।
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥१॥
ज्येष्ठो यवीयसो भार्य्या यवीयान्वाग्रजस्त्रिायम्।
पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥२॥
औरसः क्षेत्राजश्चै०॥३॥ ~मनु०{अ० ८, श्लोक ५८-६०}
(सपिण्ड)
अर्थात् पति की छः पीढि़यों में पति का छोटा वा बड़ा भाई अथवा स्वजातीय तथा अपने से
उत्तम जातिस्थ पुरुष से विध्वा स्त्री का नियोग होना चाहिये, परन्तु जो वह मृतस्त्रीपुरुष
वा विध्वा स्त्री सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करती हो तो नियोग होना उचित है, और जब सन्तान
का सर्वथा क्षय हो तब नियोग होवे, जो आपत्काल अर्थात् सन्तानों के होने की इच्छा न होने में बड़े भाई की स्त्री से
छोटे का और छोटे की स्त्री से बड़े भाई का नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति हो जाने पर भी
पुनः वे नियुक्त आपस में समागम करें तो पतित हो जायें, अर्थात् एक नियोग में दूसरे
पुत्र के गर्भ रहने तक नियोग की अवधि है”
अब तुम
कहों क्या इससे नियोग सिद्ध नहीं होता?
समीक्षक-- तुम चुतिया हो, और तुमसे भी बड़ा चुतिया है तुम्हारा यह निर्बुद्धि दयानंद,
सुनो तुमने यह श्लोक तो पढ़े पर यह जाना कि यह श्लोक यहाँ किस सन्दर्भ में लिखा है,
मनुस्मृति में लिखीं सब ही बातों को मनु जी का मत जान लेना, इसी से दयानंद की बुद्धि
का पता चलता है, सुनिये यह मत मनु जी का नहीं
बल्कि राजा वेन का है जिसे मनु जी अपने ग्रंथ में इस कारण कथन किया है क्योंकि उस समय
राजा वेन के राज में यह पशुधर्म नियोग चलन में था, यह पशुधर्म राजा वेन ने आरंभ किया
और उसने नियोग के जो-जो नियम चलाए उसे मनु जी ने अपने ग्रंथ में लिखा है जिससे सब मनुष्य
यह बात भलीभाँति समझ सकें कि क्या धर्म है और क्या अधर्म? और यह हम पूर्व ही सिद्ध
कर आये हैं कि मनु जी इस पशुधर्म नियोग के घोर विरोधी थे, सुनिये मनु जी, राजा वेन
द्वारा चलाये इस महाअधर्म नियोग की निंदा करते हुए लिखते हैं कि--
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या या गुरुपत्न्यनुजस्य
सा।
यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य
सा स्मृता॥ -{९/५७}
व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके
प्राप्नोति निन्द्यताम्।
सृगालयोनिं चाप्नोति पापरोगैश्च
पीड्यते॥ -{९/३०}
नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या
द्विजातिभिः।
अन्यस्मिन् हि नियुञ्जाना धर्मं
हन्युः सनातनम्॥ -{९/६४}
नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः
कीर्त्यते क्व चित्।
न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः॥
-{९/६५}
अयं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो
विगर्हितः।
मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं
प्रशासति॥ -{९/६६}
स महीमखिलां भुञ्जन् राजर्षिप्रवरः
पुरा।
वर्णानां संकरं चक्रे कामोपहतचेतनः॥
-{९.६७}
ततः प्रभृति यो मोहात्प्रमीतपतिकां
स्त्रियम्।
नियोजयत्यपत्यार्थं तं विगर्हन्ति
साधवः॥ -{९/६८} ~मनु०
छोटे
भाई के लिए बड़े भाई की पत्नी गुरु पत्नी तुल्य, और बड़े भाई के लिए छोटे भाई की पत्नी
पुत्रवधू जैसी होती है॥
यदि
विवाहित स्त्री परपुरूष का संग करती है तो वह इस लोक में निन्दित होती है, और अनेक
यौन सम्बन्धी रोगों से ग्रसित हो जाती है तथा मृत्यु के बाद गीदड़ी के रूप में जन्म
लेती है॥
ब्राह्मणादि
तीनों वर्णों की विधवा स्त्री को परपुरूष का संग नहीं करना चाहिए, दूसरे पुरुष का संग
करने से स्त्री सनातन एक पतिव्रत धर्म को नष्ट करती है और उससे उत्पन्न संतान धर्म
का विनाश करने वाली होती है॥
जो वेद
मंत्र विवाह के सम्बन्ध में कहें गये हैं, उनमें न तो नियोग का वर्णन है और न ही विधवा
विवाह का॥
नियोग
का प्रयोग राजा वेन के शासनकाल में अवश्य हुआ था लेकिन तब भी विद्वज्जनों ने इसे पशुधर्म
बताते हुए मनुष्यों के लिए निषिद्ध बताया था॥
जो राजा
वेन सम्पूर्ण धरती को भोगने वाला चक्रवर्ती सम्राट था, कामवासना के वशीभूत हो उसी राजा ने वर्णसंकर संतान उत्पन्न करने
के दुष्चक्र(नियोग) का आरम्भ किया॥
उस राजा
वेन के समय से यह रीति चली और जो उसकी मति
मानने वाले लोग शास्त्र के न जानने वाले विधवा स्त्री को परपुरूष के साथ योजना करते
हैं, उस विधि को साधु पुरुष निन्दा करते हैं॥
इससे
सिद्ध होता है कि यह पशुधर्म नियोग राजा वेन ने आरम्भ किया, और मनु जी नियोग प्रथा
के घोर विरोधी थे, मनु जी ने इस महाअधर्म नियोग की तुलना पशुधर्म से करते हुए इसकी
बहुत निन्दा की है, जो विद्वान लोग हैं वे इस बात को भलीभाँति समझते हैं, मुझे तो तुम्हारे
स्वामी जी राजा वेन के ही अवतार मालूम पड़ते हैं, या राजा वेन के भी बाप, दादा या गुरु
कहूं तो गलत नहीं होगा, क्योकि उसने तो केवल अपनी ही जाति में नियोग चलाया और एक ही
संतान उत्पन्न करने को कहा, परन्तु तुम्हारे दयानंद तो सब ही जाति में नियोग करना और
ग्यारह तक पति बनाने की आज्ञा करते हैं, यह पशुधर्म दयानंद ने चलाया जो राजा वेन से
प्रारम्भ हुआ है इससे पता चलता है कि दयानंद धर्म के नहीं अधर्म के फैलाने वाले हैं।
अब जबकि
वेदादि प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि नियोग झूठ से सिद्ध होता है, धर्मशास्त्रों
के अनुसार भी विद्वज्जनों ने इसे पशुधर्म बताते हुए मनुष्यों के लिए निषिद्ध बताया
और इस महाअधर्म व्यभिचार नियोग की खुब निंदा की है, फिर भी न जाने क्यों स्वामी नियोगानंद
जी बार-बार वेदादि ग्रंथों के अर्थ का अनर्थ कर इस पशुधर्म नियोग को सिद्ध करने का
असफल प्रयास करते हैं, इससे मन में शंका उत्पन्न होती हैं कि स्वामी जी अपने पिता की
ही पैदाइश है या फिर ग्यारह नियोग की!
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