सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत द्वितीय समुल्लास की समीक्षा | divitya Samullas Ki Samiksha
सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत
द्वितीयसमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते
॥ शिक्षाप्रकरणम् ॥
❝धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान
से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो तब तक सुशीलता का उपदेश करे❞
समीक्षा—
स्वामी का यह लेख पढ़कर विदित होता है कि उनका मानसिक संतुलन हिल गया है जो लिखते हैं
कि "गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो तब तक सुशीलता का उपदेश करे"
ये सब बकरे का दूध, घी खाने का परिणाम है, भला गर्भाधान में सुशीलता का उपदेश किस प्रकार
हो सकता है, (दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य अध्याय २८/३२ मे लिखते है कि जैसे बैल गौओं
को गाभिन करके पशुओ को बढ़ाता है वैसे ही तुम स्त्रियों को भी करों) कही स्वामी जी का
तात्पर्य यही तो नही, कि समाजी स्त्रियां उसी प्रकार गर्भधारण करें जिस प्रकार बैल
गौओं को गाभिन करता है, धन्य हे! स्वामी जी आपकी बुद्धि, और आपकी शिक्षा और धन्य हे!
वे दयानंदी जो दयानंद के इन उपदेशों को मानते हैं,
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २४
❝माता और पिता को अति उचित
है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गन्ध, रूक्ष, बुद्धिनाशक
पदार्थों को छोड़ के जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को
प्राप्त करें❞
समीक्षा—
शिक्षा तो अच्छी है पर अफसोस स्वामी जी की ये बात उनके चैले न मान सकेंगे, क्योकि जब
उपदेश करने वाले दयानंद ही इन अवगुणों को त्याग न सकें और जीवन पर्यन्त बुद्धिनाशक
पदार्थों का सेवन करते रहे, (जैसे कि स्वामी जी ने अपने आत्मचरित में कहा है कि मुझे
भंग पीने की धूम्रपान आदि करने की ऐसी लत लगीं कि कभी कभी तो इसके चलते मैं सर्वथा
बेहोश हो जाया करता था और दूसरे दिन ही होश हो पता था, और उसी आत्मचरित में मांसभक्षियों
के घर का भोजन लेकर खाना भी स्वीकार किया है),
तो
अब ध्यान देने वाली बात है कि जब उपदेश करने वाला स्वयं इन अवगुणों का त्याग न कर सका,
तो भला उनके चैले इसका कितना पालन करेंगे, बुद्धिमान लोग समझ सकते हैं
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २४
❝जैसा ऋतुगमन का विधि अर्थात्
रजोदर्शन के पांचवें दिवस से लेके सोलहवें दिवस तक ऋतुदान देने का समय है उन दिनों
में से प्रथम के चार दिन त्याज्य हैं, रहे १२ दिन, उनमें एकादशी और त्रयोदशी को छोड़
के बाकी १० रात्रियों में गर्भाधान करना उत्तम है❞
फिर
आगे पृष्ठ २६ पर प्रश्न संबंध से लिखते हैं कि-
❝(प्रश्न) तो क्या ज्योतिषशास्त्र
झूठा है?
(उत्तर)
नहीं, जो उसमें अंक, बीज, रेखागणित विद्या है वह सब सच्ची, जो फल की लीला है वह सब
झूठी है❞
समीक्षा—
क्यों साहब? आपका यह लेख जो कि मनुस्मृति के इन श्लोकों से उध्दृत है-
ऋतुः
स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः।
चतुर्भिरितरैः
सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः॥१॥
तासामाद्याश्चतस्रस्तु
निन्दितैकादशी च या।
त्रयोदशी
च शेषास्तु प्रशस्ता दशरात्रयः॥२॥
युग्मासु
पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु।
तस्माद्युग्मासु
पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्॥३॥
बताये
यह ज्योतिष विद्या से सम्बन्ध रखता है या नहीं? और ज्योतिष किसकों कहते हैं? और यह
रात्रि त्याज्या इसी कारण है, कि इनमें गर्भाधान करने से आपकी भांति संतान उत्पन्न
होती है, और शेष रात्रियों में श्रेष्ठ संतान उत्पन्न होती है, यह मनु जी ने लिखा है,
त्याज्य रात्रियों में दुष्ट और प्रशस्त रात्रियों में श्रेष्ठ संतान उत्पन्न होना
यह फल नहीं तो क्या है? धन्य हे! आपकी बुद्धि, आप तो फल मानते भी नहीं और यहाँ गुप्त
रूप से लिख भी दिया, इस पुस्तक के आरंभ से आपका यही ड्रामा चालू है, पहले तो स्वयं
ही लिखते हैं और बाद में अपने ही विरुद्ध खंडन भी करते हैं ऐसे लक्षण तो सिर्फ महाधूर्त,
मूर्ख और गवर्गण्डों में ही देखने में आते हैं न कि किसी सिद्ध पुरुष में,
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २५
❝क्योंकि प्रसूता स्त्री के
शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है उस
समय उसके दूध में भी बल कम होता है, इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे, दूध रोकने
के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो, ऐसे करने से दूसरे
महीने में पुनरपि युवती हो जाती है❞
समीक्षा—
देखें इन गवर्गण्ड दयानंद कि पोप लीला यदि इनकी चले तो यह प्रकृति का नियम भी बदल दें,
पर इसमें इनकी चल नहीं सकती, पाठकगण! ध्यान दें स्वामी जी लिखते हैं कि “स्त्री प्रसव
समय निर्बल हो जाती है उस समय उसके दूध में भी बल कम होता है, इसलिये प्रसूता स्त्री
दूध न पिलावे, दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे जिससे दूध स्रवित
न हो”
क्यों
न पिलावे उसका कारण नीचे लिखते है कि “ऐसे करने से दूसरे महीने में पुनरपि युवती हो
जाती है”
वाह
रे! मेरे ठरकी दयानंद स्त्रीयों के यौवन का
बड़ा ध्यान है आपको, स्त्री का फिगर खराब न हो फिर चाहे बच्चा भाड में जाए, तुम लिखते
हो कि "प्रसूता स्त्री दूध में बल कम होता है, इसलिए दूध न पिलावे", यह तो
बड़ी अनोखी और नई बात सुन रहा हूँ आपके द्वारा, जो बात संसार में किसी ने न कही और
न सुनी होगी वो आप अपने इस लेख में लिखते हैं, इससे ही आपकी बुद्धि का पता चलता है,
मैं तो कहता हूँ आपके अंदर बुद्धि की बहुत कमी है, प्रसूता स्त्री का दूध तो बच्चे
के लिय अमृत तुल्य है, जो नाना प्रकार के रोगादि से उसकी रक्षा करती है, प्रकृति स्वतः
ही यह अमृत निर्माण करती है, और आप कहते है कि प्रसूता स्त्री के दूध मे बल नही होता,
ऐसा कहकर स्वामी जी क्यो अपने माता के दूध का अपमान करते हो? आप ही बताये यदि बच्चे
के लिए प्रसूता स्त्री का दूध अवश्यक न होता तो फिर प्रकृति स्वतः ही यह अमृत निर्माण
क्यों करती?
यहाँ
तक कि चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञों के अनुसार भी--
१•
जन्म के आधे घंटे के अंदर प्रसूता स्त्री बच्चे को अपना दूध पिलाये, माँ का पहला दूध
गाढ़ा और पीले रंग का होता है, जिसे 'खिरसा' कहते हैं, यह खिरसा नवजात शिशु का पहला
टीका है जो अनेक संक्रामक रोगों से बचाता है, प्रसूता स्त्री का दूध बच्चे के लिय अमृत
तुल्य है, प्रकृति स्वतः ही यह अमृत निर्माण करती है, यदि इसे रोका जाये तो स्तन में
गांठे पड़ जाती हैं जो की अत्यधिक पीड़ादायक होती हैं और आगे चलकर स्तन कैंसर का भी कारण
बन सकती हैं
२•
सिर्फ स्तनपान-
पहले
छः माह तक माँ के दूध के अलावे बच्चे को ना तो कुछ खिलाए और ना ही पिलाए इसका अर्थ
यह है कि बच्चे को पानी, पानी मिश्री, पानी ग्लूकोज, दूसरा कोई आहार आदि कोई चीज नहीं
देना चाहिए, यह सब बच्चे के लिए हानिकारक हो सकता है, डॉ0 की सलाह पर, जरूरत पडने पर,
विटामिन या दवाई पिलाया जा सकता है।
३•
गर्मी के मौसम में भी माँ के दूध के अलावा पानी देना जरूरी नहीं है, पानी पिलाने से
शिशुओं में दूध पीने की इच्छा कम हो जाती है जबकि पानी बीमारी का जड़ भी हो सकता है,
दूसरा कोई भी पेय पदार्थ सफल स्तनपान में बाधक बन जाता है, मगर छः माह तक सिर्फ स्तनपान
कराते रहने से बच्चों के मस्तिष्क का संपूर्ण विकास होता रहता है जिससे बच्चा तेज बृद्धि
वाला हो जाता है।
इससे
बच्चों मे छुआछुत रोग, दमा, एक्जिमा एवं अन्य एलर्जी रोग होने की संभावना की कम होती
है,
अब
आप बताए कहाँ की प्रसूता स्त्री के दूध में इतनी विशेषताएं हैं और कहाँ आप कहते हैं
कि "प्रसूता स्त्री के दूध में बल नहीं
होता" इसलिए उसे व्यर्थ ही समझें, शोक है ऐसी बुद्धि पर,
नवजात
शिशु के लिए प्रसूता स्त्री का दूध कितना जरूरी है ये केवल वही समझ सकता है जिसकी माता
ने उसे दूध पिलाया हो और जिसकी माता ने फिगर को देखते हुए डब्बे का दूध पिलाया हो वो
तो इसे आपकी भांति व्यर्थ ही समझेगा, नवजात शिशु माता का दूध नहीं तो क्या भांति नर
बकरे का दूध पिये? और तो और आपने उस औषधि का नाम भी नहीं बताया जिसके लेप से दूध का
स्त्राव रूक जाए यदि बता देते तो विषयी स्त्रियाँ आपसे बहुत खुश होती, मैने तो ये भी
सुना है कि प्रसूता स्त्री के स्तन मे यदि दूध स्त्रावित ना हो या मात्रा अधिक हो जाती
है तो स्त्री को काफी पीड़ा का सामना करना पड़ता है फिर आज के डॉक्टर्स भी यही सलाह देते
है कि पीड़ा दूध के अत्यधिक दबाव की वजह से है, तो ऐसे मे दयानंद का दूध स्त्रावित ना
होने देने से क्या तातपर्य है?
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २५
❝बालकों को माता सदा उत्तम
शिक्षा करे, जिससे सन्तान सभ्य हों और किसी अंग से कुचेष्टा न करने पावें,
,,,,,,,, उपस्थेन्द्रिय से स्पर्श और मर्दन से वीर्य की क्षीणता, नपुंसकता होती और
हस्त में दुर्गन्ध भी होता है इससे उसका स्पर्श न करें❞
समीक्षा—
वाह रे वाह! सत्यार्थ प्रकाश के बनाने वाले लालभुजक्कड़? क्या कहना! तुझ को ऐसी-ऐसी
अश्लील बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म न आई, निपट अन्धा ही बन गया तू जन्मते
ही क्यों नहीं गर्भ ही में नष्ट हो गया? वा जन्मते समय मर क्यों न गया? कम से कम समाजी
स्त्रीयाँ इस महापाप से तो बच जाती,
तनिक
स्वयं विचार कर देखें कि माता जब इस शिक्षा को करेगी तब लज्जा जो स्त्री जाति का आभूषण
होता है कोने में को रख देवेगी, क्योंकि ये धूर्त अश्लील बुद्धि दयानंद इसी में ऊपर
लिखता है कि 'माता इस प्रकार शिक्षा करें' इस धूर्त ने सोचा होगा कि कहाँ तक समझता
फिरूगाँ अब हर किसी को मेरी भांति सेक्सी उपन्यास पढने व लिखने का अभ्यास तो है नहीं
इसलिए ये बोझ स्त्रीयों पर ही दे मारा,
हो
सकता है मूलशंकर की माता ने उसे अंगों के साथ कुचेष्टा करते पकड़ा हो और फिर मुलशंकर
को इस प्रकार शिक्षा करी हो कि “उपस्थेन्द्रिय से स्पर्श और मर्दन से वीर्य की क्षीणता,
नपुंसकता होती और हस्त में दुर्गन्ध भी होती है इससे उसका स्पर्श न करें” तभी तो स्वामी
जी यह शिक्षा माता को करनी लिखते है
और
दयानंद ने जिस विश्वास के साथ यह लेख लिखा है उससे तो यही विदित होता है कि दयानंद
ने इसका कितना अभ्यास किया होगा, शोक हे! दयानंद की बुद्धि पर, तुमने तो महापाप को
भी शिक्षा का अंग बना दिया, कम से कम लिखने से पहले तनीक विचार तो लिया होता कि माता
के द्वारा ऐसी शिक्षा करने को लिखकर कैसा महापाप, कैसा अधर्म फैलाया है?
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २६
❝गुरो: प्रेतस्य शिष्यस्तु
पितृमेधं समाचरन्।
प्रेतहारैः
समं तत्र दशरात्रेण शुद्ध्यति॥
~मनु०
{अध्याय ५ श्लोक ६५}
अर्थ-जब
गुरु का प्राणान्त हो तब मृतकशरीर जिस का नाम प्रेत है उस का दाह करनेहारा शिष्य प्रेतहार
अर्थात् मृतक को उठाने वालों के साथ दशवें दिन शुद्ध होता है। और जब उस शरीर का दाह
हो चुका तब उस का नाम भूत होता है अर्थात् वह अमुकनामा पुरुष था। जितने उत्पन्न हों,
वर्त्तमान में आ के न रहें वे भूतस्थ होने से उन का नाम भूत है। ऐसा ब्रह्मा से लेके
आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है परन्तु जिस को शंका, कुसंग, कुसंस्कार होता
है उस को भय और शंकारूप भूत, प्रेत, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल दुःखदायक होते
हैं
,,,,,,,,,अज्ञानी
लोग वैद्यक शास्त्र वा पदार्थविद्या के पढ़ने, सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपातज्वरादि
शारीरिक और उन्मादादि मानस रोगों का नाम भूत प्रेतादि धरते हैं।
,,,,,,,परन्तु
जो कोई बुद्धिमान् उनकी भेंट ‘पांच जूता, दण्डा वा चपेटा, लातें मारें’ तो उसके हनुमान्,
देवी आदि झट प्रसन्न होकर भाग जाते हैं❞
समीक्षा—
स्वामी जी जब कोई बात बनाते हैं तो कोई न कोई श्लोक आदि लिखकर उसके अर्थ का अनर्थ कर
देते हैं वहीं चुतियापंति इस श्लोक में भी फैलाई है देखिए (पितृमेधं समाचरन्) इस पद
का अर्थ ही न लिखा, अब कहें यह स्वामी जी का दौगलापन नही तो क्या है? इसका अर्थ इस
प्रकार है
गुरो:
प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन्।
प्रेतहारैः
समं तत्र दशरात्रेण शुद्ध्यति॥~मनु० [५/६५]
अर्थ-
गुरु का स्वर्गवास होने पर शिष्य गुरु की अंत्येष्टि क्रिया, पिंडादि विधान करता हुआ
शव को उठाने वाले के साथ दसवें दिन शुद्ध होता है,
और
प्रेतयोनि एक पृथक है जिसको जीव प्राण त्यागने के उपरांत कर्मानुसार प्राप्त होता है,
जिसका प्रमाण वेदादि ग्रंथों में भी है, ये देखें--
यमो
नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ।
यत्रा
नः पूर्वे पितरः परेता एना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः॥१॥
प्रेहि
प्रेहि पथिभिः पूर्याणैर्येना ते पूर्वे पितरः परेताः।
उभा
राजानौ स्वधया मदन्तौ यमं पश्यासि वरुणं च देवम्॥२॥ ~अथर्ववेद
और
दयानंद की बुद्धि देखें लिखते हैं कि—“और जो वर्तमान में आकर न रहे वो भूत कहलाता है”
स्वामी जी का यह लेख समय का बोधक है और इसका
यहाँ कोई मतलब नहीं बनता और यदि दयानंद इसे मनुष्यों पर लगाते हैं तो अब दयानंद भी
मरकर भूत संज्ञक हुए, इसलिए यह शिक्षा दयानंदीयों को ग्रहण करने योग्य है अब दयानंदीयों
को चाहिए कि गुरू आज्ञा का पालन करते हुए दयानंद के नाम के पीछे भूत और लगा दें तो
परम हंस की शोभा बढ़ जाएगी,
दयानंद
लिखते हैं कि “ऐसा ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है” जब जब
दयानंद अपनी मिथ्या बातों को सिद्ध करने के लिए ब्रह्मादि के नाम का सहारा लेते हैं
तो मन करता है कि स्वामी जी को चार जूते भेंट स्वरूप दे दूँ कसम से इतना बड़ा दौगला
मैंने आज तक नहीं देखा, जो बिना प्रमाण अपनी गढ़ंत को ब्रह्मादि का सिद्धांत लिख दें,
अरे धूर्त! कोई प्रमाण तो लिख दिया होता की ऐसा कहाँ लिखा है, ब्रह्मादि ने तो ऐसा
कहीं नहीं लिखा यह तो तुम्हारे ही दिमाग की उपज हैं तुम हर जगह अपना मुँह क्यों छिपाते
हो? क्या यहाँ भी पिता जी का डर है जो वो आकर पकड़ ले जायेंगे, अपना नाम क्यों नहीं
लिखते कि मैं ऐसा मानता हूँ आप भूत, प्रेतादि को नहीं मानते क्योकि आप दौगले हो, देखों
मनुस्मृति, सुश्रुतसंहिता, वेदादि ग्रंथों से आपको इसके प्रमाण देते हैं,--
यक्षरक्षःपिशाचांश्च
गन्धर्वाप्सरसोऽसुरान्।
नागान्
सर्पान् सुपर्णांश्च पितॄणांश्च पृथग्गणम्॥
~[मनुस्मृति
: १/३७]
उसके
बाद परमात्मा ने यक्ष, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, नाग, सर्प और पितृगणों
की सृष्टि की।
ये
गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः।
पिशाचान्त्सर्वा
रक्षांसि तान् अस्मद्भूमे यावय॥
~[अथर्ववेद-
१२/१/५०]
अर्थ-
हे भूमे! जो गन्धर्व, अप्सरा, किमी दिन, मांसभक्षि पिशाच और राक्षसी वृत्तियों वाले
आततायी है उन्हें हमसे दूर करें।
ये
दस्यवः पितृषु प्रविष्टा ज्ञातिमुखा अहुतादश्चरन्ति।
परापुरो
निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टान् अस्मात्प्र धमाति यज्ञात्॥ ~[अथर्ववेद- १८/२/२८]
अर्थ-
जो दुष्ट प्रेतात्मा ज्ञानवान पितरों के समान आकृति बनाकर पिता, पितामह आदि पितरों
में मिल बैठें है, और आहूति देने पर छल से हवि-भषण करते हैं तथा जो पिंडदान करने वाले
पुत्र, पौत्रों को हिंसित करते हैं, हे अग्निदेव! आप उन छदमवेशधारी असुरों को बाहर
करें।
ये
रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना ऽ असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति।
परापुरो
निपुरो ये भरन्त्य् अग्निष्टाँन् लोकात् प्र णुदात्य् अस्मात्॥
~[यजुर्वेद-
२/३०]
अर्थ-
हे अग्निदेव! जो असुरी शक्तियाँ पितरों को समर्पित अन्न का सेवन करने के लिए अनेक रूप
बदलकर सुक्ष्म या स्थूलरूप से आती और नीच कर्म करती है, उन्हे इस पवित्र स्थान से दूर
करें।
येऽमावास्यां
रात्रिमुदस्थुर्व्राजमत्त्रिणः।
अग्निस्तुरीयो
यातुहा सो अस्मभ्यमधि ब्रवत्॥
~[अथर्ववेद-
१/१६/१]
अर्थ-
अमावस्या की अंधेरी रात के समय मनुष्यों पर घात करने वाले तथा उनको क्षति पहुचाने वाले,
जो असुरादि विचरण करते हैं, उन असुरों के सम्बंध में असुर विनाशक चतुर्थ अग्निदेव हमें
अभय करें, रक्षा करें।
अपां
मा पाने यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम्।
तदात्मना
प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु॥१॥
दिवा
मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम्।
तदात्मना
प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु॥२॥
क्रव्यादमग्ने
रुधिरं पिशाचं मनोहनं जहि जातवेदः।
तमिन्द्रो
वाजी वज्रेण हन्तु छिनत्तु सोमः शिरो अस्य धृष्णुः॥३॥ ~[अथर्ववेद- ५/२९/८-१०]
अर्थ-
जो पिशाच जलपान, यात्रा, शयन के समय हमें पीडित किया करते हैं, वह अपनी प्रजा सहित
दूर हो जाएं और वह रोगी निरोगी हो जाए॥१॥
जो
पिशाच रात अथवा दिन में बिस्तर पर सोते समय हमें पीडित करते हैं वे पिशाच अपनी प्रजा
सहित हमसे दूर हो जाएं और रोगी निरोगी हो जाएं॥२॥
हे
अग्ने! आप इन मांसभक्षक, रक्तभक्षक और मन को कष्ट करने वाले पिशाच को नष्ट करें, शक्तिशाली
इन्द्र उन्हें वज्र से मारें और सोमदेव उनका शीश काट दें॥३॥
इससे
प्रकट होता है कि राक्षस, पिशाचादि विघ्नदायक होते हैं और मंत्रों के प्रभाव से दूर
होते हैं, 'सुश्रुतसंहिता' में भी इस प्रकार कथन है--
यद्यथा
शल्यं शालाक्यं कायचिकित्सा भूतविद्या कौमारभृत्यम् अगदतन्त्रं रसायनतन्त्रं वाजीकरणतन्त्रमिति॥
~[सुश्रुतसंहिता
: प्रथमोऽध्याय:, सूत्रस्थान- ७]
अर्थ-
सुश्रुत के अनुसार आयुर्वेद के आठ अंग ये हैं-शल्य, शालाश्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या,
कौमारभूत्य, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र और वाजीकरण तन्त्र, महर्षि सुश्रुत भूतविद्या को
चौथे स्थान पर रखते हुए लिखते हैं कि-
भूतविद्या
नाम देवासुरगन्धर्वयक्षरक्षः पितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम्॥
~[सुश्रुतसंहिता-
प्रथमोऽध्याय:, सूत्रस्थान- ११]
अर्थ-
महर्षि सुश्रुत ने भूत विद्या के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से लिखा है कि जिस विद्या
द्वारा देव, दैत्य, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग ग्रहों आदि से पीड़ित व्यक्ति
का शान्ति कर्म, बलिदान आदि कर्म क्रियाओं द्वारा उपरोक्त देवादि देवों का उपशमन होता
है वह भूतविद्या कही जाती है।
यहाँ
भी यह योनि वर्णन करी है जिनको बलिदान देने से मनुष्य पर जो आच्छादन होता है सो जाता
रहता है
अब
बोलों क्या बोलते हो पोप (दयानंद) जी? क्या वेद और वैदिक ऋषियों के इस कथन को भी मिथ्या
बोलोगें?
आप
सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ २६ में लिखते हैं कि "अज्ञानी लोग वैद्यक शास्त्र वा पदार्थविद्या
के पढ़ने, सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपातज्वरादि शारीरिक और उन्मादादि मानस रोगों
का नाम भूत प्रेतादि धरते हैं।
,,,,,,,परन्तु
जो कोई बुद्धिमान् उनकी भेंट ‘पांच जूता, दण्डा वा चपेटा, लातें मारें’ तो उसके हनुमान्,
देवी आदि झट प्रसन्न होकर भाग जाते हैं"
आप
एक वैश्या के हाथों ऐसे ही खर्च नहीं हुए आपकी ऐसी दर्दनाक मृत्यु का कारण देवताओं
को ऐसे अपशब्द बोलना ही है, अच्छा हुआ जो आपके जैसा भांड समय रहते इस धरती से उठ गया
वर्ना आप इन वैदिक ऋषियों और देवताओं को भी इसी प्रकार ‘पांच जूता, दण्डा वा चपेटा,
लात मारना लिख देते
आप
अज्ञानी किन्हें कहते हैं? क्योकि वेदों में तो भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस, पिशाच, गन्धर्व,
अप्सरा, असुरादि विघ्नदायक आसुरी शक्तियों और उनसे रक्षा के सैकड़ों प्रमाण लिखें हैं
अब आप बताए क्या इन वेद ऋचाओं को प्रकट करने वाला ईश्वर अज्ञानी है?
मनु
सुश्रुत आदि द्वारा रचित ग्रंथों मे भी इसके प्रमाण मिलते है, क्या ये भी अज्ञानी है?
आपके अनुसार सब अज्ञानी केवल आप ही बुद्धिमान हो, और होंगे भी क्यो नही? आपने (छागस्य)
अर्थात बकरा आदि नर पशुओं का दूध घी जो खाया है (दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य २१/४३ में
लिखा है), और आप की भांति आपके नियोगी चैले भी बकरे का दूध, घी खाकर बुद्धिमान बने
फिरते है, बड़ा आश्चर्य होता है यह देखकर कि जिस व्यक्ति में न तो दो कौडी कि बुद्धि
और न बोलने कि सभ्यता ऐसे महाधुर्त को महर्षि बनाने का प्रयास किया जा रहा है
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २६
❝जैसी यह पृथिवी जड़ है वैसे
ही सूर्यादि लोक हैं, वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ भी नहीं कर सकते, क्या ये चेतन
हैं जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होके सुख दे सकें?❞
समीक्षा—
अरे स्वामी भंगेडानंद जी यदि यह सुख दुख नहीं दे सकते तो वेदों में इनकी शांति क्या
व्यर्थ की है देखिए-
शं
नो ग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्यश्च राहुणा॥१॥
उत्पाताः
पार्थिवान्तरिक्षाः शं नो दिविचरा ग्रहाः॥२॥
रक्षतु
त्वा द्यौ रक्षतु।
पृथिवी
सूर्यश्च त्वा रक्षतां चन्द्रमाश्च।
अन्तरिक्षं
रक्षतु देवहेत्याः॥३॥ ~अथर्ववेद
ग्रह
चन्द्र, आदित्य,राहु हमारे लिए शांतिकारक हो, पृथ्वी और अंतरिक्षलोक में होने वाले
उत्पात और द्युलौक में विचरणशील मंगल आदि ग्रह हमारे दोषों का निवारण करते हुए हमारे
लिए शांतिकारक सिद्ध हो, यह वेदों में शांति प्रकरण क्या व्यर्थ की है इसी से ग्रह
दुख सुख देने वाले सिद्ध होते हैं॥१-२॥
सूर्य,
चन्द्र, पृथ्वी, आकाश, और अंतरिक्षलोक में विचरणशील मंगल आदि तेरी रक्षा करे, तेरे
लिए कल्याणकारी सिद्ध हो।
अब
कहें भंगेडानंद जी यदि ये सुख दुख नहीं दे सकते तो वेदों में इनकी शांति क्या वृथा
की लिखीं हैं।
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २७
❝जो हम मन्त्र पढ़ के डोरा वा
यन्त्र बना देवें तो हमारे देवता उस मन्त्र, यन्त्र के प्रताप से उस को कोई विघ्न नहीं
होने देते’ उन को वही उत्तर देना चाहिये कि क्या तुम मृत्यु, परमेश्वर के नियम और कर्मफल
से भी बचा सकोगे?❞
समीक्षा—
वाह रे! स्वामी धूर्तानंद क्या कहने आपके? या तो आप बहुत बडे वाले धूर्त है या फिर
आपको भूलने की बीमारी है, मंत्र पढ़कर डोरा बांधने से रक्षा नहीं होती लेकिन आप ही ने
अपने पंच महायज्ञ विधि के पृष्ठ ५ पर यह लिखा है
कि “इसके अनंतर गायत्री मंत्र से शिखा को बांध कर रक्षा करे” अब कोई इन धूर्तानंद
जी से पूछें कि गायत्री मंत्र पढ़कर क्या रक्षा करें? और किससे रक्षा करें? क्योकि मंत्रों
के प्रभाव को तो आप मानते नहीं इसलिए यदि सिर्फ शिखा बांधने से ही रक्षा हो जाएं तो
ये जितने भी बंदूक, तलवार और तमंचे है सब धरे के धरे रह जाए कोई किसी काम का नहीं,
अब यदि दो नियोगी दयानंदी संध्योपासन के अनंतर कुश्ती लडें तो उनमें से न तो कोई हारे
और न ही कोई जीते, क्योकि दोनों के दोनों शिखा बांधकर रक्षा कर चुके हैं, धन्य हे!
तुम्हारी बुद्धि,
वाल्मीकि
रामायण में लिखा है कि जब रामचंद्र वन को चलें तो कौशल्या ने मंत्र पढ़कर रक्षा की सुश्रुत
संहिता के सूत्रस्थान में रोगी की भूत प्रेतादि से मंत्र पढ़कर रक्षा करनी लिखीं है
जिसका प्रमाण इससे पहले दे चुके हैं और भी अनेक मंत्र है वेद के जो भूत प्रेत, पिशाचों
की शांति करते हैं ये देखिए वेदों से प्रमाण-
शं
नो भवन्त्वप ओषधयः शिवाः।
इन्द्रस्य
वज्रो अप हन्तु रक्षस आराद्विसृष्टा इषवः पतन्तु रक्षसाम्॥१॥ ~[अथर्ववेद- २/३/६]
अर्थ-
औषधि के निमित्त प्रयोग किये जाने वाले जल हमारे रोगों का शमन करने वाले और सुखदायक
हो, रोगों को उत्पन्न करने वाले (असुरों) को इन्द्र देव का वज्र विशिष्ट करें, असुरों
द्वारा सधान किये गये व्याधिरूप बाण हमसे दूर जाकर गिरें॥
यत्ते
नियानं रजसं मृत्यो अनवधर्ष्यम्।
पथ
इमं तस्माद्रक्षन्तो ब्रह्मास्मै वर्म कृण्मसि॥२॥
आरादरातिं
निरृतिं परो ग्राहिं क्रव्यादः पिशाचान्।
रक्षो
यत्सर्वं दुर्भूतं तत्तम इवाप हन्मसि॥३॥
~[अथर्ववेद-
८/२/१०,१२]
अर्थ-
हे मृत्यो! तेरे रजोमार्ग का कोई नाश नहीं कर सकता, इस पुरूष को इस मार्ग से बचें रहने
का मन्त्रणारूप कवच धारण कराते हैं, आतंकित करने वाले निर्ऋति की दुर्गति करते हुए
मांसभक्षी पिशाचों को नष्ट करते हैं अन्य जो भी रक्षसत्व है उन सब तमस् गुण वालों का
हम नाश करते हैं॥
अपां
मा पाने यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम्।
तदात्मना
प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु॥४॥
दिवा
मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्याद्यातूनां शयने शयानम्।
तदात्मना
प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु॥५॥
क्रव्यादमग्ने
रुधिरं पिशाचं मनोहनं जहि जातवेदः।
तमिन्द्रो
वाजी वज्रेण हन्तु छिनत्तु सोमः शिरो अस्य धृष्णुः॥६॥ ~[अथर्ववेद- ५/२९/८-१०]
अर्थ-
जो पिशाच जलपान, यात्रा, शयन के समय हमें पीडित किया करते हैं, वह अपनी प्रजा सहित
दूर हो जाएं और वह रोगी निरोगी हो जाए ॥
जो
पिशाच रात अथवा दिन में बिस्तर पर सोते समय हमें पीडित करते हैं वे पिशाच अपनी प्रजा
सहित हमसे दूर हो जाएं और रोगी निरोगी हो जाएं॥
हे
अग्ने! आप इन मांसभक्षक, रक्तभक्षक और मन को कष्ट करने वाले पिशाच को नष्ट करें, शक्तिशाली
इन्द्र उन्हें वज्र से मारें और सोमदेव उनका शीश काट दें॥
ये
गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः।
पिशाचान्त्सर्वा
रक्षांसि तान् अस्मद्भूमे यावय॥७॥
~[अथर्ववेद-
१२/१/५०]
अर्थ-
हे भूमे! जो गन्धर्व, अप्सरा, किमी दिन, मांसभक्षि पिशाच और राक्षसी वृत्तियों वाले
आततायी है उन्हें हमसे दूर करें।
इससे
प्रकट होता है कि राक्षस, पिशाचादि विघ्नदायक होते हैं और मंत्रों के प्रभाव से दूर
होते हैं अब कोई इन स्वामी धूर्तानंद जी से पूछें यदि मंत्र पढ़ने से रक्षा नहीं होती
तो वेदों में ये मंत्र क्या व्यर्थ के लिखें हैं?
क्यों
साहब क्या कहते हो यह सभी वेद मंत्र परमेश्वर के नियम में है या नहीं?
जितने
विघ्नों का विधान है उन सब की शांति मंत्रों द्वारा हो जाती है, और मंत्र जपने से उन
मंत्रों के देवता विघ्न नहीं होने देते, यह ईश्वर का नियम ही है, समझे स्वामी धूर्तानंद
जी,
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ २८
❝९वें वर्ष के आरम्भ में द्विज
अपने सन्तानों का उपनयन करके आचार्य कुल में अर्थात् जहां पूर्ण विद्वान् और पूर्ण
विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हों वहां लड़के और लड़कियों को भेज दें
और शूद्रादि वर्ण उपनयन किये विना विद्याभ्यास के लिये गुरुकुल में भेज दें❞
समीक्षा—
चलो कम से कम आपकी बुद्धि यहाँ ठिकाने पर तो है कि शुद्र का उपनयन न हो जाति ही सिद्ध
रखी है, और द्विज से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ग्रहण किया है, आप लिखते हैं कि
"शुद्रादि वर्ण उपनयन किये बिना विद्याभ्यास के लिए गुरूकुल में भेज दें"
क्यों यहाँ यह प्रतिज्ञा छूट गई कि "जिस को पढ़ने पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह निर्बुद्धि
और मूर्ख होने से शूद्र कहाता है, उस का पढ़ना पढ़ाना व्यर्थ है" तृतीया समुल्लास
के पृष्ठ ५५ पर यह आपने ही कहा है ना? याद आया, धन्य हे! स्वामी जी आपकी नौटंकी, जिसको
निर्बुद्धि और मूर्ख बोलकर उस का पढ़ना पढ़ाना व्यर्थ बताते हो, और अब उसे विद्याभ्यास
के लिए गुरूकुल भेजना लिखते हो, यही तो आपके भंग की तरंग है इससे ही पता चलता है कि
आपमें बुद्धि की कितनी कमी थी
सत्यार्थ
प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ, २९
❝यही माता, पिता का कर्त्तव्य
कर्म परमधर्म और कीर्ति का काम है जो अपने सन्तानों को उत्तम शिक्षायुक्त करना, (पुन:)
यह बालशिक्षा में थोड़ा सा लिखा, इतने ही से बुद्धिमान् लोग बहुत समझ लेंगे❞
समीक्षक--
वाह बड़ी सुंदर शिक्षा दी है समाजीयों को, मैंने पढ़ा और उसका करारा जबाव भी दिया है
उसे आप पढ़ें, वैसे इस शिक्षा को स्वत: प्रमाण माने या परत: प्रमाण जिसमें योनिसंकोचन,
उपस्थेन्द्रिय का मर्दन, प्रसूता स्त्री का बच्चे को दूध न पिलाना आदि सिखाया है माता
पिता ऐसी शिक्षा अपने बालकों और बालिकाओं को करें यह शिक्षा आपकी कौन से वेदानुसार
है? कोई प्रमाण नही दिया आपने, और यह थोडी सी बालशिक्षा नही है बल्कि सत्यानाश करने
को, नास्तिक वर्णसंकर बनाने को यही काफी है, बुद्धिमान लोग इसको बहुत ही अच्छी प्रकार
समझते है और आपकी वेदविरूद्ध शिक्षाओं से दूर ही रहते है।
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