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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत चतुर्थ समुल्लास की समीक्षा | Chaturth Samullas Ki Samiksha

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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत चतुर्थसमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते

 
 

॥समावर्तनविवाह प्रकरणम्॥

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ५८,
 
असपिण्डा च या मातुरसगोत्र च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ॥ -मनु० [३/५]
जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो तो उस कन्या से विवाह करना उचित है। इसका यह प्रयोजन है कि-
परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः॥
यह निश्चित बात है कि जैसी परोक्ष पदार्थ में प्रीति होती है वैसी प्रत्यक्ष में नहीं। जैसे किसी ने मिश्री के गुण सुने हों और खाई न हो तो उसका मन उसी में लगा रहता है । जैसे किसी परोक्ष वस्तु की प्रशंसा सुनकर मिलने की उत्कट इच्छा होती है, वैसे ही दूरस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो उसी कन्या से वर का विवाह होना चाहिये।
निकट (में दोष) और दूर विवाह करने में गुण ये हैं-
(१) एक-जो बालक बाल्यावस्था से निकट रहते हैं, परस्पर क्रीडा, लड़ाई और प्रेम करते, एक दूसरे के गुण, दोष, स्वभाव, बाल्यावस्था के विपरीत आचरण जानते और नंगे भी एक दूसरे को देखते हैं उन का परस्पर विवाह होने से प्रेम कभी नहीं हो सकता।
(२) दूसरा-जैसे पानी में पानी मिलने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे एक गोत्र पितृ वा मातृकुल में विवाह होने में धातुओं के अदल-बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती।
(३) तीसरा-जैसे दूध् में मिश्री वा शुण्ठयादी औषधियो के योग होने से उत्तमता होती है वैसे ही भिन्न गोत्र मातृ पितृ कुल से पृथक् वर्तमान स्त्री पुरुषों का विवाह होना उत्तम है।
(४) चौथा-जैसे एक देश में रोगी हो वह दूसरे देश में वायु और खान पान के बदलने से रोग रहित होता है वैसे ही  दूर देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है।
(५) पांचवे-निकट सम्बन्ध् करने में एक दूसरे के निकट होने में सुख दुःख का भान और विरोध् होना भी सम्भव है, दूर देशस्थों में नहीं और दूरस्थों के विवाह में दूर-दूर प्रेम की डोरी लम्बी बढ़ जाती है निकटस्थ विवाह में नहीं।
(६) छठे-दूर-दूर देश के वर्तमान और पदार्थों की प्राप्ति भी दूर सम्बन्ध् होने में सहजता से हो सकती है, निकट विवाह होने में नहीं।
(७) सातवें-कन्या के पितृकुल में दारिद्रय होने का भी सम्भव है क्योंकि जब-जब कन्या पितृकुल में आवेगी तब-तब इस को कुछ न कुछ देना ही होगा।
(८) आठवां-कोई निकट होने से एक दूसरे को अपने-अपने पितृकुल के सहाय का घमण्ड और जब कुछ भी दोनों में वैमनस्य होगा तब स्त्री झट ही पिता कुल में चली जायेगी, एक दूसरे की निन्दा अधिक होगी और विरोध् भी, क्योंकि प्रायः स्त्रिायों का स्वभाव तीक्ष्ण और मृदु होता है, इत्यादि कारणों से पिता के एकगोत्रा माता की छः पीढ़ी और समीप देश में विवाह करना अच्छा नहीं
समीक्षक— वाह जी वाह! बड़ा अच्छा तात्पर्य निकाला, गोत्र के अर्थ तुमने पास के कर दिए, तुम कहते हो कि दूर देश में विवाह करें क्योंकि दूर वस्तु में प्रिति होती है, प्रत्यक्ष में नहीं, तो यदि दूर हो और पितृकुल वा मातृकुल की लड़की हो उससे भी विवाह कर लें, बस पास की नहीं होनी चाहिए, तो दूर होने से तुम सम्बन्धी भाई बहन के विवाह में भी अनुमति दे दोगे, क्योकि तुम ही कहते हो कि “जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो”अर्थात दूर हो फिर चाहे पिता वा माता के कुल की ही क्यों न हो विवाह कर लें, शोक हे ऐसी बुद्धि पर,
तुम लिखते हो कि दूर की वस्तु में प्रिति होगी पास में न होगी, तो अब यह बताओं की जब वह दूर की स्त्री पास आवेगी, तो फिर वह दूर कहाँ रही और स्त्री पुरुष का संग होते ही प्रिति दूर हो जानी चाहिए पर ऐसा देखने में नहीं आता, उल्टा पास रहने में प्रिति अधिक बढ़ती नजर आती है और तो मनु के इस श्लोक का तुमने जो अर्थ किया है वह भी गलत ही किया है देखिए इसमें छ: नहीं बल्कि सात पीढ़ियों का त्याग करना लिखा है स्वामी जी यहाँ एक पीढ़ी खा गये, देखिए इसका अर्थ इस प्रकार है–
जो कन्या माता व पिता की सात पीढ़ियों में न हो, तथा पिता के गोत्र में न हो, ऐसी ही कन्या द्विज (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य) के विवाह के योग है,
और जब तुम गोत्र के अर्थ पास से ही लेते हो, और जब दूर देश का ही अभिप्राय है तो फिर ये छ: पीढ़ियों का त्याग करना क्यों लिखते हैं? इन्हें भी खा जाते, धर्मशास्त्र की मर्यादा तो तुमने वैसे भी मिटा दी, और सुनो माता का कुल तो ननसाल होता है और पितृकुल के लड़के लड़कियों का परस्पर भाई बहन का सम्बन्ध होता है इस कारण वहाँ विवाह वर्जित है, और अपने गोत्र में तो विवाह होता ही नहीं इसलिए पास और दूर का इससे कोई मतलब नहीं क्योंकि जिसका गोत्र एक है वह सब एक ऋषि के संतान वा शिष्य  होने से भाई बहन है जो अपने सम्बन्धी है चाहे वे सहस्र कोश दूर ही क्यों न हो अपने ही कहलाते हैं और जिनसे कोई सम्बन्ध ही न हो वे घर के पास होकर भी दूर होते हैं, इस कारण तुम्हारे इस गपडचौथ का कोई मतलब नहीं बनता,
तुम लिखते हो कि “निकट और दूर के यह गुण है”शायद यह गलती से लिख दिया, क्योकि गुण तो तुमने केवल दूर के लिखें पास के तो केवल दोष ही लिखें इस कारण दोनों में तुम्हारा यह गुण शब्द घट नहीं सकता, अब एक नजर तुम्हारे निकट और दूर विवाह के गुणों पर डालते हैं-
(१) पहला- दयानंद का यह लेख पढ़कर विदित होता है कि उनका दिमागी संतुलन हिल गया है क्योंकि ऐसा देखना में नहीं आता कि जो बालपन में एक साथ खेले हो और उनका विवाह हुआ हो, ऐसा नियोग समाज में होता होगा और स्वामी भूलक्कडानंद जी को यह याद दिला दे कि जब तुमने पाँच वर्ष के बालक और बालिकाओं को गुरूकुल भेज दिया और पुरी शिक्षा हो जाने तक स्त्री न तो पुरूष के दर्शन कर सकती है और न पुरुष स्त्री का फिर भला उन्होंने एक दूसरे को नंगा कब देख लिया, शायद आपके गुरूकुल में यही होता होगा दिन में लकडे लड़कीयाँ अपने अपने गुरूकुल में पढते होगें और रात्रि में नंगे होकर एक दूसरे के साथ गर्भाधान-गर्भाधान खेलते होगें वही स्वामी जी यहाँ लिखते हैं
(२) दूसरा- जब तुम दूर में कुल गोत्र मानते ही नहीं, गोत्र के अर्थ पास से लेते हो तो फिर इस प्रकार की बकचोदी क्यों  करते हो, और जब एक गोत्र पितृ वा मातृकुल की लड़की लड़कों का परस्पर भाई बहन का सम्बन्ध होने से विवाह होता ही नहीं तो क्यों बेकार में अंड संड बकें जा रहे हो, तुम लिखते हो कि "धातुओं के अदल-बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती" परन्तु यह नहीं बताया कि धातुओं के अदल-बदल से किस प्रकार की उन्नति होती है, क्योकि धातुओं के अदल-बदल से तो रोग ही उत्पन्न होता है उन्नति कैसी? उससे तो हानि ही होती है जो उन्नति होती तो सब कुलों में बड़ी भारी उन्नति होती, परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता, और जो दुसरे कुल की धातु निकम्मी निकलीं फिर तो हानि ही हुई उन्नति कहा?
और जो तुम्हारा ही कथनानुसार बात करें तो यवनों, ईसाई आदि में तो कुल गोत्र कुछ नहीं देखते तो क्या उनकी उन्नति नहीं होती? इस कारण तुम्हारा यह कथन भम्र मात्र ही है एक गोत्र मातृकुल में विवाह क्यों नहीं होता है उसका कारण हम पहले भी लिख आए हैं
(३) तीसरा- कुल गोत्र तो तुम पहले ही धो कर पि गए गोत्र का अर्थ तो तुमने निकट से लिया और दूर में तुम गोत्र मानते नहीं, तो फिर क्यों व्यर्थ की महनत किये जा रहे हो, एक ही बात घुमा फिर कर कितनी तरह से बोल दिया परन्तु एक बार भी यह कहीं नहीं लिखा कि एक गोत्र में विवाह क्यों नहीं करना चाहिए? बस आपसे तो बकचोदी करवा लो, सुनो मातृकुल वा पितृकुल के लड़के लड़कियों का परस्पर भाई बहन का सम्बन्ध होता है इस कारण वहाँ विवाह वर्जित है, और अपने गोत्र में तो विवाह होता ही नहीं क्योंकि जिसका गोत्र एक है वह सब एक ऋषि के संतान वा शिष्य  होने से भाई बहन है इस कारण एक गोत्र मातृ व पितृ कुल में विवाह नहीं होता,
(४) चौथा- धन्य हे स्वामी जी आपकी बुद्धि क्या अंड संड बके जा रहे हो तुम स्वयं नहीं जानते, तुम्हारे मतानुसार एक देश में रोगी हो वह दूसरे देश में वायु और खान-पान के बदलने से रोग मुक्त होता है, तो सुनिये और जो रोगी उस देश में पहुँच जाए जहाँ की जलवायु शुद्ध न हो तो फिर तो रोगी मर ही जाएगा, क्योकि अक्सर देखा जाता है कि हुष्ट-पुष्ट मनुष्य भी जब कहीं दूर जाता है तो पानी में आए बदलाव से स्वास्थ्य में हानि रोग आदि से ग्रसित हो जाता है, और २०-२५ कोश तक तो वायु भी नहीं बदलती यदि ऐसा है तो तुमको लिखना चाहिए था कि इतनी दूरी पर विवाह करना चाहिए और जो वहाँ न हो तो रहो पुरे जीवन ब्रह्मचारी क्योकि तुम्हारे मत में विवाह वायु के अदल-बदल के अर्थ हैं फिर क्यों बेकार की बकचोदी कर समाजीयों का मुर्ख बनाते हो, जो विवाह शुद्ध वायु जल के अर्थ है तो वायु जल की शुद्धि तो हवन से भी हो जाती है तृतीया समुल्लास में तुमने ही लिखा है ना, फिर हवन करकें चाहे जहाँ कि वायु जल शुद्धि कर लो, इसके लिए दूर देश का रोना क्यों रोते हो?
(५) पांचवां- दयानंद लिखते हैं कि “निकट विवाह होने में सुख दुःख का भान और विरोध् होना भी सम्भव है” तो सुनिये तुम्हारा यह कथन भी मिथ्या ही है, क्या स्वामी जी यहाँ तार और फोन विद्या भूल गए, चाहे विवाह विश्व के किसी भी कोने में क्यों न कर दो, कुछ मिनटों में ही चाहे जहाँ सुख दुख की खबर पहुँच जाता है, सुख दुख का भान तो चाहे सहस्रों कोश दूर ही क्यों न हो हो ही जाता है, परन्तु निकट विवाह होने का लाभ यह है कि सुख दुख में सहायता शीघ्र हो सकती है, और दूर होने पर खर्च भी पड़ता है और समय पर सहायता भी नहीं मिलती, और जहाँ तक विरोध की बात है तो क्या दूर देश के विवाह में विरोध नहीं होता है? बिल्कुल होता है, जो कुपात्र होगा तो पास दूर दोनों में विरोध करेगा, लेकिन जो दूर देश में विवाह होता है उसमें विरोध ज्यादा रहता है कन्या भी दूर घर होने से वर्षों माता-पिता के दर्शन से वंचित रहती है, दूर देश में कन्या को चाहे जितना दुख हो कोई पूछने वाला ही नहीं, निकट विवाह होने से अपने नगरवासियों तथा लड़की के पिता आदि के संकोच से अधिक दुख नहीं दे सकते,
(६) छठवाँ- दयानंद के मतानुसार “दूर देश में विवाह होने से पदार्थों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है” दयानंद का यह कथन भी मिथ्या ही है क्या बिना मुल्य के कोई वस्तु प्राप्त हो सकती है? जिसका विवाह हुआ उसे भी बिना मूल्य दिये कोई वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती, यदि एक दो बार मुफ्त में मिल भी गई तो बराबर कौन दे सकता है? और कन्या का पिता तो वैसे भी मुफ्त में कुछ मांग ही नहीं सकता, इसलिए दयानंद का यह सिद्धांत भ्रष्ट होता है इसका दूर पास से कुछ फर्क नहीं पड़ता,
(७) सातवाँ- दयानंद के मतानुसार “पितृकुल में कन्या आवेगी तो दरिद्र करेगी क्योकि जब-जब कन्या आवेगी तब-तब उसे कुछ न कुछ देना होगा” यह कथन भी भम्र मात्र है स्वामी जी में जीतनी बुद्धि है वह उतना ही सोच पाते हैं इसलिए मैं इसमें स्वामी जी को भी दोष नहीं दे सकता, क्योकि कन्या तो जहाँ जायेगी वही कुछ न कुछ देना होगा, और अपने सामर्थ्य अनुसार सभी कुछ न कुछ देते ही है अब कोई घर तो दे नहीं देगा, तुम्हारे कहने का अर्थ तो ऐसा है कि कन्या ऐसी होनी चाहिए कि कोई पितृकुल को लूट भी ले तो उसका जी न दुखे, क्योकि जो ऐसी होगी तो ही उसमें पितृकुल को दरिद्र करने का सामर्थ्य होगा अन्यथा नहीं, और माता पिता निकट हो या फिर दूर अपने सामर्थ्य अनुसार सब ही अवस्था में देते ही रहते हैं,
(८) आठवाँ- दयानंद के मतानुसार “स्त्रीयों का स्वभाव तीक्ष्ण और मृदु होता है इसलिए पास होने से घमंड हो जाएगा, लड़ाई होगी, पिता के घर चली आयेगी इत्यादि” यह भी दयानंद ने अपनी बुद्धि अनुसार ही लिखा है, कन्या को छोडिये यह बताइए कि सहायता मिलने पर किसे घमंड नहीं होता? और जिसे सहायता मिलती रहती है उससे तो कोई लडता भी नहीं है, और परस्पर सहाय के रिश्तेदार क्यों लड़ेंगे? और जहाँ तक सहायता की बात है तो अपने आप को ही देख लिजिए, यदि तुम्हें सहायता ने मिलती तो यह सत्यार्थ प्रकाश भी न बना पाते, और किसी प्रकार बना भी लेते तो अंड संड जो मन में आता लिख देते जैसे पहले वाली सत्यार्थ प्रकाश में लिखा और बाद में कहा कि मुझे इन बातों का ज्ञान न होने के कारण भूल वश लिख दिया, और झगड़ालू लोगों का तो यह है कि वह पास हो या दूर हर जगह कलेश ही करते हैं और जब छोटी उम्र की स्त्री घर से निकलती है और पिता का घर १००-२०० किमी० दूर हो तो पूरे मार्ग में भ्रष्ट होती हुई घर पहुँचती है और दूरी अधिक होने के कारण उसके दुष्कर्मों पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता और एक ही नगर में विवाह होने से व्याग्र चित हो यदि पिता के घर जाएं तो थोड़ी ही देर में पहुँचने के कारण दुष्कर्मों से बच सकती है और अधिक संकोच से अनिष्ट से बची रहती है और स्वभाव तो जिसका जो है वही रहता है वह बदलने वाला नहीं फिर चाहे विवाह दूर हो या निकट, मेरे कहने का अर्थ यह नहीं कि दूर विवाह ही न करों, विवाह चाहे पास करो या दूर परन्तु पिता का गोत्र और माता की सात पीढ़ियों को छोड़कर, क्योकि मातृपितृ कुल सपिंड होने से धर्म शास्त्रों में वर्जित हैं इस कारण उनमें विवाह नहीं हो सकता,
और परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः इस श्रुति के अर्थ में तो दयानंद ने वही काम किया है जैसे कहावत है कि “कहीं कि ईट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनवा जोड़ा”कहाँ का प्रसंग कहाँ लिख दिया यह देवता प्रकरण की बात है देखिए इसका अर्थ इस प्रकार है-
“परोऽक्षकामा हि देवाः’’  (शत0ब्रा0 ६/१/१/२ और ७/४/१/१०), इसी प्रकार गोपथ ब्राह्मण ओर बृहदारण्यकोपनिषद् में भी कहा गया है कि-“परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः’’ (गो0ब्रा0 १/१/१ और १/२/२१)
अर्थात देवता परोक्षप्रिय और प्रत्यक्ष से द्वेष करते हैं भाव यह है कि “देवगण परोक्षरूप से की गयी प्रस्तुति के चाहक होते हैं व प्रत्यक्षरूपेण की गयी प्रस्तुति के अनिच्छुक रहते हैं“

और तुमने इसे विवाह सम्बन्ध में घुसेड़ मारा क्या यार दयानंद ऐसा करकें क्यों बेचारे निर्बुद्धि और मूर्ख समाजीयों का चुतिया काटते हो ? तुम्हारे चैले तुम पर आँख मूंद कर विश्वास करते हैं और तुम उन्हीं का चुतिया बनाते हो कुछ तो शर्म करों

 
 
 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६०,
सोलहवें वर्ष से लेकर चैबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से ले लेकर ४८ वें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय उत्तम है, इस में जो सोलह और पच्चीस में विवाह करे तो निकृष्ट; अठारह बीस वर्ष की स्त्री तथा तीस पैंतीस वा चालीस वर्ष के पुरुष का मध्यम; चौबीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है, इससे विद्याभ्यास अधिक होता हो जाता है
समीक्षक— ऊपर लिखे दयानंद के इस लेख का सिद्धांत यह है कि २४ वर्ष की कन्या का ४८ वर्ष के बुढ्ढे से विवाह करायें, सबसे पहले तो विवाह की परिभाषा कहते हैं उसके पश्चात स्वामी जी के इस लेख का खंडन करेंगे,
सनातन धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है, विवाह दो शब्दों से से मिलकर बना है वि + वाह जिसका शाब्दिक अर्थ है-विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना, पाणिग्रहण संस्कार को ही सामान्य रूप से विवाह के नाम से जाना जाता है,
"भार्यात्संपादक ग्रहणम्" अर्थात जिसके भरण पोषण का भार सदैव के लिए सिर पर लिया जाए उसका जो भाव उसको भार्यात्व कहते हैं और संपादक अर्थात उक्त भाव का उत्पन्न करने वाला ऐसे जो ग्रहण अर्थात ज्ञान वा भार्या का भाव जिस ज्ञान से उत्पन्न होवे उसका नाम विवाह है, "तस्य स्वीकाररूपं ज्ञानं विशेषस्य समवायविषय: तयोर्भेदात् वरकन्ययो: विवाहकर्तृत्वकर्मत्वेति" अर्थात भार्या का स्वीकार रूप जो विशेष ज्ञान है, उसमे समवाय और विषय दो प्रकार के भेद होने से विवाह मे वर का कर्तृत्व और कन्या का कर्मत्व स्पष्ट प्रतीत होता है इससे विवाह शब्द के कहने से यह बात आती है कि वर और कन्या के विशेष संयोग का भाव मन में उदय होता है विशेष संयोग कहने का भाव यह है कि पुरुष स्त्री का आत्मा मन शरीर के भरण पोषण रक्षा आदि का भार अपने ऊपर लेना स्वीकार करता है, इस प्रकार के संयोग को छोड़कर अन्य किसी प्रकार के संयोग को विवाह नही कह सकते इस प्रकार के संयोग से अविच्छेद संबंध होता है, अब वह विवाह कितने समय में होना चाहिए सो उसका निर्णय किया जाता है
स्वामी जी के लेखानुसार चले तो स्वामी जी लिखते हैं कि २४ वर्ष की कन्या और ४८ वर्ष का वृद्ध पुरुष विवाह करें तो ही उत्तम है, स्वामी जी के मतानुसार १६ वर्ष की कन्या और २५ वर्ष के पुरूष का  विवाह करना या करवाना बेकार है, लेकिन ऐसे अनगिनत प्रमाण हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि आर्य लोग भी थोड़ी ही अवस्था में विवाह करते थे जैसे भगवान राम का विवाह १५ वर्ष की उम्र में हुआ, अभिमन्यु का विवाह १४ वर्ष की उम्र में उत्तरा के साथ हुआ और १६ वर्ष की उम्र में महाभारत के युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए, और उस समय उनकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी जिससे राजा परीक्षित उत्पन्न हुए, यह वाल्मीकि रामायण और महाभारत से सिद्ध है उठाकर देख लिजिए, जो तुम्हारे कहें अनुसार २५, ३०, और ५८ वर्ष तक बैठे रहते तो पांडवों का तो वंश ही समाप्त हो गया होता,

इसलिए सही समय पर ही विवाह कर देना उचित है यदि विवाह थोड़ी ही अवस्था में हो जाए तो २०-२५ वर्ष में सन्तान इस योग्य हो जाता है कि पिता की ४५-५० वर्ष की क्षीण अवस्था तक सामर्थ हो पिता की सहायता के योग्य हो जाता है क्योंकि आजकल तो ७० से ७५ वर्ष की अवस्था में ही बहुतों की मृत्यु हो जाती है ऐसे में ४८ वर्ष की उम्र (जो कि क्षीण अवस्था होती है) में विवाह किया तो दो तीन वर्ष उपरांत ही पूर्ण जराग्रस्त पुरुष और पूर्ण युवावस्था युक्त स्त्री होती है तो बस “वृद्धस्य तरूणी विषम्”बुढ्ढों के लिए तो कम उम्र की कन्या वैसे ही विष समान है उनको तो बहुत प्रसंग भाता ही नहीं, ऐसे में वो स्त्री किसी और नव युवा की खोज करके धर्मच्युत होती है, अब स्वयं को ही ले लिजिए यदि तुम्हारा विवाह ४८ वर्ष की उम्र में किसी २४ वर्ष की कन्या से हो जाता तो वो बेचारी आज सिर पटकती या नहीं, कहने का अर्थ यह है कि तुम्हारे इस कपोल कल्पित सिद्धांत से सिर्फ हानि ही होगी, और आज के समय में यह सिद्धांत चलने वाला नहीं, अपने लाडले शिष्यों को ही देख लो, यदि कोई किसी एक समाजी का नाम भी बता दें जिसने तुम्हारे इस लेखानुसार ४८ वर्ष की उम्र में विवाह किया हो, कहने का अर्थ यह है कि जब तुम्हारे लाडले शिष्य ही तुम्हारी बातों को महत्व नहीं देते तो फिर भला दुसरे बुद्धिमान लोग तुम्हारी इस गपडचौथ को क्यों मानेंगे, स्वामी जी ने अपने लाडले शिष्यों को ४८ वर्ष की उम्र में विवाह करने का आदेश दिया परन्तु बड़े दुख की बात है कि एक भी समाजी उनकी बात को महत्व नहीं देते,

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६०,
 
प्रश्न- अष्टवर्षा भवेद् गौरी नववर्षा च रोहिणी।
दशवर्षा भवेत्कन्या तत ऊध्र्वं रजस्वलाभ्॥१॥
ये श्लोक पाराशरी और शीघ्रबोध् में लिखे हैं, अर्थ यह है कि कन्या आठवें वर्ष गौरी, नवमे वर्ष रोहिणी, दशवें वर्ष कन्या और उस के आगे रजस्वला संज्ञा हो जाती है
जैसे आठवें वर्ष की कन्या में सन्तानोत्पत्ति का होना असम्भव है वैसे ही गौरी, रोहिणी नाम देना भी अयुक्त है, यदि गोरी कन्या न हो किन्तु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना व्यर्थ है और गौरी महादेव की स्त्री, रोहिणी वसुदेव की स्त्री थी उस को तुम पौराणिक लोग मातृसमान मानते हो, जब कन्यामात्र में गौरी आदि की भावना करते हो तो फिर उन से विवाह करना कैसे सम्भव और धर्मयुक्त हो सकता है
 
समीक्षक— पराशर जी ने यह श्लोक मनुस्मृति के इस श्लोक से आशय लेकर बनाया है देखें--
 
त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम्।
त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः॥
~[मनुस्मृति- अ० ९, श्लोक ९४]
इस श्लोक में मनु जी ८ से १२ वर्ष की कन्या का विवाह करने का नियम करते हैं यही मनु जी की विवाह करने में आज्ञा है क्योंकि १२ वर्ष तक बहुत सी कन्या ऋतुमती हो जाती है और शास्त्रों में ऋतुमती स्त्री का विवाह ने करने पर महादोष कथन किया है, इसी कारण पराशर जी ने मनुस्मृति के इन श्लोकों का आशय लेकर यह श्लोक लिखें परन्तु दयानंद ने पराशर जी के इस श्लोक का अर्थ तोड़ मरोड़ कर अर्थ का अनर्थ कर दिया है पराशर जी का मतलब यह नहीं है देखिए यह केवल संज्ञा मात्र बांधी है कि आठ वर्ष की बालिका गौरी संज्ञक, जो नव वर्ष की बालिका हो उसकी संज्ञा रोहिणी, दश वर्ष की बालिका कन्या संज्ञक और उसके आगे राजस्वला संज्ञा हो जाती है
और विवाह का अर्थ यह नहीं जैसा दयानंद ने दिखाने का प्रयास किया है विवाह का अर्थ केवल सन्तान उत्पत्ति से मानना यह गधों का काम है विवाह का अर्थ केवल सन्तान उत्पत्ति नहीं होता विवाह की परिभाषा हम इससे पहले कर आए हैं पढ़ लेना,
अब दयानंद इतना बडा भी मूर्ख नही था कि इस श्लोक का आशय न समझ सकें लेकिन अपनी आदत से मजबूर दयानंद ने इस श्लोक के अर्थ को तोड़ मरोड़ कर इस प्रकार लिखा, कि “गौरी महादेव की स्त्री, रोहिणी वसुदेव की स्त्री थी उस को तुम पौराणिक लोग मातृसमान मानते हो, जब कन्यामात्र में गौरी आदि की भावना करते हो तो फिर उन से विवाह करना कैसे सम्भव और धर्मयुक्त हो सकता है”
अब कोई इस धूर्त से यह पूछे कि क्या गौरी सदा आठ ही वर्ष की रहती है और रोहिणी नौ वर्ष की ही रहती है और जो नाम के अनुसार ही अर्थ करते हो तो फिर तुम्हें यह प्रश्न सबसे पहले अपने बाप से करना चाहिए था कि उसने यशोदा नाम की स्त्री से विवाह क्यों किया? क्योकि यशोदा तो श्रीकृष्ण की माता का नाम है जिसे हम सब मातृ समान मानते हैं और तुम्हारा बाप तो था ही पौराणिक फिर भी तुम्हारे बाप ने यशोदा नाम की स्त्री से विवाह किया, इस पुस्तक में बकचोदी करने से अच्छा अपने पिता से पूछ लिया होता, और यदि  फिर भी नाम ही के अनुसार अर्थ लेते हो तो यदि कोई पौराणिक किसी यशोदाबाई नाम की स्त्री से विवाह कर लें तो इसका मतलब यह तो नहीं कि वह दयानंद का पिता हो गया क्योंकि यशोदाबाई तो तुम्हारी माता का नाम है कहने का अर्थ यह है कि जैसे यशोदाबाई नाम की स्त्री के साथ विवाह करने से कोई दयानंद का पिता नहीं बन जाता जैसे यह सम्भव नहीं उसी प्रकार गौरी और रोहिणी संज्ञक बालिका का अर्थ महादेव और वासुदेव की स्त्री से मानना ठीक नहीं है,
और जो तुमने यह बिना बात की बकचोदी की है कि “यदि गोरी कन्या न हो किन्तु काली हो तो उस का नाम गौरी रखना व्यर्थ है” जो नाम ही के अनुसार अर्थ लेते हो, तो फिर तो जिसका नाम चंपा, चमेली आदि हो तो नाम अनुसार ही कर्म होने चाहिए जैसे तुम्हारा नाम दयानंद है तो तुम्हें सदा आनंद में ही रहना चाहिए पर ऐसा दिखता नहीं जन्म से ही तुम दुखी आत्मा थे जबसे पैदा हुए हमेशा रोते ही रहे, मन कभी स्थिर नहीं रहा और तो और अंत समय में भी महीनों की दर्दनाक पीड़ा सहने के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए, तुम्हारा नाम तो दयानंद था फिर ऐसा क्यों हुआ?

और सुनिए यदि नाम अनुसार ही अर्थ माने तो व्याकरण में जिन शब्दों की नदी, अग्नि आदि संज्ञा मानी है तो क्या वे शब्द पानी होकर बहते व अग्नि होकर जलते हैं इससे यह उच्चारण मात्र संज्ञा बांधी है इस प्रकार वह बालिका गौरी या रोहिणी नहीं हो जाती, जब कहें कि यह बालिका रोहिणी तो जान लेना की इसकी अवस्था नौ वर्ष की है गौरी कहें तोजान लेना चाहिए की आठ वर्ष की है इसी प्रकार कन्या कहने पर जान लेना चाहिए की वह दस वर्ष की है और उसके आगे राजस्वला और यहीं मनु जी की विवाह करने में आज्ञा है क्योंकि १२ वर्ष तक कन्या ऋतुमती हो जाती है इसी कारण मनु जी ८ से १२ वर्ष तक कन्या का विवाह कर देने की आज्ञा करते हैं और मनु जी के इन श्लोकों का आशय लेकर ही पराशर जी ने यह श्लोक लिखें हैं, क्योकि शास्त्रों में ऋतुमती स्त्री का विवाह ने करने पर महादोष कथन किया है, उसका कारण यह है कि ॠतुदान बिना विवाह के नहीं होना चाहिए, क्योकि ऋतुसमय में संयोग होने से कदाचित संतान उत्पत्ति हो जाती है इसी कारण ऋतु धर्म जिसे होने लगा हो उसका विवाह नहीं करने से माता पिता पापभागी होते हैं
 

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६१,
 
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्॥ -मनु० [९/१०]
कन्या रजस्वला हुए पीछे तीन वर्ष पर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे। तब प्रतिमास रजोदर्शन होता है तो तीन वर्षों में ३६ वार रजस्वला हुए पश्चात् विवाह करना योग्य है, इससे पूर्व नहीं
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६२-६३,
(प्रश्न) विवाह माता पिता के आधीन होना चाहिये वा लड़का लड़की के आधीन रहै?
(उत्तर) लड़का लड़की के आधीन विवाह होना उत्तम है। जो माता पिता विवाह करना कभी विचारें तो भी लड़का लड़की की प्रसन्नता के विना न होना चाहिये,
,,,,,,,,,जब तक इसी प्रकार सब ऋषि-मुनि राजा महाराजा आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ ही के स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश की सदा उन्नति होती थी, जब से यह ब्रह्मचर्य्य से विद्या का न पढ़ना, बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता पिता के आधीन विवाह होने लगा, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आई है
समीक्षा— वाह स्वामी वाह! क्या शिक्षा करी है अपने लाडले शिष्यों को, वर्णसंकर नस्ल तैयार करने को तुम्हारा यह लेख ही काफी है, स्वामी जी ने मनुस्मृति के इस श्लोक के अर्थ का किस प्रकार अनर्थ किया है उसे देखिए स्वामी जी लिखते हैं कि “कन्या रजस्वला हुए पीछे तीन वर्ष पर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे”यह तो स्वामी जी ने साफ-साफ स्त्री को व्यभिचारीणी बनाने की विधि लिखीं हैं यह क्या बात हुई कि माता पिता तो घर में चैन से बैठे और बेटी गली-गली, गाँव नगर पति ढूंढती फिरें, और अपने आप विवाह भी कर लें, शौक है ऐसी बुद्धि पर!
स्वामी जी ने इस श्लोक के अर्थ का भी उसी प्रकार अनर्थ किया है जैसे अन्य श्लोको के साथ किया है देखिए इसका सही अर्थ इस प्रकार है-
 
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्॥
अर्थात जिस कन्या के मातापितादि नहीं हो वह ऋतुमती होने पर तीन वर्ष तक (उदीक्षते) अपने कुटुम्बियों की प्रतीक्षा करें कि वह विवाह कर दें, जब यह समय भी बीत जाएं तो अपनी जाति के पुरूष जो अपने कुल गोत्र के सदृश हो उसे वरण करें,
यह आपद्धर्म है वर्ना नृप कुल छोड़कर स्त्री को स्वयं वरण करने का अधिकार नहीं है, परन्तु स्वामी जी ने तो कुल गोत्र, जाति, धर्म सबको ताक पर रखकर विवाह का अधिकार लड़का लड़की के आधिन कर दिया, कि माता पिता घर पर बैठे और लड़की गली नगर घुम घुमकर पति ढूंढें स्वामी जी का यह सिद्धांत पुरी तरह से धर्म शास्त्रों के विरुद्ध है विवाह का अधिकार लड़का लड़की के आधिन नहीं होना चाहिए, यदि कहो की युवावस्था में स्त्री रूचि अनुसार पति ढूंढ लेगी तो व्याभिचारिणी न होगी तो इसका उत्तर यह है कि प्रायः स्त्री जाति पुरुषों में पति को अन्यान्यगुणों की अपेक्षा सुन्दरता युक्त होना अधिक चाहती है जैसे कि पुरुष सुन्दर स्त्री ढूंढते है और इसलिए लडका लड़की के आधिन विवाह होने में यह दोष है कि स्त्री रूप की प्यासी होती है जानें कौन सी जाति, धर्म के पुरूष को पसन्द करें, क्योकि “भिन्नरूचिहिर्लाक” सबके मन की रूचि भिन्न होती है तो ऊँच नीच संयोग होने से वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है, इससे विवाह लड़का लड़की के आधिन नहीं होना चाहिए और सुनो यह जो स्वामी जी ने लिखा है कि “जब तक सब ऋषि-मुनि राजा महाराजा आर्य लोग स्वयंवर विवाह करते थे तब तक इस देश की सदा उन्नति होती थी, परन्तु जब से माता पिता के आधीन विवाह होने लगा, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आई है”यह कथन भी दयानंद का मिथ्या ही है, क्योकि स्वयंवर केवल क्षत्रियों राजा-महाराजाओं में हुआ करते थे जिसमें क्षत्रिय जाति के राजा-महाराजा एकत्र हुआ करते थे, क्षत्रियों के अलावा ब्राह्मण, वैश्य या शूद्रों में स्वयंवर नहीं होता था लेकिन स्वामी जी ने जाति वर्ण सब मेंट सब ही के लिए लिख दिया मानो वर्णसंकर की उन्नति का द्वार खोल दिया, और जो दयानंद ने यह लिखा कि जब तक आर्यावर्त में स्वयंवर विवाह होते थे तब तक आर्यावर्त की उन्नति हुई है, लेकिन स्वयंवर विवाह से हानि छोड़ देश की उन्नति हुई हो ऐसा तो कभी देखने में नहीं आया, इतिहास में देखें तो रमायण और महाभारत जैसे महायुद्ध का कारण स्वयंवर विवाह ही था और दोनों ही युद्धों में आर्यावर्त की भारी क्षति ही हुई है उन्नति कैसी?
और विवाह का अधिकार लड़का लड़की के आधिन करके तुमने कन्यादान की प्रथा ही मिटाने की सोच ली, मुझे नहीं लगता तुम जैसा मन्द बुद्धि कन्यादान का अर्थ भी समझता होगा, जब कन्यादान शब्द विवाह में कहा जाता है तो बिना पिता की अनुमति के स्वयं कैसे पति वरण कर सकती है, जबकि दान तो दिया जाता है तो देने वाले को अधिकार है परन्तु दाता को पात्र-पात्र का विचार अवश्य कर लेना चाहिए, परन्तु तुमने तो कन्यादान की प्रथा ही मिटाने की ठान रखी है
और मनु जी भी स्त्री की स्वाधीनता नहीं अंगीकार करते हैं देखिए-
 
बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पाणिग्राहस्य यौवने।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतन्त्रताम्॥
यस्मै दद्यात्पिता त्वेनां भ्राता वानुमते पितुः।
तं शुश्रूषेत जीवन्तं संस्थितं च न लङ्घयेत्॥
-मनुस्मृति [अ० ५, श्लोक १४८,१५१]
स्त्री को बचपन में पिता के अधीन, युवा होने पर हाथ ग्रहण करने वाले पति के अधीन, तथा पति की मृत्यु हो जाने के पश्चात पुत्रों के अधीन रहना चाहिए, परन्तु स्वतंत्र कभी नहीं रहना चाहिए,

लड़की का यह धर्म है कि उसका पिता या पिता की आज्ञा से भाई जिस भी पुरूष से उसका विवाह करें, वह उसे पति रूप में स्वीकार कर जीवन भर उसकी सेवा करें, पति की मृत्यु हो जाने पर अपने धर्म का पालन करें, इत्यादि प्रमाणों के अनुसार विवाह का अधिकार पिता माता के अधीन ही होना चाहिए, स्त्री स्वयं पति वरण नहीं कर सकती और जो स्वयंवर है वह केवल राजा महाराजाओं में हुआ करते हैं

 
 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६८,
कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकान्त में मेल न होना चाहिए क्योंकि युवावस्था में स्त्री पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक है, परन्तु जब कन्या वा वर के विवाह का समय हो अर्थात् जब एक वर्ष वा छः महीने ब्रह्मचर्याश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहैं तब उन कन्या और कुमारों का प्रतिबिम्ब अर्थात् जिस को ‘फोटोग्राफ’ कहते हैं अथवा प्रतिकृति उतार के कन्याओं की अध्यापिकाओं के पास कुमारों की, कुमारों के अध्यापकों के पास कन्याओं की प्रतिकृति भेज देवें, जिस-जिस का रूप मिल जाय उस-उस के इतिहास अर्थात् जन्म से लेके उस दिन पर्यन्त जन्मचरित्र का पुस्तक हो उस को अध्यापक लोग मंगवा के देखें, जब दोनों के गुण, कर्म, स्वभाव सदृश हों तब जिस-जिस के साथ जिस-जिस का विवाह होना योग्य समझें उस-उस पुरुष और कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास कन्या और वर के हाथ में देवें और कहें कि इस में जो तुम्हारा अभिप्राय हो सो हम को विदित कर देना, जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाय तब उन दोनों का समावर्त्तन एक ही समय में होवे, जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहां, नहीं तो कन्या के माता पिता के घर में विवाह होना योग्य है, जब वे समक्ष हों तब उन अध्यापकों वा कन्या के माता पिता आदि भद्रपुरुषों के सामने उन दोनों की आपस में बातचीत, शास्त्रर्थ कराना और जो कुछ गुप्त व्यवहार पूछें सो भी सभा में लिखके एक दूसरे के हाथ में देकर प्रश्नोत्तर कर लेवें
समीक्षक— अब स्वामी जी की फोटो विवाह की लीला सुनिए, भला इसमें कौन सी श्रुति प्रमाण है कि कन्या की फोटो वर और वर की फोटो कन्या के अध्यापक के पास जाए, जबकि वर और कन्या के पास फोटो गई तो वे सूरत के अलावा और कुछ देख ही नहीं सकते, और जीवन चरित्र कहाँ से आवें जबकि दोनों अध्यापक के पास पढ़ते हैं और उस समय जीवन चरित्र की आवश्यकता भी क्या है? क्योकि केवल विद्या अध्ययन के अलावा और उनके जीवन चरित्र में क्या हो सकता है, यही की ये ये विषय पढ़े है या फिर और कुछ? यदि और कुछ तो वो क्या हो? और उनमें कौन से चरित्र लिखें जाएं, आपने इस विषय में कुछ बताया ही नहीं, जो कहो कि जन्म से लेकर २५, ३० और ४८ वर्ष तक का पूरा जीवन चरित्र हो तो प्रश्न यह उठता है कि उसमें क्या लिखें? यही की जन्म से पाँच वर्ष की अवस्था तक खेला कूदा उसके अलावा गुरूकुल में जाकर पढ़ने लगा, इसके अलावा और क्या हो सकता है और उस जीवन चरित्र का लेखक और साक्षी कौन होगा, तुम या तुम्हारे नियोगी चैले? जो कहो की अध्यापक जीवन चरित्र लिखें तो यदि एक अध्यापक के पास ५० से १०० शिष्य भी हुए और वह उनका २५, ३० और ४८ वर्ष का जीवन चरित्र लिखने बैठ जाए तो विद्यार्थीयों को घण्टा पढ़ायेगा, या तो फिर वो जीवन चरित्र ही लिखेगा या फिर पढ़ा ही लेगा, और बिना लाभ २५, ३० या ४८ वर्ष का इतिहास लिखने कौन बैठे? एक दो हो तो लिख भी दे परन्तु जहाँ ५०-१०० विद्यार्थीयों का ४८ वर्ष तक का इतिहास लिखना हो वहाँ क्या पता? क्योकि जब विद्यार्थी अध्यापक के पास ही रहे हैं तो उनकी व्यवस्था वे ही ठीक प्रकार से जानते हैं और जब वह धन लेकर ही पुस्तक बनायेंगे तो यह भी संभव है कि अधिक धन देने वाले के अवगुणों को छिपाकर केवल गुण ही लिखें, क्योकि वे तो इस बात को जानते ही हैं कि यदि विद्यार्थीयों के अवगुण लिखेंगे तो उनका विवाह नहीं होने का, इसी प्रकार लड़की भी करेगी जो कुछ घर से खर्च मिलेगा उसमें से कुछ जीवन चरित्र लिखने वाले को भेंट करेगी, जो कहो की सब ऐसे नहीं होते तो और सुनो, यदि उन्होंने लड़के लड़की के अवगुणों का जीवन चरित्र लिखा तो अब उनसे कौन विवाह करें वो किसकी जान को रोवें, विधवा पर तो आपने मेहरबान होकर उसके वास्ते नियोग और एकादश (ग्यारह) पति  करने को लिख दिया परन्तु वे कुमारी क्या करें? वो पति करें या नहीं और करें तो कितने करें? यह कुछ नहीं लिखा तुमने क्योकि जो अवगुणयुक्त है उनसे विवाह कौन करें? और फोटो से पसंद करने के उपरांत यदि उसे कोई दूसरा उससे अधिक रूप गुण वाला मिला तो वो स्त्री किसी दूसरे के संग करने की इच्छा कर सकती है इससे तुम्हारा यह फोटो विवाह वाला फॅार्मूला यही भ्रष्ट हो जाता है
और यह गुरूकुल में जाने से पहले जन्म से लेकर पाँच वर्ष की अवस्था तक का इतिहास किस काम आयेगा और उसमें लिखा क्या जाए? धूरी में  लेटना, पड़े पड़े मूत्रादि कर देना, रोटी को ओटी, पानी को मम कहना क्या यह सब भी लिखा जाए, क्योकि यज्ञोपवीत के पश्चात गुरूकुल में विद्या अध्ययन के लिए गए विद्यार्थी का जीवन चरित्र सिवाय पढने के और हो भी क्या सकता है? और यदि जीवन चरित्र को ही प्रमाण मानते हो तो कोई स्वामी जी से यह पूछे कि तुम्हारा और तुम्हारे माता पिता का ४० वर्षों का जीवन चरित्र कहाँ है? यदि कोई दयानंदी यह बोलें की 'दयानंददिग्विजयार्क' दयानंद का जीवन चरित्र है तो वह तो किसी दयानंदी चैले ने दयानंद की मृत्यु के उपरांत रचा है इसलिए वह प्रमाण नहीं जो कहे कि दयानंद ने अपना आत्मचरित १८८० के 'थियोसोफिस्ट पत्र' में छपवाया तो भी बिना साक्षी स्वयं लिखित जीवन चरित्र प्रमाण नहीं क्योकि अपना चरित्र कोई अपने आप लिखें तो वह अपने अवगुण नहीं लिखता, क्योकि जो अपने अवगुण भी लिखें तो सिवाय निंदा के कुछ प्राप्त न हो, सो यह संभव है कि अपना चरित्र लिखने वाला बडाई की इच्छा से बहुत कुछ असत्य भी लिखता है, इसलिए वो जीवन चरित्र प्रमाण नहीं,
और जैसा कि ईसाइयों में प्रचलित हैं कि लड़का लड़की अपनी मर्जी से पादरी के सामने विवाह कर लेते हैं उसी प्रकार स्वामी जी लिखते हैं कि “जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वही कर लेवें”स्वामी जी का आशय तो वही है परन्तु थोड़ा सा घुमा कर लिखा है अरे भाई सिधा-सिधा लिख देना था कि ईसाई बन जाओं, प्राचीन समय से आज तक तो पिता, माता, भाई सम्बन्धीयों के सम्मुख कन्या के घर पर ही विवाह होता आया है पर स्वामी जी ने यह नई प्रथा चला दी की लड़का लड़की अपनी इच्छा से अपने आप ही विवाह कर लेवें, और तो स्वामी जी ने यह भी खुब लिखा कि “जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाये उसके पश्चात ही अध्यापक उनके पिता माता को यह सूचना दे” धन्य है स्वामी जी आपकी बुद्धि, अरे भाई जब सारी प्राचीन प्रथा मिटा ही डाली तो इसकी भी क्या जरूरत है? सिधा जब उनके बच्चे वगैरह हो जाएं  तो कन्या के घर सूचना भीजवा देते, जब माता पिता से विवाह का अधिकार ही छिन लिया तो फिर विवाह तय हो जाने के बाद माता पिता को सूचना देने का क्या मतलब बनता है? यही तो तुम्हारे भंग की तरंग है भंग के नशे में क्या लिख दिया? खुद को खबर नहीं,
और सुनिए जब कन्या के पास २५-३० लड़को की फोटो जाएगी तो निश्चय ही सबमें कोई न कोई अलग बात अंदाज सबमें कुछ न कुछ तो विशेषता अवश्य होगी, अब पसंद किसे करें दबाव में किसी एक को तो स्वीकार करना ही होगा, परन्तु मन में तो और पुरूषों का भी कटाक्ष समाया रहेगा और यहीं व्यभिचार का लक्षण है, क्योकि सभी अपने से उत्तम को ही चाहते हैं स्वामी जी गुण कर्म मिलाने को लिखते हैं लेकिन कन्या की इच्छा विशेष में हुई और वे अध्यापक गुण कर्म मिलाने लगे और कन्या से बोलें इनमें से एक पसंद कर लो तो अब लाचारी में ही सही उसे उनमें से एक को स्वीकार करना ही होगा पर मन में तो और ही पुरुष रहा और ठीक यही दशा पुरुषों की भी है तो अब कहो वह पति का अचल प्रेम और आपस की सम्मति कहाँ रही?
और गुण कर्म घण्टा मिलावें कर्म तो सबका पढना ही हुआ फिर मिलावें क्या  यही की जो जो  विषय लड़के ने पढ़ा है वह लड़की ने पढ़ा है या नहीं, कदाचित यदि लड़की को झाडू पोछा करना आता हो तो लड़का भी झाडू पोछा करना जानता हो वर्ना कर्म कैसे मिलेगा? और गुण कौन से मिलावे यही की यदि किसी में तमोगुण हो तो दुसरा भी तमोगुणी होना चाहिए जो रात दिन घर में कलेश होता रहे, और यह क्या बात हुई कि गुण कर्म न मिले तो विवाह ही न करें, विधवा कि तो कामग्नि बुझाने को तुमने यह दया करी कि उसे एकादश (ग्यारह) पति करने को लिख दिया, ग्यारह पति करने में कोई दोष नहीं और कुमारी पर यह कोप की विवाह ही न करें भला उसकी संतान उत्पत्ति की इच्छा और कामबाधा को कौन पूर्ण करेगा? धन्य हे स्वामी जी आपकी बुद्धि, लगता है यह लेख लिखने से पूर्व भर लौटा भंग पिया था,

और स्वामी जी ने यहाँ वह गुप्त बात भी न लिखीं कि क्या पूछे, यही की नपुंसकादि रोग तो नहीं है या ये की विर्यस्थापन और विर्यआकर्षण की विधि आती है या नहीं, अब भला यह बात बिना परीक्षण ज्ञात कैसे हो? और जो गुप्त बात है उसे अध्यापक कैसे देखें क्या वे भी किसी प्रकार उनसे निर्लज्जता युक्त भाषण करें, अरे भाई गुप्त बबात को खोलकर ही लिख देते की विवाह से पूर्व एक बार संयोग भी हो जाए तो सब भेद खुल जाएं, लेकिन अब कन्या की परीक्षा कैसे हो कि कहीं वह बांझ तो नहीं है क्योंकि बांझ हुई तो संतान कहाँ से होवे इसलिए या तो किसी अच्छे से डॅाक्टर से जाँच करायें या फिर दो, चार महीने संयोग होता रहे जो गर्भ स्थित हो जाए तो विवाह कर लें अन्यथा छोड़ दें, क्यों स्वामी जी गुप्त बात से आपका यही अभिप्राय है न या फिर और कुछ,

 
 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६९,
जिस दिन कन्या रजस्वला होकर जब शुद्ध हो तब वेदी और मण्डप रचके अनेक सुगन्ध्यादि द्रव्य और घृतादि का होम तथा अनेक विद्वान् पुरुष और स्त्रियों का यथाथोग्य सत्कार करें, पश्चात् जिस दिन ऋतुदान देना योग्य समझें उसी दिन ‘संस्कारविधि’ पुस्तकस्थ विधि के अनुसार सब कर्म करके मध्यरात्रि वा दश बजे अति प्रसन्नता से सब के सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह की विधि को पूरा करके एकान्तसेवन करें,
पुरुष वीर्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण की जो  विधि है उसी के अनुसार दोनों करें,,,,,,,,जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरुष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहैं, डिगें नहीं, पुरुष अपने शरीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्यप्राप्ति समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थित करे, पश्चात दोनों शुद्ध जल से स्नान करें यह बात रहस्य की है इतने में ही समग्र बातें समझ लेनी चाहिए विशेष लिखना उचित नहीं
समीक्षक— वाह स्वामी जी वाह! विवाह का समय क्या अद्भुत रखा है कि जिस दिन रजस्वला होकर शुद्ध हो उस दिन विवाह करें और तुम्हारी बनाईं संस्कार विधि के अनुसार विवाह करावें,  यह बड़ी अनोखी बात कह दी तुमने, अब यह बताओ की जब तुम्हारी लिखीं संस्कार विधि नहीं थी तब काहें के अनुसार विवाह होता था, तुम्हारे माता पिता का विवाह कौन से ग्रंथ के अनुसार हुआ था या फिर तुम बिना विवाह के ही उत्पन्न हो गए, क्योकी आपसे पहले तो आपकी संस्कार विधि पुस्तक नही थी, क्योकि तुम तो यह आरोप लगाते हो कि ब्राह्मणों ने ग्रंथ कल्पना कर लिए, तो अब यह बताइये की पूर्व ऋषि मुनि विवाह क्रिया कौन से ग्रंथ अनुसार करते थे, क्योकि यह पुस्तक तो जब बनीं ही नहीं थी, और स्वामी जी ने इसमें बनाया ही क्या है? क्योकि वेद मंत्र तो पूर्वकाल से ही थे, बस तुमने उसमें भाषा लिख दी है और तृतीया समुल्लास के 'पठन पाठन प्रकरण' में तुमने सब भाषा ग्रंथ त्याज्य माना है इसलिए यह भी भाषा मिश्रित होने से त्यागने योग्य है क्योंकि कार्य तो मंत्रों द्वारा होता है भाषा से कुछ प्रयोजन नहीं, फिर तुमने उसमें ऐसा क्या बनाया है जो तुम्हारी संस्कार विधि से ही विवाह करावें, और जहाँ तुम्हारी यह संस्कार विधि पुस्तक नहीं है वहाँ के लड़के लड़की क्या करें विवाह ही न करें,
अब जरा स्वामी जी की संस्कार विधि की शिक्षा सुनिए, “पुरुष स्त्री के हृदय पर हाथ धर के और स्त्री पुरुष के हृदय पर हाथ धर के कहे तुम सदा मेरे मन में बहते रहो” जहाँ सभी सम्बन्धी वृद्ध बच्चे उपस्थित हो वहाँ स्त्रीयों की ऐसी ढीठता, और यह भी देखिए कि मन में पति को बसा रही है और नियोग के समय अन्य ग्यारह परपुरूषों के साथ नग्न सोती है वाह रे तेरी संस्कार विधि, इसका नाम संस्कार विधि नहीं बल्कि व्यभिचार विधि रख देना चाहिए यह तुम्हारा ४८ वर्ष के बुढ्ढे के साथ २४ वर्षीय स्त्री का विवाह और एकादश पुरुषों के साथ नियोग यह दो लज्जा नाशक व्यभिचार के खंभ है,
आगे सुनिए, स्वामी जी लिखते हैं कि “विवाह सम्पन्न हो जाने पर दोनों स्त्री पुरुष अति प्रसन्नता के साथ सबके सामने एकान्त सेवन करें” अब जरा सोचिए जहाँ माता पिता, भाई सम्बन्धी और वृद्धजन उपस्थित हो वहाँ उन सबके सामने से दोनों स्त्री पुरुष लाजशील छोड़ दश ग्यारह बजे ही एकांत सेवन के लिए चले जाए, धन्य हे स्वामी जी आपकी बुद्धि, और सुनिए आगे लिखते हैं कि “पुरुष वीर्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण की जो  विधि है उसी के अनुसार दोनों करें ,,,,,,,,जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरुष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहैं, डिगें नहीं, पुरुष अपने शरीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्यप्राप्ति समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थित करे” वाह रे वाह! सत्यार्थ प्रकाश के बनाने वाले लालभुजक्कड़ क्या कहना! तुझ को ऐसी अश्लील बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म न आई, निपट अन्धा ही बन गया, यह ग्रंथ है या फिर कोई कामशास्त्र, पाठकगण जरा ध्यान दें जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि पुरुष वीर्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण की जो  विधि है उसी के अनुसार दोनों करें अब प्रश्न यह है कि स्त्री ने वीर्याकर्षण का अभ्यास पहले से किया होगा तभी तो वह वीर्याकर्षण कर सकती है नहीं तो नहीं इसी प्रकार पुरुषों ने भी वीर्यस्थापन का अभ्यास पहले से ही किया होगा, तभी तो आता होगा, और आकर्षण बिना योग क्रिया के आ नहीं सकता, अब यह क्रिया कन्या और पुरूष को कौन सिखावें, क्या यह भी अध्यापक और अध्यापिकाओं के सर मढ़ोगे, क्योकि जब तक स्त्री और पुरुष का संयोग न हो तब तक उन्हें स्वयं आकर्षण का अभ्यास कैसे हो सकता है? इसी प्रकार पुरुषों को भी अभ्यास के लिए स्त्री की आवश्यकता होगी, न जाने यह विद्या स्वामी जी ने कहाँ से सीखी है जब यह विधि स्वामी जी को आती होगी तभी तो लिखीं हैं लगता है स्वामी जी ने इसका काफी अभ्यास किया है तभी इतने विश्वास के साथ लिखा है
कन्या के माता पिता भी बहुत प्रसन्न होते होंगे कि हमारी पुत्री वीर्याकर्षण कर रही है और जमाता वीर्यस्थापन कर रहे हैं, “और पति स्त्री से कहें कि मैं अब वीर्यस्थापन करता हूँ और वह कहती जाये छोड़ो मैं वीर्याकर्षण करती हूँ” वाह रे वाह! सत्यार्थ प्रकाश के बनाने वाले लालभुजक्कड़ क्या कहने तेरे! यह रीति तो वैश्याओं तक को लज्जित करने वाली है, इस प्रकार का अश्लील लेख तो सेक्सी उपन्यासों में भी न मिलेगा, अपने लाडले शिष्यों के मनोरंजन के लिए अच्छा कामशास्त्र लिखा है, क्योकि बिना कहें तो विदुषी स्त्री जान नहीं सकती कि कब वीर्यपात होने वाला है तो अब जब पति कहेगा कि मैं छोड़ता हूँ तो वह स्त्री निर्लज्ज हो कहें कि छोड़ो मैं आकर्षण करने के लिए तैयार हूँ दूसरी ओर कन्या के माता पिता भी प्रसन्न होते होंगे कि पुत्री वीर्याकर्षण कर गर्भधारण कर रही है, भाड़ में जाए ऐसी रीति जो वैश्याओं तक को लज्जित कर दे, इससे ही ज्ञात हो जाता है कि स्वामी जी ने कामशास्त्र में कितना अभ्यास किया है,
अब जहाँ तक मैंने पढ़ा है कि जब तक स्त्री का रज और पुरूष का वीर्य नहीं मिलता तब तक गर्भ की स्थिति नहीं होती, इसलिए जब तक रज वीर्य नहीं मिलते तब तक चाहे स्त्री अपान वायु को ऊपर खींचें, या फिर योनि को ऊपर संकोच कर आकर्षण करें तो भी गर्भ स्थित होना कठिन ही हैं

और यदि स्वामी जी की ही बात सत्य मानें तो सत्यार्थ प्रकाश और संस्कार विधि से पूर्व सृष्टि ही नहीं होनी चाहिए थी और यदि ऐसे ही होता तो तुम्हारा जन्म भी नहीं होता यदि गर्भ का तत्काल धारण करना स्त्रीयों के आधिन होता तो क्यों कोई स्त्री बांझ होती यह तुम्हारी बात रहस्य की तो नहीं किन्तु निर्लज्जता से भरी वर्ण व्यवस्था का सत्यानाश करने वाली है यह स्वामी जी के ही लेख का उत्तर है जितने दोष उसमें गुप्त रूप से लिखें थे उन्हें खोलकर समझा दिया है जिससे कि मनुष्य इस सभ्यतानाशक (आर्य समाज) अंधकूप में गिरने से बचें यह केवल दयानंद के लेख का उत्तर था इसलिए ध्यान रहे दयानंद के पंथ में आने के बाद ये ये अनर्थ करने पड़ेंगे इसका ध्यान करने के बाद ही इधर कदम रखना,

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६९-७०,
गर्भ में दो संस्कार एक चौथे महीने पुंसवन और दूसरा आठवें महीने में सीमन्तोन्नयन विधि के अनुकूल करे,
,,,,,,,,सन्तान के कान में पिता ‘वेदोऽसीति’ अर्थात् ‘तेरा नाम वेद है’ सुनाकर घी और सहत को लेके सोने की शलाका से जीभ पर ‘ओ३म्’ अक्षर लिख कर मधु और घृत को उसी शलाका से चटवावे, पश्चात् उसकी माता को दे देवे, जो दूध पीना चाहै तो उस की माता पिलावे जो उस की माता के दूध न हो तो किसी स्त्री की परीक्षा कर के उसका दूध पिलावे, पश्चात् दूसरे शुद्ध कोठरी वा जहां का वायु शुद्ध हो उसमें सुगन्धित घी का होम प्रातः और सायंकाल किया करे और उसी में प्रसूता स्त्री अपने शरीर के पुष्टि के अर्थ अनेक प्रकार के उत्तम भोजन और योनिसंकोचादि भी करे, छठे दिन स्त्री बाहर निकले और सन्तान के दूध पीने के लिये कोई धायी रक्खे, वह सन्तान को दूध पिलाया करे और पालन भी करे, स्त्री दूध बन्ध करने के अर्थ स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करे कि जिस से दूध स्रवित न हो,
पश्चात् नामकरणादि संस्कार ‘संस्कारविधि’ की रीति से यथाकाल करता जाय
समीक्षक— भला यह चौथे आठवें महीने के संस्कार से क्या लाभ विचारा है स्वामी जी ने? प्राचीन लोगों में तो संस्कार से निर्मूल बुद्धि आरोग्यता शुभ कर्म युक्त सन्तान संस्कार करने से होता है ऐसा मानते हैं और स्वामी जी ने तो हवन में वेद मंत्र कंठ रहने का लाभ बताया है, फिर यहाँ संस्कार से क्या सिद्धि है? क्या जाने की वो शुद्र ही हो जाएं तो यह गर्भाधान के दो संस्कार मिथ्या ही जायेंगे और संस्कार की स्वामी जी ने आवश्यकता ही क्यों लिखीं जबकि वे पहले ही लिख आए हैं कि बिना यज्ञोपवीत के शुद्र को मंत्र भाग पढ़ावे तो फिर संस्कार की आवश्यकता क्या है? जब ४८ वर्ष उपरांत ब्रह्मचर्य हो चूकेगा तब वर्णों में योग्यता अनुसार कर दिया जाएगा,
और जैसा कि स्वामी जी ने आगे लिखा है “बालक को स्वर्ण की शलाके से घी शहद चटाना जीभ पर ओम् लिखना बालक के कान में तेरा नाम वेद हैं” ऐसा कहना इससे क्या प्रयोजन है? तथा स्वामी जी द्वारा रचित संस्कार विधि के अनुसार बालक से ऐसी बातें कहना जैसे कोई बड़ो से कहें “हे बालक मैं तुझे मधु धृत का भोजन देता हूँ, तुझे मैं वेद का दान देता हूँ, हे बालक भूगोल, अन्तरिक्ष, स्वर्गलोक का ऐश्वर्य तुझमें मैं धारण करता हूँ” विचारने की बात है क्या यह स्वामी जी का तंत्र नहीं है अरे भाई आप ऐसे कहाँ के परमेश्वर के दरोगा है जो तीनों लोकों का ऐश्वर्य चाहे जिसे हाथ उठाया दे दिया और बालक क्या भूखे मरेंगे, और जिसे त्रिलोक का ऐश्वर्य मिल गया तो वह दरिद्र न होना चाहिए अब क्योंकि जब सबके संस्कार की यही विधि है तो कोई दरिद्र नहीं होना चाहिए, और बालक के कान में यह कहना कि तेरा नाम वेद हैं भला वो दस दिन का बालक क्या समझेगा कि वेद किसे कहते हैं? आठ दस वर्ष का बालक तो वेद मंत्र नहीं समझ पाता और यह दस दिन का बालक वेद तक समझता है, धन्य हे स्वामी जी आपकी बुद्धि, जो ये कहो कि यह कथन मात्र है तो जन्मते ही बालक को झूठ में क्यों फसाना?
आगे स्वामी जी लिखते हैं कि “इसके पश्चात् दूसरे शुद्ध कोठरी में जहां की वायु शुद्ध हो उसमें सुगन्धित घी का होम प्रातः और सायंकाल होता हो उसी में प्रसूता स्त्री अपने शरीर के पुष्टि के अर्थ योनिसंकोचादि करे” वाह जी वाह! क्या कहने स्वामी जी के, योनिसंकोचन के लिए क्या जगह का चुनाव किया है? बहुत खुब, स्वामी जी को योनि संकोचन का बड़ा ध्यान रहता है परन्तु स्वामी जी ने यह नहीं बताया कि प्रसूता स्त्री योनिसंकोचन कब और किस प्रकार करें, प्रात: होम के समय या फिर सांय होम के समय करें या फिर दोनों संध्यावेला में, होम के समय योनिसंकोचन करें या फिर होम की समाप्ति पर योनि संकोचे आपने कुछ बताया नहीं और ना ही यह बताया कि किस प्रकार योनिसंकोचन करें यदि कोई औषधि वगैरह लिख देते तो विषयी स्त्रियाँ आपसे बड़ी प्रसन्न होती परन्तु आपने कुछ बताया ही नहीं बस यह लिख दिया कि “जहाँ सुगन्धित घी का होम प्रातः और सायंकाल होता हो उसी में प्रसूता स्त्री योनिसंकोचन करें” शोक है ऐसी बुद्धि पर जिस स्थान पर होमादि करें वही स्त्री योनिसंकोचन करें, क्या यही तुम्हारा धर्म यही तुम्हारी शर्म है,

आगे देखिए आगे लिखते हैं कि “छ: दिन तक माता दूध पिलावे उसके पश्चात प्रसूता स्त्री दूध बन्द करने के अर्थ स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करें कि जिससे दूध स्त्रावित न हो” बहुत खुब! दूध रोकने के अर्थ स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करें, कैसा लेप करें? और काहें का लेप करें? और काहें को लेप करें? गपोड़ानंद जी महाराज कुछ कारण तो लिख दिया होता, जिस अमृत तुल्य दूध का प्रकृति स्वतः निर्माण करती है उस दूध को रोकने का प्रयोजन क्या है? यदि प्रसूता स्त्री का दूध व्यर्थ ही होता तो फिर यह स्वतः बनता ही क्यों है? कुछ नहीं तो उस औषधि का नाम ही लिख देते जिसके लेप से दूध का स्त्राव रूक जाए इस पुस्तक का नाम सत्यार्थ प्रकाश नहीं बल्कि निर्लज्ज प्रकाश होना चाहिए था स्वामी जी इस पुस्तक तथा अपनी संस्कार विधि में ऐसे मिथ्या संस्कार लिखें हैं जो प्राचीन प्रथा के बिल्कुल विरुद्ध है,

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६४,
येनास्य पितरो याता येन याता पितामहाः।
तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते ॥ ~मनु०
जिस मार्ग से इस के पिता, पितामह चले हों उस मार्ग में सन्तान भी चलें परन्तु (सताम्) जो सत्पुरुष पिता पितामह हों उन्हीं के मार्ग में चलें और जो पिता, पितामह दुष्ट हों तो उन के मार्ग में कभी न चलें
,,,,,,,,, किसी का पिता दरिद्र हो उस का पुत्र धनाढ्य होवे तो क्या अपने पिता की दरिद्रावस्था के अभिमान से धन को फ़ेंक देवे?  क्या जिस का पिता अन्धा हो उस का पुत्र भी अपनी आंखों को फोड़ लेवे?  जिस का पिता कुकर्मी हो क्या उस का पुत्र भी कुकर्म को ही करे
समीक्षक— अर्थ का अनर्थ करना तो कोई स्वामी जी से सीखें, स्वामी जी अपनी आदत से मजबूर है स्वामी जी ने इस श्लोक का जैसा अर्थ किया है इसका अर्थ वैसा कतई नहीं है देखिए स्वामी जी लिखते हैं कि “किसी का पिता दरिद्र हो उस का पुत्र धनाढ्य होवे तो क्या अपने पिता की दरिद्रावस्था के अभिमान से धन को फ़ेंक देवे?  क्या जिस का पिता अन्धा हो उस का पुत्र भी अपनी आंखों को फोड़ लेवे” स्वामी जी की यह बात इस स्थान में प्रसंग के विरुद्ध है भला वर्णव्यवस्था से इस बात का क्या सम्बन्ध? और यह नेत्रहीन होना क्या कर्मानुसार हैं जो तुम लिखते हो कि “जिसका पिता अन्धा हो तो क्या पुत्र भी आँखें फोड़ लेवें” भला इस बात का इस श्लोक से क्या सम्बन्ध?
गलती स्वामी जी की नहीं है उनकी बुद्धि जहाँ तक काम करती हैं वह उतना ही लिखते हैं सो स्वामी जी औरों का तो आपने दुष्टआचरण बताया, अपने बड़ो को दरिद्र और नेत्रविकारी ठहराने से पूर्व धर्म और धर्म वालों पर आक्षेप किया सो आपके इस लेख से यह भी विदित होता है कि आपके पिता, पितामह दुष्ट आचरण वाले थे इसलिए आपने उस मार्ग को छोड़ दिया जिस पर आपके पिता, पितामह चलते आए, अर्थात इस समय आपके आचरणों पर आपके शिष्यों को चलना चाहिए

देखिए इस श्लोक का अर्थ वैसा नहीं है जैसा आप दिखाने का प्रयत्न करते हैं इस श्लोक का आशय यह है कि “जिस पुण्य पथ पर व्यक्ति के पिता, पितामह, पूर्वज चलते रहे हैं वहीं श्रेष्ठ मत अर्थात सत्पुरुषों का अनुष्ठान किया हुआ है (क्योकि वे वेद के जानने वाले थे इस कारण संध्या, अग्निहोत्र, श्राद्धादि सिद्धांतों को निभ्रान्त करते थे) उसी पुण्य पथ पर पुत्र भी चलें” यह नहीं कि आपके पिता (अम्बाशंकर) तो सनातन धर्म का प्रतिपालन करें और बेटा मूर्ति पूजा श्राद्धादि का खंडन करता फिरें, पिता पतिव्रता धर्म का प्रचार करें और बेटा स्त्रीयों को एकादश पति करवाता फिरें, पिता विधवा से व्रत करावें और बेटा विधवा से नियोग करवाता फिरें, माता पिता तो पुत्र को अच्छे संस्कारों से पोषित करें और बेटा माता से पुत्र को अश्लील शिक्षा करने को कहें, इत्यादि इन्हीं आधुनिक मतों का निषेध करते हुए मनु जी ने यह श्लोक लिखा है कि जिस पुण्य पथ पर पिता, पितामह चले हो उसी पथ पर आप चलें

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ६५,
 
 
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या  शूद्रो अजायत॥
यह यजुर्वेद के ३१वें अध्याय का ११वां मन्त्र है, इसका यह अर्थ है कि ब्राह्मण ईश्वर के मुख, क्षत्रिय बाहू, वैश्य ऊरू और शूद्र पगों से उत्पन्न हुआ है।
दयानंद का उत्तर- इस मन्त्र का अर्थ जो तुम ने किया वह ठीक नहीं क्योंकि यहां पुरुष अर्थात् निराकार व्यापक परमात्मा की अनुवृत्ति है, जब वह निराकार है तो उसके मुखादि अंग नहीं हो सकते, जो मुखादि अंग वाला हो वह पुरुष अर्थात् व्यापक नहीं और जो व्यापक नहीं वह सर्वशक्तिमान् जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, प्रलयकर्त्ता जीवों के पुण्य पापों की व्यवस्था करने हारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्युरहित आदि विशेषणवाला नहीं हो सकता।
इसलिये इस का यह अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह (ब्राह्मणः) ब्राह्मण (बाहू) बल वीर्य का नाम बाहु है वह जिस में अधिक हो सो (राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरू) कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम है जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरू के बल से जावे आवे प्रवेश करे वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अंग के सदृश मूर्खतादि गुणवाला हो वह शूद्र है, जैसा मुख सब अंगों में श्रेष्ठ है वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से युक्त होने से मनुष्यजाति में उत्तम ब्राह्मण कहाता है, जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं हैं तो मुख आदि से उत्पन्न होना असम्भव है, और जो मुखादि अंगों से ब्राह्मणादि उत्पन्न होते तो उपादान कारण के सदृश ब्राह्मणादि की आकृति अवश्य होती। जैसे मुख का आकार गोलमोल है वैसे ही उन के शरीर का भी गोलमोल मुखाकृति के समान होना चाहिये, क्षत्रियों के शरीर भुजा के सदृश, वैश्यों के ऊरू के तुल्य और शूद्रों के शरीर पग के समान आकार वाले होने चाहिये। ऐसा नहीं होता और जो कोई तुम से प्रश्न करेगा कि जो जो मुखादि से उत्पन्न हुए थे उन की ब्राह्मणादि संज्ञा हो परन्तु तुम्हारी नहीं; क्योंकि जैसे और सब लोग गर्भाशय से उत्पन्न होते हैं वैसे तुम भी होते हो, तुम मुखादि से उत्पन्न न होकर ब्राह्मणादि संज्ञा का अभिमान करते हो इसलिये तुम्हारा कहा अर्थ व्यर्थ है और जो हम ने अर्थ किया है वह सच्चा है
समीक्षक— दयानंद उन लोगों में से है जो बुद्धि के पीछे लठ लेकर दौड़ते है शायद स्वामी जी नहीं जानते कि यह पुरुष सुक्त का मंत्र है इसमें सृष्टि उत्पन्न होने का वर्णन है और स्वामी जी हे की गुण कर्म के गीत गा रहे हैं, धन्य हे स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि,
यदि स्वामी जी इसके पूर्व का मंत्र लिख देते तो सब भेद खुल जाता देखिए इससे पूर्व ये मंत्र है कि-
 
यत् पुरुषं व्य् अदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किम् अस्य कौ बाहू का ऊरू पादा ऽ उच्येते॥
~यजुर्वेद {३१/१०}
(प्रश्न)- जिस परमेश्वर का यजन किया उसकी कितने प्रकारों से कल्पना हुई उसका मुख, बाहु, उरू, कौन हुए और कौन पाद कहे जाते हैं
इसके उत्तर में यह मंत्र है कि--
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्या  शूद्रो अजायत॥ ~यजुर्वेद {३१/११}
(अस्य) उस परमेश्वर के, (मुखम्) मुख से, (ब्राह्मण) ब्राह्मण, (बाहु कृतः) बाहु से, (राजन्यः) क्षत्रिय, (अस्य यत् उरू तत् वैश्यः) इसकी जो उरू है उससे वैश्य और (पद्भ्यां) चरणों से, (शूद्र:) शूद्र, (अजायत) उत्पन्न, (आसीत) हुआ,
इस प्रकार इसका सही अर्थ यह होता है इस मंत्र में कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लक्षण नहीं पूछता है किन्तु यह ईश्वर के विषय प्रश्न है, अब यदि स्वामी जी इसका यह अर्थ करें कि जो सब देशों में उरू के बल से आवें जावें वह वैश्य है तो फिर स्वामी जी यह बताए कि वैश्यों के अतिरिक्त जितने भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र है वे सब परदेश क्या रेंग कर जाते हैं? और जो उरू के बल से आवें जावें वह वैश्य है तो फिर तो जितने भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र परदेश में आते जाते हैं सब ही वैश्य होने चाहिए, पर जो बस, ट्रेन और जहाज से परदेश को आवें जावें उनका क्या नाम है? यह नहीं बताया, धन्य हे तुम्हारी की बुद्धि यवन मलेच्छ सब ही परदेश जाने वालों को तुमने वैश्य बना दिया अब कोई इन स्वामी जी से यह पूछे कि वे सब अपने गांव नगर में काहें के बल से चलते हैं जो और कुछ बल हो तो फिर जाने दीजिए और यदि घरों में भी जाघों के बल से ही आना जाना हो तो सब जगत ही वैश्य हो गया, धन्य हो स्वामी भंगेडानंद जी ब्राह्मण, क्षत्रिय और  शूद्र आपने तो सब मेट एक ही वर्ण बना दिया,
और सुनिए स्वामी जी आगे लिखते हैं कि “और (पद्भ्याम्) जो पग के सदृश मूर्खतादि गुणवाला हो वह शूद्र है” वाह स्वामी जी वाह! क्या बात है यह तो तुमने बड़ी ही विचित्र बात कह दी, क्या कहीं चरण भी मुर्ख होते हैं? चरणों के भी ज्ञानेन्द्रिय होती है? पैरों को मुर्ख कहना ठीक ऐसा है जैसे कि ईट और पत्थर से बात करना, धन्य हे स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि, पाठकगण! स्वयं समझ सकते हैं पैरों को मुर्ख कहने वाले दयानंद के अन्दर कितनी बुद्धि रही होगी, और (पद्भयां) चरणों से यह पंचमी विभक्ति कहाँ खो गई और (अजायत) जिसके अर्थ उत्पन्न होने के है इस प्रकार यह अर्थ होता है कि चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए और यहीं बात मनुस्मृति, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में भी लिखीं हैं देखिए इससे अगली श्रुति में भी उत्पन्न होने का वर्णन है इस मंत्र में भी स्पष्ट लिखा है कि -
 
चन्द्रमा मनसो जातश् चक्षोः सूर्यो ऽ अजायत।
मन से चन्द्रमा और नेत्रों से सूर्य उत्पन्न हुआ
यदि तुम्हारी चलती तो तुम इसका अर्थ भी बदलकर मन का नाम चन्द्रमा और नेत्रों का नाम सूर्य लिख देते,
जैसे कोई यह कहें कि अम्बाशंकर से दयानंद की उत्पत्ति हुई तो क्या स्वामी जी उसका अर्थ यह करेंगे कि “अर्थ का अनर्थ करने वाले, विधवा की कामाग्नि बुझाने के अर्थ उसे एकादश पति करने वाले, वर्णसंकर की रीति चलाने वाले ग्यारह पुरूषों के नियोग से उत्पन्न होने वाले को दयानंद कहते हैं”
और सुनिए स्वामी जी आगे लिखते हैं कि “जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं है तो मुखादि से उत्पन्न होना असंभव है” अब कोई स्वामी जी यह पूछे यदि ईश्वर निराकार है उसका कोई आकार नहीं है तो यह जो साकार सृष्टि है यह क्या स्वामी जी के घर से हुई है?
ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के पुरूष सुक्त  में पहले ही मंत्र में परमेश्वर के साकार स्वरूप का वर्णन आया है क्या यह स्वामी जी को दिखाई नहीं दिया निपट अन्धे ही हो गए, देखिए पुरूष सुक्त का यह मंत्र इसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि-
 
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥ ~[ऋग्वेद १०:९०:१], [यजुर्वेद का ३१:१]
भावार्थ: वे प्रभु अन्नत सिरों, आँखों व पैरों वाले हैं, वे पुरे ब्राह्माण्ड को आवृत करके भी दशांगुल जगत् से परे रहते है
क्या तुम्हें वेद में यह मंत्र दिखाई नहीं पड़ते, और यदि तुम्हारे कथनानुसार ही बात करें तो फिर तो निराकार से निराकार सृष्टि उत्पन्न होनी चाहिए परन्तु उससे संसार मूर्तिमान उत्पन्न हुआ, देखिए यजुर्वेद में भी स्पष्ट लिखा है कि-
 
तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऽ ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दाम् सि जज्ञिरे तस्माद् यजुस् तस्माद् अजायत॥
तस्माद् अश्वा ऽ अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज् जाता ऽ अजावयः॥
चन्द्रमा मनसो जातश् चक्षोः सूर्यो ऽ अजायत।
~{यजुर्वेद अध्याय ३१, मंत्र ७,८,१२}
उसी विराट पुरुष से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेदादि, उससे ही गाय, घोड़े, बैल आदि  पशु, मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य आदि उत्पन्न हुए,अब बोलिए यदि वह निराकार है उसके कोई अंग नहीं है तो फिर निराकार से यह साकार कैसे उत्पन्न हो गए? जो यह कहो की वेद का अग्नि, वायु, सूर्य आदि के हृदय में प्रकाश हुआ तो यह प्रश्न होगा कि वह अग्नि, वायु, सूर्यादि कहाँ से आये, जो कहो की अपने आप उत्पन्न हो गए तो स्वयंभू होने से वे ही ईश्वर हो गए और जो यह कहो की ईश्वर ने उत्पन्न किए तो क्या ईश्वर मनुष्याकृति का है? तो फिर यह गाय, घोड़े, बैल, बकरी आदि कहाँ से उत्पन्न हो गए, क्या इनका भी किसी के हृदय में प्रकाश कर दिया था? और जिनके हृदय में किया वे कहाँ से आए, इसी दो कौड़ी के ज्ञान के बल पर स्वामी जी स्वयं को तत्वज्ञानी समझते हैं ईश्वर की शक्ति की कुछ खबर नहीं, धन्य हे स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि, इसी प्रकार इस श्रुति का आशय लेकर ही मनु जी ने भी यह श्लोक लिखा है देखिए--
 
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥
~मनुस्मृति {अध्याय १, श्लोक ३१}
लोकों की वृद्धि के अर्थ ईश्वर ने मुख, बाहु, उरू और पाद से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को उत्पन्न किया” इस प्रकार स्वामी जी द्वारा किया अर्थ मिथ्या सिद्ध होता है और सुनिए आगे स्वामी जी मूर्खता के सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए लिखते हैं कि-
“जो मुखादि अंगों से ब्राह्मणादि उत्पन्न होते तो उपादान कारण के सदृश ब्राह्मणादि की आकृति अवश्य होती, जैसे मुख का आकार गोलमोल है वैसे ही उन के शरीर का भी गोलमोल मुखाकृति के समान होना चाहिये, क्षत्रियों के शरीर भुजा के सदृश, वैश्यों के ऊरू के तुल्य और शूद्रों के शरीर पग के समान आकार वाले होने चाहिये”स्वामी जी को मुर्खानंद ऐसे ही नहीं बोला जाता स्वामी जी क्या अंड संड बके जा रहे हैं वे स्वयं नहीं जानते, स्वामी जी का यह लेख पढ़कर विदित होता है कि स्वामी जी में बुद्धि की बहुत कमी है, क्योंकि जो उत्पादन कारण के सदृश आकृति लेते हो तो जो योनि से उत्पन्न होते हैं उनका आकार योनि के समान होना चाहिए, इसी प्रकार निराकार से निराकार ही उत्पन्न होना चाहिए, परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता, इसी से पता चल जाता है कि स्वामी जी में कितनी बुद्धि रही होगी, पक्का यह गपोड़ा तो स्वामी जी ने गहरे भंग के नशे में धुत होकर ही लिखा है
 

॥नियोग प्रकरण॥


 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८२,
(प्रश्न)-पुनर्विवाह में क्या दोष है?
(उत्तर)- (पहला) स्त्री पुरुष में प्रेम न्यून होना क्योंकि जब चाहे तब पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़ कर दूसरे के साथ सम्बन्ध् कर ले,
(दूसरा) जब स्त्री वा पुरुष पति स्त्री मरने के पश्चात् दूसरा विवाह करना चाहें तब प्रथम स्त्री के वा पूर्व पति के पदार्थों को उड़ा ले जाना और उनके कुटुम्ब वालों का उन से झगड़ा करना,
(तीसरा) बहुत से भद्रकुल का नाम वा चिन्ह भी न रह कर उसके पदार्थ छिन्न भिन्न हो जाना,
(चौथा) पतिव्रत और स्त्रीव्रत्य धर्म नष्ट होना इत्यादि दोषों के अर्थ द्विजों में पुनर्विवाह वा अनेक विवाह कभी न होने चाहिये
(देखिए फिर इसी के विरुद्ध पृष्ठ ८३ पर लिखा है)
,,,जो ब्रह्मचर्य न रख सके तो नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लें
समीक्षक— वाह रे! स्वामी नियोगानंद जी क्या दोष गिनवाये है? क्या यह सभी दोष तुम्हारे द्वारा ही लिखें लेखों से खंडित नहीं होते? देखिए-
(पहला) स्वामी जी के अनुसार पुनर्विवाह से स्त्री पुरुष में प्रेम न्यून होता है, तो अब स्वामी जी यह बताए कि जो तुमने स्त्री पुरुष के रहते ग्यारह अलग-अलग पुरुष और स्त्री से नियोग सम्बन्ध बनाना लिखा है क्या उससे उस स्त्री पुरुष के मध्य प्रेम न्यून नहीं होता? क्या एकादश परपुरूषों और स्त्रियों के साथ नियोग करने से पति पत्नी के बीच प्रेम बढ़ता है? कदापि नहीं, उल्टा इससे तो उनके बीच प्रेम और न्यून होगा, एक तरफ तो स्वामी जी पुनर्विवाह का विरोध करते हैं और दुसरी तरफ इस महाअधर्म व्यभिचार नियोग प्रथा को बढ़ावा देते हैं यह स्वामी जी का दोगलापन नहीं तो और क्या है?
(दूसरा) स्वामी जी द्वारा चलाए महाअधर्म व्यभिचार नियोग प्रथा के अनुसार जब स्त्री एकादश नियुक्त पुरुषों के साथ संभोग करेगी तो निश्चित ही स्त्री पुरुष के मध्य प्रेम न्यून हो जाएगा और यह भी संभव है कि स्त्री पति को छोड़ दूसरे नियुक्त पुरुष पर मोहित हो जाएं और नियुक्त पुरुष के साथ मिलकर पति के पदार्थों को उडा ले जाये, इससे पुनर्विवाह का तो पता नहीं परन्तु तुम्हारे द्वारा चलाए इस महाअधर्म व्यभिचार नियोग में यह दोष अवश्य है,
(तीसरा) तुम्हारे द्वारा चलाए इस महाअधर्म नियोग से बहुत से भद्रकुल का नाम वा चिन्ह मेटना संभव है,
(चौथा) पुनर्विवाह से पतिव्रत्य धर्म और स्त्रीव्रत्य धर्म नष्ट हो जाता है और ग्यारह अलग-अलग स्त्री पुरुष के साथ संभोग करने उनके साथ नग्न होकर सोने से पतिव्रत्य धर्म और स्त्रीव्रत्य धर्म नष्ट नही होता, वाह रे! स्वामी नियोगानंद क्या कहने तुम्हारे, शोक है ऐसी बुद्धि पर, कि ग्यारह अलग-अलग स्त्री पुरुष के साथ संभोग करने से पतिव्रत्य धर्म और स्त्रीव्रत्य धर्म खंडित नहीं होता और पुनर्विवाह से खंडित हो जाता है, धन्य हे! स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि,
यहाँ तक कि मनु जी ने स्वंय इस महाअधर्म नियोग को पशुधर्म बताते हुए इसकी निन्दा की है देखिए मनु जी लिखते हैं कि--
 
अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम्।
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम्॥१५९॥
मृते भर्तरि साढ्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता।
स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः॥१६०॥
अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते।
सेह निन्दामवाप्नोति परलोकाच्च हीयते॥१६१॥
पतिं हित्वापकृष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते।
निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते॥१६३॥
व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम्।
शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते॥१६४॥
~मनुस्मृति [अध्याय ५, श्लोक १५९-१६४]
भावार्थ- यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु बिना किसी संतान को उत्पन्न किए हो जाए तब भी स्त्री को अपनी सद्गति के लिए किसी दूसरे पुरुष का संग नहीं करना चाहिए ॥१५९॥
सन्तान उत्पन्न नहीं करने वाले ब्रह्मचारीयों की तरह पति की मृत्यु के बाद ब्रह्मचर्य का पालन करने वाली स्त्री पुत्रवती नही होने पर भी स्वर्ग प्राप्त करती है ॥१६०॥
पुत्र पाने की इच्छा से जो स्त्री पतिव्रत धर्म को तोड़ कर दूसरे पुरुष के साथ संभोग करती है उसकी इस संसार में निंदा होती है तथा परलोक में बुरी गति मिलती है ॥१६१॥
अपने पति का त्याग कर जो स्त्री किसी अन्य पुरुष का संग करती है वह इस संसार में निंदा का पात्र बनती है और दो पुरुषों की अंकशायिनी बनने का कलंक लगवाती है ॥१६३॥
पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से संभोग करने वाली स्त्री इस संसार में में निंदा का पात्र बनती है और मृत्यु के पश्चात गीदड़ की योनि में जन्म लेती है तथा कोढ़ जैसे अनेक असाध्य रोगों से पीड़ा पाती है ॥१६४॥

मनु जी के इन वचनों से यह सिद्ध हो जाता है कि दयानंद द्वारा चलाया गया महाअधर्म नियोग प्रथा पुरी तरह से धर्म शास्त्रों के विरुद्ध है और यदि तुम्हारे मतानुसार संतान के ही अर्थ नियोग है तो फिर यह बताइए कि जो स्त्री विधवा हो और बांझ भी हो तो वह संतान कैसे उत्पन्न कर सकती है? जो यह कहो की वह स्वजाति का बालक गोद ले लेवें, तो फिर इस महाअधर्म व्यभिचार नियोग की आवश्यकता क्या है? जिस किसी को पुत्र प्राप्ति की इच्छा होगी वह गोद ले लेवें और तो और गोद लिया पुत्र संस्कार युक्त होने से उससे शुद्ध ही है जबकि महाअधर्म नियोग से उत्पन्न पुत्र वैसा शुद्ध नहीं हो सकता क्योंकि उसमें परपुरूष के साथ भोग करना पड़ता है जिस कारण स्त्री का पतिव्रत्य धर्म नष्ट हो जाता है इस कारण पुत्र गोद ही क्यों न लिया जाए? अब यदि पुत्र के अर्थ नियोग करते हो तो फिर कुछ लाभ नहीं हाँ यदि कामग्नि बुझाने के अर्थ यह वैश्या धर्म चलाया है तो दूसरी बात है

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८३,
(प्रश्न) पुनर्विवाह और नियोग में क्या भेद है?
(उत्तर)-(पहला) जैसे विवाह करने में कन्या अपने पिता का घर छोड़ पति के घर को प्राप्त होती है और पिता से विशेष सम्बन्ध् नहीं रहता और विध्वा स्त्री उसी विवाहित पति के घर में रहती है।
(दूसरा) उसी विवाहिता स्त्री के लड़के उसी विवाहित पति के दायभागी होते हैं और विध्वा स्त्री के लड़के वीर्यदाता के न पुत्रा कहलाते न उस का गोत्रा होता और न उस का स्वत्व उन लड़कों पर रहता किन्तु मृतपति के पुत्र बजते, उसी का गोत्रा रहता और उसी के पदार्थों के दायभागी होकर उसी घर में रहते।
(तीसरा) विवाहित स्त्री-पुरुष को परस्पर सेवा और पालन करना अवश्य है |और नियुत्तफ स्त्री-पुरुष का कुछ भी सम्बन्ध् नहीं रहा।
(चौथा) विवाहित स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध् मरणपर्यन्त रहता और नियुक्त स्त्री-पुरुष का कार्य के पश्चात् छूट जाता है।
(पांचवां) विवाहित स्त्री-पुरुष आपस में गृह के कार्यों की सिद्धि करने में यत्न किया करते और नियुत्तफ स्त्री-पुरुष अपने-अपने घर के काम किया करते हैं
समीक्षक— न जाने स्वामी जी ने नियोग के यह पाचँ नियम कौन सी सहिंता से निकाले हैं? क्या यह स्वामी जी की मिथ्या कल्पना नहीं है? ध्यान देने  वाली बात है कि इससे पूर्व जो स्वामी ने पुनर्विवाह के चार दोष गिनवाए है क्या वे चारों दोष इन पाँच नियमों से नही टूटते? देखिए-
(पहिला)- जब स्त्री पति के घर पर ही रहती है तो सास ससुर की लाज भी अधिक होती है जिस कारण वह पर-पुरुष से भाषणादि में भी संकोच करती है लेकिन हमारे स्वामी नियोगानंद जी तो  समाजीयों को यह आदेश करते हैं कि वह पति के घर पर ही पर-पुरूष को बुलाकर (भोग का नंगा नाच) नियोग करें, और क्योकि स्त्रीयों में तो वैसे भी पुत्र प्राप्ति की बहुत इच्छा होती है ऐसे में पर-पुरुष के साथ नियोग करने से उनका पति से भी प्रेम न्यून हो जाएगा क्योंकि यह तो उनको विदित ही है कि यदि पति मर जायेगा तो स्वामी दयानंद जी के आज्ञानुसार किसी अन्य पुरुष के साथ संभोग कर पुत्र उत्पन्न कर लेगी, फिर पुत्रेष्टि व्रत कर्म आदि कुछ करने की आवश्यकता नहीं और लज्जा आदि सब खो बैठेगी, इसलिए  स्वामी दयानंद द्वारा चलाया यह महाअधर्म नियोग स्त्रीयों को व्यभिचारी बनाने की विधि है इससे ज्यादा कुछ नहीं,
(दूसरा)- स्वामी जी की बुद्धि में ज्ञान कम गोबर ज्यादा भरा है देखिए वेदों में क्या लिखा हैं?--
अंगादंगात सम्भवसि  हृदयादधि जायसे।
आत्मासि पुत्रा मा  मृथाः स जीव शरदः शतम्॥ ~यह सामवेद वेफ ब्राह्मण का वचन है।
हे पुत्रा! तू अंग-अंग से  उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है, इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरे किन्तु सौ वर्ष तक जी, तो अब कोई इन नियोगानंद जी से यह पूछें की जब पुत्र पिता के अंग अंग से उत्पन्न होता है एवं उसी की आत्मा का अंश हुआ तो अब नियुक्त पुरूष से उत्पन्न संतान चाहे किसी के भी घर क्यों न रहे? उसमें नियुक्त पुरुष के लक्षण अवश्य आयेंगे, और वह पुत्र है भी उसी का, क्योकि आम बोने से आम ही होता है इसीलिए नियुक्त पुरुष से उत्पन्न हुई संतान का मृत पुरुष से कुछ भी संबंध नहीं रहा, और जब नियुक्त पुरुष से उत्पन्न पुत्र मृतक के धन का अधिकारी हुआ तो स्वामी का यह तर्क की (यदि पुनर्विवाह होगा तो धन दुसरो के हाथ लग जायेगा) मिथ्या ही हुआ क्योकि अब भी उसका धन दूसरे के हाथ ही लगा, अपना पुत्र तो तभी होगा जब अपने से उत्पन्न होगा, क्योकि नियुक्त पुरुष से उत्पन्न पुत्र उसके अंग अंग से उत्पन्न एवं उसी की आत्मा का अंश हुआ सो मृतक से उसका कुछ सम्बन्ध न रहा, अर्थात दयानंद का यह दूसरा कल्पित सिद्धान्त भी भ्रष्ट हुए जाता है।
(तीसरा)- विवाहित स्त्री पुरुष तो बस नाम के ही रहे, क्योकि ग्यारह परपुरुष, और स्त्रियों के साथ भोग करने से उनका पातिव्रत्य और पत्नीव्रत्य धर्म तो पहले ही खंडित हो चूका, वह तो वेश्या समान हो गई फिर घण्टा स्त्री पुरुष का सम्बन्ध रह गया, जैसा उसके लिए नियुक्त पुरुष वैसे उसका पति वैसे भी स्वामी जी ने ग्यारह पुरुषों तक नियोग की आज्ञा दे रखी है सो स्वामी जी के आज्ञानुसार वह जब चाहेंगी तब पति को त्याग किसी अन्य पुरुष का संग कर लेंगी, इसीलिए जैसे इस महाधर्म नियोग को करने वाले के लिए नियुक्त स्त्री-पुरुष से कुछ सम्बन्ध नहीं रहता सो वैसे ही अपने पति-पत्नी से भी कुछ लगाव नहीं रहता जो होता तो इस महाधर्म व्यभिचार नियोग की आव्यश्कता ही न रहती, यह तो बस स्वामी जी ने कामाग्नि बुझाने को एक वैश्याधर्म चला रखा है।
(चौथा)- परम पूज्नीय स्वामी नियोगानंद जी लिखते हे कि नियुक्त स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध कार्यसिद्धि के बाद छूट जावे, अब ध्यान देने वाली बात हे की स्वामी जी प्रत्येक नियुक्त स्त्री पुरुष को दश पुत्र उत्पन्न करने की आज्ञा देते है, अर्थात जब स्त्री नयोग से नियुक्त पुरुषों और अपने लिए दश पुत्र  तक उत्पन्न कर लेवें तब नियुक्त पुरुषों से सम्बन्ध छूट जावे, तो इसका उत्तर यह हे कि यदि विषयी स्त्री दो-दो वर्ष पर भी एक पुत्र उत्पन्न करती है तो वह लगभग २० वर्षों तक नियोग से पुत्र उत्पन्न करती रहेंगी, और यह भी सम्भव नहीं की वह हर बार पुत्र को ही जन्म दे, बल्कि देखा जाए तो पुत्रो की तुलना में पुत्रियों का जन्म अधिक होता है क्योंकि पुरुषों के वीर्य में दो प्रकार के गुणसूत्र होते है जिन्हें आधुनिक भाषा में X और Y कहते है जबकि स्त्रियों में केवल X पाया जाता है, होता यह है की जब पुरुष का X स्त्री के X से मिलता है तो पुत्री जन्म लेती है और जब पुरुष का Y स्त्री के X से मिलता है तो पुत्र जन्म लेता है, इसलिए यह सम्भव नहीं की स्त्री हर बार पुत्र को ही जन्म दे, फिर भी यदि एक बार को मान लिया जाए की वह हर बार पुत्र को ही जन्म देती है तो भी वह लगभग २० वर्षो तक नयुक्त पुरुषों के साथ भोग करती है, तो अब भला २० वर्षों तक जिस स्त्री का सम्बन्ध अलग-अलग पुरुषों से रहा हों वह तुरन्त कैसे छुट सकता है? जो स्त्री एक बार परपुरुष गामिनी हो चुकी हो फिर क्या संतान के लालच से वह प्रिति छूट सकती है? भला २० वर्षों का अभ्यास तुरन्त कैसे छूट सकता है?
और स्त्री पुरुष का सम्बन्ध मरणपर्यंत घण्टा रहा जब स्त्री २० वर्षों तक नियुक्त पुरुषों से नियोग कर संतान उत्पन्न करती रहेगी तो स्त्री का सम्बन्ध तो नियुक्त पुरुषों के साथ ही रहा, इस प्रकार स्वामी जी का चौथा नियम भी भ्रष्ट हुए जाता है।
(पाँचवां)- यह बात तो स्वामी जी ने विषयी पुरुषों के लाभ की लिख दी कि रात को नियुक्त स्त्री पुरुष एक बिस्तर पर और सवेरें अपने-अपने घर का कामकाज करें, सो इससे विषयी पुरुषों का बहुत धन बच जायेगा, क्योंकि वैश्या के यहाँ जाने से धन खर्च होता है, परन्तु तुम्हारे नियमानुसार विषयी पुरुष रात्रि को नियुक्त स्त्री के घर में प्रवेश कर गए और सवेरें चले आए, जब तक गर्भ न रहे यही कृत्य बार-बार दोहराते रहों,

अब जब स्त्री को संतानार्थ ग्यारह पुरुषों की आज्ञा है तो अच्छे वीर्य वाले पुरुष तो बहुत कम ही होंगे और बिना संभोग परीक्षा नहीं होती तो लीजिये अब सैकड़ो पति बनाने पड़े और जो कोई मनोहर मिल गया तो ससुर और पति की कमाई जीवनपर्यंत तुम्हे दुवाएं देते रहेंगें, शौक हे! ऐसी बुद्धि पर

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८३,
(प्रश्न) विवाह और नियोग के नियम एक से हैं वा पृथक्-पृथक्?
(उत्तर) कुछ थोड़ा सा भेद है, जिस की स्त्री वा पुरुष मर जाता है उन्हीं का नियोग होता है,
    “वही नियुक्त स्त्री दो तीन वर्ष पर्यन्त उन लड़कों का पालन करके  नियुक्त पुरुष को दे देवे, ऐसे एक विध्वा स्त्री दो अपने लिये और दो-दो अन्य चार नियुत्तफ पुरुषों के लिए दो-दो सन्तान कर सकती और एक मृतस्त्रीपुरुष भी दो अपने लिये और दो-दो अन्य अन्य चार विध्वाओं के लिये पुत्र उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर दस-दस सन्तानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है, जैसे-
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु ।
दशास्यां पु त्रानाधेहि  पतिमेकाद शं कृधि  || -(ऋ० १०/८५/४५)
हे (मीढ्व इन्द्र) वीर्य सेचन में समर्थ ऐश्वर्ययुत्तफ पुरुष !तू इस विवाहित स्त्री वा विध्वा स्त्रिायों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्ययुक्त कर, इस विवाहित स्त्री में दश पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान !हे स्त्री !तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ

समीक्षक— धन्य है! स्वामी जी कलयुग तो धिरे-धिरे आता था अपने उसे शीघ्र प्रवर्त करने का ढंग निकाला, आपके अनुसार एक स्त्री चार नियुक्त पुरुषों के अर्थ और दो अपने लिए पुत्र उत्पन्न कर लें, यह तो जैसे घर की खेती समझ ली की जब गये पुत्र हो गया, कन्या का कोई नाम ही नहीं बस पुत्र ही पुत्र होंगे, यदि यह ईश्वर की आज्ञा है तो ईश्वर सत्यसंकल्प है सबके पुत्र ही उत्पन्न होने चाहिए कन्या एक भी नहीं, बस सारा नियोग यही समाप्त हो जाता है, परन्तु यह देखने में नहीं आता तुम तो अपने मिथ्या भाष्यों से ईश्वर को भी झूठा बनाते हो, इसलिए इस श्रुति का अर्थ यह नहीं बनता जैसा तुमने किया है बहुत से लोग निसंतान भी होते हैं यह व्यभिचार प्रचार मूर्ख नियोग समाजीयों के साथ-साथ  समस्त भारतवासियों को घोर अंधकार में डालने वाला है, इसमें वेद मंत्रों को क्यों सानते हो? यदि इतनी ही ज्यादा खुजाई मच रही थी तो कोई अपनी ही मिथ्या संस्कृत बना लेते, तुम्हारे चैले तो उसे भी पत्थर की लकीर मान लेते, देखिए वेदों में ऐसी बातें कभी नहीं होती, यह मंत्र विवाहप्रकरण का है जो आशीर्वाद के अर्थ में है और इसका अर्थ इस प्रकार है--
”हे इन्द्र परमएश्वर्य युक्त देव (मीढ:) सर्वसुखकारी पदार्थों की वृष्टि करने वाले इस स्त्री को भी पुत्रवती धनवती करों, और दश इसमें पुत्रों को धारण करो भाव यह है कि दश पुत्र पैदा करने के अदृष्ट इस स्त्री में स्थापित करों और ग्यारहवां पति को करों अर्थात जीवित पति और जीवित पुत्र इसको करों”
इसका अर्थ यह है जो स्वामी नियोगानंद जी ने कुछ का कुछ लिख दिया है, और स्वामी जी ने यह न सोचा कि यदि एकादश पति पर्यन्त नियोग करने की ईश्वर की आज्ञा है, तो ईश्वर तो सत्यसंकल्प है तब तो सब स्त्रीयों के दश-दश पुत्र से कम नहीं होने चाहिए यदि दश से कम होंगे तो ईश्वर का संकल्प निष्फल होगा, इससे स्वामी जी का किया अर्थ अशुद्ध है। अब विचारने की बात यह है कि इसमें नियोग प्रचारक कौन सा शब्द है? जिस मंत्र मे नियोग कि गंध तक नही है स्वामी नियोगानंद जी ने उसे भी नियोग से जोड दिया, दयानंद जी ने तो यह समझ लिया कि हमारे अनुयायी हमारे वाक्यों को पत्थर की लकीर मानते हैं और वेदभाष्य भी हमारा किया ही मानते हैं इसलिए जो चाहे सो अंड संड बकवास किये जायें, इस हिसाब से तो तुम्हारे मत में किसी के दश से कम पुत्र नहीं होने चाहिए और जिनके दश से कम है वह तुम्हारे वाक्यानुसार कुछ चिंता करें, और दश संतान में समय कितना लगेगा यह भी तुमने न लिखा।

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ सम्मुलास पृष्ट ८४
(प्रश्न) है तो ठीक, परन्तु यह वेश्या के सदृश कर्म दिखता है
(उत्तर) नहीं, क्योंकि वेश्या के समागम में किसी निश्चित पुरुष वा कोई नियम नहीं है और नियोग में विवाह के समान नियम हैं, जैसे दूसरे को विवाह में लड़की देने से लज्जा नहीं आती, वैसे ही नियोग में भी लज्जा नहीं करनी चाहिये,
(प्रश्न) हम को नियोग की बात में पाप मालूम पड़ता है,
(उत्तर) जो नियोग की बात में पाप मानते हो तो विवाह में पाप क्यों नहीं मानते? पाप तो नियोग के रोकने में है? क्योंकि ईश्वर के सृष्टिक्रमानुकूल स्त्री पुरुष का स्वाभाविक व्यवहार रुक ही नहीं सकता, सिवाय वैराग्यवान् पूर्ण विद्वान् योगियों के, क्या विध्वा स्त्री और मृतकस्त्री पुरुष के महासन्ताप को पाप नहीं गिनते हो? क्योंकि जब तक वे युवावस्था में हैं मन में सन्तानोत्पत्ति और विषय की चाहना होने वालों को किसी राजव्यवहार वा जातिव्यवहार से रुकावट होने से गुप्त-गुप्त कुकर्म बुरी चाल से होते रहते हैं,
और जो जितेन्द्रिय रह सके नियोग भी न करें तो ठीक है, परन्तु जो ऐसे नहीं हैं उन का विवाह और आपत्काल में नियोग अवश्य होना चाहिये,
(प्रश्न) नियोग में क्या-क्या बात होनी चाहिये?
(उत्तर) जैसे प्रसिद्धि से विवाह, वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग, जिस प्रकार विवाह में भद्र पुरुषों की अनुमति और कन्या-वर की प्रसन्नता होती है, वैसे नियोग में भी अर्थात् जब स्त्री-पुरुष का नियोग होना हो तब अपने कुटुम्ब में पुरुष स्त्रियों के सामने कहें की हम दोनों नियोग सन्तानोत्पत्ति के लिये करते हैं, जब नियोग का नियम पूरा होगा तब हम संयोग न करेंगें।
(प्रश्न) नियोग अपने वर्ण में होना चाहिये वा अन्य वर्णों के साथ भी?
(उत्तर) अपने वर्ण में वा अपने से उत्तमवर्णस्थ पुरुष के साथ अर्थात्
वैश्या स्त्री वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ; क्षत्रिया क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ; ब्राह्मणी ब्राह्मण के साथ नियोग कर सकती है | इसका तात्पर्य यह है कि वीर्य सम वा उत्तम वर्ण का चाहिये, अपने से नीचे वर्ण का नहीं, स्त्राी और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि धर्म से अर्थात् वेदोक्त रीति से विवाह वा नियोग से सन्तानोत्पत्ति करना
समीक्षक— स्वयं ही प्रश्न करते है की यह कर्म वैश्या के सदृश दिखता है, और फिर स्वयं ही उत्तर देते है की नहीं, अखंड चुतियापा है! यदि यह कर्म वेश्या के सदृश न होता तो फिर स्वामी जी के मुख से ऐसी बात निकलती ही क्यों? जैसी बात होती है वैसी मुख से निकल ही जाती है,
और जो स्वामी जी ने यह लिखा है की “वैश्या के समागम में किसी निश्चित पुरुष का नियम नहीं है और नियोग में विवाह के समान नियम है” सो सुनिए नियोग में कोई नियम नहीं है ग्यारह पति बनाने तक की आज्ञा है बस नियम कैसा? देखिए जिस प्रकार विषयी पुरुष वैश्यालय में जाकर किसी भी दश, ग्यारह वैश्याओ में से किसी एक को पसंद कर उसका संग करते है, ठिक इसी प्रकार का नियम तुम्हारे द्वारा चलाये इस महाधर्म नियोग में है, आपके आज्ञानुसार विषयी स्त्री-पुरुष किसी भी ग्यारह स्त्री-पुरुष तक के संग अपना मुँह काला करवा सकते है इसलिए यह कहना की नियोग में विवाह की भाँति नियम है यह बात पूरी तरह से गलत है नियोग में किसी भी प्रकार का कोई नियम नहीं है यदि है भी तो वही वेश्याओं वाले इसलिए विवाह और नियोग के नियम समान बताकर अपने एकादश नियोग से उत्पन्न होने का प्रमाण न दिजिये,
आगे स्वामी जी लिखते हैं कि “जैसे विवाह में लज्जा नहीं वैसे ही नियोग में लज्जा नहीं करनी चाहिए” धन्य हे! स्वामी जी, यहाँ आपकी आज्ञानुसार आपके अनुयायियों की स्त्रीयाँ गैरों के पलंग पर गैम बजवा रही है वैश्याओं की भांति ग्यारह-ग्यारह पति बनाने की आज्ञा करते हो, और कहते हो कि नियोग में लज्जा नही करनी चाहिए, यहाँ तो आपने लाज को भी तिलांजलि दे दी, इस पुस्तक का नाम सत्यार्थ प्रकाश नही बल्कि निर्लज्ज प्रकाश रख देना चाहिए, आपके द्वारा चलाया यह महाअर्धम नियोग स्त्रियों को व्यभिचारी बनाने की विधि से ज्यादा कुछ नहीं है,
और “जबकि ईश्वर की सृष्टि क्रमानुकूल मनुष्य का स्वभाव कामचेष्टा से रूक नहीं सकता तो भला यौगि कैसे रोक सकते हैं?” जो यौगि रोक लें तो ईश्वर का सृष्टि क्रम वृथा हो जाएगा और जो यौगियों ने सृष्टि क्रम उल्लंघन कर दिया तो वे ईश्वर की इच्छा के प्रतिकूल हुए, और जब यौगियों को सृष्टि क्रम नहीं व्याप्ता फिर तो वे सब ही कुछ सृष्टि क्रम के विरुद्ध कर सकते हैं इससे स्वामी जी बात परस्पर विरुद्ध होने से अप्रमाण है,
देखिए पिछे तो स्वामी जी ने नियोग से सन्तानोत्पत्ति का प्रयोजन बताया और अब लिखा कि जवान स्त्री-पुरुष विषय की चाहना होने से सन्तापित होते हैं, नियोग से उसे शांत कर लेंगे यह बात स्वयं स्वामी जी पर बिति है नहीं तो "जाके पैर न फटै विवाई, सो क्या जाने पीर पराई, यह सूझती कैसे? फिर आगे लिखा कि जो जितेन्द्रिय रहे नियोग न करें तो ठीक है, यह क्या कह दिया आपने? पिछे तो लिख आए कि ईश्वर के सृष्टिक्रमानुकूल स्त्री पुरूष का स्वभाव कामचेष्टा से रूक नही सकता सिवाय यौगियों के इस तरह की परस्पर विरूद्ध बात कोई महाचुतिया ही लिख सकता हैं विद्वान व्यक्ति नहीं, मानो जैसे मुहम्मद की भांति दयानंद जी भी रातों रात ईश्वर से मिल आये और ईश्वर ने सारा सृष्टि क्रम दयानंद को बता दिया है, यदि यही ईश्वर का सृष्टिक्रम है तो मनुष्य इसे कैसे रोक सकते हैं? और जो रोक लें तो वे सृष्टिक्रम के विरुद्ध ईश्वर के इच्छा के प्रतिकूल करते हैं इससे ईश्वर का सृष्टिक्रम वृथा हो जाता है धन्य हे! स्वामी जी आपकी बुद्धि, दयानंद जी तो सृष्टिक्रम को लेकर स्वयं भ्रमित है और चले है पंड़ित बनने,
फिर आगे लिखा है कि जो न रूक सके तो उनका नियोगविवाह करवा दो यह क्या अब तक तो विधवा विवाह का निषेध करते रहे और अब स्वयं ही विवाह की आज्ञा सुना दी जो कहो की विवाह कुमार कुमारी का कहा है सो यहाँ यह प्रसंग नहीं, और उनका तो होता ही लिखने की क्या आवश्यकता है? या वे भी जितेंद्रिय रहे फिर आपके मतानुसार ईश्वर की सृष्टि कैसे बढेगी? यदि यह पशुधर्म भारत में चलता तो यह देश रसातल को चला जाता,
आप ही ऊंच नीच वर्ण में व्यभिचार होने से कुल में कलंक और वंशोच्छेद होना लिखते हैं और आप ही अपने से उच्च वर्ण का वीर्य नियोग में ग्रहण करना लिखते हैं अखंड चुतियापा है आपका ऊंच नीच तो हो ही गया देखिए मनुस्मृति--
सर्ववर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्वक्षतयोनिषु।
आनुलोम्येन संभूता जात्या ज्ञेयास्त एव ते॥१०/५॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों को अपनी समान जाति की कन्या से यथाशास्त्र विवाह व्यवहार करके उस उस स्त्री से जो संतान उत्पन्न होवे उसे उसी जाति का जानना चाहिए  शेष वर्णसंकर जाने,
स्वामी जी ने यहाँ मनुस्मृति ने देखी इच्छा तो भारतवर्ष को वर्णसंकर बनाने की थी परन्तु यमराज ने पूर्ण नहीं होने दी,
पुनः लेख है जैसे प्रसिद्धि से विवाह, वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग करें प्रसिद्ध करने को टीवी, अखबार आदि में इश्तहार दे दे, कार्ड वगैरह छपवाकर रिश्तेदारों में बंटवा दे, ढिंढोरा पिटवा दे मिठाई वगैरह बटवां दे कि मैं नियोग करूँगा अब मुझसे और नहीं रहा जाता, ठीक इसी प्रकार वह स्त्री भी करें कितनी निर्लज्जता भरी है ये बात क्या कहें?
फिर लिखा है कि नियोग और विवाह से ईश्वर की सृष्टि का प्रयोजन है यदि ईश्वर की यही इच्छा थी कि सृष्टि बढ़ें तो उसने अग्नि वायु आदि की भांति करोड़ों जीव एक साथ क्यों न उत्पन्न कर दिये, अथवा स्त्रीयों को विधवा क्यों किया? जो उनके पति रहते तो बेचारी इस महाअधर्म नियोग को करने से तो बच जाती, यदि कहो की यह सुख दुःख क्रमानुसार  ही होता है, क्रमानुसार ही विधवा होती है, तो भी आप सृष्टि क्रम के विरुद्ध ही करते हैं, क्योकि ईश्वर जब क्रमानुसार सुख दुःख देता है, तो जो क्रमानुसार दुःख भोगने को विधवा हुई तुम उसका कर्मानुकूल दुःख मेटने का उपाय करके ईश्वर का नियम तोडने का पर्यन्त करते हो, और नियोग से सृष्टि नहीं बढ़ सकती उसकी सृष्टि अनन्त है कौन पार पा सकता है? इस ब्रह्मांड में उसने अनगिनत लोक रच दिये है किसी के बढ़ाये घटायें से उसकी सृष्टि घट बढ़ नहीं सकती आप पुरुष का दुसरा विवाह नहीं बताते हैं सुनिये-
 
वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याऽअब्दे दशमे तु मृतप्रजा।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥
या रोगिणी स्यात्तु हिता संपन्ना चैव शीलतः।
सानुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हि चित्॥
~मनुस्मृति [अध्याय ९, श्लोक ८१-८२]
पत्नि यदि वन्ध्या हो तो आठ वर्ष उपरान्त, बार-बार मृत बच्चों को जन्म देती हो तो दश वर्ष उपरान्त, या केवल कन्याओं को ही जन्म देती हों तो ग्यारह वर्ष उपरान्त पति दुसरा विवाह करने का अधिकारी है और यदि पत्नि अप्रिय बोलने वाली है तो पति तत्काल दुसरा विवाह कर सकता है।

स्त्री के बहुत दिनों से रोगी होने पर किन्तु चरित्र की धनी तथा पति का हित चाहने वाली होने पर पति को चाहिए कि वह पत्नी की अनुमति लेकर ही दूसरा विवाह करें, उसका अवमान करना उचित नहीं है।

 
 
 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८५,
(प्रश्न) जैसे विवाह में वेदादि शास्त्रों का प्रमाण है, वैसे नियोग में प्रमाण है वा नहीं?
(उत्तर) इस विषय में बहुत प्रमाण हैं। देखो और सुनो-
 
कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः ।
को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ ॥ -ऋ० मं० १० | सू० ४० | मं० २॥
हे (अश्विना) स्त्री पुरुषो !जैसे (देवरं विधवेव ) देवर को विधवा और (योषा मर्यन्न) विवाहिता स्त्री अपने पति को (सध्स्थे) समान स्थान शय्या में एकत्रा होकर सन्तानोत्पत्ति को (आ कृणुते) सब प्रकार से उत्पन्न करती है, वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष (कुह स्विद्दोषा) कहां रात्रि और
(कुह वस्तः) कहां दिन में वसे थे? (कुहाभिपित्वम) कहां पदार्थों की प्राप्ति (करतः) की? और (कुहोषतुः) किस समय कहां वास करते थे? (को वां शयुत्रा) तुम्हारा शयनस्थान कहां है? तथा कौन वा किस देश के रहने वाले हो? इससे यह सिद्ध हुआ कि देश विदेश में स्त्री पुरुष संग ही में रहैं और विवाहित पति के समान नियुक्त पति को ग्रहण करके विध्वा स्त्री भी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे।
(प्रश्न) यदि किसी का छोटा भाई ही न हो तो विध्वा नियोग किसके साथ करे?
(उत्तर) देवर के साथ, परन्तु देवर शब्द का अर्थ जैसा तुम समझे हो वैसा नहीं। देखो निरुक्त में-
देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते ।-निरू० अ० ३ | खण्ड १५ ॥
देवर उस को कहते हैं कि जो विध्वा का दूसरा पति होता है, चाहे छोटा भाई वा बड़ा भाई अथवा अपने वर्ण वा अपने से उत्तम वर्ण वाला हो जिस से नियोग करे उसी का नाम देवर है
समीक्षक— धन्य हे! स्वामी जी बड़ा भारी जाल डाला है, इस मंत्र में तो नियोग का कुछ आशय ही नहीं निकलता, अर्थ का अनर्थ कर बस तुमने अपने अक्ल से पैदल समाजीयों का चुतिया काटा है और कुछ नहीं, भला यह कौन किससे पूछता है? क्या परदेशी लौग स्त्रीयों से पूछें कि तुम रात में कहाँ थी? कहाँ संतानोत्पत्ति कर रही थी? या फिर ईश्वर स्त्री-पुरुषों से पूछता है कि तुम दोनों कहाँ थे? क्या ईश्वर अज्ञानी है? जो विधवा से रति करें वो देवर चाहे बड़ा हो या छोटा, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, नियोग करने को बड़ा भी जेष्ठ हो तो स्त्री का देवर हो जाये, थू है ऐसे समाज पर, इस मंत्र में अश्विना इस पद से स्त्री पुरुष ग्रहण करकें केवल जाल रचा है बस अर्थ का अनर्थ ही किया है इस मंत्र में अश्विनो यह शब्द देवता का वाचक है स्वामी जी ने इसमें कुछ प्रमाण न लिखा देखिए निरूक्त में यह लिखा है -
अथातोद्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ॥ ~निरूक्त {अ० १२, खं० १}
सर्व द्युस्थान देवताओं के मध्य अश्विनौ दो देवता यज्ञ में प्रथम आगमन  करते हैं, यह निरूक्तकार का मत है इससे यह सिद्ध हुआ कि अश्विनौ देवता हैं और अब इस मंत्र का सही अर्थ करते हैं देखिए-
 
कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ॥ ~(ऋ०-१०/४०/२)
भावार्थ- हे (अश्विना)- अश्विनौ तुम दोनों, (दोषा)- रात्रि में, (कुह स्वित्)- कहाँ थे, और (वास्तौ:)- दिन में, (कुह) कहाँ थे, जिससे न रात्रि और न दिन में तुम्हारा दर्शन हमें मिला, (कुहाभिपित्वं)- स्नान भोजनादि की प्राप्ति कहाँ, (करत:) की, (कुह)- कहाँ, (ऊषतु)- निवास करा, सर्वथा तुम्हारी आगमन प्रवृत्ति नहीं जानी जाती, (क:)- कोई व्यक्ति ही, (वाम्)- आप दोनों को, (सधस्थे)- आत्मा और परमात्मा के सम्मिलित रूप से स्थित होने के स्थान हृदय में, (आकृणुते)- अभिमुख करता है, (इव)- जैसे, (विधवा)- पति के चले जाने के पश्चात स्त्री, (देवरम्) देवर पर आश्रित होती है, और अपने सभी छोटे बड़े कार्य के लिए देवर की सहायता लेती है, और (न)- जैसे, (योषा)- पत्नी, (शयुत्रा)- शयन स्थान में, (मर्यम्)- पति को अभिमुख करती है, वैसे ही तुम्हें अपने श्रेष्ठ यज्ञ में आदर सहित कौन आहूत करता है
इस मंत्र में नियोग का कुछ भी आशय प्रतीत नहीं होता है यह मंत्र प्रात: काल अश्वनि कुमारों की स्तुति का है और (देवर: कास्मा०) इसके अर्थ भी गडबड लिखें हैं और यह निरूक्तकार का वाक्य  भी नहीं है इसी कारण इसको उन्होंने कोष्ठ में बंद कर दिया है, और दुर्गाचार्य ने इस पर भाष्य भी नहीं किया इससे यह क्षेपक है क्योकी यास्क जी ने इसका अर्थ ऐसे लिखा है कि “देवरो दीव्यतिकर्मा” तथा “भ्रातृभार्यया देवनार्थे व्रियत इति देवर इत्युच्चते” इसका अर्थ यह कि भाई की स्त्री की शुश्रूषा करने से इसका नाम देवर है अब यदि वह वाक्य यास्कमुनि कृत होता तो फिर  वह पुनः देवर शब्द का अर्थ क्यों करते? इससे यह सिद्ध होता है कि वह वाक्य प्रक्षिप्त ही है, बड़े आश्चर्य की बात है कि पुरे ग्रंथ में स्वामी जी को प्रक्षिप्तता ही सूक्षी, और यहाँ लिखीं हुई भी न सूझी, और फिर इस वाक्य में तो प्रश्न है, कि देवर को दूसरा वर क्यों कहते हैं? दयानंद ने इसका उत्तर न लिखकर अर्थ का अनर्थ करते हुए केवल लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया है और यदि एक बार को इसे मान भी लिया जाए तो भी स्वामी जी का अर्थ नहीं बन सकता, देखिए मनु मे इस प्रकार लिखा है कि--
 
यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः।
तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥
~मनुस्मृति [अ०-९, श्लोक-६९]

जिस कन्या का वाग्दान के उपरान्त पति मर जाए, उसे देवर अर्थात उसके छोटे भाई से व्याह दे, इसी कारण देवर को दूसरा वर कहते हैं परन्तु नियोग यहाँ भी सिद्ध नहीं होता, और (विधावनात्) पति की मृत्यु के उपरान्त स्त्री रोकी जाती है, कहीं आने जाने नहीं पाती इस कारण इसे विधवा कहते हैं, स्वामी जी उसे ऐसा स्वतंत्र करते हैं कि कुछ बूझिये मत, दयानंद ने सबको ही देवर बना दिया, जो कोई समाजी स्त्रीयों का गैम बजाए वही देवर शोक हे! ऐसी बुद्धि पर,

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८५-८६,
 
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि ।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ ॥ – ऋ० मं० १० | सू० १८ | मं० ८॥
(नारि) विध्वे तू (एतं गतासुम) इस मरे हुए पति की आशा छोड़ के (शेषे) बाकी पुरुषों में से (अभि जीवलोकम) जीते हुए दूसरे पति को (उपैहि) प्राप्त हो और (उदीष्र्व) इस बात का विचार और निश्चय रख कि जो (हस्तग्राभस्यदिधिषो:) तुम विध्वा के पुनः पाणिग्रहण करने वाले नियुक्त पति के सम्बन्ध् के लिये नियोग होगा तो (इदम्) यह (जनित्वम्) जना हुआ बालक उसी नियुक्त (पत्युः) पति का होगा और जो तू अपने लिये नियोग करेगी तो यह सन्तान (तव) तेरा होगा। ऐसे निश्चययुक्त (अभि सम् बभूथ) हो और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का पालन करे
समीक्षक— स्वामी जी का यह भाष्य पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी के सर में बुद्धि कम गोबर ज्यादा भरा है देखिए, इधर पति मरा पड़ा है, स्त्री जिसका वह पालक पोषक नाथ था, उसके शोक में विलाप करती है, और स्वामी जी उसी समय उसको कहने लगे कि इसे छोड़ औरों को पति बना लें, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, स्वामी जी ने सिर्फ अपना स्वार्थ साधने के लिए वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ किया है देखिए इसका सही अर्थ इस प्रकार है--
 
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ॥
हे (नारि)- स्त्री, तेरे पति मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं इसलिए, (उदीर्ष्व)- उठ और इस, (जीवलोकम् अभि)- जीवित संसार अपने पुत्रादि और घर-परिवार का तू ध्यान कर, इस प्रकार (गतासुम)- गत प्राण, (एतम्)- इस पति के, (उपशेष)- समीप बैठ शौक करने का क्या लाभ? (एहि)- उठ और अपने घर को गमन कर, (हस्तग्राभस्य)- अपने गर्भ में सन्तान को स्थापित करने वाले, (तव पत्यु:)- अपने पति की,(इदं जनित्वम्)- इस सन्तान को, (अभि)- ध्यान करती हुई, (संबभूथ)- अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए यत्नशील हो।

अब विचारने की बात यह है इसमें नियोग प्रचारक कौन सा शब्द है? इस मंत्र में तो नियोग का कुछ भी आशय नहीं निकलता, और जबकि उसके पास बालक मौजूद हैं फिर भला उसे इस महाअधर्म व्यभिचार नियोग की क्या आवश्यकता है? अब बुद्धिमान स्वयं विचारें की स्वामी जी ने इसमें कितने मंत्रार्थ बदले हैं और अर्थ का अनर्थ कर लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया है।

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८६,
 
अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चाः ।
प्रजावती वीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य ॥~अथर्व० [का० १४, अनु० २, मं० १८]
हे (अपतिघ्न्यदेवृघ्नि) पति और देवर को दुःख न देने वली स्त्री तू (इह) इस गृहाश्रम में (पशुभ्यः) पशुओं के लिये (शिवा) कल्याण करनेहारी (सुयमा) अच्छे प्रकार धर्म-नियम में चलने (सुवर्चाः) रूप और सर्वशास्त्रा विद्यायुक्त (प्रजावती) उत्तम पुत्र पौत्रादि से सहित (वीरसूः) शूरवीर पुत्रों को जनने (देवृकामा) देवर की कामना करने वाली (स्योना) और सुख देनेहारी पति वा देवर को (एधि) प्राप्त होके (इमम्) इस (गार्हपत्यम्) गृहस्थ सम्बंधी (अग्निम्) अग्निहोत्रा का (सपर्य) सेवन किया करें
समीक्षक— स्वामी जी यहाँ भी अर्थ का अनर्थ करने से न चूंके, देखिए इस मंत्र में “देवृकामा” इस पद से यह अर्थ सिद्ध नहीं होता कि वह देवर से भोग करना चाहती है, और जबकि पति है तो भला वह दुसरे पुरुष की इच्छा क्यों करेगी? और कामना विद्यमानता में नहीं होती, अविद्यमानता में होती है, यदि वह देवर को पति रूप में चाहती तो देवरि पतिकामा ऐसा प्रयोग हो सकता है, सो मंत्र में किया नहीं इससे नियोग सिद्ध नहीं होता, किन्तु यह ऐसे स्थान का प्रयोग है, जिस स्त्री के देवर नहीं वह चाहती है कि यदि मेरे ससुर के बालक हो तो मैं देवर वाली होऊं, ऐसी स्त्री को देवृकामा कहते हैं, जैसे भ्रातृ रहित कन्या  में “भ्रातृकामा” यह प्रयोग बनता है कि मेरे भाई हो तो मैं बहन कहाऊं, ऐसे ही यह देवृकामा शब्द है इससे नियोग सिद्ध नहीं होता, अब इसका यथार्थ अर्थ सुनिए--
हे स्त्री तू, (अपतिघ्न्यदेवृघ्नि)- पति और देवर को दुख न देने वाली, (एधि)- वृद्धि को प्राप्त हो, अर्थात देवर आदि कुटुम्बियों से विरुद्ध मत करना, (इह)- इस गृहाश्रम में, (पशुभ्य:)- पशुओं के लिये, (शिवा)- कल्याणकारी, (सुयमा)- अच्छे प्रकार धर्म नियम में चलने वाली, (सुवर्चा:)- रूप गुणयुक्त, (प्रजावती)- उत्तम पुत्र पौत्रादि सहित, (वीरसू:)- वीर पुत्रों को जन्म देने वाली, (देवृकामा)- देवर के होने की प्रार्थना करने वाली, (स्योना)- सुखिनी, (इमम्)- इस, (गार्हपत्यम्)- गृहस्थ सम्बन्धी, (अग्रिम्)- अग्निहोत्र को, (सपर्य)- सेवन किया करें।
यह इसका अर्थ है स्वामी जी ने यह नहीं सोचा कि यह पुस्तक और भी कोई देखेगा तो क्या कहेगा? यह विवाह सम्बन्धी मंत्र नियोग में लगाये हैं, धन्य है तुम्हारी बुद्धि, और सुनिए,
तदा रोहतु सुप्रजा या कन्या विन्दते पतिम्॥~ अथर्व० {१४/२/२२}
स्योना भव श्वशुरेभ्यः स्योना पत्ये गृहेभ्यः।
स्योनास्यै सर्वस्यै विशे स्योना पुष्टायैषां भव॥~ अथर्व० {१४/२/२७}
हे स्त्री तू ससुर, पति और घर के कुटुम्बियों सभी के अर्थ सुख देने वाली हो।

अब यदि तुम्हारा किया अर्थ ही सही माने तो यहाँ पति, ससुर दोनों के लिए (स्योना) पद आया है अर्थात सुख देने वाली हो एवं सब ही कुटुम्बियों को सुख देने वाली लिखा है, तो क्या जो पति के संग व्यवहार करें, वही सबके साथ करें? यह कभी नहीं हो सकता पति को और प्रकार का सुख, और ससुरादि को सेवा आदि से सुख देती है, यह नहीं कि सुख देने से सबके संग भोग के ही अर्थ हो जाये, इससे स्वामी जी के किये सब अर्थ भ्रष्ट है मिथ्या है, इसके बाद अब स्वामी जी मनुस्मृति पर आ गये देखिए स्वामी जी क्या लिखते हैं-

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८६,
तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः ॥~ मनु० {९/६९}
जो अक्षतयोनि स्त्री विध्वा हो जाय तो पति का निज छोटा भाई उस से विवाह कर सकता है
 
समीक्षक— स्वामी जी यहाँ भी अर्थ बनाने से न चूके, यदि श्लोक पुरा लिख देते तो सब भेद खुल जाता, यह आधा अधुरा श्लोक सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करने को लिखा है सो इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता देखिए पुरा श्लोक इस प्रकार है
 
यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः।
तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥ ~मनु० {९/६९}

जिस कन्या का वाग्दान करने के उपरांत पति मर जाये उसका उसके पति के छोटे भाई से विवाह कर दें यह इसका अर्थ है, ऐसा सभी करते हैं जिसकी सगाई हो जाए और वह पति मर जाए तो उसका विवाह और के संग कर देते हैं, स्वामी जी ने इसमें अक्षतयोनि और विवाह हुई स्त्री लिखा है यही महाकपट है।

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८६,
(प्रश्न)एक स्त्री वा पुरुष कितने नियोग कर सकते हैं और विवाहित नियुक्त पतियों का नाम क्या होता है?
(उत्तर)  सोम: प्रथमो विविदे गन्ध्र्वो विविद  उत्तरः।
तृतीयो अग्निष्टे  पतिस्तु रीयस्ते मनुष्यजाः॥ ~ऋ०  {१०/८५,/४०}
हे स्त्री! जो (ते) तेरा (प्रथमः) पहला विवाहित (पतिः) पति तुझ को (विविदे) प्राप्त होता है उस का नाम (सोमः) सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से सोम जो दूसरा नियोग होने से (विविदे) प्राप्त होता वह, (गन्धर्व:) एक स्त्री से संभोग करने से गन्धर्व, जो (तृतीय उत्तरः) दो के पश्चात् तीसरा पति होता है वह (अग्निः)- अत्युष्णतायुक्त होने से अग्निसंज्ञक और जो (ते) तेरे (तुरीयः) चौथे से लेके ग्यारहवें तक नियोग से पति होते हैं वे (मनुष्यजाः) मनुष्य नाम से कहाते हैं, जैसा (इमां त्वमिन्द्र)  इस मन्त्रा में ग्यारहवें पुरुष तक स्त्री नियोग कर सकती है, वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री तक नियोग कर सकता है
समीक्षक— स्वामी जी ने तो ऐसी हठ ठानी है कि अर्थों का अनर्थ कर दिया है इस मंत्र का यह अर्थ नहीं जैसा कि स्वामी नियोगानंद जी ने किया है देखिए इसका सही अर्थ इस प्रकार है-
सबसे (प्रथम:)- पहले, (सोम:)- सोम, (विवदे)- इस कन्या को प्राप्त हो, {अर्थात कन्या के माता पिता सब से पहले तो ये देखें कि उसका पति 'सोम' है या नहीं, पति का स्वभाव सौम्य है या नहीं, तत्पश्चात इस कन्या को (गन्धर्व:)- 'गां वेदवायं धारयति' ज्ञान की वाणियों को धारण करने वाला हो, यह (उत्तर:)- अधिक उत्कृष्ट होता है, कि{ सौम्यता यदि पति का पहला गुण है तो ज्ञान की वाणियों को धारण करना उसका दुसरा गुण है, (तृतीय:)- तीसरा, (अग्नि:)- प्रगतिशील मनोवृत्ति वाला हो {अर्थात तेरा पति वह है जो आगे बढ़ने की वृत्तिवाला हो }, (तुरीय:)-चौथा, (मनुष्यजा:)- वह मनुष्य की संतान हो, {अर्थात जिसमें मानवता हो, जिसका स्वभाव दयालुता वाला हो क्रूरता वाला नहीं}, (ते)- तेरा, (पति:)- पति है
भावार्थ- कन्या व उसके माता पिता उसके पति में निम्न विशेषताएं अवश्य देखें कि पहला तो वह सौम्य हो सौम्यता पति का पहला गुण है, दुसरा गन्धर्व ज्ञान की वाणियों को धारण करने वाला हो अर्थात ज्ञानी हो, तीसरा प्रगतिशील मनोवृत्ति वाला हो, चौथा वह मनुष्यजा मनुष्य की संतान हो अर्थात जिसमें मानवता हो जिसका स्वभाव दयालुता वाला हो क्रूरता वाला नहीं,
इस मंत्र में कहीं भी नियोग तो क्या नियोग कि गंध तक नहीं है परन्तु स्वामी नियोगानंद जी ने इसके अर्थ का ऐसा अनर्थ किया कि पूछें मत, अब बुद्धिमान लोग एक बार स्वयं स्वामी जी द्वारा किये भाष्य पर दृष्टि डालकर बताए कि दयानंदी लोग क्या उसी स्त्री से विवाह करते हैं जो प्रथम एक से विवाह और दो से नियोग कर चुकी है?
धन्य हे! यही तो धर्म और स्वामी जी की शर्म है और पूर्व के विरुद्ध यहाँ ही दूसरा विवाह निकाल दिया,
अब विचारने की बात है यदि स्वामी नियोगानंद जी का किया अर्थ माने तो, न जाने वह पहला विवाहित सोम संज्ञावाला पति अपने जीते जी अपनी पत्नी गन्धर्व संज्ञावाले नियोगी पति को क्यों देगा? और वह गन्धर्व नियोगी अपने जीते हुए अग्नि संज्ञावाले नियोगी पति को क्यों देगा? और चौथा ही पति मनुष्य क्यों कहाता है? क्या वे पिछले तीन किसी जानवर की सन्तान हैं?
और तीसरे को ही अग्नि कि संज्ञा क्यों? शायद वो हमेशा यह सोच कर जलता  रहता हो कि पहले के समान सुकुमारतादि गुण और में क्यों नहीं इत्यादि इत्यादि। इस कारण दयानंद के किये सब अर्थ भ्रष्ट है
इसके अतिरिक्त और भी मंत्र जैसे--
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि॥ ~ऋ० {१०/८५/४५}
कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ॥ ~ऋ० {१०/४०/२}
उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ ॥ ~ऋ० {१०/१८/८}
इत्यादि मंत्रों के अर्थ का अनर्थ करकें नियोग बनाया है अर्थात नियोग झूठ से सिद्ध किया है, जबकि इन सभी मंत्रों में कहीं भी नियोग की गन्ध तक नहीं है।

सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दयानंद ने वेद मंत्रों के साथ कैसा अनर्थ किया वह आप सबके सामने ही है

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८७,
(प्रश्न) एकादश शब्द से दश पुत्र और ग्यारहवें पति को क्यों न गिने?
(उत्तर) जो ऐसा अर्थ करोगे तो ‘विध्वेव देवरम्’ ‘देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते’ ‘अदेवृघ्नि’और ‘गन्ध्र्वो विविद उत्तरः’इत्यादि वेदप्रमाणों से विरुध्दार्थ होगा क्योंकि तुम्हारे अर्थ से दूसरा भी पति प्राप्त नहीं हो सकता

समीक्षक— निश्चय ही हमारे क्या किसी प्राचीन आश्चर्य के मत में भी दुसरा पति नहीं माना गया है, वेद मंत्रों के अर्थ कर ही चुके हैं और (पतिमेकादशम्) यहाँ एकादशम् के अर्थ ग्यारहवां, और पतिम् पति को यह द्वितीय विभक्ति का एकवचन पड़ा हुआ है, ग्यारह पति तक करने का अर्थ तो स्वामी जी के कपोल भंडार से निकला है।

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८७,
 
देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिाया सम्यघ् नियुक्तया।
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥१॥
ज्येष्ठो यवीयसो भार्य्या यवीयान्वाग्रजस्त्रिायम्।
पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥२॥
औरसः क्षेत्राजश्चै०॥३॥ ~मनु०{अ० ८, श्लोक ५८-६०}
इत्यादि मनु जी ने लिखा है कि (सपिण्ड) अर्थात् पति की छः पीढि़यों में पति का छोटा वा बड़ा भाई अथवा स्वजातीय तथा अपने से उत्तम जातिस्थ पुरुष से विध्वा स्त्री का नियोग होना चाहिये, परन्तु जो वह मृतस्त्रीपुरुष वा विध्वा स्त्री सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करती हो तो नियोग होना उचित है, और जब सन्तान का सर्वथा क्षय हो तब नियोग होवे |जो आपत्काल अर्थात् सन्तानों के  होने की इच्छा न होने में बड़े भाई की स्त्री से छोटे का और छोटे की स्त्री से बड़े भाई का नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति हो जाने पर भी पुनः वे नियुक्त आपस में समागम करें तो पतित हो जायें, अर्थात् एक नियोग में दूसरे पुत्र के गर्भ रहने तक नियोग की अवधि है।
इसके  पश्चात् समागम न करें और जो दोनों के लिये नियोग हुआ हो तो चौथे गर्भ तक अर्थात् पूर्वोक्त रीति से दस सन्तान तक हो सकते हैं, पश्चात् विषयासक्ति गिनी जाती है, इस से वे पतित गिने जाते हैं और जो विवाहित स्त्री पुरुष भी दशवें गर्भ से अधिक समागम करें तो कामी और निन्दित होते हैं? अर्थात् विवाह वा नियोग सन्तानों ही के अर्थ किये जाते हैं पशुवत् कामक्रीडा के लिये नहीं
समीक्षक— ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी में बुद्धि की बहुत कमी है यदि उनमें थोड़ी बहुत भी बुद्धि होती तो वह इस बात को समझ पाते कि मनु जी इस महाअधर्म नियोग के घोर विरोधी थे, और जहाँ तक इन श्लोकों की बात है तो मनु जी ने यह श्लोक इसलिए लिखें है कि उस समय राजा वेन के राज में यह यह पशुधर्म नियोग चलन में था, यह पशुधर्म राजा वेन ने आरंभ किया और उसने नियोग के जो-जो नियम चलाए उसे मनु जी ने अपने ग्रंथ में लिखते हुए इस प्रकार इसकी निंदा की है सुनिए-
 
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या या गुरुपत्न्यनुजस्य सा।
यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता॥ -{९/५७}
व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम्।
सृगालयोनिं चाप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते॥ -{९/३०}
नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।
अन्यस्मिन् हि नियुञ्जाना धर्मं हन्युः सनातनम्॥ -{९/६४}
नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्व चित्।
न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः॥ -{९/६५}
अयं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः।
मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति॥ -{९/६६}
स महीमखिलां भुञ्जन् राजर्षिप्रवरः पुरा।
वर्णानां संकरं चक्रे कामोपहतचेतनः॥ -{९.६७}
ततः प्रभृति यो मोहात्प्रमीतपतिकां स्त्रियम्।
नियोजयत्यपत्यार्थं तं विगर्हन्ति साधवः॥ -{९/६८} ~मनु०
छोटे भाई के लिए बड़े भाई की पत्नी गुरु पत्नी तुल्य, और बड़े भाई के लिए छोटे भाई की पत्नी पुत्रवधू जैसी होती है॥
यदि विवाहित स्त्री परपुरूष का संग करती है तो वह इस लोक में निन्दित होती है, और अनेक यौन सम्बन्धी रोगों से ग्रसित हो जाती है तथा मृत्यु के बाद गीदड़ी के रूप में जन्म लेती है॥
ब्राह्मणादि तीनों वर्णों की विधवा स्त्री को परपुरूष का संग नहीं करना चाहिए, दूसरे पुरुष का संग करने से स्त्री सनातन एक पतिव्रत धर्म को नष्ट करती है और उससे उत्पन्न संतान धर्म का विनाश करने वाली होती है॥
जो वेद मंत्र विवाह के सम्बन्ध में कहें गये हैं, उनमें न तो नियोग का वर्णन है और न ही विधवा विवाह का॥
नियोग का प्रयोग राजा वेन के शासनकाल में अवश्य हुआ था लेकिन तब भी विद्वज्जनों ने इसे पशुधर्म बताते हुए मनुष्यों के लिए निषिद्ध बताया था॥
जो राजा वेन सम्पूर्ण धरती को भोगने वाला चक्रवर्ती सम्राट था, कामवासना के  वशीभूत हो उसी राजा ने वर्णसंकर संतान उत्पन्न करने के दुष्चक्र(नियोग) का आरम्भ किया॥
उस राजा वेन के समय से यह रीति चली  और जो उसकी मति मानने वाले लोग शास्त्र के न जानने वाले विधवा स्त्री को परपुरूष के साथ योजना करते हैं, उस विधि को साधु पुरुष निन्दा करते हैं॥

इससे सिद्ध होता है कि मनु जी नियोग के घोर विरोधी थे मनु जी ने इस महाअधर्म नियोग की तुलना पशुधर्म से करते हुए इसकी बहुत निन्दा की, जो विद्वान लोग हैं वे इस बात को भलीभाँति समझते हैं, स्वामी जी राजा वेन के ही अवतार मालूम पड़ते हैं, या राजा वेन के भी गुरु कहूं तो गलत नहीं होगा, क्योकि उसने तो केवल अपनी ही जाति में नियोग चलाया और एक ही संतान उत्पन्न करने को कहा, परन्तु तुम तो सब ही जाति में नियोग करना और ग्यारह तक पति बनाने की आज्ञा करते हो, यह पशुधर्म आपने चलाया जो राजा वेन से प्रारम्भ हुआ है इससे पता चलता है कि आप धर्म के नहीं अधर्म के फैलाने वाले हैं।

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८७,
(प्रश्न) नियोग मरे पीछे ही होता है वा जीते पति के भी?
(उत्तर) जीते भी होता है।
अन्यमिपिच्छस्व सुभगे पतिं  मत् ॥ ~ऋ० {मं० ११/ सू० १०}
जब पति सन्तानोत्पति में असमर्थ होवे तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे!सौभाग्य की इच्छा करने हारी स्त्री तू (मत्) मुझ से (अन्यम्) दूसरे पति की (इच्छस्व) इच्छा कर क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति की आशा मत कर, तब स्त्री दूसरे से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करे परन्तु उस विवाहित महाशय पति की सेवा में तत्पर रहै, वैसे ही स्त्री भी जब रोगादि दोषों से ग्रस्त होकर सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे तब अपने पति को आज्ञा देवे कि हे स्वामी आप सन्तानोत्पत्ति की इच्छा मुझ से छोड़ के किसी दूसरी विध्वा स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कीजिये, जैसा कि पाण्डु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने किया
समीक्षक— यह तो बेशर्मी की हद ही हो गई, स्वामी जी ने तो जैसे ठान रखा है कि अर्थ का अनर्थ ही करना है यदि स्वामी जी इस मंत्र को पूरा लिखते तो कलई खुल जाती, सारा नियोग हवा में उड जाता, देखिए पुरा मंत्र यह है-
आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभागे पतिं मत्॥
~ऋ० {१०/१०/१०}
यह ऋचा यम यमी संवाद की है यमी कहती है यम से कि हम दोनों समागम करें तो यम इस मंत्र से उत्तर देते हैं, कि हे यमी वे उत्तर युग आवेंगे जिन युगों में (जामयः) भगिनियां (अजामि कृणवन्) भगिनी से भिन्न सम्बन्धित कर्म को करेंगी भाव यह है कि कलियुगान्त में ही यह संकरता होगी,जिस काल में भगिनी से भिन्न स्त्री योग्य कर्मों को भगिनी करेंगी, किन्तु अभी तो संकर धर्म नहीं अपने-अपने धर्म में सब वर्ण वर्तमान है इसलिए हे सुभगे मेरे से अन्य योग्य पति की इच्छा कर,
अब बुद्धिमान यह विचारें कि इसमें कौन सी बात नियोग की है? इसमें स्वामी जी ने बड़ी बनावट कर मंत्र का आशय सम्पूर्णत: बदल दिया,

कुन्ती माद्री का भी दृष्टांत इसमें घट नहीं सकता, क्योकि पाण्डु को शाप था इस कारण पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती और माद्री ने मंत्र बल से देवताओं का आह्वान किया, इन्द्र, वायु और धर्म से तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो तत्काल ऋतुदान करते ही उत्पन्न हो गये, अश्वनीकुमारों से नकुल, सहदेव यह तत्काल ही उत्पन्न हो गये थे, यदि इस प्रकार मंत्राकर्षण से पति की आज्ञानुसार स्त्री में देवताओं के बुलाने की सामर्थ्य हो तो वह कर सकती है, इस देव सम्बन्धी कार्य का यहाँ दृष्टांत नहीं घट सकता,

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८७-८८,
 
प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योsष्टौ नरः समाः।
विद्यार्थं षड् यशोsर्थं वा कामार्थं त्रीस्तु वत्सरान् ॥१॥
वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजाः।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥२॥ ~मनु० {९/७६,८१}
विवाहित स्त्री जो विवाहित पति धर्म के अर्थ परदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या और कीर्ति के लिये गया हो तो छः और धनादि कामना के लिये गया हो तो तीन वर्ष तक बाट देख के, पश्चात् नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर ले, जब विवाहित पति आवे तब नियुक्त पति छूट जावे॥१॥
वैसे ही पुरुष के लिये भी नियम है कि वन्ध्या हो तो आठवें (विवाह से आठ वर्ष तक स्त्री को गर्भ न रहै), सन्तान होकर मर जायें तो दशवें, जब-जब हो तब-तब कन्या ही होवे पुत्र न हों तो ग्यारहवें वर्ष तक और जो अप्रिय बोलने वाली हो तो सद्यः उस स्त्री को छोड़ के दूसरी स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लेवे॥२॥
वैसे ही जो पुरुष अत्यन्त दुःखदायक हो तो स्त्री को उचित है, कि उस को छोड़ के दूसरे पुरुष से नियोग कर सन्तानोत्पत्ति करके उसी विवाहित पति के दायभागी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे, इत्यादि प्रमाण और युक्तियों से स्वयंवर विवाह और नियोग से अपने-अपने कुल की उन्नति करे
समीक्षक— यहाँ स्वामी जी ने यह लीला रची की पहला श्लोक तो ९ वें अध्याय का ७६ वां और दूसरा श्लोक ८१ वां लिखा है और इन दोनों का स्वामी जी ने एक ही प्रसंग लगा दिया, जबकि इनमें से एक में भी नियोग तो क्या नियोग की गंध तक नहीं है, देखिए इससे पहले यह श्लोक हैं--
 
विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत्कार्यवान्नरः।
अवृत्तिकर्शिता हि स्त्री प्रदुष्येत्स्थितिमत्यपि॥७४॥
विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता।
प्रोषिते त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः॥७५॥
प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।
विद्यार्थं षड्यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥७६॥
जब कोई पुरुष परदेश को जाये तो प्रथम स्त्री के खान पान का प्रबंध करता जाये, क्योकि बिना प्रबंध क्षुधा के कारण कुलीन स्त्री भी दूसरे पुरुष की इच्छा कर सकती हैं॥
खान पान की व्यवस्था करकें परदेश जाने के अनन्तर उस पुरुष की स्त्री नियम अर्थात पतिव्रत से रहकर अपना समय व्यतीत करें, और जब भोजन को न रहे या पुरुष पुरा बंदोबस्त करकें  न गया हो तो पति के परदेश होने तक शिल्पकर्म जो निन्दित न हो अर्थात सूत कातना हस्त से काढना आदि कर्मों से गुजरा करें॥
यदि वह परदेश धर्म कार्य को गया हो तो आठ वर्ष, विद्या पढने गया हो तो छ: वर्ष, धन यश को गया हो तो तीन वर्ष तक राह देखें, पश्चात पति के पास जहाँ हो वहाँ चली जावें॥
अब बुद्धिमान स्वयं विचारें की इसमें नियोग की बात कहा से आ गई और यह हम पहले ही बता चुके हैं कि मनु जी ने नियोग की बात का समर्थन नहीं करते उन्होंने इसे पशुधर्म कहते हुए मनुष्यों के निन्दित बताया है पुन: प्रमाण देते हैं देखिए मनु जी लिखते हैं कि-
नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोगः कीर्त्यते क्व चित्।
न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुनः॥ {९.६५}
पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा।
पतिलोकमभीप्सन्ती नाचरेत्किं चिदप्रियम्॥ {५/१५६}
कामं तु क्सपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः।
न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु॥ {५/१५७}
आसीता मरणात्क्सान्ता नियता ब्रह्मचारिणी।
यो धर्म एकपत्नीनां काङ्क्षन्ती तमनुत्तमम्॥ {५/१५८}
अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम्।
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसंततिम्॥ {५/१५९}
मृते भर्तरि साढ्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता।
स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः॥ {५/१६०}
अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारमतिवर्तते।
सेह निन्दामवाप्नोति परलोकाच्च हीयते॥ {५/१६१}
पतिं हित्वापकृष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते।
निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते॥ {५/१६३}
व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम्।
शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते॥ {५/१६४} ~मनुस्मृति
जो वेद मंत्र विवाह के संबंध में कहें गए हैं उसमें न तो नियोग का वर्णन है और न ही विधवा विवाह का॥
अगले जन्म में अच्छा पति पाने की इच्छा  रखने वाली स्त्री को इस जन्म में विवाहित पति की जीवन-अवधि में अथवा उसकी मृत्यु हो जाने पर उसे बुरा लगने वाला कोई कार्य नहीं करना चाहिए॥१५६॥
स्त्री अपने पति की मृत्यु हो जाने के पश्चात फल-फूल और कन्द-मूल खाकर अपना शरीर चाहे सुखा ले पर भूल कर भी दूसरे पुरूष के संग की इच्छा न करें॥१५७॥
पतिव्रता स्त्री को पति के मृत्यु के बाद पुरा जीवन क्षमा, संयम, तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुजारना चाहिए, उसे सदाचारणी स्त्रीयों द्वारा आचरण योग्य उत्तम धर्म का पालन करने पर गर्व करना चाहिए॥१५८॥
यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु बिना किसी संतान को उत्पन्न किए हो जाए तब भी स्त्री को अपनी सद्गति के लिए दूसरे पुरुष का संग नहीं करना चाहिए,॥१५९॥
सन्तान उत्पन्न नही करने वाले ब्रह्मचारीयों की तरह पति की मृत्यु के बाद ब्रह्मचर्य पालन करने वाली स्त्री पुत्रवती नही होने पर भी स्वर्ग प्राप्त करती है॥१६०॥
पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जो स्त्री पतिव्रत धर्म को तोड़ कर दूसरे पुरुष के साथ संभोग करती है उसकी इस संसार में निंदा होती है तथा परलोक में बुरी गति मिलती है॥१६१॥
कम गुणों वाले अपने पति का त्याग कर जो स्त्री अधिक गुणों वाले अन्य पुरुष का संग करती हैं वह इस संसार में निंदा का पात्र बनती है और दो पुरूषों की अंकशायिनी बनने का कलंक लगवाती है॥१६३॥
पति के सिवाय दूसरे पुरुष से संभोग करने वाली विवाहित स्त्री इस संसार में निंदा का पात्र तो बनती ही है और मरने के बाद   गीदड़ की योनि में जन्म लेती हैं, वह कोढ़ जैसे अनेक असाध्य रोगों से पीड़ा पाति है॥१६४॥
क्या स्वामी जी ने मनुस्मृति में यह श्लोक नहीं देखें? अवश्य देखें होंगे परन्तु लिखते कैसे इच्छा तो स्त्रीयों को व्यभिचारीणी बनाने की थी, भारतवर्ष को इस पशुधर्म की ओर धकेलने की थी, और सुनिए स्वामी जी ने दूसरा श्लोक यह लिखा है, (वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे०) इसका अर्थ पूर्व ही कर चुके हैं, अब क्योकि स्वामी जी इसका अर्थ बिगाड़ने से भी न चूकें इसलिए पुनः इसका अर्थ लिखते हैं,
वन्ध्याष्टमेsधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजाः।
एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥
पत्नि यदि वन्ध्या हो तो आठ वर्ष, बार-बार मृत बच्चों को जन्म देती हो तो दश वर्ष, या केवल कन्याओं को ही जन्म देती हों तो ग्यारह वर्ष उपरान्त पति दुसरा विवाह करने का अधिकारी है और यदि पत्नि अप्रिय बोलने वाली है तो पति तत्काल दुसरा विवाह कर सकता है।

यह इसका अर्थ है, स्वामी जी ने यह भी खुब लिखा कि “पति दुःखदायक हो तो स्त्री उसे छोड़ किसी दूसरे पुरुष से नियोग कर सन्तानोत्पत्ति करके उसी विवाहित पति के दायभागी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे” धन्य हे! स्वामी जी आपकी बुद्धि, पहले तो लिखा कि पति आज्ञा दे तो नियोग करें, और अब लिखा कि स्त्री अपनी इच्छा से पति छोड़ दूसरे पुरुष से नियोग कर लें, जब वह दूसरे पुरुष से नियोग करेगी पति से लडेगी, तो वह उसे घर में ही क्यों रहने देगा, सास ससुर भी उसे घर में नही रहने देंगे, एक नहीं सैकड़ों नियोग करें, परन्तु जब वह पति के विरुद्ध करेगी वह तो काहें को उसे घर में घुसने देगा, ऐसी बिना सर पैर की बात तो कोई मुर्ख भी न करेगा जैसी स्वामी जी ने यहाँ लिखीं हैं जो स्त्री दुसरे से सन्तान उत्पन्न करें पति से छोड़ी हुई फिर उसके और से उत्पन्न हुए बालक कौन से शास्त्र से दायभागी होंगे, सिवाय तुम्हारे व्यभिचार प्रकाश के, और तो किसी ग्रंथ में स्वैरिणी स्त्रीयों के पुत्रों का दाय भाग नहीं मिल सकता।

 
सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ समुल्लास पृष्ठ ८८,
वीर्य और रज को अमूल्य समझें, जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं वे महामूर्ख होते हैं, क्योंकि किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के विना अन्यत्र बीज नहीं बोते, ‘आत्मा वै जायते पुत्राः’ यह ब्राह्मण ग्रन्थों का वचन है।
अंगादंगात्सम्भवसि  हृदयादधि जायसे।
आत्मासि पुत्रा मा  मृथाः स जीव शरदः शतम्॥
~ यह सामवेद के ब्राह्मण का वचन है।
हे पुत्रा! तू अंग-अंग से  उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है, इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरे किन्तु सौ वर्ष तक जी
समीक्षक— स्वामी जी इस बात से तो स्वामी जी का ही पक्ष बिगाड़ता है, जबकि माली किसान भी बीज अपनी भूमि में बोते है तो वे पुरुष भी मुर्ख है जो अन्य स्त्री से नियोग करते और वृथा बीज खोते है, क्योकि एक ही बार जाने से गर्भ रह नहीं सकता, और जब आत्मा ही पुत्र है तो मृत पुरुष के वे बालक कहा नहीं सकते, अब एक और बात सुनिये किसी की बुद्धि कितनी ही भ्रष्ट क्यों न हों? कितना ही नशे में चूर क्यों न हों? फिर भी वह तुम्हारी भांति बिना सर पैर की बात नहीं कर सकता।

॥इति सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत चतुर्थसमुल्लासस्य खंडनम् समाप्तम्॥



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