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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत दशम समुल्लास की समीक्षा | Dasham Samullas Ki Samiksha

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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत दशम् समुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते


 
इस समुल्लास को लिखते समय स्वामी जी अपनी बुद्धि न जाने कहाँ रखकर भूल गये, यह पूरा समुल्लास परस्पर विरुद्ध बातों से भरा हुआ है पहले तो स्वामी जी ने इसमें शूद्रों के हाथ का पका भोजन खाना लिखा और फिर बाद में शूद्रों के हाथ का खाने को मना किया, यहाँ तक की मनुष्यों का मांस खाना भी लिखा है, शोक हे ऐसी बुद्धि पर, ऐसा बावला इंसान तो मैंने आज तक नहीं देखा, जिसे अपने लिखें कि कोई सुध नहीं कि क्या अंड संड लिखें जा रहा है, वो घंटा दूसरों का मार्गदर्शन करेगा, सो आइए अब आपको दयानंद की वो गपडचौथ दिखलाते हैं

 

सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ १११,

जो अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिये क्योंकि शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढ़ी मूँछ रखने से भोजन पान अच्छे प्रकार नहीं होता


समीक्षक— वाह रे भंगेडानंद वाह बस यही दो बातें लिखना शेष रह गया था, सो वह भी पुरा कर दिया, थियोसोफिकल सोसायटी जैसी ईसाई मिशनरी सभा से प्रीती का असर साफ दिख रहा है तुम्हारी सोच भी बिल्कुल ईसाइयों जैसी ही है बिल्कुल सफाचट, धर्म, कर्म, संस्कार सब धो ड़ाला, जैसे तुम सन्यासी होकर शिखा डाढ़ी मूँछ नहीं रखते वैसे ही तुम चाहते हो सब हो जाएं, अब यदि तुमको कोई वेदनिन्दक भी कहें तो उसका कहना अनुचित नहीं होगा, भारत में भी लगभग छः महीने से अधिक उष्णता रहती है, तो फिर साफ लिख देना था कि छ: महीने को डाढ़ी मूँछ, सर के बाल के साथ चूटिया तक मुंडवा दो, खास कर अपने चैलों को तो तुम यही आज्ञा करते हो कि तुम लोग ईसाइयों की भांति शिखा सहित सिर के बाल मुंडवा दिया करों क्योकि अत्यधिक गर्मी से बुद्धि कम हो जाती है, परन्तु तुम्हारी इस सत्यार्थ प्रकाश को देखकर विदित होता है कि तुमने यह पुस्तक जरूर सर पर ऊनी वस्त्र बांधकर या फिर भट्टी में सर घुसेड़कर लिखीं होगी, तभी बुद्धिहीनता की इतनी बातें लिखी है, चलों डाढ़ी मूँछ का तो तुमने यह कारण बताया कि इससे खानपन अच्छी प्रकार नहीं हो पता, परन्तु शिखा से क्या हानि होती है? वह तो खान पान में बाधा नहीं डालती, फिर शिखा उड़ाना क्यों लिखा? जैसी तुम्हारी हरकतें है उसे देखकर तो यही समझ में आता है कि तुम्हारे मन यह भय होगा कि कभी किसी से विवाद हो गया तो लड़ाई में कोई तुम्हारी या तुम्हारे चैलों की चुटिया पकड़ कर सुत न दें लेकिन तुमने स्वयं अपनी संस्कार विधि में शिखा सूत्र का धारण करना लिखा है अब यदि शिखा रखने से बुद्धि कम होती है तो फिर शिखा सूत्र का संस्कार विधि में धारण करना व्यर्थ ही लिखा है, फिर यज्ञोपवीत भी धारण करना व्यर्थ है तो यह संस्कार उडाकर वेद पर भी हडताल फेर दी होती, तुम्हें यह ने सूझी की यदि डाढ़ी मूँछ में उच्छिष्ट लग गया तो क्या वह पानी से नहीं धुल सकती, या तुम इतने बड़े वाले आलसी हो कि भोजन करने के पश्चात मूहँ भी नहीं धोते, और जब शिखा ही उडा दी, तो जरा अब अपने उस लेख को याद करों जो तुमने पंच महायज्ञ विधि के पृष्ठ ५ पर यह लिखा है  कि “इसके अनंतर गायत्री मंत्र से शिखा को बांध कर रक्षा करे” अब जब तुमने शिखा ही उडवा दी तो भला शिखा बांधें कैसे? और जब तक शिखा नहीं बांधते तब तक तुम्हारे कथनानुसार रक्षा कैसे होगी? इसलिए तो कहता हूँ कि स्वामी जी को अपने लिखें कि ही सुध नहीं कब क्या लिखा और कब क्या? उन्हें स्वयं नहीं पता, स्वामी जी की यह सत्यानाश प्रकाश परस्पर विरुद्ध बातों से भरी हुई हैं, यह सिर्फ स्वामी जी का ढ़ोग है, यह आर्यों को भ्रष्ट करने को ढ़ंग चलाया है क्योंकि आर्यों के यह दो ही विशेष चिन्ह है शिखा और सूत्र सो स्वामी जी ने यही मिटने को यह लोप लीला चलाईं है, इस कारण दयानंद की यह बात मानने योग्य नहीं, सन्यास आश्रम में प्रविष्ट होने के समय को छोड़ और किसी भी समय शिखा का त्याग नहीं करना चाहिए यही वेदों की अज्ञा है


 
सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ १९८,

अधिष्ठिता वा शूद्राः संस्कर्त्तारः स्युः।

यह आपस्तम्ब का सूत्र है, आर्यों के घर में शूद्र अर्थात् मूर्ख स्त्री पुरुष पाकादि सेवा करें, आर्यों के घर में जब रसोई बनावें तब मुख बांध के बनावें, क्योंकि उनके मुख से उच्छिष्ट और निकला हुआ श्वास भी अन्न में न पड़े


समीक्षक— अब इस धूर्त दयानंद की बुद्धि को क्या कहें? अपनी आदत से मजबूर दयानंद ने यहाँ भी अर्थ का अनर्थ ही किया है प्रथम तो कोई इस दयानंद से यह पूछे कि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति मूर्ख स्त्री पुरुष को रसोई बनाने का काम क्यों देगा? जबकि रसोई बनाना भी काफी चतुराई का कार्य है, रसोइये भी केवल वहीं लोग रखते हैं जो धनवान है और धनी लोगों के घरों में विविध प्रकार के व्यंजन बनते हैं जो केवल चतुर और निपुण लोग ही बना सकते हैं क्योंकि प्राचीन समय में भोजन आदि बनाने का कार्य भी केवल उन्हीं लोगों को दिया जाता था जो सूपशास्त्रादि जानते थे, मैंने तो आज तक नहीं सुना कि रसोई बनाने को किसी ने मूर्ख रखें हो, और जो मुर्ख स्त्री पुरुष को रसोई बनाने का काम दिया तो वो निश्चित ही अपने लक्षणानुसार कुछ न कुछ मूर्खता अवश्य करेगा, भला निर्बुद्धि और मुर्ख स्त्री पुरुष जिन्हें सिखायें कुछ भी न आए वह रसोइ कैसे बना सकते हैं? और धनी लोगों के घरों में तो विविध प्रकार के व्यंजन बनते हैं भला मूर्ख स्त्री पुरुष कैसे बना सकेंगे? वेदादि शास्त्रों में कहीं भी यह नहीं लिखा और न ही कभी सुना है कि द्विजों के घर में शूद्र रसोई बनावें, यह तो स्वामी धूर्तानंद जी की लीला है जो द्विजों के घरों में शूद्रों को रसोई करना लिखते हैं और जो सूत्रार्थ दयानंद के ही अनुसार करें तो इसका यह अर्थ होता है कि 'आर्यों के यहाँ शूद्र संस्कार करने वाले' अर्थात झाडू, पोछा करना, बर्तन माजना, कपड़े धौना सेवादि संशोधन के कार्य शूद्र करते थे, और अब भी यह कार्य कहारादि करते ही हैं परन्तु भोजन बनवाकर खाना ऐसा तो इस सूत्र में कोई शब्द नहीं लिखा, इसलिए दयानंद का यह कथन असत्य सिद्ध होता है


 

सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ १९८,

जिन्होंने गुड़, चीनी, घृत, दूध, पिशान, शाक, फल, मूल खाया उन्होंने जानो सब जगत् भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट खा लिया

समीक्षक— स्वामी जी के इस लेख से क्या प्रतीत होता है यही कि सब जात के हाथ का भोजन करने से सब संसार एक जात हो जाएं, पहले चुटिया कटवाई और अब सब जाति एक बनाईं यह तो दयानंद का गुप्त अभिप्राय था कि मुस्लिम, ईसाई, चांडालादि सबको एक ही कर देना चाहिए क्योंकि गुड़, चीनी प्रायः सब ही खाते हैं तो सब ही भ्रष्ट हो गए और फिर तुमने ही दशम समुल्लास के पृष्ठ १९८ पर यह लिखा है कि शूद्रों के पात्र में तथा उनके घर का अन्न आपातकाल के बिना कभी न खावें


अब कोई इस भंगेडानंद जी से यह पूछे कि गुड़, चीनी, घृतादि खाने से जब सब एक ही हो गए, तो फिर शूद्र के यहाँ खाने में क्या दोष रहा ? वाह रे भंगेडानंद यही तो तुम्हारी बुद्धि है कहीं कुछ लिखा तो कही कुछ और अपने हुक्का पिने की बात यहाँ न लिखीं


 

सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ १९९,

और मद्य, मांसाहारी म्लेच्छ कि जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है उनके हाथ का न खावें


समीक्षक— स्वामी जी की बुद्धि का क्या कहें देखिए पहले तो स्वयं ही लिखा कि “जिन्होंने गुड़, चीनी, घृत, दूध, पिशान, शाक, फल, मूल खाया उन्होंने जानो सब जगत् भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट खा लिया”और अब मलेच्छों के हाथ का खाने का निषेध करते हैं, धन्य है स्वामी भंगेडानंद जी आपकी बुद्धि, यदि मलेच्छों का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूर्ण है, तो शुद्र भी तो मांस खाते हैं, फिर मलेच्छों के हाथ के भोजन में जो दोष लिखा, क्या वह दोष शूद्रों के हाथ का भोजन करने में नहीं लगता? शोक है ऐसी बुद्धि पर कहीं तो भंग के नशे में कुछ लिखा और कहीं कुछ इसी से तो कहता हूँ कि स्वामी जी में बुद्धि की बहुत कमी थी, और स्वामी जी ने यहाँ अपने बारे में न बताया, स्वामी जी स्वयं मलेच्छों के हाथ का खाते पिते थें “थियोसोफिकल सोसायटी” जैसी ईसाई मिशनरी सभा स्वामी जी जिसके अहम सदस्यों में से थे, इस ईसाई मिशनरी सभा के संस्थापकों कर्नल आल्काट, मैडम ब्लैवाटस्की जैसे ईसाइयों के साथ स्वामी जी का प्रतिदिन का उठना बैठना, चाय नाश्ता, भोजनादि होता ही था, तो क्या मलेच्छों के हाथ का व उनके साथ खाने से यह दोष उनपर नहीं लगता?


 

सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ २००,

यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें।
(प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें?

(उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है


समीक्षक— धन्य हे स्वामी जी तुम्हारी बुद्धि, स्वामी जी ने यहाँ मनुष्यों का मांस खाने खिलाने की परिपाटी निकाली है, कोई इस दयानंद से यह पूछे कि क्या कहीं मनुष्य भी खाये जाते हैं? स्वामी जी ने जो अपने आत्मचरित में दरिया से मृत शव निकालकर चाकू से चीरने फाडनें की बात स्वीकारी है उसका कारण नाड़ी चक्र का परीक्षण नहीं बल्कि हो सकता है स्वामी जी को भूख लगी हो सो ऐसा काम किया हो, क्योकि स्वामी जी अपने इस लेख में मांसाहारीयों को मनुष्य का मांस खाना लिखते है और कहते हैं कि ऐसा करने से संसार की कुछ हानि नहीं होती, हिंसक जीव शेर, चिता, भेडिया आदि का मांस तो कोई मनुष्य नहीं खाता और मनुष्य का मांस भी मनुष्य नहीं खाते इसलिए यह दोनों बातें बुद्धि के विरुद्ध है, और मांसाहारी जीव कुत्ते आदि तो मांस खाते ही यह सबको पता है परन्तु कुत्ते आदि मांसाहारी जीव भी मनुष्य का मांस नहीं खाते, जो उन्हें मनुष्यों का मांस या अन्य जीवों का मांस खिलाते है तो मांस खाने से उनका स्वभाव और अधिक हिंसक होगा और मनुष्य का मांस खिलाने से मनुष्य का खुन उनके मूहँ लग जाएगा जिससे वो हिंसक हो मनुष्यों को हानि पहुँचाएंगे इससे तो संसार की हानि ही होगी, और जब मांस खाने से मनुष्यों का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है तो इससे संसार की हानि कैसे नहीं होती इससे तो संसार की बहुत बड़ी हानि है, स्वामी जी ने यह मांसविधि भी आलौकिक लिखीं हैं, एक का मांस दुसरे को खिलाकर जीव का स्वभाव हिंसक बनाने और मांसाहार को बढ़ावा देने की विधि लिखीं हैं, जीव हिंसा और मांस भक्षण यह धर्म का अंग नहीं होने से वेद विरुद्ध है, इस प्रकार के वेद विरुद्ध लेख लिखने से ही दयानंद की बुद्धि का पता चलता है।


 

सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ २००,

(प्रश्न) एक साथ खाने में कुछ दोष है वा नहीं?
(उत्तर) दोष है, क्योंकि एक के साथ दूसरे का स्वभाव और प्रकृति नहीं मिलती, जैसे कुष्ठी आदि के साथ खाने से अच्छे मनुष्य का भी रुधिर बिगड़ जाता है वैसे दूसरे के साथ खाने में भी कुछ बिगाड़ ही होता है


समीक्षक— जब साथ भोजन करने मात्र से स्वभाव प्रकृति आदि में अन्तर पडता है तो भला शूद्र जिनका शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित होता है यदि वह भोजन बनावेगा तो उसके हाथों से आटा मिडना आदि होने से क्या स्वभाव में विकृति नहीं होगी बिल्कुल होगी, इसी कारण तो कहते हैं कि स्वामी जी ने यह पुस्तक भारी भंग के नशे में लिखी है तभी तो कहीं कुछ और कही कुछ लिखा है, इसे तो स्वयं अपने लिखें कि ही सुध नहीं, तभी तो पहले पृष्ठ १९८ पर, शूद्र के हाथों का बना भोजन खाने को लिखा फिर आगे अपने ही विरुद्ध खंडन करते हुए डंके की चोट पर शूद्रों के हाथ का खाने का निषेध किया है, देखिए ...


 

सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास पृष्ठ २०१,

(प्रश्न) मनुष्यमात्र के हाथ की पकी हुई रसोई के खाने में क्या दोष है?

(उत्तर) दोष है, क्योंकि जिन उत्तम पदार्थों के खाने पीने से ब्राह्मण और ब्राह्मणी के शरीर में दुर्गन्धादि दोष रहित रज वीर्य उत्पन्न होता है वैसा चाण्डाल और चाण्डाली के शरीर में नहीं, क्योंकि चाण्डाल का शरीर दुर्गन्ध के परमाणुओं से भरा हुआ होता है वैसा ब्राह्मणादि वर्णों का नहीं, इसलिये ब्राह्मणादि उत्तम वर्णों के हाथ का खाना और चाण्डालादि नीच भंगी चमार आदि का न खाना

समीक्षक— कदाचित दयानंद ने यह समुल्लास मलेच्छों के हाथ का भोजन करकें लिखा हो तो कोई आश्चर्य नहीं क्योकि यह पुरा समुल्लास परस्पर विरुद्ध बातों से भरा हुआ है देखिए प्रथम तो पृष्ठ १९८ पर, शूद्र के हाथ का भोजन करना लिखा तो कहीं सबको एक जाति करने का आशय झलकाया तो कहीं मनुष्यादि का मांस भक्षण करना लिखा है, पर अंत में सत्य बात ही मुख से निकली, अपने पूर्व लिखें लेखों का खंडन करते हुए दयानंद स्वयं लिखते हैं कि शूद्रों के हाथ का भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि नीच के हाथ का भोजन करने से उनके शरीर की दुर्गन्धादि से भोजन हानि और रोगकारक होकर स्वभाव को बिगाड़ता है, इसी कारण द्विजों को नीच मद्य, मांसाहारी जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है उनके हाथ का न खाना चाहिए, देखिए मनु मे भी लिखा है-


नाद्याच्छूद्रस्य पक्वान्नं विद्वानश्राद्धिनो द्विजः।
आददीताममेवास्मादवृत्तावेकरात्रिकम्॥३॥ ~मनुस्मृति [अ० ४, श्लोक २२४]

अर्थात विद्वान द्विजों को शूद्रों के पात्र एवं उनके हाथ का पका भोजन न करना चाहिए, और जो कहीं आपदा आन पड़ी हो और भोजन न मिलता हो तो एक दिन के निर्वाह मात्र कच्चा अन्न (कच्चा सीधा दाल आटादि) ले लेवें।

यहाँ भी यही विदित होता है कि विपत्ति के समय आवश्यकता पड़ने पर एक दिन के निर्वाह मात्र कच्चा सीधा जैसे दाल आटादि ले लेवें, परन्तु शूद्र के हाथ का पका भोजन नही करना चाहिए


॥इति सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत दशम् समुल्लासस्य खंडनम् समाप्तम्॥



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