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आर्य सम्बोधन का शब्द न की कोई जाति

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आर्य अर्थात श्रेष्ठ (आर्य सम्बोधन का शब्द न की कोई जाति)

कुछ लोग स्वयं को इसलिए भी आर्य कहते है क्योंकि पूर्व काल में इस देश का एक नाम आर्यवर्त हुआ करता था, प्रथम इस देश का नाम ब्रह्मावर्त, फिर आर्यवर्त उसके बाद भारत आदि नाम से जाना गया है, हर कोई इस देश को अलग-अलग नाम से पुकारता है
रामायण महाभारत मे भी आर्य का सम्बोधन आया है, परन्तु क्या यह संबोधन किसी व्यक्ति विशेष के लिए था? या उस समय के लोग स्वयं को आर्य (श्रेष्ठ) कहते थे? ऐसा देखने में तो नहीं आता, रामायण महाभारत आदि में  भी यही देखने में आता है कि उस समय भी दुसरों के द्वारा ही “आर्यपुत्र” “आर्यमाता” “आर्यपत्नी” का संबोधन मिलता है। एक भी ऐसा उदाहरण नही मिलता जिसमे किसी ने स्वंय को आर्य कहा हो,  कहते भी तो कैसे? उस सयय के लोग इतने मूर्ख नही थे, आर्य सम्बोधन का शब्द है, जो सदैव दुसरें के लिए प्रयोग होता हे, कभी कोई अपने लिए प्रयोग नहीं करता, जिन पुरुषों के गुण कर्म और स्वभाव दूसरों से श्रेष्ठ होते हैं, जो पुरुष कुलीन होते हैं उन्हें आर्य कहकर संबोधित किया जाता है, यह उस मनुष्य पर निर्भर करता की उसके गुण कर्म और स्वभाव आर्य कहलवाने योग्य है या नहीं, लेकिन जो यह बात जानते है कि उनका स्वभाव दुष्टों वाला है, बुद्धि मूर्खों वाली है उत्पत्ति ग्यारह नियोग से हुई है इस कारण उन्हें कोई आर्य तो कहने से रहा सो वह अपने मुख से स्वयं को आर्य कथन कर स्वघोषित आर्य बनने की कोशिश करते हैं, ऐसी ही स्वघोषित आर्यों वाली मूर्खों की एक टोली आर्य समाज के नाम से प्रचलित है, वह स्वयं को ही अपने मुख से आर्य बोलकर मन ही मन खुश होते हैं, इसी प्रकार मुर्ख अक्सर मिलते रहते हैं, अभी कुछ दिन पहले मेरी बहस एक आर्य समाजी से हो गई, बात आगे बढ़ी तो वह बोल पड़ा कि "मैं तो आर्य हूँ" क्या तुम आर्य नहीं हो, मैंने कहा मैं आर्य हूँ या नहीं यह मैं कैसे बोल सकता हूँ, यह तो मेरे गुण कर्म स्वभाव पर निर्भर करता है इसका निर्णय तो दुसरे ही व्यक्ति कर सकते हैं, मेरे गुण कर्म स्वभाव यदि इस योग्य होंगे तो अवश्य कहला सकूंगा अन्यथा नहीं,
लेकिन आपने अपने आप को आर्य किस आधार पर कहा? इससे तो आपके अन्दर अंहकार का भाव आता है और जहाँ तक मैं जानता हूँ अंहकार के मद में चूर पुरुष कभी आर्य नहीं हो सकता, यह लक्षण आर्यों के नहीं, बल्कि महामुर्खों के है, भला उस उपाधि का क्या लाभ जो स्वयं से स्वयं को मिलें? और दुसरे आपको पूछे भी नहीं, हाँ आर्य आप जब कहाते जब कोई दूसरा आपके गुण कर्म स्वभाव आदि से प्रसन्न होकर आपको आर्य कहकर संबोधित करता, लेकिन इसके विपरीत आप आपने ही मुख से स्वयं को आर्य बोलकर स्वयं को तसल्ली दे रहे हो, अर्थात आप स्वयं जानते हो कि आपमें आर्यों के लक्षण नहीं इसलिए कोई आपको कोई आर्य नहीं कहेगा, इसलिए स्वघोषित आर्य बन बैठे, इससे तुम आर्य नहीं।

इससे यह जितने भी तथाकथित स्वघोषित आर्य बने बैठे है सब के सब मलेच्छ बुद्धि, बुद्धिहीन मनुष्य है क्योकि यदि  इनमें थोडी भी बुद्धि होती तो ये स्वंय अपने मुख से अपने आपको श्रेष्ठ न बोलते भला खुद के मुख से खुद को श्रेष्ठ कहना कहाँ की श्रेष्ठता है?

दयानंदी-- जब मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है तो आप मूर्ति पूजा क्यों करते हो, क्या ऐसे आप वेदविरूद्ध नहीं करते?

समीक्षक-- यह बात तुमने किस आधार पर कहीं कि मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है?

दयानंदी-- देखों यजुर्वेद में यह लिखा है कि "न तस्य प्रतिमा अस्ति" अर्थात उस परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है

समीक्षक-- ऐसे ही आधे अधुरे मंत्रों से तो दयानंद ने तुम्हारी बुद्धि हर ली है, "न तस्य प्रतिमा अस्ति" बस इतना ही पद लिखकर गड़प गये, आप लोगों को वेद तो कभी पढने नहीं है, बस चार शब्द रट लिये है उसे ही सारी उम्र गाते रहते हो, और सुनो प्रतिमा का अर्थ सिर्फ मूर्ति नहीं होता देखिये--

“प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतियातना ।
प्रतिच्छाया प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधि: उपमोपमानं स्यात्॥” ~अमरकोष-{२/१०/३५-३६}

यहाँ प्रतिमा प्रतिमान आदि शब्द उपमा उपमान अर्थ में प्रस्तुत किये गये हैं, पूर्ववर्ती मनीषी उपमा उपमान का सम्बन्ध प्रतिमा आदि शब्दों से करके अर्थ करते रहे हैं, जिसका संकेत सुप्रसिद्ध टीकाकार भानुजी दीक्षित ने रामाश्रमी व्याख्या में किया है।

इससे सिद्ध हुआ कि प्रतिमा का अर्थ सिर्फ मूर्ति नहीं बल्कि, प्रतिमा का अर्थ उपमा, उपमान और सदृश भी होता है
और तुम्हें तो यह तक न पता होगा कि यह किस अध्याय का कौन सा मंत्र है, तुम्हें तो दयानंद ने मात्र चार शब्द रटवाया है, जो पूरा मंत्र लिख देते तो उनकी पोल खुल जाती, देखों पुरा मंत्र इस प्रकार है--

न तस्य प्रतिमा ऽ अस्ति यस्य नाम महद् यशः। हिरण्यगर्भ ऽ इत्य् एषः।
मा मा हिमसीद् इत्य् एषा। यस्मान् न जात ऽ इत्य् एष॥ ~यजुर्वेद {३२/३}

अर्थ इसका यह है, कि "जिस परमात्मा की महिमा का वर्णन 'हिरण्यगर्भ' (यजुर्वेद २५/१०) 'यस्मान्न जात:' (यजुर्वेद ८/२३) तथा 'मा मा हिंसीत् (यजुर्वेद १२/१०२) आदि मंत्रों में किया गया है, 'यस्य नाम महद् यशः' जिसका नाम और यश ऐसा है उसकी तुलना में कोई नहीं वही आदित्य है, वही वायु है, चन्द्र, शुक्र, जल प्रजापति और सर्वत्र भी वही है, 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' ऐसा अद्वितीय रूप परमात्मा है उसके सदृश कोई और नहीं है।
और अब वेद से ही आपको मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाते हैं देखिये--

कासीत् प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रौगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे॥ ~ऋग्वेद {१०/१३०/३}

सबकी यथार्थ ज्ञानबुद्धि कौन है और प्रतिमा मूर्ति कौन है, और जगत का कारण कौन है, और घृत के समान सार जानने योग्य कौन है और सब दुःखों का निवृत्ति कारक और आनंद युक्त प्रिति का पात्र परिधि कौन है और इस जगत् का पृष्ठावरण कौन है और स्वतंत्र वस्तु और स्तुति करने योग्य कौन है, यहाँ तक तो इसमें प्रश्न है अन्त में सबका उत्तर इसमें है कि जिस परमेश्वर मूर्ति को इंद्रादि ने पूजा, पूजते है और पूजेंगे वह परमात्मा प्रतिमा रूप से जगत् में स्थित है और वो ही सारभूत घृतवत् स्तुति करने योग्य है
ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है,
समझने वालों को तो इतने से ही समझ लेना चाहिये, और न मानने वाले को तो साक्षात् परमात्मा भी नहीं समझा सकता प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहाँ समझा पाये।

औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले भी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि ६२-७४ में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
इसलिए औरों को नसीहत देकर खुद फजीहत करवाना छोड़ दो,

यह तो था वेदों से प्रमाण अब तुम्हें मूर्ति पूजा का वैज्ञानिक महत्व कथन करते हैं सुनिये--
जैसे समुद्र के जल की सभी समुद्रिक विशेषतायें लोटे के जल में भी होती हैं उसी तरह चूहे में भी ईश्वरीय विशेषतायें होना स्वाभाविक है। लेकिन वह परिपूर्ण नहीं है और वह ईश्वर का रूप नहीं ले सकता। आप निराकार वायु और आकाश को देख नहीं सकते लेकिन अगर उन में पृथ्वी तत्व का अंश ‘रंग’ मिला दिया जाये तो वह साकार रूप से प्रगट हो सकते हैं। यह साधारण भौतिक ज्ञान है जिसे समझा और समझाया जा सकता है। आम की या ईश्वर की विशेषतायें बता कर बच्चे और मुझ जैसे अज्ञानी को समझाया नहीं जा सकता लेकिन अगर उसका कोई माडल (प्रतिक चिन्ह) बना के दिखा दिया जाये तो किसी को भी मूल-पाठ सिखा कर महा-ज्ञानी बनाया जा सकता है। इस लिये मैं मूर्ति निहारने या उसे पूजा में ईश्वर के प्रतीक रूप में प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं समझता, प्रतिमा तो ध्यान केंद्रित करने का साधन है, मूर्तियों का विरोध करना ही जिहादी मानसिक्ता है।
तुम्हें जितना रटवाया जाता है बस उसे तोते की तरह रट लेते हो अपनी बुद्धि से कुछ काम नहीं लेते, इसी प्रकार बिना जाने समझें पुराण आदि सनातन धर्म ग्रंथों का विरोध कर तुम अपनी बुद्धिहीनता का प्रमाण  देते हो

दयानंदी-- तो क्या पुरणों में मिलावट नहीं है?

समीक्षक-- यह बात तुमने किस आधार पर कहीं।

दयानंदी-- स्वामी दयानंद ने लिखा है कि अपने नीज लाभ के लिए पुराण में ब्राह्मणों ने मिलावट कर दी है।

समीक्षक-- तुम भी किस चुतिये की बात करते हो, उसने स्वयं अपने नीज लाभ अपने स्वार्थ पूर्ति को वेदादि ग्रंथों के अर्थ के अनर्थ कर दिये, कितने ही श्रुतियों में मिलावट कर अर्थ का अनर्थ कर दिया, इसलिए ऐसे मूर्खों की बातों में नहीं आना चाहिए, जो यह मानते हो कि ब्राह्मणों ने पुराण में मिलावट कर दी, तो जरा इस पर भी तो सोच विचार करकें देखो कि ३ युगों तक लगभग करोड़ वर्षों तक श्री वेद भी तो उन्हीं ब्राह्मणों और पौराणिकों के पास ही रहे हैं, तो क्या उन्होंने वेदों में मिलावट नहीं की?उन्हें कैसे शुद्ध मान लेते हो?
अगर पुराणों को गलत सिर्फ इसलिए कहते हो की ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए लिखे तो उन्ही ब्राह्मणों के पास ३ युगो से वेद भी रहे हैं उनको श्री वेदों को एकदम सही कैसे मान रहे हो?
इसलिए ऐसी बात करने वाले और उन्हें मानने वाले दोनों ही उच्च कोटि के चुतियों में से है।

दयानंदी-- वेदादि ग्रंथों में पुराण का कोई वर्णन नहीं मिलता इससे पुराण पर शंका होती है,

समीक्षक-- मैंने यह पहले ही कहा था कि तुम सिर्फ नाम के वैदिक हो, असल में तुममें से किसी ने भी कभी वेद उठाकर नहीं देखें, जो देखा होता तो ऐसी मूर्खों वाली बात न करते।
देखिये प्रथम आपको वेदों से ही प्रमाण देते हैं-

यत्र स्कम्भः प्रजनयन् पुराणं व्यवर्तयत्।
एकं तदङ्गं स्कम्भस्य पुराणमनुसंविदुः ॥ (अथर्ववेद - १०,७.२६ )

स्कम्भ से उत्पन्न पुराण को व्यवर्तित किया, वह स्कम्भ का अंग पुराण कहा जाता है  ।

तमितिहासश्च पुराणं च गाथाश्च नाराशंसीश्चानुव्यचलन् ॥ ११
इतिहासस्य च वै स पुराणस्य च गाथानां च नाराशासिनां च प्रियं धाम भवति य एवम् वेद ॥ (अथर्ववेद १५/६/१२)

अर्थ- इतिहास पुराण और गाथा नारांशंसी के पिर्य धाम होते है, एक व्रात्य विद्वान, 'इतिहास, पुराण, गाथा व नाराशंसी' द्वारा वेदों का वर्धन व्याख्यान करता हुआ वृद्धि की दिशा में आगे बढ़ता है

ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥ (अथर्ववेद - ११/९/२४ )

ऋक् साम, छन्द, पुराण, यजु आदि द्युलोक और स्वर्गस्थ सभी देवता उच्छिष्ट यज्ञ में ही उत्पन्न हए, अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजु, और छन्द के साथ ही हुआ था।
अब ब्राह्मण ग्रन्थों से आपको प्रमाण दिखाते हैं देखों शतपथादि में इस प्रकार कथन है कि--

मध्वाहुतयो ह वा एता देवानाम्  यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं
गाथा नाराशंस्यः स य एवं विद्वाननुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं
गाथा नाराशंसीरित्यहरहः स्वाध्यायमधीते मध्वाहुतिभिरेव
तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रे ॥ ~शतपथ- {११/५/६/८}

अर्थ- शास्त्र देवताओ के मध्य आहुति है देव विद्या ब्रह्म विद्या आदिक विद्याएँ उत्तर प्रत्यूतर रूप ग्रन्थ इतिहास पुराण गाथा और नाराशंसी ये शास्त्र है जो इनका नित्यप्रति स्वध्याय करता है वह मानो देवताओ के लिए आहुति देता है ।

स यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य  पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो
भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः
पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि
सर्वाणि निश्वसितानि ॥ ~[शतपथ ब्राह्मण : १४/५/४/१०]

अर्थ- जिस प्रकार चारों ओर से आधान किए हुए गिले ईधन से उत्पन्न अग्नि से धूम्र निकलता है उसी प्रकार हे मैत्रेयी ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वाङ्गिरस, इतिहास , पुराण उपनिषद सुत्र, श्लोक, व्याख्यान, अनुव्याख्यान, इष्ट (यज्ञ), हुत (यज्ञ किया हुआ) , पायित, इहलोक, परलोक और समस्त प्राणी उस महान सत्ता के नि:श्वास ही है ।
देखिए इसमें इतिहास पुराण आदि नाम पृथक-पृथक ग्रहण किये हैं और भी दिखाते हैं आपको-

स होवाच— ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्यां सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ॥ ~[छान्दोग्य : ७/१/२]

नारदजी बोलें 'हे भगवन्' ! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वण जानता हूँ (ईतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं) इतिहास, पुराण जो वेदों में पाँचवाँ वेद हैं वो भी जानता हूँ, श्राद्धकल्प, गणित, उत्पादविद्या, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरूक्त, ब्रह्म सम्बंधी उपनिषदविद्या, भूततन्त्र, धनुर्वेद, ज्योतिष, सर्पदेवजनविद्या, देवजनविद्या, गन्धधरण, नृत्य, गीत, बाद्य इन सबको जानता हूँ
देखों छान्दोग्य के इस वाक्यानुसार कितनी विद्या सिद्ध हो गई और यहाँ भी पुराण पाँचवे वेद के रूप में पृथक ही ग्रहण किया है

अरेऽस्य महतो'भूत'स्य नि'श्वसितम्एत'द्य'दृग्वेदो' यजुर्वेद' सामवेदो'ऽथर्वाङ्गिर' सइतिहास'पुराण'विद्या' उपनिष'दः श्लो'काः सू'त्राण्यनुव्याख्या' नानिव्याख्या' ननिदत्त'म्हुत' माशित' पायित' मय'चलोक'प'रश्चलोक' स'र्वाणि च भूता'न्यस्यै' वै'ता'नि स'र्वाणि नि'श्वसितानि ॥ ~[बृह० ऊ० : ४/५/११]

अर्थ- उस परब्रह्म नारायण के निश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वाङ्गिरस, इतिहास , पुराण उपनिषद सुत्र, श्लोक, व्याख्यान, अनुव्याख्यान, इष्ट (यज्ञ), हुत (यज्ञ किया हुआ) , पायित, इहलोक, परलोक और समस्त भुत है।

एवमिमे सर्वे वेदा निर्मितास्सकल्पा सरहस्या: सब्राह्मणा सोपनिषत्का: सेतिहासा: सांव्यख्याता:सपुराणा:सस्वरा:ससंस्काराः सनिरुक्ता: सानुशासना सानुमार्जना: सवाकोवाक्या ॥ (गोपथब्राह्मण १/२/२०)

अर्थ- कल्प रहस्य ब्राह्मण उपनिषद इतिहास पुराण अनवाख्यात स्वर संस्कार निरुक्त अनुशासन और वाकोवाक्य समस्त वेद परमेश्वर से निर्मित है ।
अब मनुस्मृति, वाल्मीकि आदि से कथन करते हैं देखिए-

स्वाध्यायं श्रावयेत् पित्रे,धर्मशास्त्राणि चैव हि।
आख्यानमितिहासांश्च,पुराणान्यखिलानि च ॥ ~[मनुस्मृति : अ० ३, श्लोक ]

श्राद्ध के उपरान्त पितरों की प्रीति के लिये, वेद पारायण श्रवण कराये, धर्म शास्त्र आख्यान ,इतिहास, पुराणादि को भी सुनाये।

एतच्छुत्वारह: सूतो राजानमिदमब्रवीत ।
श्रूयतां यत्पुरा वृतं पुराणेषु मया श्रुतम्  ॥ ~वाल्मीकि रामायण

यह सुनकर सूत ने एकांत मे राजा से कहा सुनो महाराज, यह प्राचीन कथा है जो मैंने पुराणों में सुनी है इसके बाद रामजन्म का चरित्र जो भविष्य था सब राजा को सुनाया कि श्रीराम आपके यहाँ जन्म लेंगे ऋंगी ऋषि को बुलाइए और वैसा ही हुआ

पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ ~[याज्ञ० स्मृति० : १/३]

अर्थ- पुराण न्याय मीमांशा धर्म शास्त्र और छः अङ्गों सहित वेद ये चौदह विद्या धर्म के स्थान है ।
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण (१४/३/३/१३) में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (इतिहास पुराणं पञ्चम वेदानांवेदम् (७/१/२,४) में भी पुराण को वेद कहा है। बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि “इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपबर्हयेत्” अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये, इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।
अब पुराणों के लक्षण कथन करते हैं देखिए-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
१.सर्गः (जगतः उगमः)
२.प्रतिसर्गः (अवनतिः पुन्स्सृष्टिः)
३.वंशः (ऋषिदेवतादीनां जीवनम्)
४.मन्वन्तरम् (मानवजातेः उगमः, मनूनां राज्यभारः)
५.वंशानुचरितम् (सूर्यचन्द्रवंशीयराजानां चरित्रम्)

अर्थात (१) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(२) प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(३) वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन,
(४) मन्वन्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन,
(५) वंशानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन । ये पुराण के पाँच लक्षण हैं, जिसमें यह पाँच लक्षण हो वो पुराण कहलाता है
सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है। इसका प्रमाण वेदों में भी देखिए-

ऋचः सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥ (अथर्ववेद - ११/९/२४ )

अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजु, और छन्द के साथ ही हुआ था।
इसलिए पुराणों को नवीन बताने वालें वेद विरोधी, नास्तिक दयानंद और उसके नियोगी चमचों को अपनी औकात में रहकर ही बोलना चाहिए वे इस बात को कदापि न भूलें की जिस पुराण की महिमा का गुणगान वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत आदि ग्रंथों में किया गया है जिस पुराण को हमारे ऋषि मुनियों ने वेदों में पाँचवाँ वेद कहा है उसे नवीन बताकर विरोध करने वाले दयानंद और उसके नियोगी चमचें वेदादि ग्रंथों का ही अपमान करते हैं इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि पुराणों को नवीन बताकर उसका विरोध करने वाले नियोगी दयानंदीयों की बात सुनने के बजाय उनके कान के नीचे दो धर के मारे, बुद्धि अपने आप ठिकाने पर आ जाएगी, क्योकि जो विद्वान हैं उनके लिए तो वेद , ब्राह्मण और उपनिषदों से बड़ा कोई प्रमाण नहीं

                                                                     ~उपेन्द्र कुमार 'बागी'
{#स्त्रोत- चुतियार्थ प्रकाश, चतुर्थ खंड, पृष्ठ ४४१-४५१}

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5 comments

  1. उपेन्द्र भाई बोहोत श्रम किया आपने इन ढोंगी अर्यासमाजियें का सत्य उजागर करने में | ये आर्यसमाजी लोग हिन्दुओं के विभाजन के लिए प्रयासरत हैं | इसीलिए खुद को हिन्दू नहीं कहते | और कहते हैं के वेदों की और लौटो और उन्हें पढो किन्तु इनके हिसाब से केवल दयानंद का लिखा सहित्य ही शुद्ध है | इनसे कोई पूछे के ऐसा भ्रामक साहित्य पढ़कर जिसमें वेदों की पवित्र रचनाओं और श्लोकों का इतना मिथ्या अर्थ किया है क्या किसीको ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है | आपने आर्यसमाज के उचित खंडन में जो लेख लिखे हैं वो अति उत्तम हैं किन्तु उनमें प्रयोग किये गए कुछ शब्द ऐसे हैं जिनके कारण इन लेखों को किसी प्रियजन को भजने मन संकोच होता है | मैं यह समझता हूँ के ऐसा अपने दयानंद के द्वारा अपने द्वारा रचित साहित्य में उपयोग किसे असभ्य शब्दों की प्रतिक्रिया स्वरुप लिखा है किन्तु आपके द्वारा लिखे कुछ शब्दों के कारण इन लेखों का प्रचार सीमित हो जायेगा | अतः आपने निवेदन है के आप इन सारे लेखों से कुछ आपत्तिजनक शब्दों को हटा दें जिससे इन्हें अपने बड़ों व् प्रिय बन्दुओं को भेजने मन संकोच न हो |

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  2. puraan, mahabharata aur ramayana me full milaawat huii hai magar ved bach gaye kyunki usme lambi kahani nahi likhi hoti jo usme milaawat hoti aur dusri baat vedic brahmano ne usse bachaye rakha kyunki wo uska importance jaante thein

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  3. तेरी बुद्धि जड़ मूर्ति के समान हो गई है, तुम उन्ही लोगों में से हो जो सोमनाथ लुटते देख चुप थे क्युकी तुम अपनी भगवान का इंतजार कर रहे थे , और तुम्हारा भगवान हो तो न आए 😂😂😂 गधे

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  4. Tu gadha murkh kahi ka mere samne aa to teri sari hoshiyari nikal deta hu tu bhi kuchh jaanta hai

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    1. Tu kuch jaanta hai kya be dayanand ke andh namazi bhakt jitna likha hai usme bhi tum saalo ko aaptti hai

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