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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत प्रथम समुल्लास की समीक्षा | Pratham Samullas Ki Samiksha

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यस्माज्जातम जगत्सर्वं  यस्मिन्नेव  प्रलीयते।
येनेदं धार्यते चैव तस्मै ज्ञानात्मने  नमः॥
 
सत्यार्थप्रकाशान्तर्गतप्रथमसमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते

 

सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास पृष्ठ, ९

ओ३म् शन्नो मित्रः शं वरुणः शन्नो भवत्वर्य्य मा।
शन्नऽइन्द्रो बृहस्पतिः शन्नो विष्णुरुरुक्रमः॥
नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।
त्वामेव प्रत्यक्षं बह्म्र  वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु।
अवतु माम् अवतु वक्तारम्। ओ३म् शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः॥१॥

अर्थ-(ओ३म्) यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि, उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि, मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है, उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रें में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं

समीक्षा— यह अर्थ स्वामी जी के घर का है जो उन्होंने भर लौटा भंग पीने के बाद किया हैं स्वामी जी ने तो ठान रखा है कि  इस पुस्तक के माध्यम से उन्हें केवल मिथ्या भाषण ही करना है किसी को कुछ ठीक ठीक नहीं बताना, वर्ना उनका मत दूसरों से भिन्न कैसे मालूम होगा, देखिये सही अर्थ यह है

ॐ शं नः मित्रः शं वरुणः। शं नः भवतु अर्यमा। शं नः इन्द्रः बृहस्पतिः। शं नः विष्णुः उरुक्रमः। नमः ब्रह्मणे। नमः ते वायो। त्वम् एव प्रत्यक्षं बह्म असि। त्वाम् एव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तत् माम् अवतु। तत् वक्तारम् अवतु। अवतु माम। अवतु वक्तारम्। ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।  ~कृष्ण यजुर्वेद- [तैत्तिरीय उपनिषद्] (शिक्षा बल्ली, प्रथम अनुवाक)

अर्थ- प्राण वृत्ति का और दिवस का अभिमानी देवता जो मित्र सो हमारे लिए कल्याणकारी हो, अपान वृत्ति का और रात्रि का अभिमानी देवता जो वरुण सो हमारे लिए कल्याणकारी हो, चक्षुविषये वा सूर्यविषये अभिमानी जो अर्यमा सो हमारा कल्याण करें बलविषये अभिमानी जो इन्द्र और वाणी और बुद्धिविषये अभिमानी जो वृहस्पति सो हमारा कल्याण करें, उरुक्रम वलिराजा से तीन पाद की याचना से सर्व राज्य के ग्रहण अर्थ विश्वरूप धार के विस्तीर्ण पाद के क्रमवाला और पादन का अभिमानी जो विष्णु सो हमारा कल्याण करें, ब्रह्मरुप जो वायु है उसके अर्थ नमस्कार है, तू ही चक्षु आदि की अपेक्षा करके  बाह्य समीप और अन्तराय से रहित प्रत्यक्ष ब्रह्म है इस कारण में तुझेही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहता हूँ और जैसे शास्रों मे कहा है और जैसे करने को योग्य है ऐसा  बुद्धिविषे सम्यक् निश्वय किया जो अर्थ सो ऋत कहता है सो वो तेरे आधिन है इससे तुझे ऋत कहता हूँ वाणी और शरीर से सम्पादन हुआ जो सत्य है सो भी तेरे आधिन हैं इस कारण तुझे सत्य कहता हूँ सो सर्वात्मा वायु नाम ईश्वर मेरी रक्षा करें, वह वक्ता की रक्षा करें, मेरी रक्षा करें, ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः , तीन बार शांति करने से आध्यात्मिक, अधिभौतिक और आधिदैविक रूप जो विद्या की प्राप्तिविषे विघ्न है उसकी निवृत्ति के अर्थ है

यह इसका अर्थ है और दयानंद ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में इसका अन्यथा व्याख्यान किया है, इससे ही दयानंद की बुद्धि का पता चलता है, अब आते है ॐकार प्रकरण पर


 
दयानंद लिखते हैं कि—

(ओ३म्) यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि, उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि, मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है, उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रें में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं

समीक्षा—  दयानंद की वेदज्ञता तो इस ॐकार के अर्थ निरुपण से ही ज्ञात हो जाती है, ध्यान देने वाली बात है कि प्रणव की व्याख्या अन्नत प्रकार से वेदादि शास्त्रों में प्रसिद्ध है परन्तु दयानंद ने अपने अर्थ की पुष्टि में एक भी प्रमाण नहीं दिया, जिससे दयानंद द्वारा लिखें उक्त अर्थ सिद्ध होते हो, भला वह कौन सा मंत्र है जिसमें दयानंद के लिखें उक्त अर्थ लिखें है ॐकार के ऐसे अर्थ का प्रतिपादक मंत्र न वेद, न पुराण, न ब्राह्ममण और न हि उपनिषदादि किसी एक में भी नही मिलने का...

देखिये ऋग्वेद में इस प्रकार कथन है—

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिदेवा अधि विश्वे निषेदू:।
यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥
~ऋग्वेद १/१६४/३९

इति विदुषः उपदिशति कतमत्तदेतदक्षरमोमित्येषा वागिति शाकपूणिर्ऋचोह्मक्षरे परमे व्यवने धीयन्ते नानादेवतेषु च मन्त्रेष्वेतद्धवा एतदक्षरं यत्सर्वो त्रयीं विद्यां प्रति प्रतीति च ब्राह्मणम्  निरूक्त १३/१०, परिशिष्टे प्र०  भाष्यम् कतमत् तदक्षरम् इति ॐम् इत्येषा वाक् इति शाकपूणे: अभिप्राय: ॐकारमृतेन ह्मर्चयन्ति तस्या अक्षरे परमे व्योमन् व्योम विविधमस्मिन् शब्दजातमोतमिति व्योम तस्मिन् तिसृपु मात्रासु अकारोकारमकारलक्षणासूपशान्तासु यदवशिप्यते तदक्षरं परमं व्योम शब्दसामान्यमभिव्यक्तमित्यभिप्राय: यस्मिन्देवाः अधिनिषिण्णाः सर्वे ऋगादिषु ये देवाः ते मन्त्रद्वारेणाक्षरे निषण्णाः तस्य शब्दकारणत्वात् अथवा प्रथमायां मात्रायां पृथिवी आग्नेः ऋग्वेदः पृथिवीलोकानिवासिन इत्येवं द्वितीयायां मात्रायां अन्तरिक्षम् वायु: यजूंषि तॡकनिवासिनी जना इति तृतीयायां मात्रायां द्यौ: अद्वित्यः सामानि तॡकनिवासिनी जना इति विज्ञायते ही ॐकार एवेदं सर्वम् इति य स्तन्न वेद अनया विभूत्याक्षरम् किमसौ ऋचा ऋगादिभिमैत्रैः करिष्यति यस्तम्राक्षरात्मना पश्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते इति विदुष उपदिशति ते हि तत्परिज्ञानात् ताद्भाव्यमुपगताः प्रणवविग्रहमात्मानमनुप्रविश्य समीकृता निर्वान्ति शान्ताचिषं इवानला इति

भावार्थ- अविनाशी ऋचाएं परमव्योम से भरी हुई हैं, उसमें सम्पूर्ण देव शक्तियों का वास है, जो इस तथ्य को नहीं जानता (उसके लिए) ऋचा क्या करेगी? और जो इस तथ्य को जानते हैं वे इस ऋचा का सदुपयोग कर लेते हैं, इस मंत्र का व्याख्यान ॐकारपरत्व, आदित्यपरत्व तथा आत्मतत्व परता उसमें से प्रथम शाकपूणि नामक निरुक्तकार के मत से ॐकारपरता निर्णय करते हैं

(प्रश्न) जिस परम व्योम संज्ञक अक्षर मे देवादि स्थित हैं वह अक्षर कौन है?

(उत्तर) ॐ यह वाक् नाम शब्द परम उत्कृष्ट (व्योमन्) नाम सर्व की रक्षा करने वाला जो ॐकार उसमें ही सम्पूर्ण ऋग्वेदादि मंत्र अध्ययन किये जाते हैं और नाना जो देवता हैं वे सर्व मंत्रों में स्थित है, और मंत्रों में कारण होने से यह अक्षर व्याप्त है, क्योकि सर्व वेद त्रयी विद्या के प्रति ये अक्षर व्याप्त है ऐसे ब्राह्मण भी प्रतिपाद नहीं करता है, भाव यह है ओंकार के बिना ऋगादि मंत्रों का उच्चारण नहीं होता इससे व्योम संज्ञक जो अक्षर हैं उसमें नानाविध शब्द समूह स्थित है,

(प्रश्न) मंत्र तथा ओंकार शब्दरूप है इससे यह दोनों आकाश में स्थित है यावत शब्द समूह ओंकार में स्थित कैसे कहते हो?

(उत्तर) ओंकार नाम यहां अकारादि मात्रा के शान्त होते जो परिशेष रहता है शब्द सामान्य व्योम नामक अक्षर उसका है, इससे उस अक्षर शब्द सामान्य नादरूप ॐकार में यावत् मंत्र स्थित है, और जिसमें सर्व देवता स्थित है, क्योकि मंत्रों में देवता स्थित हैं और मंत्र पूर्वोक्त नाद नामक अक्षर में स्थित है, इससे मंत्र द्वारा यावत् देवता भी मंत्र में स्थित है, अथवा प्रथम मात्रा में पृथ्वीलोक, अग्नि, ऋग्वेद और पृथ्वीलोक निवासी जन स्थित है, और द्वितीय मात्रा में अन्तरिक्ष, वायु, यजुमंत्र और अन्तरिक्षलोक निवासी जन स्थित है, और तृतीया मात्रा में द्यौलोक, आदित्य, साम मंत्र और स्वर्गलोक निवासी जन स्थित है, इस कारण मांडूक्य उपनिषद में (ॐकार एवेदं सर्व) यह कहा है, जो इस विभूति सहित अक्षर को नहीं जानता  वो ऋगादि मंत्रों से क्या करेगा? अर्थात बिना ॐकार के जाने और उसके अर्थ जाने उसे वेद मंत्र फल नहीं देंगे, और जो पुरूष उक्त रूप नाद विभूति सहित अक्षर को जानते हैं, वे मनुष्य (समासते) प्रणव ज्ञान से अक्षर भाव को प्राप्त हुए अपने आत्मा को प्रणवरूप निश्चय करके प्रणव में प्रविष्ट होकर समता को प्राप्त हो शान्त ज्वाला अग्रिवत् (निर्वान्ति नाम निर्वाणपदं मोक्षं प्राप्तवन्ति) निर्वाण अर्थात मुक्त होते है, आदित्य पक्ष में यह अर्थ है कि जिस व्योमरूप परम अक्षररूप आदित्य में सब देवता स्थित है, मंत्र द्वारा उस आदित्य को जो नहीं जानते वे ऋगादि मंत्रों का क्या करेंगे? जो इस नाम एवं उस आदित्य को जानते हैं वे मनुष्य ही विद्वज्जन भूमि में सुख पूर्वक रोगादि रहित भोग सम्पन्न चिरकाल जीते हैं, मांडूक्य उपनिषद में इस प्रकार कथन है सुनिए
ॐमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानभूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥मांडूक्योपनिषत्-१॥

सोऽयमात्माध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति ॥मांडूक्योपनिषत्- ८॥

जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राऽऽप्तेरादिमत्त्वाद्वाप्नोति ह वै सर्वान्कामानादिश्च भवति य एवं वेद ॥मांडूक्योपनिषत् ९॥

स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसंततिम् समानश्च भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एवं वेद ॥मांडूक्योपनिषत् १०॥

सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदं सर्वमपीतिश्च भवति य एवं वेद ॥मांडूक्योपनिषत् ११॥

अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैतः एवमोङ्कार आत्मैव संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद ॥मांडूक्योपनिषत् १२॥

अर्थ— ॐकार अविनाशी ब्रह्म है, उसकी महिमा को प्रत्यक्ष लक्षित कराने वाला यह सम्पूर्ण विश्व है, भूत, भविष्यत्, वर्तमान आदि तीनों कालों वाला यह संसार ॐकार ही है,और तीनों कालों से परे भी जो अन्य तत्व है वह ॐकार ही है, जो वाच्य की प्रधानता वाला ॐकार चारों पाद वाला आत्मा है ऐसा पुर्व व्याख्यान किया है यथा (सर्वं ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्) सर्व (कारण और कार्य) ही यह ब्रह्म है सर्व जो ॐकार मात्रा है ऐसा श्रुति ने कहा है सो यह ब्रह्म है यह आत्मा ब्रह्म है, सो यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ॐकार है, वह मात्राओं का विषय करके स्थित है, यह आत्मा अध्यक्षर है, अक्षर का आश्रय लेकर जिसका अभिधान (वाचक) की प्रधानता से वर्णन किया जाए उसे अध्यक्षर कहते हैं, यह आत्मा चार पादवाला है, आत्मा के जो पाद हैं वे ॐकार की मात्रा है और ॐकार की जो मात्रा है वे आत्मा के पद है 'अकार' 'उकार' और 'मकार' यह तीन ॐकार की मात्रा है

ॐकार की प्रथम मात्रा 'अकार' व्याप्त होने पर आदि होने के कारण जागरित स्थानरूप वैश्वानर नामक प्रथम चरण है, जिस प्रकार अकार नामक अक्षर अदिमान् है उसी प्रकार वैश्वानर भी है, उसी समानता के कारण वैश्वानर की अकार रूपता है, अकार निश्चय ही सम्पूर्ण वाणी है श्रुति के अनुसार अकार से समस्त वाणी व्याप्त है।

ॐकार की दूसरी मात्रा 'उकार' श्रेष्ठ होने और द्विभावात्मक होने के कारण स्वप्न स्थान रूपतैजस नामक दूसरा चरण है, उत्कर्ष के कारण जिस प्रकार अकार से उकार उत्कृष्ट-सा है उसी प्रकार विश्व से तैजस उत्कृष्ट है, जिस प्रकार उकार अकार और मकार के मध्य स्थित है उसी प्रकार विश्व और प्राज्ञ के मध्य तैजस है, सुषुप्ति जिसका स्थान है वह प्राज्ञ मान और लय के कारण ॐकार की तीसरी मात्रा मकार है, मापक और विलीन करने वाली होने से सुषुप्त स्थान वाला प्राज्ञ नामक तृतीया चरण है, जिस प्रकार ओङ्कार का उच्चारण करने पर अकार और उकार अन्तिम अक्षर में एकीभूत हो जाते हैं उसी प्रकार सुषुप्ति के समय विश्व और तैजस प्राज्ञ में लीन हो जाते हैं।

अमात्र अर्थात मात्रा रहित ॐकार अव्यवहार्य, प्रपंचातीत एवं कल्याण रूप है यही ब्रह्म का चतुर्थ चरण है, जो इस प्रकार जानता है वह आत्मज्ञानी आत्मा के द्वारा ही परब्रह्म में लीन हो जाता है

इस प्रकार और भी उपनिषदों में वर्णन है—
 
उपुरस्ताद्ब्रह्मणस्तस्य विष्णोरद्भुतकर्मणः।
रहस्यं ब्रह्मविद्याया धृताग्निं संप्रचक्षते॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म यदुक्तं ब्रह्मवादिभिः।
शरीरं तस्य वक्ष्यामि स्थानकालत्रयं तथा॥
तत्र देवास्त्रयः प्रोक्ता लोका वेदास्त्रयोऽग्नयः।
तिस्रो मात्रार्धमात्रा च प्रत्यक्षस्य शिवस्य तत्॥
ऋग्वेदो गार्हपत्यं च पृथिवी ब्रह्म एव च।
अकारस्य शरीरं तु व्याख्यातं ब्रह्मवादिभिः॥
यजुर्वेदोऽन्तरिक्षं च दक्षिणाग्निस्तथैव च।
विष्णुश्च भगवान् देव उकारः परिकीर्तितः॥
सामवेदस्तथा द्यौश्चाहवनीयस्तथैव च।
ईश्वरः परमो देवो मकारः परिकीर्तितः॥
सूर्यमण्डलमाभाति ह्यकारश्चन्द्रमध्यगः।
उकारश्चन्द्रसंकाशस्तस्य मध्ये व्यवस्थितः।
मकारश्चाग्निसंकाशो विधूमो विद्युतोपमः।
तिस्रो मात्रास्तथा ज्ञेयाः सोमसूर्याग्नितेजसः॥
शिखा च दीपसंकाशा यमिन्नु परिवर्तते।
अर्धमात्रा तथा ज्ञेया प्रणवस्योपरि स्थिता॥

उक्त श्रुतियों से भी सिद्ध होता है कि अमात्र अर्थात मात्रा रहित एक अक्षर ॐकार ही ईश्वर का सर्वोत्तम नाम है,

इसके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ८/१३ मे भी स्वंय भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि


ॐमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
~श्रीमद्भगवद्गीता {८/१३}

भावार्थ : जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है॥१३॥


परन्तु दयानंद का यह किया (कल्पित) अर्थ किसी भी ग्रंथ के अनुसार नहीं है इसलिए सत्यार्थ प्रकाश में यह ओङ्कार का अर्थ मिथ्या जानना ही बुद्धिमानों को उचित है।


 
सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास पृष्ठ, १०
 
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः॥७॥ ~कैवल्य उपनिषत्

भावर्थ : सब जगत् के बनाने से ‘ब्रह्मा’, सर्वत्र व्यापक होने से ‘विष्णु’, दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से ‘रुद्र’, मंगलमय और सब का कल्याणकर्त्ता होने से ‘शिव’, 
जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशी, स्वयं प्रकाशस्वरूप और प्रलय में सब का काल और काल का भी काल है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘कालाग्नि’ है

फिर आगे पृष्ठ, १३ पर लिखा है कि--

इसलिए सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी न करें। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान्, दैत्य दानवादि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों ने भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करी, उससे भिन्न की नहीं की, वैसे हम सब को करना योग्य है

समीक्षा—  धन्य है स्वामी जी धूर्त हो तो आपके जैसा, बड़े बड़े धूर्त देखें परन्तु आपके समान दूजा नहीं देखा, कहाँ तो आप दस ही उपनिषद मानते थे, और आज मतलब पड़ा तो ग्यारह वाँ कैवल्य भी मान बैठे और प्रमाण के साथ ब्रह्मा, विष्णु और शिव को ईश्वर बताया, और अब यहाँ उन्हें पूर्वज विद्वान बता दिया, आपकी बुद्धि का पता तो यही चल जाता है, इसमें कोई प्रमाण तो दे दिया होता की यह मनुष्य थे, यदि प्रमाण नहीं मिला तो कोई उल्टी सीधी संस्कृत ही गढ़ लिए होते, आपके मंदबुद्धि नियोगी चेले उसे भी पत्थर की लकीर समझ लेते, यह आपको ही योग्य है कि ब्रह्मादिक नाम ईश्वर के बताकर फिर उन्हें पूर्वज विद्वान बता दिया और तो और यह अर्थ भी आपका अशुद्ध है, सही अर्थ इस प्रकार है देखिए
 
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः॥ ~कैवल्य उपनिषत्

अर्थ— वो ब्रह्मारूप हो जगत की रचना करता, विष्णु रूप हो पालन करता, रूद्ररूप हो दुष्टों को कर्मफल भुगाकर रूलाता शिव ही मंगल करता है वो ही स्वराट इन्द्र चन्द्रमा है, और कालाग्निरूप धारण कर प्रलय करता है 


यह सब देवता उसी के रूप है, नहीं तो बताइये की आप यहाँ किन ब्रह्मा, विष्णु और महादेव की बात कर रहे हैं, यह तीनों विद्वान किनके पुत्र थे? जो कहो की स्वयं उत्पन्न हो गए तो आपका सृष्टि क्रम जाता रहेगा कि बिना माता, पिता के कोई मनुष्य उत्पन्न नहीं होता, यही तो आपके भंग की तरंग है जो आत्मचरित में लिखा है कि मुझे भंग पीने की ऐसी आदत थी कि कभी-कभी तो उसके कारण मैं सर्वथा बेहोश हो जाया करता था, और फिर दूसरे दिन ही होश हो पाता था।


 

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ १७
 
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥ ~मनु (१/१०)

जल और जीवों का नाम नारा है, वे अयन अर्थात् निवासस्थान हैं, जिसका इसलिए सब जीवों में व्यापक परमात्मा का नाम ‘नारायण’ है

समीक्षा— आपका यह अर्थ भी अशुद्ध है सही अर्थ इस प्रकार है-"अप्त तत्व का एक नाम 'नार' है, क्योकि वह नर अर्थात् ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म की ब्रह्मा रूप में उत्पत्ति इसी 'नार' से हुई, इसलिए परमात्मा का एक नाम 'नारायण' है,


 

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, १८ में लिखते है

(गॄ शब्दे) इस धातु से ‘गुरु’ शब्द बना है। ‘यो धर्म्यान् शब्दान् गृणात्युपदिशति स गुरुः’ ‘स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्’।योग०। जो सत्यधर्मप्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करता, सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि गुरुओं का भी गुरु और जिसका नाश कभी नहीं होता, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘गुरु’ है

समीक्षा— “ब्रह्मादि गुरूओं का भी गुरु” ये पद दयानंद के घर का है, यह स्वामी जी बुद्धि की गढ़ंत है इस कारण इसे मिथ्या जानना ही बुद्धिमानों को उचित है, क्योकि वेदादि ग्रंथों में ऐसा कहीं भी नहीं लिखा, किन्तु यह अवश्य लिखा है कि उस परमात्मा का ही प्रकृतियुक्त नाम 'ब्रह्मा' है, देखें प्रमाण--


तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम्।
तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः॥
~मनुस्मृति {१/९}

सहस्रों सूर्यों के समान चमकीले अंडरूप प्रकाशयुक्त ज्योति पिण्ड (हिरण्यगर्भ) से सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, इससे यह सिद्ध होता है कि आदि में ब्रह्मा जी सबसे प्रथम उत्पन्न हुए और सब लोकों की सृष्टि ब्रह्मा जी ने ही की, सुनिये अथर्ववेद में भी स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि--

 
ब्रह्मज्येष्ठा सम्भृता विर्याणि ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमा ततान।
भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः॥ ~अथर्ववेद {१९/२२/२१}

(भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे) अर्थात सबसे प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, दयानंद तथा उनके कम अक्ल नियोगी चमचों को आखँ देखना चाहिए यह वेद वचन ही है इसमें स्पष्ट लिखा है कि आदि में सबसे प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, वही सब लोकों को रचने वाले वही सबसे श्रेष्ठ है देखिये यजुर्वेद में ब्रह्मा जी की उत्पत्ति के बारे में इस प्रकार कथन है कि--

 
हिरण्यगर्भः सम् अवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिर् एक ऽ आसीत्।
 स दाधार पृथिवीं द्याम् उतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ ~यजुर्वेद {१३/४}

सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ पुरुष (प्रजापति ब्रह्मा) सम्पूर्ण ब्रह्मांड के एक मात्र उत्पादक और पालक रहे, वही स्वर्ग अंतरिक्ष और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, उस प्रजापति के लिए हम आहुति समर्पित करते है, और सुनिये,

 
यत्तत्कारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकं।
तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते॥
~मनुस्मृति {१/११}
नित्य तथा सत-असत की मूल प्रकृति के मुख्य आधार परमात्मा का ही प्रकृतियुक्त नाम 'ब्रह्मा' है, अत: प्रकृति से जो अतीत और भिन्न है उस परमात्मा का नाम 'ब्रह्म' और जो परमात्मा प्रकृति सहित है उसका नाम 'ब्रह्मा' है, और सुनिये मुंडकोपनिषद में भी इस प्रकार कथन है कि--


ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्॥२॥ ~मुंडकोपनिषद {१/१/१-२}

सब जगत के बनाने वाले ब्रह्मा जी सब देवों में सर्वप्रथम उत्पन्न हुए, उन्होंने वह वेद विद्या जिसके सब विद्या आश्रय है अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व ऋषि को पढाई, अथर्व ने वह ब्रह्मविद्या अंगी ऋषि को पढाई, अंगी ने वह वेद विद्या ऋषि भारद्वाजवंशीय सत्यवाह को पढाई और सत्यवाह ने वह वेद विद्या अंगिरा ऋषि को पढाई, दयानंद और नियोगी चमचों को यह आखँ खोलकर देखना चाहिए इन वेदादि वचनों से यही सिद्ध होता है कि आदि में सृष्टि रचना की इच्छा से प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, उनसे ही अग्नि वायु सूर्य आदि देवताओं सहित अंगिरा आदि ऋषियों ने वेद विद्या प्राप्त की इससे ब्रह्मा जी सब प्राणियों को उत्पन्न करने से सबके प्रभु और वही प्रथम सबको वेद विद्या जिसके सब विद्या आश्रय है को उपदेश करने वाले प्रथम गुरु है अर्थात उनका गुरु कोई नहीं, सब विद्या को उत्पन्न करने वाले वही है, नहीं तो स्वामी जी बताए कि वह किस ब्रह्मा के विषय में बात कर रहे हैं, यदि वो मनुष्य थे तो किसके पुत्र थे?


 

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, १४

(विष्लृ व्याप्तौ) इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर ‘विष्णु’ शब्द सिद्ध हुआ है, ‘वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः’ चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम ‘विष्णु’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, १६

(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से ‘णिच्’ प्रत्यय होने से ‘रुद्र’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः’ जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, १८

(बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ‘ब्रह्मा’ शब्द सिद्ध होता है। ‘योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति वर्द्धयति स ब्रह्मा’ जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्मा’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २०

(गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २०

(श्रिञ् सेवायाम्) इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः’। जिस का सेवन सब जगत्, विद्वान् और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम ‘श्री’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २०

(सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है। ‘सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ सा सरस्वती’ जिस को विविध विज्ञान अर्थात् शब्द, अर्थ, सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत् होवे, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘सरस्वती’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २२

(डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शंकर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘यः शंकल्याणं सुखं करोति स शंकरः’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शङ्कर’ है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २२

‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ सिद्ध होता है। ‘यो महतां देवः स महादेवः’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है
सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २२

(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्।’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है (इस प्रकार दयानंद ने ईश्वर के १०० नाम लिखें और फिर संबंध से लिखते हैं)

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २२

(प्रश्न) जैसे अन्य ग्रन्थकार लोग आदि, मध्य और अन्त में मङ्गलाचरण करते हैं वैसे आपने कुछ भी न लिखा, न किया?

(उत्तर) ऐसा हम को करना योग्य नहीं, क्योंकि जो आदि, मध्य और अन्त में मङ्गल करेगा तो उसके ग्रन्थ में आदि मध्य तथा अन्त के बीच में जो कुछ लेख होगा वह अमङ्गल ही रहेगा, इसलिए ‘मङ्गलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनाच्छ्रुतितश्चेति’ यह सांख्यशास्त्र का वचन है, इस का यह अभिप्राय है कि जो न्याय, पक्षपातरहित, सत्य, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा है, उसी का यथावत् सर्वत्र और सदा आचरण करना मङ्गलाचरण कहाता है। ग्रन्थ के आरम्भ से ले के समाप्तिपर्यन्त सत्याचार का करना ही मङ्गलाचरण है, न कि कहीं मङ्गल और कहीं अमङ्गल लिखना

समीक्षा— धन्य हे! स्वामी जी की बुद्धि, आपने तो ठान रखा है कि इस पुस्तक के माध्यम से केवल मिथ्या भाषण ही करना है, आप तो मङ्गलाचरण करते भी जा रहे हैं और पुछने पर मना भी करते हैं, यदि आप मङ्गलाचरण नहीं करते तो बताइये कि सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका के पहले “ओम् ॥सच्चिदानंदेश्वराय नमो नमः॥“ “अथ सत्यार्थप्रकाश:” और “शन्नोमित्रादि” सत्यार्थ प्रकाश के प्रारम्भ मे और अन्त के पृष्ठ में फिर से “शन्नोमित्रादि” और ये परमेश्वर के सौ नाम किस आशय से लिखें हैं, तथा अपने वेदभाष्य के प्रत्येक अध्याय के प्रारंभ में “विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव, यद्भद्रं तन्न आसुव” क्यों लिखा है? इससे  आपके लेखानुसार तो यही सिद्ध होता है कि आपके 'वेदभाष्यों' और 'सत्यार्थ प्रकाश' के बीच-बीच में अमङ्गलाचरण ही है, ऊपर टीके में सत्यवेदोक्त ईश्वर की आज्ञा कहना मङ्गलाचरण है और आपने जो रांड, रांड स्नेही, धूर्त, निशाचर, भांड, भडुवे, ढेड, चमार, चुतड, भङ्गी, पोप आदि न जाने कौन-कौन से बहुत से अपशब्द और दुर्वचन आगे इस पुस्तक मे लिखें है, जिनके उच्चारण की आज्ञा वेदों मे कही नही पाई जाती, यह क्या है? शायद इसी कारण प्रारंभ मे तो दयानंद मङ्गलाचरण से हिचकते है और स्वयं वही परिपाटी ग्रहण करते है यदि ऐसा न करते तो इनका यह मत अन्य लोगों से भिन्न कैसे प्रतीत होता?


 

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृ, २३

इसलिए जो आधुनिक ग्रन्थों में ‘श्रीगणेशाय नमः’, ‘सीतारामाभ्यां नमः’, ‘राधाकृष्णाभ्यां नमः’, ‘श्रीगुरुचरणारविन्दाभ्यां नमः’, ‘हनुमते नमः’, ‘दुर्गायै नमः’, ‘वटुकाय नमः’, ‘भैरवाय नमः’, ‘शिवाय नमः’, ‘सरस्वत्यै नमः’, ‘नारायणाय नमः’ इत्यादि लेख देखने में आते हैं, इन को बुद्धिमान् लोग वेद और शास्त्रें से विरुद्ध होने से मिथ्या ही समझते हैं। क्योंकि वेद और ऋषियों के ग्रन्थों में कहीं ऐसा मङ्गलाचरण देखने में नहीं आता और आर्ष ग्रन्थों में ‘ओम्’ तथा ‘अथ’ शब्द तो देखने में आता है

जैसे- ‘अथ शब्दानुशासनम्’ ,  महाभष्यों में ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ , मीमांसा में ‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’ वैशेषिक दर्शन में ‘अथ योगानुशासनम्’ योग में, ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ वेदांत में, ‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’ छन्दोग्य में यह वचन है

सत्यार्थ प्रकाश प्र• समु• पृष्ठ, २३

‘श्रीगणेशाय नमः‘ इत्यादि शब्द कहीं नहीं। और जो वैदिक लोग वेद के आरम्भ में ‘हरिः ओम्’ लिखते और पढ़ते हैं, यह पौराणिक और तान्त्रिक लोगों की मिथ्या कल्पना से सीखे हैं

समीक्षा— स्वामी जी का लेख पढ़कर ज्ञात होता है कि स्वामी जी को परमेश्वर के कुछ नाम तो प्रिय है, और कुछ अप्रिय, इसमें जो प्राचीन लोगों की परिपाटी है उसका तो मेटना मानों, देखिये प्रथम तो स्वामी जी ने गुरु, गणेश, सरस्वती, श्री, नारायण, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम परमेश्वर के लिखें, और अब कहते हैं कि विद्वान लोग इन्हें मिथ्या ही समझते हैं, ऐसे कहने वाले तथाकथित विद्वान भी दयानंद की ही भांति नर बकरे का दूध घी खाकर विद्वान बने होगें जैसा कि दयानंद ने अपने यजुर्वेदभाष्य २१/४३ में बकरे का दूध घी खाने को लिखा है, विद्वान लोग दयानंद की बुद्धि का अनुमान इसी से लगा लें, क्योकि जो विद्वान हैं वे तो इन्हें मिथ्या नहीं समझते, आप उनको दोष क्यों देते हैं? साफ साफ यही कह देते की मै इन्हें मिथ्या समझता हूँ, डरते क्यों है? डरीये नहीं वैसे भी आप तो रीछ(भालू) को डरा चुके हैं (आत्मचरित में लिखा है कि मुझसे रीछ डरकर भाग गया),

आप बताए क्या यह नाम आप परमेश्वर के नहीं मानते, जो मानते हो तो मिथ्या कैसे? और जो नहीं मानते तो परमेश्वर के सौ नामों में ये नाम क्यों लिखें? इन्हें भी वेदों से निकाल दिया करीए, यदि आपकी चलती तो प्राचीन महात्माओं ने जो सत्य बोलना परम धर्म लिखा है आप उसका भी निषेध करते, परन्तु इसमें चल नहीं सकती, और जैसे आपने धातुओं से परमेश्वर के नाम सिद्ध किए  है क्या ’रम् क्रिडायां’ इस धातु से राम और ’हरति दुःखानितिहरि:’ जो सबमे रम रहा है वो राम है, और भक्तों के दुख हरने से परमेश्वर का नाम हरि है और

 
कृषिर्भूवाचक: शब्दोणश्च निर्वृतिवाचक:।
तयोरैक्यं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते॥

इस प्रकार कृष्ण के अर्थ भी तो ईश्वर के ही हैं, इस प्रकार राम, कृष्ण और हरि नाम भी तो परमेश्वर के सिद्ध होते हैं,

या परमेश्वर को अपना कोई नाम प्रिय है कोई नहीं, जिनका आप निषेध करते हो, आप ही कहिए ईश्वर के यह नाम लेने से देशोन्नति में कौन सी हानि हो जाती है?


यदि विचारा जाये तो जैसे प्राचीन ग्रन्थों में विष्णुसहस्त्र नाम शिवसहस्त्र नाम है उसी प्रकार आपने भी ईश्वर के शत नाम  लिखें हैं, भला ग्रंथ के आदि में ईश्वर के सौ नाम लिखना यह कौन से वेदानुकुल है? साफ साफ यह लिख देते की विष्णुसहस्त्र नाम के स्थान पर हमारे नियोगी चैले शत नाम का पाठ करें, ऐसी गपड़चौथ लिखने कि, इतना ड्रामा फैलाने की क्या आवश्यकता थी? और यह क्या बात हुई? अपने नामों को आप ही मिथ्या बतलाते हो, शोक है आपकी बुद्धि पर, आप लिखते हो कि वेद और ऋषि कृत ग्रंथों में ऐसा मङ्गलाचरण देखने में नहीं आता इससे भी ज्ञात होता है ऐसा नहीं तो किसी और प्रकार का देखने में आता है, और आप ही लिखते हैं कि अथ और ओम् देखने में आते हैं, और आपने भी उसी प्रकार अथ और ओम् लिख दिया अर्थात आपने भी मङ्गलाचरण किया, अब आप बताए आपके ग्रंथों के आदि, मध्य और अंत में क्या है? (मङ्गल या फिर अमङ्गल?) मुकरते क्यो हो? मङ्गलाचरण करना कोई चोरी नही है, हाँ पर जो आपने किया उसे दौगलापन कहते है, स्वंय मङ्गलाचरण किए जा रहे हो, और पुछने पर मना भी कर रहे हो, परमेश्वर के सौ नामों मे जो नाम लिखें आप ही उन्हे मिथ्या बतलाते है, प्रतीत होता है कि स्वामी जी ने अपने यजुर्वेदभाष्य अनुसार  (छागस्य) नर बकरे का दूध, घी कुछ ज्यादा ही खा लिया,
 
 

॥इति सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत प्रथम समुल्लासस्य खंडनम् समाप्तम्॥

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