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सत्यार्थ प्रकाश अन्तर्गत भूमिका की समीक्षा | Satyarth Prakash Bhumika

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(सत्यार्थ प्रकाश) भूमिका पृष्ठ, १
"जिस समय मैंने यह ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ बनाया था, उस समय और उस से पूर्व संस्कृतभाषण करने, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था, इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी, अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है, इसलिए इस ग्रन्थ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है, कहीं-कहीं शब्द, वाक्य रचना का भेद हुआ है सो करना उचित था, क्योंकि इसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है, हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह निकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गर्ह है"
समीक्षा— भूमिका में छपे इस लेखानुसार, जब दयानंद ने यह सत्यार्थ प्रकाश बनाया उस समय तक पठन-पाठन में संस्कृत बोलने, और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण उन्हें हिन्दी भाषा की सही समझ नहीं थी, इस कारण भाषा अशुद्ध बन गई थीं, अब यदि भूमिका में छपे इस लेख को सत्य मानें तो, समाजी अपने ही बनाए झूठ के  जाल में फंसते चलें जाते हैं, और इस प्रकार एक के बाद एक कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जैसे—


प्रश्न १• भूमिका में छपें इस लेखानुसार विदित होता है कि इससे पहले का जो सत्यार्थ प्रकाश है, वो गुजराती भाषा मिश्रित है, परन्तु इसमें कोई भी गुजराती भाषा का शब्द दिखाई नहीं पड़ता, क्यों?

प्रश्न २• यहाँ यह भी विचारणीय है कि यह कौन सी बुद्धिमानी की बात है कि कोई व्यक्ति उस भाषा में पुस्तक लिखता है, जिस भाषा का उसे समुचित ज्ञान न हो, कोई भी व्यक्ति यदि कोई पुस्तक लिखता है तो उसी भाषा में जिसे वो अच्छी प्रकार से लिख, बोल और समझ सकें, और जहाँ तक 'सत्यार्थ प्रकाश' की बात है तो दयानंद 'सत्यार्थ प्रकाश' गुजराती अथवा संस्कृत में लिखकर भी उसका हिन्दी रूपांतरण करवा सकते थे, फिर दयानंद ने ऐसा क्यों नहीं किया? यह जानते हुए भी कि उन्हें हिन्दी भाषा का शुद्ध ज्ञान नहीं फिर भी हिन्दी में ही लिखना जारी रखा क्यों?

प्रश्न ३• यहाँ यह भी विचारणीय है कि 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखने का कार्य दयानंद द्वारा नहीं बल्कि काशी नरेश राजा जयकृष्णदास द्वारा लेखन कार्य के लिए नियुक्त पंडित चन्द्रशेखर द्वारा हुआ, जो हिन्दी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के बडे अच्छे विद्वान थे, फिर भाषा का अशुद्ध होना कैसे संभव है? अर्थात दयानंद झूठ बोल रहे हैं

प्रश्न ४• दयानंद के लेखानुसार अब यह वाला सत्यार्थ प्रकाश सम्पूर्ण ही शुद्ध हैं, और आर्य समाज के मतानुसार 'सत्यार्थ प्रकाश' का यह संस्करण १८८२ में तैयार हुआ, अब क्योकि इसके बनाने से पूर्व न तो दयानंद को शुद्ध बोलना ही आता था और न ही शुद्ध लिखना आता था, इससे यह भी सिद्ध होता है, कि इस 'सत्यार्थ प्रकाश' से पूर्व रचित 'वेदभाष्यभूमिका' और 'यजुर्वेदभाष्य' आदि की भाषा भी अशुद्ध होगी, क्योकि शुद्ध भाषा का ज्ञान तो स्वामी जी को इस 'सत्यार्थ प्रकाश' को लिखने के समय हुआ है, अर्थात इससे पूर्व रचित 'वेदभाष्यभूमिका' और 'यजुर्वेदभाष्य' आदि की भाषा भी अशुद्ध होगी,

प्रश्न ५• अन्तिम और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, दयानंदी बताए कि 'सत्यार्थ प्रकाश' के प्रथम संस्करण में दयानंद ने ऐसा क्या लिखा था? जिस कारण इसमें संशोधन कर 'सत्यार्थ प्रकाश' दोबारा छापनी पडी? क्योकि दयानंद ने तो सत्यार्थ प्रकाश दोबारा छपवाने का कारण उसमें लिखा 'मृतको का श्राद्ध' और 'पशुयज्ञ' का होना बताया है,

 


दयानंद अपने वेदभाष्य के दूसरे अंक में एक विज्ञापन देकर कारण बताते हैं कि- "सत्यार्थ प्रकाश में मृतकों का श्राद्ध और पशुयज्ञ लिखने और शोधने वालों की गलती से छप गया है इसलिए अब यह दुसरा सत्यार्थ प्रकाश तैयार किया जा रहा है, इसमें जो कुछ कहा है वह बहुत कुछ समझकर वेदानुसार ही कहा है" फिर भूमिका में इन बातों का जिक्र क्यों नहीं किया गया?
जो लोग सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण की अशुद्धि का कारण नहीं जानते, उन्हें यह पता होना चाहिए कि सत्यार्थ प्रकाश की अशुद्धि का कारण क्या था? क्यों उसमें संशोधन कर सत्यार्थ प्रकाश दोबारा छपवाया गया, देखिये—


सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण पृष्ठ संख्या ४५, में प्रात: साय मांसादि से होम करना लिखा है,
पृष्ठ १४८ में गाय की गधि से तुलना करते हुए लिखा है कि गाय तो पशु है सो पशु की क्या पुजा करना उचित है ? कभी नहीं किन्तु उसकी तो यही पुजा है कि घास जल इत्यादि से उसकी रक्षा करना सो भी दुग्धादिक प्रयोजन के वास्ते अन्यथा नहीं,
पृष्ठ १४६ में लिखा है कि मांस के पिण्ड देने में तो कुछ पाप नहीं,
पृष्ठ संख्या १७२ में लिखा है कि यज्ञ के वास्ते जो पशुओं की हिंसा है सो विधिपूर्वक हनन है,
पृष्ठ संख्या ३०२ में है कि कोई भी मांस न खाएँ तो जानवर, पक्षि, मत्स्य और जल इतने है, की उनसे शत सहस्र गुने हो जाएं, फिर मनुष्यों को मारने लगें और खेतों में धान्य ही न होने पावे फिर सब मनुष्यों की आजीविका नष्ट होने से सब मनुष्य नष्ट हो जाएं,
पृष्ठ ३०३ में लिखा है कि जहाँ जहाँ गोमेधादिक लिखे हैं वहाँ वहाँ पशुओं में नरों का मारना लिखा है और एक बैल से हजारों गैया गर्भवती होती है, इससे हानि भी नहीं होती और जो बन्ध्या गाय होती है उसको भी योमेघ में मारना क्योकि बन्ध्या गाय से दुग्ध और वत्सादिको की उत्पत्ति होती नहीं,
पृष्ठ ३६६ में लिखा है कि पशुओं को मारने में थोड़ा सा दु:ख होता हैं परन्तु यश में चराचर का अत्यन्त उपकार होता है,
निम्न लेख को पढ़कर विद्वान लोग सम्यक् समझ सकते हैं कि दयानंद जी धर्म के फैलाने वाले थे या फिर अधर्म के...
और उसी सत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ ४२ और ४३ में स्पष्ट मृतकों का श्राद्ध करना लिखा है
पृष्ठ ४७ और ४८ पर मृतकों के श्राद्ध करने के लाभ विस्तार पूर्वक लिखें हैं,
इसके उपरांत जब दयानंद मृतकों के श्राद्ध का खंडन करने लगे तो लोगों ने उनपर आक्षेप किया कि आप ही न सत्यार्थ प्रकाश में मृतकों का श्राद्ध लिखा और अब अपने ही विरुद्ध खंडन करते हैं ऐसे पुरुष का क्या प्रमाण?


उसके पश्चात दयानंद ने वेदभाष्य के दूसरे अंक में यह विज्ञापन दिया कि सत्यार्थ प्रकाश में मृतकों का श्राद्ध और पशुयज्ञ लिखने और शोधने वालों की गलती से छप गया है इसलिए अब यह दुसरा सत्यार्थ प्रकाश तैयार किया जा रहा है, इसमें जो कुछ कहा है वह बहुत कुछ समझकर वेदानुसार ही कहा है
अब बुद्धिमान लोग स्वयं विचार करें, क्या दर्जनों पृष्ठ का लेख लिखने और शोधने वालों के भूल से हो सकता है? कदापि नहीं!
और दयानंद को ऐसा झूठा विज्ञापन छपवाते लज्जा न आई और ध्यान ने हुआ कि विद्वान लोग उन्हें क्या कहेंगे?
उक्त प्रमाणों द्वारा यह बात सिद्ध होती है कि 'सत्यार्थ प्रकाश' द्वितीय संस्करण की यह भूमिका पूर्णतया फर्जी है, जो केवल मूल विषयों से ध्यान भटकने, दयानंद की गलतियों पर पर्दा डालने एवं लोगों को भ्रमित करने के लिए तैयार की गई है,
झूठ बोलना, और असत्य का प्रचार तो आर्य समाज के DNA में है,
पाठकगण! विचार करें जिस सत्यार्थ प्रकाश के आरंभ से पहले ही असत्य प्रचार आरंभ हो गया, जिसकी नींव ही मिथ्या प्रचार, नास्तिकता और धर्मविरोध पर आधारित है, वह सत्यार्थ प्रकाश लोगों के लिए कितनी लाभकारी और कितनी हानिकारक सिद्ध होगी, विद्वान लोग इसका अनुमान लगा सकते हैं



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2 comments

  1. gjb... yhi chahte hai hm inn pakhindiyo ka khandan inke hi bhashyo se ho jaye.

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  2. ऐसा नहीं है, मैं कई बार अनेक आर्यों से मिला हूं, इनकी या स्वामी दयानन्द जी की बातें वैदिक धर्म का सही स्वरूप प्रतिस्थापित करती हैं। भगवान् श्रीराम और योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज के यथार्थ स्वरूप और उनके जीवनकाल में घटित सत्य सत्य घटनाओं को ही प्रमाण मानते हैं जो सही भी है। किसी भी ऋषि ने धर्म या पूजा पाठ का वैसा तरीका नहीं लिखा जैसा आज संसार में देखने को मिलता है। आर्य समाज जिस निर्भीकता से सही स्वरूप को हम हिंदुओं को सच्चाई बताता है वह माननीय है। स्वीकार्य है।
    आप दुर्भावना और द्वेष के वशीभूत होकर ऐसा प्रलाप कर रहे हैं।

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