चुतियार्थ प्रकाश,
सत्यानाश प्रकाश,
सत्यार्थ प्रकाश का कच्चा चिठा
सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत तृतीया समुल्लास की समीक्षा | tritiya Samullas Ki Samiksha
सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत तृतीयासमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते
सत्यार्थ प्रकाश तृतीया समुल्लास
पृष्ठ ३१
❝कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां
च रक्षणम्॥ ~मनु॰ ७/१५२
इसका
अभिप्राय यह है कि इस में राजनियम और जातिनियम होना चाहिये कि पांचवें अथवा आठवें वर्ष
से आगे अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सकें, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो
न भेजे वह दण्डनीय हो, प्रथम लड़कों का यज्ञोपवीत घर में ही हो और दूसरा पाठशाला में
आचार्य्यकुल में हो, पिता माता वा अध्यापक अपने लड़का लड़कियों को अर्थसहित गायत्री मन्त्र
का उपदेश कर दें❞
समीक्षा—
वाह रे! स्वामी धूर्तानंद अच्छा चुतिया बना रहे हो भोले भाले कम अक्ल समाजीयों का,
जरा बताए कि आपका यह इतना लम्बा चौड़ा अभिप्राय किन अक्षरों से सिद्ध होता है?, इस
श्लोक का यह तात्पर्य तो बिलकुल भी नहीं है यह श्लोक राजधर्म प्रसंग का है जिसका अर्थ
इस प्रकार है देखिए-
मध्यंदिनेऽर्धरात्रे
वा विश्रान्तो विगतक्लमः।
चिन्तयेद्धर्मकामार्थान्
सार्धं तैरेक एव वा॥१॥
परस्परविरुद्धानां
तेषां च समुपार्जनम्।
कन्यानां
संप्रदानं च कुमाराणां च रक्षणं॥२॥
~[मनुस्मृति-
७/१५१,१५२]
अर्थ-
राजा को योग्य है कि वह मांसिक थकावट से रहित होकर दिन के मध्य या अर्धरात्रि में अकेले
अथवा मंत्रियों के साथ धर्म, अर्थ तथा काम से सम्बन्धित विषयों पर चिंतन करें, यदि
मंत्रियों के धर्म, अर्थ तथा काम आदि विषयों पर अलग-अलग विचार हो, तो विरोध दूर करके
अर्जन का उपाय अपने कुल की कन्याओं के विवाह एवं राजकुमारों की सुरक्षा से सम्बन्धित
विषयों पर विचार करें।
इस
श्लोक से आपका अर्थ किंचित् मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता, इससे ही पता चलता है कि आप
कितने बड़े वाले धूर्त हो, और यह तो बड़ी अदभूत बात कही कि एक यज्ञोपवीत घर में और
एक पाठशाला में करें इससे ही पता चलता है कि आपकी बुद्धि ठिकाने पर नहीं है, यह शिक्षा
आपकी कौन से वेदानुसार है, कोई प्रमाण तो लिख दिए होते और यदि प्रमाण न मिला तो कोई
उल्टी सीधी संस्कृत गढ़ कर ही उसे श्लोक नाम से लिख देते आपके अक्ल से पैदल नियोगी चैले
उसे भी पत्थर की लकीर मान लेते।
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३१
❝ओ३म् भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो
यो नः प्रचोदयात्॥
इस
मन्त्र में जो प्रथम (ओ३म्) है उस का अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान
लेना, अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं-‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः
प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, प्राण
से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है, ‘भुवरित्यपानः’
‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों
से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है, ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं
जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’, जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता
है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है, ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं।
(सवितुः)
‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’। जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य
का दाता है, (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की
कामना सब करते हैं, उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य
अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप
है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन
के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः)
‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से
छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे❞
समीक्षा—
यह जो आपने ओ३म् के द्वारा ॐकार का काल्पनिक अर्थ गढ़ा है उसका खंडन प्रथम समुल्लास में कर आये हैं जिज्ञासु
लोग वही से जान लेना।
आपने
महाव्याहृतियों के अर्थ में भी भारी गोलमाल कर तैत्तिरीय आरण्यक के नाम से कल्पना की
है सो अब आपके द्वारा महाव्याहृतियों के किये गए काल्पनिक अर्थ का खंडन संक्षेप में
लिखते हैं देखिए-
भूर्भुवः
सुवरिति वा एतास्तिस्रो व्याहृतयः।
तासामु
ह स्मैतां चतुर्थीम्। माहाचमस्यः प्रवेदयते।
मह
इति। तत् ब्रह्म। स आत्मा। अङ्गान्यन्या देवताः।
भूरिति
वा अयं लोकः। भुव इत्यन्तरिक्षम्।
सुवरित्यसौ
लोकः॥ ~[तैत्तिरीय आरण्यक : शिक्षा बल्ली, पंचम अनुवाक]
अर्थ-
भू: भुव: स्व: यह तीन व्याहृतियाँ है, कहीं तो स्व: ऐसा व्याहृति का आकार होता है और
कहीं सुव: ऐसा आकार होता है अर्थ का भेद नहीं क्योकि प्रातिशाख्य जो वेद का व्याकरण
है उसमें स्व: के स्थान पर सुव: और स्वर्ग के स्थान पर सुवर्ग ऐसा शब्द प्रयोग होता
है, इन तीन व्याहृतियों के मध्य यह चतुर्थ व्याहृति मह: (महलोक) है इसको महाचमस के
पुत्र जो महाचमस्य ऋषि है सर्वप्रथम उन्होंने जाना व देखा वही (मह:) ब्रह्म है और वही
उक्त तीन व्याहृतियों की आत्मा है, और सब देवता उसके अंग है, अब इनकी तुल्यता को कथन
करते हैं जैसे कि ब्रह्म महत् है और व्याहृति महर् है इससे इनकी एकता बनी है और वह
महर् आत्मा (ब्रह्म रूप) है क्योंकि वह महर् व्याप्ति रूप कर्म वाला है, इससे जो आत्मा
है और अन्य जो व्याहृतिरूप लोक देव, वेद और प्राण है वे जिससे कि "महर् ब्रह्म है" इस आगे कहने के वाक्य से कथन किये व्याहृतिरूप
ब्रह्म के देव लोक आदिक सर्व अवयव रूप है, और जिससे वे सूर्य ब्रह्म और अन्न रूप से
व्याप्त हुए हैं इससे और देवता जो है सो वे अंग (ब्रह्म के पाद आदिक अवयव) है और महाव्याहृति
अंगी है भाव यह है कि महाव्याहृति रूप जो अंगी है। हिरण्यगर्भ, उसके भू: व्याहृति को
पाद, भुव: व्याहृति को बाहु, और स्व: व्याहृति को शिरेरूप से ध्यान करें, ऐसी उपासना
विधि है सो कथन करते हैं अर्थात भूरादि प्रजापति अंगों को जिस जिस रूप में चिंतन करना
है सो निरूपण करते हैं।
"पृथ्वीलोक
प्रजापति के पादरूप भू: व्याहृति और अंतरिक्षलोक प्रजापति के बाहुरूप भुव: व्याहृति
है और स्वर्गलोक प्रजापति का शिरेरूप स्व: व्याहृति है, और जो प्रकाशमान आदित्य है
सो प्रजापति का मध्य भागरूप महाव्याहृति है
भाव
यह है कि पृथ्वीलोक में प्रजापति के पाद दृष्टि करना, अंतरिक्षलोक में प्रजापति के
बाहु दृष्टि करना और स्वर्गलोक में प्रजापति के शिर दृष्टि करना और आदित्य में प्रजापति
के शरीर मध्य दृष्टि करना, और मध्य भाग से अंगों की वृद्धि होती है इसी कारण कहते हैं
कि आदित्य से सब लोकों की वृद्धि होती है इसी प्रकार अग्नि आदि में प्रजापति के अंग
दृष्टि जानना।
मह
इत्यादित्यः। आदित्येन वाव सर्वे लोक महीयन्ते।
भूरिति
वा अग्निः। भुव इति वायुः। सुवरित्यादित्यः।
मह
इति चन्द्रम: चन्द्रमसा वाव
सर्वाणि
ज्योतिषि महीयन्ते। भूरिति वा ऋचः।
भुव
इति सामानि। सुवरिति यजूषि॥ ~[तैत्तिरीय आरण्यक : शिक्षा बल्ली, पंचम अनुवाक]
अर्थ-
भू: यह प्रसिद्ध अग्नि है, भुव: वायु और स्व: सूर्य है, और मह: चन्द्रमा है क्योंकि
चन्द्रमा ही सब ज्योतियों को महिमान्वित करता है, भू: यह प्रसिद्ध ऋचा (ऋग्वेद) है,
भुव: सामवेद, और स्व: यजुर्वेद है।
मह
इति ब्रह्म। ब्रह्मणा वाव सर्वे वेदा महीयन्ते।
भूरिति
वै प्राणः। भुव इत्यपानः। सुवरिति व्यानः।
मह
इत्यन्नम्। अन्नेन वाव सर्वे प्राण महीयन्ते।
ता
वा एताश्चतस्रश्चतुर्ध। चतस्रश्चतस्रो व्याहृतयः।
ता
यो वेद। स वेद ब्रह्म। सर्वेऽस्मै देवा बलिमावहन्ति॥ ~[तैत्तिरीय आरण्यक : शिक्षा बल्ली,
पंचम अनुवाक]
अर्थ-
मह: यह ब्रह्म (ॐकार) है क्योंकि ॐकार से ही सब वेद वृद्धि को प्राप्त होते हैं, भू:
यह प्राण है भुव: यह अपान है स्व: यह व्यान है, और मह: यह अन्न है क्योकि अन्न से ही प्राण में वृद्धि है, जो यह उपचार
व्याहृति चार प्रकार की है इनका फल वर्णन करते हैं कि एक-एक व्याहृति चार-चार प्रकार
की हो गई इस प्रकार यह सोलह व्याहृतियाँ हुई तब प्रकरणानुसार षोडशकला युक्त पुरूष का
ध्यान कहा इसका वर्णन यजुर्वेद अध्याय ३२ मंत्र ५ में इस प्रकार आया है--
यस्माज्
जातं न पुरा किं चनैव य आबभूव भुवनानि विश्वा।
प्रजापतिः
प्रजया सम् रराणस्त्रीणि ज्योतीम्षि सचते स षोडशी॥ ~[यजुर्वेद अध्याय ३२ मंत्र ५]
अर्थ-
जो प्रजापति अकेले ही सभी भुवनों में व्याप्त है, उनसे पूर्व कुछ भी उत्पन्न न हुआ,
वह प्रजा के साथ रहने वाले प्रजापति षोडश कलाओं से युक्त, तीनों ज्योतियों (अग्नि,
विद्युत, सूर्य) को धारण करते हैं,
वह
षोडश कला कौन सी है अब उसे यहाँ संक्षेप में लिखते हैं देखिए- व्याहृति से पृथ्वीकला,
अग्निकला, ऋग्वेदकला, प्राणकला ऐसे चतुष्कला तो प्रजापति के पाद हैं, और अंतरिक्षकला,
वायुकला, सामवेदकला, अपानकला ऐसे चतुष्कला
प्रजापति के बाहु हैं, स्वर्गलोककला, आदित्यकला, यजुर्वेदकला, व्यानकला ऐसी
चतुष्कला प्रजापति के शिर है आदित्यकला, चन्द्रकला, ॐकारकला, अन्नकला ऐसा प्रजापति
का आत्मशब्द प्रतिपाध मध्यभाग है, ऐसे षोडसकला युक्त पुरूष को हृदय में ध्यान करने
से जो फल प्राप्त होता है सो कथन करते है इन व्याहृतियों को पूर्व प्रकार से जो जानता
है सो ब्रह्म को जानता है।
और
आपने इस षोडशकला युक्त प्रजापति की उपासना के प्रकरण में (भूरिति वै प्राणः भुवरित्यपान:
स्वरिति व्यान:) इतने भाग को लेकर प्राण, अपान और व्यान को परमेश्वरपरता वर्णन किया
है परन्तु बुद्धिमान विचारें की ये कितनी धृष्टता है कि सगुणोपासना के फल के लोप करने
को यह लीला रची है, कि यह कौन प्रकरण के वाक्य है यह भी न लिखा अब यह देखना चाहिए कि
जब स्वामी धूर्तानंद जी ने ॐकार और व्याहृतियों के ही अर्थों में अनर्थ किया है तो
और मंत्रों के साथ क्या किया होगा?
अब
गायत्री के अर्थ लिखते हैं कि प्राचीन ग्रन्थों में इसका कैसा व्याख्यान है-
(तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्य धीमहि) "तत्सवितुर्वरेण्यमित्यसौ वा आदित्यः सविता स वा एवं प्रवरणाय
आत्मकामेनेत्याहुर्ब्रह्मवादिनोऽथ भर्गो देवस्य धीमहीति सविता वै तेऽवस्थिता योऽस्य
भर्गः कं सञ्चितयामीत्याहुर्ब्रह्मवादिन:" यह जो प्रत्यक्ष आदित्य है यही सविता
(अर्थात उत्पन्न करने वाला) है, आत्मकाम करके प्रवणीय है अर्थ यह जो आत्मरिक्त पदार्थ
की कामना रहित है, उसको यह सविता ही एकताबुद्धि करकें प्रार्थनीय है, भाव यह है कि
पिण्डसार, प्राणओर, ब्रह्मांडसार आदित्य की एकता करकें दोनों उपाधि से उपलक्षित तत्व
को आमरूप से भावना करें, ऐसा वेदविद् पुरूष कहते हैं, अब द्वितीय पद की व्याख्या करते
हैं देव शब्द बोध्य सविता ही है, उस कारण से जो सविता का भर्गाख्य रूप है, उसको चिंतन
करते हैं,
(धियो
यो नः प्रचोदयात्) "अथ धियो यो नः प्रचोदयादिति बुद्धयो वै धियस्ता योऽस्माकं
प्रचोदयादित्याहुर्ब्रह्मवादिन:" अन्त:करण की वृत्तियों को जो परमात्मा प्रेरणा
करता है उस आदित्य के 'भर्ग' भाग का हम ध्यान करते हैं, क्योकि वह सम्मुख उपस्थित रहता
है उसका जो 'भर्ग' है वह बुद्धि को प्राप्त होता रहता है
(प्रश्न)
हम किसका चिंतन करें?
(उत्तर)
"सवितुर्देवस्ययत् भर्गाख्यं वरेण्यं तत् धीमहि तत् किम् योऽस्माकं धियोऽन्तकरणवृत्ती:
प्रचोदयात्" सविता देव का जो 'भर्ग' तथा 'वरेण्य' रूप है हम उसका चिंतन करें,
जो हमारी बुद्धियों को प्रेरणा करता है, बुद्धि को धी कहते हैं " जो हमारी बुद्धि
को प्रेरित करता है - सन्मार्ग पर चलाता है" हम उसका चिंतन करें, ऐसा वेदविद्
पुरूष कहते हैं, अब 'भर्ग शब्द का कथन करते है-
अथ
भर्गा इति यो ह वा अमुष्मिन्नादित्ये
निहितस्तारकोऽक्षिणि
वैष भर्गाख्यः भाभिर्गतिरस्य हीति भर्गः भर्जयतीति
वैष भर्ग इति रुद्रो ब्रह्मवादिनोऽथ भ इति
भासयतीमान् लोकान् र इति रञ्जयतीमानि भूतानि
ग इति गच्छन्त्यस्मिन्नागच्छन्त्यस्मादिमाः प्रजास्तस्माद्भ-रग-त्वाद्भर्गः शाश्वत् सूयमानात् सूर्यः सवनात् सविताऽदानात् आदित्यः
पवनात्पावनोऽथापोप्यायनादित्येवं ह्याह
यह
'भर्ग' वही है जो आदित्य मंडल मे स्थित है, आखँ की पुतली मे भी 'भर्ग' नाम से यही रहता
है, इसकी कान्ति से ही मनुष्य गति कर सकता है, इसलिए 'भर्ग' है (भर्जयतीतिवाएष भर्ग:)
जो सर्व जगत् का संहार करता है इससे 'भर्ग' है, (भासयतीमान् लोकानितिभ:) अपने मंडल
अंतर्गत प्रकाश करकें सर्व जगत् को प्रकाशित करता है इस कारण 'भर्ग' है (रंजयतीमानि
भूतानि इति र:) अपने आनन्दरूप से सर्व प्राणी वर्ग को आनन्दित करता है इसलिए 'भर्ग'
है (गच्छन्त्यस्मिन् वा आगच्छन्य स्मात् सर्वा इमा: प्रजप्रजा इति ग:) और सुषुप्ति प्रबोध ममें वा महाप्रलय उत्पत्ति
काल में सर्व प्रजा परमात्मा में लीन होकर फिर उत्पन्न होती है इस कारण 'भर्ग' है और
(शश्वत् सूयमानात् सूर्य्य:) निरन्तर उदय और अस्त होकर प्रात: कालादि करने से सूर्य
है, और सर्व प्राणी वर्ग की वृष्टि अन्न वीर्यादि द्वारा उत्पत्तिकर्ता होने से सविता
है, (आदानात् आदित्य:) पृथ्वी का रस तथा प्राणी वर्ग की आयु को ग्रहण करने से आदित्य
है (पवनात् पावनोप्येषएव) सबको पवित्र करने से पावन नाम वायु भी यह परमेश्वर है, और
अप नाम जल भी परमेश्वर ही है ऐसे ब्रह्मवादि कहते हैं इस प्रकार गायत्री मंत्र के दोपाद
से अधि देवतत्व का निश्चय करा, अर्थात सूर्य, वायु, जल उपलक्षित यावत् देवतारूप परमात्मा
का बोधन करा, और यावत् जगत् उत्पत्ति, पालन, संहार कर्तृत्व बोधन करा तथा जगतलयधार
और जगत उत्पादन कारण भी 'भर्ग' पदव्याख्यान से कहा,
इस
कारण जड प्रकृति जगत् का उत्पादन कारण दयानंद का यह पक्ष गायत्री ब्रह्म विद्या विरुद्ध
है इसलिए उसे मिथ्या जानना ही बुद्धिमानों को उचित है
इस
प्रकार वेद, उपनिषद आदि से गायत्री अर्थ वर्णन किया, अब यहाँ यह भी विचारणीय है कि
दयानंद ने अपने सत्यार्थ प्रकाश के अंत में (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश:) प्रकरण में
यह लिखा है कि "११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप
ब्रह्मादि महर्षियों के बनायें ग्रंथ है" इस कारण गायत्री जो चतुर्वेद प्रधान
है उसका अर्थ किसी एक व्याख्यान की रीति से तो दयानंद को लिखना अवश्य था, और यहाँ ध्यान
देने वाली बात है कि दयानंद की दयानंद ने जो ये ११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) शाखा लिखीं
है वो भी गलत लिखा है क्योंकि महाभाष्य की रीति से ११३१ (ग्यारह सौ इकत्तीस) शाखा होती
है अब यहाँ विचारणीय है कि इन मंत्रों के व्याख्यान होने पर भी दयानंद को एक व्याख्यान
भी गायत्री मंत्र के अर्थ निरूपण वास्ते न ममिला, तो फिर इनके कल्पित अर्थों को कौन
मानेगा?
॥आचमन
प्रकरणम्॥
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३३
❝'आचमन' से कण्ठस्थ कफ और पित्त
की निवृत्ति थोड़ी सी होती है, पश्चात् ‘मार्जन’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के
अग्रभाग से नेत्रदि अंगों पर जल छिड़के, उस से आलस्य दूर होता है जो आलस्य और जल प्राप्त
न हो तो न करे❞
समीक्षा—
वाह रे स्वामी मुर्खानंद! आपके अनुसार 'आचमन' कफ और पित्त की शांति के लिए है अब कोई
इन मुर्खानंद महाशय से पूछें कि यदि 'आचमन' कफ और पित्त की निवृत्ति के लिए है तो क्या
संध्याकाल में सभी लोग कफपित्त ग्रसित होते हैं, और सबको आलस्य और निद्रा दबाये रहती
है वह समय निद्रा का तो बिलकुल नहीं है और यदि 'आचमन' कफ और पित्त की निवृत्ति के लिए
ही है तो फिर हाथ में जल लेकर गायत्री और ब्रह्मतीर्थ ही से 'आचमन' करने की क्या आवश्यकता
है? और क्या कफ और पित्त ने प्रतिज्ञापत्र लिखा है कि रोज संध्यासमय संस्कार कर्ता
तथा संध्या करने वालों के कंठ में फेरा करेंगे, और यदि 'मार्जन' का प्रयोजन आलस्य दूर
करना ही है तो कोई अन्य बेहतर उपाय जैसे चाय कॉफी पी लिया करो, या फिर सबसे अच्छा उपाय है कि अमोनिया की सीसी लेकर सूंघ
लिया करों उससे तो मूर्छित व्यक्ति भी उठ खड़ा हो फिर तुम्हारे आलस्य की तो बात ही
क्या? और संध्या तो प्रात:काल स्नान करने के बाद ही होता है फिर स्नान करते ही आलस्य
आ गया वाह! समझ नहीं आता कि तुम मनुष्य की औलाद हो या फिर राक्षस कुंभकर्ण की औलाद
जो तुम्हें हमेशा निद्रा और आलस्य ही घेरे रहती है, अब तुम ही बताओ यदि स्नान करने
के बाद भी तुम्हारा आलस्य दूर नहीं होता तो भला 'मार्जन' से कैसे हो सकता है? इस कारण
स्वामी मुर्खानंद जी आपका यह कथन पुरी तरह से मिथ्या ही सिद्ध होता है 'आचमन' करने
से आभ्यंतर शुद्धि होती है देखिए मनुस्मृति में किस प्रकार लिखा है-
ब्राह्मेण
विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत् ।
कायत्रैदशिकाभ्यां
वा न पित्र्येण कदा चन ॥१॥
अङ्गुष्ठमूलस्य
तले ब्राह्मं तीर्थं प्रचक्षते ।
कायमङ्गुलिमूलेऽग्रे
देवं पित्र्यं तयोरधः ॥२॥
त्रिराचामेदपः
पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम् ।
खानि
चैव स्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च ॥३॥
अनुष्णाभिरफेनाभिरद्भिस्तीर्थेन
धर्मवित् ।
शौचेप्सुः
सर्वदाचामेदेकान्ते प्रागुदङ्मुखः ॥४॥
हृद्गाभिः
पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः ।
वैश्योऽद्भिः
प्राशिताभिस्तु शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः ॥५॥
~[मनुस्मृति
: अध्याय २, श्लोक ५८-६२]
ब्राह्मण
सदा ब्रह्म तीर्थ या प्रजापति तीर्थ अथवा देव तीर्थ से 'आचमन' करें, उसे कभी पितृ तीर्थ
से 'आचमन' नहीं करना चाहिए ॥१॥
अब
अगले श्लोक में यह बताया गया है कि ये तीर्थ हाथ में कहां होते हैं।
हाथ
के अंगूठे के मूल में ब्रह्म तीर्थ, कनिष्ठ उंगली का मूल प्रजापति तीर्थ इसी उंगली
के आगे वाला भाग देव तीर्थ तथा अंगूठे एवं तर्जनी उंगली के बीच पितृ तीर्थ होता है
॥२॥
सबसे
पहले तीन बार जल से 'आचमन' करें, इसके बाद दो बार मुख को धोकर तत्पश्चात ज्ञानेन्द्रिय
को, सिर को, हृदय को जल से स्पर्श करें ॥३॥
पवित्रता
के इच्छुक धर्मात्मा व्यक्ति ठंडे और फेन रहित (शुद्ध) जल से ब्रह्म आदि तीर्थों से
एकान्त में पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे हुए 'आचमन' करें ॥४॥
'आचमन'
के समय जल जब ब्राह्मण के हृदय तक पहुँचता है तभी वह पवित्र होता है, कंठ में जल पहुँचने
पर क्षत्रिय तथा मुख में जल पहुँचने पर वैश्य पवित्र होता है और शुद्र जल को छूने मात्र
से ही पवित्र हो जाता है ॥५॥
अब
बोलिए स्वामी धूर्तानंद जी क्या बोलते हैं? मनु के इन श्लोकों ने आपके कल्पित अर्थ
की धज्जियां ही उडा दी, फिर आपने मनसा परिक्रमा करनी लिखीं हैं सो आप बताए कि परिक्रमा
काहे की करें आपकी या आपके इस सत्यार्थ प्रकाश की? क्योकि परमात्मा को तो आप निराकार
मानते हैं फिर उसकी परिक्रमा कैसी? और जल तो कफ निवृत्ति के अर्थ है, आप (मनुस्मृति
२/१०४) इस श्लोक में जल के पास बैठकर गायत्री जप लिखते हैं, परन्तु आपके जो चैले आलस्य
और कफपित्त ग्रसित रहते हैं वो तो आपके मतानुसार कोट पतलून पहनकर कोठी, बंगलों में
ही जप कर लिया करेंगे।
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३४
❝‘स्वाहा’ शब्द का अर्थ यह
है कि जैसा ज्ञान आत्मा में हो वैसा ही जीभ से बोले, विपरीत नहीं❞
समीक्षा—
धन्य हे! स्वामी जी आपकी बुद्धि और आपका दौ कौड़ी का ज्ञान, मिथ्या भाषण करना तो आपके
डि.एन.ए. में हैं जरा बताए कि यह स्वाहा का अर्थ आपने किस निघण्टु एंव निरूक्त से निकाला
है और ऊपर जो आपने यह लिखा है कि 'प्राणय स्वाहा' अब आपके मतानुसार तो इसका अर्थ यह
होता है कि 'प्राण' अर्थात परमेश्वर के अर्थ जैसा ज्ञान आत्मा में होवे वैसा ही जीभ
से बोलें, भला यह क्या बात हुई? इससे हवन की कौन सी कला सिद्ध होती है? आपके द्वारा
किया 'स्वाहा' का ऐसा कल्पित अर्थ न तो आज पहले किसी न किया और न ही किसी ने सुना होगा?
सुनिए
स्वाहा अव्यव है जिसके अर्थ हवि त्याग करने के है, जिस देवता के उद्देश्य से अग्नि
में हवि दिया जाता है उसमें 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग होता है, जैसे "प्राणाय स्वाहा"
अर्थात प्राणों के अर्थ हवि देता हूँ, कुछ समझ में आया मुर्खानंद जी या नहीं, न जाने
आप निघण्टु , निरूक्त विरुद्ध नए नए अर्थों की कल्पना करके क्या सिद्ध करना चाहते हों?
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३४
❝सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त
वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और
रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है
(प्रश्न)
चन्दनादि घिस के किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में
डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं।
(उत्तर)
जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ
सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।
फिर
आगे इसी पृष्ठ पर लिखा है कि "मन्त्रें में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने
में लाभ विदित हो जायें और मन्त्रें की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें"
और
पृष्ठ ३२ पर लिखा है कि "विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासवु। यद्भद्रं तन्न आ
सवु॥
इस
मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्री मन्त्र से आहुति देवे❞
समीक्षा—
वाह रे स्वामी धूर्तानंद! क्या कहने आपके? आपके नियोगी चैले तो कहते हैं कि हजारों
ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद आपने यह तथाकथित ग्रंथ तैयार किया, घंटा हजारों ग्रंथों
का अध्ययन किया, आपकी वेदज्ञता तो इसी से सिद्ध हो जाती है कि हवन करने, मंत्र उच्चारण
और घृतादि से आहुति देने का फल क्या है? इस विषय में वेदादि ग्रंथों से एक प्रमाण तक
नहीं दे पायें, कम से कम एक दो प्रमाण तो दे दिए होते, और तो और आपकी अग्निहोत्र की
विधि भी वेद विरुद्ध ही है और जहाँ तक पदार्थ विद्या की बात है, तो तुम्हारी पदार्थ
विद्या तो अष्टम और नवम समुल्लास में ही दिख जाती है जहाँ तुमने सूर्य, चन्द्र, तारे
आदि पर मनुष्यों की प्रजा और आसमान का नीला रंग पानी के कारण होना लिखा है, किन्तु
उसका खंडन हम वही करेंगे, फिलहाल आपके इस पदार्थ विद्या की धज्जियां उडाते है
आपने
जो यह अग्निहोत्र का प्रयोजन जलवायु की शुद्धि होना सिद्धांत किया हैं, आपका यह कल्पित
सिद्धांत शास्त्र और युक्ति दोनों के विरुद्ध है यदि घृतादि से आहूति देना मात्र जलवायु
की शुद्धि निमित्त है, तो इन पाँच आहूतियों से क्या होगा? इससे अच्छा तो किसी नियोग
समाजी के घी के गोदाम में आग लगा देनी चाहिए, जब सैकड़ों, हजारों टन घी जलें तो खुब
जलवायु की शुद्धि हो अनेकानेक लोगों का उपकार हो जाएं,
अब
सुनिये पदार्थ विद्या को जानने वाले विद्वान यह बात भलीभाँति जानते हैं कि जलवायु की
शुद्धि तो परमात्मा के बनाये नियम से स्वतः ही होती रहती है जैसे- सूर्य की आकर्षण
शक्ति जल की तरलता बादलों का बनना फिर बरसना, और वन में अपने सुगन्धित पुष्प, ओषधियों
आदि का उत्पन्न होना, वायु की प्रसरण शक्ति सुगंधित पुष्पादि के परमाणुओं का वायु में
मिलना, ऋतु परिवर्तन आदि, इन सब कारणों से जलवायु की शुद्धि होती है, और यह सब इतने
बड़े स्तर पर होता है कि उसकी तुलना में आपका यह सिद्धांत कुछ भी नहीं, यह तो थी पदार्थ
विद्या अब आते हैं आपके दूसरे सिद्धांत पर,
अब
देखिए यहाँ गायत्री के साथ स्वाहा लगाकर होम करना लिखा है, वाह रे! मेरे मुर्खानंद
भला इसमें कौन से हवन के लाभ का अर्थ है? (गायत्री मन्त्र का अर्थ इससे पूर्व कर आए
हैं) आपके मतानुसार होम में मंत्रों का उच्चारण मंत्र कंठस्थ करने के लिए, घृतादि से
आहुति जलवायु की शुद्धि निमित्त, और अब यह गायत्री के साथ स्वाहा और लगवा दिया, और
तो और स्वाहा का अर्थ भी आपका कल्पित ही है अब आपके हवन का कोई अर्थ तो रहा नहीं बस
बेमतलब घी फूंकें जाइए, प्रथम तो स्वामी जी ने इससे चुटिया बंधवाई, फिर रक्षा की,फिर
जप किया, अवधि फूंका, यहाँ तक की दयानंदी मृतकों का अंतिम संस्कार भी गायत्री से करते
हैं देखिए एक गायत्री से कितने लाभ लिए आगे जब और विद्या की उन्नति होगी तब इसमें इंजन
लगाकर रेल चलवायेंगे और पंख लगाकर हवाई जहाज उडायेगें,
और
जब हवन करने से वायु की शुद्धि मात्र होती है तो फिर ये प्रात: साय संध्या का नियम
व्यर्थ ही है, फिर तो जब चाहें आग में घी उडेल दिया उसके लिए स्नानादि की भी कोई आवश्यकता
नहीं, जब जी करें चूल्हे या भट्टी में घी झोक दें, फिर यह पृष्ठ ३३ पर चमचा, कटोरी,
थाली, प्रोक्षणीपात्र, प्रणीतापात्र, आज्यस्थली आदि का विधान क्यों लिखा है केवल करछा
भर-भर कर घी उडेलना लिख देते,
फिर
आप लिखते है कि होम में मंत्र उच्चारण करने से मंत्र कंठस्थ होते हैं, जब मंत्र कंठस्थ
करना ही इष्ट है तो याद करने वाले तो बिना हवन किये ही परिश्रम कर कंठस्थ कर सकते हैं,
और केवल होम में प्रयोग होने वाले मंत्र ही क्यों कंठस्थ करना? बाकी के वेद मंत्र क्या
व्यर्थ के है? और जब मंत्र कंठस्थ करने का ही लाभ हैं तो फिर स्वाहा लगाने की क्या
आवश्यकता है? चाहे जहाँ के मंत्र पढ़ दिये फिर नियत मंत्र से आहूति देना यह क्यों लिखा
है?
सुनिए!
स्वामी धूर्तानंद जी हवन करने से केवल जलवायु की शुद्धि और मंत्रों का उच्चारण मंत्रों
को कंठस्थ करने के लिए यह सिद्धांत आपका ठीक नहीं, क्योकि हवन करने घृतादि से आहूति
देने और मंत्रों के उच्चारण से सुख, धैर्य, धन-धान्य, रक्षा सामर्थ्य, पाप नष्ट होने
के साथ साथ स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है, देखिए आपको वेदादि ग्रंथों से प्रमाण देते
हैं-
प्रथम
घृतादि से हवन करने व उसके फल का कथन करते हैं देखें-
वीतिहोत्रं
त्वा कवे द्युमन्तम् सम् इधीमहि। अग्ने बृहन्तम् अध्वरे॥४॥
घृताच्य्
असि जुहूर् नाम्ना सेदं प्रियेण धाम्ना प्रियम् सद ऽ आ सीद। घृताच्य् अस्य् उपभृन्
नाम्ना सेदं प्रियेण धाम्ना प्रियम् सद ऽ आ सीद। घृताच्य् असि ध्रुवा नाम्ना सेदं प्रियेण
धाम्ना प्रियम् सदऽ आ सीद। प्रियेण धाम्ना प्रियम् सद ऽआ सीद। ध्रुवा ऽ असदन्न् ऋतस्य
योनौ ता विष्णो पाहि। पाहि यज्ञं। पाहि यज्ञपतिम्। पाहि मां यज्ञन्यम्॥६॥ ~[यजुर्वेद
अ० २, मंत्र ४,६]
भूत-भविष्य
के ज्ञाता हे क्रान्तदर्शी अग्निदेव! ऐश्वर्य प्राप्ति की कामना करने वाले तेजस्वी,
महान, याजक यज्ञ में आपको समिधा द्वारा प्रज्वलित करते हैं॥४॥
हे
जुहू! आप अपने प्रिय घृत से पुर्ण होकर इस यज्ञ-स्थल में स्थापित हो, हे उपभृत्! आप
घृत से युक्त होकर अपने प्रिय यज्ञ-स्थल पर स्थापित हो, हे ध्रुवा! आप अपने प्रिय घृत
द्वारा सिंचित होकर यज्ञ-स्थल पर स्थापित हो, हे यज्ञ-स्थल पर प्रतिष्ठित विष्णुदेव!
आप यज्ञ-स्थल पर स्थापित सभी साधनों, उपकरणों, यज्ञकर्ताओं एंव हमारी रक्षा करें॥६॥
समिधाग्निं
दुवस्यत घृतैर् बोधयतातिथिम्।
आस्मिन्
हव्या जुहोतन॥१॥
सुसमिद्धाय
शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये
जातवेदसे॥२॥
तं
त्वा समिद्भिर् अङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।
बृहच्छोचा
यविष्ठ्य॥३॥
उप
त्वाग्ने हविष्मतीर् घृताचीर् यन्तु हर्यत।
जुषस्व
समिधो मम॥४॥ ~[यजुर्वेद अ० ३, मंत्र १-४]
हे
ऋत्विजो! आप घृतसिक्त समिधा से (यज्ञ में) अग्नि को प्रज्वलित करें, घृत की आहूति प्रदान
करकें सब कुछ आत्मसात् करने वाले अग्निदेव को प्रदीप्त करें, और अनेक प्रकार के हव्य
पदार्थों द्वारा यज्ञ करते हुए इन्हें दीप्तियुक्त बनाओं॥१॥
हे
ऋत्विजो! भली प्रकार से प्रज्वलित, जाज्वल्यमान, सर्वत्र (जातवेद) देदीप्यमान यज्ञाग्नि
में शुद्ध घृत की आहुतियाँ प्रदान करें॥२॥
हे
(ज्वालाओं से) प्रदीप्त अग्निदेव! हम आपको घृत (और उससे सिक्त) समिधाओं से उद्दीप्त
करते हैं, हे नित्य तरूपा (तेजस्वी) अग्निदेव! (घृत आहुति प्राप्त होने के बाद) आप
ऊँची उठने वाली ज्वालाओं के माध्यम से प्रकाशयुक्त हो॥३॥
हे
अग्निदेव! आपको हवि-द्रव्य और घृत-सिक्त समिधा की प्राप्ति निरंतर हो, हे दीप्तिमान
अग्निदेव! आप हमारे द्वारा समर्पित समिधाओं को स्वीकार करें॥४॥
घृतं
मिमिक्षे घृतम् अस्य योनिर् घृते श्रितो घृतम् व् अस्य धाम। अनुष्वधम् आ वह मादयस्व
स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम्॥ यजुर्वेद अ०
१७, मंत्र ८८]
यह
घृत इन अग्नि का उत्पत्ति स्थान है, घृत ही इन्हें तीक्ष्ण करने वाला है, अग्नि इस
घृत के ही आश्रित है अतः मैं इन अग्नि के मुख में घृत सींचने की इच्छा करता हूँ, हे
अध्वर्यो! हवि संस्कार के बाद अग्नि का आह्वान करों और जब यह तृप्त हो जाएं तब इनसे
हवियों को देवताओं तक पहुँचाने का निवेदन करों।
अभि
प्रवन्त समनेव योषाः कल्याण्यः स्मयमानासो ऽ अग्निम्।
घृतस्य
धाराः समिधो नसन्त ता जुषाणो हर्यति जातवेदाः॥ ~[यजुर्वेद अ० १७, मंत्र ९६]
घृत
की धाराएं अग्नि में गिरकर समिधाओ को व्याप्त करती हुई, अग्नि में सुसंगत होती है,
वे जातवेदा अग्नि उन घृत धाराओं की बारम्बार इच्छा करते हैं।
अभ्य्
अर्षत सुष्टुतिं गव्यम् आजिम् अस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त।
इमं
यज्ञं नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत् पवन्ते॥
~[यजुर्वेद
अ० १७, मंत्र ९८]
हे
देवों! आप श्रेष्ठ स्तुतियों और घृत वाले इस यज्ञ में आओं, यह मधुमयी घृत धारायें गिर
रही है, इन अधूर आहूतियों को स्वर्ग लोक में प्राप्त करायें और हमें सब प्रकार के कल्याणकारी
धन-धान्य ऐश्वर्य प्रदान करें।
अब
मंत्र पढ़कर होम करने के फल का कथन करते हैं देखें-
विश्वेऽअद्य
मरुतो विश्वऽऊती विश्वे भवन्त्व् अग्नयः समिद्धाः।
विश्वे
नो देवाऽअवसा गमन्तु विश्वम् अस्तु द्रविणं वाजो ऽ अस्मे॥ ~[यजुर्वेद अ० १८, मंत्र
३१]
हमारे
इस यज्ञ में आज सभी मरूद्गण आगमन करें, सभी गणदेवता रूद्र और आदित्य भी आवें, विश्वदेवा
भी हमारी हवियों को ग्रहण करने को आवें, सभी अग्नियाँ प्रदीप्त हो और हमें ऐश्वर्य
व अन्न की प्राप्ति हो ॥
आयुर्
यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर् यज्ञेन कल्पताम् श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां
वाग् यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पताम् आत्मा यज्ञेन कल्पतां ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां
ज्योतिर् यज्ञेन कल्पताम् स्वर् यज्ञेन कल्पतां पृष्ठं यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन
कल्पताम् । स्तोमश् च यजुश् च ऽ ऋक् च साम च बृहच् च रथन्तरं च। स्वर् देवा ऽ अगन्मामृता
ऽ अभूम प्रजापतेः प्रजा ऽ अभूम वेट् स्वाहा
~[यजुर्वेद अ० १८, मंत्र २९]
इस
यज्ञ के फल से आयु वृद्धि हो, यज्ञ के प्रसाद से हमारे प्राण रोग रहित हो, यज्ञ के
प्रभाव से हमारे चक्षु ज्योति वाले हो हमारे कान और वाणी उत्कर्षता को प्राप्त करें,
यज्ञ के प्रभाव से हमारा मन स्वस्थ हो, यज्ञ के फलस्वरूप हमारी आत्मा आनन्दित हो, यज्ञ
की कृपा से हम शास्त्रों से प्रिति करें, यज्ञ के प्रभाव से हमें परम ज्योति रूप ईश्वर
की प्राप्ति हो, यज्ञ के कारण हम स्वर्ग को पावें, यज्ञ के प्रभाव से ही मैं महायज्ञ
कर सकूँ स्तोम, यजु:, ऋक्, साम, बृहत् साम और
स्थन्तर साम भी यज्ञ के प्रभाव से वृद्धि को प्राप्त हो, इस यज्ञ के फल से हम
देवत्व लाभ कर स्वर्ग में पहुँचे, हम प्रजापति परमात्मा की प्रजा में सुख भोग करें,
इसी अभिलाषा से प्रेरित यह विशिष्ट आहुति दी जाती है, सब देवतागण इसे ग्रहण करें॥
वाजश्
च मे प्रसवश् च मे प्रयतिश् च मे प्रसितिश् च मे धीतिश् च मे क्रतुश् च मे स्वरश् च
मे श्लोकश् च मे श्रवश् च मे श्रुतिश् च मे ज्योतिश् च मे स्वश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥१॥
प्राणश्
च मे ऽपानश् च मे व्यानश् च मे ऽसुश् च मे चित्तं च म ऽ आधीतं च मे वाक् च मे मनश्
च मे चक्षुश् च मे श्रोत्रं च मे दक्षश् च मे बलं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥२॥
ओजस्
च मे सहश् च म ऽ आत्मा च मे तनूश् च मे शर्म च मे वर्म च मे ऽङ्गानि च मे ऽस्थीनि च
मे परूम् षि च मे शरीराणि च म ऽ आयुश् च मे जरा च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥३॥
ज्यैष्ठ्यं
च मे ऽ आधिपत्यं च मे मन्युश् च मे भामश् च मे ऽमश् च मे ऽम्भश् च मे महिमा च मे वरिमा
च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राघिमा च मे वृद्धं च मे वृद्धिश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्
॥४॥
सत्यं
च मे श्रद्धा च मे जगच् च मे धनं च मे विश्वं च मे महश् च मे क्रीडा च मे मोदश् च मे
जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥५॥
ऋतं
च मे ऽमृतं च मे ऽयक्ष्मं च मे ऽनामयच् च मे जीवातुश् च मे दीर्घायुत्वं च मे ऽनमित्रं
च मे ऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश् च मे सुदिनं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥६॥
यन्ता
च मे धर्ता च मे क्षेमश् च मे धृतिश् च मे विश्वं च मे महश् च मे संविच् च मे ज्ञात्रं
च मे सूश् च मे प्रसूश् च मे सीरं च मे लयश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥७॥
शं
च मे मयश् च मे प्रियं च मे ऽनुकामश् च मे कामश् च मे सौमनसश् च मे भगश् च मे द्रविणं
च मे भद्रं च मे श्रेयश् च मे वसीयश् च मे यशश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥८॥
ऊर्क्
च मे सूनृता च मे पयश् च मे रसश् च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश् च मे सपीतिश् च मे
कृषिश् च मे वृष्टिश् च मे जैत्रं च म ऽ औद्भिद्यं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥९॥
रयिश्
च मे रायश् च मे पुष्टं च मे पुष्टिश् च मे विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे पूर्णतरं
च मे कुयवं च मे ऽक्षितं च मे ऽन्नं च मे ऽक्षुच् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥१०॥
वित्तं
च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच् च मे सुगं च मे सुपथ्यं च म ऽ ऋद्धं च म ऽ ऋद्धिश्
च मे क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश् च मे मतिश् च मे सुमतिश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥११॥
व्रीहयश्
च मे यवाश् च मे माषाश् च मे तिलाश् च मे मुद्गाश् च मे खल्वाश् च मे प्रियङ्गवश् च
मे ऽणवश् च मे श्यामाकाश् च मे नीवाराश् च मे गोधूमाश् च मे मसूराश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्
॥१२॥
अश्मा
च मे मृत्तिका च मे गिरयश् च मे पर्वताश् च मे सिकताश् च मे वनस्पतयश् च मे हिरण्यं
च मे यश् च मे श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥१३॥
अग्निश्
च म ऽ आपश् च मे वीरुधश् च म ऽ ओषधयश् च मे कृष्टपच्याश् च मे ऽकृष्टपच्याश् च मे ग्राम्याश्
च मे पशव ऽ आरण्याश् च मे वित्तं च मे वित्तिश् च मे भूतं च मे भूतिश् च मे यज्ञेन
कल्पन्ताम् ॥१४॥
वसु
च मे वसतिश् च मे कर्म च मे शक्तिश् च मे ऽर्थश् च म ऽ एमश् च म ऽ इत्या च मे गतिश्
च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥१५॥
इस
यज्ञ से हमारे लिए अन्न-सम्पदा ऐश्वर्य, पुरूषार्थ, परायणता, प्रबन्ध क्षमता , बुद्धि
की निर्णय क्षमता, कर्तव्यशक्ति स्वर, श्रवण क्षमता , ज्ञान सम्पदा, तेजस्विता और आत्मशक्ति
प्राप्त हो ॥१॥
हमें
इस यज्ञ के फल से प्राण, अपान, व्यान, मानस संकल्प,ब्रह्म, ज्ञान, वाणी-सामर्थ्य, मन,
चक्षु, श्रोत्र, ज्ञानेन्द्रिय और बल की प्राप्ति हो ॥२॥
इस
यज्ञ के फलस्वरूप हमें ओज, बल, आत्मज्ञान, शरीर-पुष्टि,कल्याण कवच, अंगों की दृढ़ता,
अस्थि आदि की दृढ़ता, अंगुली आदि की दृढ़ता, आरोग्य, प्रवृद्धता और आयु की प्राप्ति
हो ॥३॥
इस
यज्ञ के फलस्वरूप हमें श्रेष्ठता, स्वामित्व, बाह्यकोप, आन्तरिककोप, अपरिमेयत्व, मधुर
जल, बल, महिमा, वरिष्ठता, दीर्घ जीवन, वंश परंपरा, ऐश्वर्य और विद्यादि गुण उत्कृष्टता
को प्राप्त हो ॥४॥
यज्ञ
फल के रूप में हमें सत्य, श्रद्धा, धन, स्थावर जंगमयुक्त जगत्, महता, क्रीडा, मोद,
अपत्यादि, ऋचाएं और ऋचाओं के पाठ द्वारा शुभ भविष्य की प्राप्ति हो ॥५॥
हमें
यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों के फल रूप में स्वर्ग प्राप्ति, रोगाभाव, व्याधियों का अभाव,
औषधि, दिर्घआयु, शत्रुओं का अभाव, अभय, आनंद, सुख शैय्या, श्रेष्ठ प्रभात और यज्ञ,
दान आदि कर्मों से युक्त कल्याणकारी दिवस देवताओं की कृपा से प्राप्त हो ॥६॥
यज्ञ
फल के रूप मे मुझे नियंत्रण-क्षमता, प्रजा-पालन-सामर्थ्य, धन-रक्षा-सामर्थ्य, धैर्य,
सबकी अनुकुलता, सत्कार, शास्त्र-ज्ञान, विज्ञान-बल, अपत्यादि का सामर्थ्य, कृषि आदि
के लिए उपयुक्त साधन, अनावृष्टि का अभाव, धन-धान्यादि की प्राप्ति हो ॥७॥
हमे
इस लोक का सुख प्राप्त हो परलोक का सुख भी मिले, प्रसन्नता देने वाले पदार्थ हमारे
अनुकूल हो, हम इन्द्रिय सम्बन्धी सब सुखों का भोग करें, हमारा मन स्वस्थ रहे हम सौभाग्यशाली
रहकर धन प्राप्त करें, हमें श्रेष्ठ निवास वाला घर और यश यज्ञ के फलस्वरूप प्राप्त
हो ॥८॥
यज्ञादि
के फलस्वरूप हमें अन्न, ज्ञानमयी वाणी, दूध, रसयुक्त पेय, घृत, मधु आदि प्राप्त हो,
हम अपने बंधुओं के साथ मिलकर भोजन करने वाले हो, वृष्टि हमारे लिए धान्य उत्पन्न करने
वाली तथा हमारी कृषि सुविकसित और अनुकूल बनें, हमारे वृक्षों की बढोतरी भली प्रकार
हो, और हम विजय के लिए उपयुक्त शक्ति सम्पन्न होकर शत्रुज्यी बने ॥९॥
यज्ञादि
श्रेष्ठ कर्मों के फल से हमारी संपदा हमारे ऐश्वर्य हर प्रकार से पुष्ट हो, शरीर आदि
की भी सब प्रकार से पुष्टि हो, हमारी व्यापकता, प्रभुता, पुर्णता और धन-धान्य की प्रचुरता
में पर्याप्त वृद्धि होती रहे, हमारे कुवय धान्य, क्षय रहित अन्न, पुष्टिकारक अन्न
और हमारी क्षुधा में भी अभिवृद्धि होती रहे ॥१०॥
यज्ञादि
श्रेष्ठ कर्मों के फल से हमारे धन-द्रव्यादि में निरंतर अभिवृद्धि हो, पूर्व संचित
धन और भावी प्राप्त धन में वृद्धि हो, धन प्राप्ति के कर्म सुगम और पथ अवरोधों से मुक्त
हो, यज्ञीय सत्कर्म समृद्ध हो, हमारे ये कर्म श्रेष्ठ द्रव्य और सत् सामर्थ्य बढाने
वाले हो, ये (यज्ञीय सत्परिणाम) हमारी मति को उच्च बनाने वाले व सबके लिए हितकारी हो
॥११॥
यज्ञादि
कर्मों के फलस्वरूप हमारे लिए ब्रिहि धान्य, जौ, उरद, तिल, मूँग, चना, कांगनी, चावल,
साँवा चावल, गेहूं और मसूर आदि धान्यों में वृद्धि हो ॥१२॥
यज्ञादि
श्रेष्ठ कर्मों के फल से हमारे पाषाण, उत्तम मिट्टी, छोटे बड़े पर्वत, रेत, वनस्पति,
स्वर्ण, लौहा, ताम्र, रांग आदि में बढ़ोतरी होती रहे ॥१३॥
यज्ञ
के फल से देवतागण हमारे लिए अग्नि को और आकाशीय जल को अनुकूल बनाये, गुल्म, तृण, वनस्पति,
औषधीयाँ पूर्णरूप से विकसें यह यज्ञ ग्राम्य और जंगली पशुओं को पुष्ट करें,पूर्व प्राप्त
और भावी प्राप्य धन, पुत्रादि सुख और ऐश्वर्य आदि में अधिवृद्धि हो ॥१४॥
यज्ञ
के फल से देवतागण हमें गवादि धन, गृह-सम्पति, विविविध कर्म और यज्ञादि का बल, प्राप्तव्य
धन, इच्छित पदार्थ प्राप्त करावें, हमारी सभी कामनाएं देवताओं की कृपा से पूर्ण हो
॥१५॥
और
सुनिए-
अयं
नो ऽ अग्निर् वरिवस् कृणोत्व् अयं मृधः पुर ऽएतु प्रभिन्दन्। अयं वाजान् जयतु वाजसाताव्
अयम् शत्रून् जयतु जर्हृषाणः स्वाहा॥ ~[यजुर्वेद अ० ५, मंत्र ३७]
यह
अग्नि हम लोगों को श्रेष्ठ धन प्रदान करें यह अग्नि शत्रुओं का विनाश करती हुई हमारे
समक्ष प्रकट हो, यह अग्नि अन्न की कामना करने वाले यजमानों को, शत्रुओं से प्राप्त
धन प्रदान करती हुई विजयी हो, यह अग्नि शत्रुओं को प्रसन्नता पूर्वक जीते, तथा हमारे
द्वारा समर्पित आहुतियों को ग्रहण करें।
सीद
होतः स्व ऽ उ लोके चिकित्वान् सादया यज्ञम् सुकृतस्य योनौ। देवावीर् देवान् हविषा यजास्य्
अग्ने बृहद् यजमाने वयो धाः ॥३५॥
सम्
सीदस्व महाम्२ ऽ असि शोचस्व देववीतमः। वि धूमम् ऽ अग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त
दर्शतम्॥३७॥
~[यजुर्वेद
अ० ११, मंत्र ३५,३७]
हे
देवताओं का आह्वान करने वाले अग्निदेव सब कर्मों के ज्ञाता, आप अपने प्रतिष्ठित स्थान
को सुशोभित करें, और श्रेष्ठ कर्मरूपी यज्ञ को सम्पन्न करें, देवों की भांति तृप्त
करने वाले हे अग्ने! आप याजकों द्वारा प्रदत्त आहुति से देवताओं को आनन्दित करते हुए,
याजकों को धन-धान्य एवं दिर्घायुष्य प्रदान करें ॥३५॥
यज्ञीय
गुणों से युक्त प्रशंसनीय हे अग्ने! आप देवताओं के स्नेह पापात्र और महान गुणों के
प्रेरक है, यहाँ उपयुक्त स्थान पर पधारें और प्रज्वलित हो तथा घृत की आहूति द्वारा
दर्शन-योग्य एवं तेजस्वी होते हुए सघन धूम्र को विसर्जित करें ॥३७॥
इसी
प्रकार सामवेद आदि में भी अग्नि को देवताओं का दूत लिखा है और घृतादि श्रेष्ठ पदार्थों
से आहुति देना लिखा है क्योंकि घृत देवताओं को प्रिय है जिसका प्रमाण पूर्व दे आए हैं
अब श्रीमद्भगवद्गीता और मनुस्मृति से हवन के लाभ का कथन करते हैं सो सुनिये-
त्रैविद्या
मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते
पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥ ~[श्रीमद्भगवद्गीता- ९/२०]
अर्थ-
तीनों वेदों (ऋक्, यजु और साम) में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस
को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते
हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं
के भोगों को भोगते हैं ॥
स्वाध्यायेन
व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च
यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥
~[मनुस्मृति-
अ० २, श्लोक २८]
सब
उत्तम विद्याओं को पढन-पढाने, व्रतों को करने, हवन करने आदि से यह शरीर ब्रह्म प्राप्ति
के योग्य होता है॥
स्वाध्याये
नित्ययुक्तः स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।
दैवकर्मणि
युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम्॥७५॥
अग्नौ
प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते
वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥७६॥
~[मनुस्मृति-
अ० ३, श्लोक ७५-७६]
नित्य
यज्ञ-हवन आदि करने से इस जगत के समस्त जड-चेतन का पालन तथा विकास होता है, क्योकि यजमान
द्वारा अग्नि में डाली जाने वाली आहुति सूर्य को पहुँचती है, सूर्य ही वर्षा का कारण
है, वर्षा से ही खेतों में अन्न होता है और इसी अन्न से प्रजा का पालन होता है ॥७५-७६॥
पूर्वां
संध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति।
पश्चिमां
तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥
~[मनुस्मृति
: अ० २, श्लोक १०२]
प्रात:काल
की संध्या से रात्रि के और सांयकाल की संध्या से दिन के पाप नष्ट होते हैं इसी प्रकार
दोनों समय की गई संध्या से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट होते हैं इसी प्रकार हवन से भी
पाप नष्ट होते हैं क्योंकि वेद मंत्र पापक्षय कारक होते हैं और जिनकी विधि है वही मंत्र
हवन में उच्चारण किए जाते हैं ॥
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३५
❝षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं
गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं
पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा ॥ -यह मनुस्मृति [३/१] का श्लोक हैं॥
अर्थ-आठवें
वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्यन्त अर्थात् एक-एक वेद के सांगोपांग पढ़ने में बारह-बारह
वर्ष मिल के छत्तीस और आठ मिल के चवालीस अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व
के मिल के छब्बीस वा नौ वर्ष तथा जब तक विद्या पूरी ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य
रक्खे❞
समीक्षा—
यदि स्वामी मुर्खानंद जी के द्वारा किया यह
अर्थ किसी विद्वान व्यक्ति के समझ में आ जाए तो मुझे अवश्य समझायें, क्योकि स्वामी
मुर्खानंद जी द्वारा किया गया यह कल्पित अर्थ बुद्धिमान लोगों की समझ से परें है, स्वामी
जी ने इसमें स्वयं ही कल्पना करकें मिथ्या अर्थ तैयार किया है, प्रथम तो कोई इनसे यह
पूछे कि यह इतना लम्बा चौड़ा अभिप्राय कौन से अक्षरों से सिद्ध होता है, और जो यह आठ,
छब्बीस और चवालीस जो अर्थ किया है यह अर्थ किन पदो से सिद्ध होता है, या फिर भंग के
नशे में उल्टा सिधा जो भी मुहँ में आया सो बक दिया और जो मन किया सो लिख दिया, क्योकि
इस श्लोक का तुमने जो अर्थ किया है उसका यह अर्थ तो कतई नहीं बनता, देखिए सही अर्थ
इस प्रकार है-
षट्त्रिशदाब्दिकं
चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं
पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥
(गुरौ)
गुरूकुल में ब्रह्मचारी को, (षट्त्रिशदाब्दिकं) छत्तीस वर्ष तक निवास करकें, (त्रैवैदिकं
व्रतम्) तीनों वेदों (ऋक्, यजु और साम) का पूर्ण अध्ययन, (चर्य्यं) करना चाहिए। छत्तीस
वर्ष तक सम्भव न होने पर (तद् अर्धिकम्) उसके आधे अर्थात अट्ठारह वर्ष तक, (वा) या
उतना भी सम्भव न होने पर, (पादिकं) उसके आधे अर्थात नौ वर्ष तक, (वा) या उतने काल तक
जितने में, (ग्रहण अन्तिकम्) वेदों में निपुणता प्राप्त हो सके रहना चाहिए॥
अब
बोलिए स्वामी भंगेडानंद जी क्या बोलते हैं? इस श्लोक से तो आपका अर्थ किंचित् मात्र
भी सम्बन्ध नहीं रखता, इससे ही आपकी बुद्धि का पता लगता है और मैं तो कहता हूँ कि आप
में बुद्धि ही नहीं थी यदि होती तो इस प्रकार अपनी कल्पना से मिथ्या अर्थ कर कम अक्ल,
अक्ल से पैदल समाजीयों का आप चुतिया नही बनाते
धन्य
है ऐसे दो कौड़ी के भाष्यकार और धन्य है ऐसे मिथ्या भाष्यों को मानने वाले कम अक्ल,
अक्ल से पैदल समाजी!
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ४२
❝जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल
वह-वह सत्य और जो-जो सृष्टिक्रम से विरुद्ध है वह सब असत्य है। जैसे-कोई कहै ‘विना
माता पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ’ ऐसा कथन सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से सर्वथा
असत्य है।
जो-जो
ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य
है❞
समीक्षा—
क्यों स्वामी जी क्या आप भी मुहम्मद साहब की भांति अपने (छागस्य) बकरे पर बैठकर (जिसका
आप दूध, घी खाते हैं, अपने यजुर्वेदभाष्य २१/४३ में स्वामी जी बकरे का दूध, घी खाना
लिखते हैं, उसी की बात कर रहे हैं) ईश्वर के पास हो आए थे? जो ईश्वर ने आपको सारा सृष्टि
क्रम उपदेश कर दिया, जिससे तुम्हें यह बात निर्भ्रान्त मालूम हो गई कि ईश्वर की सृष्टि
का विषय बस इतना ही है- परन्तु वेदों में तो कुछ ऐसा लिखा है देखिए-
एतावान्
अस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।
पादो
ऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपाद् अस्यामृतं दिवि॥
~[यजुर्वेद-
अ० ३१, मंत्र ३]
यह
त्रिकालात्मक विश्व उस ईश्वर की महिमा ही है, किन्तु उसकी महत्ता इससे भी अधिक है,
यह सम्पूर्ण विश्व जीवों सहित जो कुछ भी है उसकी महिमा का एक भाग है, और शेष तीन भाग
में प्रकाशमान मोक्ष स्वरूप आप है, और श्रीमद्भगवद्गीता में भी इस प्रकार लिखा है कि
(बुद्धे: परतस्तु स:) कि वह परमेश्वर बुद्धि से परे है जब वह बुद्धि से परे है तो भला
उसके कार्य पूर्णतः कौन जान सकता है? परन्तु स्वामी जी तो शरीर रहते हुए ही सृष्टि
का क्रम आदि सब उससे पूछ आए, अब स्वयं विचार कर देखें क्या कोई भी साधारण सा मनुष्य
ईश्वर के सृष्टि क्रम को पूर्णतया जान सकता है? विशेषकर दयानंद जैसे, दो कौड़ी की बुद्धि
नहीं जिनमें ऐसे महामूर्ख यदि ईश्वर के सृष्टि क्रम को जानने का दावा करें, तो फिर
ईश्वर सर्वज्ञ कहाँ रहा? सर्वज्ञ सब विषयों का ज्ञाता तो दयानंद हो गया, फिर तो ईश्वर
अब जो करें पर दयानंद की नजरों से न बच सकें, क्योकि दयानंद ने तो "ईश्वर का सृष्टि
कर्म क्या है? ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव कैसे हैं? ईश्वर क्या-क्या कर सकता है?
और क्या-क्या नहीं कर सकता सकता? उसकी सीमाएं क्या है? सब इस फटीचर सी पुस्तक में लिख
मारा जैसे ईश्वर ने दयानंद को नही बल्कि दयानंद ने ईश्वर को उत्पन्न किया है, धन्य
हे स्वामी धूर्तानंद जी! आपकी बुद्धि, इतना अभिमान अपने ज्ञान पर, की ईश्वर को भी सीमाओं
में बांध दिया,
अब
दयानंद के इस कल्पित सिद्धांत की धज्जियां उडाते है देखिए--
तस्माद्
अश्वा ऽ अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो
ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज् जाता ऽ अजावयः॥
~[यजुर्वेद-
अ० ३१, मंत्र ८]
उस
परमेश्वर से ही अश्व और जो कोई दूसरे पशु ऊपर नीचे के दांत वाले हैं उत्पन्न हुए हैं
उससे ही गौ, बैल, भेड़, बकरी आदि उत्पन्न हुए,
अब
स्वामी जी बताए कि आप तो उत्पत्ति स्त्री पुरुष के योग से मानते हैं, फिर यह घोड़े,
बैल, भेड़, बकरी आदि कैसे उत्पन्न हुए और सुनिए- आप कहते हैं कि उस परमात्मा ने अग्नि,
वायु और आदित्य को उत्पन्न किया, अब जब आप स्त्री पुरुष के योग से ही उत्पत्ति मानते
हैं तो फिर तो आपने निराकार ईश्वर की भी लूगाई बनाईं होगी, जिससे यह सब उत्पन्न हुए,
क्योकि आप ही ऊपर लिखते हैं कि "जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से
अनुकूल हो वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है" फिर उसी के नीचे लिखते हैं कि
"जैसे-कोई कहै ‘विना माता पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ’ ऐसा कथन (ईश्वर के
गुण, कर्म, स्वभाव के विरुद्ध है) सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य है,
अर्थात
आपका मानना हैं कि स्त्री पुरुष के योग से उत्पत्ति ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव के
अनुकूल है इसलिए सत्य है, अर्थात आपने ईश्वर की भी लूगाई बना दी जिससे आदि में अग्नि,
वायु, आदित्य और वो हजारों हजार मनुष्य उत्पन्न हुए जो आपने आठवें समुल्लास में लिखा
है
चलों
एक बार को यह भी मान लिया परन्तु जो ये घोड़े, बैल, गाय, भेड़, बकरी आदि पशु हैं, इनकी
सृष्टि समझ में नहीं आईं जो कहो की ये भी निराकार परमात्मा ने उत्पन्न किए तो पशुओं
के गुण, कर्म और स्वभाव ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से भिन्न होने के कारण असत्य है, फिर वो ईश्वर की स्त्रियाँ कहाँ से आईं
यह प्रश्न होगा,
इससे
आपका यह कपोल कल्पित सृष्टि क्रम सब भ्रष्ट हुआ जाता है शौक है आपकी बुद्धि पर,
देखिए
वो ईश्वर सब कुछ करता है पर उसे कोई जान नहीं सकता क्योंकि (परास्य शकशक्ति र्विविधे
व श्रूयते) उसकी पराशक्ति अनेक प्रकार की सुनी जाती है, और सृष्टि मत तो दूर है आपको
अपनी ही खबर नहीं है यदि खबर होती तो कहीं कुछ और कही कुछ इस प्रकार विरुद्धता से भरी
यह सत्यानाश प्रकाश न लिखते, और आपका पहला वाला सत्यार्थ प्रकाश भी जो अशुद्ध हो गया
उसके स्थान पर नयी पुस्तक न गढनी पड़ती, और आपने जो यहाँ सृष्टि क्रम का बहाना कर टट्टी
की ओलट में शिकार खेला है वो विद्वान लोग अच्छी प्रकार समझते हैं कि जो बात समझ में
ने आयीं लिखा दिया कि सृष्टि क्रम के विरुद्ध है, अरें कहीं तो वेदादि ग्रंथों से प्रमाण
देकर लिख दिया होता कि ईश्वर का सृष्टि क्रम इतना ही है फिर उसी के अनुसार आपके मुहँ
पर प्रमाण देकर मारते, फिलहाल तो इतना ही इस विषय पर आपसे आठवें समुल्लास में ही बात
करेंगे सृष्टि विषय को लेकर आठवें समुल्लास में भी आपने खुब रायता फैलाया है सो उसका जबाव वही देंगे।
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ४४
❝सम्भवति यस्मिन् स सम्भवः’
कोई कहे कि ‘माता पिता के विना सन्तानोत्पत्ति, किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र
में पत्थर तराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे
और वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह किया, इत्यादि सब असम्भव हैं। क्योंकि ये सब
बातें सृष्टिक्रम से विरुद्ध हैं। जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो वही सम्भव है❞
समीक्षा—
स्वामी जी आप पैदाइशी धूर्त है यह तो मैं जानता था परन्तु अक्ल से पैदल और आँख से अंधे
भी है यह नहीं जानता था, जहाँ तक मैं आपको समझता हूँ आपका मत ही आपकी बुद्धि है जो
बात आपकी बुद्धि के अनुकूल वह सत्य और जो आपकी बुद्धि के प्रतिकूल हो वो सृष्टिक्रम के भी प्रतिकूल होगी, आप ये वेदानुकूल
और सृष्टि क्रमानुसार नाम क्यों धरते है? सिधा-सिधा क्यों नहीं कहते की मेरी बुद्धि
के अनुकूल होना चाहिए, आप इन बातों को नहीं मानते कोई नहीं, देखिए अब इन बातों का प्रमाण
उन्हीं ग्रंथों से निकालकर आपके मुहँ पर मारते है जिन ग्रंथों का आपने सत्यार्थ प्रकाश
में प्रमाण लिखा है
महाभारत
के अश्वमेध पर्व का ६९ वाँ अध्याय खोलकर देखें परीक्षित जो कि मृत उत्पन्न हुआ था,
श्रीकृष्ण ने उसे पुनर्जीवित किया, श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाया,
हनुमान जी लक्ष्मण जी के लिए संजीवन बूटि वाला पहाड़ उठा लाए, और आपकी आँख है या बटन,
दिमाग में भेजा है या टोटल गोबर ही भरा है, क्योकि समुद्र पर बाधाँ हुआ पुल (रामसेतु)
आज भी मौजूद हैं आँखें हो तो देख आना 'लंकाकांड' में स्पष्ट लिखा है। (आप्तोपदेश: शब्द)
शब्द प्रमाण आप मान ही चुके हैं सो वाल्मीकि जी पूर्ण आप्त थे और उन्होंने ही नल-नील
को लिखा है कि इन्होंने पूल बांधा,
और
आपने अपने एकादश समुल्लास के पृष्ठ २३८ पर स्वयं लिखा है कि “जब रामचन्द्र सीता जी
को ले हनुमान् आदि के साथ लंका से चल आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को आते थे
तब सीता जी से कहा है कि--
अत्र
पूर्वं महादेव प्रसादमकरोद्विभु ।
सेतुबन्ध
इति विख्यातम्॥
-वाल्मीकि रामायण, लंका कां० [युद्धकाण्ड सर्ग १२३, श्लोक २०-२१]
हे
सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था
और परमेश्वर की उपासना ध्यान भी करते थे, वही जो सर्वत्र विभु (व्यापक) देवों का देव
महादेव परमात्मा है उस की कृपा से हम को सब सामग्री यहां प्राप्त हुई, और देख! यह सेतु
हम ने बांध कर लंका में आके, उस रावण को मार, तुझ को ले आये।
अब
बोलिए स्वामी धूर्तानंद जी ग्यारहवें समुल्लास में स्वयं ही समुद्र पर सेतु बांधा जाना
स्वीकार करते हैं और फिर यहाँ उसे ही सृष्टि क्रम के विरुद्ध लिखते हैं ये आपका दौगलापन
नही तो क्या है? अब आप ही बताए ये पत्थर समुद्र पर नहीं तो क्या आपकी इस सत्यानाश प्रकाश
पर तैर रहे हैं? और सम्भव किसे कहते हैं जो कुछ भी हो जाए उसे सम्भव कहते हैं समर्थ
पुरुषों से जो सम्भव है वही असमर्थों को असम्भव लगता है
और
ईश्वर अवतार लेता ये देखिए श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण इस प्रकार कहते है कि--
अजोऽपि
सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं
स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे युगे॥
~[श्रीमद्भगवद्गीता-
अ० ४, श्लोक ६-८]
भावार्थ-
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी
अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ॥६॥
हे
भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता
हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥७॥
साधु
पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म
की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥८॥
अव्यक्तं
व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं
भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥
~[श्रीमद्भगवद्गीता-
अ० ७, श्लोक २४]
भावार्थ-
बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे
मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ
मानते हैं॥२४॥
अवजानन्ति
मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं
भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥
~[श्रीमद्भगवद्गीता-
अ० ९, श्लोक ११]
भावार्थ-
मेरे परमभाव को (गीता अध्याय ७ श्लोक २४ में देखना चाहिए) न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य
का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात्
अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को
साधारण मनुष्य मानते हैं ॥११॥
अब
बोलिए स्वामी धूर्तानंद जी क्या बोलते हो, जिन ग्रंथों का अपनी पुस्तक में प्रमाण लिखा
है उन्हीं को मिथ्या ठहराते हो, ऐसा करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आईं।
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ५१
❝आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा
है कि जैसा एक गोता लगाना बहुमूल्य मोतियों का पाना अष्टध्यायी महाभाष्य पढ़ना,,,,,
यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छः वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें,,,,,,,, तदनन्तर पिंगलाचार्यकृत
छन्दोग्रन्थ,,,,,,
तत्पश्चात्
मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि,,,,,,,,,,
छः शास्त्रें को पढ़ें-पढ़ावें परन्तु वेदान्त सूत्रें के पढ़ने के पूर्व ईश, केन, कठ,
प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक इन दश उपनिषदों
को पढ़ें ,,,,,,,,,,,,,,,
फिर
पृष्ठ ५३ पर लिखते हैं कि" पूर्वमीमांसा पर व्यासमुनिकृत व्याख्या, वैशेषिक पर
गोतममुनिकृत, न्यायसूत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य, पतञ्जलिमुनिकृतसूत्र पर व्यासमुनिकृत
भाष्य, कपिलमुनिकृत सांख्यसूत्र पर भागुरिमुनिकृत भाष्य, व्यासमुनिकृत वेदान्तसूत्र
पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य अथवा बौधायनमुनिकृत भाष्य वृत्ति सहित पढ़ें पढ़ावें। इत्यादि
सूत्रें को कल्प अंग में भी गिनना चाहिये।
जैसे
ऋग्यजुः साम और अथर्व चारों वेद ईश्वरकृत हैं वैसे ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ चारों
ब्राह्मण, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष छः वेदों के अंग,
मीमांसादि छः शास्त्र वेदों के उपांग; आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थवेद
ये चार वेदों के उपवेद इत्यादि सब ऋषि मुनि के किये ग्रन्थ हैं। इनमें भी जो जो वेदविरुद्ध
प्रतीत हो उस-उस को छोड़ देना क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त स्वतःप्रमाण
अर्थात् वेद का प्रमाण वेद ही से होता है । ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परतः प्रमाण अर्थात्
इनका प्रमाण वेदाधीन है❞
समीक्षा—
वाह रे स्वामी धूर्तानंद! बड़ी गहरी चाल चली है तुमने, तुम्हारा यह लेख पढ़ पढ़कर ही
तो समाजीयों के दिमाग में गोबर भर गया है। अब जरा आप तृतीया समुल्लास के पृष्ठ ५३ पर
लिखे अपने इस लेख पर विचार करें जिसमें लिखा है कि "ऋषि प्रणीत ग्रंथों को इसलिए
पढना चाहिए कि वे बड़े विद्वान, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे" जबकि ऋषि प्रणीत
ग्रंथों में भी आप लिखते हैं कि जो बात वेदानुकूल होगी वही मानी जाएगी, तो ऐसे में
उन ऋषियों की पूर्णविद्वत्ता कहाँ रही, और वो धर्मात्मा किस प्रकार हो सकते हैं जो
वेद विरुद्ध कोई बात कहें, आपने तो पूर्ण विद्वान ऋषियों को भी नहीं छोड़ा, उनका भी
अपमान कर दिया, सो आपके इस भड़वापंति को देखते हुए मनु जी के वाक्यानुसार हम आपको यह
श्लोक भेंट करते हैं-
योऽवमन्येत
ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्द्विजः।
स
साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥
~[मनुस्मृति-
अ० २, श्लोक ११]
जो
वेद और आप्त पुरूषों के किए शास्त्रों का अपमान करता है, उस वेदनिन्दक नास्तिक को जाति,
पंक्ति और देश से बाहर निकाल देना चाहिए।
अब
कहिए आप भी इन्हीं विद्वान, सर्वशास्त्रवित्, धर्मात्माओं के ग्रंथों में वेद विरूद्धता
ठहराते है, तो कहिए आप का क्या हाल करना चाहिए? जब आपको वेदानुकूल ही प्रमाण चाहिए,
तो फिर क्यों व्यर्थ में और ग्रंथों में भटकते हो, क्योकि आपको तो वही बात प्रमाण होगी
जो वेदों में होगी, फिर ओरों के मानने की आवश्यकता क्या है? सच तो यह है कि ऐसा करने
से आपका काम नहीं चलने वाला, वेद तो सिर्फ बहाना है आप वेदानुकूल नहीं बल्कि अपनी बुद्धि
के अनुकूल होने से सब कुछ मान लेते हो, आप आप्त पुरूषों के ग्रंथों में भी वेद विरुद्धता
ठहराते हो तो बताओं भला तुम्हारी यह दो कौड़ी की फटीचर पुस्तक 'सत्यानाश प्रकाश' कौन
से वेदानुकूल है? इसमें लिखें रांड, रांडस्नेही, भंगी, चमार, भांड, भडुवे, चूतड, गवर्गण्ड
आदि अपशब्द कौन से वेदानुकूल है, अब आप बताए आपकी ये पुस्तक जो स्वार्थपरता, नास्तिकता,
निंदा, अमर्यादित भाषा और वेदविरूद्ध अर्थों से पूर्ण हैं, यह त्यागने योग्य है या
नहीं?
आपका
यह पठन पाठन शिक्षा कौन से वेदानुकूल है, सन्यासी होकर चोंगा बूट जुता पहनना, हुक्का
पिना, कुर्सी मेज इस्तेमाल करना, रूपया बटोरना, मांसभक्षियों के हाथ से भोजन लेकर भोजन
करना, स्त्रीयों को गालियाँ देना आदि कौन से वेदानुकूल है?
और
स्वामी धूर्तानंद जी हमें यह बताए कि जब आप वेदों का भाष्य करने बैठते हैं तो उसके
अर्थ को ब्राह्मण, निघण्टू, महाभाष्य, और उपनिषदों से सिद्ध करते हैं कि इस शब्द का
निघण्टु में यह अर्थ है शतपथ में इस प्रकार लिखा है इस कारण इसका यह अर्थ होता है जब
यह हाल है कि बिना ब्राह्मण, निघण्टु के आप वेद का अर्थ तक सिद्ध नहीं कर सकते, तो
फिर वे ब्राह्मण, निघण्टु वेद के अर्थ सिद्ध ककरने से स्वतः सिद्ध और स्वतः प्रमाण
क्यों नहीं?
क्योकि
मंत्र वर्ण में तो यह लिखा ही नहीं की इसका अर्थ इस प्रकार करना यह विधि तो निघण्टु,
ब्राह्मण आदि में ही कथन करी है कि इस मंत्र का अर्थ यह है और यह इसके प्रयोग करने
की विधि है इससे इनका वेदवत् प्रमाण है इन ग्रंथों में अंश मात्र भी वेद विरुद्ध नहीं
मिल सकता इसी कारण (मंत्र ब्राह्मणयो: वेदनामधेयम्) मंत्र और ब्राह्मण दोनों का नाम
मिलाकर वेद कहा जाता है और तुम्हारे जैसा धूर्त इन्हीं में वेद विरुद्धता ठहराता है
अब कहिए इन्हीं ग्रंथों से वेदों का अर्थ करने में तुम्हारी वेदानुकूलता कहाँ गई? औऔर
जिन ग्रंथों में तुम्हें थोड़ा सा भी ऐसा कुछ मिल जाए जो आपकी बुद्धि के अनुकूल न हो
उसे आप वेद विरुद्ध बोलकर त्यागना लिखते हो, जैसे सत्यार्थ प्रकाश तृतीया समुल्लास
पृष्ठ ५३ पर लिखते हो कि "(विषसम्पृत्तात्रवत् त्याज्या:) जैसे अत्युत्तम अन्न
विष से युक्त होने से छोडने योग्य होता है, वैसे ये ग्रंथ है" और पृष्ठ ५४ पर लिखा है कि (असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्त्याज्यमिति)
असत्य से युक्त सत्य भी दूर से छोडना चाहिए ऐसे ही असत्य मिश्रित ग्रंथ भी त्यागने
योग्य है क्योंकि जो सत्य है सो वेदादि सत्यशास्त्रों का और मिथ्या उनके घर का है वेद
के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है और इन मिथ्या ग्रंथों से सत्य का ग्रहण
करना चाहें तो असत्य भी उसके गले में मढ जाता
है
जो
यह हाल है तो आपके कथानुसार ब्राह्मण ग्रन्थों आदि में भी असत्य है तो विषवत् होने
से उनको भी त्याग देना चाहिये फिर आप इनको मानते क्यों है? यही तो आपका दौगलापन सिद्ध
हो जाता है कि जिस थाली में खाया उसी में छेद किया, यह और कुछ नहीं आपकी बुद्धि में
भरे गोबर का नतीजा ही है जो आप ब्राह्मणादि ग्रंथों में असत्य और वेद विरुद्धता मानते
हो, यदि आप इनमें भी असत्य और वेद विरुद्धता मानते हैं तो फिर इन्हीं ग्रंथों से प्रमाण
देते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती, आप अपने पूर्व लिखें लेख को बड़ी जल्दी भूल जाते
हो कि विष मिला अमृत भी विष ही होता है अब क्योकि आपने अपने सत्यानाश प्रकाश, भाष्यभूमिका
और वेदभाष्यों में इन्हीं ग्रंथों का प्रयोग किया है इसलिए आपके कथानुसार ही आपका यह
सत्यानाश प्रकाश और आपके वेदभाष्य आदि असत्य मिश्रित होने से त्याग देना चाहिये, अर्थात
असत्य मिश्रित ग्रंथों को त्यागने का शुभारंभ आपके ग्रंथों से ही करना चाहिए, क्योकि
जो-जो उनमें सत्य है सो-सो वेदादि सत्य शास्त्रें का है और मिथ्या आप (दयानंद) के घर
का है, वेदादि सत्य शस्त्रें के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है, और जो कोई
दयानंद के मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहै तो मिथ्या भी उस के गले लिपट
जावे, (जैसे को तैसा)
॥पुराण
प्रकरण॥
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ५३
❝ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि
कल्पान् गाथा नाराशंसीरिति।
जो
ऐतरेय, शतपथादि ब्राह्मण लिख आये उन्हीं के इतिहास, पुराण; कल्प, गाथा और नाराशंसी
पांच नाम हैं, श्रीमद्भागवतादि का नाम पुराण नहीं❞
समीक्षा—
स्वामी जी आपने तो मानों जैसे प्रण ले रखा है कि जब भी मुहँ खोलूंगा असत्य ही बोलूँगा,
धूर्तता की भी कोई हद होती है अब आप पुराणों को भी उडाने की चेष्टा कर रहे हैं 'पुराण'
शब्द ऐतरेय, शतपथादि के वाचक नहीं देखिए प्रमाण-
मध्वाहुतयो
ह वा एता देवानाम् यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं
गाथा नाराशंस्यः स य एवं विद्वाननुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं
गाथा
नाराशंसीरित्यहरहः स्वाध्यायमधीते मध्वाहुतिभिरेव
तद्देवांस्तर्पयति
त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रे॥ ~शतपथ {११/५/६/८}
अर्थ-
शास्त्र देवताओ के मध्य आहुति है देव विद्या ब्रह्म विद्या आदिक विद्याएँ उत्तर प्रत्यूतर
रूप ग्रन्थ इतिहास पुराण गाथा और नाराशंसी ये शास्त्र है जो इनका नित्यप्रति स्वध्याय
करता है वह मानो देवताओ के लिए आहुति देता है।
स
यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं
वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः
पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि सर्वाणि
निश्वसितानि॥
~शतपथ
ब्राह्मण {१४/५/४/१०}
अर्थ--
जिस प्रकार चारों ओर से आधान किए हुए गिले ईधन से उत्पन्न अग्नि से धूम्र निकलता है
उसी प्रकार हे मैत्रेयी! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वाङ्गिरस, इतिहास , पुराण उपनिषद
सुत्र, श्लोक, व्याख्यान, अनुव्याख्यान, इष्ट (यज्ञ), हुत (यज्ञ किया हुआ) , पायित,
इहलोक, परलोक और समस्त प्राणी उस महान सत्ता के नि:श्वास ही है।
देखिए
इसमें इतिहास पुराण आदि नाम पृथक-पृथक ग्रहण किये हैं और भी दिखाते हैं आपको-
स
होवाच— ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां
वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां
क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्यां सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि॥
~छान्दोग्य
{७/१/२}
नारदजी
बोलें, हे भगवन्! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वण जानता हूँ (ईतिहासपुराणं
पञ्चमं वेदानां वेदं) इतिहास, पुराण जो वेदों में पाँचवाँ वेद हैं वो भी जानता हूँ,
श्राद्धकल्प, गणित, उत्पादविद्या, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरूक्त,
ब्रह्म सम्बंधी उपनिषदविद्या, भूततन्त्र, धनुर्वेद, ज्योतिष, सर्पदेवजनविद्या, देवजनविद्या,
गन्धधरण, नृत्य, गीत, बाद्य इन सबको जानता हूँ, देखों छान्दोग्य के इस वाक्यानुसार
कितनी विद्या सिद्ध हो गई और यहाँ भी पुराण पाँचवे वेद के रूप में पृथक ही ग्रहण किया
है
अरेऽस्य
महतो'भूत'स्य नि'श्वसितम्एत'द्य'दृग्वेदो' यजुर्वेद' सामवेदो'ऽथर्वाङ्गिर' सइतिहास'पुराण'विद्या'
उपनिष'दः श्लो'काः सू'त्राण्यनुव्याख्या' नानिव्याख्या' ननिदत्त'म्हुत' माशित' पायित'
मय'चलोक'प'रश्चलोक' स'र्वाणि च भूता'न्यस्यै' वै'ता'नि स'र्वाणि नि'श्वसितानि ॥ ~बृह०
ऊ० {४/५/११}
अर्थ--
उस परब्रह्म नारायण के निश्वास से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वाङ्गिरस, इतिहास
, पुराण उपनिषद सुत्र, श्लोक, व्याख्यान, अनुव्याख्यान, इष्ट (यज्ञ), हुत (यज्ञ किया
हुआ) , पायित, इहलोक, परलोक और समस्त भुत है॥
और
सुनिए अब वेदों से पुराण के प्रमाण दिखाते हैं-
यत्र
स्कम्भः प्रजनयन् पुराणं व्यवर्तयत्।
एकं
तदङ्गं स्कम्भस्य पुराणमनुसंविदुः॥
~अथर्ववेद
{१०/७/२६}
स्कम्भ
से उत्पन्न पुराण को व्यवर्तित किया, वह स्कम्भ का अंग पुराण कहा जाता है।
तमितिहासश्च
पुराणं च गाथाश्च नाराशंसीश्चानुव्यचलन्॥ ११
इतिहासस्य
च वै स पुराणस्य च गाथानां च नाराशासिनां च प्रियं धाम भवति य एवम् वेद॥
~अथर्ववेद
{१५/६/१२}
अर्थ--
इतिहास पुराण और गाथा नारांशंसी के पिर्य धाम होते है, एक व्रात्य विद्वान, 'इतिहास,
पुराण, गाथा व नाराशंसी' द्वारा वेदों का वर्धन व्याख्यान करता हुआ वृद्धि की दिशा
में आगे बढ़ता है
ऋचः
सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे
सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः॥ ~अथर्ववेद {११/९/२४}
ऋक्
साम, छन्द, पुराण, यजु आदि द्युलोक और स्वर्गस्थ सभी देवता उच्छिष्ट यज्ञ में ही उत्पन्न
हए, अर्थात् पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजु, और छन्द के साथ ही हुआ था।
और
देखिए-
एवमिमे
सर्वे वेदा निर्मितास्सकल्पा सरहस्या: सब्राह्मणा सोपनिषत्का: सेतिहासा: सांव्यख्याता:सपुराणा:सस्वरा:ससंस्काराः
सनिरुक्ता: सानुशासना सानुमार्जना: सवाकोवाक्या॥ ~गोपथब्राह्मण {१/२/२०}
अर्थ--
कल्प रहस्य ब्राह्मण उपनिषद इतिहास पुराण अनवाख्यात स्वर संस्कार निरुक्त अनुशासन और
वाकोवाक्य समस्त वेद परमेश्वर से निर्मित है।
अब
क्या बोलते हो स्वामी दोगलानंद जी यदि ब्राह्मण ग्रन्थों के ही नाम पुराण होते तो गोपथ
ब्राह्मण में इस प्रकार कल्प, ब्राह्मण, उपनिषद, इतिहास, और पुराणादि पृथक-पृथक कैसे
लिखते? इससे भी ब्राह्मण से अतिरिक्त ही इतिहास, पुराण, जाना जाता है क्योंकि सेतिहासा:
सपुराणा: ऐसे पृथक कहना ही इनमें भेद बताता है जब इतिहास सहित और पुराण सहित दो ऐसे
शब्द कहे तो निसंदेह यह दोनों पृथक ही है अब यह तो साफ हो गया की इतिहास, पुराण आदि
ब्राह्मण से अतिरिक्त ही कोई ग्रंथ है अब पुराण किसे कहते है, उसके पढने सुनने के क्या
लाभ है अब मनुस्मृति, वाल्मीकि आदि से कथन करते हैं देखिए-
स्वाध्यायं
श्रावयेत् पित्रे,धर्मशास्त्राणि चैव हि।
आख्यानमितिहासांश्च,पुराणान्यखिलानि
च॥
~मनुस्मृति
{३/२३२}
श्राद्ध
के उपरान्त पितरों की प्रीति के लिये, वेद पारायण श्रवण कराये, धर्म शास्त्र आख्यान
,इतिहास, पुराणादि को भी सुनाये ।
एतच्छुत्वारह:
सूतो राजानमिदमब्रवीत।
श्रूयतां
यत्पुरा वृतं पुराणेषु मया श्रुतम्॥
~वाल्मीकि
रामायण
यह
सुनकर सूत ने एकांत मे राजा से कहा सुनो महाराज, यह प्राचीन कथा है जो मैंने पुराणों
में सुनी है इसके बाद रामजन्म का चरित्र जो भविष्य था सब राजा को सुनाया कि श्रीराम
आपके यहाँ जन्म लेंगे ऋंगी ऋषि को बुलाइए और वैसा ही हुआ
पुराणन्यायमीमांसा
धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः।
वेदाः
स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश॥
~याज्ञ०
स्मृति० {१/३}
अर्थ-
पुराण न्याय मीमांशा धर्म शास्त्र और छः अङ्गों सहित वेद ये चौदह विद्या धर्म के स्थान
है।
इसी
प्रकार शतपथ ब्राह्मण (१४/३/३/१३) में तो पुराणवाग्ङमय को वेद ही कहा गया है। छान्दोग्य
उपनिषद् (इतिहास पुराणं पञ्चम वेदानांवेदम् (७/१/२,४) में भी पुराण को वेद कहा है।
बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि “इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपबर्हयेत्”
अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिये, इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक
काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है।
अब
पुराणों के लक्षण कथन करते हैं देखिए-
सर्गश्च
प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं
चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
१.सर्गः
(जगतः उगमः)
२.प्रतिसर्गः
(अवनतिः पुन्स्सृष्टिः)
३.वंशः
(ऋषिदेवतादीनां जीवनम्)
४.मन्वन्तरम्
(मानवजातेः उगमः, मनूनां राज्यभारः)
५.वंशानुचरितम्
(सूर्यचन्द्रवंशीयराजानां चरित्रम्)
अर्थात
(१) सर्ग – पंचमहाभूत, इंद्रियगण, बुद्धि आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का वर्णन,
(२)
प्रतिसर्ग – ब्रह्मादिस्थावरांत संपूर्ण चराचर जगत् के निर्माण का वर्णन,
(३)
वंश – सूर्यचंद्रादि वंशों का वर्णन,
(४)
मन्वन्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्षि, इंद्र और भगवान् के अवतारों का वर्णन,
(५)
वंशानुचरित – प्रति वंश के प्रसिद्ध पुरुषों का वर्णन । ये पुराण के पाँच लक्षण हैं,
जिसमें यह पाँच लक्षण हो वो पुराण कहलाता है
सृष्टि
के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रंथ की रचना की, उसे पुराण
के नाम से जाना जाता है। इसका प्रमाण वेदों में भी देखिए-
ऋचः
सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे
सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः॥ ~अथर्ववेद {११/९/२४}
अर्थात्
पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजु, और छन्द के साथ ही हुआ था।
इसलिए
पुराणों को नवीन बताने वालें वेद विरोधी, नास्तिक दयानंद और उसके नियोगी चमचों को अपनी
औकात में रहकर ही बोलना चाहिए वे इस बात को कदापि न भूलें की जिस पुराण की महिमा का
गुणगान वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण और महाभारत आदि ग्रंथों
में किया गया है जिस पुराण को हमारे ऋषि मुनियों ने वेदों में पाँचवाँ वेद कहा है उसे
नवीन बताकर विरोध करने वाले दयानंद और उसके नियोगी चमचें वेदादि ग्रंथों का ही अपमान
करते हैं इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि पुराणों को नवीन बताकर उसका विरोध करने वाले
नियोगी दयानंदीयों की बात सुनने के बजाय उनके कान के नीचे दो धर के मारे, बुद्धि अपने
आप ठिकाने पर आ जाएगी, क्योकि जो विद्वान हैं उनके लिए तो वेद , ब्राह्मण और उपनिषदों
से बड़ा कोई प्रमाण नहीं
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ५४,
❝(प्रश्न) तुम्हारा मत क्या
है?
(उत्तर) हमारा मत वेद हैं, अर्थात् जो-जो वेद में करने
और छोड़ने की शिक्षा की है उस-उस का हम यथावत् करना, छोड़ना मानते हैं❞
समीक्षा—
तुम कहते हो कि तुम्हारा मत वेद हैं जो-जो वेद में करने और छोड़ने की शिक्षा की है उस-उस
का तुम यथावत् करना, छोड़ना मानते हो, तो अब यह बताए कि जो ये तुम्हारी लिखित सत्यानाश प्रकाश है क्या उसमें जो कुछ भी लिखा है
वो सब तुमने वेद से लिखें हैं? जो तुम्हारा मत वेद ही है तो फिर क्यों ब्राह्मण, उपनिषद,
मनुस्मृति, वाल्मीकि, महाभारत, चरक, सुश्रुत आदि में घुसे चले आते हों सब प्रमाण वेद
से ही क्यों नहीं दे दिए? और तुम कहते हो कि जो-जो वेद में करने और छोड़ने की शिक्षा
की है उस-उस का तुम यथावत् करना, छोड़ना मानते हो तो बताओ क्या तुम्हारे वेद में दूसरों
की निंदा करना लिखा है? और तुम्हारी इस 'सत्यानाश प्रकाश' में जो ये रांड, रांडस्नेही,
भंगी, चमार, भांड, भडुवे, चूतड, गवर्गण्ड आदि ना जाने कैसी-कैसी गालियाँ बकी है तुमने,
क्या ये सब वेदों में करना लिखा है?
सन्यासी
होकर चोंगा बूट जुता पहनना, हुक्का पिना, कुर्सी मेज इस्तेमाल करना, रूपया बटोरना,
मांसभक्षियों के हाथ से भोजन लेकर भोजन करना, स्त्रीयों को गालियाँ देना आदि कौन से
वेदानुकूल है?
इससे
यह कहना कि तुम्हारा मत वेद हैं, उसमें जो-जो करने छोडने की शिक्षा की हैं वैसे-वैसे
तुम करना छोडना मानते हो, तुम्हारा यह कथन सर्वथा मिथ्या सिद्ध होता है
॥शूद्र
अधिकार प्रकरण॥
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३५,
❝शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्नं मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेदित्येके।
और
जो कुलीन शुभलक्षणयुक्त शूद्र हो तो उस को मन्त्रसंहिता छोड़ के सब शास्त्र पढ़ावे, परन्तु
उस का उपनयन न करे❞
समीक्षक--
प्रथम तो उन बातों को लिखते हैं जो दयानंद ने शूद्रों के विषय में मानी और लिखीं हैं
देखिए—
शूद्र
कौन?
१• ,,,,,(उक्षा) सींचनेहारे बैल पशु के तुल्य शूद्र। ~[दयानंदकृत यजुर्वेदभाष्य अध्याय १४, मंत्र ९],
२• ,,,,,(पद्भ्याय् शुद्र:) मूर्खपन आदि गुणों से
युक्त होने से शुद्र। ~[दयानंदकृत यजुर्वेदभाष्य अध्याय ३१, मंत्र ११],
३• ,,,,,(पद्भ्याँ शूद्रो.) जैसे पग सबसे नीच अंग
हैं, वैसे मूर्खता आदि नीच गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है। ~[दयानंदकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका,
पृष्ठ ९२]
४• ,,,,,शूद्रादि वर्ण उपनयन किये बिना विद्याभ्यास
के लिए गुरूकुल में भेज दें। ~[सत्यार्थ प्रकाश द्वितीय समुल्लास पृष्ठ २८]
५• ,,,,,जिस को पढ़ने पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह निर्बुद्धि
और मूर्ख होने से शूद्र कहाता है। उस का पढ़ना पढ़ाना व्यर्थ है। ~[सत्यार्थ प्रकाश तृतीया
समुल्लास पृष्ठ ५५]
और
अब लिखते हैं कि--
६• ,,,,,शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्नं मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेदित्येके।
और
जो कुलीन शुभलक्षणयुक्त शूद्र हो तो उस को मन्त्रसंहिता छोड़ के सब शास्त्र पढ़ावे, परन्तु
उस का उपनयन न करे ~[सत्यार्थ प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३५]
इतने
स्थानों पर तो स्वामी जी ने यह माना कि शूद्र को यज्ञोपवीत नहीं देना चाहिए, और अब
यह भी स्पष्ट कह दिया कि उसे मंत्र संहिता छोड़कर सब पढ़ावे, बस वेद न पढ़ावें क्योकि
"जिस को पढ़ने पढ़ाने से कुछ भी न आवे वह निर्बुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र कहाता
है, उस का पढ़ना पढ़ाना सब व्यर्थ है, अब प्रश्न यह उठता है कि जब शूद्र निर्बुद्धि और
मूर्ख को ही कहते हैं जिसे पढने पढाने से कुछ भी न आवें, तो फिर दयानंद ने कौन से भंग
के तरंग में शूद्रों को वेद पढने का अधिकार दे दिया। देखिए क्या लिखा है इस निर्बुद्धि
दयानंद ने—
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ५५,
❝(प्रश्न) क्या स्त्री और शूद्र
भी वेद पढ़ें? जो ये पढ़ेंगे तो हम फिर क्या करेंगे? और इनके पढ़ने में प्रमाण भी नहीं
हैं, जैसा यह निषेध है-
स्त्रीशूद्रौ
नाधीयातामिति श्रुतेः।
स्त्री
और शूद्र न पढ़ें यह श्रुति है।
सब
स्त्री और पुरुष अर्थात् मनुष्यमात्र को पढ़ने का अधिकार है, तुम कुआ में पड़ो और यह
श्रुति तुम्हारी कपोलकल्पना से हुई है, किसी प्रामाणिक ग्रन्थ की नहीं, और सब मनुष्यों
के वेदादि शास्त्र पढ़ने सुनने के अधिकार का प्रमाण यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय में
दूसरा मन्त्र है-
यथेमां
वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्या
शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥
परमेश्वर
कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण
अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का
(आ वदानि) उपदेश करता हूं वैसे तुम भी किया करो।
परमेश्वर
स्वयं कहता है कि हम ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्य्याय) वैश्य, (शूद्राय) शूद्र, और
(स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अतिशूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश
किया है; कहिये! अब तुम्हारी बात मानें वा परमेश्वर की? यदि वो पढ़ाना नहीं चाहता तो
इनके वाक् और श्रोत्र इन्द्रिय क्यों रचता? वेद में कन्याओं के पढ़ने का प्रमाण-
ब्रह्मचर्य्येण
कन्या युवानं विन्दते पतिम्॥ -अथर्व० अ० ३। प्र० २४। कां० ११। मं० १८
कुमारी
ब्रह्मचर्य सेवन से वेदादि शास्त्रें को पढ़ पूर्ण विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त
युवती होके पूर्ण युवावस्था में अपने सदृश प्रिय विद्वान् और पूर्ण युवावस्थायुक्त
पुरुष को प्राप्त होवे❞
समीक्षक--
प्रथम तो दयानंद ने स्वयं प्रमाण के साथ यह लिखा कि "शूद्र मंत्रभाग (वेद) न पढ़े,
और अब लिखते हैं कि पढ़े, प्रतीत होता है कि किसी शूद्र ने दयानंद को धर के ठोक दिया
इसी कारण शूद्रों की ऐसी तरफदारी हो रही है क्योंकि इसी दयानंद ने अपने पूर्व लेख में
तो शूद्रों को वेद पढने का अधिकार नहीं दिया और अब अधिकार दे दिया, यह दौगलापन नही
तो क्या है?
तुम्हारी
किताब तुम ही प्रश्न कर्ता और तुम ही उत्तर देने वाले इस लिए तुम ही कुएं में पडो और
आर्य समाजीयों को तो संसाररूपी कुएं में गिराने के लिए तुम्हारा यह कपोल कल्पित मिथ्या
लेख ही काफी है
जब
शूद्र निर्बुद्धि और मुर्ख को ही कहते हैं जिसे पढने पढाने से कुछ न आवें उसका पढ़ना
पढ़ाना सब व्यर्थ है तो भला उसे वेद पढ़ाना कैसा? और जब तुम जाति कर्मानुसार ही मानते
हो तो भी वेद पढ़ा शुद्र नहीं हो सकता वह तो
उच्च वर्ण हो जाएगा, फिर भी मुर्ख वेद पढ़ा ही शूद्रसंज्ञक रहा इससे तुम्हारे वचन से
भी शूद्र वेद पढ़ा नहीं हो सकता, मनु जी क्या कहते हैं अब वह सुनिए-
न
शूद्रे पातकं किं चिन्न च संस्कारमर्हति।
नास्याधिकारो
धर्मेऽस्ति न धर्मात्प्रतिषेधनम्॥१॥
धर्मेप्सवस्तु
धर्मज्ञाः सतां वृत्तमनुष्ठिताः।
मन्त्रवर्ज्यं
न दुष्यन्ति प्रशंसां प्राप्नुवन्ति च॥२॥
~[मनुस्मृति-
अ० १०, श्लोक १२६,१२७]
अर्थ--
शूद्र का कोई पातक नहीं है और न ही उसके लिए किसी प्रकार की शुद्धि का कोई नियम है,
और न ही वैदिक धर्मकार्यों में शामिल होने का उसे कोई अधिकार है, इसलिए उसके विषय में
निषेध का कोई नियम नहीं है॥१॥
धर्म
की इच्छावाले तथा धर्म को जानने वाले शूद्र मंत्र से रहित होकर भी सत्पुरुषों का आचरण
करते हुए दोषों को प्राप्त नहीं होते किन्तु प्रशंसा को प्राप्त होते हैं॥२॥
अब
तुम्हारे वेदभाष्य की धज्जियां उडाते है जिसका तुमने मिथ्या अर्थ करकें शूद्र और स्त्रियों
को वेद पढने के अधिकार का मिथ्या कथन किया है दयानंद का यह अर्थ पुरी तरह से मिथ्या
है परन्तु यजुर्वेद २६/२ के अर्थ से पहले हम यजुर्वेद २६/१ का अर्थ करते हैं जिससे
दयानंद का यह कल्पित भाष्य अपने आप मिथ्या सिद्ध हो जाएगा देखिए-
अग्निश्
च पृथिवी च संनते ते मे सं नमताम् अदः। वायुश् चाऽन्तरिक्षं च संनते ते मे सं नमताम्
अदः। ऽ आदित्यश् च द्यौश् च संनते ते मे सं नमताम् अदः। ऽ आपश् च वरुणश् च संनते ते
मे सं नमताम् अदः। सप्त सँसदो ऽ अष्टमी भूतसाधनी। सकामाँ२ऽ अध्वनस् कुरु संज्ञानम्
अस्तु मे ऽमुना॥ ~[यजुर्वेद- २६/१]
अग्नि
और पृथ्वी परस्पर अनुकूल गुण वाले हैं वे दोनों इसे (स्नेह और कामना के पात्र को) हमारे
अनुकूल बनाये, वायु और अन्तरिक्ष परस्पर मिले हुए हैं वे दोनों इसे हमारे अनुकूल बनाये,
आदित्य और नभ परस्पर अनुकूलता से रहते हैं वे दोनों इसे हमारे अनुकूल बनाये, जल और
वरूण परस्पर अनुकूलता से रहते हैं वे दोनों भी इसे हमारे अनुकूल बनाये, हे प्रभो! पंच
ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि यह सात संसद और आठवीं (भूतसाधनी) अर्थात सब भूतों को वश
में करने वाली वाणी आपका आश्रय रूप है, हमारे मार्गों को कामनामय करों, और इष्ट देव
से हमारा संयोग हो,
अब
इसके बाद यह मंत्र है देखिए-
यथेमां
वाचं कल्याणीम् आवदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्याँ शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।
प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुर् इह भूयासम् अयं मे कामः सम् ऋध्यताम् उप मादो नमतु॥
~[यजुर्वेद-
२६/२]
पूर्व
मंत्र में स्थित 'भूतसाधनी' वाणी का अध्याहार होता है, तब इसका अर्थ यह होता है कि
यज्ञ के अंत में यजमान अपने भृत्यों को कहता है (दक्षिणायै यथेमां भूतसाधनीं कल्याणी
वाचं जनेभ्य: आवदानि तथा त्वं कुरू इति शेष:) भाव यह है कि (दक्षिणायै) दान के देने
को जनों के अर्थ, (यथा) मैं, (इमाम्) इस, (वाचम्) 'इमां भूतसाधनीं कल्याणीं वाचं' अर्थात
भूतों को वश में करने वाली कल्याणी वाणी को दीयतां भुज्यतां इत्यादि रूप से जैसे मैं कहता हूँ वैसे,
(जनेभ्य) सब लोग करों, कौन लोग? (ब्रह्मराजन्याभ्याँ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्याय)
वैश्य, (च) और, (शूद्राय) शूद्र, (च) और, (स्वाय) अपने, (अरण) पराये के अर्थ, भाव यह
है कि सबको प्रिय वचन पूर्वक दान देना ऐसा करने से मैं, (देवानाम्) विद्वानों का तथा,
(दातु:) परमेश्वर का (प्रिय) प्रिय, (भूयासम्) होऊँ, इस संसार में (अयम्) यह, (मे)
मेरा, (काम:) कार्य, (समृध्यताम्) धनादि लाभरूप समृद्धि को प्राप्त हो और, (मा) मुझे,
(अप:) परलोक सुख, (नमतु) प्राप्त हो।
इस
मंत्र में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जो दयानंद ने इसका मतलब निकाला है और कोई इस दयानंद
से पूछें कि निराकार ईश्वर बोलने कबसे लगा? अब यदि एक बार को दयानंद का अर्थ ही सही
माने तो फिर ईश्वर बोलता है इसलिए उसकी वाणी भी माननी होगी, जब वाणी है तो शरीर भी
मानना होगा, इससे दयानंद का यह सिद्धांत की आदि सृष्टि में परमेश्वर ने अग्नि, वायु,
सूर्य और अंगिरा के हृदय में वेद का प्रकाश किया दयानंद का यह सिद्धांत दयानंद के इस
लेख से ही भ्रष्ट हो जाता है, दयानंद अपने ही लेख से स्वयं अपने सिद्धांत की धज्जियां
उडा रहे हैं क्योंकि जब इस मंत्रानुसार ईश्वर अग्निादि को उपदेश कर सकते थे तो फिर
उनके अन्तर्वेद का प्रादुर्भाव होना असंगत है,
और
दयानंद का यह अर्थ इसलिए भी गलत है कि यदि दयानंद इसमें ब्राह्मणादि को जाति लेते हैं
तो ये जो (स्वाय- अपने भृत्य वा स्त्रियादि) अर्थ किया है क्या वे भृत्य वा स्त्री
चार वर्णों से पृथक है?
इसी
प्रकार दयानंद ने इस मंत्र के अर्थ का अनर्थ करके कल्पित अर्थ तैयार किया है देखिए-
ब्रह्मचर्येण
कन्या युवानं विन्दते पतिम्।
अनड्वान्
ब्रह्मचर्येणाश्वो घासं जिगीषति॥
~[अथर्ववेद-
११/७/१८]
(ब्रह्मचर्येण)
'ब्रह्मचर्य' अर्थात संयम साधना द्वारा, ही (कन्या) कन्या, (युवानम्) युवा, (पतिं)
पति को, (विन्दते) प्राप्त करती है, (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य से ही, (अनड्वान्) बैल
तथा, (अश्व:) अश्व आदि पशु, भक्षणीय (घासं) घास की, (जिगीषति) अभिलाषा रखते हैं भाव
यह है कि ब्रह्मचर्य के अभाव में उदरयन्त्र शीघ्र विकृत हो जाता है और खाने पीने की
इच्छा भी जाती रहती है
न
जाने दयानंद ने इस मंत्र में कौन सा Trick लगाकर स्त्रीयों को वेद पढने का अधिकार
दे दिया धन्य है स्वामी भंगेडानंद जी आपकी बुद्धि
अब
यह मनु वचन सुनिए-
न
तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।
स
शूद्रवद्बहिष्कार्यः सर्वस्माद्द्विजकर्मणः॥
~[मनुस्मृति-
अ० २, श्लोक १०३]
अर्थात-
जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) प्रातः वा सायं संध्या नहीं करता वह शूद्र की
भांति समस्त द्विज कर्मो से बहिष्कृत किए जाने योग्य है॥
योऽनधीत्य
द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स
जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥
~[मनुस्मृति-
अ० २, श्लोक १६८]
अर्थात-
जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) वेद को छोड़ और विद्याओं में परिश्रम करता है
वह जीते हुए ही अपने वंशसहित शूद्र्त्व को प्राप्त होता है॥
अब
जरा विचार करें कि कहाँ तो वेद न पढने की वजह से शूद्र्त्व प्राप्त होता है और मनु
जी स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं जो द्विज वेदादि ग्रंथों को न पढकर अपने द्विज धर्म
का पालन नहीं करता, उसे शूद्र की भांति समस्त द्विज कर्मो से बहिष्कृत कर देना चाहिए,
तो फिर शूद्र वेद कैसे पढ़ सकता है? क्योकि जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी वेद न पढ़ें तो वह शूद्रत्व को प्राप्त हो जाते
हैं तीन वर्ण तो बिना वेद पढे शूद्र हो जाते हैं अर्थात समस्त वैदिक कर्मों से बहिष्कृत
करने योग्य हो जाते हैं, और आप उन्हीं अवैदिक शूद्रों को वेद पढ़ना लिखते हैं शौक हैं
तुम्हारी बुद्धि पर, मालूम होता है आपके पूर्व
लेखों से क्रोधित किसी शूद्र ने आपको धरके धो दिया इसी कारण शूद्रों की इतनी तरफदारी
हो रही है नहीं तो तुम ही अपने पूर्व के लेखों में शूद्रों को निर्बुद्धि और मूर्ख
बताकर उनके वेद पढने का निषेध करते हैं और लिखते हैं जिसका पढ़ना पढना सब व्यर्थ है
ऐसे निर्बुद्धि, मुर्ख को शूद्र कहते हैं, इसलिए शूद्र को मंत्र भाग के अतिरिक्त सब
पढावे पर मंत्र भाग न पढ़ावे और अब पढना लिखते हैं
धन्य है आपकी बुद्धि,
और
सुनिए शूद्रों को वेद में अनधिकार होने से ईश्वर में पक्षपात का दोष नहीं आ सकता क्योंकि
उसके कर्म ही जब अनधिकार और शूद्रपने के थे इसलिए उसका कल्याण उसके शरीर के धर्म से
ही है इससे कर्मानुसार सुख, दुख, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होने से अपने-अपने
कार्य धर्म के सब पृथक-पृथक अधिकारी हैं, और यदि ईश्वर पर पक्षपात का दोष लगाते हो
तो ईश्वर धन-धान्य और संतान भी सबको बराबर देता,
सत्यार्थ
प्रकाश तृतीया समुल्लास पृष्ठ ३९,
❝अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा
द्विजः शनैः।
गुरौ
वसन् सञ्चिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः॥ -मनु० [२/१६२]
इसी
प्रकार से कृतोपनयन द्विज ब्रह्मचारी कुमार और ब्रह्मचारिणी कन्या धीरे-धीरे वेदार्थ
के ज्ञानरूप उत्तम तप को बढ़ाते चले जायें❞
समीक्षा—
न जाने दयानंद ने इस श्लोक में ब्रह्मचारिणी कन्या यह अर्थ कौन पद से उध्दृत किया है?
हमारी तो समझ से बाहर है और उपनयन का सम्बन्ध भी शायद कन्या के साथ लगाया होगा, क्योकि
बिना उपनयन वेद नहीं पढ़ाया जाता, दयानंद ने तो कन्या का उपनयन करना भी लिख दिया धन्य
हे दयानंद तेरी बुद्धि, और यहाँ द्विज शब्द से केवल ब्रह्मचारी का ही ग्रहण होता है
कन्या का नहीं,
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