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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत सप्तम् समुल्लास की समीक्षा | Saptam Samullas Ki Samiksha

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सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत सप्तम् समुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते

 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १३२,
त्रयसिंत्रशतिंत्रशता० इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं इस की व्याख्या शतपथ में की है कि तेंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु, प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा ये ग्यारह रुद्र इसलिये कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं तब रोदन कराने वाले होते हैं, संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिये हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं।
बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु से है कि परम ऐश्वर्य का हेतु है, यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिस से वायु वृष्टि जल ओषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तेंतीस पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं, इन का स्वामी चौंतीसवां उपास्यदेव शतपथ के चौदहवें काण्ड में स्पष्ट लिखा है
समीक्षक— देखें कहीं तो स्वामी जी के लिए विद्वान देवता हो जाते हैं, तो कहीं मिट्टी, पानी, लकड़ी देवता हो जाते हैं, इसी प्रकार कहीं इन्द्र ईश्वर हो जाते हैं तो कहीं इन्द्र बिजली बन जाते हैं,
देखिए प्रथम तो इस दयानंद ने द्वितीय समुल्लास में यह लेख किया हैं कि "जैसे यह पृथिवी जड़ है वैसे ही सूर्यादि लोक हैं, वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ भी नहीं कर सकते, क्या ये चेतन हैं जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होके सुख दे सकें?"
और अब अपने ही विरुद्ध खंडन करते हुए सप्तम् समुल्लास में पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र आदि को देवता मान लिया धन्य है स्वामी भंगेडानंद कहीं तो पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र आदि को जड़ माना और कही देवता मान लिया यह स्वामी जी का दौगलापन नहीं तो क्या है?
और “त्रयसिंत्रशतिंत्रशता” जिसके अर्थ ३०३३ देवताओं के है, स्वामी जी ने ३३ ही किये हैं वह अर्थ तो बदला ही पर हिसाब में भी गड़बडी, क्या तुमको ३३ से आगे गिनती नहीं आती जो ३०३३ के ३३ ही रह गए, देखिए देवता तो अनेक है जिनके नाम जपने से पाप दूर होता है
 
सविता प्रथमे ऽहन्न् अग्निर् द्वितीये वायुस् तृतीय ऽ आदित्यश् चतुर्थे चन्द्रमाः पञ्चम ऽ ऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तमे बृहस्पतिर् अष्टमे।
मित्रो नवमे वरुणो दशम ऽ इन्द्र ऽ एकादशे विश्वे देवा द्वादशे॥ ~यजुर्वेद {३९/६}
प्रथम दिन सवितादेव के लिए, दुसरे दिन अग्नि, तीसरे दिन वायु, चौथे दिन आदित्य, पांचवे दिन चन्द्रमा के लिए, छठे दिन ऋतु के लिए, सातवें दिन मरूदगण के लिए, आठवें दिन बृहस्पति देव के लिए, नौवें दिन मित्र के लिए, दसवें दिन वरूण के लिए, ग्यारहवें दिन इन्द्रदेव के के लिए, बारहवें दिन विश्वदेवता के लिए, इन देवताओं के निमित्त बारह दिन तक प्रायश्चित के अर्थ आहुति दी जाती है, अब स्वामी जी बतावें इसमें यह देवता कहाँ से आ गये,
नृचक्षसो अनिमिषन्तो अर्हणा बृहद्देवासो अमृतत्वमानशुः।
ज्योतीरथा अहिमाया अनागसो दिवो वर्ष्माणं वसते स्वस्तये॥ ~ऋग्वेद {१०/६३/४}
(नृचक्षस:)- कर्मनेता मनुष्यों को देखने वाले, (अनिमिषंत:)- सदा जागरणशील जिनके पलक नहीं लगते, (देवासु:)- वे देवता, (अर्हण)- लोक के परिचरणार्थ, (बृहत् अमृतत्वं)- अपरत्व धर्म को, (आनशु:)- प्राप्त हुए हैं, (ज्योतीरथा:) वे दीप्तिमान रथ वाले, (अहिमाया:)- अव्यव बुद्धि, (अनागसा:)- पापरहित देवता, (वर्ष्माणं) उच्छिूत देश में, (स्वस्तये)- लोक के कल्याणार्थ, (वसते)- रहते हैं।
 
सम्राजो ये सुवृधो यज्ञमाययुरपरिह्वृता दधिरे दिवि क्षयम्।
तां आ विवास नमसा सुवृक्तिभिर्महो आदित्यां अदितिं स्वस्तये॥  ~ऋग्वेद {१०/६३/५}
यज्ञों में आने वाले देवता अति बुद्धि युक्त और अपने तेज में प्रतिष्ठित रहने वाले हैं, उन स्वर्ग में निवास करने वाले देवताओं एवं उनकी माता अदिति के निमित्त श्रेष्ठ नमस्कार और स्तुतियाँ करते हैं और विविध प्रकार से उनकी सेवा करते हैं।

इससे विदित होता है कि देवता यज्ञ में आते हैं इससे बिजली आदि का कल्पित अर्थ जो स्वामी जी ने लिखा है सो मिथ्या हो गया।
 
 
 
 

 
॥ईश्वरविषय प्रकरण॥

 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १३३,
(प्रश्न) परमेश्वर दयालु और न्यायकारी है वा नहीं?
(उत्तर) है, न्याय और दया का नाममात्र ही भेद है क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से, दण्ड देने का प्रयोजन है
पुनः लेख है कि "जिस ने जैसा जितना बुरा कर्म किया हो उस को उतना वैसा ही दण्ड देना चाहिये, उसी का नाम न्याय है"
और"दया वही है कि उस डाकू को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना
समीक्षक— यहाँ तो स्वामी जी ने दया की खुब रेट पिटि है, ईश्वर क्या है मानों जैसे इनका चेला है, जो सारा सिद्धांत स्वामी जी से कथन कर दिया है, देखिए (नी प्रापणे) धातु से न्याय शब्द सिद्ध होता है, जिसके अर्थ यह है कि यथावत् न्याय करना, जो दण्ड के योग्य हो उसको दण्ड देना, और जो दया के योग्य हो उस पर दया करना, और (दय) धातु से दया शब्द सिद्ध होता है, जिसके अर्थ यह है कि किसी भक्त श्रेष्ठाचरणी पुरुष से यदि अज्ञात में कोई अपराध हो गया हो जाये तो उसको स्तुति करने पर क्षमा करना, क्योकि दया का प्रयोग अपराधी पर ही होता है, जबकि किसी का दुख देखकर उस पर करूणा आतीं है कि इसका दुख दूर करें, तो इसी का नाम दया है, ईश्वर अन्तर्यामि है वह सबके मन की बात जानता है, कि यह अपराध वेसुधी में बना है, या जानकर यदि वह प्रार्थना करें कि आगे ऐसी भूल न करेगा, बस उसके ऊपर दया करता है, जैसा यजुर्वेद में लिखा है कि-
 
स नो बन्धुर् जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतम् आनशानास् तृतीये धामन्न् अध्य् ऐरयन्त॥ ~यजुर्वेद {३२/१०}
(स:)- वह परमेश्वर, (न:)- हमारा, (बन्धु:)- विविध प्रकार की सहायता रक्षाादि करने से बन्धु है, (स:)- वह, (जनिता)- हमारा उत्पन्नकर्ता, (विधाता)- विधाता मालिक पिता है, (स:)- वह, (विश्वा)- सब लोकों, (भुवनानि)- प्राणि और, (धामानि)- स्थानों, (वेद)- जानने वाला है, (देवा:) देवता, (यत्र)- जिस ईश्वर में, (अमृतम्)- मोक्ष प्रापक ज्ञान को, (आनशान:)- प्राप्त करते, (तृतीये धामन्)- ऐसा वह परमेश्वर स्वर्ग रूप तृतीया धाम है।
इस मंत्र में बन्धु जनिता आदि शब्दों। से ईश्वर में अपार दया जानी जाती है, बन्धुत्वपन यही है कि आपदा में सहायता करनी, जनिता पिता पुत्र के अपराधों को क्षमा कर देता है और दया करता है।
 
शं वातः शम् हिते घृणिः शं ते भवन्त्व् इष्टकाः।
शं ते भवन्त्व् अग्नयः पार्थिवासो मा त्वाभि शूशुचन्॥
~यजुर्वेद {३५/८}
ईश्वर दयादृष्टि से कहता है कि हे यजमान भक्त, वायु तेरे लिए सुखरूप हो, सूर्य किरणें तेरे लिए कल्याणकारी हो, मध्य में और दिशाओं में स्थापित इष्टिका तेरे लिए सुखकारी हो, पृथ्वी अग्नि तेरे लिए मंगलकारी हो वह तुझे तपित नहीं करें, अब विचारना चाहिए कि यह वाक्य दयारूप है वा नहीं, इस कारण न्याय दया पृथक है, और ईश्वर में सर्वशक्तिमान होने से दोनों बातें बनती है।
 

॥निराकार साकार प्रकरण॥


सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १३४,
(प्रश्न) ईश्वर साकार है वा निराकार?
(उत्तर) निराकार, क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता, जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते, क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृषा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता, इस से यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है, जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आंख आदि अवयवों का बनानेहारा दूसरा होना चाहिये, क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है उस को संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये, जो कोई यहां ऐसा कहै कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया तो भी वही सिद्ध हुआ कि शरीर बनने के पूर्व निराकार था
समीक्षक— ऐसा विदित होता है कि स्वामी जी ने ईश्वर को मनुष्यवत् समझ लिया है, यदि वह साकार हो जाए तो व्यापक न रहे, उसका कोई बनाने वाला हो जाए जबकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, तो वह आकार वाला होकर शक्ति वा ज्ञान से रहित नहीं हो सकता, जिस समय प्रलय होती है उस समय वह निराकार, जब उसमें सृष्टि रचना की इच्छा होती है तब उसको सगुण वा साकार कहते हैं, यह न्याय दयालु आदि नाम साकार में ही घटते है, देखिए यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है कि--
उभयं वा एतत्प्रजापतिर्निरुक्तश्चानिरुक्तश्च परिमितश्चापरिमितश्च तद्यद्यजुषा करोति यदेवास्य निरुक्तं परिमितं रूपं तदस्य तेन संस्करोत्यथ यत्तूष्णीं यदेवास्यानिरुक्तमपरिमितं रूपं तदस्य तेन संस्करोति॥ ~शतपथ ब्राह्मण {१४/१/२/१८}
वह परमेश्वर दो प्रकार का है परिमित अपरिमित, निरूक्त और अनिरूक्त इस कारण जो कर्म यजुर्वेद मंत्रों से करता है उसके द्वारा परमेश्वर के उस रूप का संस्कार करता है जो निरूक्त और परिमित नाम है और जो अध्यात्म मंत्र का ही मनन करता है उससे परमेश्वर के उस रूप का संस्कार करता है जो अनिरूक्त और अपरिमित नाम है इससे  प्रत्यक्ष ईश्वर में निराकारता साकारता पाई जाती है
इसके अतिरिक्त यजुर्वेद के पुरुष सुक्त में भी ईश्वर के साकार रूप का कथन है देखिए यह मंत्र इसमें स्पष्ट लिखा है कि-
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलमं॥~ [ऋग्वेद १०/९०/१], [यजुर्वेद का ३१/१]
भावार्थ: वे प्रभु अन्नत सिरों, आँखों व पैरों वाले हैं, वे पुरे ब्राह्माण्ड को आवृत करके भी दशांगुल जगत् से परे रहते है
इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर में साकारता और निराकारता दोनों पाई जाती है।

 
 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४८,
जो गुणों से सहित वह सगुण और जो गुणों से रहित वह निर्गुण कहाता है, अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ, सगुण और निर्गुण हैं, कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिस में केवल निर्गुणता वा केवल सगुणता हो किन्तु एक ही में सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है, वैसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान बलादि गुणों से सहित होने से सगुण रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि जीव के गुणों से पृथक् होने से निर्गुण कहाता है
समीक्षक— इस लेख से तो स्वामी जी का ही पक्ष बिगाड़ता है, जब इस प्रकार निराकार शब्द का अर्थ माना तब तुम्हारे तात्पर्य वाला निराकार शब्द का अर्थ नहीं जो मूर्तिमान को न बोधन करें, किन्तु दिव्य अलौकिक मूर्तिमान का बोधक भी निराकार शब्द हो सकता है जैसा कि सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि दिव्य अलौकिक गुण वाले का भी निर्गुण शब्द बोधक है, वैसे ही निराकार शब्द जब साकार का भी बोधक हो गया, तो निर्गुण शब्द के दृष्टांत में कोई विरोध नहीं, निराकार का आकार है, सर्वथा आकार शून्य का नाम निराकार कहोगें तो सरसर्व गुण शून्य का नाम निर्गुण हुए से दयानंद का मत भंग हो जाएगा, क्योकि सत्यार्थ प्रकाश में सर्व गुण शून्य का नाम निर्गुण नहीं माना इससे निराकार शब्द भी साकार का बोधक हो गया।
जब इस प्रकार निराकार की अविरोधी साकारता सिद्ध हो गई तो, “स पर्य् अगाच् छुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम्” इस मंत्र में (अकायम्) इस पद का अच्छी प्रकार समन्वय हो गया भौतिक मलिन काया करकें वर्जित हैं और बृहदारण्यक उपनिषद में लिखा है कि--
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च०। ~बृहदारण्यक उपनिषद{२/३/१}
ईश्वर के दो रूप हैं एक मूर्तिमान और एक अमूर्तिमान (एकं रूपं बहुधा य: करोति)? और एक रूप को जो बहुत प्रकार का करता है इस मंत्र से तथा औरों से ही सर्वकारण बीजस्थापन्न परमात्मा में साकारता इस प्रकार से प्रकट है।
 

॥अवतार प्रकरण॥


 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४०,
(प्रश्न) ईश्वर अवतार लेता है वा नहीं?
(उत्तर) नहीं, क्योंकि ‘अज एकपात्’, ‘सपर्य्यागाच्छुक्रमकायम्’ ये यजुर्वेद के वचन हैं, इत्यादि वचनों से परमेश्वर जन्म नहीं लेता।
पुनः पृष्ठ १४१ पर लेख है कि "और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता, जैसे कोई अनन्त आकाश को कहै कि गर्भ में आया वा मूठी में धर लिया, ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता, क्योंकि आकाश अनन्त और सब में व्यापक है, इस से न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वैसे ही अनन्त सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उस का आना जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता, जाना वा आना वहां हो सकता है जहां न हो, क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया? और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला? ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा, इसलिये परमेश्वर का जाना-आना, जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता
समीक्षक— स्वामी जी यहाँ ईश्वर को अज अकाय बताकर ईश्वर के अवतार होने में संदेह करते हैं तो, जीवात्मा भी तो अज और व्यापक श्रवण करी जाती है, फिर तो उसका भी जन्म न होना चाहिए, देखिए--
 
 
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्
नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥१८॥
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुँ हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायँ हन्ति न हन्यते॥१९॥
अणोरणीयान्महतो महीया
नात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको
धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः॥२०॥ ~कठोपनिषद
(विपश्चित्) सर्व का दृष्टा जीवात्मा, (सर्वस्य दृष्टा सर्वस्य भोक्ता सर्वानुभव:) इत्यादि वाक्यों से, आत्मा जन्म मरण से रहित है, यह स्वयं न तो किसी के द्वारा उत्पन्न होता है और न इसके द्वारा (कश्चित्) कोई भी उत्पन्न होता है वह तो अजन्मा नित्य एकरस वृद्धिरहित है, शरीर के नष्ट होने पर भी इसका नाश नहीं होता, यदि कोई हनन कर्ता पुरुष हनन कर्ता आत्मचिंतन करता है, और यदि कोई हत हुआ आत्मा को हत चिंतन करता है, तो वे दोनों अज्ञानी है वे दोनों ही आत्मा के यथावत स्वरूप को नही जानते, क्योकि यह आत्मान हनन करता है न हनन होता है,
जो इस जीव की हृदय गुहा अर्थात पंचकोशरूप गुफा में (निहित) स्थित है, यह आत्मा अणु से भी अणुतर है अर्थात दुर्लक्ष्य है, इसे अणुतर कहा परन्तु बड़े आकाशादि से महीयान् महत्तर है (धातु: प्रसादात्) ईश्वर की प्रसन्नता से, (अकतु:) विषयभोग संकल्प रहित पुरुष आत्मा को देखता है, तो आत्मा की महिमा देख शोक रहित होता है, देखिए योग शास्त्र के भाष्य में व्यास जी कहते हैं कि--
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः {यो०पा०१ सू०२}
चितिशक्तिपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता च व्यास भाष्यम् अर्थ- (चितिशक्ति) जीवचेतन अपरिणामी है (अप्रतिसंक्रमा) क्रिया रहित है (दर्शितविषया) सर्व विषयों का द्रष्टा है शुद्ध और अनन्त व्यापक है इस प्रकार व्यास तथा कणाद ऋषि के मत से जीवचेतन व्यापक है और जीव का जन्म वे मानते हैं इससे व्यापक का जन्म नहीं होता यह कथन कैसे होगा? क्योकि व्यापक का जन्म व्यासादिक मानते हैं, यदि यह कहो की "हम तो युक्ति ही मानते हैं जन्म मरण आना जाना परिछिन्न पदार्थ में बन सकता है, इस कारण जीवात्मा का स्वरूप व्यापक नहीं मानते" इसका उत्तर, तब तो यह विचार कर्तव्य है विभू पदार्थ से भिन्न अणुपरिमाणवान् वा मध्यपरिमाणवान् होता है, आत्मा अणुपरिमाण है वा मध्यपरिमाण है, यदि कहो अणुपरिमाणवान् है तो सारे शरीर में शीतल जल संयोग से शीतस्पर्श की प्रतीत नहीं होनी चाहिए, क्योकि आत्मा को तुमने अणुपरिमाणवान् माना है, सो एक देश में स्थित होकर शीत का ज्ञान कर सकता है, आत्मारहित अंगों में शीतस्पर्श का भान कैसे होगा?
(प्रश्न) आत्मा यद्यपि एक देश में हैं, तथापि जैसे कस्तूरी की गंध सर्वत्र विस्तृत होती है वैसे ही आत्मा का ज्ञानगुण सर्वत्र विस्तृत है, इससे शीतस्पर्श की प्रतीति सर्वत्र हो सकती है, अथवा जैसे सूर्य प्रभाव वाला द्रव्य है वैसे ही आत्मा भी प्रभावत् द्रव्य है।
(उत्तर) यह नियम है कि गुण अपने आश्रय को त्याग कर अन्यत्र गमन नहीं कर सकता क्योंकि गुण में क्रिया नही होती, और कस्तूरी के दृष्टांत में भी कस्तूरी के सूक्ष्म अवयव विस्तृत होते हैं, इसी कारण कस्तूरी कपूरादि द्रव्य रक्षक उसको बन्द कर किसी डिब्बे आदि में रखते हैं और जो वह खुलें रखें जाये तो वे उड जाते हैं, और प्रभा गुण नहीं किन्तु विरल प्रकाश प्रभा है, और घनप्रकाश सूर्य है, ऐसे ही आत्मा को मानने से ज्ञानरूप ही सिद्ध होगा, सो ज्ञान एकरस है, कहीं सघन और कहीं विरल ऐसा कहना बनता नहीं, यदि अनेकरस मानोगे तो अनित्यत्व प्रसक्ति होगी, और सर्वथा अणुवादी के मत में क्रिया तो जरूर माननी होगी, तो
{अच्छेद्योयमदाह्योयमक्लेद्योशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः॥}
इत्यादि गीता के वचनों से विरोध होगा, और आत्मा विनाशी क्रियावत्वत् घटवत् इस अनुमान प्रमाण से विनाशित्व प्रसक्ति तो अवश्य होगी, और मध्यम परिमाण पक्ष में स्पष्ट ही जन्यत्व विनाशित्वादि दोष है, आत्मा जन्य: मध्यमपरिमाणवत्वात् आत्मा विनाशी मध्यमपरिमाणवत्वात् घटवत् इस कारण अनादि जीवात्मा को मानकर मध्यम परिमाण कैसे मानोगे, क्योकि मध्यम परिमाण मानने से जन्यत्व की प्रसक्ति होगी, इससे बिना इच्छा से भी व्यासादि महात्माओं के वचनानुसार आत्मा को व्यापक और अज अवश्य मानना पड़ेगा, तो जन्मशंका ईश्वरत् जीव में भी बन सकती है, तो फिर जीव का जन्म कैसे हो सकता है, और जब जीव का जन्म मानते हो तो ईश्वर का अवतार भी मानना होगा, जैसा कि वेदादि शास्त्रों से प्रमाण है देखिए यजुर्वेद--
 
प्रजापतिश् चरति गर्भै ऽ अन्तर् अजायमानो बहुधा वि जायते।
तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास् तस्मिन् ह तस्थुर् भुवनानि विश्वा॥~ यजुर्वेद {३१/१९}
(प्रजापति)- परमेश्वर, (गर्भै अन्त:)- गर्भ में प्रविष्ट होकर, (अजायमान:)- अजन्मा होते हुए भी, (बहुधा)- अनेक कारण रूप {राम, कृष्णादि रूपों} को, (चरति)- प्राप्त होकर, (विजायते)- उत्पन्न होता है, (धीरा:)- ज्ञानी महात्माजन गुणप्रधान पुरुष, (तस्य)- उस परमात्मा के, (योनिम्)- जन्म कारण को, (परिपश्यन्ति)- ज्ञान से सब ओर से देखते है,{अज्ञानीयों को उसका जन्म नहीं विदित होता}, (यस्मिन्)- जिस परमेश्वर में, (हविश्वाभुवनानि)- सब ब्राह्मण, (तस्थु)- स्थित है।
इसके अलावा श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा है कि--
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
~श्रीमद्भगवद्गीता {४/६}
भावार्थ-- मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।
 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ (श्रीमद्भगवद्गीता- ४/७)
भावार्थ-- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।
 
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ (श्रीमद्भगवद्गीता- ४/८)
भावार्थ-- साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।
 
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ (श्रीमद्भगवद्गीता- ७/२४)
भावार्थ-- बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्द परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्मकर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं।
 
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
~(श्रीमद्भगवद्गीता- ७/२५)
भावार्थ-- अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है।
 
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ (श्रीमद्भगवद्गीता- ९/११)
भावार्थ : मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं।
 
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥ (श्रीमद्भगवद्गीता- १०/२)
भावार्थ : मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।
पुनः प्रमाण वाल्मीकि रामायण से देखिए--
 
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुरुपयातो महाद्युति:।
शङ्खचक्रगदापाणि: पीतवासा जगत्पति:॥१॥
तमब्रुवन्सुरास्सर्वे०
त्वान्नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया॥२॥
राज्ञो दशरथस्य त्वमयोध्याधिपते: प्रभो:
विष्णो पुत्रत्वमागच्छ कृत्वाऽऽत्मानं चतुर्विधम्॥३॥
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककण्टकम्।
अवध्यं दैवतैर्विष्णो! समरे जहि रावणम्॥४॥
~{वाल्मीकि रामायण बा० का० पन्द्रहवां सर्ग}
देवताओं की स्तुति सुनकर भगवान विष्णु यज्ञ स्थल में आये, शंख चक्र गदा पद्म धारण किये पीले वस्त्र साक्षात् जगदीश्वर,॥१॥ भगवान से सब देवता बोले हे भगवन् आपको लोकों के हित के वास्ते नियुक्त करते हैं,॥२॥ कि राजा दशरथ के यहाँ आप अपने अंश सहित चार प्रकार से विभाग कर जन्म लो,॥३॥ मनुष्य रूप धारण कर बढ़े हुए लोक-कंटक देवताओं से अबध्य महापापी रावण का नाश कीजिये॥४॥
उक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर अवतार लेता है।
 

॥सर्वशक्तिमान प्रकरण॥


 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १३४,
(प्रश्न) ईश्वर सर्वशक्तिमान् है वा नहीं?
(उत्तर) है, परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान् शब्द का अर्थ जानते हो वैसा नहीं, किन्तु सर्वशक्तिमान् शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किञ्चित् भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।
पुनः चार पंक्तियों बाद यह लेख है कि "जो तुम कहो कि सब कुछ चाहता और कर सकता है तो हम तुम से पूछते हैं कि परमेश्वर अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयम् अविद्वान्, चोरी, व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुःखी भी हो सकता है? जैसे ये काम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से विरुद्ध हैं तो जो तुम्हारा कहना कि वह सब कुछ कर सकता है, यह कभी नहीं घट सकता, इसीलिए सर्वशक्तिमान् शब्द का अर्थ जो हम ने कहा वही ठीक है
समीक्षक— स्वामी जी का लेख पढ़कर तो ऐसा विदित होता है कि जैसे ईश्वर ने स्वामी जी से कर्ज लिया होगा, और एक तमस्सुक (ऋणपत्र) लिख दिया होगा, जिसके जरिये सत्यार्थ प्रकाश बना लिया और सर्वशक्तिमान का अर्थ अपना ही ठीक रखा है, और ग्रंथों का अशुद्ध जबकि ईश्वर उत्पत्ति पालन प्रलय जीवों के काम आदि में किसी प्रकार की सहायता नहीं लेता, तो इसके व्यतिरिक्त तारागणादि की रचना में जरूर सहायता लेता होगा, यह स्वामी जी के ही लेख से खुल सकता है, जैसे कि वेदार्थ में स्वामी जी से ही सलाह ली होगी, तथा आपने भूमिका भी नई गढ़ी, क्या वेद का अर्थ करना आपको ही आता था, और आपने यह भी कोई ईश्वर पर बड़ी ही कृपा करी कि सर्वशक्तिमान नाम तो रहने दिया, परन्तु अर्थ ऐसा किया जैसे कोई बंधुए का नाम स्वतंत्र रख दें, वा स्वतंत्र का नाम बंधुआ रख दें, स्वामी जी तुमने तो अपने जान वेदभाष्य भूमिका में ईश्वर को बांध ही लिया है और सत्यार्थ प्रकाश रूपी तमस्सुक की धमकी देते हो, कि खबरदार अवतारन लेना नहीं, नहीं तो नालिश कर दी जायेगी, यह अवतार ही दूर करने के वास्ते आपने उसकी अनन्त सामर्थ्य में धब्बा लगाया है,
और यह तो अजब ही बात कही कि “जो चाहे सो करें तो अपने आप को मार डालें, चोरी करें” धन्य हे! सत्यार्थ प्रकाश लिखने वाले तेरी बुद्धि, इस निर्बोधानंद का क्या ठिकाना कब क्या लिख दें? चोरी करना आत्मघात करना यह दोनों काम करने को तो निर्बल भी सामर्थ्य है, सब ही मर जाने चाहिए सो ऐसा नहीं होता, किन्तु जो अज्ञानी है वो ही किसी वस्तु की इच्छा होने से और उसके न मिलने से दुखी हो प्राण खो देते है, पर ज्ञानी नहीं, निर्धन चोरी करते हैं, ईश्वर तो पूर्णज्ञानी है फिर भला वह आत्मघात क्यों करेगा? उसकी इच्छा मात्र से सब जगत् उत्पन्न हो जाता है, फिर वह पूर्णज्ञानी कौन से कारण से मरें? और नित्य का नाश नहीं होता, क्या आत्मा का कोई भी नाश कर सकता है? जब ईश्वर अजर अमर है प्रकाश रूप है अकाय है तो अपने को कैसे मारें, आत्मा के लक्षण तो सुनिये--
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
अच्छेद्योयमदाह्योयमक्लेद्योशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः॥
~{श्रीमद्भगवद्गीता २/२३,२४}
अर्थ-- इस आत्मा को न कोई शस्त्र छेदन कर सकता है, न अग्नि इसे जला सकती है, न पानी इसे गला सकता है, और न ही वायु इसे सुखा सकता है, क्योकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और  निसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, और स्थिर रहने वाला और सनातन है, जब आत्मा ऐसा है जिसका स्वरूप कुछ जाना नहीं जाता फिर कैसे उसका नाश हो सकता है? क्या कोई ईश्वर को आपने अपनी भांति मुर्ख समझा है जो सर्वशक्तिमान होने से अपने आपको मार डाले, तो वह शब्द ही क्यों रखा अलग कर दिया होता? इसी विद्या पर वेदभाष्य की रचना करी थी, सर्वशक्तिमान के अर्थ है कि सब प्रकार की जिसमें ताकत हो, जो चाहे सो कर सके, परन्तु आपसे कदाचित ईश्वर ने वार्ता करी हो, और बता दिया हो कि सर्वशक्तिमान का प्राचीन अर्थ अशुद्ध है, यह अर्थ ठीक है परन्तु स्वामी जी वेद तो यह कहते हैं--
न तं विदाथ य ऽ इमा जजानान्यद् युष्माकम् अन्तरं बभूव।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप ऽ उक्थशासश् चरन्ति॥
~यजुर्वेद {१७/३१}
हे मनुष्यों, (य:)- जो ईश्वर, (इमा)- इस भुवन और सब प्राणियों को, (जजाना)- उत्पन्न करता हुआ, तथा (युष्माकम्)- तुम्हारे सबके, (अन्तरं)- मध्य, (अन्यत्)- अन्तर्यामी रूप से स्थित, (वभूव)- हुआ, (तं)- उस ईश्वर को, (यूयं)- तुम, (नविदाथ)- नहीं जानते क्योकि, (नीहारेण)- अज्ञान के व्यापक अंधकार से घिरे, (च)- तथा, (जल्प्या)- केवल वार्ता या विवाद में लगे हुए मात्र प्राण-रक्षण व पोषण की चिंता से संतप्त लोग उस परमेश्वर के सम्बन्ध में व्यर्थ विवाद करते हुए विचरते है, उसका साक्षात्कार नहीं कर पाते।
अब देखिए जिसके जानने को वेद कहता है कि तुम नहीं जानते फिर दयानंद उसको और उसकी सर्वशक्ति को कैसे जान गये? जो योगियों को भी अगम्य है! और देखिये--
 
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतंदिवि॥ ~यजुर्वेद {३१/३}
(अस्य)- इस परमेश्वर की, (महिमा)- ऐश्वर्य विभूति, (एतावान्)- इतनी ही नहीं, (च)- किन्तु, (पुरुषः)- वह परमात्मा, (अतः)- इस संसार से, (ज्यायान्)- अतिशय अधिक है जिस कारण, (विश्वा)- सब, (भूतानि)- पृथिव्यादि चराचर जगत्, (अस्य)- इस परमात्मा का, (पादः) चतुर्थांश अर्थात एक चौथाई है, और (त्रिपाद्)- शेष तीन भाग में, (अमृतम्) नाशरहित, (दिवि) प्रकाशमान मोक्ष स्वरूप आप है।
इससे विदित होता है कि जो कुछ यह आकाश पाताल सम्पूर्ण तारामंडल सहित है यह सब तो मात्र उसकी महिमा का चौथाई है, जिसके पदार्थों का ही अब तक लाखों वर्षों में भेद नहीं जाना जा सका, इससे तीनगुनी महिमा उसके निज लोक में स्थित है, और देखिए श्रीमद्भगवद्गीता में भी इस प्रकार कथन है कि (बुद्धे: परतस्तु स:) कि वह परमेश्वर बुद्धि से परे है जब वह बुद्धि से परे है तो भला उसके कार्य पूर्णतः कौन जान सकता है? फिर उस अनन्त परमात्मा की महिमा और सर्वशक्तिमानी दयानंद ने कैसे जान ली? और उस अनन्त ऐश्वर्य वाले परमात्मा का सृष्टि क्रम कैसे जाना? जो कह देते हो कि यह सृष्टि क्रम विरुद्ध है, देखिये वह सब कुछ कर सकता है यह सारा संसार और जो कुछ भी है यह सब उसकी महिमा से उत्पन्न हैं देखिये ऋग्वेद में इस प्रकार कथन है कि--
 
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥
~ऋग्वेद {१०/१२९/१}
(तदानीं)- महाप्रलय काल में, (असत्)- अपरा माया, (न)- नहीं थी, (सत्)- जीव भी, (नो)- नहीं, (आसीत्)- था, (रज:)- रजोगुण भी, (न)- नहीं, (आसीत्) था, (यत्)- जो, (व्योम)- आकाश तमोगुण, (अपर:)- सतोगुण, (नो)- नहीं था, (कुहकस्य)- इन्द्रजाल रूप, (शर्मन्)- ब्रह्मांड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- तत्व समूह का आवरण होता है, (तत्) (किं) (नकिमप्यासीत्)- वह भी नहीं था, (गहनंगभीरं)- गहन गंभीर, (अंभ:)- जल, (किं आसीत्)- क्या था? अर्थात नहीं था
स्वामी जी कान खोलकर सुनिये और अपने अनपढ़ चैलों को भी बताइये उस समय तुम्हारे नित्य माने पदार्थ भी नही थे, और सुनिये--
 
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास॥ ~ऋग्वेद {१०/१२९/२}
(तर्हि)- उस समय, (मृत्यु)- मृत्यु, (न) नही, (आसीत्)- थी, और (अमृतं)- अमृतत्व अर्थात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था, (रात्र्या: अह्न:)- रात और दिन का, (प्रकेत:)- ज्ञान, (न आसीत्)- नही था, सिर्फ (स्वधया)- अपनी परा शक्ति से, (एकं)- अभिन्न एक, (तत्)- ब्रह्म ही, (आसीत्)- था, (तस्मात् ह)- उस सर्वशक्तिमान से, (अन्यत्)- अन्य, (किंच)- और कुछ भी, (न)- नही, (आसीत्)- था।
अब विचारने की बात है कि एक ब्रह्म के अलावा जब कुछ भी नहीं था, और फिर सब कुछ उससे ही उत्पन्न हुआ, तो वह सर्वशक्तिमान क्यों नहीं? देखिये वह सब कुछ करता है स्वयं अवतार भी धारण करता है यथाहि--
 
य ऽ इमा विश्वा भुवनानि जुह्वद् ऋषिर् होता न्य् असीदत् पिता नः।
स ऽ आशिषा द्रविणम् इच्छमानः प्रथमच्छदवराँ ऽ आ विवेश॥ ~यजुर्वेद {१७/१७}
(य:)- जो, (ऋषि)- अतीन्द्रेयदृष्टा सर्वज्ञ, (इमा:)- इस, (होता)- संसार रूप होम का कर्ता, (न:)-हमारा, (पिता)- जनक उत्पन्न करने वाला परमात्मा, (विश्वा)- सब, (भुवनानि)- लोक लोकान्तरों को, (जुह्वत)- प्रलयकाल में संहार करता हुआ, (न्यसीद)- अकेला ही स्थित हुआ, (स:)- वह परमेश्वर, (प्रथमच्छत)- प्रथम एक अद्वितीयरूप में प्रविष्ट होता, (आशिषा)- फिर अपने सामर्थ्य से सृष्टि रचना की इच्छा से, (द्रविणम्)- इस द्रव्यरूप जगत को, (इच्छमान:)-इच्छा करता हुआ, (अवरान्)- मायाविकार व्यष्टि समष्टि देहों में, (आविवेश)- अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ।

अब समझ लीजिए कि वह क्या-क्या कर सकता है? वह सब कुछ करने को सामर्थ्य है इस श्रुति से उसकी सर्वशक्तिमत्ता प्रकट होती है इससे सिद्ध होता कि वह सब लोक लोकान्तरों को उत्पन्न करने वाला सर्वशक्तिमान ईश्वर सब कुछ कर सकता है।

 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १३९,
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रयं  पुरुषं पुराणम्॥ ~शवेताश्वतर उपनिषद {३/१९}
परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से सब का रचन, ग्रहण करता, पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सब से अधिक वेगवान्; चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सब को यथावत् देखता; श्रोत्र नहीं तथापि सब की बातें सुनता, अन्तःकरण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है और उस को अवधिसहित जाननेवाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सब से श्रेष्ठ सब में पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं।
 
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च॥ ~शवेताश्वतर उपनिषद {३/८}
परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य और उस को करण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नहीं। न कोई उस के तुल्य और न अधिक है। सर्वोत्तमशक्ति अर्थात् जिस में अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उस में सुनी जाती है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभु तथापि चेतन होने से उस में क्रिया भी है
समीक्षक— अब स्वामी धूर्तानंद जी की धूर्तता आप लोगों को कहाँ तक दिखायें स्वामी जी तो मन में ठान कर बैठे हैं कि अर्थ का अनर्थ ही करना है प्रथम तो यह देखिये कि ऊपर लिखी श्रुति में स्वामी जी ने कितने पाठभेद किये हैं (स वेत्ति वेद्यं) के स्थान पर 'विश्वं' यह पद लिखा है, और (महान्त) के स्थान पर 'पुराण' यह पद लिखा, और (न च तस्यास्ति) इसमें से अस्ति पद को त्यागकर स्वयं निर्मित कल्पित श्रुति का अर्थ कर लोगों को भ्रमित करने का प्रयास किया है, जिस कारण इस श्रुति का आशय ही बदल गया, देखिये सही श्रुति इस प्रकार है--
 
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥३/१९॥
अर्थ यह है कि वह हस्तपाद उपाधि सहित होकर वेगवान तथा ग्रहण करता है, परन्तु स्वरूप में हस्त पाद उपाधि रहित है, इसी रीति से चक्षुः कर्ण रहित होते हुए अर्थात आखँ और कान के बिना भी, चक्षुः कर्ण उपाधि सहित होकर देखता तथा सुनता है, अतएव आत्मा वेद्य वस्तु को जानने वाला है, उसका जानने वाला दूसरा नहीं स्वयं प्रकाश होने से उस महान पुरुष सर्व नामरूप प्रपंच से आगे होने वाले को वेद वचन कथन करते हैं,
भाव यह की जैसे आत्मा स्वरूप में हस्त पाद रहित होते हुए भी जन्म लेकर हस्त पाद सहित होकर वेगवान और ग्रहण करने वाला होता है, चक्षुः कर्ण रहित होते हुए अर्थात आखँ और कान के बिना भी देखता व सुनता है उसी प्रकार परमात्मा अपने कार्यों की सिद्धी हेतु साकार रूप धारण कर सृष्टि रचना करता तथा अवतार भी लेता है, और ईश्वर अवतार लेता है वेदादि शास्त्रों से यह हम पूर्व ही सिद्ध कर आये हैं।

अब एक दृष्टि जरा स्वामी जी के श्रुति अर्थ पर डालकर देखें, स्वामी जी ने यह जो लिखा है कि "परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु शक्तिरूप हाथ से सबका रचन ग्रहण करता है" तो यहाँ स्वामी जी से यह पूछना है कि शक्ति परमात्मा से भिन्न है वा अभिन्न? या फिर भिन्न अभिन्न से विलक्षण विचित्रता वाली अनिर्वचनीय है, जो भिन्न कहो तो अनादि ही मानना होगा, तो तुम्हारे मानें हुए तीन पदार्थ जो नित्य है, ईश्वर, जीव और प्रकृति {अष्टम समुल्लास, पृष्ठ १५५} में एक चौथा पदार्थ शक्ति भी होगी, जो सादि मानो तो सादिशक्ति रूप शरीर से ईश्वर शरीरी (साकार) हो जायेगा, इससे ईश्वर का शरीर सादि नहीं है यह कथन असंगत होगा, और जो शक्ति को ईश्वर से अभिन्न मानों तो शक्ति जड़ है, और जड़ चेतन का अभेद वास्तव में बाधित है, और जो भिन्न अभिन्न से विलक्षण मानते हो तो उससे भिन्न जड़ प्रकृति का मानना निष्फल है, क्योकि ऐसा अद्भुत शक्तिमान ईश्वर जड़ प्रकृति की सहायता नहीं चाहता वह अपनी सर्वशक्तिमता से सब करने में सक्षम है, इसी प्रकार दुसरी श्रुति कहती है उसे कार्य और कारण की कुछ आवश्यकता नहीं है वह अपनी इच्छा से जो चाहे सो कर सकता है।
 

॥ईश्वरीय स्तुति प्रकरण॥


 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १३५,
क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़ स्तुति, प्रार्थना करनेवाले का पाप छुड़ा देगा?
(उत्तर) नहीं,
(प्रश्न) तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना?
(उत्तर) उनके करने का फल अन्य ही है, स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।
पुन: पृष्ठ १३५ पर ,,,,और जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।
पुन: पृष्ठ १३७ पर ,,,,ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्वर उस को स्वीकार करता है कि जैसे हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे आधीन सब हो जायँ इत्यादि,
पुन: पृष्ठ १३७ पर ,,,,ऐसी मूर्खता की प्रार्थना करते-करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा-हे परमेश्वर! आप हम को रोटी बना कर खिलाइये, मकान में झाडू़ लगाइये, वस्त्र धो दीजिये और खेती बाड़ी भी कीजिये, इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते हैं वे महामूर्ख हैं
पुनः पृष्ठ १४१ पर,,,,,(प्रश्न) ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं?
(उत्तर) नहीं, क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उस का न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उन को पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये, जैसे राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जाय कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे
समीक्षक— यहाँ तो स्वामी जी सारी उपासना स्तुति की चटनी कर गये, स्वामी जी के मतानुसार अब ईश्वर की प्रार्थना भी मत करों क्योकि वह हमें उसका फल देता नहीं, पाप क्षमा करता नहीं फिर ईश्वर का अस्तित्व स्वीकारने से क्या लाभ? जब उसका नाम जपना भजन करना वृथा हुआ, तो बिना प्रयोजन तो मन्दबुद्धि पुरूष भी कोई काम नहीं करते फिर ईश्वर का नाम स्मरण भी निरर्थक है, तो सब कर्मों का फल भी निरर्थक होगा, लो कर्मकांड भी समाप्त कर दिया, जब ईश्वर ही जो सबसे श्रेष्ठ है स्तुति प्रार्थना से पाप दूर नहीं करता, तो फिर ऐसा कौन सा शुभकर्म है जिसके करने से मनुष्य दुख से छूटें? जबकि श्रेष्ठ कर्म करने से श्रेष्ठ फल और बुरा कर्म करने से अनिष्ट फल की प्राप्ति होती है, तो उस पवित्रात्मा परमेश्वर का स्मरण उपासना ध्यान करने वाला पवित्र क्यों नहीं होगा? (जो यह कहो कि उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारें) तो जब उसका नाम कुछ गुण रखता है तभी तो मनुष्य उसके गुण कर्म से अपने गुण कर्म सुधार सकते हैं नहीं तो किस प्रकार सुधार सकते हैं? यदि स्वयं ही सुधार सकता तो उसके नाम स्मरणादि की आवश्यकता क्या थी? जब उसके नाम से गुण कर्म स्वभाव सुधरते है तो पवित्र क्यों नहीं हो सकते? जो पाप दूर नही हो सकते तो गुण कर्म स्वभाव भी नहीं सुधर सकते और ईश्वर में कर्म ही क्या है? जिसके सदृश वह अपने गुण कर्म सुधारें, और गुण कर्म ही सुधारने है तो किसी भले व्यक्ति के चरित्र देख अपने कर्म सुधार सकता है, और जब ईश्वर को निराकार मानते हो तो उसके कर्म क्या होंगे, मनुष्य उसके किस कर्म को देखकर अपने गुण कर्म सुधारें, इससे तो आप भगवान श्री रामचंद्र को श्रेष्ठ पुरुष मानते हो उनके सब ही कर्म श्रेष्ठ थे, उन्हीं का नाम स्मरण कर मनुष्य अपने गुण कर्म और स्वभाव सुधार सकते हैं, और जब आप कहते हैं कि प्रार्थना करने से अंहकार दूर होगा, सहायता प्राप्त होगी तो क्या उसके पाप दूर न हुए, और जब ईश्वर ने सहायता करी तो फिर पाप कहां रहा? पाप तो दूर हो गया, बस ईश्वर ने सहायता की तो भक्तों के मनोरथ पूर्ण हो गये, और पाप से छूट सुख के भागी हुए, सुख जभी होता है जब पाप दूर होते हैं, इस सहायता करने से तो दयानंद का लेख ही उनके लेख का खंडन करता है, और उपासना से परब्रह्म से मेल होना भी आपने न जाने क्या सोचकर लिखा है? जो मेल हुआ तो फिर पृथक होना असंभव है, जो जल एक बार गंगा जल में पड़ गया हजार कोशिशों के बाद भी वह फिर से अलग नहीं हो सकता, मेल होने उपरांत फिर मुक्ति से नही लौट सकता है, और निराकार ईश्वर का साक्षात्कार किस प्रकार हो सकता है यह नहीं लिखा? ईश्वर के प्रत्यक्ष होने के आपने विशेष अर्थ नहीं खोलें, क्या वह इन्द्रियों के सामने हो जाता है? क्योकि जो आकार वाला होगा वही इन्द्रियों के सामने होगा, इससे तो यही सिद्ध होता है कि ईश्वर साकार है, भला निराकार प्रत्यक्ष किस प्रकार हो सकता है? और जो तुमने यह लिखा है कि (जो भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है) यह तो हूतीयों की भांति बड़ा ही उल्टा लेख लिखा है तुमने, क्योकि ईश्वर की प्रार्थना तो सकाम इसी से करी जाती है कि यह काम हमारे सामर्थ्य से बाहर है इसलिए हे ईश्वर तू हमारी सहायता कर, जो अपना चरित्र सुधारने में असमर्थ है वा और किसी कार्य में वही तो प्रार्थना कर सहायता चाहते हैं कि ईश्वर हमारा चरित्र  सुधारने में सहायता कर हमारा काम बने ऐसी कृपा करों, और जो जिस काम के करने में स्वयं समर्थ होता है वह कब दूसरे की सहायता चाहए है, जो अपना चरित्र सुधारने में स्वयं समर्थ है वह उसमें ईश्वर की सहायता क्यों चाहेगा, देखिए पहले तो लिखा कि अपने गुण कर्म सुधारने को ईश्वर की प्रार्थना करनी और अब लिखा कि अपने कर्म सुधारों बिन सुधारें स्तुति प्रार्थना करना व्यर्थ है यह परस्पर विरुद्ध लेख सिवाय स्वामी जी जैसे हूतियों के कौन बुद्धिमान मान सकता है? और (ऐसी प्रार्थना कभी न करें कि जैसे हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश करों, मुझे सबसे अधिक करो इत्यादि) तो क्या प्रार्थना में स्वामी जी के यंत्रालय की वृद्धि हो ऐसी इच्छा प्रकट करें, देखिए शतश: वेद मंत्र इसी आशय से पूर्ण है हे ईश्वर हमारे पाप दूर करें, हमारे शत्रुओं का नाश हो, हमें श्रेष्ठ आचरण वाला बनाओ, हमारी रक्षा करों इत्यादि क्या वेदों में यह मिथ्या प्रलाप है, नहीं तो कह दो कि किसने मिला दिया है, बस यही कसर रह गई है यदि तुम्हारी चलती तो केजरीवाल की भांति अपने प्रतिकूल मंत्रों पर जरूर हरताल फेरते, लेकिन फिर भी अर्थ बदलकर अनर्थ कर ही दिया, और यह क्या हूतियों की भांति लिखा है कि (हे परमेश्वर! आप हम को रोटी बना कर खिलाइये, मकान में झाडू़ लगाइये, वस्त्र धो दीजिये और खेती बाड़ी भी कीजिये) ऐसा प्रतित होता है जैसे यह पुस्तक लिखते समय अपनी बुद्धि रखकर कहीं भूल गये हो, या पुस्तक लिखते लिखते भूख लग गई, या कूड़े कचरे के बीच बैठकर लिख रह थे, या फिर कपड़े मैले होने के कारण दुर्गंध आ रही थी जिससे परेशान होकर लिख दिया होगा कि हे परमेश्वर वस्त्र धो दीजिए, क्योकि ऐसी बालक बुद्धि वाली बात सिवाय तुम्हारे किसी और को नहीं सूझती, भला लिखने से पूर्व यह तो सोचा होता कि जिसके भौतिक शरीर नहीं वह कैसे ऐसा काम कर सकेगा? जो यह कहो की यह बात औरों के लिए कहीं है तो सिवाय आपके ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें हमने तो किसी के मुख से आज तक नहीं सुनी, भला अपने उत्पन्नकर्ता संकटमोचन से कोई भी मनुष्य ऐसा कह सकता है, साधारण मालिक के सामने तो जवाब नहीं दिया जाता और उस परमेश्वर से यह ढीठता, शायद ऐसी प्रार्थना तुमने ही की होगी, जब तुम्हारे वस्त्र मैले, सामने कूड़ा कचरा पड़ा होगा, कि ईश्वर हमारे यह दोनों काम कर दें, जब उसने नहीं किया तो क्रोधित होकर लिख दिया, कि उसकी प्रार्थना मत करों कुछ लाभ नहीं, मैंने करके देख लिया, फिर आगे लिखा है कि (कि जो परमेश्वर के भरोसे बैठे रहते हैं वो मूर्ख हैं) देखिये इस नास्तिकता को कि ईश्वर का भरोसा करना मूर्खता है, अब जब ईश्वर का भरोसा करना मूर्खता है तो जिसका भरोसा ही नहीं उसके गुण कर्म से क्या लाभ? और नास्तिकता क्या होती है? इसी को अनीश्वरवादी कहते हैं, सहस्रों ऋषि मुनि आरण्य में ईश्वर के भरोसे जप तप करते थे और आज भी करते हैं और वहीं परमात्मा उनकी रक्षा करता है, क्या स्वामी जी तुम्हारे भंडार से सीधा जाया करता था जो भोजन कर ऋषि मुनि तप किया करते थे, तुम्हें देना बुरा लगे था जो लिख दिया कि ईश्वर के भरोसे रहना वृथा है, तुम लिखते हो कि वह भक्तों के भी पाप क्षमा नहीं करता यदि करें तो सब पाप करने लग जावें, तो सुनिये वह दुष्टों के पाप क्षमा नहीं करता, भक्तों के अवश्य करता है, क्योकि वह जानता है कि यह पाप उससे अनजाने में हुआ है और अब प्रतिज्ञा करता है कि आगे से नही होगा, और करेगा भी नहीं उसके पाप ईश्वर निश्चय क्षमा करेगा, वह प्रार्थना ही उसका प्रायश्चित है और जो दुष्ट हैं मन में पाप और ऊपर से बने भक्त वंचक उनका पाप कभी क्षमा नहीं होगा, जो भला व्यक्ति होता है उसके अनजाने अपराध को तो राजा भी क्षमा कर देता है, जो अन्त:करण से शुद्ध है और प्रेम से ईश्वर का स्मरण करते हैं उनके पाप भी क्षमा होते हैं, और दुष्टों को यथावत दंड देता है, इसी का नाम न्याय है, जो दुष्ट हैं उन्हें दंड और जो दया योग्य है उन पर दया करना यही न्याय है, देखिए शत्रु निवृत्ति अपनी उन्नति आदि की प्रार्थना भी वेदों में है,
 
ससन्तु त्या अरातयो बोधन्तु शूर रातयः।
आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥४॥
सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम्।
आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥७॥ ~ऋग्वेद {म•१/ सु• २९/ मं• ४-७}
हे प्रभु! हमारे शत्रु सोते रहें और मित्र जागरणशील हो, हमारा अशुभ चिन्तन करने वाले शत्रुओं का नाश करें, हिंसको का नाश करें, हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव! हमे सहस्त्रो श्रेष्ठ गौंएँ और घोड़े प्रदान करके संपन्न बनायें॥४-७॥

॥पाप क्षमा मांगना॥


त्वं नः पाह्यंहसो जातवेदो अघायतः।
रक्षा णो ब्रह्मणस्कवे॥ ~ऋग्वेद {६/१६/३०}
हे अग्ने! स्वप्रकाशस्वरूप परमात्मा, हमको पाप से मुक्त करों, हे स्थितियों के स्वामी अग्निदेव, शत्रुओं से हमारी रक्षा करें।
 
रक्षा णो अग्ने तव रक्षणेभी रारक्षाणः सुमख प्रीणानः।
प्रति ष्फुर वि रुज वीड्वंहो जहि रक्षो महि चिद्वावृधानम्॥
~ऋग्वेद {४/०३/१४}
हे परमेश्वर! आप हम सबके संरक्षक होकर प्रसन्नतापूर्वक रक्षण साधनों द्वारा हमारी रक्षा करें और हमें तेजस्वी बनाये, आप हमारे भूलवश हुए अपराधों (पापों) को विनिष्ट कर, बढ़ी हुई असुरी शक्तियों का नाश करें।
 
यद् ग्रामे यद् अरण्ये यत् सभायां यद् इन्द्रिये।
यद् एनश् चकृमा वयम् इदं तद् अव यजामहे स्वाहा॥
~यजुर्वेद {३/४५}
गांव में रहते हुए हमने (उपद्रव जन्य) जो  पाप किया, वन में रहकर मृगया-रूप जो पाप किया, तथा सभास्थल पर (असत्य भाषण, श्रेष्ठ पुरुषों के तिरस्कार जन्य) जो पाप किया, और जिह्वा आदि इन्द्रियों द्वारा मिथ्याचरण रूप जो पाप हमसे बन गया है उन सभी पापों के नष्ट करने के लिए यह आहुति देता हूँ। और देखिये--
 
अग्ने नय सुपथा राये ऽ अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्य् अस्मज् जुहुराणम् एनो भूयिष्ठां ते नम ऽ उक्तिं विधेम॥ ~यजुर्वेद {४०/१६}
इसके अर्थ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ १३७ पर स्वयं स्वामी जी ने यह लिखा है कि "हे सुख के दाता स्वप्रकाशस्वरूप सब को जाननेहारे परमात्मन्! आप हम को श्रेष्ठ मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञानों को प्राप्त कराइये और जो हम में कुटिल पापाचरणरूप मार्ग है उस से पृथक् कीजिये, इसीलिये हम लोग नम्रतापूर्वक आपकी बहुत सी स्तुति करते हैं कि हम को पवित्र करें"
यह स्वामी जी का अर्थ ही इस बात को सिद्ध करता है कि ईश्वर पाप दूर करता है अब यहाँ बुद्धिमान विचारें कि दयानंद के इस लेख से स्वयं उनका ही लेख खंडित होता है या नहीं, देखिये--
 
स नो बन्धुर् जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा ऽ अमृतम् आनशानास् तृतीये धामन्न् अध्य् ऐरयन्त॥ ~यजुर्वेद {३२/१०}
(स:)- वह परमेश्वर, (न:)- हमारा, (बन्धु:)- विविध प्रकार की सहायता रक्षाादि करने से बन्धु है, (स:)- वह, (जनिता)- हमारा उत्पन्नकर्ता, (विधाता)- विधाता मालिक पिता है, (स:)- वह, (विश्वा)- सब लोकों, (भुवनानि)- प्राणि और, (धामानि)- स्थानों, (वेद)- जानने वाला है, (देवा:) देवता, (यत्र)- जिस ईश्वर में, (अमृतम्)- मोक्ष प्रापक ज्ञान को, (आनशान:)- प्राप्त करते, (तृतीये धामन्)- ऐसा वह परमेश्वर स्वर्ग रूप तृतीया धाम है।

जब वह हमारा बन्धु उत्पन्नकर्ता पालनकर्ता है तो हम उस पर भरोसा क्यों न करें, और क्यों न वह हमको फल देगा, स्वामी जी लिखते हैं कि ईश्वर की स्तुति करना भांड का काम है और उसकी स्तुति करना उसका भरोसा करना व्यर्थ बताते हैं यह दयानंद की नास्तिकता नहीं तो क्या है? स्तुति करना भी कर्म है और जब ककर्म है तो अवश्य उसका कुछ फल होगा, स्तुति करना कभी व्यर्थ नहीं हो सकता, वेदों में शतश: प्रार्थना विद्यमान हैं।

 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४०,
परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं किन्तु निमित्त कारण है
समीक्षक— यद्यपि यह हम पूर्व ही सिद्ध कर आये हैं कि ईश्वर जगत का उपादान कारण है परन्तु स्वामी जी ने इसे बार-बार लिखा है इसलिए एक बार फिर से वेदादि शास्त्रों से आपको दिखाते हैं जिससे यह विदित हो जायेगा कि परमेश्वर जगत् का उपादान कारण है प्रथम वेद से प्रमाण लिखते हैं देखिये--
 
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥
~ऋग्वेद {१०/१२९/१}
(तदानीं)- महाप्रलय काल में, (असत्)- अपरा माया, (न)- नहीं थी, (सत्)- जीव भी, (नो)- नहीं, (आसीत्)- था, (रज:)- रजोगुण भी, (न)- नहीं, (आसीत्) था, (यत्)- जो, (व्योम)- आकाश तमोगुण, (अपर:)- सतोगुण, (नो)- नहीं था, (कुहकस्य)- इन्द्रजाल रूप, (शर्मन्)- ब्रह्मांड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- तत्व समूह का आवरण होता है, (तत्) (किं) (नकिमप्यासीत्)- वह भी नहीं था, (गहनंगभीरं)- गहन गंभीर, (अंभ:)- जल, (किं आसीत्)- क्या था? अर्थात नहीं था
स्वामी जी कान खोलकर सुनिये उस समय तुम्हारे नित्य माने पदार्थ भी नही थे, और सुनिये-
 
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास॥
~ऋग्वेद {१०/१२९/२}
(तर्हि)- उस समय, (मृत्यु)- मृत्यु, (न) नही, (आसीत्)- थी, और (अमृतं)- अमृतत्व अर्थात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था, (रात्र्या: अह्न:)- रात और दिन का, (प्रकेत:)- ज्ञान, (न आसीत्)- नही था, सिर्फ (स्वधया)- अपनी परा शक्ति से, (एकं)- अभिन्न एक, (तत्)- ब्रह्म ही, (आसीत्)- था, (तस्मात् ह)- उस सर्वशक्तिमान से, (अन्यत्)- अन्य, (किंच)- और कुछ भी, (न)- नही, (आसीत्)- था।
अब विचारने की बात है कि एक ब्रह्म के अलावा जब कुछ भी नहीं था, और फिर सब कुछ उससे ही उत्पन्न हुआ, तो परमेश्वर जगत् का उपादान कारण क्यों नहीं, और सुनिये--
 
य ऽ इमा विश्वा भुवनानि जुह्वद् ऋषिर् होता न्य् असीदत् पिता नः।
स ऽ आशिषा द्रविणम् इच्छमानः प्रथमच्छदवराँ ऽ आ विवेश॥ ~यजुर्वेद {१७/१७}
(य:)- जो, (ऋषि)- अतीन्द्रेयदृष्टा सर्वज्ञ, (इमा:)- इस, (होता)- संसार रूप होम का कर्ता, (न:)-हमारा, (पिता)- जनक उत्पन्न करने वाला परमात्मा, (विश्वा)- सब, (भुवनानि)- लोक लोकान्तरों को, (जुह्वत)- प्रलयकाल में संहार करता हुआ, (न्यसीद)- अकेला ही स्थित हुआ, (स:)- वह परमेश्वर, (प्रथमच्छत)- प्रथम एक अद्वितीयरूप में प्रविष्ट होता, (आशिषा)- फिर अपने सामर्थ्य से सृष्टि रचना की इच्छा से, (द्रविणम्)- इस द्रव्यरूप जगत को, (इच्छमान:)-इच्छा करता हुआ, (अवरान्)- मायाविकार व्यष्टि समष्टि देहों में, (आविवेश)- अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ।
अब क्योकि यह द्रव्यरूप जगत परमेश्वर से ही उत्पन्न हुआ इससे स्वामी जी का सिद्धांत भ्रष्ट हो जाता है और इस श्रुति से यह सिद्ध हो जाता है कि परमेश्वर जगत् का उपादान कारण है, और सुनिये--
 
न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः॥ ~श्वेताश्वतर उपनिषद {६/९}

इस आत्मा का लोक में न तो कोई स्वामी है और न ही कोई शिक्षक है, न उसका कोई लिंग है वही कारण है वही ईश है उसका कोई उत्पन्न कर्ता वा अधिपति नहीं है अर्थात सब कुछ वही है और जो कुछ भी है उससे ही है, इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर जगत् का उपादान कारण है।

 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४८,
अथोदरमन्तरं कुरुते, अथ तस्य भयं भवति। द्वितीयाद्वै भयं भवति॥ ~बृहदारण्यक उपनिषद {१/४/२}
स्वामी जी इसका अर्थ करते हैं कि, जो जीव परमेश्वर का निषेध वा किसी एक देश, काल में परिच्छिन्न परमात्मा को माने वा उस की आज्ञा और गुण, कर्म, स्वभाव से विरुद्ध होवे अथवा किसी दूसरे मनुष्य से वैर करे उस को भय प्राप्त होता है

समीक्षक— अब क्योकि स्वामी जी ने कभी उपनिषद का पाठ ही नहीं किया तो उसके बारे में बात करना ही व्यर्थ है, जरा कोई स्वामी धूर्तानंद जी यह पूछे कि इस श्रुति में उन्होंने जीव परमेश्वर निषेध, देशकाल परिछिन्न गुण कर्म स्वभाव कहाँ से लिख दिया, स्वामी जी का यह कपोल कल्पित अर्थ किन पदों से सिद्ध होता है स्वामी जी के किये सभी अर्थ मिथ्या स्वामी जी के कपोल भंडार से निकले हैं, इसका अर्थ यही है कि जो आत्मा से पृथक देखता है उसी को भय होता है जैसे स्वामी जी को मृत्यु का भय हुआ था जिस कारण उन्होंने मृत्यु से बचने उससे छूपने के लिए गृह त्याग किया जो उनके लिखें आत्मचरित से ही सिद्ध होता है।

 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४९,
(प्रश्न) ईश्वर में इच्छा है वा नहीं।
(उत्तर) ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं, किन्तु ईक्षण अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता है
समीक्षक— धन्य हे! स्वामी जी, जैसे गुरु वैसे चैले, ईश्वर में इच्छा क्यों नहीं यदि इच्छा नहीं होती तो यह सृष्टि कहाँ से आ गई यदि बिना इच्छा के अपने आप ही सब जगत की रचना हो गई तो ईश्वर की आवश्यकता क्या है? सर्वप्रथम अनीश्वरवादी बने, और अब तो बौद्ध मत ही में घुस गये धन्य हे आपकी बुद्धि! ईश्वर में इच्छा है देखिये प्रमाण--
 
य ऽ इमा विश्वा भुवनानि जुह्वद् ऋषिर् होता न्य् असीदत् पिता नः।
स ऽ आशिषा द्रविणम् इच्छमानः प्रथमच्छदवराँ ऽ आ विवेश॥ ~यजुर्वेद {१७/१७}
(य:)- जो, (ऋषि)- अतीन्द्रेयदृष्टा सर्वज्ञ, (इमा:)- इस, (होता)- संसार रूप होम का कर्ता, (न:)-हमारा, (पिता)- जनक उत्पन्न करने वाला परमात्मा, (विश्वा)- सब, (भुवनानि)- लोक लोकान्तरों को, (जुह्वत)- प्रलयकाल में संहार करता हुआ, (न्यसीद)- अकेला ही स्थित हुआ, (स:)- वह परमेश्वर, (प्रथमच्छत)- प्रथम एक अद्वितीयरूप में प्रविष्ट होता, (आशिषा)- फिर अपने सामर्थ्य से सृष्टि रचना की इच्छा से, (द्रविणम्)- इस द्रव्यरूप जगत को, (इच्छमान:)-इच्छा करता हुआ, (अवरान्)- मायाविकार व्यष्टि समष्टि देहों में, (आविवेश)- अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ, और सुनिये-
इस मंत्र से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर में इच्छा है अगले समुल्लास में इस विषय पर और लिखेंगे।
 

॥वेदप्राप्ति प्रकरण॥


 

सत्यार्थ प्रकाश सप्तम् समुल्लास पृष्ठ १४९,
जीवों को अन्तर्यामीरूप से (वेदों) का प्रकाश किया है
पुनः पृष्ठ १५० पर प्रश्न सम्बन्ध से लिखा है कि, किन के आत्मा में कब वेदों का प्रकाश किया?
(उत्तर) अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः॥ ~शत० {११/४/२/३}
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया।
(प्रश्न) यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै॥ -यह उपनिषत् का वचन है {श्वे० उप० ६/१८}
इस वचन से ब्रह्मा जी के हृदय में वेदों का उपदेश किया है, फिर अग्न्यादि ऋषियों के आत्मा में क्यों कहा?
(उत्तर) ब्रह्मा के आत्मा में अग्नि आदि के द्वारा स्थापित कराया, देखो! मनु में क्या लिखा है?
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः सामलक्षणम्॥ ~मनु० [१/२३]
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग् यजुः साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
(प्रश्न) उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया अन्य में नहीं, इस से ईश्वर पक्षपाती होता है।
(उत्तर) वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रत्मा थे, अन्य उन के सदृश नहीं थे, इसलिये पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया
(प्रश्न) किसी देश-भाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्यों किया?
(उत्तर) जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता, क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उन को सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने की होती, इसलिये संस्कृत ही में प्रकाश किया, जो किसी देश भाषा नही और अन्य सब देशभाषाओं का कारण है, उसी में वेदों का प्रकाश किया
समीक्षक— इस पुस्तक को लिखते समय स्वामी जी के मन में क्या चल रहा था कौन जाने? लेकिन इतना तो साफ की स्वामी धूर्तानंद जैसा धूर्त मैंने अपने जीवन में नहीं देखा, अपने नवीन कपोल मत की प्रसिद्धि हेतु स्वामी जी ने न केवल अर्थ का अनर्थ किया हैं बल्कि सब ही बातें सनातन धर्म से उल्टी लिखीं हैं जो ऐसा न लिखते तो उनकी ख्याति कैसे होती, इसलिए स्वामी जी ने ख्याति पाने को यह नया ढंग निकाला है कि सब काम वेद विरुद्ध ही करेंगे, जैसे हम कहें कि मुर्तिपूजन श्राद्ध अवतार पतिव्रत वेदमत है तो वे कहें यह सब झूठ है और नियोग (व्यभिचार) ठीक है, हम गौ की रक्षा करें तो वह अपने वेदभाष्य में उसे मारना लिखते हैं, हम कहें वेद ब्रह्मा पर आये तो वे कहें कि नहीं चार ऋषियों पर आयें, अब स्वामी जी की धूर्तता आप लोगों को कहाँ तक बताये, इसलिए आप स्वयं देख लीजिये स्वामी जी ने इस लेख में किस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर लोगों को भ्रमित करने का कार्य किया है प्रथम स्वामी जी ने प्रश्न सम्बन्ध से यह लिखा,
(प्रश्नकर्ता)- "किन के आत्मा में कब वेदों का प्रकाश किया?
स्वामी जी इसका उत्तर लिखते हैं कि
"अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः॥ ~शत० {११/४/२/३}
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया"
इस श्रुति को देखने मात्र से ही विदित हो जाता है कि स्वामी जी ने शतपथ ब्राह्मण पढना तो छोडिये कभी देखा भी नहीं है, अथवा देखा हो तो भूल गये, क्योकि सत्यार्थ प्रकाश में लिखी यह श्रुति अशुद्ध है यह श्रुति स्वामी जी के कपोल भंडार से निकली है देखिए स्वामी जी ने इस श्रुति में कई एक  पद बदलकर भारी मिलावट की है जैसे प्रथम अग्ने शब्द के आगे "र्वा" और ऋग्वेद के आगे"जायते" यह पद नहीं है और ना ही यह श्रुति शत० ब्रा० {११/४/२/३} की है बल्कि यह श्रुति इस प्रकार है सुनिये-
तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः॥ ~शत० {११/५/८/३}
अब जबकि स्वामी जी की प्रमाण दी हुई श्रुति का पाठ ही अशुद्ध है तो उनके अर्थ निर्णय की क्या आशा है? देखिये इस श्रुति का अर्थ यह है कि अग्नि वायु और सूर्य इन तीन तपस्वीयों से तीनों वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद प्रकाश हुए, अर्थात वेद त्रविहित कर्मों का प्रचार हुआ, क्योकि इस श्रुति में (अजायत) यह पद आया है और वह (जनि) धातु से बनी है जो प्रादुर्भाव के अर्थ में प्रसिद्ध है और प्रादुर्भाव प्रकाश होने को कहते हैं, भाव यह है कि इन तीनों देवताओं ने जगत् में तीनों वेदों का प्रचार किया, जबकि स्वामी जी द्वारा इस श्रुति का किया अर्थ किंचित् मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता, देखिए इस श्रुति में स्पष्ट लिखा है कि (अग्नेर्ऋग्वेदो) अग्नि से ऋग्वेद, (वायोर्यजुर्वेदः) वायु से यजुर्वेद, और (सूर्यात्सामवेदः) सूर्य से सामवेद का प्रकाश हुआ, अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि स्वामी जी ने इस श्रुति का जो यह अर्थ किया है कि "प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया" इसमें आदि सृष्टि में परमात्मा से अंगिरा में अथर्ववेद का प्रकाश होना जो स्वामी ने यह अर्थ किया है, यह अर्थ स्वामी ने किन पदों से लिया है क्योंकि इस श्रुति में तो ऐसा कोई पद ही नहीं है जिससे स्वामी जी द्वारा किया यह अर्थ सिद्ध होता हो, और यहाँ यह भी विचारणीय है कि स्वामी जी अपने इस लेख में अग्नि वायु और सूर्य को ऋषि लिखा है, जबकि वेदादि शास्त्रों में कहीं भी इस नाम के ऋषि सुनने में नहीं आते किन्तु इस नाम के देवता अवश्य सुनने में आते हैं देखिए--
अग्निर्देवता। वातो देवता। सूर्यो देवता। चन्द्रमा देवतेत्यादि। ~यजुर्वेद {१४/२०}
इससे स्वामी जी का किया अर्थ अशुद्ध है, इससे यह भी सिद्ध होता है कि आरम्भ में तीन ही वेद थे, जिसमें ऋग्वेद पद्यात्मक, यजुर्वेद गद्यात्मक और सामवेद गीतात्मक है, जबकि अथर्ववेद में गद्य, पद्य और गायन तीनों प्रकार के मंत्र देखने में आते हैं, वह इस कारण क्योकि आरम्भ में तीन ही वेद थे, और समय व्यतीत होने के साथ ब्रह्म देव की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न अंगिरा ऋषि ने इन वेदों से अभिचार और अनुष्ठान वाले मंत्रों को अलग कर चतुर्थ वेद की रचना की जिसे अथर्ववेद के नाम से जाना गया, वह इसलिए क्योंकि मुंड़कोपनिषद के अनुसार ब्रह्मा जी ने यह वेद विद्या प्रथम अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को पढ़ाई और अथर्व ने अंगी ऋषि को पढ़ाई, अंगी ने सत्यवाह को और सत्यवाह ने अंगिरा ऋषि को पढ़ाई, अब क्योकि ब्रह्मा के पुत्र अथर्व ऋषि से यह वेद विद्या शिष्य परम्परा से अंगिरा ऋषि को प्राप्त हुई इस कारण उन्हीं के नाम पर इसका नाम अथर्ववेद पड़ा, इसे आगे प्रमाण सहित सिद्ध करेंगे, अब यहाँ विचारणीय यह है कि जब आरम्भ में तीन ही वेद थे, जो इस श्रुति से सिद्ध होता है तो फिर अंगिरा ऋषि जो कि ब्रह्मा जी के चौथी पीढ़ी में उत्पन्न हुए, तो फिर स्वामी जी यहाँ आदि सृष्टि में अथर्ववेद और अंगिरा की बात कहाँ से कर बैठे? जबकि अथर्ववेद की रचना तो काफी बाद में हुई, उससे पुर्व ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद यह तीन वेद ही थे, देखिए वेदादि शास्त्रों से आपको प्रमाण दिखाते हैं, सुनिए मनुस्मृति में इस प्रकार कथन है कि--
 
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्॥ ~मनुस्मृति {१/२३}
उस (ब्रह्म)- परमात्मा ने, (यज्ञसिध्यर्थम्)- यज्ञ सिद्धि हेतु, (त्र्यं सनातनम्)- तीनो सनातन वेदों, (ऋग्यजु:साम्)- ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान प्रकाश, (लक्षणम्)- समान गुण वाले, (अग्निवायुरविभ्यस्तु)- अग्नि, वायु, और सूर्य को, (दुदोह)- दिया
भावार्थ- इसके पश्चात उस परमात्मा ने यज्ञों की सिद्ध हेतु तीनो सनातन वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का ज्ञान प्रकाश समान गुण वाले अग्नि वायु और सूर्य को दिया।
 
षट्त्रिशदाब्दिकं चर्य्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्।
तदिर्धकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥ ~मनुस्मृति {३/१}
(गुरौ)- गुरूकुल में ब्रह्मचारी को, (षट्त्रिशदाब्दिकं)- छत्तीस वर्ष तक निवास करकें, (त्रैवैदिकं व्रतम्)- तीनों वेदों {ऋक्, यजुः और साम} का पूर्ण अध्ययन, (चर्य्यं)- करना चाहिए, छत्तीस वर्ष तक सम्भव न होने पर (तद् अर्धिकम्)- उसके आधे अर्थात अट्ठारह वर्ष तक, (वा)- या उतना भी सम्भव न होने पर, (पादिकं)- उसके आधे अर्थात नौ वर्ष तक, (वा)- या उतने काल तक जितने में, (ग्रहण अन्तिकम्)- वेदों में निपुणता प्राप्त हो सके रहना चाहिए, देखिए क्योकि अंगिरा ऋषि, मनु जी से उत्पन्न दश ऋषियों में से थे, इसलिए मनु जी द्वारा लिखी यह श्रुति प्रमाण है कि आरम्भ में अंगिरा के उत्पन्न होने से पूर्व तीन ही वेद थे, इस श्रुति में (त्रैवैदिकं) यह पद इस बात का सूचक है, और सुनिये
 
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥ ~श्रीमद्भगवद्गीता {९/१७}
 
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकं अश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान्॥ ~श्रीमद्भगवद्गीता {९/२०}
इस सम्पूर्ण जगत का धाता अर्थात बनाने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, माता, पिता, पितामह, जानने योग्य पवित्र ॐकार तथा ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।
(त्रैविद्या)- तीनों वेदों {ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद} में विधान किये हुए साकाम कर्मों को करने वाले सोमरस को पिने वाले, पापरहित पुरूष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते है। यहाँ इस श्लोक में (त्रैविद्या) यह पद तीनों वेदों ऋग्वेद यजुर्वेद और सामवेद का सूचक है अतः वेदादि शास्त्रों, ब्राह्मण तथा गीता आदि के वचनों से भी सिद्ध होता है आरम्भ में तीन ही वेद थे,
(दयानंदी)- तो तुम अथर्ववेद को चतुर्थ वेद नहीं मानते, उसे नवीन मानकर उसका विरोध करते हो।
(समीक्षक)- तू हुतिया है, यह विरोध वाला कीड़ा तुम्हारे स्वामी जी के पिछवाड़े में हैं हमारे नहीं, हमने अथर्ववेद का चतुर्थ वेद होना अपने लेख में स्पष्ट लिखा और माना है,
(दयानंदी)- जब अथर्ववेद का चतुर्थ वेद होना स्वीकार करते हो तो स्वामी जी की लिखीं बात का विरोध क्यों? आदि में अंगिरा के हृदय में अथर्ववेद का प्रकाश होना क्यों नहीं मानते?
(समीक्षक)- क्योकि यह बात स्वामी जी के कपोल भंडार से निकली है इस बात में कुछ सच्चाई नहीं देखो वेदादि शास्त्रों से यह प्रमाण है कि सृष्टि रचना की इच्छा से आदि में प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, उन्होंने ने ही आदि में अग्नि वायु सूर्य आदि देवताओं सहित सब लोकों को रचा और वेद अनुकूल ही सबके गुण कर्म स्वभाव सुनिश्चित कर उनके नाम रखें और अग्नि वायु सूर्य सहित अपने पुत्र अथर्व को वह वेद विद्या पढाई, और वह वेद विद्या अथर्व से होती हुई शिष्य परम्परा से ब्रह्मा जी की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न अंगिरा ऋषि को प्राप्त हुई यह मनुस्मृति से प्रमाण है अब जब अंगिरा ऋषि ब्रह्मा जी के चौथी पीढ़ी में उत्पन्न हुए, तो फिर आदि में परमात्मा द्वारा अंगिरा के हृदय में प्रकाश होना मिथ्या सिद्ध हुआ, जबकि अंगिरा ऋषि मनुस्मृति उपनिषद आदि के वचनों से ब्रह्मा जी के चतुर्थ शिष्य करके गिने जाते हैं, और क्योकि अथर्ववेद की रचना महर्षि अंगिरा द्वारा हुई इसलिए अथर्ववेद को आदि में ऋक्, यजुः, साम से भिन्न गिनना महाकपट है
(दयानंदी)- तुम अथर्ववेद की रचना अंगिरा से मानते हो और वेद परमात्मा से उत्पन्न हुए फिर अथर्ववेद ईश्वरीय वचन किस प्रकार सिद्ध करोगे।
(समीक्षक)- यह प्रश्न तुम्हारे मन में भ्रम से उत्पन्न हुआ है देखों आदि सृष्टि में वेद ऋक्, यजुः, साम रूप में प्रकट हुए अब क्योकि अंगिरा ऋषि ने उस त्रयी विद्या को पढ उन्हीं वेदों से अभिचार और अनुष्ठान वाले कुछ ऋचाओं को अलग कर चतुर्थ वेद की रचना की, अब क्योकि सभी ऋचाएं आदि में परमात्मा से ही प्रकट हुई है इससे चतुर्थ वेद के रूप में अलग होने पर भी वह ऋक्, यजुः, साम रूप ही हुई क्योंकि आदि में अथर्ववेद ऋक्, यजुः, साम में ही स्थित था और उन्हीं त्रयी विद्या को पढ बाद में महर्षि अंगिरा जिन्हें ब्राह्मण उपनिषद मनुस्मृति आदि ग्रंथों में ब्रह्मा जी का चतुर्थ शिष्य करके गिना है उन्होंने उससे चतुर्थ वेद की रचना की जिसे अथर्ववेद कहा गया, इसलिए आदि में ऋक्, यजुः, साम से पृथक अथर्ववेद को मानना यही महाकपट है, इससे धर्म के न जानने वालों में भ्रम की स्थिति पैदा होती हैं और धर्म में बाधा उत्पन्न होती है क्योंकि वेदादि शास्त्रों में आदि सृष्टि में अथर्ववेद को चतुर्थ वेद करके कही नही लिखा, किन्तु त्रयी विद्या ऋक्, यजुः, और साम करकें देखा जाता हैं क्योंकि आरम्भ में वेद तीन थे,
अब जरा एक दृष्टि (अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्०) ~मनुस्मृति {१/२३} इस श्रुति पर डालिये स्वामी जी इसका अर्थ सत्यार्थ प्रकाश में यह लिखते हैं कि "जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग् यजुः साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया" इस श्रुति का सही अर्थ हम पूर्व ही लिख आये हैं, इस श्रुति से स्वामी जी का अर्थ किंचित् मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता, स्वामी निर्बाधानंद जी का यह कथन कि अग्नि वायु सुर्य और अंगिरा से चारों वेद ब्रह्मा जी को प्राप्त हुए, यही सिद्ध कर देता है कि स्वामी जी में बुद्धि की कितनी कमी थी, जबकि वेदादि शास्त्रों से यह प्रमाण है कि आदि में सृष्टि रचना की इच्छा से प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए और उन्हीं से वेद प्रकट हुए,
(दयानंदी)- इस बात में क्या प्रमाण है कि सृष्टि के आरम्भ में प्रथम ब्रह्मा जी प्रकट हुए? और उनसे ही अग्नि, वायु, सूर्य आदि देवों और अंगिरा ने वेद प्राप्त किये।
(समीक्षक)- इस बात में बहुत से प्रमाण है प्रथम हम आपको मनुस्मृति से ही प्रमाण लिखते हैं देखिए (अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्०) ~मनुस्मृति {१/२३} इस श्रुति से पहले यह श्रुति है जिसका अर्थ यह है कि-
तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम्।
तस्मिञ्जज्ञे स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः॥ ~मनुस्मृति {१/९}
सहस्रों सूर्यों के समान चमकीले अंडरूप प्रकाशयुक्त ज्योति पिण्ड (हिरण्यगर्भ) से सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, इससे यह सिद्ध होता है कि आदि में ब्रह्मा जी सबसे प्रथम उत्पन्न हुए और सब लोकों की सृष्टि ब्रह्मा जी ने ही की, सुनिये अथर्ववेद में भी स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि-
 
ब्रह्मज्येष्ठा सम्भृता विर्याणि ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमा ततान।
भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः॥ ~अथर्ववेद {१९/२२/२१}
(भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे) अर्थात सबसे प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, दयानंद तथा उनके कम अक्ल नियोगी चमचों को आखँ देखना चाहिए यह वेद वचन ही है इसमें स्पष्ट लिखा है कि आदि में सबसे प्रथम ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए, वही सब लोकों को रचने वाले वही सबसे श्रेष्ठ है देखिये यजुर्वेद में ब्रह्मा जी की उत्पत्ति के बारे में इस प्रकार कथन है कि--
हिरण्यगर्भः सम् अवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिर् एक ऽ आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्याम् उतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥~यजुर्वेद {१३/४}
सृष्टि के प्रारम्भ में हिरण्यगर्भ पुरुष (प्रजापति ब्रह्मा) सम्पूर्ण ब्रह्मांड के एक मात्र उत्पादक और पालक रहे, वही स्वर्ग अंतरिक्ष और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, उस प्रजापति के लिए हम आहुति समर्पित करते है। और सुनिये मुंडकोपनिषद में भी इस प्रकार कथन है कि-
 
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्॥२॥ ~मुंडकोपनिषद {१/१/१-२}
सब जगत के बनाने वाले ब्रह्मा जी सब देवों में सर्वप्रथम उत्पन्न हुए, उन्होंने वह वेद विद्या जिसके सब विद्या आश्रय है अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व ऋषि को पढाई, अथर्व ने वह ब्रह्मविद्या अंगी ऋषि को पढाई, अंगी ने वह वेद विद्या ऋषि भारद्वाजवंशीय सत्यवाह को पढाई और सत्यवाह ने वह वेद विद्या अंगिरा ऋषि को पढाई, धन्य स्वामी मुर्खानंद जी आपकी बुद्धि, इस श्रुति में तो अंगिरा ऋषि को शिष्य परम्परा करके ब्रह्मा जी का चतुर्थ शिष्य गिना है, और स्वामी जी लिखते हैं कि अंगिरा ने ब्रह्मा जी को अथर्ववेद पढ़ाया, हद हो गई हुतियापंति की, न जाने स्वामी हुतियानंद जी ने इस कथन से अपना क्या लाभ समझा है, सुनिये क्योकि ब्रह्मा जी ने प्रथम वेद विद्या का उपदेश अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को किया, अथर्व ने अंगी को, अंगी से सत्यवाह को, और शिष्य परम्परा से सत्यवाह से वह वेद विद्या अंगिरा को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात अंगिरा ऋषि ने इन वेदों के अभिचार और अनुष्ठान वाली कुछ ऋचाओं को अलग करकें चतुर्थ वेद की रचना की, क्योकि अथर्व ऋषि से वह वेद विद्या शिष्य परम्परा से होती हुई अंगिरा ऋषि को प्राप्त हुई इसलिए अथर्व ऋषि के नाम पर ही इसका नाम अथर्ववेद पड़ा, और अथर्ववेद को बृहदारण्यकोपनिषद्, ब्राह्मणादि ग्रंथों में कुछ एक स्थान पर अथर्वअंगिरस कहा है उसका कारण यह है कि मुंडकोपनिषद के वचनानुसार प्रथम ब्रह्मा जी के पुत्र अथर्व से वेद विद्या जो शिष्य परम्परा से होती हुई अंगिरा को प्राप्त हुई, इसी कारण इसे कुछ एक स्थान पर अथर्वअंगिरस कहा गया है
और देखिये मनुस्मृति से भी यही सिद्ध होता है कि अंगिरा ऋषि बाद में उत्पन्न हुए देखिये--
 
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत्।
अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः॥३२॥
तपस्तप्त्वासृजद्यं तु स स्वयं पुरुषो विराट्।
तं मां वित्तास्य सर्वस्य स्रष्टारं द्विजसत्तमाः॥३३॥
अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम्।
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश॥३४॥
मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च॥३५॥ ~मनुस्मृति {१/३२-३५}
३२ से ३५ तक के इन श्लोकों का आशय यह है कि "संसार की वृद्धि के अर्थ ब्रह्मा जी ने एक स्त्री और पुरुष को उत्पन्न किया, उनसे प्रथम विराट, विराट से मनु और मनु से दस महर्षि मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्तय, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु, नारद उत्पन्न हुए, अब क्योकि अंगिरा ब्रह्मा जी की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न हुए और वेदादि ग्रंथों से भी सिद्ध हुआ कि ब्रह्मा जी सृष्टि के आरम्भ में प्रथम उत्पन्न हुए, इससे यह सिद्ध हुआ कि अग्नि वायु सूर्यादि देवता सृष्टि के अन्तर्गत उत्पन्न हुए, इससे स्वामी जी का यह कथन कि अग्निादि देवों ने ब्रह्मा जी को वेद प्राप्त करायें यह कथन असंगत है, देखिये सृष्टि के आदि से ही वेद ब्रह्मा जी के पास थे देखिये मनु में इस प्रकार कथन है कि--
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक्।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे॥ ~मनुस्मृति {१/२१}
ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में सबके भिन्न-भिन्न नाम और कर्म आदि वेद शब्दों से अर्थात वेद अनुसार व्यवस्था करकें गौ जाति का नाम गौ, अश्व जाति का नाम अश्व, मनुष्य जाति का नाम मनुष्य रखा, जब सबके नाम और कर्म वेद अनुसार व्यवस्था करकें बनायें तो निश्चय है कि अग्नि का नाम अग्नि, वायु का वायु और सूर्य का नाम सूर्य वेद से  ही ब्रह्मा जी ने रखा हो, या फिर स्वामी जी बताये कि वह कौन सा वेद था? कि सब सृष्टि के आदि में अग्नि की अग्नि संज्ञा, वायु की वायु, सूर्य की सूर्य संज्ञा होने से पहले ब्रह्मा जी के पास था, जिससे उन्होंने सबके नाम रखें, इससे यही सिद्ध होता है कि सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी के पास वेद थे, यदि वेद इन तीनों पर आते तो  वही सबके नाम कर्म आदि की व्यवस्था वेदानुसार करते, और सुनिये
कर्मात्मनां च देवानां सोऽसृजत्प्राणिनां प्रभुः।
साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञं चैव सनातनम्॥२२॥
~मनुस्मृति {१/२२}
इसके पश्चात सब प्राणियों के प्रभु ब्रह्मा जी ने कर्म स्वभाव रखने वाले अग्नि वायु आदि देवताओं के समूह, साध्यों का समूह और सनातन यज्ञ आदि की सृष्टि की, इस श्लोक में प्रभु शब्द ब्रह्मा जी का विशेषण हैं अर्थ उसका जनक अर्थात उत्पन्न करने वाला पिता है, इससे यही विदित होता है कि अग्नि आदि की गणना भी इसी देवगण में है इससे बाहर नहीं है, इसके बाद (अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्०) मनुस्मृति का यह २३ वाँ श्लोक हैं इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी इन तीनों देवताओं को देवगण की सृष्टि के संग उत्पन्न किया, और फिर वेदानुकूल उन सबके नाम रखें, अब जबकि इनकी उत्पत्ति और नाम रखने से पहले ब्रह्मा जी के पास वेद थे तो फिर यह कैसे संभव है कि अग्नि आदि ने ब्रह्मा जी को वेद पढाये, इससे स्वामी जी का यह कपोल कल्पित मत भ्रष्ट होता है, अब आगे सुनिये,
इसके आगे दयानंद जी प्रश्न सम्बन्ध से लिखते हैं,
(प्रश्नकर्ता) उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया अन्य में नहीं, इससे ईश्वर पक्षपाती होता है।
अब स्वामी का उत्तर सुनिये स्वामी जी इसका उत्तर यो देते हैं कि "वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रत्मा थे, अन्य उन के सदृश नहीं थे, इसलिये पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया"
यहाँ स्वामी जी स्वयं ही प्रश्नकर्ता है और स्वयं ही उत्तर देने वाले, स्वामी जी का यह कथन अबोध बच्चों का सा जान पड़ता है देखिये जबकि वेदादि शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि--
 
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥ ~ऋग्वेद {१०/१२९/१}
(तदानीं)- महाप्रलय काल में, (असत्)- अपरा माया, (न)- नहीं थी, (सत्)- जीव भी, (नो)- नहीं, (आसीत्)- था, (रज:)- रजोगुण भी, (न)- नहीं, (आसीत्) था, (यत्)- जो, (व्योम)- आकाश तमोगुण, (अपर:)- सतोगुण, (नो)- नहीं था, (कुहकस्य)- इन्द्रजाल रूप, (शर्मन्)- ब्रह्मांड के चारों ओर जो, (आवरीव:)- तत्व समूह का आवरण होता है, (तत्) (किं) (नकिमप्यासीत्)- वह भी नहीं था, (गहनंगभीरं)- गहन गंभीर, (अंभ:)- जल, (किं आसीत्)- क्या था? अर्थात नहीं था
 
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास॥
~ऋग्वेद {१०/१२९/२}
(तर्हि)- उस समय, (मृत्यु)- मृत्यु, (न) नही, (आसीत्)- थी, और (अमृतं)- अमृतत्व अर्थात जीवन भी, (न)- नही, (आसीत्)- था, (रात्र्या: अह्न:)- रात और दिन का, (प्रकेत:)- ज्ञान, (न आसीत्)- नही था, सिर्फ (स्वधया)- अपनी परा शक्ति से, (एकं)- अभिन्न एक, (तत्)- ब्रह्म ही, (आसीत्)- था, (तस्मात् ह)- उस सर्वशक्तिमान से, (अन्यत्)- अन्य, (किंच)- और कुछ भी, (न)- नही, (आसीत्)- था।
अब विचारने की बात है जबकि सृष्टि रचना के पूर्व एक ब्रह्म के अलावा जब कुछ भी नहीं था, और फिर सब कुछ उससे ही उत्पन्न हुआ, मनुस्मृति के श्लोक २१, २२ के अनुसार सब प्राणियों की सृष्टि कर वेदानुकूल भिन्न भिन्न कर्म स्वभाव के अनुसार उनके नाम रखें, तो फिर सृष्टि के आरम्भ में कोई आत्मा पवित्र और कोई कम पवित्र किस प्रकार हुआ? दरअसल यह बात स्वामी जी के कपोल भंडार से उत्पन्न हुई है यह स्वामी जी की मिथ्या कल्पना है, देखिये इसका उत्तर तो हम पूर्व ही लिख आये हैं, जैसा कि वेद, उपनिषद, मनुस्मृति और ब्राह्मणादि ग्रंथों से सिद्ध होता है कि आदि में सृष्टि रचना की इच्छा से हिरण्यगर्भ रूप स्वर्णयुक्त आभा से प्रथम सब जीवों के पितामह ब्रह्मा जी प्रकट हुए तत्पश्चात उन्होंने अग्नि वायु सूर्य आदि की सृष्टि करकें अग्नि आदि सहित अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को वेद विद्या का उपदेश करते हुए उन्हें यह दायित्व सौंपा की संसार की वृद्धि के साथ साथ इस वेद विद्या का उपदेश प्रजा को करें, इस तरह स्वयं ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्व को यह वेद विद्या पढाई, और अथर्व ऋषि ने अंगी को, अंगी ने सत्यवाह को, और सत्यवाह से  यह वेद विद्या अंगिरा ने पढ़ी, इस प्रकार गुरु शिष्य की परम्परा से निरन्तर वेद विद्या का प्रकाश प्रजा में  होता आया है, और इस गुरु शिष्य की परम्परा की शुरुआत स्वयं परम पिता ब्रह्मा जी ने की है, इससे ईश्वर में पक्षपात की बात नहीं आती, दयानंद एवं उनके नियोगी चैलों को यह बात समझनी चाहिए, यह बात किसी अन्य के मन में नहीं स्वयं स्वामी जी के मन में ही आयी होगी, जो उन्होंने प्रश्न सम्बन्ध से कल्पना करके यहाँ लिख दी है, और सुनिये,
इसके बाद स्वामी जी फिर से प्रश्न सम्बन्ध से बिना सर पैर की बात लिखते हैं देखिए-
(प्रश्नकर्ता) किसी देश-भाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्यों किया?
स्वामी जी इसका उत्तर यह लिखते हैं कि "जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता, क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उन को सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने की होती, इसलिये संस्कृत ही में प्रकाश किया, जो किसी देश भाषा नही और अन्य सब देशभाषाओं का कारण है, उसी में वेदों का प्रकाश किया"
यहाँ प्रश्नकर्ता और उसका उत्तर देने वाला दोनों ही अव्वल दर्जे के चुतिया है, अब चाहे यह प्रश्न स्वामी जी ने स्वयं कल्पना किया हो या फिर किसी और ने  की  हो, क्योकि ऐसी बिना सर पैर की बात तो कोई गधा भी नहीं करेगा, अब यहाँ स्वामी जी से कोई यह पूछे कि सृष्टि के आरम्भ में कुल कितने देश थे और उनमें कुल कितनी भाषायें बोलीं जाती थी, स्वामी जी का यह लेख पढ़कर तो ऐसा विदित होता है जैसे स्वामी जी अपने जन्म से ही सृष्टि का आरम्भ मानते हैं इसलिए अपने लेख में वेदों के प्रकट होने से पूर्व अनेक देश और भाषाओं का होना लिखते हैं और लेख तो ऐसे लिखा है जैसे मानों वेद प्रकट करने से पहले स्वयं ईश्वर स्वामी जी के पास आकर बोलें हो कि स्वामी जी आप पहले क्यों नहीं उत्पन्न हुए? देखिये अब कितने देश उत्पन्न हो गये और कितनी भाषायें बोलीं जाने लगीं अब आप बतायें की मैं वेदों का प्रकाश किस भाषा में करूँ अंग्रेजी, फारसी, उर्दू या फिर संस्कृत में और स्वामी जी के सुझाव पर अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं में न करके संस्कृत भाषा में किया, जिसे स्वामी जी ने अपने लेख में कथन किया है, शोक हे! ऐसी बुद्धि पर, सृष्टि के आरम्भ में अनेक देश और भाषाओं की बात कल्पना करने से ही स्वामी जी की बुद्धि का पता चलता है, कोई बड़ा से बड़ा चुतिया भी इससे ज्यादा समझदारी वाली बात करता होगा,
जैसा कि दयानंद ने भी यह माना कि संस्कृत सब भाषाओं का कारण है, संस्कृत से ही सब भाषा उत्पन्न हुई, तो क्या इससे यह सिद्ध नहीं हुआ कि प्रथम संस्कृत भाषा ही पठन पाठन और बोल चाल की भाषा थी, लेकिन स्वामी जी के इस लेख पर दृष्टि डालने पर इसका यह आशय निकलता है कि स्वामी जी के मतानुसार आदि सृष्टि में न केवल अनेक देश थे बल्कि उनमें अनेक भाषाएँ भी बोली जाती थी, और फिर स्वयं यह भी लिखा कि संस्कृत सब भाषाओं का कारण है, धन्य हे! स्वामी मुर्खानंद जी आपकी बुद्धि, ऐसा परस्पर विरुद्ध बातों से भरा लेख आपके सिवाय कोई अन्य नहीं लिख सकता, जब संस्कृत सब भाषाओं का कारण है तो संस्कृत जानने से पूर्व अनेक भाषाएं कैसे उत्पन्न हो गई, और जब वेद सृष्टि के आरम्भ में प्रकट हुए, वेद शब्दों से ही गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार सबके नाम रखें गये, तो उससे पूर्व अनेक देशों और भाषाओं की कल्पना कहाँ से कर ली? बोलिए स्वामी निर्बोधानंद जी, वेद प्रकट होने से पूर्व अनेक देश और भाषाओं का होना यह किस मंत्र भाग में पढ लिया, इसी दो कौड़ी की बुद्धि पर स्वामी जी अपने आपको वेदों का ज्ञान समझते हैं।

॥इति चुतियार्थप्रकाश सप्तम् समुल्लासस्य खंडनम् समाप्तम्॥



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