चुतियार्थ प्रकाश,
सत्यानाश प्रकाश,
सत्यार्थ प्रकाश का कच्चा चिठा
सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत षष्ठ समुल्लास की समीक्षा | Shasth Samullas Ki Samiksha
सत्यार्थप्रकाशान्तर्गत
षष्ठसमुल्लासस्य खंडनंप्रारभ्यते
॥राजधर्म
प्रकरण॥
इस
समुल्लास में दयनांद ने राजधर्म की व्याख्या की है इसमें सब ही श्लोक मनुस्मृति से
लिखें है जो प्राचीन समय से आज तक सब लोग मानते चले आए हैं इसमें कोई मत विषयक चर्चा
नहीं है, परन्तु इसमें दयानंद ने कुछ बातें ऐसी लिखीं हैं जो धर्म विरूद्ध हैं और कुछ
ऐसी भी लिखीं हैं जो यहाँ तो मानी है पर अन्यत्र नहीं मानी सो आपको दिखलाते है
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ १०५,
❝इस सभा में चारों वेद, न्यायशास्त्र,
निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों❞
,,,,,,,जो
विशेष देखना चाहें वेद, मनुस्मृति, शुक्रनीति तथा विदुरप्रजागर और महाभारतादि में देखकर
निश्चय करें प्रजा का व्यवहार मनुस्मृति के सप्तम, अष्टम, नवम अध्याय से करें❞
समीक्षक—
क्यों स्वामी जी यहाँ वह प्रण छूट गया कि हम वेदानुसार ही मानेंगे, जब वेदानुसार ही
मानते हो तो मनुस्मृति से लिखने की क्या आवश्यकता थी सब वेद से ही लिख दिये होते, इससे
पता चलता है कि मनुष्यों का व्यवहार, राजधर्म आदि सब धर्मशास्त्रों से ही होता है इससे
उसका यथावत मानना ही बनेगा, वेदानुसार का मानना बन नहीं सकता यदि वेदानुसार है तो बताओ
यह राजधर्म कौन सी श्रुति से निकाला है यह साक्षी पूछना, दंड विधान आदि कहां के है,
इससे अपने विषय में धर्मशास्त्र ही स्वतः प्रमाण है
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ १०८,
❝और कुलीन, अच्छे प्रकार सुपरीक्षित,
सात वा आठ मन्त्री करे॥१॥
,,,,,,,जो
प्रशंसित कुल में उत्पन्न हुआ हो उसे दूतपने में नियुक्त करें❞
समीक्षक—
यहाँ स्वामी जी ने जन्म से जाति होना स्वीकार किया है दयानंद के कथनानुसार यदि शूद्र
सम्पूर्ण गुणों से युक्त भी हो तो वह दूत बनाने योग्य नहीं किन्तु जिसका कुल भी श्रेष्ठ
हो ऐसे पुरुषों को ही मंत्री और दूत बनावें, अब क्योकि कुलीनता तो जन्म से ही होती
हैं अन्यथा नहीं,
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ १०९,
❝बड़े उत्तम कुल में उत्पन्न
सुन्दर लक्षणयुक्त अपने क्षत्रियकुल की कन्या जो अपने सदृश गुण कर्म में हो उससे विवाह
करें❞
समीक्षक—
यहाँ भी दयानंद जाति ही उत्तम मानते हैं, स्वामी जी लिखते हैं कि जो क्षत्रिय कन्या
बड़े उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो, उससे विवाह करें, और जो नीच कुल की पढ़ी लिखीं गुणवान
कन्या हो उससे विवाह करना नहीं लिखा, यहाँ भी जाति ही प्रधान मानी है,
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ १११,
❝जो उस की प्रतिष्ठा है जिस
से इस लोक और परलोक में सुख होने वाला था उस को उस का स्वामी ले लेता है
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ ११७,
,,,,,,जो
साक्षी सत्य बोलता है वह जन्मान्तर में उत्तम जन्म और उत्तम लोकान्तरों में जन्म को
प्राप्त होके सुख भोगता है❞
समीक्षक—
यहाँ दयानंद जीव का पृथ्वी के अलावा अन्य लोकों में जाना स्वीकार करते हैं, अब जब तुमने
लोकान्तर में जीव की गति मानीं फिर न जाने क्यों स्वर्ग लोक मानने से भयभीत होते हों
शायद इस कारण क्योकि स्वर्ग लोक में तो केवल पुण्यात्मा प्रवेश करते हैं पक्षपाती वा
अधर्मीयों का वहाँ प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए तुमने सोचा हमें तो वहाँ जाना ही नहीं सो लिख दिया कि स्वर्ग ही
नहीं है
सत्यार्थ प्रकाश षष्ठ समुल्लास
पृष्ठ १११,
❝रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं
धान्यं पशून्स्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि
कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥११॥
इस
व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी,
छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल
आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे❞
समीक्षक—
वाह रे सत्यार्थ प्रकाश लिखने वाले जिहादी भंगेडानंद वाह! क्या यही है तुम्हारी बुद्धि,
यही है तुम्हारा धर्म?
क्या
लूटपाट के उद्देश्य से लडा गया युद्ध , शत्रुओं की धन संपदा और उनकी स्त्रियों का भोग
करना धर्मानुकूल और वेद सम्मत है?
यदि
मनुस्मृति तुम्हारी समझ से बाहर है तो फिर क्यों इसके अर्थ का अनर्थ करते हो? जहाँ
आशय 'मादा पशु' से है तुमने वहाँ पशु अलग और स्त्री अलग कर दिया, स्त्री को लूटने वाली
वस्तु बना दिया, वाह रे भंगेडानंद वाह! क्या यही है तुम्हारी बुद्धि?
क्या
तुम्हारे अनुसार लूटपाट के उद्देश्य से लडा गया युद्ध, धन संपदा, पशुादि की भाँति स्त्रियों
को लूटना आदि धर्मानुकूल है?
खेर
इस प्रकार का निच कर्म तो स्वामी जी तुम जैसे मंद बुद्धि, धूर्त को ही शोभा देता है,
आपके इस लेख और कुरान की सूरा अनफ़ाल की आयत ६९ में कोई ज्यादा अन्तर नही है,
فَكُلُواْ مِمَّا غَنِمْتُمْ حَلَٰلًا طَيِّبًا وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
(الأنفال - ٦٩)
और
जो कुछ ग़नीमत(लूट) का माल तुमने प्राप्त किया है, उसे वैध-पवित्र समझकर खाओ और अल्लाह
के आज्ञाकारी बनकर रहो, (सूरा- अनफ़ाल, आयत ६९)
और
तुम भी कुछ इसी प्रकार की सोच रखते हों कि- "जो-जो लड़ाई में धन-धान्य, स्त्रियां
आदि लूटें वही उस-उस का ग्रहण करे"
यहाँ
तुम्हारा यह सिद्धांत तेल लेने चला गया कि जो वेदानुसार है वही हमें मान्य है इससे
ही पता चलता है कि तुम कितने वैदिक और कितने जिहादी मानसिकता के हो, वेद तो सिर्फ बहाना
है तुम्हारा मत तुम्हारी बुद्धि है
तुम
तो इस्लाम से भी २ कदम आगे निकल गए, अपने चेलों को लडाई में जीती हुई स्त्रियों को
लूट के माल कि तरह बांटने की शिक्षा करते हों शोक है ऐसी बुद्धि पर, स्वयं को वैदिक
, वैदिक कहते नहीं थकनें वाले नियोग समाजीयों दयानंद के इस लेख के बारे में क्या कहना
चाहोगे ?? पहले ग्यारह ग्यारह स्त्रीयों से भोग करना सिखाया और जब इतने से भी कामग्नि
शान्त न हुई तो स्त्रीयों को लूटने की शिक्षा दे ड़ाली, तुम्हारे भगवान दयानंद तो मुहम्मद
साहब से भी दो कदम आगे निकल गये, लड़ाई में स्त्रियाँ लूटने और बाटने की बात कर रहे
हैं,
स्वामी
जी की मानसिकता और इस्लाम की मानसिकता में कोई ज्यादा अंतर नहीं रहा, जो दयानंद लड़ाई
में स्त्रियों को लूटने और बाटने की बात करता है वो इतना भी नहीं जानता कि इस प्रकार
का निच कर्म धर्मानुकूल है या फिर वेद विरुद्ध, वो कितना बड़ा ज्ञानी होगा ये बताने
की आवश्यकता नहीं है, खेर यह सब दयानंद की बुद्धि में भरे गोबर का नतीजा है
ये
देखिए मनुस्मृति में क्या कहा गया है--
रथाश्वं
हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि
कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥
अर्थात-
राजा द्वारा युद्ध मे शत्रुओं के रथ, घोडे, हाथी, छत्र, धन-धान्य, मादा पशु तथा घी-तेल
आदि जो कुछ भी जीता गया है, उचित है कि, वह सब राजा उसी प्राजा को वापस कर दे (जिस
राज्य को उसने जीता है)
देखिए
मनु जी क्या लिखते है-
जित्वा
संपूजयेद्देवान् ब्राह्मणांश्चैव धार्मिकान्।
प्रदद्यात्परिहारार्थं
ख्यापयेदभयानि च॥१॥
सर्वेषां
तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम्।
स्थापयेत्तत्र
तद्वंश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम्॥२॥
प्रमाणानि
च कुर्वीत तेषां धर्मान् यथोदितान्।
रत्नैश्च
पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह॥३॥
पार्ष्णिग्राहं
च संप्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले।
मित्रादथाप्यमित्राद्वा
यात्राफलमवाप्नुयात्॥४॥
हिरण्यभूमिसंप्राप्त्या
पार्थिवो न तथैधते।
यथा
मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्॥५॥
-मनुस्मृति
[७/२०१-२०३, ७/२०७-२०८]
राजा
द्वारा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद उसे देवताओं तथा धर्मात्मा ब्राह्मणों
की पुजा कर, युद्ध से प्रजा के जिन लोगों की अन्न-धन एवं जल की हानि हुई हो, उसकी पूर्ति
करनी चाहिए तथा प्रजा को अभय का विश्वास देना चाहिए॥१॥, विजयी राजा को चाहिए कि वह
पराजित राजा तथा उसके मंत्रियों के मनोरथ को जानकर, पराजित हुए राजा या उसके वंश में
जन्मे योग्य पुरूष को राजगद्दी पर बैठा दे । वह पराजित राज्य में जो नियम, कानून, निषेध
आदि प्रचलित हों उन पर स्वीकृति की घोषणा करवा दें ॥२॥, विजेता राजा को चाहिए कि वह
युद्ध में हारे हुए राजा के राज्य में जो धर्माचार प्रचलित हो उनकी मान्यता की घोषणा
करवा दें । राजा अपने प्रमुख मंत्रियों के साथ पराजित राजा को राज्य पर अभिषिक्त कर
उसे रत्न आदि भेंट में प्रदान कर॥३॥, विजेता राजा तथा उसके सहायकों को पराजित राजा
से यात्रा का फल, मित्रता आदि बहुमूल्य उपहार प्राप्त करना चाहिए ॥४॥, क्योकि किसी
से सोना अथवा भूमि लेकर राजा उतना शक्तिशाली नहीं बनता, जितना की मित्रता प्राप्त कर
बनता है। दुर्बल से दुर्बल राजा भी मित्रता से बलवान बन जाता है॥५॥
अर्थात
राजा को क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अपने प्राजा के हित में, दो राज्यों के मध्य
शांति बनाए रखने के लिए उचित है कि वह शत्रु राजा को अपना मित्र बना लें, और ऐसे शत्रु
को कभी न मारे जो वाहन से उतरकर खड़ा हो, नपुंशक हो, हाथ जोड़कर धरती पर बैठा हो, जो
कहें कि मैं तुम्हारी शरण में हूँ, बिना शस्त्र धारण किए, लडने के अनिच्छुक, जो विपत्ति
में हो, दुखी हो, घायल हो, भयभीत हो अथवा युद्ध छोड़ कर भाग रहा हो।
वीर
क्षत्रिय राजा पराजित राजा की प्रजा के साथ भी उसी प्रकार व्यवहार करें जैसा वह अपनी
प्रजा के साथ करता है, और प्रथम तो स्वामी जी से यह पूछना है की यहाँ तुम्हारा वो प्रण
कहाँ चला गया जो तुमने तीसरे समुल्लास में लिया कि “जो-जो वेद में करने और छोड़ने की
शिक्षा की है उस-उस का हम यथावत् करना, छोड़ना मानते हैं, इसलिए वेद हम को मान्य है
इसलिये हमारा मत वेद है” वेद में तो ऐसा करना कहीं नहीं लिखा, बल्कि यह नीच कर्म तो
वेद विरुद्ध है, फिर तुमने यह वेद विरुद्ध लेख क्यों लिखा ? इससे सिद्ध होता है कि
तुम्हारा मत वेद नहीं बल्कि तुम्हारी बुद्धि ही तुम्हारा मत है,
देखें
पहले तो लोगों से धन ऐठने को मनु के नाम से फर्जी श्लोक बनाकर सन्यासी को स्वर्णादि
धन देने को लिखा, और अब स्त्रीयों को लूटने की बात इससे ही पता चलता है कि दयानंद कितने
बडे वैदिक है जो कर्म धर्मशास्त्रों मे महापाप बताया गया है उसे यह व्यक्ति धर्म का
अंग बताता है
खेर
ये सब बातें जिहादी दयानंद की समझ से बाहर है।
दयानंद
बचपन से ही मुस्लिमों कि ही भांति कट्टरपंथी विचारधारा वाले थे, निराकार की उपासना,
मुर्ति पुजा का विरोध, सनातन धर्म से अलग अपना अलग मत बनाना, सनातनी देवी देवताओं अपने
माता पिता, पूर्वजों आदि का अपमान करने वाले,अपने बाप तक को धूर्त, पाखंडी, मुर्ख बोलने
वाले, वेद विरोधी, धर्म विरोधी, ऋषि कृत ग्रंथों का अपमान करने वाले, ब्रह्मणादि ग्रंथों
तक मे वेद विरूद्धता ठहराने वालें, नशेडी, गंजेडी, भंगेडी, ब्राह्मण सन्यासी होते हुए
भी लाश की चिर फाड जैसा निच कर्म करने वाले, लूटपाट के समर्थक, भारतवर्ष की समस्त स्त्रियो
का अपमान करने वाले, एक स्त्री के ग्यारह पति बताकर उनके पतिव्रत धर्म को खंडित करने
वाले, स्त्रियों को लूटने बाटने की वस्तु समझने वालें, अपना मत दुसरों पर थोपने वाले,
अपने मत से भिन्न सभी मतों का अपमान करने वाले आदि आदि, ऐसे धूर्त व्यक्ति से ऐसे ही
लेख की उम्मीद की जा सकती है
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ १११,
❝लोभात्सहस्रं दण्ड्यस्तु मोहात्पूर्वन्तु
साहसम्।
भयाद्
द्वौ मध्यमौ दण्ड्यौ मैत्रत्पूर्वं चतुर्गुणम्॥३॥
जो
लोभ से झूठी साक्षी देवे उस से १५॥=)(पन्द्रह रुपये दश आने) दण्ड लेवे, जो मोह से झूठी
साक्षी देवे उस से ३=) (तीन रुपये दो आने) दण्ड लेवे, जो भय से मिथ्या साक्षी देवे
उस से ६।) (सवा छः रुपये ) दण्ड लेवे और जो पुरुष मित्रता से झूठी साक्षी देवे उससे
१२॥) (साढ़े बारह रुपये) दण्ड लेवे❞
समीक्षक—
वाह रे स्वामी मुर्खानंद वाह! क्या दिमाग पाया है तुमने, मनु के समय में रूपये चला
दिए, धन्य हे तुम्हारी दो कोड़ी की बुद्धि, प्रथम तो कोई इन मुर्खानंद महाशय जी से यह
पूछे की इन्होंने यह पन्द्रह रूपये दस आने, तीन रूपये दो आने, सवा छ: रूपये, और ये
साढ़े बारह रूपये का दण्ड किन पदों से निर्धारित किया, और कौन सी गणित विद्या लगाकर
यह दण्ड की धनराशि निर्धारित की, या फिर ऐसे ही मूहँ में जो भी अंड संड आया सो बक दिया,
और वर्तमान में इस १५, ३, ६ और १२ रूपयों की औकात क्या है? १५ रूपये में तो व्यक्ति
के एक समय का भोजन भी न आवें, और झूठ बोलने के लिए इतना मजेदार दण्ड आज तक किसी ने
नहीं सुनाया होगा, जब १५ रूपये, ३ रूपये, ६ रूपये और १२ रूपये में झूठ बोलने की पूर्ण
आजादी मिल रही है तो फिर लोभ और मोह के वशीभूत हो सभी झूठ ही बोलने लगे? क्योकि वे
जानते हैं कि यदि उनका झूठ पकड़ा भी जाता है तो वह १२ या १५ रूपये का साधारण सा दण्ड
देकें छूट जावेंगे, लोगों में कुछ भय ही न रहेगा, स्वामी जी के इस कल्पित दण्ड विधान
के चक्कर में झूठी गवाही देने से न जाने कितने निर्दोष मनुष्यों का जीवन ही समाप्त
हो जाए, यह स्वामी जी झूठ रोकने को नहीं बल्कि झूठ की, अधर्म की उन्नति के अर्थ यह
दण्ड की धनराशि कल्पना की है इसका अर्थ इस प्रकार है-
लोभात्सहस्रं
दण्ड्यस्तु मोहात्पूर्वं तु साहसम्।
भयाद्द्वौ
मध्यमौ दण्डौ मैत्रात्पूर्वं चतुर्गुणम्॥
लोभ
के वश में झूठी गवाही देने वाले साक्षी को 'हजार पणों (पण अर्थात तत्कालीन स्वर्ण मुद्राएं)’
का दण्ड देना चाहिए मोह के वशीभूत हो असत्य बोलने वाले साक्षी को प्रथम साहस अर्थात
ढ़ाई सौ पणों (स्वर्ण मुद्राओं) का, भय के वश मे आकर असत्य बोलने वाले साक्षी को दो
मध्यम साहस अर्थात पांच सौ स्वर्ण मुद्राओं का दण्ड और मित्रता के कारण असत्य बोलने
वाले साक्षी को प्रथम साहस का चारगुना अर्थात हजार स्वर्ण मुद्राओं का दण्ड देना चाहिए
और
यहीं नियम उचित भी है इससे मनुष्यों के अंदर यह भय हमेशा बना रहेगा कि यदि वह झूठी
गवाही देगा तो उसे बड़े भारी दण्ड का भागी बनना होगा, अब विद्वान लोग स्वयं विचारें
हम सभी जानते हैं कि पुराने समयों में केवल
चांदी या स्वर्ण की मुद्राएं चलती थी, सो ऐसे में दयानंद का १५रूपये, १२ रूपये
जैसी साधारण धनराशि दण्ड के रूप में निर्धारित करना कहाँ की समझदारी है यह झूठ बोलने
वाले साक्षी के लिए सजा लिखा है या फिर मजा ? अब यदि किसी साक्षी को झूठ बोलने को कोई
हजारों, लाखों रूपये का लालच दे तो भला वह
झूठ बोलने से पीछे क्यों हटेगा क्योकि वह यह बात अच्छी प्रकार जानता है यदि उसका झूठ
पकड़ा भी गया तो अधिकतम १५ रूपये का साधारण सा दण्ड भरके वह बच जावेगा कम से कम दयानंद
ने (सहस्र) इस पद का अर्थ तो ठीक लिख दिया होता सहस्र का अर्थ पन्द्रह रूपये दस आने
न जाने दयानंद ने यह अर्थ किस शब्दकोश से निकाला, स्वामी जी इसी खूबी के कारण तो उनका
एक नाम धूर्तानंद है शायद स्वामी जी ने यह १२ और १५ रूपये का दण्ड इसलिए रखा क्योंकि
वे जानते हैं कि यदि इस धरती पर सबसे अधिक झूठ बोलने वाला कोई व्यक्ति है तो वे स्वयं
है, और उनके बाद उनके चैले झूठ बोलने की परंपरा को चलावेगें इसलिए स्वामी जी ने सोच
समझकर अपने चेलों के हित में यह स्वकल्पित नियम बनाया इस कारण दयानंद का यह लेख अशुद्ध
है
सत्यार्थ
प्रकाश षष्ठ समुल्लास पृष्ठ १११,
❝जो-जो नियम शास्त्रेक्त न
पावें और उन के होने की आवश्यकता जानें तो उत्तमोत्तम नियम बांधें❞
समीक्षक—
न जाने स्वामी जी अपनी बुद्धि कहाँ रखकर भूल गये, क्यों स्वामी जी तुम तो शास्त्रों
में सब कुछ मानते हो? और जो है नहीं नया बनावोगें, इससे वह वेदों में न होने के कारण
फिर भी वेद विरुद्ध ही होगा, और तुम स्वयं लिखते हो जो वेदों में या वेदानुसार नहीं
वह तुम्हें मान्य नहीं, फिर जो नया बनाओगें तो उसका प्रमाण कैसे होगा? इससे ही पता
चलता है कि जरुरत पड़ने पर तुमने क्या-क्या कल्पना किया होगा? और आगे भी करेंगे जैसे
अब इस वैश्य धर्म नियोग को ही ले लो इसकी क्या जरूरत थी ?, इससे पता चलता है कि पहले
आपने कामग्नि बुझाने को महाव्यभिचार वैश्य धर्म नियोग की कल्पना की, जब इससे भी कामग्नि
शान्त न हुई तो जरूरत पड़ने पर स्त्रीयों को लूटने का नियम बांधा, लोगो से धन ऐठने
को मनुस्मृति के नाम से फर्जी श्लोक गढ़ सन्यासियों को धनादि देने का नियम बांधा इसी
प्रकार जरूरत पड़ने पर अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए और न जाने क्या-क्या कल्पना करोगें,
विद्वान लोग तुम्हारे इस ड्रामे को अच्छी प्रकार समझते हैं
3 comments
धन्यवाद श्रीमानजी
ReplyDeleteधन्यवाद श्रीमानजी
ReplyDeleteमैं आपका फेसबुक पेज से दयानन्द और आर्य समाज के बारे में आश्चर्यजनक जानकारी पढता था , बहुत खेद के साथ आश्चर्य होता था
मैंने अब तक भारत के इतिहास में दयानन्द को समाज सुधारक और एक महान ज्ञानी वेदज्ञ के रूप में जाना , लेकिन आपके तर्कों और जानकारियों और आर्य समाजियों द्वारा ब्राह्मणों पर अत्यंत घ्रीणित स्तर पर आक्रमण करना मुझे बाध्य करने लगे ये सोचने पर कि क्या आर्य समाज वास्तव में बुद्धिजीवी हैं? क्या दयानन्द सरस्वती वास्तव में वेदों के ज्ञाता थे?
फिर सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा , फिर कुछ आर्य समाजियों से डिबेट किया तो उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया
फिर भाग्य से आपका पेज किसी आर्य समाजी के माध्यम से मालूम पड़ा और मुझे अत्यंत ही अद्भुत जानकारी मिली
मैं तो धन्य धन्य हो गया
मैं पुनः पुनः आपको आभार प्रकट करता हूँ
सत्यार्थ प्रकाश पर आपने जो जुठे आक्षेप लगाये है उसका भाण्डा हमने फोड दिया। यह पढे।
ReplyDeletehttps://rushiuvach.blogspot.com/2021/10/satyarth-prakash-sixth-chapter-ladies.html