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दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उनके वेदभाष्यों कि वास्तविकता...

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आर्य समाजीयों का मानना है कि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में प्रकाशित हुआ और १८७५ के आसपास ही दयानंद ने वेदभाष्य भी लिख लिए थे पर दयानंदी स्वंय ये नहीं जानते कि इस बात में ०.००००% भी सच्चाई नहीं है सच्चाई तो ये है कि सच को छिपाने के लिए धूर्त समाजीयों द्वारा लोगों के दिमाग में ये बात भर दी जाती है कि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में और द्वितीय संस्करण १८८२ में छपा पर ये धूर्त समाजी किसी को ये नहीं बताते कि ये संस्करण कब , कैसे और किस मुद्रणालय से छापे गए इसका एक कारण यह भी है कि ९९.९९९९९% समाजीयों को भी ये बात नहीं पता है की सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण कब, कैसे और कहाँ से छपा
ये सच्चाई इसलिए भी छिपाई गईं यदि लोगों को ये सत्य ज्ञात हो जाता की सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण कब कैसे और किस मुद्रणालय से छपा तो आज कोई दयानंद की थूथ पर थुकना भी पसंद नहीं करता
भविष्य में आर्य समाज के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को ध्यान में रखते हुए आर्य समाज द्वारा यह झूठ गढ़ा गया कि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में प्रकाशित हुआ और यहीं नहीं द्वितीय संस्करण के बारे में भी झूठ बोला गया कि वो दयानंद के जीते जी छपा ताकि भविष्य में दयानंद और आर्य समाज पर कोई उंगली न उठे। पर अफसोस कि झुठ बोलते बोलते आर्य समाजी सत्य को भूल झूठ में ही जीने लगें
पर समाजी शायद ये भूल गए कि सत्य को चिल्लाना नहीं पडता और झूठ को हजार बार रटने से वो सत्य में प्रवर्तित नहीं हो जाता ।

अब प्रश्न ये उठता हैं कि यदि सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण १८७५ में नहीं छपा तो फिर कब छपा और दयानंद के वेदभाष्य और सत्यार्थ प्रकाश कि सच्चाई क्या है ???

इसका जबाव हमें आर्य समाज के इतिहास में ही मिलेगा तो आइए एक नजर आर्य समाज के इतिहास पर डालते हैं

सन् १८६० ज्ञान की खोज में लुडकते लुकडकते दयानंद अपने गुरू विरजानन्द के पास मथुरा पहुंचे गुरु विरजानंद जो कि पाचँ वर्ष की उम्र से ही नेत्रहीन थे । (राम मिलाई जोडी, एक अंधा एक कोडी)
यहाँ दयानंद ने 4G की स्पीड से ज्ञान प्राप्त किया और १८६३ में गुरु विरजानंद का आश्रम छोड़ फिर से भारत भ्रमण पर निकल पड़े कुछ वर्ष इसी प्रकार भटकने के बाद आखिरकार दयानंद ने लेखन का काम प्रारंभ किया
सन १८७४ मे मैक्स मुलर ने अपने वेदभाष्य प्रकाशित किए इसके बाद दयानंद ने अपने वेदभाष्य सत्यार्थ प्रकाश आदि पर लेखन का काम प्रारंभ किया
लेखन का कार्य राजा जयकृष्णदकस द्वारा लेखन कार्य के लिए नियुक्त पं० चन्द्रशेखर की सहायता से जून १८७४ को काशी में आरंभ हुआ । यह सहायता इसी रूप में थी कि दयानंद बोलते जाते थे और चन्द्रशेखर जी लिखते जाते थे ।
जब लेखन की सामग्री ज्यादा हो गई तो दयानंद को साहित्य प्रकाशन हेतु मुद्रणालय की आवश्यकता होने लगी, इस कार्य मे दयानंद को आर्य समाज, मुराबाद और आर्य समाज, मेरठ से सहायता प्राप्त हुई । राजा जरकृष्णदास और थियोसोफिकल सोसायटी ने भी कुछ सहायता प्रदान की ।
थियोसोफिकल सोसायटी की मदद से प्रिंटिंग मशीन लंदन से भारत मंगवाईं गईं
और फिर इस प्रकार १२ फरवरी १८८० को लक्ष्मीकुंड स्थित विजयनगराधिपति के उद्यानगृह की छत पर वैदिक यंत्रालय की स्थापना हुई
इस प्रकार १८८१ के आरंभ में ही वैदिक यंत्रालय द्वारा दयानंद के यजुर्वेदभाष्य का प्रकाशन किया गया
उसके एक वर्ष बाद सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण भी वैदिक यंत्रालय प्रयाग द्वारा १८८२ के अंत में प्रकाशित किया गया इसमें कुल ग्यारह समुल्लास थे

दयानंद द्वारा बारहवाँ समुल्लास के लेखन का काम चल रहा था साथ ही दयानंद ऋग्वेद का भी भाष्य कर रहे थे अभी लेखन का काम पूरा भी नहीं हुआ था कि ३० अक्तूबर १८८३ को स्वामी जी वैश्या के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए ।
दयानंद की मृत्यु तक सत्यार्थ प्रकाश का बारहवाँ समुल्लास लिखा जा रहा था और ऋग्वेद के ६ मंडल तक का भाष्य पुरा हो सका था सातवें मंडल के दूसरे सुक्त का भाष्य आरंभ किया था पर वो पुरा न हो सका।
इस प्रकार कुल मिलाकर दयानंद २ वेद का भाष्य भी पुरा न कर पाए
दयानंद की मृत्यु के बाद आर्य समाजीयों का बहुत बुरा हाल हो गया सनातनीयों के बीच दयानंद और आर्य समाज की छवि सनातन धर्म विरोधी बन गई थी आर्य समाजीयों को भविष्य में आर्य समाज के अस्तित्व पर मंडराता खतरा साफ दिखाई दे रहा था
क्योकि दयानंद ने जीते जी अपने तथाकथित ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में सिर्फ और सिर्फ सनातन धर्म ही की निंदा की थी और यही दयानंद का उद्देश्य भी था थियोसोफिकल सोसायटी के साथ अच्छे संबंध होने के कारण दयानंद ने कभी ईसाई और मुस्लिम मत के विरुद्ध कुछ नहीं लिखा।
लोगों के मन में आर्य समाज की छवि सनातन धर्म विरोधी बनकर रह गई थी इससे बचने के लिए दयानंदीयों ने ईसाई और मुस्लिम मत के विरुद्ध २ समुल्लास और तैयार किए
जिसे १८८४ के अंत में वैदिक यंत्रालय द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में छापा गया और एक झूठ गढ़ा गया कि ये समुल्लास दयानंद के जीते जी लिखे गए थे पर कुछ समस्याओं के कारण यह छप न सकें यहाँ तक कि द्वितीय समुल्लास और प्रथम समुल्लास के छपने के समय को लेकर भी झूठ बोला गया ताकि आर्य समाज और दयानंद का ये कुकर्म कभी किसी के सामने ने आ सके
ये झूठ १३२ वर्षों से बोला जा रहा है ये समय इतना लम्बा है कि अब तो समाजी इस झूठ को ही सत्य मान बैठे हैं यही कारण है कि इन समाजीयों से सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण के बारे में पूछने पर इनके पास कोई जबाव नहीं होता जबकि दोनों ही संस्करण और वेदभाष्य एक ही मुद्रणालय से छापे गए थे जिसकी स्थापना सन् १८८० में हुई थी

ये आर्य समाजीयों की गपडचौथ है कि प्रथम संस्करण १८७५ में और द्वितीय संस्करण १८८२ में छपा । दरअसल ये समाजी रट्टू तोते है इन्हें जितना रटाया जाता है उन्हें उतना ही पता होता है

आर्य समाजीयों का प्रथम संस्करण उस बदनसीब बच्चे कि तरह है जिसका बाप होते हुए भी १३२ से लावारिस की तरह पहचान की उम्मीद में बैठा इंतजार कर रहा है ।

अब आइए एक नजर दयानंद के वेद भाष्यों पर भी डाल लेते हैं दरअसल आर्य समाजी जिन वेदभाष्यों को आज दयानंद वेदभाष्यों के नाम से जानते हैं वो यही नहीं जानते कि दयानंद न तो कभी वेदभाष्य किए ही नहीं थे बल्कि दयानंद ने मैक्स मुलर के भाष्यों का ही हिन्दी अनुवाद किया है

प्रमाण‬ - मैक्स मुलर ने अपनी प्रति १८७४ में प्रदर्शित की इसके ७ वर्ष पश्चात दयानंद ने अपने वेद भाष्य प्रकाशित किया!!!

मैक्स मुलर और दयानंद की वेद भाष्य्करण में कुछ समानताएं हैं जो बाकी वेद ग्रंथों से समानता नहीं रखतीं। और इसके बाद टी एच ग्रिफ्थ ने भी वेद भाष्य को लिखा जो कि उन्होंने स्वयं ही कहा है कि वो मैक्स मुलर से प्रेरित है।

इन तीनों के भाष्य में सभी ज्यादातर मंत्र संख्या और उनका अर्थ एक सामान है। यह संभव है कि दयानंद ने मैक्स मुलर का वेद भाष्य पढ़ा और उसको अपने अनुसार हिंदी में लिखा जो कि आज दयानंद वेद नाम से प्रचलित है। किन्तु यह मूल वेद प्रति नहीं है बल्कि केवल अर्थ का अनर्थ है। जिसमे कई मंत्रों को आधा अधुरा करके लिखा गया है। जिससे अर्थ का समूल नहीं व्यक्त होता बल्कि अलग ही प्रकार से अर्थ को दर्शाने का प्रयास होता है। कई मंत्र ऐसे लिखे गए हैं जो इनके वेद भाष्यों में हैं वो अन्य वेद ग्रंथों में नहीं हैं।

आप कोई मंत्र का संख्या काण्ड अध्याय भी दयानंद वंशजों से पूछ लें तो ये अपनी मानसिकता पर आ जाते हैं किन्तु सही जवाब नहीं देते। क्योंकि ये स्वयं भी जानते हैं कि ये जो दयानंद कृत पुस्तकें पढ़ते हैं वे वेद नहीं हैं। केवल छलावा हैं लोगों को वेदों के नाम पर अपनी शिक्षा देने का और अपनी सोच को वेदों के अनुसार न ढालकर लोगों में अपनी सोच के अनुसार वेद ज्ञान को ढाल दिया है। अपने अनुसार इन्होने अर्थ बना रखे हैं अपने अनुसार उनके मंत्र संख्या तय कर दिए!!!

ये जानकारी है कि किसने कब लिखा और किसने कब ये देखिये।

मैक्स मुलर ने १८७४ में वेदभाष्य किए। जिसके २६ वर्ष पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुए।
दयानंद ने १८८१ में यजुर्वेदभाष्य, १८८२ में सत्यार्थ प्रकाश और १८८३ में ऋग्वेदभाष्य लिखते लिखते ही मृत्यु को प्राप्त हुए।
राल्फ टी एच ग्रिफ्थ ने कुछ कुछ ही वर्षों के अंतराल में सारे वेदों को ट्रांसलेट कर दिया! और अंतिम ट्रांसलेशन के ७ साल बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।
Hymns of the Rigveda (published 1889) इसके कुल ४ साल में ही सामवेद का पूर्ण अध्ययन और ट्रांसलेशन!!!
Hymns of the Samaveda (published 1893) इसके कुल तीन साल में ही अथर्ववेद का पूर्ण ट्रांसलेशन!!!!!
Hymns of the Atharvaveda (published 1896) इसके बाद तीन साल में ही यजुर्वेद का ट्रांसलेशन!!!!
The Texts of the Yajurveda (published 1899)

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये ख्याल सबसे पहले लिखने वाले मैक्स मुलर और अंत में लिखने वाले राल्फ टी एच ग्रिफ्थ के भाष्य अपने आप में एक सबूत हैं कि इनके मध्य में लिखा गया दयानंद का भाष्य भी इन्हीं से प्रेरित था न कि किसी और से। ये सत्य ज्ञान नहीं बल्कि अंग्रेजों की वो सोच थी जिसपर अंग्रेज हमें चलाना चाहते थे ताकि भारत से पूजा पाठ धार्मिक कर्म काण्ड बंद हों और यही बात दयानंद की सोच में भी थी तो यहाँ दयानंद को अपने भाष्य लिखने के लिए अंग्रेजों से प्रेरणा मिली जिसके कारण आज तक वेदों के अर्थ का अनर्थ होता आ रहा है।

और ना जाने कब तक ऐसे ही मैक्स मुलर के भाष्यों का हिन्दी अनुवाद पढ़ पढ़कर विद्वान बनते रहेंगे मुर्ख समाजी ???

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