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दयानंदभाष्य खंडनम् -१

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सोमः प्रथमो विविदे, सोमो ददद्गन्धर्वाय ( ऋग्वेद म• १०, सुक्त ८५, म• ४० व ४१) इन दोनों ऋचाओं का दयानंद ने जो अनर्थ किया है उस पर भी ध्यान देना जरूरी है


सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः ।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः ॥४०॥
  

अर्थ- हे स्त्रिा!जो (ते) तेरा (प्रथमः) पहला विवाहित (पतिः) पति तुझ को (विविदे) प्राप्त होता है उस का नाम (सोमः) सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से सोम, जो दूसरा नियोग होने से (विविदे) प्राप्त होता वह (गन्धर्व:) एक स्त्री से संभोग करने से गन्धर्व, जो (तृतीय उत्तरः) दो के पश्चात् तीसरा पति होता है वह (अग्निः) अत्युष्णतायुक्त होने से अग्निसंज्ञक और जो (ते) तेरे (तुरीयः) चौथे से लेके ग्यारहवें तक नियोग से पति होते हैं वे (मनुष्यजाः) मनुष्य नाम से कहाते हैं | जैसा (इमां त्वमिन्द्र) इस मन्त्रा में ग्यारहवें पुरुष तक स्त्राी नियोग कर सकती है, वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री तक नियोग कर सकता है | 
फिर वही विवाह संस्कार में सोमो ददद्गन्धर्वाय गन्धर्वो दददग्नये, यह श्रुति लिखी है अर्थ इसका स्पष्ट यह लिखा है कि सोम गन्धर्व को देवे, और गन्धर्व अग्नि को और अग्नि मुझको इस स्त्री को देवे यह कथन विवाह के समय वर का हैं  

समीक्षा‬- स्वामी जी का भाष्य पढ़कर तो ऐसा प्रतीत होता है कि वेद क्या स्वामी जी ने तो कभी संस्कृत की भी सकल नहीं देखी हो नहीं तो वेद मंत्रों के अर्थों का इस प्रकार अनर्थ नहीं करते 

सही_भावार्थ‬- कन्या व उसके माता पिता उसके पति में निम्न विशेषताएं देखें हे स्त्री तेरा पति पहला तो वह सौम्य हो सौम्यता पति का पहला गुण है, दुसरा गन्धर्व ज्ञान की वाणियों को धारण करने वाला हो अर्थात ज्ञानी हो, तीसरा प्रगतिशील मनोवृत्ति वाला हो, चौथा मनुष्यजा मनुष्य की संतान हो अर्थात जिसमें मानवता हो जिसका स्वभाव दयालुता वाला हो क्रूरता वाला नहीं, ते पति: तेरा पति है

अब सोमः प्रथमो विविदे इस पहली श्रुति के अर्थ पर दृष्टि डालकर ध्यान दीजिए की दयानंदी लोग क्या उसी स्त्री से विवाह करते हैं जो प्रथम एक से विवाह और दो से नियोग कर चुकी है ?
धन्य है यही तो धर्म और स्वामी जी की शर्म है और पूर्व के विरुद्ध यहाँ ही दूसरा विवाह भी निकाल दिया , न जाने वह पहला विवाहित सोम संज्ञावाला पति अपने जीते जी अपनी पत्नी गन्धर्व संज्ञावाले नियोगी पति को क्यों देगा ?
और वह गन्धर्व नियोगी अपने जीते हुए अग्नि संज्ञावाले नियोगी पति को क्यों देगा ?
और चौथा ही पति मनुष्य क्यों कहाता है क्या वे पिछले तीन किसी जानवर के बच्चे हैं ??
और तीसरे को ही अग्नि की संज्ञा क्यों ?
शायद वो हमेशा यह सोच सोच कर जलता रहता हो कि पहले के समान सुकुमारतादि गुण औरों में क्यों नहीं इत्यादि इत्यादि।

इनके अतिरिक्त और भी मंत्र जैसे -

 
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु ।
दशास्यां पु त्रानाधेहि पतिमेकाद शं कृधि  ॥ -ऋ० मं० १० | सू ० ८५ | मं ० ४५ ॥

 
कुह स्विद्दो षा कुह वस्तोर श्विना कुहापिभिपि त्वं करत: कुहोषतुः ।
को वां शयु त्रा विधवेवपिव दे वरं मर्य्य न योषा कृणुते स धस्थ आ ॥ -ऋ० मं० १० | सू० ४० | मं० २ ॥


उदीषर्व नार्य भिजीवलो वंफ ग तासुमे तमुप शेष एहि ।
ह स्त ग्रा भस्य दिधि षोस्तवे दं पत्यु र्जनि त्वम भि सं बभूथ ॥२॥ – ऋ० मं० १० | सू० १८ | मं० ८ ॥
 

 


 
इत्यादि मंत्रों के अर्थ का अनर्थ करकें नियोग बनाया है अर्थात नियोग झूठ से सिद्ध किया है । जबकि इन सभी मंत्रों में कहीं भी नियोग की गन्ध तक नहीं है
अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दयानंद ने वेद मंत्रों के साथ कैसा अनर्थ किया वह आप सबके सामने ही है
दयानंद का वेदों के प्रति कोई लगाव नहीं था बस अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए वेदों को ढ़ाल कि तरह प्रयोग किया   

!! जय आदि गुरु शंकराचार्य !!

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