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महर्षि या फिर महाचुतिया! | Mharishi Ya Fir Maha Chutiya

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इस लेख के माध्यम से मैं आप लोगों के सामने दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य के कुछ ऐसे भाष्य रख रहा हूँ जिसे पढ़कर एक बार को आप लोगों की बुद्धि भी चकरा जायेगी आप लोगों को यही समझ में नहीं आयेगा कि दयानंद के इन भाष्यों पर हंसें, क्रोधित हो या फिर दयानंद की मानसिक स्थिति को लेकर दुख व्यक्त करें, इस लेख को लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना है कि जो लोग दयानंद को संस्कृत का विद्वान समझते हैं, उन्हें यह पता होना चाहिए कि दयानंद को संस्कृत तो छोडिये संस्कृत का 'स' भी नहीं आता था, या यह कहे कि उन्होंने संस्कृत की कभी शक्ल तक न देखी होगी तो कहना गलत न होगा, और जब ऐसा मंदबुद्धि व्यक्ति वेदों का भाष्य करने बैठ जाये तो अर्थ का किस प्रकार अनर्थ करता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है, वह आपके सामने ही है देखिये--
 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-१)

होता यक्षद् अश्विनौ छागस्य हविष ऽ आत्ताम् अद्य मध्यतो मेद ऽ उद्भृतं पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घस्तां नूनं घासे ऽ अज्राणां यवसप्रथमानाम्ँ सुमत्क्षराणाम्ँ शतरुद्रियाणाम् अग्निष्वात्तानां पीवोपवसानां पार्श्वतः श्रोणितः शितामत ऽ उत्सादतो ङ्गाद्-अङ्गाद् अवत्तानां करत एवाश्विना जुषेताम्ँ हविर् होतर् यज॥ ~यजुर्वेद {२१/४३}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ करते हुए अपने लाडले शिष्यों के लिए फरमाते है कि--

“हे (होत:) देनेहारे! जैसे, (होता) लेनेवाला,,,, (छागस्य) बकरा आदि पशुओं के, (मध्यत:)- बीच से, (हविष:)- लेने योग्य पदार्थ, (मेद:)- अर्थात घी, दूध आदि,,,,,, (आत्ताम्) लेवें वा,,,,, (नूनम्) निश्चय करकें, (घस्ताम्) खावें वा,,,,,, (हवि:) उक्त पदार्थों से खाने योग्य पदार्थ का,,,,,, (जुषेताम्) सेवन करें”

भावार्थ में स्वामी जी लिखते हैं कि "जो छागस्य (अर्थात बकरा) आदि पशुओं की रक्षा कर उनके दूध घी आदि का अच्छी प्रकार सेवन करते हैं उनके सब अंग रोग मुक्त हो सुख को प्राप्त करते हैं

समीक्षक-- वाह रे! सत्यार्थ प्रकाश के रचने वाले, वेद ऋचाओं के अर्थ का अनर्थ करने वाले, क्या कहने तेरे! (छागस्य) अर्थात बकरा आदि पशुओं से लिए दूध घी आदि का अच्छी प्रकार सेवन करें, धन्य हे! निर्बोधानंद तेरी बुद्धि, अच्छी शिक्षा लिखीं हैं अपने लाडले शिष्यों को बस यही शेष रह गया था, सो भी तुमने अपने शिष्यों को कथन कर दिया, अभी तुम्हारे चेले कम नमूने थे जो उन्हें नर बकरे का दूध घी खाना लिख दिया, इस श्रुति का अर्थ लिखने से पूर्व जरूर स्वामी जी ने (छागस्य) बकरे का दूध पिया होगा, जिससे उनकी मति भ्रष्ट हो गई, इसी कारण स्वामी जी इस श्रुति में (छागस्य) नर बकरे का दूध घी खाना लिखते हैं, बकरी का नहीं खास बकरों का, धन्य हे! ऐसा भाष्यकार और धन्य है ऐसे भाष्यों को मानने वाले अक्ल से पैदल समाजी, अब आपको स्वामी जी की बुद्धि के बारे में क्या कहें? स्वामी जी ने इस श्रुति के अर्थ का कैसा अनर्थ किया है वह आप लोगों के सामने ही है, ये दयानंदी कहते हैं कि हम वैदिक है और हमें केवल दयानंद कृत वेदभाष्य ही मान्य है, हम जितने भी कार्य करते हैं उसी के अनुकूल करते हैं,


तो मैं उनसे पूछना चाहूँगा, क्या मेरे दयानंदी भाई रोज (छगस्य) नर बकरे का दूध, दही, घी आदि खाते हैं, यदि नहीं खाते तो वेद विरुद्ध करते हैं क्योकि जब तक ये दयानंद ने भाष्यानुसार बकरे का दूध, घी नहीं खाते, तब तक वैदिक न कहलायेंगे, और यदि एक बार को दयानदी खाना भी चाहे तो खायेंगे कहाँ से, क्या संसार में बकरे का दूध, दही, घी आदि होता भी है? जो ये खायेंगे, बकरों का दूध, घी आदि न तो इस संसार में कभी हुआ है और न ही होगा, ऐसी असंभव चिज के खाने को लिखने से ही दयानंद की बुद्धि का पता लगता है, कोई कितना ही बड़ा मुर्ख क्यों न हो, उसकी बुद्धि कितनी ही घुटनों में क्यों न हों वह भी ऐसी बिना सिर की बात न लिखेगा, जैसे स्वामी ने लिखा है, दयानंद के इस भाष्य को पढ़कर ही पता लग जाता है कि स्वामी जी ने उस दिन लौटा भरकर पिया होगा, अब बकरे का दूध पिया या कुछ और ही पी लिया यह कह पाना मुश्किल है, और सुनिये,


 
(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-२)

सूपस्था ऽ अद्य देवो वनस्पतिर् अभवद् अश्विभ्यां छागेन सरस्वत्यै मेषेणेन्द्राय ऽऋषभेणाक्षँस्तान् मेदस्तः प्रति पचतागृभीषतावीवृधन्त पुरोडाशैर् अपुर् अश्विना सरस्वतीन्द्रः सुत्रामा सुरासोमान्॥ ~यजुर्वेद {२१/६०}

स्वामी जी अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि--

“हे मनुष्यों! (अश्विभ्याम्)- प्राण और अपान के लिए, (छागेन)- दु:ख विनाश करने वाले छेरी आदि पशु से, (सरस्वत्यै)- वाणी के लिए, (मेषेण)- मेंढ़ा से, (इन्द्राय)- परम ऐश्वर्य के लिए, (ॠषभेण)- बैल से, (अक्षन्)- भोग करें”

स्वामी जी अपने इस भाष्यानुसार अपने लाडले शिष्यों के लिए फरमाते है, कि यदि कोई दयानंदी हमेशा दुखी रहता हो, जीवन में दिक्कत परेशानीयाँ ज्यादा रहती हो, तो वो दु:ख के विनाश के लिए छेरी (बकरी) आदि पशु के साथ भोग किया करें,

और यदि किसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे तुतलापन हो, गला बैठ गया हो या फिर जन्म से गूंगा आदि हो तो ऐसे समाजी, वाणी के लिए मेंढ़ा (मेंढक) से भोग किया करें,

और परम ऐश्वर्य की कामना रखने वाले सभी दयानंदी परम ऐश्वर्य के लिए बैल से भोग किया करें,

वाह! दयालु हो तो ऐसा, देखिये स्वामी जी ने किस युक्ति से अपने लाडले शिष्यों का धन बचाया है, भारतवर्ष में अब तक लोग यह शिकायत किया करते थे कि यहाँ विवाहों में धन अधिक खर्च होता है, लेकिन आज तक कोई इसका वन्दोवस्त न कर सका, परन्तु स्वामी जी ने युक्ति के साथ वह वन्दोवस्त भी कर दिया, अब दयानंदीयों को न तो खर्च करने की जरूरत और न ही विवाह करने की जरूरत, दोनों आवश्यकताएँ मिट गई, क्योकि दयानंदी अब अपने वेदभाष्यों के विरुद्ध स्त्री के साथ भोग ही नहीं करेंगे, जब इच्छा होगी किसी बकरी, मेंढे या फिर बैल के साथ भोग कर लिया करेंगे,

इसके अलावा एक और अन्याय हो गया वह यह कि हमारे दयानंदी भाई तो बैल से भोग कर परम ऐश्वर्य वाले हो जायेंगे, और उनसे भिन्न मत वाले हमेशा गरीब ही रहेंगे, क्योकि इनके हाथ तो किस्मत की चमचमाती छडी लग गई जहाँ जरा सी भी सम्पत्ति घटी फिर  बैल के साथ भोग कर लेंगे और इनसे भिन्न मत वाले इस निन्दित घृणा मुक्त कर्म कर न सकेंगे, और हमेशा गरीब ही रहेंगे, इसके विपरीत समाजी ऐश्वर्यवान होते जायेंगे फिर चाहे कोई रोजगार करें या न करें,

मुझे इस बात का बड़ा संदेह हो गया कि हमारे दयानंदी भाई उचित अनुचित जो कुछ भी दयानंद लिख गये यह सबको सत्य ही मानते हैं, अब आप सोचिये कि इस प्रकार की उट पटांग बातें लिखने वाले दयानंद की बुद्धि कैसी रही होगी? और सुनिये,

इसी प्रकार अध्याय १६ मंत्र १७ में दयानंद राजा को आम के वृक्ष काटना लिखते हैं

नमो हिरण्यबाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमः॥१६/१७

स्वामी जी अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि—“हे शत्रुताड़क सेनापति! (वृक्षेभ्य:)- आम्रादि वृक्षों को काटने के लिए, (नम:)-  वज्रादि शस्त्रों को ग्रहण कर”

स्वामी जी राजा के लिए लिखते हैं कि वो आम आदि के जितने भी संसार को लाभ पहुंचाने वाले वृक्ष है उन्हें कटवा दें, वाह स्वामी जी वाह क्या उत्तम बात सोची है, जो वृक्ष संसार को लाभ पहुचाते है उन्हीं को कटवा दें, उसी का नाम तो उपकार है मालूम होता है इस दिन लौटा भरकर भांग पिया है, और सुनिये,

फिर आगे यजुर्वेद अध्याय १६ मंत्र ५२ के भाष्य में अपने शिष्यों को आज्ञा देते हैं कि तुम राजा से कहों की सूवर के समान सोने वाले राजा,

विकिरिद्र विलोहित नमस् ते ऽ अस्तु भगवः।

यास् ते सहस्रम्ँ हेतयो ऽन्यम् अस्मन् नि वपन्तु ताः॥ ~यजुर्वेद {१६/५२}

“हे (विकिरिद्र)- विशेषकर सूवर के समान सोने वाले, (भगव:)- ऐश्वर्ययुक्त राजन्!”

वाह वाह राजा के लिए बड़ी ही अच्छी उपमा दी है, जिस ईश्वर को अपने वेदभाष्यों में राजा बोलते आए, और फिर उसी राजा को सूवर की उपमा ये आप जैसे धूर्त को ही शोभा देता है, दयानंद की बुद्धि का पता तो यही लग जाता है, जिस राजा को प्रजा पिता तुल्य मानती है उसे स्वामी जी सूवर की भांति सोने वाला लिखते है,

हमारे यहाँ तो राजा को ऐसे अपशब्द नहीं बोले जाते, हो सकता है आर्य समाज में राजा को सूवर के तुल्य समझा जाता हो, शायद समाजी अपने राजा अर्थात दयानंद को इसी प्रकार बोलते हो, की "हे भंग के नशे में विशेषकर सूवर की भांति सोने वाले राजन्" और फिर दयानंद ने यही बात अपने वेदभाष्य में लिख दी हो, और सुनिये,

फिर आगे अध्याय ३७ मंत्र ७ में दयानंद लिखते हैं कि- “ईश्वर हमारे भाईयों को घोड़े की लेंडी अर्थात लीद से तपाता है”

अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः। मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे। अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः। मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे। अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः। मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे। मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे॥ ~यजुर्वेद {३७/९}

“हे मनुष्य! जैसे मैं, (त्वा)- तुझको, (अश्वस्य)- घोड़े की, (शक्ना)- लेंडी, लीद से, (धूपयामि)- तपाता हूँ”

धन्य है ऐसे भाष्य को जिसके हुक्म से हमारे दयानंदी भाई रोज घोड़े की लीद से तपते है,

धन्य है ऐसे भाष्यकार और धन्य है ऐसे भाष्यों को मानने वालें,

 

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