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दयानंद का कामशास्त्र | Dayanand Ka Kaamshastra

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जिन भड़वे समाजियों का उद्देश्य सनातन धर्म ग्रंथों के उदाहरणों को गलत संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए- धर्म के न जानने वालों के बीच भ्रम का भाव उत्पन्न कर उन्हें धर्म के मार्ग से विमुख करना है सनातनधर्मियों को अपमानित करना व उन्हें नीचा दिखाना, धर्म विरोधीयों की सहायता करना आदि हैं, उनके लिए सप्रेम --------------

 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-१)


पूषणं वनिष्ठुनान्धाहीन्स्थूलगुदया सर्पान्गुदाभिर्विह्लुत आन्त्रैरपो वस्तिना वृषणमाण्डाभ्यां वाजिनग्वगं शेपेन प्रजाग्वं रेतसा चाषान् पित्तेन प्रदरान् पायुना कूश्माञ्छकपिण्डैः॥ ~यजुर्वेद {अध्याय २५, मंत्र ७}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इस मंत्र का अर्थ यह लिखते हैं कि---

हे मनुष्यों! तुम मांगने से पुष्टि करने वालों को स्थूल गुदेंद्रियों के साथ वर्तमान, अंधे सर्पों को गुदेंद्रियों के साथ वर्तमान विशेष कुटिल सर्पों को आंतों से, जलों को नाभि के नीचे के भाग से, अंडकोष को आंडों से, घोडे के लिंग और वीर्य से संतान को, पित्त से भोजनों को, पेट के अंगो को गुदेंद्रिय और शक्तियों से शिखावटों को निरंतर लेओं।

समीक्षक-- अब कोई इन नियोग समाजीयों से यह पूछे कि उन्हें दयानंद द्वारा किये गये अधिकांश मंत्रो के ऐसे अर्थ अश्लील क्यों नहीं लगते? और जब इस वेद ऋचा की ही भांति इन्हें अन्य सनातनी धर्म ग्रथों मे कोई श्रुति या श्लोक दिख जाता हैं तो अपनी बुद्धि अनुसार ही उसके अर्थ का अनर्थ कर आप्त पुरूषों द्वारा रचित ग्रंथों का अपमान करते है और उल्टा सनातनधर्मियों और उनके शास्त्रकारों को-- धूर्त, निशाचर, पाखंडी, नीच और न जाने कितनी गालियाँ देते हैं,

तो अब नियोग समाजी हमें बताए कि दयानंद के इन भाष्यों के बारे में उनकी क्या राय है? दयानंद द्वारा किया यह अर्थ उन्हें अश्लील लगता है या नहीं।

प्रश्न १• दयानंदी हमें बताए कि अंधे सर्पों को गुदा में घुसाने और कुटिल सर्पों को आंतों से लेने की आज्ञा क्या ईश्वर ने देता हैं?

यदि देता है तो समाजी दिन में ये कितनी बार लेते हैं?

प्रश्न २• दयानंदी हमें बताये अंधे कुटिल सर्पों और अश्व के लिंग को गुदा व आंतों में निरंतर लेते रहने के पीछे का विज्ञान समझाए .

प्रश्न ३• दयानंदी गुदा व आंतों में अंधे कुटिल सर्पों एवं अश्व के लिंग को निरंतर लेते रहने की विशेष युक्ति का खुलासा करें, क्योकि दयानंदीयों के सर्पों के साथ इस कृत्य की कल्पना करके भी, हमारी समझ से तो बाहर हैं कि सर्पों को ये किस युक्ति से प्रवेश देते होंगें ?

प्रश्न ४• सर्पों को गुदेंद्रिय में लेने की आवश्यकता क्या हैं? गुदेंद्रिय आनंद ही अगर अपेक्षित हैं, तो सर्प के समान आकार वाली अन्य वस्तुओं का विकल्प भी तो है न आपके लिए? और यदि लेते समय साँप घबराकर आपको अंदर या बाहर से काट लेवें, तो वैद्य के पास जाकर क्या कहोगें अभागों?

प्रश्न ५• और अंधा सर्प ही क्यो? आँख वाले सर्पों से क्या गुदेंद्रियों को नजर लगने का भय हैं?

प्रश्न ६• अर्थ मे आता हैं कि - "अंडकोष को आंडों से निरंतर लेओं" अब दयानंदी पहले तो अंडकोष और आंडों के बीच का अंतर बतायें, और फिर ये बतायें कि अंडकोष से आडों को किस प्रकार लिया जा सकता हैं?

उचित होता यदि दयानंदी गुरु आज्ञा का पालन करते हुए स्वामी जी की ही गुदा में दो चार अंधहीन सर्प छोड़ देते, और स्वामी जी को निरंतर अश्व का लिंग ग्रहण कराते रहते, तब जाकर कहीं गुरु आज्ञा का फल प्रकट होता,

अब कोई अनार्य समाजी ये न कहें कि इसका मतलब ये नहीं है, वो नहीं हैं, फलाना हैं, तो ढिमाका हैं ... क्योकि यही बात जब हम आप लोगों को समझाते हैं तो बुद्धि और विवेक को एक तरफ रखकर आप लोग केवल शब्दों को ही पकड़ के बैठे रहते हो,

देखिये दयानंद सत्यार्थ प्रकाश के द्वादश समुल्लास में महीधरादि पर अश्लील भाष्य करने का आरोप लगाते हुए लिखते हैं-- “हां! भांड धूर्त्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उन की धूर्त्तत्ता है; वेदों की नहीं”


क्या यह बात इस भडवे दयानंद पर लागू नहीं होती? बिल्कुल होती है, अत: पाठकगणों से निवेदन है कि वो इस बात को समझें की  दयानंद ने जो ये अश्लील भाष्य किया है वो इस भांड धूर्त्त निशाचरवत् दयानंद की धूर्तता है, वेदों की नहीं, देखिये इस श्रुति का सही अर्थ इस प्रकार है


शंका समाधान

"इस मंत्र में आहूति द्वारा, पाचन  संबंधी विभिन्न अंगों में उपस्थित भिन्न-भिन्न शक्तियों को उनसे संबंधित देवों की प्रसन्नता के लिए समर्पित किया गया है सभी की शक्तियाँ देव प्रयोजनों के लिए समर्पित हो, ऐसा जानकर रोगमुक्त स्वस्थ जीवन की प्रार्थना की गई है, यह एक आदर्श संगठनात्मक विद्या है, देखिए क्या कहता है ये मंत्र--

पूषणं वनिष्ठुनान्धाहीन्स्थूलगुदया सर्पान्गुदाभिर्विह्लुत आन्त्रैरपो वस्तिना वृषणमाण्डाभ्यां वाजिनग्वगं शेपेन प्रजाग्वं रेतसा चाषान् पित्तेन प्रदरान् पायुना कूश्माञ्छकपिण्डैः॥ ~यजुर्वेद {२५/७}

(पूषणं वनिष्ठुना स्थूलगुदया)- स्थूल आंतों व गुदा, पाचन संबंधी अंगों का भाग पूषण देवता के लिए, हे पूषण देव हमारे पाचन तंत्र संबंधी अंगों को स्वस्थ कर शरीर की व्याधियाँ उसी प्रकार दूर करें, जिस प्रकार, (अन्धाहीन सर्पान)- अंधहीन सर्प आपने बांबी से दूर निकल जाते है, (गुदाभिर्विह्लुत आन्त्रैरपो)- और हे र्विह्वत देव गुदा से संबंधी अन्य व्याधियों को दूर कर हमें रोगमुक्त स्वस्थ जीवन प्रदान करें, इस प्रकार (वस्तिना)- वस्ति भाग जल के लिए, (वृषणमाण्डाभ्यां)- अंडकोशों की शक्ति वृषण देव के लिए, (वाजिनं)- उपस्थ की शक्ति वाजीदेव के लिए, (रेतसा)- विर्य प्रजा की रक्षा के लिए, (चाषान् पित्तेन)- पित चाष देव के लिए, (प्रदरान् पायुना)- आंतों का तृतीया भाग प्रसरदेवों के लिए, (कूश्माञ्छकपिण्डैः)- तथा शकपिण्डों को कूश्म देव की प्रसन्नता के लिए समर्पित करते हुए रोगमुक्त, स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं,

और भांड दयानंद ने इसके अर्थ का क्या  अनर्थ किया है, वो आप लोगों के सामने है,

तो मेरे नवीन समाजी भाईयों आगे बढ़ें और दयानंद की थुत पर चार जूते मारकर भांड दयानंद द्वारा किए गए इन अश्लील भाष्यों का विरोध करें....


 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-२)

शादं दद्भिर् अवकां दन्तमूलैर् मृदं बर्स्वैस् तेगान्दम्ंष्ट्राभ्याम्ं सरस्वत्या ऽ अग्रजिह्वं जिह्वाया ऽ उत्सादम् अवक्रन्देन तालु वाजम्ँहनुभ्याम् अप ऽ आस्येन वृषणम् आण्डाभ्याम् आदित्याम्ँ श्मश्रुभिः पन्थानं भ्रूभ्यां द्यावापृथिवी वर्तोभ्यां विद्युतं कनीनकाभ्याम्ं शुक्लाय स्वाहा कृष्णाय स्वाहा पार्याणि पक्ष्माण्य् अवार्या ऽ इक्षवो वार्याणि पक्ष्माणि पार्या ऽ इक्षवः॥ ~यजुर्वेद {अध्याय २५, मंत्र १}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इस मंत्र का अर्थ यह लिखते हैं कि---

"हे अच्छे ज्ञान की चाहना करते हुए ज्ञानी जन! ,,,,,,,,,////// (आण्डाभ्याम्)- वीर्य को अच्छे प्रकार धारण करनेहारे आण्डों से, (वृषणम्)- वीर्य वर्षानेवाली अंग {लिंग} को, (श्मश्रुभि:)- मुख के चारों ओर जो केश, अर्थात डाढ़ी उससे,,,,,,,,, /////वे पदार्थ अच्छे प्रकार ग्रहण करने चाहिए

समीक्षक-- दिन रात जहाँ तहाँ अश्लीलता ढुढने वाले दयानंदीयों तुम्हें दयानंद द्वारा किए ये अश्लील भाष्य नजर क्यों नहीं आतें, तुम्हारे दयानंद ने तो अपनी अश्लील बुद्धि से ईश्वरीय ज्ञान वेदों को भी अश्लील बना दिया,

प्रश्न १• दयानंदी बतायें कि क्या ईश्वर मनुष्यों को यही उपदेश करता है जैसे कि दयानंद ने इस श्रुति का अर्थ किया है?

प्रश्न २• दयानंदी बतायें कि दयानंद अपने भाष्य द्वारा आण्डों, वीर्य वर्षाने वाले अंग लिंग और डाढ़ी से ऐसा कौन सा ईश्वरीय ज्ञान बाँट रहा है?

प्रश्न ३• दयानंदी बतायें यदि यह ईश्वरीय अज्ञा है तो दयानंद के भाष्यानुसार वे लिंग एवं आण्डों को अपने मुख के चारों ओर दिन में कितनी बार ग्रहण करते है?

प्रश्न ४• दयानंदी आण्डों, एंव लिंग को मुख के चारों ओर ग्रहण करने की विशेष युक्ति के साथ साथ उसके पिछे का वैज्ञानिक रहस्य समझाए,

प्रश्न ५• दयानंदी बतायें कि वे मुख के चारों ओर केवल पुरुषों के आण्डों एवं लिंग को ग्रहण करते हैं या फिर गधे घोड़े आदि पशुओं का भी ग्रहण करते हैं,

प्रश्न ६• दयानंदी बतायें कि वह इस कृत्य को प्रतिदिन दोहराते हैं या फिर समाज के किसी वार्षिक उत्सव पर?

हम यह भलीभाँति जानते हैं कि इन धूर्त समाजीयों के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है, और ना ही वह इसका उत्तर देना चाहेंगे, यह प्रश्न समाजीयों के हृदय में तीर की तरह चुभ रहे होंगे, क्योकि आज से पहले उन्होंने दयानंद के यह भाष्य नहीं पढे होगें, क्योकि उन्हें दूसरों की निंदा करने से फुर्सत ही कहाँ है जो दूसरों से पहले एकबार निष्पक्ष भाव से दयानंद द्वारा किये इन अर्थ को पढ लेते तो तुरन्त समाज का त्याग कर देतें, दयानंद ने वेदभाष्य के नाम पर सिर्फ अर्थ का अनर्थ ही किया है, इन श्रुतियों का अर्थ ऐसा बिलकुल नहीं है, देखिये-

अश्वमेध यज्ञ के अन्तर्गत वनस्पति याग एवं स्विष्टकृत् आहुतियों के क्रम में विशेष आहुतियाँ प्रदान कि जाती है, इस आहुति में प्राणियों के विभिन्न अंगों में स्थित शक्तियों को देव प्रयोजनों के लिए समर्पित किया जाता है, अश्वमेध यज्ञ राष्ट्र संगठन के अर्थ में प्रयुक्त है, यह आदर्श संगठनात्मक विद्या है, सुनिये इस श्रुति का अर्थ यह है कि--

दांतों की शक्ति से शाद देवता को, दंतमूल से अवका देवता को, दांतों के पश्च भाग से मृद देवता को, दाढ़ों से तेगदेवता को, जिह्वा के अग्र भाग से सरस्वती को, एवं जिह्वा से उत्साद देवता को प्रसन्न करते हैं, तालु की शक्ति से अवक्रन्द देवता को, ठोढी हे अन्न देवता को, मुख से जल देवता को प्रसन्न करते हैं, वृषणों से वृषण देवता को, दाढी से आदित्यों को, भौं से पन्थ देवता को, पलक लोमों से पृथ्वी एवं द्युलोक को, तथा आँख की पुतलियों से विद्युत् देवता को प्रसन्न करते हैं, शुक्ल एवं कृष्ण देव शक्तियों के निमित्त यह आहुति समर्पित है, नेत्रों के नीचे एवं ऊपर के लोमों से 'पार' एवं 'अवार' देवशक्तियों को प्रसन्न करते हैं।


अब दयानंदी बतायें कि इस श्रुति का जो अर्थ दयानंद ने किया है उसमें यह अश्लील शब्द कहाँ से आ गये, इस श्रुति से दयानंद का किया कल्पित और अश्लील अर्थ किंचित् मात्र भी सम्बन्ध नहीं रखता, जबकि दयानंद का किया यह अर्थ अश्लील के साथ साथ निरर्थक भी है, दयानंद के इन अश्लील भाष्यों का कोई आशय ही नहीं निकलता, क्या दयानंदीयों को दयानंद द्वारा किये यह अश्लीलभाष्य नजर नहीं आते, या दयानंद के भाष्य पढने से पहले इस भाष्यानुसार मुहँ और आँखों में टोपा ले लेते हो जिस कारण तुम्हें यह अश्लीलभाष्य दिखाई नहीं पड़ते, यदि ऐसा है तो कुछ और बात है दयानंद की बात आने पर शायद कान में भी ले लेते होगे जिससे तुम्हें सुनाई भी न पडता होगा, बुद्धिमान स्वयं विचारें क्या यह दयानंदीयों का दौगलापन नही है, जो प्रत्यक्ष है उन दयानंदभाष्यों पर तो इनकी बोलती बंद हो जाती है और जहाँ नहीं दिखता वहाँ अपना वही पुराना रंd! रौना रोते है कि फला ग्रंथ में अश्लीलता है तो इस ग्रंथ में अश्लीलता है इसलिए यह हमें मान्य नहीं, अबे तो तुम्हें पूछता ही कौन है? कौन कहता है कि तुम इन्हें मानों जी करता है तो मानों नहीं करता है तो मत मानों पर कम से कम यह अपना रंd! रौना तो बंद करों


 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-३)

यजुर्वेद अध्याय १९, मंत्र ७६, भांड दयानंद ने इस मंत्र के अर्थ का जो अनर्थ किया है, वो तो किसी को बताने योग्य भी नहीं, इस प्रकार का अश्लील लेख या तो आपको सेक्सी उपन्यासों में या फिर दयानंद द्वारा लिखित कामशास्त्र में ही पढने को मिल सकता है, देखिए क्या लिखता है ये भांड--

रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशद् इन्द्रियम्। गर्भो जरायुणावृत ऽ उल्वं जहाति जन्मना। ऋतेन सत्यम् इन्द्रियं विपानम्ँ शुक्रम् अन्धस ऽ इन्द्रस्येन्द्रियम् इदं पयो ऽमृतं मधु॥ ~यजुर्वेद {१९/७६}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ लिखते हैं कि--

"जैसे पुरुष का लिंग स्त्री की योनि में प्रवेश करता हुआ, वीर्य को छोडता है, और इससे अलग मूत्र को छोडता है, इससे जाना जाता है कि शरीर में मूत्र के स्थान से पृथक स्थान में विर्य रहता है"

समीक्षक-- वाह रे! वेदभाष्य के नाम पर कामशास्त्र लिखने वाले कामानंद, क्या कहने तेरे! तुझ को ऐसी-ऐसी अश्लील बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म न आई, निपट अन्धा ही बन गया, यह जो तुने लिखा है कि (जैसे पुरुष का लिंग स्त्री की योनि में प्रवेश करता हुआ, वीर्य को छोडता है और इससे अलग मूत्र को छोडता है, इससे जाना जाता है कि शरीर में मूत्र के स्थान से पृथक स्थान में विर्य रहता है) भला यह अर्थ तुमने कौन से पदों से लिया है, भला इसमें कौन सा ईश्वरीय ज्ञान छूपा है? क्या तुम्हारे इस भाष्य से पूर्व मनुष्यों को इसका ज्ञान न था कि शरीर में मूत्र और विर्य पृथक पृथक स्थान में रहते है, शोक हे! तेरी बुद्धि पर, क्या तुमने ईश्वरीय ज्ञान को इतना तुच्छ और अश्लील जान रखा है? देखिये इस श्रुति का अर्थ ऐसा बिल्कुल नहीं जैसा तुमने अपनी अश्लील बुद्धि अनुसार किया है, सुनिये इसका सही अर्थ इस प्रकार है कि--

"जिस प्रकार गर्भ अपनी रक्षा के लिए स्वयं को जरायु में आवृत करता है, परन्तु जन्म के पश्चात उसे विदीर्ण कर उसका परित्याग कर देता है, जैसे एक ही मार्ग से भिन्न भिन्न पदार्थ (मुत्र एवं वीर्य) नि:सृत होते हैं लौकिक सत्य इसी सत्य का रूप है, यह अन्न स्वरूप सोम, विशिष्ट साधन, बल, अन्न, तेज, इन्द्रिय सामार्थ, दुग्धादि पेय और मधूर पदार्थ को हमारे निमित प्रदान करता है,


यह इसका अर्थ है और देखिये इस कामानंद ने इस वेद श्रुति के अर्थ का क्या अनर्थ किया है क्या दयानंद को ऐसा अश्लील अर्थ करते तनिक भी लज्जा न आई? उसने एक बार भी यह नही सोचा की जिन वेद ऋचाओं को ईश्वरीय वचन कहा जाता है, उन वेद ऋचाओं का ऐसा अश्लील अर्थ करने पर विद्वान लोग उन्हें क्या कहेंगे? जिन वेदों का स्थान संसार की सभी पुस्तकों में प्रथम आता है, इस कामानंद ने उनका अश्लील भाष्य कर लोगों से घृणा करवायी है, जबकि यही दयानंद वेदों के अश्लील भाष्य करने का आरोप लगाते हुए सत्यार्थप्रकाश के द्वादश समुल्लास, में महीधरादि टीकाकारों को भांड, धूर्त और निशाचरवत् बोलते है, परन्तु उन्होंने ख़ुद वेद ऋचाओं का अर्थ अश्लील के साथ निरर्थक भी कर डाला,


पाठकगण! स्वंय विचार करकें बताए, वेदभाष्य के नाम पर अंतर्वासना लिखने वाले इस दयानंद को क्या कहना उचित रहेगा? और सुनिये आगे इसी अध्याय में मंत्र ८८ का अर्थ करते हुए लिखते है, कि--

 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-४)

मुखम्ँ सद्स्य शिर ऽ इत् सतेन जिह्वा पवित्रम् अश्विनासन्त् सरस्वती । चप्यं न पायुर् भिषग् अस्य वालो वस्तिर् न शेपो हरसा तरस्वी ॥ ~यजुर्वेद {१९/८८}

दयानंद इसका अर्थ अपने यजुर्वेदभाष्य में यह लिखते हैं कि—“हे मनुष्यो! जैसे जिससे रस ग्रहण किया जाता है वह वाणी के समान स्त्री, इस पति के सुन्दर अवयवों से विभक्त शिर के साथ शिर करें तथा मुख के समीप पवित्र मुख करें इसी प्रकार गृहाश्रम के व्यवहार में व्याप्त स्त्री पुरूष दोनों ही वर्तें तथा जो इस रोग से रक्षक वैद्य और बालक के समान वास करने का हेतु पुरूष उपस्थेन्द्रिय (लिंग) को बल से करनेहारा होता है वह शान्ति करने के समान वर्तमान मे सन्तानोत्पत्ति का हेतु होवे उस सबको यथावत करे”

लेकिन बाद में स्वामी जी ने सोचा होगा कि उनके नियोगी चैलें उनके इस अर्थ को समझ न सकेंगे इसलिए अपने शिष्यों के वास्ते अर्थ को थोड़ा और आसान बनाने के लिए स्वामी जी भावार्थ में यह लिखते हैं कि--

स्त्री पुरूष गर्भाधान के समय मे परस्पर मिलकर प्रेम से पूरित होकर मुख के साथ मुख, आँख के साथ आँख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भ का धारण करें जिससे कुरूप और विकलांग सन्तान न होवे,

लेकिन स्वामी जी की अश्लील बुद्धि यही न रूकि, दयानंद अपने इसी कामशास्त्र का विस्तार से वर्णन करते हुए सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में अपने लाडले शिष्यों के लिए फरमाते है कि--

“जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरुष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहैं, डिगें नहीं। पुरुष अपने शरीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्य्यप्राप्ति समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थित करे, पश्चात् दोनों शुद्ध जल से स्नान करें”

समीक्षक-- वाह रे! इस कामशास्त्र के बनाने वाले, क्या कहना तेरा? दयानंद के इस भाष्य को पढ़कर यह कह पाना मुश्किल है कि दयानंद वेदभाष्य लिख रहा था या फिर कोई अंतर्वावसना, या फिर दयानंद ने ईश्वरीय ज्ञान को इतना तुच्छ और अश्लील समझ रखा है जैसा इस भांड के भाष्यों से प्रकट हो रहा है,

जहाँ तक गर्भाधान विधि का प्रश्न है, यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, इसे तो न केवल अनपढ़, गवार मनुष्य जानता है, बल्कि पशु-पक्षी भी जानते है, पशु-पक्षियों को कौन से ‘शास्त्रों का ज्ञान होता हैं? उन्हें भला कौन यह सब सिखाता हैं? इस कारण दयानंद का किया यह अर्थ अशुद्ध है वेदों में ऐसी बातें कही नहीं है, यह शिक्षा करने को तो मनुष्य निर्मित साधारण पुस्तक ही काफी है इसलिए इस वेद श्रुति का यह अर्थ नहीं है, किन्तु इसका अर्थ यह है कि—“इन्द्रदेव के इस विराट शरीर में मुख और मस्तक सत्य से पवित्र है मुख में स्थित जिह्वा सत्य वाणी और सत्य स्वाद से पवित्र है, दोनों अश्वनीकुमारों और देवी सरस्वती के द्वारा इन अंगों के संचालन से पवित्रता व्याप्त हुई, चप्य पायु इन्द्रिय हुई, और बाल शारीरिक दोषों को बाहर निकालने वाले भिषक् (उपचारकर्ता रूप) हुए, और वस्ति तथा विर्य से जननेंद्रिय हुई। इस श्रुति में तो शरीर के विभिन्न अंगों की सृष्टि किस-किस प्रकार हुई यह कथन किया है और इससे पूर्व और बाद के मंत्रों में भी यही कथन किया है”

यह इसका अर्थ है जबकि दयानंद का किया अर्थ इससे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता, ने जाने स्वामी कामानंद ने यह कपोल कल्पित अश्लील अर्थ किन पदों से निकाला है, इस वेद श्रुति में ऐसा कोई पद नहीं जिससे स्वामी कामानंद जी का लिखा कल्पित अर्थ सिद्ध होता हो, दयानंद ने इस प्रकार का अश्लील अर्थ लिखने से पूर्व एक बार भी यह न सोचा कि विद्वान लोग जब इसे देखेंगे तो उनके बारे में क्या सोचेंगे, भला ईश्वरीय ज्ञान भी इतना तुच्छ हो सकता है क्या? क्या यही वेद विद्या है क्या यही वेदों का सार है? दयानंद ने इन वेद ऋचाओं के अर्थ का जो अनर्थ किया है ऐसा तो कभी किसी ने भी नहीं किया होगा,


मुझे यह समझ में नहीं आता इन समाजीयों को दयानंद द्वारा किये यह अश्लील भाष्य नजर क्यों नहीं आते, क्यों उनकी दृष्टि दयानंद के इन भाष्यों पर नहीं पडती? यह धूर्त समाजी क्यों नहीं दयानंद के इन भाष्यों का विरोध करते हैं? यह तुम्हारा दौगलापन नही तो और क्या है? जब देखों जहाँ तहाँ अश्लीलता ढूंढते फिरते हो यहाँ तुम्हें प्रत्यक्ष है तो भी तुम्हारे नेत्रों से दिखाई नहीं पडता, इन नियोगी दल्लों का दौगालपन तो यही सिद्ध हो जाता है, देखिये प्रथम तो स्वामी  कामानंद जी अपने लाडले शिष्यों को गर्भाधान का उपदेश इस प्रकार करते है कि-- (स्त्री पुरूष गर्भाधान के समय मे परस्पर मिलकर प्रेम से पूरित होकर मुख के साथ मुख, आँख के साथ आँख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भ का धारण करें, इस प्रकार गर्भधारण करने से कुरूप और विकलांग सन्तान उत्पन्न नहीं होती,


और फिर आगे इसी के विरुद्ध यजुर्वेद अध्याय २८, मंत्र ३२ का भाष्य करते हुए लिखा है कि--

 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-५)

होता यक्षत् सुरेतसं त्वष्टारं पुष्टिवर्धनम्ँ रूपाणि बिभ्रतं पृथक् पुष्टिम् इन्द्रं वयोधसम्।

द्विपदं छन्द ऽ इन्द्रियम् उक्षाणं गां न वयो दधद् वेत्व् आज्यस्य होतर् यज॥ ~यजुर्वेद {२८/३२}

इसका अर्थ स्वामी कामानंद जी ने अपने यजुर्वेदभाष्य में यह लिखा है कि--

"हे मनुष्यों! जैसे बैल गौओं को गाभिन करके पशुओं को बढ़ता है, वैसे गृहस्थ लोग स्त्रीयों को गर्भवती कर प्रजा बढ़ावें"

{नोट-- सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण में दयानंद ने लिखा है कि एक बैल से हजारों गैयां गर्भवती हो जाती है यहाँ वही अभिप्राय है या और कुछ?}

अब दयानंद के इन भाष्यों पर दृष्टि डालें तो दयानंद ने यहाँ दो प्रकार की गर्भाधान विधि का खुलासा किया,

(पहला)-- स्त्री पुरूष परस्पर मिलकर प्रेम से पूरित होकर मुख के साथ मुख, आँख के साथ आँख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके गर्भ का धारण करें,

(दूसरा)-- जैसे बैल गौओं को गाभिन करके पशुओं को बढ़ता है, वैसे समाजी लोग अपनी स्त्रीयों को गर्भवती कर प्रजा बढ़ावें"

अब दयानंद के भाष्यानुसार ही दयानंदी बतायें कि भला इन दोनों विधियों में से गर्भाधान की कौन सी विधि सही है?

बुद्धिमान लोग स्वयं विचारें क्या धूर्त दयानंद की मूर्खता यही सिद्ध नही हो जाती, भला ईश्वरीय ज्ञान इतना तुच्छ और उट पटांग हो सकता है क्या?, बिल्कुल नहीं, दरअसल यह मिथ्या अर्थ स्वामी कामानंद जी के कपोल भंडार से निकलें है, यही तो दयानंद के भंग की तरंग है भंग के नशे में जो भी अंड संड मुहँ में आया बक दिया, जो मन में आया सो लिख दिया,

स्वामी कामानंद जी को तो अपने लिखें कि ही खबर नहीं क्या अंड संड लिखें जा रहे हैं, भला स्वामी जी के यह कपोल कल्पित अर्थ किन पदों से सिद्ध होते है, इस श्रुति में तो ऐसा कोई पद ही नहीं जिससे स्वामी जी का कथन सिद्ध होता हो, भला यह कौन सा ईश्वरीय ज्ञान है कि "जैसे बैल गौओं को गाभिन करके पशुओं को बढ़ता है, वैसे सब लोग अपनी स्त्रीयों को गर्भवती करें"?, यह हमारी समझ से तो बाहर है, इससे ही पता चलता है कि स्वामी जी को संस्कृत की कितनी समझ रही होगी, दयानंद ने वेदभाष्य के नाम पर सिर्फ अनुचित शिक्षा दिखा कर लोगों से घृणा करवाईं है, इसलिए विद्वानों को दयानंद का किया यह अर्थ अशुद्ध जानकर त्यागने योग्य है, इस वेद श्रुति का यह अर्थ किन्हीं पदों से सिद्ध नहीं होता, किन्तु इसका अर्थ यह है कि--

“द्विव्यहोता ने द्विपदा छंद, इन्द्रियशक्ति सिंचन करने वाली गौ (प्राणवर्धक किरणों) एंव आयुष्य को धारण करते हुए, उत्पादन शक्ति से सम्पन्न, विभिन्न प्राणियों को पोषण देने वाले, पुष्टि को धारण करने वाले त्वेष्टादेव एवं आयुष्य बढ़ाने वाले इन्द्रदेव का यजन किया, त्वष्टा एवं इन्द्रदेव हवि का पान करें, हे होता! तुम भी इसी प्रकार यज्ञ करों”

यह इसका अर्थ है और दयानंद ने इस वेद श्रुति के अर्थ का कैसा अनर्थ किया है वह आपके सामने है


दरअसल यह अर्थ स्वामी जी ने खास अपने शिष्यों के लिए तैयार किया है, दयानंद जी अपने भाष्यानुसार अपने लाडले शिष्यों को यह उपदेश करते हैं कि जैसे बैल गाय को गाभिन करता है उसी प्रकार तुम अपनी-अपनी स्त्रीयों को करों, परन्तु दयानंदी अभी उस तरीके से काम नहीं लेते, दयानंदीयों को चाहिए कि गुरू आज्ञा का पालन करते हुए, आज से ही मनुष्य से पशु बनकर बैलों की भांति अपनी-अपनी स्त्रियों को गर्भवती कर प्रजा को बढावे और यदि तुम से न हो सके तो समाज से बाहर किसी अन्य पुरुष की सहायता से अपनी स्त्रीयों को गौओं की भांति गाभिन करवा प्रजा को बढ़ावे, यह नियोग नामक पशुधर्म स्वामी जी ने इसी के अर्थ चलाया है, इसलिए पशुओं की ही भांति अपनी स्त्रियों को जब कभी किसी परपुरूष के पास नियोग के लिए भेंजे तो उसे समझा दे कि जैसे बैल गौओं को गाभिन करता है वैसे ही वह तुम्हारी स्त्री को गाभिन कर प्रजा को बढ़ावे, तब जाकर कहीं गुरु आज्ञा का फल प्रकट होगा और दयानंद के लाडले शिष्य पुरे वैदिक कहला सकेंगे, अन्यथा नहीं, और सुनिये,


 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-६)

सूपस्था ऽ अद्य देवो वनस्पतिर् अभवद् अश्विभ्यां छागेन सरस्वत्यै मेषेणेन्द्राय ऽऋषभेणाक्षँस्तान् मेदस्तः प्रति पचतागृभीषतावीवृधन्त पुरोडाशैर् अपुर् अश्विना सरस्वतीन्द्रः सुत्रामा सुरासोमान्॥ ~यजुर्वेद {२१/६०}

स्वामी जी अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि--

“हे मनुष्यों! प्राण और अपान के लिए दु:ख विनाश करने वाले छेरी आदि पशु से, वाणी के लिए मेंढ़ा (मेंढक) से, और परम ऐश्वर्य के लिए बैल से भोग करें”

स्वामी कामानंद जी अपने इस भाष्यानुसार अपने लाडले शिष्यों के लिए फरमाते है, कि यदि कोई दयानंदी हमेशा दुखी रहता हो, हमेशा परेशानीयों से घिरा रहता हो, तो वो दु:ख के विनाश के लिए छेरी (बकरी) आदि पशु के साथ भोग किया करें,

और यदि किसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे तुतलापन हो, गला बैठ गया हो या फिर जन्म से गूंगा आदि हो तो ऐसे समाजी, वाणी के लिए मेंढ़ा (मेंढक) से भोग किया करें,

और परम ऐश्वर्य की कामना रखने वाले सभी दयानंदी परम ऐश्वर्य के लिए बैल से भोग किया करें,

वाह! दयालु हो तो ऐसा, देखिये स्वामी जी ने किस युक्ति से अपने लाडले शिष्यों का धन बचाया है, भारतवर्ष में अब तक लोग यह शिकायत किया करते थे कि यहाँ विवाहों में धन अधिक खर्च होता है, लेकिन आज तक कोई इसका वन्दोवस्त न कर सका, परन्तु स्वामी जी ने युक्ति के साथ वह वन्दोवस्त भी कर दिया, अब दयानंदीयों को न तो खर्च करने की जरूरत और न ही विवाह करने की जरूरत, दोनों आवश्यकताएँ मिट गई, क्योकि दयानंदी अब अपने वेदभाष्यों के विरुद्ध स्त्री के साथ भोग ही नहीं करेंगे, जब इच्छा होगी किसी बकरी, मेंढे या फिर बैल के साथ भोग कर लिया करेंगे,

इसके अलावा एक और अन्याय हो गया वह यह कि हमारे दयानंदी भाई तो बैल से भोग कर परम ऐश्वर्य वाले हो जायेंगे, और उनसे भिन्न मत वाले हमेशा गरीब ही रहेंगे, क्योकि इनके हाथ तो किस्मत की चमचमाती छडी लग गई जहाँ जरा सी भी सम्पत्ति घटी फिर  बैल के साथ भोग कर लेंगे और इनसे भिन्न मत वाले इस निन्दित घृणा मुक्त कर्म कर न सकेंगे, और हमेशा गरीब ही रहेंगे, इसके विपरीत समाजी ऐश्वर्यवान होते जायेंगे फिर चाहे कोई रोजगार करें या न करें,


मुझे इस बात का बड़ा संदेह हो गया कि हमारे दयानंदी भाई उचित अनुचित जो कुछ भी दयानंद लिख गये यह सबको सत्य ही मानते हैं, अब आप सोचिये कि इस प्रकार की उट पटांग बातें लिखने वाले दयानंद की बुद्धि कैसी रही होगी? और सुनिये,


 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-७)
प्राणम्मे पाह्मपानम्मे पाहि व्यानम्मे पाहि चक्षुर्म ऽ उर्व्या विभाहि श्रोत्रम्मे श्लोकय।
अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपादव चतुष्पात् पाहि दिवो वृष्टिमेरय॥ ~यजुर्वेद {१४/८}

स्वामी जी अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि--

स्त्री पति से और पति अपनी स्त्री से कहें कि-- “हे स्त्री! तू मेरे नाभि के नीचे गुहेन्द्रिय मार्ग से निकलने वाली अपान वायु की रक्षा कर”

समीक्षक-- धन्य हे! स्वामी निर्बोधानंद जी तुम्हारी बुद्धि, इस वेदभाष्य को मानने वाले दयानंदीयों से मेरा यह प्रश्न है कि क्या इतना कहते कुछ लज्जा न आवेंगी?

और वह स्त्री गुहेन्द्रिय मार्ग से निकलने वाली वायु की रक्षा कैसे करेगी?

साथ में यह प्रश्न भी है कि यह रक्षा रोज रोज होती है या फिर आर्य समाज के किसी वार्षिक उत्सव पर?

यदि यह रक्षा रोज होती है तो दयानंदी लोग अपने गृहस्थादि कार्य किस प्रकार करते हैं क्योंकि यदि गृहस्थ कार्य में व्यस्त होने के दौरान ही गुहेन्द्रिय मार्ग से वायु निकल जाये तो हमारे दयानंदी उसकी रक्षा करने से चूक जायेंगे, तो लो अब सब काम धाम छोड़ गुहेन्द्रिय मार्ग से निकलने वाली वायु के निकलने की प्रतीक्षा करों, समाजी स्त्री अपने पति की और समाजी पुरुष अपनी स्त्री के गुहेन्द्रिय मार्ग की तरफ टकटकी लगाकर बैठे रहे, जाने कब निकल जायें


धन्य है ऐसे भाष्यकार और धन्य है ऐसे भाष्यों को मानने वालें अक्ल से पैदल समाजी, और सुनिये
 


 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-८)

वाचं ते शुन्धामि। प्राणं ते शुन्धामि। चक्षुस् ते शुन्धामि। श्रोत्रं ते शुन्धामि। नाभिं ते शुन्धामि। मेढ्रं ते शुन्धामि। पायुं ते शुन्धामि। चरित्राम्ँस् ते शुन्धामि॥ ~यजुर्वेद {६/१४}

स्वामी जी अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि--

“हे शिष्य! मै तेरी वाणी, नेत्र, नाभि, जिससे “मूत्रोत्सर्गादि” किये जाते हैं उस “लिंग” को, तेरे “गुदेन्द्रिय” को शुद्ध करता हूँ”

स्वामी कामनंद जी इस वेदभाष्य में अपने लाडले शिष्यों को उपदेश करते हुए लिखते है कि गुरू को चाहिए कि अपने शिष्य के लिंग और गुदा को शुद्ध करें, धन्य हे! ऐसा भाष्यकार, भाष्य हो तो ऐसे, इनके भाष्यों में तो महापाप भी धर्म है,

मै दयानंदीयों से पूछना चाहूँगा क्या दुनिया की सभ्य जातियाँ इस भाष्य को पढ़कर छी छी नहीं करेगी, दयानंद को ऐसा अश्लील भाष्य करते हुए लज्जा न आई, ये सब लिखने से पूर्व दयानंद ने  यह नही सोचा कि विद्वान लोगों की दृष्टि जब उनके इस अर्थ पर पडेगी तो वे उनके बारें में क्या सोचेंगे,

मैं दयानंदीयों से ही पूछना चाहता हूँ कि यह सतशिक्षक सम्पूर्ण विद्याओं का भंडार वेद हैं या फिर किसी व्यभिचारी शिक्षक द्वारा लिखा कामशास्त्र,

हमारे दयानंदी भाई कहते हैं कि हमारा मत वेद हैं और हमें केवल दयानंद कृत वेदभाष्य ही मान्य हैं, देखिये ये है इनके वेदभाष्य और ये है इनकी सभ्यता, दयानंद का वेदभाष्य पढ़ने बैठों समझ में नहीं आता कि वेद पढ़ रहे हैं या फिर किसी व्यभिचारी पुरुष द्वारा लिखित कामशास्त्र,


जिस भारतवर्ष की पावन भूमि पर आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधयन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, और कणाद आदि जैसे महाविद्वान उत्पन्न हुए, उसी भारत भूमि पर दयानंद जैसा धूर्त भी उत्पन्न हुआ, जिन वेदों का स्थान विश्व की प्रथम पुस्तकों में आता है जिन्हें सब सतविद्याओं का भंडार कहा गया है उसी वेद के नाम पर दयानंद ने अनुचित शिक्षा दिखलाकर लोगों को घृणा करवाईं है लेकिन यह याद रहे कि इन मंत्रों के यह अर्थ हर्गिज नहीं यह स्वामी जी की गढ़न्त है यह दयानंद वेदभाष्य है जो उन्होंने अपनी अश्लील बुद्धि अनुसार करें है, इस कारण यह मानने योग्य नहीं और जिन्होंने यह अर्थ किये हैं, वह महर्षि क्या? महामूर्ख कहलाने योग्य भी नहीं, और ऐसे मूर्खों को महर्षि कहना, महर्षि शब्द की इज्जत उतारना है,

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