आर्य समाज एवं नास्तिको को जवाब,
आर्य समाज मत खण्डन
दयानंद का अद्भुत विज्ञान | Dayanand Ka Vigyan
अपने
अतिरिक्त सब को मुर्ख जानने वाले दयानंद की बुद्धि का एक नमूना आपको दिखाते हैं, उसके
बाद आप ही यह निर्णय करें कि इस लेख को लिखने वाले दयानंद की बुद्धि कैसी रही होगी।
सत्यार्थ प्रकाश नवम् समुल्लास
पृष्ठ १७५,
❝(प्रश्न) यह जो ऊपर को नीला और
धूंधलापन दीखता है वह आकाश नीला दीखता है वा नहीं?
(उत्तर)
नहीं,
(प्रश्न)
तो वह क्या है?
स्वामी
जी इसका उत्तर यह लिखते हैं कि--
(उत्तर)
अलग-अलग पृथिवी, जल और अग्नि के त्रसरेणु दीखते हैं। उस में जो नीलता दीखती है वह अधिक
जल जो कि वर्षता है सो वही नीला दिखाई पड़ता है❞
समीक्षक-- पता नहीं स्वामी जी अपने आपको क्या
समझते हैं दो कौड़ी की बुद्धि नहीं इनमें और चले हैं वैज्ञानिक बनने, लिखा है कि आकाश
का नीला रंग उसमें उपस्थित जल के कारण दिखाई पड़ता है जो वर्षता है सो वही नीला दिखाई
पड़ता है, धन्य हे! भंगेडानंद तेरी बुद्धि, अब कोई स्वामी भंगेडानंद जी से यह पूछे
कि यदि जल के कारण आकाश का रंग नीला दिखाई पड़ता है तो फिर बादलों में तो लबालब पानी
भरा होता है फिर वह काले सफेद रंग के क्यों दिखाई पड़ते हैं?
दूसरा प्रश्न-- जबकि जल रंगहीन होता है उसका कोई
अपना रंग ही नहीं होता तो भला उससे आकाश आदि का रंग परिवर्तन किस प्रकार सम्भव है?
ऐसी-ऐसी
चुतियापंति से भरी बात करने मात्र से ही दयानंद की बुद्धि का पता चलता है, सुनिये आकाश
का रंग नीला जल के कारण नहीं बल्कि, सूर्य के प्रकाश का पृथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित
गैसादि अणुओं से टकराने के पश्चात हुए प्रकाश के परावर्तन के कारण दिखाई देता है,
वास्तव
में प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है, जो विद्युत चुम्बकिय तरंगों के रूप में संचरित होती
है
सूर्य
से आने वाली प्रकाश किरणों में सभी रंग पहले से विद्यमान होते हैं परन्तु हमारी आँखें
केवल उन्हीं रंगों को देख पाती है, जिसकी तरंगदैर्ध्य दृश्य सीमा के भीतर होती है,
तकनीकी या वैज्ञानिक संदर्भ में किसी भी तरंगदैर्ध्य के विकिरण को प्रकाश कहते हैं,
प्रकाश का मूल कण फ़ोटान होता है, प्रकाश की प्रमुख विमायें निम्नवत है,
१• तीव्रता
जो प्रकाश की चमक से सम्बन्धित है
२• आवृत्ति
या तरंग्दैर्ध्य जो प्रकाश का रंग निर्धारित करती है।
अब सुनिये
होता यह है जब सूर्य का प्रकाश हमारे वायुमंडल में प्रवेश करता है तो उसमें उपस्थित
धुल गैसादि के अणुओं से टकराकर चारों ओर बिखर जाता है इन बिखरे हुए प्रकाश किरणों में
छोटी तरंगदैर्ध्य वाले बैगनी, आसमानी और नीला रंग ज्यादा बिखरते है, जबकि इनकी अपेक्षा
लम्बी तरंगदैर्ध्य वाली प्रकाश किरणें कम बिखरती है, यही तीनों रंग हमारी आँखों तक
सबसे ज्यादा पहुँचते हैं, इन तीनों रंगों का मिश्रण नीले रंग के सदृश बनता है, इस कारण
आकाश हमें नीला दिखता है, और स्वामी जी इसमें क्या चुतियापंति लिखीं हैं वह आपके सामने
है, और सुनिये इसी प्रकार अष्टम समुल्लास में यह लिखा है--
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास
पृष्ठ १७१,
❝(प्रश्न) सूर्य चन्द्र और तारे क्या
वस्तु हैं और उनमें मनुष्यादि सृष्टि है वा नहीं?
(उत्तर)
ये सब भूगोल लोक और इनमें मनुष्यादि प्रजा भी रहती हैं क्योंकि-
एतेषु हीदँ सर्वं वसुहितमेते हीदँ
सर्वं वासयन्ते तद्यदिदँ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ ~शत० का० १४
पृथिवी,
जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं
में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं, जिस लिये वास के निवास
करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र
वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह?❞
समीक्षक-- अपने इस लेख से तो स्वामी जी ने
चुतियापंति के सारे रिकॉर्ड ही तोड़ दिये, इस लेख को पढ़ने मात्र से ही पता चलता है
कि दयानंद में कितनी बुद्धि रही होगी, यहाँ प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वाला दोनों ही
उच्च कोटि के चुतिया है, देखिये प्रथम तो दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास
में पृष्ठ १३२ पर यह लिखा है कि- "तेंतीस देवता अर्थात, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र" यहाँ स्वामी ने इन्हें चेतन मान तेंतीस देवों
में से यह आठ वसुगण कथन किये, और फिर यहाँ उन्हें जड़ मानकर, उनमें मनुष्यादि प्रजा
बसा दी, अब प्रथम तो यहाँ दयानंद से यह प्रश्न है कि इनमें से तुम्हारा कौन सा कथन
सत्य मानें? यह आठ वसुगण जो आपने यहाँ कथन किये हैं उन्हें आप क्या मानते हैं जड़ या
फिर चेतन?
दूसरा प्रश्न-- जो तुमने यह लिखा है कि पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र आदि ये सब भूगोल लोक है, सो यहाँ
यह बताओ कि जल, अग्नि, वायु, आकाश को भूगोल किस आधार पर लिखा है? क्या जल, अग्नि, वायु,
आकाश आदि की भूगोल आकृति आपने कहीं देखी है? इनमें मनुष्यादि प्रजा के बसने योग्य ठोस
धरातल है जो इन्हें भूगोल लोक कथन कर दिया, और आकाश जो अनन्त है जिसका अन्त कोई नहीं
जानता, आपने उसे भी भूगोल कथन कर दिया, आपके दिमाग का कोई स्क्रु ढिला तो नहीं है।
तीसरा प्रश्न-- अग्नि और सूर्य जो कि सब कुछ भस्म
करने का सामर्थ्य रखते हैं आपने उनमें मनुष्यादि प्रजा की मिथ्या कल्पना किस आधार पर
की? जबकि आपने स्वयं अपने एकादश समुल्लास में मंत्रों की सिद्धि को नकारते हुए यह तर्क
दिया है कि-- "जो कोई यह कहें कि मंत्र से अग्नि उत्पन्न होता है तो वह मंत्र
के जप करने वाले के हृदय और जिह्वा को भस्म कर देवें" और इसके विपरीत यहाँ यह
दौगलापन दिखाया कि अग्नि सूर्य आदि में मनुष्यादि की सृष्टि लिख मारी, यहाँ तुम्हारा
वो सिद्धांत की अग्नि अपने सम्पर्क में आने वाले सब पदार्थ मनुष्यादि को भस्म कर देवें
कहाँ घुस गया, यह खड़ा बाल आपमें सनातन मत के विरुद्ध ही क्यों दिखता है? कहिये क्या
आपके इस लेखानुसार अग्नि सूर्य आदि में मनुष्यादि प्रजा का होना सम्भव है? क्या यह
मनुष्यादि जीवों को भस्म न कर देंगे?
स्वामी
जी सूर्य पर मनुष्यादि प्रजा होने की कल्पना करते हैं सो उनसे यह प्रश्न है कि जिस
सूर्य का सतही तापमान लगभग ६०००ºC (छ: हजार डिग्री सेल्सियस) और सतही दबाव इतना है
कि धातु तक को तरल में परिवर्तित कर दें उस पर मनुष्यादि प्रजा होने जैसी असम्भव बात
स्वामी जी के दिमाग में आयी कैसे? यहाँ पृथ्वी पर ही ४०-५०ºC तापमान पर मनुष्य का तेल
निकल जाता है और स्वामी जी है कि मनुष्यादि को सूर्य पर बसा रहे हैं धन्य हे! भंगेडानंद
जी आपकी बुद्धि,
और सुनिये
अपने इस चुतियों वाले लेख में दयानंद ने जो यह शतपथ ब्राह्मण से श्रुति प्रमाण लिखा
है और इसका यह अर्थ लिखा है कि-- "एतेषु हीदँ सर्वं वसुहितमेते हीदँ सर्वं वासयन्ते
तद्यदिदँ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ ~शत० का० १४
पृथिवी,
जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इन का वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं
में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं। जिस लिये वास के निवास
करने के घर हैं इसलिये इन का नाम वसु है। जब पृथिवी के समान सूर्य चन्द्र और नक्षत्र
वसु हैं पश्चात् उन में इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह"
यह अर्थ
भी दयानंद ने मिथ्या कल्पना किये हैं इस श्रुति का यह अर्थ नहीं बनता, यह मिथ्या अर्थ
दयानंद ने अपनी बुद्धि अनुसार कल्पना किया है सो दयानंद का यह अर्थ मानने योग्य नहीं
है, सुनिये यह श्रुति इस प्रकार है कि--
अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं
चादित्यश्च द्यौश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते
तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ ~शतपथ ब्राह्मण {१४/६/९/४}
अग्नि,
पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र, यह आठ देव अष्ट वसु
इस कारण कहाते है क्योंकि इन्हीं से सम्पूर्ण जगत् सन्निहित है इसलिए इन्हें वसुगण
कहते हैं और यही अपने-अपने गुण, कर्म और विशेषताओं द्वारा सबको बसाते है, भाव यह है
कि यह आठ वसुगण अपने-अपने गुण कर्म से मनुष्यादि जीवों के बसने योग्य परिस्थिति उत्पन्न
करते है, जैसे सूर्य अपने ताप और प्रकाश आदि गुण से सब जगत् को प्रकाशित करता और जल
को वाष्प में परिवर्तित कर वर्षा करता है जैसे पृथ्वी मनुष्यादि जीवों के के लिए आश्रय
स्थल रूप में और अन्न औषधि आदि से मनुष्य का पालन पोषण करती है, इसी प्रकार यह अष्ट
वसु अपने अपने गुणों से मनुष्यादि आदि जीवों को बसाते अर्थात उनके अनुकूल परिस्थितियों
को उत्पन्न करते हैं, यह इसका अर्थ है जो दयानंद ने कुछ का कुछ लिख दिया, इसमें यह
कही नही लिखा कि सूर्य तारों आदि में मनुष्यादि प्रजा बसते है, यह मिथ्या अर्थ तो दयानंद
के कपोल भंडार से निकलें है, इस कारण यह मानने योग्य नहीं,
हाँ
यह बात सब विद्वानों के मन में अवश्य आती है कि इस विशाल ब्रह्मांड में पृथ्वी जैसे
और भी ग्रह हो सकते हैं, जिनमें शायद हमारी ही भांति मनुष्यादि जीव रहते हो, परन्तु
सूर्य तरों आदि ऊर्जा स्रोतों पर मनुष्यादि प्रजा की कल्पना करना सिवाय चुतियों के
और किसी के बुद्धि में नहीं आ सकती।
॥इति चुतियार्थप्रकाश खंडनम् समाप्तम्॥
2 comments
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ReplyDeleteक्यो हिला डाला ना तुम लोग दयानंंद को पूर्ण महान मानते हो और दूसरे क्या मूर्ख व धूर्त है?
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