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नस्लभेदी जातिवादी “दयानंद” | Naslbhedhi Jativadi Dayanand

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॥पैदाइशी चुतिया प्रकरण॥


हमारे दयानंदी गपोड़िये अक्सर एक बात कहते नहीं थकते कि दयानंद ने समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों पर आक्रमण करते हुए, जातिवाद का विरोध किया, तथा कर्म के आधार पर वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही, वे दलितोद्धार के पक्षधर थे, इसी प्रकार के और न जाने क्या क्या गपोड़े मारते है, सो आज इस लेख के माध्यम से मैं इन सब बातों का खंडन कर, दयानंद की जिहादी विचारधारा से आप लोगों को अवगत कराना चाहता हूँ, जिससे यह सिद्ध हो जायेगा कि दयानंद दलितोद्धार के पक्षधर नहीं बल्कि दलितोद्धार के घोर विरोधी थे, समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों नस्लभेद जातिवाद आदि को बढ़ावा देने वाले स्वामी दयानंद ही थे, जो स्वयं दयानंद के ही द्वारा लिखे वेदभाष्य और लेखों से सिद्ध होता है देखिये--

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-१)

अग्नये पीवानं पृथिव्यै पीठसर्पिणं वायवे चाण्डालम् अन्तरिक्षाय वम्ँ शनर्तिनं दिवे खलतिम्ँ सूर्याय हर्यक्षं नक्षत्रेभ्यः किर्मिरं चन्द्रमसे किलासम् अह्ने शुक्लं पिङ्गाक्षम्ँ रात्र्यै कृष्णं पिङ्गाक्षम्॥ ~यजुर्वेद { ३०/२१}

दयानंद अपने यजुर्वेदभाष्य में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि---


“हे परमेश्वर वा राजन् !आप, (हर्यक्षम्)- बन्दर की सी छोटी आँखों वाले शीतप्राय देशी मनुष्यों को,,,,,,, (पिङ्गलम्)- पीली आँखोवाले को उत्पन्न कीजिये,,,,,, (चाण्डालम्)- भंगी को, (खलतिम्)- गंजे को,,,,,, (कृष्णम्)- काले रंगवाले, (पिङ्गाक्षम्))- पीले नेत्रों से युक्त पुरूष को दूर कीजिये”

स्वामी जी अपने इस अर्थ की पुष्टि के लिए भावार्थ में स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि—“भंगी के शरीर से आया वायु दुर्गंधयुक्त होने से सेवन योग्य नहीं इस कारण उसे दूर भगावें”

समीक्षक-- वाह रे! इस कपोल कल्पित वेदभाष्य के लिखने वाले, वेदों के नाम से अनैतिक शिक्षा कर लोगों से घृणा कराने वाले भडवानंद क्या कहने तेरे! तुझको ऐसा मिथ्या अर्थ करते तनिक भी लज्जा वा शर्म न आयी, यह भी न सोचा कि जब विद्वान जन तुम्हारा यह अर्थ पढ़ेंगे तो तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे, क्या यही ईश्वरीय वचन है? इस वेद श्रुति में यही कथन किया है? जब संस्कृत तुम्हारी बुद्धि से परे है, तो भला क्यों वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ करते हो, तुम्हारे द्वारा किया यह कल्पित अर्थ किन्हीं पदों से सिद्ध नहीं होता, देखों इसका सही अर्थ यह है कि--

अग्नये पीवानं पृथिव्यै पीठसर्पिणं वायवे चाण्डालम् अन्तरिक्षाय वम्ँ शनर्तिनं दिवे खलतिम्ँ सूर्याय हर्यक्षं नक्षत्रेभ्यः किर्मिरं चन्द्रमसे किलासम् अह्ने शुक्लं पिङ्गाक्षम्ँ रात्र्यै कृष्णं पिङ्गाक्षम्॥

(अग्नये)= अग्नि के समीप कार्य करने के लिए, (पीवानम्)= बलवान पुरुषों को, (पृथिव्यै)= पृथ्वी के लिए, (पीठसर्पिणम्)= आसन पर बैठकर कार्य करने वाले पुरुषों को, (वायवे)= तेज वायु वाले स्थान के लिए, (चाण्डालम्)= प्रचंड शक्तिवाले पुरुष को, (अन्तरिक्षाय)= आकाश स्थित अर्थात ऊंचाई वाले कार्य के लिए, (वंशनर्त्तिनम्)= बाँस पर कलादि दिखाने वालों को, (दिवे)= द्युलोक के लिए, (खलतिम्)= आकाशस्थ गोलिय पिंड़ों की गति को जानने वाले खगोलविद पुरुषों को, (सूर्याय)= सूर्य के लिए, (हर्यक्षम्)= हरित वर्ण वाले, (नक्षत्रेभ्यः)= नक्षत्रों के लिए, (किर्मिरम्)= धवल वर्ण के जानने वाले विदजनों को, (चन्द्रमसे)= चन्द्र सम्बन्धी प्रभावों के निवारण हेतु, (किलासम्)= किलासविद जनों को, (अह्ने)= दिन के कार्यों के लिए, (शुक्लम्)= श्वेत रंग के, (पिङ्गाक्षम्)= पीले नेत्रों वाले, तथा (रात्र्यै)= रात्रि के लिए, (कृष्णम्)= काले रंग वाले, (पिङ्गाक्षम्)= पीले नेत्रों से युक्त पुरूषों को नियुक्त करना चाहिए।

यह इसका अर्थ है, इस श्रुति में सब प्रकार के प्राणीयों, जो जिसके योग्य है उससे वह कार्य लें ऐसा इस श्रुति में कथन किया है, इससे इसमें किसी का अनादर नहीं देखा जाता और जबकि इसी श्रुति का स्वामी निर्बोधानंद जी ने कैसे अर्थ का अनर्थ किया है वह आप सबके सामने है, दयानंद का यह भाष्य पढ़कर इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि दयानंद पैदाइशी हुतिया है, दयानंद का यह भाष्य इस बात की पुष्टि करता है, अब यहाँ विद्वान लोगों को स्वयं दयानंद के इस अर्थ पर एक दृष्टि ड़ालकर यह देखना चाहिए कि प्रथम तो दयानंद ने अपने इस अर्थ में यह लिखते हैं कि "हे परमेश्वर वा राजन्! आप (पिङ्गालम्) पीली आँखवाले को उत्पन्न कीजिये" और फिर स्वयं ही उस पदार्थ के अन्त में ऊपर लिखी बात के विरुद्ध यह लिखते हैं कि "हे परमेश्वर आप, (पिङ्गाक्षम्) पीले नेत्रों से युक्त पुरूष को दूर कीजिये"

अब यहाँ बुद्धिमान जन स्वयं विचारें कि एक ही मंत्र में दो परस्पर विरुद्ध बातों का लिखना, क्या दयानंद की बुद्धि पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाता? क्या ईश्वर इस प्रकार की परस्पर विरुद्ध बातों से भरा उपदेश मनुष्यों को कर सकता है? कदापि नहीं, इस मुर्खानंद ने तो अपने इस भाष्य से ईश्वर तक को कंफ्यूज कर दिया होगा, फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या करनी, अब यह बात तो हमारे दयानंदी भाई ही बता सकेंगे, की दयानंद के इस भाष्यानुसार ईश्वर को क्या करना चाहिये, वह पीले नेत्रों वाले मनुष्यों को उत्पन्न करें या ना करें! और सुनिये,

अपने इसी भाष्य में दयानंद जी आगे लिखते हैं कि “हे परमेश्वर! आप, (हर्यक्षम्)- बन्दर की सी छोटी आँखों वाले शीतप्राय देशी मनुष्यों को, (चाण्डालम्)- भंगी को, (खलतिम्)- गंजे को, (कृष्णम्)- काले रंगवाले, (पिङ्गाक्षम्))- पीले नेत्रों से युक्त पुरूष को दूर कीजिये”

अब यहाँ विद्वान लोग विचारें कि भला ईश्वर भंगी, गंजे, काले रंग वाले, पीले नेत्रों वाले और छोटी आँखों वाले, मनुष्यों को दूर क्यों करें, इनसे संसार की कौन सी ऐसी हानि हो गई जो ईश्वर इनको दूर करें, इन सबने स्वामी जी का ऐसा क्या बिगाड़ दिया जो स्वामी जी इनकी भडास अपने वेदभाष्यों में निकाल रहे हैं, भला ईश्वर इन्हें दूर क्यों करें कोई कारण तो लिखा होता, क्या यह सब मनुष्य मनुष्य की संतान नहीं? या फिर इनकी सृष्टि ईश्वर द्वारा नहीं हुई, भला ईश्वर ऐसा क्यों करने लगे, जिन्हें स्वयं ईश्वर ने ही उत्पन्न किया वह उन्हें दूर क्यों करेंगे?

हाँ दयानंद जरूर ऐसा सोचते होंगे, शायद उन्हें ऐसे पुरुष अच्छे न लगते हो, जिसे उन्होंने अपने वेदभाष्य के माध्यम से लिखकर उनके प्रति मन में भरी घृणा को जगजाहिर किया है, और भावार्थ में तो स्पष्ट यह तक लिख दिया कि “भंगी के शरीर से आया वायु दुर्गंधयुक्त होने से सेवन के योग्य नहीं इसलिए उन्हें दूर भगावें” अब दयानंदी ही बतायें कि यदि दयानंद के भाष्यानुसार भंगी को सिर्फ इस कारण दूर कर दें क्योकि उसके शरीर से दुर्गंधयुक्त वायु आती है, तो क्या उनके बदले यह कार्य करने दयानंद का बाप आयेगा, इससे सिद्ध होता है कि समाज में व्याप्त कुरीतियों नस्लभेद, जातिवाद आदि को बढ़ावा देने वाले दयानंद ही है और वही अनैतिक शिक्षा दयानंद ने अपने वेदभाष्यों से अपने लाडले शिष्यों के लिए लिखीं हैं, और सुनिये

इस भाष्य में ऊपर दयानंद ने यह लिखा है कि “हे परमेश्वर! आप, (हर्यक्षम्) बन्दर की सी छोटी आँखों वाले शीतप्राय देशी मनुष्यों को दूर भगावें”


यह स्वामी जी ने क्या लिख दिया, ऐसी शारीरिक रचना तो विशेषकर तिब्बत आदि देश के मनुष्यों की होती है और स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में यह लिखा है कि उनकी और उनके पूर्वजों की सृष्टि तिब्बत में हुई थी, और इस में बसने से पूर्व स्वामी जी और उनके नियोगी चैले तिब्बती थे, इससे यह सिद्ध हुआ कि यह बन्दर की सी छोटी आँखों वाले मनुष्य दयानंद तथा आर्य समाजीयों के पूर्वज हुए, और अपने ही पूर्वजों के लिए दयानंद यह लिखते हैं कि परमेश्वर उन्हें दूर भगावें, धन्य हे! दयानंद की बुद्धि जिसे अपने मत की अपने लिखें कि ही सुध नहीं, कि  क्या उल्ट सूल्ट लिख दिया स्वयं को खबर नहीं, दरअसल यह दयानंद के भंग की तरंग है भंग के नशे में मूहँ में जो अंड संड आया बक दिया जो मन में आया सो लिख दिया, भला ऐसे भंगेडी के बातों का क्या प्रमाण? और सुनिये--


 

(दयानंद कृत यजुर्वेदभाष्य, भाष्य-२)

मूर्धा वयः प्रजापतिश् छन्दः। क्षत्रं वयो मयंदं छन्दः। विष्टम्भो वयो ऽधिपतिश् छन्दः। विश्वकर्मा वयः परमेष्ठी छन्दः। वस्तो वयो विवलं छन्दः। वृष्णिर् वयो विशालं छन्दः। पुरुषो वयस् तन्द्रं छन्दः। व्याघ्रो वयो ऽनाधृष्टं छन्दः। सिँहो वयश् छदिश् छन्दः। पष्ठवाड् वयो बृहती छन्दः। ऽ उक्षा वयः ककुप् छन्दः। ऽ ऋषभो वयः सतोबृहती छन्दः॥ ~यजुर्वेद  {१४/९}

दयानंद अपने यजुर्वेद में इसका अर्थ यह लिखते हैं कि--

“हे स्त्री वा पुरुष! (व्याघ्र:) जो विविध प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार सूँघता है, उस जन्तु के तुल्य राजा तू,,,,,, (षष्ठवाट्)- पीठ से बोझ उठाने वाले ऊँट आदि के सदृश वैश्य तू,,,,,, (उक्षा)- सींचनेहारे बैल के तुल्य शूद्र तू, (ऋषभ:)- शीघ्रगन्ता पशु के तुल्य भृत्य तू, (छन्दः)- स्वतंत्रता की प्रेरणा कर”

समीक्षक-- वाह रे! इस वेदभाष्य के लिखने वाले गवर्गण्ड दयानंद क्या कहने तेरे, ऊँट के सदृश वैश्य, बैल के तुल्य शूद्र और शीघ्रगन्ता पपशु के तुल्य भृत्य (सेवक), धन्य है ऐसा भाष्यकार और धन्य है ऐसे भाष्यों को मानने वाले मुझे समझ नहीं आता कि ये अर्थ दयानंद ने किस निघंटु से लिए है जहाँ “(षष्ठवाट्)- पीठ से बोझ उठाने वाले ऊँट आदि के सदृश वैश्य, (उक्षा)- सींचनेहारे बैल के तुल्य शूद्र, और (ऋषभ:)- शीघ्रगन्ता पशु के तुल्य भृत्य” आदि पदों के यह अर्थ लिखें हैं, इस श्रुति का यह अर्थ तो किन्हीं पदों से सिद्ध नहीं होता, किन्तु इसका सही अर्थ यह है कि--

“गायत्री रूप से प्रजापति ने इच्छाशक्ति द्वारा मूर्धन्य ब्राह्मण की उत्पत्ति की, अनिरूत्त छन्द से संरक्षण-युक्त क्षत्रिय का सृजन किया, जगत् को पोषण देने वाले परमेश्वर ने छन्द रूप हो वैश्यों की रचना की, परमेष्ठी विश्वकर्मा ने शक्ति द्वारा छन्द रूप शुद्र की उत्पत्ति की, एकपाद नामक छन्द के प्रभाव से परमेश्वर ने मेष आदि जीवों को उत्पन्न किया, पंक्ति छन्द के प्रभाव से मनुष्य को उत्पन्न किया, विराट छन्द के प्रभाव से प्रजापति ने व्याघ्र आदि को प्रकट किया, अतिजगती छन्द के प्रभाव से सिंह को प्रकट किया, बृहती छन्द के प्रभाव से भारवाहक पशुओं को उत्पन्न किया, ककुप् छन्द के प्रभाव से प्रजापति ने उक्षा जाति को उत्पन्न किया, सतोबृहती छन्द के प्रभाव से भालू आदि पशुओं को उत्पन्न किया”

यह इसका अर्थ है और दयानंद ने इस श्रुति के अर्थ का क्या अनर्थ किया है वो आपके सामने है और सुनिये सिर्फ यही नहीं दयानंद ने राजा तक को पशु तुल्य बताते हुए राजा को किसी कुत्ते की भांति समझ लिया है स्वामी मुर्खानंद जी लिखते हैं कि (व्याघ्र:)- जो विविध प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार सूँघता है उस जन्तु के तुल्य राजा तू, (सिंह:)- पशु आदि को मारनेहारे सिंह के समान पराक्रमी राजा तू,

अब कहिये इससे बड़ी चुतियापंति और क्या हो सकती है? जिस राजा को प्रजा पिता तुल्य, ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में देखती है, उसे दयानंद किसी कुत्ते की भांति सुघने वाला पशु बताते हैं,

और इसी प्रकार दयानंद ने अध्याय १६ मंत्र ५२ में भी लिखा हैं कि—“हे (विकिरिन्द्र)- विशेषकर सूवर के समान सोने वाले, (भगव:)- ऐश्वर्ययुक्त राजन”

बुद्धिमान विचारें क्या राजा को कुत्ते सूवर आदि की उपमा देना ठीक है स्वयं सोचकर देखिए जिस ईश्वर को दयानंद ने स्वयं अपने वेदभाष्यों में अनेकों स्थान पर “राजा” ऐसा कथन किया है, उसी को यहाँ कुत्ते की भांति सुघने वाला, सूवर के समान सोने वाला लिखा है इससे समझा जा सकता है कि इस वेदभाष्य के लिखने वाले दयानंद की बुद्धि कैसी रही होगी?

लोगों का तो पता नहीं पर दयानंद का ये भाष्य पढ़कर दयानंद की प्रशंसा में मेरे मुख से दो वाक्य जरूर निकलते हैं कि-- भंग के नशे में विशेषकर सूवर के समान सोने वाले भंगेडानंद, भाष्य हो तो ऐसा और धूर्त हो तो तेरे जैसा

शुद्र, वैश्य, भृत्य(सेवक), राजा आदि को पशु तुल्य बताने वाले दयानंद के लिए ये उपमा बिल्कुल सही है

क्योकि मेरे हिसाब से स्वामी दयानंद ने अपने अदभुद ज्ञान से विश्व भर में फैली गंदगी को उसी प्रकार दूर कर किया जिस प्रकार एक सूवर गूँ खाकर समाज में फैली गंदगी को दूर करता है

और मुझे नहीं लगता कि दयानंदीयों को इससे कोई आपत्ति होनी चाहिए,

यहाँ तक कि दयानंद राजा को निर्दोष पशुओं को मारने वाले हिंसक सिंह के समान बोलते है,

भला निर्दोष पशुओं की हत्या करने वाला राजा पराक्रमी कैसे हुआ?


यहाँ तो दयानंद ने पशुहिंसा को भी धर्म का अंग बता दिया, वाह रे भंगेडानंद तेरी बुद्धि! तुम्हारे शब्दों की कैसी विचित्र महिमा है जिस ईश्वर को अपने वेदभाष्यों में स्वयं राजा तुल्य लिखा है और यहां उसी राजा को कुत्ते आदि जीवों की भांति सुघने वाला और सूवर के समान सोने वाला कथन किया है, इससे विदित होता है कि इस दिन तुमने प्रथम तो लौटा भर कर पिया होगा फिर भाष्य करने बैठे होंगे।

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