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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय छ: श्लोक 05-10

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आत्मसंयमयोग » आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण



उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥


उद्धरेत् – उद्धार करे; आत्मना – मन से; आत्मानम् – बद्धजीव को; – कभी नहीं; आत्मानम् – बद्धजीव को; अवसदायेत् – पतन होने दे; आत्मा – मन; एव – निश्चय ही; हि – निस्सन्देह; आत्मनः – बद्धजीव का; बन्धुः – मित्र; आत्मा – मन; एव – निश्चय ही; रिपुः – शत्रु; आत्मनः – बद्धजीव का,

भावार्थ :  अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥5॥

तात्पर्य : प्रसंग के अनुसार आत्मा शब्द का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा होता है । योगपद्धति में मन तथा आत्मा का विशेष महत्त्व है । चूँकि मन ही योगपद्धति का केन्द्रबिन्दु है, अतः इस प्रसंग में आत्मा का तात्पर्य मन होता है । योगपद्धति का उद्देश्य मन को रोकना तथा इन्द्रियविषयों के प्रति आसक्ति से उसे हटाना है । यहाँ पर इस बात पर बल दिया गया है कि मन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाय कि वह बद्धजीव को अज्ञान के दलदल से निकाल सके । इस जगत् में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है । वास्तव में शुद्ध आत्मा इस संसार में इसीलिए फँसा हुआ है क्योंकि मन मिथ्या अहंकार में लगकर प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व जताना चाहता है । अतः मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से आकृष्ट ण हो और इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके । मनुष्य को इन्द्रियविषयों से आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए । जो जितना ही इन्द्रियविषयों के प्रति आकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता है । अपने को विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्णभावनामृत में निरत रखा जाय । हि शब्द इस बता पर बल देने के लिए प्रयुक्त है अर्थात् इसे अवश्य करना चाहिए । अमृतबिन्दु उपनिषद् में (२) कहा भी गया है –

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्ष्योः ।
बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ।।

“मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है । इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है ।” अतः जो मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है, वही परं मुक्ति का कारण है ।




बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥६॥


बन्धुः – मित्र; आत्मा – मन; आत्मनः – जीव का; तस्य – उसका; येन – जिससे; आत्मा- मन; एव – निश्चय ही; आत्मना – जीवात्मा के द्वारा; जितः – विजित; अनात्मनः – जो मन को वश में नहीं कर पाया उसका; तू – लेकिन; शत्रुत्वे – शत्रुता के करण; वर्तेत – बना रहता है; आत्मा एव – वाही मन; शत्रु-वत् – शत्रु की भाँति,

भावार्थ :  जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है॥6॥

तात्पर्य : अष्टांगयोग के अभ्यास का प्रयोजन मन को वश में करना है, जिससे मानवीय लक्ष्य प्राप्त करने में वह मित्र बना रहे । मन को वश में किये बिना योगाभ्यास करना मात्र समय को नष्ट करना है । जो अपने मन को वश में नहीं कर सकता, वह सतत अपने परं शत्रु के साथ निवास करता है और इस तरह उसका जीवन तथा लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते हैं । जीव की स्वाभाविक स्थिति यह है कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करे । अतः जब तक मन अविजित शत्रु बना रहता है, तब तक मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की आज्ञाओं का पालन करना होता है । किन्तु जब मन पर विजय प्राप्त हो जाती है, तो मनुष्य इच्छानुसार उस भगवान् की आज्ञा का पालन करता है जो सबों के हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित है । वास्तविक योगाभ्यास हृदय के भीतर परमात्मा से भेंट करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना है । जो व्यक्ति साक्षात् कृष्णभावनामृत स्वीकार करता है वह भगवान् की आज्ञा के प्रति स्वतः समर्पित हो जाता है ।
  



जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥७॥


जित-आत्मनः – जिसने मन को जीत लिया है; प्रशान्तस्य – मन को वश में करके शान्ति प्राप्त करने वाले का; परम-आत्मा – परमात्मा; समाहितः – पूर्णरूप से प्राप्त; शीत – सर्दी; उष्ण – गर्मी में; सुख – सुख; दुःखेषु – तथा दुख में; तथा – भी; मान – सम्मान; अपमानयोः – तथा अपमान में,

भावार्थ :  सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌ प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं॥7॥

तात्पर्य : वस्तुतः प्रत्येक जीव उस भगवान् की आज्ञा का पालन करने के निमित्त आया है, जो जन-जन के हृदयों में परमात्मा-रूप में स्थित है । जब मन बहिरंगा माया द्वारा विपथ पर कर दिया जाता है तब मनुष्य भौतिक कार्यकलापों में उलझ जाता है । अतः ज्योंही मन किसी योगपद्धति द्वारा वश में आ जाता है त्योंही मनुष्य को लक्ष्य पर पहुँच हुआ मान लिया जाना चाहिए । मनुष्य को भगवद्-आज्ञा का पालन करना चाहिए । जब मनुष्य का मन परा-प्रकृति में स्थिर हो जाता है तो जीवात्मा के समक्ष भगवद्-आज्ञा पालन करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता । मन को किसी न किसी उच्च आदेश को मानकर उनका पालन करना होता है । मन को वश में करने से स्वतः ही परमात्मा के आदेश का पालन होता है । चूँकि कृष्णभावनाभावित होते ही यह दिव्य स्थिति प्राप्त हो जाती है, अतः भगवद्भक्त संसार के द्वन्द्वों, यथा सुख-दुख, सर्दी-गर्मी आदि से अप्रभावित रहता है । यह अवस्था व्यावहारिक समाधि या परमात्मा में तल्लीनता है ।




ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥८॥


ज्ञान – अर्जित ज्ञान; विज्ञान – अनुभूत ज्ञान से; तृप्त – सन्तुष्ट; आत्मा – जीव; कूट-स्थः – आध्यात्मिक रूप से स्थित; विजित-इन्द्रियः – इन्द्रियों के वश में करके; युक्तः – आत्म-साक्षात्कार के लिए सक्षम; इति – इस प्रकार; उच्यते – कहा जाता है; योगी – योग का साधक; सम – समदर्शी; लोष्ट्र – कंकड़; अश्म – पत्थर; काञ्चनः – स्वर्ण,

भावार्थ :  जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है॥8॥

तात्पर्य : परमसत्य की अनुभूति के बिना कोरा ज्ञान व्यर्थ होता है । भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.२३४) कहा गया है –

अतः श्रीकृष्णनामादि ण भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियैः ।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ।।

“कोई भी व्यक्ति अपनी दूषित इन्द्रियों के द्वारा श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा उनकी लीलाओं की दिव्य प्रकृति को नहीं समझ सकता । भगवान् की दिव्य सेवा से पूरित होने पर ही कोई उनके दिव्य नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं को समझ सकता है ।”

यह भगवद्गीता कृष्णभावनामृत का विज्ञान है । मात्र संसारी विद्वता से कोई कृष्णभावनाभावित नहीं हो सकता । उसे विशुद्ध चेतना वाले का सान्निध्य प्राप्त होने का सौभाग्य मिलना चाहिए । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को भगवत्कृपा से ज्ञान की अनुभूति होती है, क्योंकि वह विशुद्ध भक्ति से तुष्ट रहता है । अनुभूत ज्ञान से वह पूर्ण बनता है । आध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य अपने संकल्पों में दृढ़ रह सकता है , किन्तु मात्र शैक्षिक ज्ञान से वह बाह्य विरोधाभासों द्वारा मोहित और भ्रमित होता रहता है । केवल अनुभवी आत्मा ही आत्मसंयमी होता है, क्योंकि वह कृष्ण की शरण में जा चुका होता है । वह दिव्य होता है क्योंकि उसे संसारी विद्वता से कुछ लेना-देना नहीं रहता । उसके लिए संसारी विद्वता तथा मनोधर्म, जो अन्यों के लिए स्वर्ण के सामान उत्तम होते हैं, कंकड़ों या पत्थरों से अधिक नहीं होते ।
 



सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥९॥


सु-हृत् – स्वभाव से; मित्र – स्नेहपूर्ण हितेच्छु; अरि – शत्रु; उदासीन – शत्रुओं में तटस्थ; मध्य-स्थ – शत्रुओं में पंच; द्वेष – ईर्ष्यालु; बन्धुषु – सम्बन्धियों या शुभेच्छुकों; साधुषु – साधुओं में; अपि – भी; – तथा; पापेषु – पापियों में; सम-बुद्धिः – सामान बुद्धि वाला; विशिष्यते – आगे बढ़ा हुआ होता है,

भावार्थ :  सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है॥9॥





योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥१०॥


योगी – योगी; युञ्जित – कृष्णचेतना में केन्द्रित करे; सततम् – निरन्तर; आत्मानम् – स्वयं को (मन, शरीर तथा आत्मा से); रहसि – एकान्त स्थान में; स्थितः – स्थित होकर; एकाकी – अकेले; यात-चित्त-आत्मा – मन में सदैव सचेत; निराशीः – किसी अन्य वस्तु से आकृष्ट हुए बिना; अपरिग्रहः – स्वामित्व की भावना से रहित, संग्रहभाव से मुक्त,

भावार्थ :  मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥

तात्पर्य : कृष्ण की अनुभूति ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान् के विभिन्न रूपों में होती है । संक्षेप में, कृष्णभावनामृत का अर्थ है – भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहना । किन्तु जो लोग निराकार ब्रह्म अथवा अन्तर्यामी परमात्मा के प्रति आसक्त होते हैं, वे भी आंशिक रूप से कृष्णभावनाभावित हैं क्योंकि निराकार ब्रह्म कृष्ण की आध्यात्मिक किरण है और परमात्मा कृष्ण का सर्वव्यापी आंशिक विस्तार होता है । इस प्रकार निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी भी अपरोक्ष रूप से कृष्णभावनाभावित होते हैं । प्रत्यक्ष कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सर्वोच्च योगी होता है क्योंकि ऐसा भक्त जानता है कि ब्रह्म तथा परमात्मा क्या हैं । उसका परमसत्य विषयक ज्ञान पूर्ण होता है, जबकि निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी अपूर्ण रूप में कृष्णभावनाभावित होते हैं ।

इतने पर भी इन सबों को अपने-अपने कार्यों में निरन्तर लगे रहने का आदेश दिया जाता है, जिससे वे देर-सवेर परं सिद्धि प्राप्त कर सकें । योगी का पहला कर्तव्य है कि वह कृष्ण पर अपना ध्यान सदैव एकाग्र रखे । उसे सदैव कृष्ण का चिन्तन करना चाहिए और एक क्षण के लिए भी उन्हें नहीं भुलाना चाहिए । परमेश्र्वर में मन की एकाग्रता ही समाधि कहलाती है । मन को एकाग्र करने के लिए सदैव एकान्तवास करना चाहिए और बाहरी उपद्रवों से बचना चाहिए । योगी को चाहिए कि वह अनुकूल परिस्थियों को ग्रहण करे और प्रतिकूल परिस्थितियों को त्याग दे, जिससे उसकी अनुभूति पर कोई प्रभाव न पड़े । पूर्ण संकल्प कर लेने पर उसे उन व्यर्थ की वस्तुओं के पीछे नहीं पड़ना चाहिए जो परिग्रह भाव में उसे फँसा लें ।

ये सारी सिद्धियाँ तथा सावधानियाँ तभी पूर्णरूपेण कार्यान्वित हो सकती हैं जब मनुष्य प्रत्यक्षतः कृष्णभावनाभावित हो क्योंकि साक्षात् कृष्णभावनामृत का अर्थ है – आत्मोसर्ग जिसमें संग्रहभाव (परिग्रह) के लिए लेशमात्र स्थान नहीं होता । श्रील रूपगोस्वामी कृष्णभावनामृत का लक्षण इस प्रकार देते हैं –

अनासक्तय विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः ।
निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते ।।
प्रापञ्चिकतया बुद्धया हरिसम्बन्धिवस्तुनः ।
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते ।।

“जब मनुष्य किसी वस्तु के प्रति आसक्त ण रहते हुए कृष्ण से सम्बन्धित हर वस्तु को स्वीकार कर लेता है, तभी वह परिग्रहत्व से ऊपर स्थित रहता है । दूसरी ओर, जो व्यक्ति कृष्ण से सम्बन्धित वस्तु को बिना जाने त्याग देता है उसका वैराग्य पूर्ण नहीं होता ।” (भक्तिरसामृत सिन्धु २.२५५ – २५६) ।

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भलीभाँति जानता रहता है कि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण की है, फलस्वरूप वह सभी प्रकार के परिग्रहभाव से मुक्त रहता है । इस प्रकार वह अपने लिए किसी वस्तु की लालसा नहीं करता । वह जानता है कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत के अनुरूप वस्तुओं को स्वीकार किया जाता है और कृष्णभावनामृत के प्रतिकूल वस्तुओं का परित्याग कर दिया जाता है ।वह सदैव भौतिक वस्तुओं से दूर रहता है, क्योंकि वह दिव्य होता है और कृष्णभावनामृत से रहित व्यक्तियों से किसी प्रकार का सरोकार न रखने के करण सदा अकेला रहता है । अतः कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति पूर्णयोगी होता है ।
 

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