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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 16-20

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पुरुषोत्तमयोग » क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विषय



द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥


भावार्थ :  इस संसार में नाशवान और अविनाशी भी ये दो प्रकार (गीता अध्याय ७ श्लोक ४-५ में जो अपरा और परा प्रकृति के नाम से कहे गए हैं तथा अध्याय १३ श्लोक 1 में जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के नाम से कहे गए हैं, उन्हीं दोनों का यहाँ क्षर और अक्षर के नाम से वर्णन किया है) के पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है॥16॥

तात्पर्य  : जैसा की पहले बताया जा चूका है ,भगवान् ने अपने व्यासदेव अवतार में ब्रह्मसूत्र का संकल्प किया । भगवान् ने यहाँ पर वेदान्तसूत्र की विषयवस्तु का सार -संछेप दिया है। उनका कहना है की जीव जिनकी संख्या अन्नंत है ,दो श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते है -च्युत (क्षर )तथा अच्युत (अक्षर)।जीव भगवान् के सनातन पृथक्कीकृत अंश( विभिन्नंश )है ।जब उनका संसर्ग भौतिक जगत से होता है तो वे जीवभूत कहलाते है ।यहाँ पर क्षर :सर्वानी भूतानी पद प्रयुक्त हुआ है ,जिसका अर्थ है की जीव च्युत है लेकिन जो जीव परमेश्वर से एकत्व स्थापित कर लेते है वे अच्युत कहलाते है ।एकत्व का अर्थ यह नहीं है की उनकी अपनी निजी सत्ता नहीं है ,बल्कि यह की दोनों में भिन्नता नहीं है।वे सब सृजन के प्रयोजन को मानते है ।निःसंदेह आध्यात्मिक जगत में सृजन जैसी कोई वस्तु नहीं है ,लेकिन चूँकि,जैसा की वेदांत सूत्र में कहा गया है ,भगवान् समस्त उद्भवो के स्तोत्र है ,अतएव यहाँ पर इस विचारधारा की व्याख्या की गई है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार जीवो की दो श्रेणिया है ।वेदों में इसके प्रमाण मिलते है ,अतएव इसमें संदेह करने का प्रश्न ही नहीं उठता ।इस संसार में संघर्ष -रत सारे जीव मन तथा पांच इन्द्रियों से शरीर वाले है जो परिवर्तनशील है ।जब तक जीव बद्द है ,तब तक उसका शरीर पदार्थ के संसर्ग से बदलता रहता है ।चूँकि पदार्थ बदलता रहता है ,इसलिए जीव बदलते प्रतीत बदलते प्रतीत होते है ।लेकिन आध्यात्मिक जगत में शरीर पदार्थ से नही बना होता ,अतएव उसमे परिवर्तन नहीं होता ।भौतिक जगत में जीव छह परिवर्तनों से गुजरता है -जन्म ,वृद्धि ,अस्तित्व ,प्रजनन ,क्षय,तथा विनाश ।ये भौतिक शरीर के परिवर्तन है ।लेकिन आध्यात्मिक जगत में शरीर परिवर्तन नहीं होता ,वहां न जरा है ,न जन्म और न मृत्यु ।वे सब एकावस्था में रहते है ।क्षर: सर्वांनी भूतानी -जो भी जीव आदि ब्रह्मा से लेकर छुद्र चीटी तक भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है ,वह अपना शरीर बदलता है ।अतएव ये सब क्षर या च्युत है ।किन्तु आध्यात्मिक जगत में वे मुक्त जीव सदा एकावस्था में रहते है ।



उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१७॥


भावार्थ :  इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है॥17॥

तात्पर्य  : इस श्लोक का भाव कठोपनिशद (२.२.१३ )तथा श्वेताश्वर उपनिषद में (६.१३)अत्यंत सुन्दर ढंग से व्यक्त हुआ है ।वहा यह कहा गया है की असंख्य जीवो के नियंता ,जिनमे से कुछ बध्य है और कुछ मुक्त है ,एक परम पुरुष है जो परमात्मा है ।उपनिषद का श्लोक इस प्रकार है -नित्यो नित्यानाम चेतनश्चैतनानाम ।सारांश यह है की बद्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीवो में से एक परम पुरुष भगवान् होता है ,जो उन सबका पालन करता है और उन्हें उनके कर्मो के अनुसार भोग की सुविधा प्रदान करता है।वह भगवान् परमात्मा रूप में सबके ह्रदय में स्थित है ।जो बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें समझ सकता है ,वही पूर्ण शांति-लाभ कर सकता है ,अन्य कोई नहीं ।




यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१८॥


भावार्थ :  क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग- क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ॥18॥

तात्पर्य  : भगवान् कृष्ण से बढकर कोई नहीं है -न तो बद्ध जीव न मुक्त जीव ।अतएव वे पुरुषोतम है ।अब यह स्पष्ट हो चूका है की जीव तथा भगवान् व्यष्टि है ।अंतर इतना है की जीव चाहे बद्ध अवस्था में रहे या मुक्त अवस्था में ,वह शक्ति में भगवान् की अकल्पनीय शक्तियों से बढकर नहीं हो सकता ।यह सोचने गलत है की भगवान् तथा जीव समान स्तर पर है या सब प्रकार से एकसमान है ।इनके व्यक्तित्वों में सदेव श्रेष्ठता तथा निम्नता बनी रहती है ।उतम शब्द अत्यंत सार्थक है।भगवान् से बढकर कोई नहीं है ।
लोके शब्द "पौरुष आगम (स्मृति-शास्त्र )में "के लिए आया है ।जैसा की निरुक्ति कोष में पुष्टि की गई है -लोक्यते वेदार्थअनेन -वेदों का प्रायोजन स्मृति -शास्त्रों में विवेचित है ।"
भगवान् के अन्तर्यामी परमात्मा स्वरुप का भी वेदों में वर्णन हुआ है ।निम्नलिखित श्लोक वेदों में (छान्दोग्य उपनिषद ८.१२.३ )आया है -तावदेष सम्प्रसादोंअस्माच्छरीरात्स्मुत्थाय परम ज्योतीरूपं संपद्य स्वेन रुपेनाभीनिष्पद्यते स उतम :पुरुषः ।"शरीर से निकल कर परम आत्मा का प्रवेश निराकार ब्रह्म ज्योति में होता है ।तब वे अपने इस आध्यात्मिक स्वरुप में बने रहते है ।यह परम आत्मा ही परम पुरुष कहलाता है ।"इसका अर्थ यह हुआ की परम पुरुष अपना आध्यात्मिक तेज प्रगट करते तथा प्रसारित करते रहते है और यही चरम प्रकाश है ।उस परम पुरुष का एक स्वरुप है अन्तर्यामी परमात्मा ।भगवान् सत्यवती तथा पराशर के पुत्ररूप में अवतार ग्रहण कर व्यासदेव के रूप में वैदिक ज्ञान की व्याख्या करते है ।



यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१९॥


भावार्थ :  भारत! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व से पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है॥19॥

तात्पर्य  : जीव तथा भगवान् की स्वाभाविक स्थति के विषय में अनेक दार्शनिक उहापोह करते है ।इस श्लोक में भगवान् स्पष्ट बताते है की जो भगवान् कृष्ण को परम पुरुष के रूप में जनता है ,वह सारी वस्तुओ का ज्ञाता है ।अपूर्ण ज्ञाता परम सत्य के विषय में केवल चिंतन करता जाता है ,जबकि पूर्ण ज्ञाता समय का अपव्यय किये बिना सीधे कृष्णभावनामृत में लग जाता है ,अर्थात भगवान् की भक्ति करने लगता है ।सम्पूर्ण भगवतगीता में पग पग पर इस तथ्य पर बल दिया गया है ,फिर भी भगवतगीता के ऐसे अनेक कट्टर भाष्यकार है ,जो परमेश्वर तथा जीव को एक ही मानते है ।
वैदिक ज्ञान श्रुति कहलाता है,जिसका अर्थ है श्रवण करके सीखना ।वास्तव में वैदिक सूचना कृष्ण तथा उनके प्रतिनिधियों जैसे अधिकारियो से ग्रहण करनी चाहिए ।यहाँ कृष्ण ने हर वस्तु का अंतर सुन्दर ढंग से बताया है ,अतएव इसी स्तोत्र से सुनना चाहिए ।लेकिन केवल सुकरो की तरह सुनना पर्याप्त नहीं है ,मनुष्य को चाहिए की अधिकारियों से समझे ।ऐसा नहीं की केवल शुष्क चिंतन ही करता रहे ।मनुष्य को विनीत भाव से भगवतगीता से सुनना चाहिए की सारे जीव सदेव भगवान् के अधीन है ।जो भी इसे समझ लेता है ,वही कृष्ण के कथनानुसार वेदों के प्रयोजन को समझता है,अन्य कोई नहीं समझता ।
भजति शब्द अत्यंत सार्थक है ।कई स्थानों पर भजति का सम्बन्ध भगवान् के सेवा के अर्थ में व्यक्त हुआ है। यदि कोई व्यक्ति पूर्ण कृष्णभावनामृत में रत है ,अर्थात भगवान् की भक्ति करता है ,तो यह समझना चाहिए की उसने सारा वैदिक ज्ञान समझ लिया है ।वैष्णव परंपरा में यह कहा जाता है की यदि कोई कृष्ण भक्ति में लगा रहता है,तो उसे भगवान् को जानने के लिए किसी अन्य आध्यात्मिक विधी की आवश्यकता नहीं रहती।भगवान् की भक्ति करने के कारण वह पहले से लक्ष्य तक पहुंचा रहता है ।वह ज्ञान की समस्त प्रारंभिक विधियो को पार कर चूका होता है।लेकिन यदि कोई लाखो जन्मो तक चिंतन करने पर भी इस लक्ष्य पर नहीं पहुँच पाता की कृष्ण ही भगवान् है ,और उनकी ही शरण ग्रहण करनी चाहिए ,तो उसका अनेक जन्मो का चिंतन व्यर्थ जाता है ।



इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥२०॥


भावार्थ :  हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है॥20॥

तात्पर्य : भगवान् ने यहाँ स्पष्ट किया है की यही सारे शास्त्रों का सार है और भगवान् ने इसे जिस रूप में कहा है उसे उसी रूप में समझा जाना चाहिए ।इस तरह मनुष्य बुद्धिमान तथा दिव्य-ज्ञान में पूर्ण हो जायगा ।दुसरे शब्दों में ,भगवान् इस दर्शन को समझने तथा उनकी दिव्य -सेवा में प्रवृत से प्रत्येक व्यक्तिप्रकृति के गुणों के समस्त कल्मष से मुक्त हो सकता है ।भक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की एक विधि है ।जहा भी भक्ति होती है,वहा भौतिक कल्मष नहीं रह सकता ।भगवद्भक्ति तथा स्वयं भगवान् एक है क्योकि दोनों आध्यात्मिक है ।भक्ति परमेश्वर की अंतरंगा शक्ति के भीतर होती है ।भगवान् सूर्य के समान है और अज्ञान अन्धकार है ।जहा सूर्य विद्यमान है वहा अन्धकार का प्रश्न ही नहीं उठता ।अतएव जब भी प्रमाणिक गुरु के मार्गदर्शन के अंतर्गत भक्ति की जाती है ,तो अज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठता ।
प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए की कृष्णभावनामृत को ग्रहण करे और बुद्धिमान तथा शुद्ध बनने के लिए भक्ति करे ।जब तक कोई कृष्ण को इस प्रकार नहीं समझता और भक्ति में प्रवृत नही होता ,तब तक सामान्य मनुष्य की दृष्टी में कोई कितना बुद्धिमान क्यों न हो ,वह पूर्णतया बुद्धिमान नहीं है ।
जिस अनघ शब्द से अर्जुन को संबोधित किया गया है ,वह सार्थक है ।अनघ अर्थात "हे निष्पाप "का अर्थ है की जब तक मनुष्य समस्त पापकर्मो से मुक्त नहीं हो जाता ,तब तक कृष्ण को समझ पाना कठिन है ।उसे समस्त कल्मष ,समस्त पापकर्मो से मुक्त होना होता है ,तभी वह समझ सकता है ।लेकिन भक्ति इतनी शुद्ध तथा शक्तिमान होती है की एक बार भक्ति में प्रवृत होने पर मनुष्य स्वतः निष्पाप हो जाता है ।
शुद्ध भक्तो की संगती में रहकर पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति करते हुए कुछ बातो को बिलकुल ही दूर कर देना चाहिए ।सबसे महत्वपूर्ण बात जिसपर विजय पानी है ,वह है ह्रदय की दुर्बलता ।पहला पतन प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के कारण होता है।इस तरह मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को त्याग देता है ।दूसरी ह्रदय की दुर्बलता है की जब कोई अधिकाधिक प्रभुत्व जताने की इच्छा करता है,तो वह भौतिक पदार्थ के स्वामित्व के प्रति आसक्त हो जाता है ।इस संसार की सारी समस्याए इन्ही ह्रदय की दुर्बलताओ के कारण है ।इस अध्याय के प्रथम पांच श्लोको में ह्रदय की इन्ही दुर्बलताओ से अपने को मुक्त करने की विधि का वर्णन हुआ है और छठे श्लोक से अंतिम श्लोक तक पुरुषोत्तम योग की विवेचना हुई है ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥15॥
 इस प्रकार श्रीमद्भागवद्गीता के पंद्रहवे अध्याय "पुरुषोत्तम योग " का भक्ति वेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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