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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 07-12

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( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा ) 



योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥७॥


योग-युक्तः – भक्ति में लगे हुए; विशुद्ध-आत्मा – शुद्ध आत्मा; विजित-आत्मा – आत्म-संयमी; जित-इन्द्रियः – इन्द्रियों को जितने वाला; सर्व-भूत – समस्त जीवों के प्रति; आत्म-भूत-आत्मा – दयालु; कुर्वन् अपि – कर्म में लगे रहकर भी; न – कभी नहीं; लिप्यते – बँधता है ।

भावार्थ :  जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता॥7॥

तात्पर्य : जो कृष्णभावनामृत के कारण मुक्तिपथ पर है वह प्रत्येक जीव को प्रिय होता है और प्रत्येक जीव उसके लिए प्यारा है । यह कृष्णभावनामृत के कारण होता है । ऐसा व्यक्ति किसी भी जीव को कृष्ण के पृथक् नहीं सोच पाता, जिस प्रकार वृक्ष की पत्तियाँ तथा टहनियाँ वृक्ष से भिन्न नहीं होती । वह भलीभाँति जानता है कि वृक्ष की पत्तियाँ तथा टहनियाँ वृक्ष से भिन्न नहीं होतीं । वह भलीभाँति जानता है कि वृक्ष की जड़ में डाला गया जल समस्त पत्तियों तथा टहनियों में फैल जाता है अथवा आमाशय को भोजन देने से शक्ति स्वतः पुरे शरीर में फैल जाती है । चूँकि कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाला सबों का दास होता है, अतः वह हर एक को प्रिय होता है । चूँकि प्रत्येक व्यक्ति उसके कर्म से प्रसन्न रहता है, अतः उसकी चेतना शुद्ध रहती है । चूँकि उसकी चेतना शुद्ध रहती है, अतः उसका मन पूर्णतया नियंत्रण में रहता है । मन के नियंत्रित होने से उसकी इन्द्रियाँ संयमित रहती है । चूँकि उसका मन सदैव कृष्ण में स्थिर रहता है, अतः उसके विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता । न ही उसे कृष्ण से सम्बद्ध कथाओं के अतिरिक्त अन्य कार्यों में अपनी इन्द्रियों को लगाने का अवसर मिलता है । वह कृष्णकथा के अतिरिक्त और कुछ सुनना नहीं चाहता, वह कृष्ण को अर्पित किए हुआ भोजन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं खाना चाहता और न ऐसे किसी स्थान में जाने की इच्छा रखता है जहाँ कृष्ण सम्बन्धी कार्य न होता हो । अतः उसकी इन्द्रियाँ वश में रहती हैं । ऐसा व्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ संयमित हो, वह किसी के प्रति अपराध नहीं कर सकता । इस पर कोई यह प्रश्न कर सकता है, तो फिर अर्जुन अन्यों के प्रति युद्ध में आक्रामक क्यों था? क्या वह कृष्णभावनाभावित नहीं था? वस्तुतः अर्जुन ऊपर से ही आक्रामक था, क्योंकि जैस कि द्वितीय अध्याय में बताया जा चुका है, आत्मा के अवध्य होने के कारण युद्धभूमि में एकत्र हुए सारे व्यक्ति अपने-अपने स्वरूप में जीवित बने रहेंगे । अतः अतः अध्यात्मिक दृष्टि से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कोई मारा नहीं गया । वहाँ पर स्थित कृष्ण की आज्ञा से केवल उनके वस्त्र बदल दिये गये । अतः अर्जुन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध करता हुआ भी वस्तुतः युद्ध नहीं कर रहा था । वह तो पूर्ण कृष्णभावनामृत में कृष्ण के आदेश का पालन मात्र कर रहा था । ऐसा व्यक्ति कभी कर्मबन्धन से नहीं बँधता ।

         
 
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥८॥


प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥९॥

न – नहीं; एव – निश्चय ही; किञ्चित् – कुछ भी; करोमि – करता हूँ; इति – इस प्रकार; युक्तः – दैवी चेतना में लगा हुआ; मन्येत – सोचता है; तत्त्ववित् – सत्य को जानने वाला; पश्यन् – देखता हुआ; शृण्वन् – सुनता हुआ; स्पृशन् – स्पर्श करता हुआ; जिघ्रन – सूँघता हुआ; अश्नन् – खाता हुआ; गच्छन्- जाता; स्वपन् – स्वप्न देखता हुआ; श्र्वसन् – साँस लेता हुआ; प्रलपन् – वाट करता हुआ; विसृजन् – त्यागता हुआ; गृह्णन् – स्वीकार करता हुआ; उन्मिषन् – खोलता हुआ; निमिषन् – बन्द करता हुआ; अपि – तो भी; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को; इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रिय-तृप्ति में; वर्तन्ते – लगी रहने देकर; इति – इस प्रकार; धारयन् – विचार करते हुए,

भावार्थ :  तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ॥8-9॥

तात्पर्य : चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का जीवन शुद्ध होता है फलतः उसे निकट तथा दूरस्थ पाँच कारणों – करता, कर्म, अधिष्ठान, प्रयास तथा भाग्य – पर निर्भर किसी कार्य से कुछ लेना-देना नहीं रहता । इसका कारण यह है कि वह भगवान् की दिव्य देवा में लगा रहता है । यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने शरीर तथा इन्द्रियों से कर्म कर रहा है, किन्तु वह अपनी वास्तविक स्थिति के प्रति सचेत रहता है जो कि आध्यात्मिक व्यस्तता है । भौतिक चेतना में इन्द्रियाँ इन्द्रियतृप्ति में लगी रहती हैं, किन्तु कृष्णभावनामृत में वे कृष्ण की इन्द्रियों की तुष्टि में लगी रहती हैं । अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सदा मुक्त रहता है, भले ही वह ऊपर से भौतिक कार्यों में लगा हुआ दिखाई पड़े । देखने तथा सुनने के कार्य ज्ञानेन्द्रियों के कर्म हैं जबकि चलना, बोलना, मत त्यागना आदि कर्मेन्द्रियों के कार्य हैं । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कभी भी इन्द्रियों के कार्यों से प्रभावित नहीं होता । वह भगवत्सेवा के अतिरिक्त कोई दूसरा कार्य नहीं कर सकता क्योंकि उसे ज्ञात है कि वह भगवान् का शाश्र्वत दास है ।
       

 
 
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥१०॥


ब्रह्मणि – भगवान् में; आधाय – समर्पित करके; कर्माणि – सारे कार्यों को; सङ्गम् – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्यागकर; करोति – करता है; यः – जो; लिप्यते – प्रभावित होता है; न – कभी नहीं; सः – वह; पापेन – पाप से; पद्म-पत्रम् – कमल पत्र; इव – के सदृश; अम्भसा – जल के द्वारा ।

भावार्थ :  जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता॥10॥

तात्पर्य : यहाँ पर ब्रह्मणि का अर्थ “कृष्णभावनामृत में” है । यह भौतिक जगत् प्रकृति के तीन गुणों की समग्र अभिव्यक्ति है जिसे प्रधान की संज्ञा दी जाती है । वेदमन्त्र सर्वं ह्येतद्ब्रह्म (माण् डूक्य उपनिषद् २), तस्माद् एतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते (मुण्डक उपनिषद् १.२.१०) तथा भगवद्गीता में (१४.३) मम योनिर्महद्ब्रह्म से प्रकट है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और यद्यपि कार्य भिन्न-भिन्न रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु तो भी वे कारन से अभिन्न हैं । इशोपनिषद् में कहा गया है कि सारी वस्तुएँ परब्रह्म या कृष्ण से सम्बन्धित हैं, अतएव वे केवल उन्हीं की हैं । जो यह भलीभाँति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है और वे ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं अतः प्रत्येक वस्तु भगवान् की सेवा में ही नियोजित है, उसे स्वभावतः शुभ-अशुभ कर्मफलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता । यहाँ तक कि विशेष प्रकार का कर्म सम्पन्न करने के लिए भगवान् द्वारा प्रदत्त मनुष्य का शरीर भी कृष्णभावनामृत में संलग्न किया जा सकता है । तब यह पापकर्मों के कल्मष से वैसे ही परे रहता है जैसे कि कमलपत्र जल से रहकर भी भीगता नहीं । भगवान् गीता (३.३०) में भी कहते है – मयित सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य – सम्पूर्ण कर्मों को मुझे (कृष्ण को) समर्पित करो । तात्पर्य यह है कि कृष्णभावनामृत-विहीन पुरुष शरीर एवं इन्द्रियों को अपना स्वरूप समझ कर कर्म करता है, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति यः समझ कर कर्म करता है कि वह देह कृष्ण की सम्पत्ति है, अतः इसे कृष्ण की इसे में प्रवृत्त होने चाहिए ।
       

 
 
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥११॥


कायेन – शरीर से; मनसा – मन से; बद्धया – बुद्धि से; केवलैः – शुद्ध; इन्द्रियैः – इन्द्रियों से; अपि – भी; योगिनः – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति; कर्म – कर्म; कुर्वन्ति – करते हैं; सङ्गं – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्याग कर; आत्म- आत्मा की; शुद्धये – शुद्धि के लिए,

भावार्थ :  कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं॥11॥

तात्पर्य : जब कोई कृष्णभावनामृत में कृष्ण की इन्द्रियतृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों द्वारा कर्म करता है तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता । अतः सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से सम्पन्न किये जा सकते है । श्रील रूप गोस्वामी में भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.१८७) इसका वर्णन इस प्रकार किया है –
 
ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा ।
निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते ।।
 
“अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्णसेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है, भले ही वह तथाकथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे ।” उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह इसमें विश्र्वास नहीं रखता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है । वह जानता है कि वह यह शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है । वह स्वयं कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की सम्पत्ति आदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, कृष्ण की सेवा में लगता है और उस अहंकार से रहित होता है जिसके कारन मनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूँ । यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है ।


 
 
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥१२॥


युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; कर्म-फलम् – समस्त कर्मों के फल; त्यक्त्वा – त्यागकर; शान्तिम् – पूर्ण शान्ति को; आप्नोति – प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम् – अचल; अयुक्तः – कृष्णभावना से रहित; काम-कारेण – कर्मफल को भोगने के कारण; फले – फल में; सक्तः – आसक्त; निबध्यते – बँधता है,

भावार्थ :  कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है॥12॥

तात्पर्य : एक कृष्ण भावना भावित व्यक्ति तथा देहात्मबुद्धि वाले व्यक्ति में यह अन्तर है कि पहला तो कृष्ण के प्रति आसक्त रहता है जबकि दूसरा अपने कर्मों के प्रति आसक्त रहता है । जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त रहकर उन्हीं के लिए कर्म करता है वह निश्चय ही मुक्त पुरुष है और उसे अपने कर्मफल की कोई चिन्ता नहीं होती । भागवत में किसी कर्म के फल की चिन्ता का कारण परमसत्य के ज्ञान के बिना द्वैतभाव में रहकर कर्म करना बताया गया है । कृष्ण श्रीभगवान् हैं । कृष्णभावनामृत में कोई द्वैत नहीं रहता । जो कुछ विद्यमान है वह कृष्ण का प्रतिफल है और कृष्ण सर्वमंगलमय हैं । अतः कृष्णभावनामृत में सम्पन्न सारे कार्य परम पद पर हैं । वे दिव्य होते हैं और उनका कोई भौतिक प्रभाव नहीं पड़ता । इस कारण कृष्णभावनामृत में जीव शान्ति से पूरित रहता है । किन्तु जो इन्द्रियतृप्ति के लिए लोभ में फँसा रहता है, उसे शान्ति नहीं मिल सकती । यही कृष्णभावनामृत का रहस्य है – यह अनुभूति कि कृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, शान्ति तथा अभय का पद है ।
 

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