श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता दूसरा अध्याय श्लोक 01-10
सांख्ययोग » अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः || १ ||
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; तम् – अर्जुन के प्रति; तथा – इस प्रकार; कृपया – करुणा से; आविष्टम् – अभिभूत; अश्रु-पूर्ण-आकुल – अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम् – नेत्र; विषीदन्तम् – शोकयुक्त; इदम् – यह; वाक्यम् – वचन; उवाच – कहा; मधु-सूदनः – मधु का वध करने वाले (कृष्ण) ने |
भावार्थ : संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे |
तात्पर्य : भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा, शोक तथा अश्रु – ये सब असली आत्मा को न जानने का लक्षण हैं | शाश्र्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म-साक्षात्कार है | इस श्लोक में मधुसूदन शब्द महत्त्वपूर्ण है | कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण अज्ञान रूपी असुर का वध करें जिसने उसे कर्तव्य से विमुख कर रखा है | यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए | डूबते हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मुर्खता होगी | अज्ञान-सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात् स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता | जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए शोक करता है, वह शुद्र कहलाता है अर्थात् वह वृथा ही शोक करता है | अर्जुन तो क्षत्रिय था, अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी | किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को विनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होंने भगवद्गीता का उपदेश दिया | यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म-साक्षात्कार का उपदेश देता है, जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा की गई है | यह साक्षात्कार तभी सम्भव है जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म-बोध को प्राप्त हो |
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन || २ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; कुतः – कहाँ से; त्वा – तुमको; कश्मलम् – गंदगी, अज्ञान; इदम् – यह शोक; विषमे – इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम् – प्राप्त हुआ; अनार्य – वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम् – आचरित; अस्वर्ग्यम् – उच्च लोकों को जो न ले जाने वाला; अकीर्ति – अपयश का; करम् – कारण; अर्जुन – हे अर्जुन |
भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो | इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है |
तात्पर्य : श्रीकृष्ण तथा भगवान् अभिन्न हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान् ही कहा गया है | भगवान् परम सत्य की पराकाष्ठा हैं | परमसत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है – ब्रह्म या निर्विशेष सर्वव्यापी चेतना, परमात्मा या भगवान् का अन्तर्यामी रूप जो समस्त जीवों के हृदय में है तथा भगवान् या श्रीभगवान् कृष्ण | श्री मद्भागवत में (१.२.११) परम सत्य की यह धारणा इस प्रकार बताई गई है –
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्यानमद्वयम् |
ब्रह्मेति परमात्मेतिभगवानिति शब्द्यते ||
“परम सत्य का ज्ञाता परमसत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है, और ये सब अवस्थाएँ एकरूप हैं | ये ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के रूप में व्यक्त की जाती हैं |”
इन तीन दिव्य पक्षों को सूर्य के दृष्टान्त द्वारा समझाया जा सकता है क्योंकि उसके भी तीन भिन्न पक्ष होते हैं – यथा, धूप(प्रकाश), सूर्य की सतह तथा सूर्यलोक स्वयं | जो सूर्य के प्रकाश का अध्ययन करता है वह नौसिखिया है | जो सूर्य की सतह को समझता है वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है और जो सूर्यलोक में प्रवेश कर सकता है वह उच्चतम ज्ञानी है | जो नौसिखिया सूर्य प्रकाश – उसकी विश्र्व व्याप्ति तथा उसकी निर्विशेष प्रकृति के अखण्ड तेज – के ज्ञान से ही तुष्ट हो जाता है वह उस व्यक्ति के समान है जो परम सत्य के ब्रह्म रूप को ही समझ सकता है | जो व्यक्ति कुछ अधिक जानकार है वह सूर्य गोले के विषय में जान सकता है जिसकी तुलना परम सत्य के परमात्मा स्वरूप से की जाति है | जो व्यक्ति सूर्यलोक के अन्तर में प्रवेश कर सकता है उसकी तुलना उससे की जाती है जो परम सत्य के साक्षात् रूप की अनुभूति प्राप्त करता है | अतः जिन भक्तों ने परमसत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार किया है वे सर्वोच्च अध्यात्मवादी हैं, यद्यपि परम सत्य के अध्ययन में रत सारे विद्यार्थी एक ही विषय के अध्ययन में लगे हुए हैं | सूर्य का प्रकाश, सूर्य का गोला तथा सूर्यलोक की भीतरी बातें – इन तीनों को एक दूसरे से विलग नहीं किया जा सकता, फिर भी तीनों अवस्थाओं के अध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते |
संस्कृत शब्द भगवान् कि व्याख्या व्यासदेव के पिता पराशर मुनि ने की है | समस्त धन, शक्ति, यश, सौंदर्य, ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान् कहलाता है | ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अत्यन्त धनी हैं, अत्यन्त शक्तिमान हैं, अत्यन्त सुन्दर हैं और अत्यन्त विख्यात, विद्वान् तथा विरक्त भी हैं, किन्तु कोई साधिकार यह नहीं कह सकता कि उसके पास सारा धन, शक्ति आदि है | एकमात्र कृष्ण ही ऐसा दावा कर सकते हैं क्योंकि वे भगवान् हैं | ब्रह्मा, शिव या नारायण सहित कोई भी जीव कृष्ण के समान पूर्ण एश्र्वर्यवान नहीं है | अतः ब्रह्मसंहिता में स्वयं ब्रह्माजी का निर्णय है कि श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं | न तो कोई उनके तुल्य है, न उनसे बढ़कर है | वे आदि स्वामी या भगवान् हैं, गोविन्द रूप में जाने जाते हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं –
ईश्र्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः |
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ||
“ऐसे अनेक पुरुष हैं जो भगवान् के गुणों से युक्त हैं, किन्तु कृष्ण परम हैं क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं है | वे परमपुरुष हैं और उनका शरीर सच्चिदानन्दमय है | वे आदि भगवान् गोविन्द हैं और समस्त कारणों के कारण हैं |” (ब्रह्मसंहिता ५.१)
भागवत में भी भगवान् के नाना अवतारों की सूची है, कृष्ण को आदि भगवान् बताया गया है, जिससे अनेकानेक अवतार तथा ईश्वर विस्तार करते हैं –
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् |
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ||
“यहाँ पर वर्णित सारे अवतारों की सूचियाँ या तो भगवान् की अंशकलाओं अथवा पूर्ण कलाओं की हैं, किन्तु कृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं |”
(भागवत १.३.२८)
अतः कृष्ण आदि भगवान्, परम सत्य, परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म दोनों के अद्गम है |
भगवान् कि उपस्थिति में अर्जुन द्वारा स्वजनों के लिए शोक करना सर्वथा अशोभनीय है, अतः कृष्ण ने कुतः शब्द से अपना आश्चर्य व्यक्त किया है | आर्य जैसी सभ्य जाति के किसी व्यक्ति से ऐसी मलिनता की उम्मीद नहीं की जाती | आर्य शब्द उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो जीवन के मूल्य को जानते हैं और जिनकी सभ्यताआत्म-साक्षात्कार पर निर्भर करती है | देहात्मबुद्धि से प्रेरित मनुष्यों को यह ज्ञान नहीं रहता कि जीवन का उद्देश्य परम सत्य, विष्णु या भगवान् का साक्षात्कार है | वे तो भौतिक जगत के बाह्य स्वरूप से मोहित हो जाते हैं, अतः वे यह नहीं समझ पाते कि मुक्ति क्या है | जिन पुरुषों को भौतिक बन्धन से मुक्ति का कोई ज्ञान नहीं होता वे अनार्य कहलाते हैं | यद्यपि अर्जुन क्षत्रिय था, किन्तु युद्ध से विचलित होकर वह अपने कर्तव्य से च्युत हो रहा था उसकी यह कायरता अनार्यों के लिए ही शोभा देने वाली हो सकती है | कर्तव्य-पथ से इस प्रकार का विचलन न तो आध्यात्मिक जीवन की प्रगति करने में सहायक बनता है न ही इससे संसार में ख्याति प्राप्त की जा सकती है | भगवान् कृष्ण ने अर्जुन द्वारा अपने स्वजनों पर इस प्रकार की करुणा का अनुमोदन नहीं किया |
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप || ३ ||
क्लैब्यम् – नपुंसकता; मा स्म – मत; गमः – प्राप्त हो; पार्थ – हे पृथापुत्र; न – कभी नहीं; एतत् – यह; त्वयि – तुमको; उपपद्यते – शोभा देता है; क्षुद्रम् – तुच्छ; हृदय – हृदय की; दौर्बल्यम् – दुर्बलता; त्यक्त्वा – त्याग कर; उत्तिष्ठ – खड़ा हो; परम्-तप – हे शत्रुओं का दमन करने वाले |
भावार्थ : हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ | यह तुम्हेँ शोभा नहीं देती | हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ |
तात्पर्य : अर्जुन को पृथापुत्र के रूप में सम्बोधित किया गया है | पृथा कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं, अतः कृष्ण के साथ अर्जुन का रक्त-सम्बन्ध था | यदि क्षत्रिय-पुत्र लड़ने से मना करता है तो वह नाम का क्षत्रिय है और यदि ब्राह्मण पुत्र अपवित्र कार्य करता है तो वह नाम का ब्राह्मण है | ऐसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण अपने पिता के अयोग्य पुत्र होते हैं, अतः कृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन अयोग्य क्षत्रिय पुत्र कहलाए | अर्जुन कृष्ण का घनिष्ठतम मित्र था और कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से उसके रथ का संचालन कर रहे थे, किन्तु इन सब गुणों के होते हुए भी यदि अर्जुन युद्धभूमि को छोड़ता है तो वह अत्यन्त निन्दनीय कार्य करेगा | अतः कृष्ण ने कहा कि ऐसी प्रवृत्ति अर्जुन के व्यक्तित्व को शोभा नहीं देती | अर्जुन यह तर्क कर सकता था कि वह परम पूज्य भीष्म तथा स्वजनों के प्रति उदार दृष्टिकोण के कारण युद्धभूमि छोड़ रहा है, किन्तु कृष्ण ऐसी उदारता को केवल हृदय दौर्बल्य मानते हैं | ऐसी झूठी उदारता का अनुमोदन एक भी शास्त्र नहीं करता | अतः अर्जुन जैसे व्यक्ति को कृष्ण के प्रत्यक्ष निर्देशन में ऐसी उदारता या तथाकथित अहिंसा का परित्याग कर देना चाहिए |
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन || ४ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; कथम् – किस प्रकार; भीष्मम् – भीष्म को; अहम् – मैं; संख्ये – युद्ध में; द्रोणम् – द्रोण को; च – भी; मधुसूदन – हे मधु के संहारकर्ता; इषुभिः – तीरों से; प्रतियोत्स्यामि – उलट कर प्रहार करूँगा; पूजा-अर्हौ – पूजनीय; अरि-सूदन – हे शत्रुओं के संहारक!
भावार्थ : अर्जुन ने कहा – हे शत्रुहन्ता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊँगा?
तात्पर्य : भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य जैसे सम्माननीय व्यक्ति सदैव पूजनीय हैं | यदि वे आक्रमण भी करें तो उन पर उलट कर आक्रमण नहीं करना चाहिए | यह
सामान्य शिष्टाचार है कि गुरुजनों से वाग्युद्ध भी न किया जाय | तो फिर भला अर्जुन उन पर बाण कैसे छोड़ सकता था? क्या कृष्ण कभी अपने पितामह, नाना उग्रसेन या अपने आचार्य सान्दीपनि मुनि पर हाथ चला सकते थे? अर्जुन ने कृष्ण के समक्ष ये ही कुछ तर्क प्रस्तुत किये |
गुरूनहत्वा हि महानुभवान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् || ५ ||
गुरुन् – गुरुजनों को; अहत्वा – न मार कर; हि – निश्चय ही; महा-अनुभवान् – महापुरुषों को; श्रेयः – अच्छा है; भोक्तुम् – भोगना; भैक्ष्यम् – भीख माँगकर; अपि – भी; इह – इस जीवन में; लोके – इस संसार में; हत्वा – मारकर; अर्थ – लाभ भी; कामान् – इच्छा से; तु – लेकिन; गुरुन् – गुरुजनों को; इह – इस संसार में; एव – निश्चय ही; भुञ्जीय – भोगने के लिए बाध्य; भोगान् – भोग्य वस्तुएँ; रुधिर – रक्त से; प्रदिग्धान् – सनी हुई, रंजित |
भावार्थ : ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है | भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु अनके रक्त से सनी होगी |
तात्पर्य : शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो, त्याज्य है | दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे, यद्यपि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था | ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे | किन्तु अर्जुन सोचता है कि इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा – रक्त से सने अवशेषों का भोग |
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः || ६ ||
न – नहीं; च – भी; एतत् – यह; विद्मः – हम जानते हैं; कतरत् – जो; नः – हमारे लिए; गरीयः – श्रेष्ठ; यत् वा – अथवा; जयेम – हम जीत जाएँ; यदि – यदि; वा – या; नः – हमको; जयेयुः – वे जीतें; यान् – जिनको; एव – निश्चय ही; हटवा – मारकर; न – कभी नहीं; जिजीविषामः – हम जीना चाहेंगे; ते – वे सब; अवस्थिताः – खड़े हैं; प्रमुखे – सामने; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र |
भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है – उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना | यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है | फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं |
तात्पर्य : अर्जुन की समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह क्या करे – युद्ध करे और अनावश्यक रक्तपात का कारण बने, यद्यपि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है; या फिर वह युद्ध से विमुख हो कर भीख माँग कर जीवन-यापन करे | यदि वह शत्रु को जीतता नहीं तो जीविका का एकमात्र साधन भिक्षा ही रह जाता है | यदि उसकी विजय हो भी जाय (क्योंकि उसका पक्ष न्याय पर है), तो भी यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मरते हैं, तो उनके बिना रह पाना अत्यन्त कठिन हो जायेगा | उस दशा में यह उसकी दूसरे प्रकार की हार होगी | अर्जुन द्वारा व्यक्त इस प्रकार के विचार सिद्ध करते हैं कि वह न केवल भगवान् का महान भक्त था, अपितु वह अत्यधिक प्रबुद्ध और अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला था | राज परिवार में जन्म लेकर भी भिक्षा द्वारा जीवित रहने कि इच्छा उसकी विरक्ति का दूसरा लक्षण है | ये सारे गुण तथा अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीकृष्ण के उपदेशों में उसकी श्रद्धा, ये सब मिलकर सूचित करते हैं कि वह सचमुच पुण्यात्मा था | इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि अर्जुन मुक्ति के सर्वथा योग्य था | जब तक इन्द्रियाँ संयमित न हों, ज्ञान के पद तक उठ पाना कठिन है और बिना ज्ञान तथा भक्ति के मुक्ति नहीं होती | अर्जुन अपने भौतिक गुणों के अतिरिक्त इस समस्त दैवी गुणों में भी दक्ष था |
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||
कार्पण्य – कृपणता; दोष – दुर्बलता से; उपहत – ग्रस्त; स्वभावः – गुण, विशेषताएँ; पृच्छामि – पूछ रहा हूँ; त्वाम् – तुम से; सम्मूढ – मोहग्रस्त; चेताः – हृदय में; यत् – जो; श्रेयः – कल्याणकारी; स्यात् – हो; निश्र्चितम् – विश्र्वासपूर्वक; ब्रूहि – कहो; तत् – वह; मे – मुझको; शिष्यः – शिष्य; ते – तुम्हारा; अहम् – मैं; शाधि – उपदेश दीजिये; माम् – मुझको; त्वाम् – तुम्हारा; प्रपन्नम – शरणागत |
भावार्थ : अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
तात्पर्य : यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिंता का कारण है | पग-पग पर उलझन मिलती है, अतः प्रामाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सके | समग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए | ये उलझनें उस दावाग्नि के समान हैं जो किसी के द्वारा लगाये बिना भभक उठती हैं | इसी प्रकार विश्र्व की स्थिति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझनें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं | कोई नहीं चाहता कि आग लगे, किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्याधिक व्याकुल हो उठते हैं | अतः वैदिक वाङमय उपदेश देता है कि जीवन की उलझनों को समझने तथा समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना चाहिए | जिस व्यक्ति का प्रामाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है | अतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रह कर गुरु के पास जाना चाहिए | यही इस श्लोक का तात्पर्य है |
आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है? वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझता | बृहदारण्यक उपनिषद् में (३.८.१०) व्याकुल (व्यग्र) मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है –
यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माँल्लोकात्प्रैतिसकृपणः
– “कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को समझे बिना कूकर-सूकर की भाँति संसार को त्यागकर चला जाता है |” जीव के लिए मनुष्य जीवन अत्यन्त मूल्यवान निधि है, जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है, अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण है | ब्राह्मण इसके विपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता है | य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माँल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः |
देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार, समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गवाँ देते हैं | मनुष्य प्राय चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात् पत्नी, बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है | कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है अथवा वह यह सोचता है कि उसका परिवार या समाज उसे मृत्यु से बचा सकता है | ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पाई जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं | बुद्धिमान् होने के कारण अर्जुन समझ गया कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है | यद्यपि वह समझ रहा था कि युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु कृपण-दुर्बलता (कार्पण्यदोष) के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था | अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है | वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है | वह मित्रतापूर्ण बातें बंद करना चाहता है | गुरु तथा शिष्य की बातें गम्भीर होती हैं और अब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है इसीलिए कृष्ण भगवद्गीता-ज्ञान के आदि गुरु है और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है | अर्जुन भगवद्गीता को किस तरह समझता है यह गीता में वर्णित है | तो भी मुर्ख संसारी विद्वान् बताते हैं कि किसी को मनुष्य-रूप कृष्ण की नहीं बल्कि “अजन्मा कृष्ण” की शरण ग्रहण करनी चाहिए | कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अन्तर नहीं है | इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता को समझने का प्रयास करता है, वह सबसे बड़ा मुर्ख है |
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् || ८ ||
न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रपश्यामि – देखता हूँ; मम – मेरा; अपनुद्यात् – दूर कर सके; यत् – जो; शोकम् – शोक; उच्छोषणम् – सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों को; अवाप्य – प्राप्त करके; भूमौ – पृथ्वी पर; असपत्नम् – शत्रुविहीन; ऋद्धम् – समृद्ध; राज्यम् – राज्य; सुराणाम् – देवताओं का; अपि – चाहे; च – भी; आधिपत्यम् – सर्वोच्चता |
भावार्थ : मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके | स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा |
तात्पर्य : यद्यपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली समस्या को हल नहीं कर पा रहा | वह समझ गया था कि उसका तथाकथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर) को सुखाये दे रही थीं | उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आध्यात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था | शैक्षिक ज्ञान, विद्वता, उच्च पद – ये सब जीवन की समस्याओं का हल करने में व्यर्थ हैं | यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है, तो वह है एकमात्र गुरु | अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत-प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है, वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है | भगवान् चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो, कृष्णतत्त्ववेत्ता हो, चाहे वह जिस किसी जाति का हो, वही वास्तविक गुरु है –
किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय |
येइ कृष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ ‘गुरु’ हय ||
“कोई व्यक्ति चाहे वह विप्र (वैदिक ज्ञान में दक्ष) हो, निम्न जाति में जन्मा शुद्र हो या कि सन्यासी, यदि कृष्ण के विज्ञान में दक्ष (कृष्णतत्त्ववेत्ता) है तो वह यथार्थ प्रामाणिक गुरु है |” (चैतन्य-चरितामृत, मध्य ८.१२८) | अतः कृष्णतत्त्ववेत्ता हुए बिना कोई भी प्रामाणिक गुरु नहीं हो सकता | वैदिक साहित्य में भी कहा गया है –
षट्कर्मनिपुणो विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः |
अवैष्णवो गुरुर्न स्याद् वैष्णवः श्र्वपचो गुरुः ||
“विद्वान ब्राह्मण, भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो, यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्णभावनामृत में दक्ष नहीं है तो गुरु बनने का पात्र नहीं है | किन्तु शुद्र, यदि वह वैष्णव या कृष्णभक्त है तो गुरु बन सकता है |” (पद्मपुराण)
संसार की समस्याओं – जन्म, जरा, व्याधि तथा मृत्यु – की निवृत्ति धन-संचय तथा आर्थिक विकास से संभव नहीं है | विश्र्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी सुविधाओं से तथा सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं, किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं | वे विभिन्न साधनों से शान्ति खोजते हैं, किन्तु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है जब वे कृष्णभावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्णतत्त्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के परामर्श को ग्रहण करते हैं |
यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था से उत्पन्न हुए शोकों को दूर कर पाते, तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती | इसीलिए उसने कृष्णभावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शान्ति तथा समरसता का उचित मार्ग है | आर्थिक विकास या विश्र्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है | यहाँ तक कि चन्द्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी, जिसके लिए मनुष्य प्रयत्नशील हैं, एक झटके में समाप्त हो सकती है | भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती है – क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति – जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य सुख के शिखर से जीवन के निम्नतम स्टार पर गिर जाता है | इस तरह से विश्र्व के अनेक राजनीतिज्ञों का पतन हुआ है | ऐसा अधःपतन शोक का कारण बनता है |
अतः यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं तो हमें कृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी, जिस तरह अर्जुन ने की | अर्जुन ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे असकी समस्या का निश्चित समाधान कर दें और यही कृष्णभावनामृत की विधि है |
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || ९ ||
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – कहकर; हृषीकेशम् – कृष्ण से, जो इन्द्रियों के स्वामी हैं; गुडाकेशः – अर्जुन, जो अज्ञान को मिटाने वाला है; परंतपः – अर्जुन, शत्रुओं का दमन करने वाला; न योत्स्ये – नहीं लडूँगा; इति – इस प्रकार; गोविन्दम् – इन्द्रियों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा – कहकर; तुष्णीम् – चुप; बभूव – हो गया; ह – निश्चय ही |
भावार्थ : संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया |
तात्पर्य : धृतराष्ट्र को यह जानकर परम प्रसन्नता हुई होगी कि अर्जुन युद्ध न करके युद्धभूमि छोड़कर भिक्षाटन करने जा रहा है | किन्तु संजय ने उसे पुनः यह कह कर निराश कर दिया कि अर्जुन अपने शत्रुओं को मारने में सक्षम है (परन्तपः) | यद्यपि कुछ समय के लिए अर्जुन अपने पारिवारिक स्नेह के प्रति मिथ्या शोक से अभिभूत था, किन्तु उसने शिष्य रूप में अपने गुरु श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली | इससे सूचित होता है कि शीघ्र ही वह इस शोक से निवृत्त हो जायेगा और आत्म-साक्षात्कार या कृष्णभावनामृत के पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित होकर पुनः युद्ध करेगा | इस तरह धृतराष्ट्र का हर्ष भंग हो जायेगा |
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत
सेन्योरुभ्योर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः || १० ||
तम् – उससे; उवाच – कहा; हृषीकेश – इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन् – हँसते हुए; इव – मानो; भारत – हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों पक्षों की; मध्ये – बीच में; विषीदन्तम् – शोकमग्न; इदम् – यह (निम्नलिखित); वचः – शब्द |
भावार्थ : हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र)! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे |
तात्पर्य : दो घनिष्ट मित्रों अर्थात् हृषीकेश तथा गुडाकेश के मध्य वार्ता चल रही थी | मित्र के रूप में दोनों का पद समान था, किन्तु इनमें से एक स्वेच्छा से दूसरे का शिष्य बन गया | कृष्ण हँस रहे थे क्योंकि उनका मित्र अब उनका शिष्य बन गया था | सबों के स्वामी होने के कारण वे सदैव श्रेष्ठ पद पर रहते हैं तो भी भगवान् अपने भक्त के लिए सखा, पुत्र या प्रेमी बनना स्वीकार करते है | किन्तु जब उन्हें गुरु रूप में अंगीकार कर लिया गया तो उन्होंने तुरन्त गुरु की भूमिका निभाने के लिए शिष्य से गुरु की भाँति गम्भीरतापूर्वक बातें कीं जैसा कि अपेक्षित है | ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु तथा शिष्य की यह वार्ता दोनों सेनाओं की उपस्थिति में हुई जिससे सारे लोग लाभान्वित हुए | अतः भगवद्गीता का संवाद किसी एक व्यक्ति, समाज या जाति के लिए नहीं अपितु सबों के लिए है और उसे सुनने के लिए शत्रु या मित्र समान रूप से अधिकारी हैं|
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सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् |
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः || १ ||
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; तम् – अर्जुन के प्रति; तथा – इस प्रकार; कृपया – करुणा से; आविष्टम् – अभिभूत; अश्रु-पूर्ण-आकुल – अश्रुओं से पूर्ण; ईक्षणम् – नेत्र; विषीदन्तम् – शोकयुक्त; इदम् – यह; वाक्यम् – वचन; उवाच – कहा; मधु-सूदनः – मधु का वध करने वाले (कृष्ण) ने |
भावार्थ : संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे |
तात्पर्य : भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा, शोक तथा अश्रु – ये सब असली आत्मा को न जानने का लक्षण हैं | शाश्र्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म-साक्षात्कार है | इस श्लोक में मधुसूदन शब्द महत्त्वपूर्ण है | कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण अज्ञान रूपी असुर का वध करें जिसने उसे कर्तव्य से विमुख कर रखा है | यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए | डूबते हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मुर्खता होगी | अज्ञान-सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात् स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता | जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए शोक करता है, वह शुद्र कहलाता है अर्थात् वह वृथा ही शोक करता है | अर्जुन तो क्षत्रिय था, अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी | किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को विनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होंने भगवद्गीता का उपदेश दिया | यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म-साक्षात्कार का उपदेश देता है, जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा की गई है | यह साक्षात्कार तभी सम्भव है जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म-बोध को प्राप्त हो |
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन || २ ||
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; कुतः – कहाँ से; त्वा – तुमको; कश्मलम् – गंदगी, अज्ञान; इदम् – यह शोक; विषमे – इस विषम अवसर पर; समुपस्थितम् – प्राप्त हुआ; अनार्य – वे लोग जो जीवन के मूल्य को नहीं समझते; जुष्टम् – आचरित; अस्वर्ग्यम् – उच्च लोकों को जो न ले जाने वाला; अकीर्ति – अपयश का; करम् – कारण; अर्जुन – हे अर्जुन |
भावार्थ : श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो | इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है |
तात्पर्य : श्रीकृष्ण तथा भगवान् अभिन्न हैं, इसीलिए श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण गीता में भगवान् ही कहा गया है | भगवान् परम सत्य की पराकाष्ठा हैं | परमसत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्थाओं में होता है – ब्रह्म या निर्विशेष सर्वव्यापी चेतना, परमात्मा या भगवान् का अन्तर्यामी रूप जो समस्त जीवों के हृदय में है तथा भगवान् या श्रीभगवान् कृष्ण | श्री मद्भागवत में (१.२.११) परम सत्य की यह धारणा इस प्रकार बताई गई है –
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्यानमद्वयम् |
ब्रह्मेति परमात्मेतिभगवानिति शब्द्यते ||
“परम सत्य का ज्ञाता परमसत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्थाओं में करता है, और ये सब अवस्थाएँ एकरूप हैं | ये ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के रूप में व्यक्त की जाती हैं |”
इन तीन दिव्य पक्षों को सूर्य के दृष्टान्त द्वारा समझाया जा सकता है क्योंकि उसके भी तीन भिन्न पक्ष होते हैं – यथा, धूप(प्रकाश), सूर्य की सतह तथा सूर्यलोक स्वयं | जो सूर्य के प्रकाश का अध्ययन करता है वह नौसिखिया है | जो सूर्य की सतह को समझता है वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है और जो सूर्यलोक में प्रवेश कर सकता है वह उच्चतम ज्ञानी है | जो नौसिखिया सूर्य प्रकाश – उसकी विश्र्व व्याप्ति तथा उसकी निर्विशेष प्रकृति के अखण्ड तेज – के ज्ञान से ही तुष्ट हो जाता है वह उस व्यक्ति के समान है जो परम सत्य के ब्रह्म रूप को ही समझ सकता है | जो व्यक्ति कुछ अधिक जानकार है वह सूर्य गोले के विषय में जान सकता है जिसकी तुलना परम सत्य के परमात्मा स्वरूप से की जाति है | जो व्यक्ति सूर्यलोक के अन्तर में प्रवेश कर सकता है उसकी तुलना उससे की जाती है जो परम सत्य के साक्षात् रूप की अनुभूति प्राप्त करता है | अतः जिन भक्तों ने परमसत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार किया है वे सर्वोच्च अध्यात्मवादी हैं, यद्यपि परम सत्य के अध्ययन में रत सारे विद्यार्थी एक ही विषय के अध्ययन में लगे हुए हैं | सूर्य का प्रकाश, सूर्य का गोला तथा सूर्यलोक की भीतरी बातें – इन तीनों को एक दूसरे से विलग नहीं किया जा सकता, फिर भी तीनों अवस्थाओं के अध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते |
संस्कृत शब्द भगवान् कि व्याख्या व्यासदेव के पिता पराशर मुनि ने की है | समस्त धन, शक्ति, यश, सौंदर्य, ज्ञान तथा त्याग से युक्त परम पुरुष भगवान् कहलाता है | ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अत्यन्त धनी हैं, अत्यन्त शक्तिमान हैं, अत्यन्त सुन्दर हैं और अत्यन्त विख्यात, विद्वान् तथा विरक्त भी हैं, किन्तु कोई साधिकार यह नहीं कह सकता कि उसके पास सारा धन, शक्ति आदि है | एकमात्र कृष्ण ही ऐसा दावा कर सकते हैं क्योंकि वे भगवान् हैं | ब्रह्मा, शिव या नारायण सहित कोई भी जीव कृष्ण के समान पूर्ण एश्र्वर्यवान नहीं है | अतः ब्रह्मसंहिता में स्वयं ब्रह्माजी का निर्णय है कि श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं | न तो कोई उनके तुल्य है, न उनसे बढ़कर है | वे आदि स्वामी या भगवान् हैं, गोविन्द रूप में जाने जाते हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं –
ईश्र्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः |
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ||
“ऐसे अनेक पुरुष हैं जो भगवान् के गुणों से युक्त हैं, किन्तु कृष्ण परम हैं क्योंकि उनसे बढ़कर कोई नहीं है | वे परमपुरुष हैं और उनका शरीर सच्चिदानन्दमय है | वे आदि भगवान् गोविन्द हैं और समस्त कारणों के कारण हैं |” (ब्रह्मसंहिता ५.१)
भागवत में भी भगवान् के नाना अवतारों की सूची है, कृष्ण को आदि भगवान् बताया गया है, जिससे अनेकानेक अवतार तथा ईश्वर विस्तार करते हैं –
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् |
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ||
“यहाँ पर वर्णित सारे अवतारों की सूचियाँ या तो भगवान् की अंशकलाओं अथवा पूर्ण कलाओं की हैं, किन्तु कृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं |”
(भागवत १.३.२८)
अतः कृष्ण आदि भगवान्, परम सत्य, परमात्मा तथा निर्विशेष ब्रह्म दोनों के अद्गम है |
भगवान् कि उपस्थिति में अर्जुन द्वारा स्वजनों के लिए शोक करना सर्वथा अशोभनीय है, अतः कृष्ण ने कुतः शब्द से अपना आश्चर्य व्यक्त किया है | आर्य जैसी सभ्य जाति के किसी व्यक्ति से ऐसी मलिनता की उम्मीद नहीं की जाती | आर्य शब्द उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो जीवन के मूल्य को जानते हैं और जिनकी सभ्यताआत्म-साक्षात्कार पर निर्भर करती है | देहात्मबुद्धि से प्रेरित मनुष्यों को यह ज्ञान नहीं रहता कि जीवन का उद्देश्य परम सत्य, विष्णु या भगवान् का साक्षात्कार है | वे तो भौतिक जगत के बाह्य स्वरूप से मोहित हो जाते हैं, अतः वे यह नहीं समझ पाते कि मुक्ति क्या है | जिन पुरुषों को भौतिक बन्धन से मुक्ति का कोई ज्ञान नहीं होता वे अनार्य कहलाते हैं | यद्यपि अर्जुन क्षत्रिय था, किन्तु युद्ध से विचलित होकर वह अपने कर्तव्य से च्युत हो रहा था उसकी यह कायरता अनार्यों के लिए ही शोभा देने वाली हो सकती है | कर्तव्य-पथ से इस प्रकार का विचलन न तो आध्यात्मिक जीवन की प्रगति करने में सहायक बनता है न ही इससे संसार में ख्याति प्राप्त की जा सकती है | भगवान् कृष्ण ने अर्जुन द्वारा अपने स्वजनों पर इस प्रकार की करुणा का अनुमोदन नहीं किया |
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप || ३ ||
क्लैब्यम् – नपुंसकता; मा स्म – मत; गमः – प्राप्त हो; पार्थ – हे पृथापुत्र; न – कभी नहीं; एतत् – यह; त्वयि – तुमको; उपपद्यते – शोभा देता है; क्षुद्रम् – तुच्छ; हृदय – हृदय की; दौर्बल्यम् – दुर्बलता; त्यक्त्वा – त्याग कर; उत्तिष्ठ – खड़ा हो; परम्-तप – हे शत्रुओं का दमन करने वाले |
भावार्थ : हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ | यह तुम्हेँ शोभा नहीं देती | हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ |
तात्पर्य : अर्जुन को पृथापुत्र के रूप में सम्बोधित किया गया है | पृथा कृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं, अतः कृष्ण के साथ अर्जुन का रक्त-सम्बन्ध था | यदि क्षत्रिय-पुत्र लड़ने से मना करता है तो वह नाम का क्षत्रिय है और यदि ब्राह्मण पुत्र अपवित्र कार्य करता है तो वह नाम का ब्राह्मण है | ऐसे क्षत्रिय तथा ब्राह्मण अपने पिता के अयोग्य पुत्र होते हैं, अतः कृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन अयोग्य क्षत्रिय पुत्र कहलाए | अर्जुन कृष्ण का घनिष्ठतम मित्र था और कृष्ण प्रत्यक्ष रूप से उसके रथ का संचालन कर रहे थे, किन्तु इन सब गुणों के होते हुए भी यदि अर्जुन युद्धभूमि को छोड़ता है तो वह अत्यन्त निन्दनीय कार्य करेगा | अतः कृष्ण ने कहा कि ऐसी प्रवृत्ति अर्जुन के व्यक्तित्व को शोभा नहीं देती | अर्जुन यह तर्क कर सकता था कि वह परम पूज्य भीष्म तथा स्वजनों के प्रति उदार दृष्टिकोण के कारण युद्धभूमि छोड़ रहा है, किन्तु कृष्ण ऐसी उदारता को केवल हृदय दौर्बल्य मानते हैं | ऐसी झूठी उदारता का अनुमोदन एक भी शास्त्र नहीं करता | अतः अर्जुन जैसे व्यक्ति को कृष्ण के प्रत्यक्ष निर्देशन में ऐसी उदारता या तथाकथित अहिंसा का परित्याग कर देना चाहिए |
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन |
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन || ४ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; कथम् – किस प्रकार; भीष्मम् – भीष्म को; अहम् – मैं; संख्ये – युद्ध में; द्रोणम् – द्रोण को; च – भी; मधुसूदन – हे मधु के संहारकर्ता; इषुभिः – तीरों से; प्रतियोत्स्यामि – उलट कर प्रहार करूँगा; पूजा-अर्हौ – पूजनीय; अरि-सूदन – हे शत्रुओं के संहारक!
भावार्थ : अर्जुन ने कहा – हे शत्रुहन्ता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊँगा?
तात्पर्य : भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य जैसे सम्माननीय व्यक्ति सदैव पूजनीय हैं | यदि वे आक्रमण भी करें तो उन पर उलट कर आक्रमण नहीं करना चाहिए | यह
सामान्य शिष्टाचार है कि गुरुजनों से वाग्युद्ध भी न किया जाय | तो फिर भला अर्जुन उन पर बाण कैसे छोड़ सकता था? क्या कृष्ण कभी अपने पितामह, नाना उग्रसेन या अपने आचार्य सान्दीपनि मुनि पर हाथ चला सकते थे? अर्जुन ने कृष्ण के समक्ष ये ही कुछ तर्क प्रस्तुत किये |
गुरूनहत्वा हि महानुभवान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् || ५ ||
गुरुन् – गुरुजनों को; अहत्वा – न मार कर; हि – निश्चय ही; महा-अनुभवान् – महापुरुषों को; श्रेयः – अच्छा है; भोक्तुम् – भोगना; भैक्ष्यम् – भीख माँगकर; अपि – भी; इह – इस जीवन में; लोके – इस संसार में; हत्वा – मारकर; अर्थ – लाभ भी; कामान् – इच्छा से; तु – लेकिन; गुरुन् – गुरुजनों को; इह – इस संसार में; एव – निश्चय ही; भुञ्जीय – भोगने के लिए बाध्य; भोगान् – भोग्य वस्तुएँ; रुधिर – रक्त से; प्रदिग्धान् – सनी हुई, रंजित |
भावार्थ : ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है | भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु अनके रक्त से सनी होगी |
तात्पर्य : शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो, त्याज्य है | दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे, यद्यपि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था | ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे | किन्तु अर्जुन सोचता है कि इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा – रक्त से सने अवशेषों का भोग |
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः || ६ ||
न – नहीं; च – भी; एतत् – यह; विद्मः – हम जानते हैं; कतरत् – जो; नः – हमारे लिए; गरीयः – श्रेष्ठ; यत् वा – अथवा; जयेम – हम जीत जाएँ; यदि – यदि; वा – या; नः – हमको; जयेयुः – वे जीतें; यान् – जिनको; एव – निश्चय ही; हटवा – मारकर; न – कभी नहीं; जिजीविषामः – हम जीना चाहेंगे; ते – वे सब; अवस्थिताः – खड़े हैं; प्रमुखे – सामने; धार्तराष्ट्राः – धृतराष्ट्र के पुत्र |
भावार्थ : हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है – उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना | यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं तो हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है | फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं |
तात्पर्य : अर्जुन की समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह क्या करे – युद्ध करे और अनावश्यक रक्तपात का कारण बने, यद्यपि क्षत्रिय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है; या फिर वह युद्ध से विमुख हो कर भीख माँग कर जीवन-यापन करे | यदि वह शत्रु को जीतता नहीं तो जीविका का एकमात्र साधन भिक्षा ही रह जाता है | यदि उसकी विजय हो भी जाय (क्योंकि उसका पक्ष न्याय पर है), तो भी यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मरते हैं, तो उनके बिना रह पाना अत्यन्त कठिन हो जायेगा | उस दशा में यह उसकी दूसरे प्रकार की हार होगी | अर्जुन द्वारा व्यक्त इस प्रकार के विचार सिद्ध करते हैं कि वह न केवल भगवान् का महान भक्त था, अपितु वह अत्यधिक प्रबुद्ध और अपने मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला था | राज परिवार में जन्म लेकर भी भिक्षा द्वारा जीवित रहने कि इच्छा उसकी विरक्ति का दूसरा लक्षण है | ये सारे गुण तथा अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीकृष्ण के उपदेशों में उसकी श्रद्धा, ये सब मिलकर सूचित करते हैं कि वह सचमुच पुण्यात्मा था | इस तरह यह निष्कर्ष निकला कि अर्जुन मुक्ति के सर्वथा योग्य था | जब तक इन्द्रियाँ संयमित न हों, ज्ञान के पद तक उठ पाना कठिन है और बिना ज्ञान तथा भक्ति के मुक्ति नहीं होती | अर्जुन अपने भौतिक गुणों के अतिरिक्त इस समस्त दैवी गुणों में भी दक्ष था |
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् || ७ ||
कार्पण्य – कृपणता; दोष – दुर्बलता से; उपहत – ग्रस्त; स्वभावः – गुण, विशेषताएँ; पृच्छामि – पूछ रहा हूँ; त्वाम् – तुम से; सम्मूढ – मोहग्रस्त; चेताः – हृदय में; यत् – जो; श्रेयः – कल्याणकारी; स्यात् – हो; निश्र्चितम् – विश्र्वासपूर्वक; ब्रूहि – कहो; तत् – वह; मे – मुझको; शिष्यः – शिष्य; ते – तुम्हारा; अहम् – मैं; शाधि – उपदेश दीजिये; माम् – मुझको; त्वाम् – तुम्हारा; प्रपन्नम – शरणागत |
भावार्थ : अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |
तात्पर्य : यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिंता का कारण है | पग-पग पर उलझन मिलती है, अतः प्रामाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सके | समग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए | ये उलझनें उस दावाग्नि के समान हैं जो किसी के द्वारा लगाये बिना भभक उठती हैं | इसी प्रकार विश्र्व की स्थिति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझनें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं | कोई नहीं चाहता कि आग लगे, किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्याधिक व्याकुल हो उठते हैं | अतः वैदिक वाङमय उपदेश देता है कि जीवन की उलझनों को समझने तथा समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना चाहिए | जिस व्यक्ति का प्रामाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है | अतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रह कर गुरु के पास जाना चाहिए | यही इस श्लोक का तात्पर्य है |
आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है? वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझता | बृहदारण्यक उपनिषद् में (३.८.१०) व्याकुल (व्यग्र) मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है –
यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माँल्लोकात्प्रैतिसकृपणः
– “कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को समझे बिना कूकर-सूकर की भाँति संसार को त्यागकर चला जाता है |” जीव के लिए मनुष्य जीवन अत्यन्त मूल्यवान निधि है, जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है, अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण है | ब्राह्मण इसके विपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता है | य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माँल्लोकात्प्रैति स ब्राह्मणः |
देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार, समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गवाँ देते हैं | मनुष्य प्राय चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात् पत्नी, बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है | कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है अथवा वह यह सोचता है कि उसका परिवार या समाज उसे मृत्यु से बचा सकता है | ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पाई जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं | बुद्धिमान् होने के कारण अर्जुन समझ गया कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है | यद्यपि वह समझ रहा था कि युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु कृपण-दुर्बलता (कार्पण्यदोष) के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था | अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है | वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है | वह मित्रतापूर्ण बातें बंद करना चाहता है | गुरु तथा शिष्य की बातें गम्भीर होती हैं और अब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है इसीलिए कृष्ण भगवद्गीता-ज्ञान के आदि गुरु है और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है | अर्जुन भगवद्गीता को किस तरह समझता है यह गीता में वर्णित है | तो भी मुर्ख संसारी विद्वान् बताते हैं कि किसी को मनुष्य-रूप कृष्ण की नहीं बल्कि “अजन्मा कृष्ण” की शरण ग्रहण करनी चाहिए | कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अन्तर नहीं है | इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता को समझने का प्रयास करता है, वह सबसे बड़ा मुर्ख है |
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् || ८ ||
न – नहीं; हि – निश्चय ही; प्रपश्यामि – देखता हूँ; मम – मेरा; अपनुद्यात् – दूर कर सके; यत् – जो; शोकम् – शोक; उच्छोषणम् – सुखाने वाला; इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों को; अवाप्य – प्राप्त करके; भूमौ – पृथ्वी पर; असपत्नम् – शत्रुविहीन; ऋद्धम् – समृद्ध; राज्यम् – राज्य; सुराणाम् – देवताओं का; अपि – चाहे; च – भी; आधिपत्यम् – सर्वोच्चता |
भावार्थ : मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके | स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा |
तात्पर्य : यद्यपि अर्जुन धर्म तथा सदाचार के नियमों पर आधारित अनेक तर्क प्रस्तुत करता है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की सहायता के बिना अपनी असली समस्या को हल नहीं कर पा रहा | वह समझ गया था कि उसका तथाकथित ज्ञान उसकी उन समस्याओं को दूर करने में व्यर्थ है जो उसके सारे अस्तित्व (शरीर) को सुखाये दे रही थीं | उसे इन उलझनों को भगवान् कृष्ण जैसे आध्यात्मिक गुरु की सहायता के बिना हल कर पाना असम्भव लग रहा था | शैक्षिक ज्ञान, विद्वता, उच्च पद – ये सब जीवन की समस्याओं का हल करने में व्यर्थ हैं | यदि कोई इसमें सहायता कर सकता है, तो वह है एकमात्र गुरु | अतः निष्कर्ष यह निकला कि गुरु जो शत-प्रतिशत कृष्णभावनाभावित होता है, वही एकमात्र प्रमाणिक गुरु है और वही जीवन की समस्याओं को हल कर सकता है | भगवान् चैतन्य ने कहा है कि जो कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो, कृष्णतत्त्ववेत्ता हो, चाहे वह जिस किसी जाति का हो, वही वास्तविक गुरु है –
किबा विप्र, किबा न्यासी, शुद्र केने नय |
येइ कृष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ ‘गुरु’ हय ||
“कोई व्यक्ति चाहे वह विप्र (वैदिक ज्ञान में दक्ष) हो, निम्न जाति में जन्मा शुद्र हो या कि सन्यासी, यदि कृष्ण के विज्ञान में दक्ष (कृष्णतत्त्ववेत्ता) है तो वह यथार्थ प्रामाणिक गुरु है |” (चैतन्य-चरितामृत, मध्य ८.१२८) | अतः कृष्णतत्त्ववेत्ता हुए बिना कोई भी प्रामाणिक गुरु नहीं हो सकता | वैदिक साहित्य में भी कहा गया है –
षट्कर्मनिपुणो विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारदः |
अवैष्णवो गुरुर्न स्याद् वैष्णवः श्र्वपचो गुरुः ||
“विद्वान ब्राह्मण, भले ही वह सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो, यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्णभावनामृत में दक्ष नहीं है तो गुरु बनने का पात्र नहीं है | किन्तु शुद्र, यदि वह वैष्णव या कृष्णभक्त है तो गुरु बन सकता है |” (पद्मपुराण)
संसार की समस्याओं – जन्म, जरा, व्याधि तथा मृत्यु – की निवृत्ति धन-संचय तथा आर्थिक विकास से संभव नहीं है | विश्र्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं जो जीवन की सारी सुविधाओं से तथा सम्पत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं, किन्तु फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं | वे विभिन्न साधनों से शान्ति खोजते हैं, किन्तु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है जब वे कृष्णभावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्णतत्त्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के परामर्श को ग्रहण करते हैं |
यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय अव्यवस्था से उत्पन्न हुए शोकों को दूर कर पाते, तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती | इसीलिए उसने कृष्णभावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शान्ति तथा समरसता का उचित मार्ग है | आर्थिक विकास या विश्र्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है | यहाँ तक कि चन्द्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी, जिसके लिए मनुष्य प्रयत्नशील हैं, एक झटके में समाप्त हो सकती है | भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती है – क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति – जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं तो मनुष्य सुख के शिखर से जीवन के निम्नतम स्टार पर गिर जाता है | इस तरह से विश्र्व के अनेक राजनीतिज्ञों का पतन हुआ है | ऐसा अधःपतन शोक का कारण बनता है |
अतः यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं तो हमें कृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी, जिस तरह अर्जुन ने की | अर्जुन ने कृष्ण से प्रार्थना की कि वे असकी समस्या का निश्चित समाधान कर दें और यही कृष्णभावनामृत की विधि है |
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः |
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह || ९ ||
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – कहकर; हृषीकेशम् – कृष्ण से, जो इन्द्रियों के स्वामी हैं; गुडाकेशः – अर्जुन, जो अज्ञान को मिटाने वाला है; परंतपः – अर्जुन, शत्रुओं का दमन करने वाला; न योत्स्ये – नहीं लडूँगा; इति – इस प्रकार; गोविन्दम् – इन्द्रियों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा – कहकर; तुष्णीम् – चुप; बभूव – हो गया; ह – निश्चय ही |
भावार्थ : संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया |
तात्पर्य : धृतराष्ट्र को यह जानकर परम प्रसन्नता हुई होगी कि अर्जुन युद्ध न करके युद्धभूमि छोड़कर भिक्षाटन करने जा रहा है | किन्तु संजय ने उसे पुनः यह कह कर निराश कर दिया कि अर्जुन अपने शत्रुओं को मारने में सक्षम है (परन्तपः) | यद्यपि कुछ समय के लिए अर्जुन अपने पारिवारिक स्नेह के प्रति मिथ्या शोक से अभिभूत था, किन्तु उसने शिष्य रूप में अपने गुरु श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली | इससे सूचित होता है कि शीघ्र ही वह इस शोक से निवृत्त हो जायेगा और आत्म-साक्षात्कार या कृष्णभावनामृत के पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित होकर पुनः युद्ध करेगा | इस तरह धृतराष्ट्र का हर्ष भंग हो जायेगा |
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत
सेन्योरुभ्योर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः || १० ||
तम् – उससे; उवाच – कहा; हृषीकेश – इन्द्रियों के स्वामी कृष्ण ने; प्रहसन् – हँसते हुए; इव – मानो; भारत – हे भरतवंशी धृतराष्ट्र; सेनयोः – सेनाओं के; उभयोः – दोनों पक्षों की; मध्ये – बीच में; विषीदन्तम् – शोकमग्न; इदम् – यह (निम्नलिखित); वचः – शब्द |
भावार्थ : हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र)! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे |
तात्पर्य : दो घनिष्ट मित्रों अर्थात् हृषीकेश तथा गुडाकेश के मध्य वार्ता चल रही थी | मित्र के रूप में दोनों का पद समान था, किन्तु इनमें से एक स्वेच्छा से दूसरे का शिष्य बन गया | कृष्ण हँस रहे थे क्योंकि उनका मित्र अब उनका शिष्य बन गया था | सबों के स्वामी होने के कारण वे सदैव श्रेष्ठ पद पर रहते हैं तो भी भगवान् अपने भक्त के लिए सखा, पुत्र या प्रेमी बनना स्वीकार करते है | किन्तु जब उन्हें गुरु रूप में अंगीकार कर लिया गया तो उन्होंने तुरन्त गुरु की भूमिका निभाने के लिए शिष्य से गुरु की भाँति गम्भीरतापूर्वक बातें कीं जैसा कि अपेक्षित है | ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु तथा शिष्य की यह वार्ता दोनों सेनाओं की उपस्थिति में हुई जिससे सारे लोग लाभान्वित हुए | अतः भगवद्गीता का संवाद किसी एक व्यक्ति, समाज या जाति के लिए नहीं अपितु सबों के लिए है और उसे सुनने के लिए शत्रु या मित्र समान रूप से अधिकारी हैं|
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