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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पाँच श्लोक 13-26

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( ज्ञानयोग का विषय )


सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥१३॥


सर्व – समस्त; कर्माणि – कर्मों को; मनसा – मन से; संन्यस्य – त्यागकर; आस्ते – रहता है; सुखम् – सुख में; वशी – संयमी; नव-द्वारे – नौ द्वारों वाले; पुरे – नगर में; देही – देहवान् आत्मा; न – नहीं;एव – निश्चय ही; कुर्वन् – करता हुआ; न – नहीं; कारयन् – कराता हुआ ।
 
भावार्थ :  अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है॥13॥
तात्पर्य : देहधारी जीवात्मा नौ द्वारों वाले नगर में वास करता है । शरीर अथवा नगर रूपी शरीर के कार्य प्राकृतिक गुणों द्वारा स्वतः सम्पन्न होते हैं । शरीर की परिस्थितियों के अनुसार रहते हुए भी जीव इच्छानुसार इन परिस्थितियों के परे भी हो सकता है । अपनी परा प्रकृति को विस्मृत करने के ही कारण वह अपने को शरीर समझ बैठता है और इसीलिए कष्ट पाता है । कृष्णभावनामृत के द्वारा वह अपनी वास्तविक स्थिति को पुनः प्राप्त कर सकता है और इस देह-बन्धन से मुक्त हो सकता है । अतः ज्योंही कोई कृष्णभावनामृत को प्राप्त होता है तुरन्त ही वह शारीरिक कार्यों से सर्वथा विलग हो जाता है । ऐसे संयमित जीवन में, जिसमें उसकी कार्यप्रणाली में परिवर्तन आ जाता है, वह नौ द्वारों वाले नगर में सुखपूर्वक निवास करता है । ये नौ द्वार इस प्रकार हैं –
 
नवद्वारे पुरे देहि हंसो लेलायते बहिः ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च ।।
 
“जीव के शरीर के भीतर वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के नियन्ता हैं । यह शरीर नौ द्वारों (दो आँखे, दो नथुने, दो कान, एक मुँह, गुदा और उपस्थ) से युक्त है । बद्धावस्था में जीव अपने आपको शरीर मानता है, किन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर में रहते हुए भी भगवान् की भाँति मुक्त हो जाता है ।” (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.१८) अतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शरीर के बाह्य तथा आन्तरिक दोनों कर्मों से मुक्त रहता है ।
      

 
 
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥१४॥


न – नहीं; कर्तृत्वम् – कर्तापन या स्वामित्व को; न – न तो; कर्माणि – कर्मों को; लोकस्य – लोगों के; सृजति – उत्पन्न करता है; प्रभुः – शरीर रूपी नगर का स्वामी; न – न तो; कर्म-फल – कर्मों के फल से; संयोगम् – सम्बन्ध को; स्वभावः – प्रकृति के गुण; तु – लेकिन; प्रवर्तते – कार्य करते हैं,

भावार्थ :  परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है॥14॥

तात्पर्य : जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जाएगा जीव तो परमेश्र्वर की शक्तियों में से एक है, किन्तु वह पदार्थ से भिन्न है जो भगवान् की अपरा प्रकृति है । संयोगवश परा प्रकृति या जीव अनादिकाल से प्रकृति (अपरा) के सम्पर्क में रहा है । जिस नाशवान शरीर या भौतिक आवास को वह प्राप्त करता है वह अनेक कर्मों तथा उनके फलों का कारण है । ऐसे बद्ध वातावरण में रहते हुए मनुष्य अपने आपको (अज्ञानवश) शरीर मानकर शरीर के कर्मफलों का भोग करता है । अनन्त काल से उपार्जित यह अज्ञान ही शारीरिक सुख-दुख का कारण है । ज्योंही जीव शरीर के कार्यों से पृथक् हो जाता है त्योंही वह कर्मबन्धन से भी मुक्त हो जाता है । जब तक वह शरीर रूपी नगर में निवास करता है तब तक वह इसका स्वामी प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह न तो इसका स्वामी होता है और न इसके कर्मों तथा फलों का नियन्ता ही । वह तो इस भवसागर के बीच जीवन-संघर्ष से रत प्राणी है । सागर की लहरें उसे उछालती रहती हैं, किन्तु उन पर उसका वश नहीं चलता । उसके उद्धार का एकमात्र साधन है कि दिव्य कृष्णभावनामृत द्वारा समुद्र के बाहर आए । इसी के द्वारा समस्त अशान्ति से उसकी रक्षा हो सकती है ।
       

 
 
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥१५॥


न – कभी नहीं; आदत्ते – स्वीकार करता है; कस्यचित् – किसी की; पापम् – पाप; न – न तो; च – भी; एव – निश्चय ही; सु-कृतम् – पुण्य को; विभुः – परमेश्र्वर; अज्ञानेन – अज्ञान से; आवृतम् – आच्छादित; ज्ञानम् – ज्ञान; तेन – उससे; मुह्यन्ति – मोह-ग्रस्त होते हैं; जन्तवः – जीवगण,

भावार्थ :  सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं॥15॥

तात्पर्य : विभु का अर्थ है, परमेश्र्वर जो असीम ज्ञान, धन, बल, यश, सौन्दर्य तथा त्याग से युक्त है । वह सदैव आत्मतृप्त और पाप-पुण्य से अविचलित रहता है । वह किसी भी जीव के लिए विशिष्ट परिस्थिति नहीं उत्पन्न करता, अपितु जीव अज्ञान से मोहित होकर जीवन के लिए विशिष्ट परिस्थिति की कामना करता है, जिसके कारण कर्म तथा फल की शृंखला आरम्भ होती है । जीव परा प्रकृति के कारण ज्ञान से पूर्ण है । तो भी वह अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत हो जाता है । भगवान् सर्वशक्तिमान् है, किन्तु जीव नहीं है । भगवान् विभु अर्थात् सर्वज्ञ है, किन्तु जीव अणु है । जीवात्मा में इच्छा करने की शक्ति है, किन्तु ऐसी इच्छा की पूर्ति सर्वशक्तिमान भगवान् द्वारा ही की जाती है । अतः जब जीव अपनी इच्छाओं से मोहग्रस्त हो जाता है तो भगवान् उसे अपनी इच्छापूर्ति करने देते हैं, किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में इच्छित कर्मों तथा फलों के लिए उत्तरदायी नहीं होते । अतएव मोहग्रस्त होने से देहधारी जीव अपने को परिस्थितिजन्य शरीर मान लेता है और जीवन के क्षणिक दुख तथा सुख को भोगता है । भगवान् परमात्मा रूप में जीव के चिरसंगी रहते हैं, फलतः वे प्रत्येक जीव की इच्छाओं को उसी तरह समझते हैं जिस तरह फूल के निकट रहने वाला फूल की सुगन्ध को । इच्छा जीव को बद्ध करने के लिए सूक्ष्म बन्धन है । भगवान् मनुष्य की योग्यता के अनुसार उसकी इच्छा का पुरा करते हैं – आपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल । अतः व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पुरा करने में सर्वशक्तिमान नहीं होता । किन्तु भगवान् इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं । वे निष्पक्ष होने के कारण स्वतन्त्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालते । किन्तु जब कोई कृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान् उसकी विशेष चिन्ता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहे । अतएव वैदिक मन्त्र पुकार कर कहते हैं – एष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते । एष उ एवासाधु कर्म कारयति यमधो निनीषते - “भगवान् जीव को शुभ कर्मों में इसीलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह ऊपर उठे । भगवान् उसे अशुभ कर्मों में इसीलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह नरक जाए ।”
(कौषीतकी उपनिषद् ३.८) ;
 
अज्ञो जन्तुरनीशोSयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्र्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वाश्र्वभ्रमेव च ।।
 
“जीव अपने सुख-दुःख में पूर्णतया आश्रित है । परमेश्र्वर की इच्छा से वह स्वर्ग या नरक जाता है, जिस तरह वायु के द्वारा प्रेरित बादल”
 
अतः देहधारी जीव कृष्ण भावना मृत की उपेक्षा करने की अपनी अनादि प्रवृत्ति के कारण अपने लिए मोह उत्पन्न करता है । फलस्वरूप स्वभावतः सच्चिदानन्द स्वरूप होते हुए भी वह अपने अस्तित्व की लघुता के कारन भगवान् के प्रति सेवा करने की अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल जाता है और इस तरह वह अविद्या द्वारा बन्दी बना लिया जाता है । अज्ञानवश जीव यह कहता है कि उसके भवबन्धन के लिए भगवान् उत्तरदायी हैं । इसकी पुष्टि वेदान्त-सूत्र (२.१.३४) भी करते हैं – वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति – “भगवान् न तो किसी के प्रति घृणा करते हैं, न किसी को चाहते हैं, यद्यपि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है ।”

 
 
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥१६॥


ज्ञानेन – ज्ञान से; तु – लेकिन; तत् – वह; अज्ञानम् – अविद्या; येषाम् –
जिनका; नाशिताम् – नष्ट हो जाती है; आत्मनः – जीव का; तेषाम् – उनके; आदित्य-वत् – उदीयमान सूर्य के समान; ज्ञानम् – ज्ञान को; प्रकाशयति – प्रकट करता है; तत् परम् – कृष्णभावनामृत को,

भावार्थ :  परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है॥16॥

तात्पर्य : जो लोग कृष्ण को भूल गये हैं वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त होते हैं, किन्तु जो कृष्णभावनाभावित हैं वे नहीं होते । भगवद्गीता में कहा गया है – सर्वं ज्ञानप्लवेन, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि तथा न हि ज्ञानेन सदृशम् । ज्ञान सदैव सम्माननीय है । और वह ज्ञान क्या है? श्रीकृष्ण के प्रति आत्मसमर्पण करने पर ही पूर्णज्ञान प्राप्त होता है, जैसा कि गीता में (७.१९) ही कहा गया है – बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । अनेकानेक जन्म बीत जाने पर ही पूर्णज्ञान प्राप्त करके मनुष्य कृष्ण की शरण में जाता है अथवा जब उसे कृष्णभावनामृत प्राप्त होता है तो उसे सब कुछ प्रकट होने लगता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर सारी वस्तुएँ दिखने लगती हैं । जीव नाना प्रकार से मोहग्रस्त होता है । उदाहरणार्थ, जब वह अपने को ईश्र्वर मानने लगता है, तो वह अविद्या के पाश में जा गिरता है । यदि जीव ईश्र्वर है तो वह अविद्या से कैसे मोहग्रस्त हो सकता है? क्या ईश्र्वर अविद्या से मोहग्रस्त होता है? यदि ऐसा हो सकता है, तो फिर अविद्या या शैतान ईश्र्वर से बड़ा है । वास्तविक ज्ञान उसी से प्राप्त हो सकता है जो पूर्णतः कृष्णभावनाभावित है । अतः ऐसे ही प्रामाणिक गुरु की खोज करनी होती है और उसी से सीखना होता है कि कृष्णभावनामृत क्या है, क्योंकि कृष्णभावनामृत से सारी अविद्या उसी प्रकार दूर हो जाती है, जिस प्रकार सूर्य से अंधकार दूर होता है । भले ही किसी व्यक्ति को इसका पुरा ज्ञान हो कि वह शरीर नहीं अपितु इससे परे है, तो भी हो सकता है कि वह आत्मा तथा परमात्मा में अन्तर न कर पाए । किन्तु यदि वह पूर्ण प्रामाणिक कृष्णभावनाभावित गुरु की शरण ग्रहण करता है तो वह सब कुछ जान सकता है । ईश्र्वर के प्रतिनिधि से भेंट होने पर ही ईश्र्वर तथा ईश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध को सही-सही जाना जा सकता है । ईश्र्वर का प्रतिनिधि कभी भी अपने आपको ईश्र्वर नहीं कहता, यद्यपि उसका सम्मान ईश्र्वर की ही भाँति किया जाता है, क्योंकि उसे ईश्र्वर का ज्ञान होता है । मनुष्य को ईश्र्वर और जीव के अन्तर को समझना होता है । अतएव भगवान् कृष्ण ने द्वितीय अध्याय में (२.१२) यह कहा है कि प्रत्येक जीव व्यष्टि है और भगवान् भी व्यष्टि हैं । ये सब भूतकाल में व्यष्टि थे, सम्प्रति भी व्यष्टि हैं और भविष्य में मुक्त होने पर भी व्यष्टि बने रहेंगे । रात्रि के समय अंधकार में हमें प्रत्येक वस्तु एकसी दिखती है, किन्तु दिन में सूर्य के उदय पर सारी वस्तुएँ अपने-अपने वास्तविक स्वरूप में दिखती हैं । आध्यात्मिक जीवन में व्यष्टि की पहचान ही वास्तविक ज्ञान है ।
 

 
 
तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥१७॥\


तत्-बुद्धयः – नित्य भगवत्परायण बुद्धि वाले; तत्-आत्मानः – जिनके मन सदैव भगवान् में लगे रहते हैं; तत्-निष्ठाः – जिनकी श्रद्धा एकमात्र परमेश्र्वर में है; तत्-परायणाः – जिन्होंने उनकी शरण ले रखी है; गच्छन्ति – जाते हैं; अपुनः-आवृत्तिम् – मुक्ति को; ज्ञान – ज्ञान द्वारा; निर्धूत – शुद्ध किये गये; कल्मषाः – पाप, अविद्या,

भावार्थ :  जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं॥17॥

तात्पर्य : परम दिव्य सत्य भगवान् कृष्ण ही हैं । सारी गीता इसी घोषणा पर केन्द्रित है कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं, यही समस्त वेदों का भी अभिमत है । परतत्त्व का अर्थ परमसत्य है जो भगवान् को ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के रूप में जानने वालों द्वारा समझा जाता है । भगवान् ही इस परतत्त्व की पराकाष्ठा हैं । उनसे बढ़कर कुछ भी नहीं है । भगवान् कहते हैं – मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय । कृष्ण निराकार ब्रह्म का भी अनुमोदन करते हैं – ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् । अतः सभी प्रकार से कृष्ण परमसत्य (परतत्त्व) हैं । जिनके मन, बुद्धि, श्रद्धा तथा शरण कृष्ण में हैं अर्थात् जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हैं, उनके सारे कल्मष धुल जाते हैं और उन्हें ब्रह्म सम्बन्धी प्रत्येक वस्तु का पूर्णज्ञान रहता है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति यह भलीभाँति समझ सकता है कि कृष्ण में द्वैत है (एकसाथ एकता तथा भिन्नता) और ऐसे दिव्यज्ञान से युक्त होकर वह मुक्ति-पथ पर सुस्थिर प्रगति कर सकता है ।
       

 
 
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥१८॥


विद्या – शिक्षण; विनय – तथा विनम्रता से; सम्पन्ने – युक्त; ब्राह्मणे – ब्राह्मण में; गवि – गाय में; हस्तिनि – हाथी में; शुनि – कुत्ते में; च – तथा; एव – निश्चय ही; श्र्वपाके - कुत्ताभक्षी (चाण्डाल) में; च – क्रमशः; पण्डिताः – ज्ञानी; सम-दर्शिनः – समान दृष्टि से देखने वाले,

भावार्थ :  वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी (इसका विस्तार गीता अध्याय 6 श्लोक 32 की टिप्पणी में देखना चाहिए।) ही होते हैं॥18॥

तात्पर्य : कृष्णभावनाभावित व्यक्ति योनि या जाति में भेद नहीं मानता । सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मण तथा चाण्डाल भिन्न-भिन्न हो सकते हैं अथवा योनि के अनुसार कुत्ता, गाय तथा हाथी भिन्न हो सकते हैं, किन्तु विद्वान् योगी की दृष्टि में ये शरीरगत भेद अर्थहीन होते हैं । इसका कारण परमेश्र्वर से उनका सम्बन्ध है और परमेश्र्वर परमात्मा रूप में हर एक के हृदय में स्थित हैं । परमसत्य का ऐसा ज्ञान वास्तविक (यथार्थ) ज्ञान है । जहाँ तक विभिन्न जातियों या विभिन्न योनियों में शरीर का सम्बन्ध है, भगवान् सबों पर समान रूप से दयालु हैं क्योंकि वे प्रत्येक जीव को अपना मित्र मानते हैं फिर भी जीवों की समस्त परिस्थितियों में वे अपना परमात्मा स्वरूप बनाये रखते हैं । परमात्मा रूप में भगवान् चाण्डाल तथा ब्राह्मण दोनों में उपस्थित रहते हैं, यद्यपि इन दोनों के शरीर एक से नहीं होते । शरीर तो प्रकृति के गुणों द्वारा उत्पन्न हुए हैं, किन्तु शरीर के भीतर आत्मा तथा परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं । परन्तु आत्मा तथा परमात्मा की यह समानता उन्हें मात्रात्मक दृष्टि से समान नहीं बनाती क्योंकि व्यष्टि आत्मा किसी विशेष शरीर में उपस्थित होता है, किन्तु परमात्मा प्रत्येक शरीर में है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को इसका पूर्णज्ञान होता है इसीलिए वह सचमुच ही विद्वान् तथा समदर्शी होता है । आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं क्योंकि दोनों चेतन, शाश्र्वत तथा आनन्दमय हैं । किन्तु अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है । परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है ।

 
 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥१९॥


इह – इस जीवन में; एव – निश्चय ही; तैः – उनके द्वारा; जितः – जीता हुआ; सर्गः – जन्म तथा मृत्यु; येषम् – जिनका; साम्ये – समता में; स्थितम् – स्थित; मनः – मन; निर्दोषम् – दोषरहित; हि – निश्चय ही; समम् – समान; ब्रह्म – ब्रह्म की तरह; तस्मात् – अतः; ब्रह्मणि – परमेश्र्वर में; ते – वे; स्थिताः – स्थित हैं,

भावार्थ :  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं॥19॥

तात्पर्य : जैसा कि ऊपर कहा गया है मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है । जिन्होंने ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, उन्हें भौतिक बंधनों पर, विशेषतया जन्म तथा मृत्यु पर, विजय प्राप्त किए हुए मानना चाहिए, जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किन्तु ज्योंही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है । दूसरे शब्दों में, उसे इस भौतिक जगत् में जन्म नहीं लेना पड़ता, अपितु अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता है । भगवान् निर्दोष हैं क्योंकि वे आसक्ति अथवा घृणा से रहित हैं । इसी प्रकार जब जीव आसक्ति अथवा घृणा से रहित होता है तो वह भी निर्दोष बन जाता है और वैकुण्ठ जाने का अधिकारी हो जाता है । ऐसे व्यक्तियों को पहले से ही मुक्त मानना चाहिए । उनके लक्षण आगे बतलाये गये हैं ।

 

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥२०॥


न – कभी नहीं; प्रह्रष्ये – हर्षित होता है; प्रियम् – प्रिय को; प्राप्य – प्राप्त करके; न – नहीं; उद्विजेत् – विचलित होता है; प्राप्य – प्राप्त करके; च – भी; अप्रियम् – अप्रिय को; स्थिर-बुद्धिः – आत्मबुद्धि, कृष्णचेतना; असम्मूढः – मोहरहित, संशयरहित; ब्रह्म-वित् – परब्रह्म को जानने वाला; ब्रह्मणि – ब्रह्म में; स्थितः – स्थित,

भावार्थ :  जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है॥20॥

तात्पर्य : यहाँ पर स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लक्षण दिये गये हैं । पहला लक्षण यह है कि उसमें शरीर और आत्मतत्त्व के तादात्म्य का भ्रम नहीं रहता । वह यह भलीभाँति जानता है कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, अपितु भगवान् का एक अंश हूँ । अतः कुछ प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है और न शरीर की कुछ हानि होने पर शोक होता है । मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि कहलाती है । अतः वह न तो स्थूल शरीर को आत्मा मानने की भूल करके मोहग्रस्त होता है और न शरीर को स्थायी मानकर आत्मा के अस्तित्व को ठुकराता है । इस ज्ञान के कारण वह परमसत्य अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँति जान लेता है । इस प्रकार वह अपने स्वरूप को जानता है और परब्रह्म से हर बात में तदाकार होने का कभी यत्न नहीं करता । इसे ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार कहते हैं । ऐसी स्थिरबुद्धि कृष्णभावनामृत कहलाती है ।
 

 
 
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥२१॥


बाह्य-स्पर्शेषु – बाह्य इन्द्रिय सुख में; असक्त-आत्मा – अनासक्त पुरुष; विन्दति – भोग करता है; आत्मनि – आत्मा में; यत् – जो; सुखम् – सुख; सः – वह; ब्रह्म-योग – ब्रह्म में एकाग्रता द्वारा; युक्त-आत्मा – आत्म युक्त या समाहित; सुखम् – सुख; अक्षयम् – असीम; अश्नुते – भोगता है ।

भावार्थ :  बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है॥21॥

तात्पर्य : कृष्णभावनामृत के महान भक्त श्री यामुनाचार्य ने कहा है –
 
यदवधि मम चेतः कृष्णपादारविन्दे
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तु मासीत् ।
तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सृष्ठु निष्ठीवनं च ।।
 
“जब से मैं कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगकर उनमें नित्य नवीन आनन्द का अनुभव करने में लगा हूँ और मेरे होंठ अरुचि से सिमट जाते हैं ।” ब्रह्मयोगी अथवा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् की प्रेमाभक्ति में इतना अधिक लीन रहता है कि इन्द्रियसुख में उसकी तनिक भी रूचि नहीं रह जाती । भौतिकता की दृष्टि में कामसुख ही सर्वोपरि आनन्द है । सारा संसार उसी के वशीभूत है और भौतिकतावादी लोग तो इस प्रोत्साहन के बिना कोई कार्य ही नहीं कर सकते । किन्तु कृष्णभावनामृत में लीन व्यक्ति कामसुख के बिना ही उत्साहपूर्वक अपना कार्य करता रहता है । यही अतम-साक्षात्कार की कसौटी है । आत्म-साक्षात्कार तथा कामसुख कभी साथ-साथ नहीं चलते । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जीवन्मुक्त होने के कारण किसी प्रकार के इन्द्रियसुख द्वारा आकर्षित नहीं होता ।
 

 
 
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥२२॥


ये – जो; हि – निश्चय हि; संस्पर्श-जा – भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगाः – भोग; दुःख – दुःख; योनयः – स्त्रोत, कारण; एव – निश्चय हि; ते – वे; आदि – प्रारम्भ; अन्तवन्त – अन्तकाले; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न – कभी नहीं; तेषु – उनमें; रमते – आनन्द लेता है; बुधः – बुद्धिमान् मनुष्य,

भावार्थ :  जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता॥22॥

तात्पर्य : भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है । मुक्तात्मा किसी नाशवान वास्तु में रूचि नहीं रखता । दिव्या आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ? पद्मपुराण में कहा गया है –
 
रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।
इति राम पदे नासौ परं ब्रह्मा भिधीयते ।।
 
“योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को भी राम कहा जाता है ।”
भागवत में (५.५.१) भी कहा गया है –
 
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ।।
 
“हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है । ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है । इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में ताप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको ।”
 
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं । वो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं ।

 
 
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥२३॥


शक्नोति – समर्थ है; इह एव – इसी शरीर में; यः – जो; सोढुम् – सहन करने के लिए; प्राक् – पूर्व; शरीर – शरीर; विमोक्षनात् – त्याग करने से; काम – इच्छा; क्रोध – तथा क्रोध से; उद्भवम् – उत्पन्न; वेगम् – वेग को; सः – वह; युक्तः – समाधि में; सः – वही; सुखी – सुखी; नरः – मनुष्य,

भावार्थ :  जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है॥23॥

तात्पर्य : यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए । ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेद तथा जिह्वावेग । जो व्यक्ति इन विभिन्न इन्द्रियों के वेगों को तथा मन को वश में करने में समर्थ है वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है । ऐसे गोस्वामी नितान्त संयमित जीवन बिताते हैं और इन्द्रियों के वेगों का तिरस्कार करते हैं । भौतिक इच्छाएँ पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है और इस प्रकार मन, नेत्र तथा वक्षस्थल उत्तेजित होते हैं । अतः इस शरीर का परित्याग करने के पूर्व मनुष्य को इन्हें वश में करने का अभ्यास करना चाहिए । जो ऐसा कर सकता है वह स्वरुपसिद्ध माना जाता है और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है । योगी का कर्तव्य है कि वह इच्छा और क्रोध को वश में करने का भरसक प्रयत्न करे ।

 
 
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥२४॥


यः – जो; अन्तः-सुखः – अन्तर में सुखी; अन्तः-आरामः – अन्तर में रमण करने वाला अन्तर्मुखी; तथा – और; अन्तः-ज्योतिः – भीतर-भीतर लक्ष्य करते हुए; एव – निश्चय हि; यः – जो कोई; सः – वह; योगी – योगी; ब्रह्म-निर्वाणम् – परब्रह्म में मुक्ति; ब्रह्म-भूतः – स्वरुपसिद्ध; अधिगच्छति – प्राप्त करता है,

भावार्थ :  जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है॥24॥

तात्पर्य : जब तक मनुष्य अपने अन्तःकरण में सुख का अनुभव नहीं करता तब तक भला बाह्यसुख को प्राप्त कराने वाली बाह्य क्रियाओं से वह कैसे छूट सकता है? मुक्त पुरुष वास्तविक अनुभव द्वारा सुख भोगता है । अतः वह किसी भी स्थान में मौनभाव से बैठकर अन्तःकरण में जीवन के कार्यकलापों का आनन्द लेता है । ऐसा मुक्त पुरुष कभी बाह्य भौतिक सुख की कामना नहीं करता । यह अवस्था ब्रह्मभूत कहलाती है, जिसे प्राप्त करने पर भगवद्धाम जाना निश्चित है ।
 

 
 
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥२५॥


लभन्ते – प्राप्त करते हैं; ब्रह्म-निर्वाणम् – मुक्ति; ऋषयः – अन्तर से क्रियाशील रहने वाले; क्षीण-कल्मषाः – समस्त पापों से रहित; छिन्न – निवृत्त होकर; द्वैधाः – द्वैत से; यत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार में निरत; सर्वभूत – समस्त जीवों के; हिते – कल्याण में; रताः – लगे हुए ।

भावार्थ :  जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं॥25॥

तात्पर्य : केवल वही व्यक्ति सभी जीवों के कल्याणकार्य में रत कहा जाएगा जो पूर्णतया कृष्णभावनाभावित है,  जब व्यक्ति को यह वास्तविक ज्ञान हो जाता है कि कृष्ण हि सभी वस्तुओं के उद्गम हैं तब वह जो भी कर्म करता है सबों के हित को ध्यान में रखकर करता है । परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है । अतः समग्र मानवता के लिए कार्य करना सबसे बड़ा कल्याणकार्य है । कोई भी मनुष्य ऐसे श्रेष्ठ कार्य में तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं मुक्त न हो । कृष्णभावनाभावित मनुष्य के हृदय में कृष्ण की सर्वोच्चता पर बिलकुल संदेह नहीं रहता । वह इसीलिए सन्देह नहीं करता क्योंकि वह समस्त पापों से रहित होता है । ऐसा है – यह दैवी प्रेम ।
जो व्यक्ति मानव समाज का भौतिक कल्याण करने में ही व्यस्त रहता है वह वास्तव में किसी की भी सहायता नहीं कर सकता । शरीर तथा मन की क्षणिक खुशी सन्तोषजनक नहीं होती । जीवन-संघर्ष में कठिनाइयों का वास्तविक कारण मनुष्य द्वारा परमेश्र्वर से अपने सम्बन्ध की विस्मृति में ढूँढा जा सकता है । जब मनुष्य कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति सचेष्ट रहता है जो वह वास्तव में मुक्तात्मा होता है, भले हि वह भौतिक शरीर के जाल में फँसा हो ।

 
 
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥२६॥


काम – इच्छाओं; क्रोध – तथा क्रोध से; विमुक्तानाम् – मुक्त पुरुषों की; यतीनाम् – साधु पुरुषों की; यत-चेतसाम् – मन के ऊपर संयम रखने वालों की; अभितः – निकट भविष्य में आश्र्वस्त; ब्रह्म-निर्वाणम् – ब्रह्म में मुक्ति; वर्तते – होती है; विदित-आत्मानम् – स्वरुपसिद्धों की,

भावार्थ :  काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है॥26॥

तात्पर्य : मोक्ष के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाले साधुपुरुषों में से जो कृष्णभावनाभावित होता है वह सर्वश्रेष्ठ है । इस तथ्य की पुष्टि भागवत में (४.२२.३९) इस प्रकार हुई है –
 
यत्पादपंकजपलाशविलासभक्त्या
कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन्तः ।
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोSपि रुद्ध-
स्त्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम् ।।
 
“भक्तिपूर्वक भगवन् वासुदेव की पूजा करने का प्रयास तो करो! बड़े से बड़े साधु पुरुष भी इन्द्रियों के वेग को अपनी कुशलता से रोक पाने में समर्थ नहीं हो पाते जितना कि वे जो सकामकर्मों की तीव्र इच्छा को समूल नष्ट करके और भगवान् के चरणकमलों की सेवा करके दिव्य आनन्द में लीन रहते हैं ।”
 
बद्धजीव में कर्म के फलों को भोगने की इच्छा इतनी बलवती होती है कि ऋषियों-मुनियों तक के लिए कठोर परिश्रम के बावजूद ऐसी इच्छाओं को वश में करना कठिन होता है । जो भगद्भक्त कृष्णचेतना में निरन्तर भक्ति करता है और आत्म-साक्षात्कार में सिद्ध होता है, वह शीघ्र हि मुक्ति प्राप्त करता है । आत्म-साक्षात्कार का पूर्णज्ञान होने से वह निरन्तर समाधिस्थ रहता है । ऐसा हि एक उदाहरण दिया जा रहा है-
 
दर्शनध्यानसंस्पर्शैः मत्स्यकूर्मविहंगमाः ।
स्वान्यपत्यानि पुष्णन्ति तथाहमपि पद्मज ।।
 
“मछली, कछुवा तथा पक्षी केवल दृष्टि, चिन्तन तथा स्पर्श से अपनी सन्तानों को पालते हैं । हे पद्मज! मैं भी उसी तरह करता हूँ ।”
 
मछली अपने बच्चों को केवल देखकर बड़ा करती है । कछुवा केवल चिन्तन द्वारा अपने बच्चों को पालता है । कछुवा अपने अण्डे स्थल में देता है और स्वयं जल में रहने के कारण निरन्तर अण्डों का चिन्तन करता रहता है । इसी प्रकार भगवद्भक्त, भगवद्धाम से दूर स्थिर रहकर भी भगवान् का चिन्तन करके कृष्णभावनामृत द्वारा उनके धाम पहुँच सकता है । उसे भौतिक क्लेशों का अनुभव नहीं होता । यह जीवन-अवस्था ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् भगवान् में निरन्तर लीन रहने के कारण भौतिक कष्टों का अभाव कहलाती है । 
 

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