श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 07-11
पुरुषोत्तमयोग » जीवात्मा का विषय
श्रीभगवानुवाच
श्रीभगवानुवाच
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥
भावार्थ : इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है (जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटों में पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतों में एकीरूप से स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है, इसी से देह में स्थित जीवात्मा को भगवान ने अपना 'सनातन अंश' कहा है) और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है॥7॥
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥८॥
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥८॥
भावार्थ : वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है- उसमें जाता है॥8॥
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥
भावार्थ : यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके -अर्थात इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है॥9॥
तात्पर्य : दुसरे शब्दों में ,यदि जीव अपनी चेतना को कुत्ते तथा बिल्लियों के गुणों जैसा बना देता है ,तो उसे अगले जन्म में कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है ,जिसका वह भोग करता है ।चेतना मूलतः जल के समान विमल होती है ,लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते है ,तो उसका रंग बदल जाता है ।इसी प्रकार से चेतना भी शुद्ध है ,क्योकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगती के अनुसार चेतना बदलती जाती है ।वास्तविक चेतना तो कृष्णाभावनामृत है ,अतः जब कोई कृष्णाभावनामृत में स्थित होता है ,तो वह शुद्धतर जीवन बीताता है ।लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृति में मिश्रित हो जाती है ,तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है ।यह आवश्यक नहीं की पुनः उसे मनुष्य शरीर प्राप्त हो -वह कुत्ता,बिल्ली,सुकर ,देवता,या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी रूप प्राप्त कर सकता है
तात्पर्य : दुसरे शब्दों में ,यदि जीव अपनी चेतना को कुत्ते तथा बिल्लियों के गुणों जैसा बना देता है ,तो उसे अगले जन्म में कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है ,जिसका वह भोग करता है ।चेतना मूलतः जल के समान विमल होती है ,लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते है ,तो उसका रंग बदल जाता है ।इसी प्रकार से चेतना भी शुद्ध है ,क्योकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगती के अनुसार चेतना बदलती जाती है ।वास्तविक चेतना तो कृष्णाभावनामृत है ,अतः जब कोई कृष्णाभावनामृत में स्थित होता है ,तो वह शुद्धतर जीवन बीताता है ।लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृति में मिश्रित हो जाती है ,तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है ।यह आवश्यक नहीं की पुनः उसे मनुष्य शरीर प्राप्त हो -वह कुत्ता,बिल्ली,सुकर ,देवता,या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी रूप प्राप्त कर सकता है
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥
भावार्थ : शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं॥10॥
तात्पर्य : ज्ञान-चक्षुषः शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। बिना ज्ञान के कोई न तो यह समझ सकता है की जीव इस शरीर को किस प्रकार त्यागता है ,न ही यह की वह अगले जीवन में कैसा शरीर धारण करने जा रहा है ,अथवा यह की वह विशेष प्रकार के शरीर में क्यों रह रहा है ।इसके लिए पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता होती है ,जिसे प्रमाणिक गुरु से भगवतगीता तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथो को सुन कर समझा जा सकता है।जो इन बातो को समझने में प्रशिक्षित है ,वह भाग्यशाली है।प्रत्येक जीव किन्ही परिस्थितियों में शरीर त्यागता है .जीवित रहता है और प्रकृति के अधीन होकर भोग करता है ।फलस्वरूप वह इन्द्रियभोग के भ्रम में नाना प्रकार के सुख-दुःख सहता रहता है ।ऐसे व्यक्ति जो काम तथा इच्छा के कारण निरंतर मुर्ख बनते रहते है ,अपने शरीर परिवर्तन तथा विशेष शरीर में अपने वास को समझने की सारी शक्ति खो बैठते है।वे इसे नहीं समझ सकते ।किन्तु जिन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हो चूका है ,वे देखते है की आत्मा शरीर से भिन्न है और यह अपना शरीर बदल कर विभिन्न प्रकार से भोगता रहता है ।ऐसे ज्ञान से युक्त व्यक्ति समझ सकता है इस संसार में बध्य जीव किस प्रकार कष्ट भोग रहे है ।अतएव जो लोग कृष्णाभावनामृत में अत्यधिक आगे बड़े हुऐ है ,वे इस ज्ञान को सामान्य लोगो तक पहुचाने में प्रयत्नशील रहते है ,क्योकि उनका बध्य जीवन अत्यंत कष्टप्रद रहता है ।उन्हें इसमें से निकल कर कृष्णाभावनाभावित होकर आध्यात्मिक लोक में जाने के लिए अपने को मुक्त करना चाहिए।
तात्पर्य : ज्ञान-चक्षुषः शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। बिना ज्ञान के कोई न तो यह समझ सकता है की जीव इस शरीर को किस प्रकार त्यागता है ,न ही यह की वह अगले जीवन में कैसा शरीर धारण करने जा रहा है ,अथवा यह की वह विशेष प्रकार के शरीर में क्यों रह रहा है ।इसके लिए पर्याप्त ज्ञान की आवश्यकता होती है ,जिसे प्रमाणिक गुरु से भगवतगीता तथा अन्य ऐसे ही ग्रंथो को सुन कर समझा जा सकता है।जो इन बातो को समझने में प्रशिक्षित है ,वह भाग्यशाली है।प्रत्येक जीव किन्ही परिस्थितियों में शरीर त्यागता है .जीवित रहता है और प्रकृति के अधीन होकर भोग करता है ।फलस्वरूप वह इन्द्रियभोग के भ्रम में नाना प्रकार के सुख-दुःख सहता रहता है ।ऐसे व्यक्ति जो काम तथा इच्छा के कारण निरंतर मुर्ख बनते रहते है ,अपने शरीर परिवर्तन तथा विशेष शरीर में अपने वास को समझने की सारी शक्ति खो बैठते है।वे इसे नहीं समझ सकते ।किन्तु जिन्हें आध्यात्मिक ज्ञान हो चूका है ,वे देखते है की आत्मा शरीर से भिन्न है और यह अपना शरीर बदल कर विभिन्न प्रकार से भोगता रहता है ।ऐसे ज्ञान से युक्त व्यक्ति समझ सकता है इस संसार में बध्य जीव किस प्रकार कष्ट भोग रहे है ।अतएव जो लोग कृष्णाभावनामृत में अत्यधिक आगे बड़े हुऐ है ,वे इस ज्ञान को सामान्य लोगो तक पहुचाने में प्रयत्नशील रहते है ,क्योकि उनका बध्य जीवन अत्यंत कष्टप्रद रहता है ।उन्हें इसमें से निकल कर कृष्णाभावनाभावित होकर आध्यात्मिक लोक में जाने के लिए अपने को मुक्त करना चाहिए।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥
भावार्थ : यत्न करने वाले योगीजन भी अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को तत्त्व से जानते हैं, किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते॥11॥
तात्पर्य : अनेक योगी आत्म -साक्षात्कार के पथ पर होते है ,लेकिन जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है ,वह यह नहीं देख पाता की जीव के शरीर में कैसे कैसे परिवर्तन हो रहे है ।इस प्रसंग में योगिनः शब्द महत्वपूर्ण है ।आजकल ऐसे अनेक तथाकथित योगी है और योगियों के तथाकथित संगठन है ,लेकिन आत्म -साक्षात्कार के मामले में वे शुन्य है।वे केवल कुछ आसनों में व्यस्त रहते है और यदि उनका शरीर सुगठित और स्वस्थ्य हो गया ,तो वे संतुष्ट हो जाते है ।उन्हें इसके अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं रहती ।वे यतन्तोअप्यक्रुतात्मानह कहलाते है ।यद्यपि वे तथाकथित योग पद्धति का प्रयास करते है ,लेकिन वे स्वरुप सिद्ध नहीं हो पाते ।ऐसे व्यक्ति आत्मा के देहांतरण को नहीं समझ सकते ।केवल वे ही ये बाते समझ सकते है ,जो सचमुच योग पद्धति में रमते है और जिन्हें आत्मा,जगत,तथा परमेश्वर की अनुभूति हो चुकी है ।दुसरे शब्दों में .जो भक्तियोगी है वे ही समझ सकते है की किस प्रकार से सब कुछ घटित होता है ।
तात्पर्य : अनेक योगी आत्म -साक्षात्कार के पथ पर होते है ,लेकिन जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है ,वह यह नहीं देख पाता की जीव के शरीर में कैसे कैसे परिवर्तन हो रहे है ।इस प्रसंग में योगिनः शब्द महत्वपूर्ण है ।आजकल ऐसे अनेक तथाकथित योगी है और योगियों के तथाकथित संगठन है ,लेकिन आत्म -साक्षात्कार के मामले में वे शुन्य है।वे केवल कुछ आसनों में व्यस्त रहते है और यदि उनका शरीर सुगठित और स्वस्थ्य हो गया ,तो वे संतुष्ट हो जाते है ।उन्हें इसके अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं रहती ।वे यतन्तोअप्यक्रुतात्मानह कहलाते है ।यद्यपि वे तथाकथित योग पद्धति का प्रयास करते है ,लेकिन वे स्वरुप सिद्ध नहीं हो पाते ।ऐसे व्यक्ति आत्मा के देहांतरण को नहीं समझ सकते ।केवल वे ही ये बाते समझ सकते है ,जो सचमुच योग पद्धति में रमते है और जिन्हें आत्मा,जगत,तथा परमेश्वर की अनुभूति हो चुकी है ।दुसरे शब्दों में .जो भक्तियोगी है वे ही समझ सकते है की किस प्रकार से सब कुछ घटित होता है ।
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