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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय पंद्रह श्लोक 01-06

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पुरुषोत्तमयोग » संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय    

 
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥१॥


श्रीभगवान् उचाव - भगवान ने कहा; ऊर्ध्व-मुलम् - ऊपर की ओर जडें; अध: - नीचे की ओर; शाखम् - शाखाएँ; अश्वत्थम् - अश्वत्थ वृक्ष को; प्राहु: - कहा गया है; अव्ययम् -शाश्वत; छन्दांस - वैदिक स्तोत्र; यस्य - जिसके; पर्णानि - पत्ते; य:- जो कोई; तम् - उसको; वेद - जानता है; स: - वह; वेदवित् - वेदों का ज्ञाता, 
 
भावार्थ :  श्री भगवान बोले- आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले (आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवान ही नित्य और अनन्त तथा सबके आधार होने के कारण और सबसे ऊपर नित्यधाम में सगुणरूप से वास करने के कारण ऊर्ध्व नाम से कहे गए हैं और वे मायापति, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही इस संसाररूप वृक्ष के कारण हैं, इसलिए इस संसार वृक्ष को 'ऊर्ध्वमूलवाला' कहते हैं) और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले (उस आदिपुरुष परमेश्वर से उत्पत्ति वाला होने के कारण तथा नित्यधाम से नीचे ब्रह्मलोक में वास करने के कारण, हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा 'अधः' कहा है और वही इस संसार का विस्तार करने वाला होने से इसकी मुख्य शाखा है, इसलिए इस संसार वृक्ष को 'अधःशाखा वाला' कहते हैं) जिस संसार रूप पीपल वृक्ष को अविनाशी (इस वृक्ष का मूल कारण परमात्मा अविनाशी है तथा अनादिकाल से इसकी परम्परा चली आती है, इसलिए इस संसार वृक्ष को 'अविनाशी' कहते हैं) कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते (इस वृक्ष की शाखा रूप ब्रह्मा से प्रकट होने वाले और यज्ञादि कर्मों द्वारा इस संसार वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले एवं शोभा को बढ़ाने वाले होने से वेद 'पत्ते' कहे गए हैं) कहे गए हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित सत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। (भगवान्‌ की योगमाया से उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुर, नाशवान और दुःखरूप है, इसके चिन्तन को त्याग कर केवल परमेश्वर ही नित्य-निरन्तर, अनन्य प्रेम से चिन्तन करना 'वेद के तात्पर्य को जानना' है)॥1॥

तात्पर्य : भक्तियोग की महत्ता की विवेचना के बाद यह पुछा जा सकता है, "वेदों का क्या प्रयोजन है?" इस अध्याय में बताया गया है कि वैदिक अध्ययन का प्रयोजन कृष्ण को समझना है। अतएव जो कृष्णभावनाभावित है, जो भक्ति में रत है, वह वेदों को पहले से जानता है। इस भौतिक जगत् के बन्धन की तुलना अश्वत्थ के वृक्ष से की गई है। जो व्यक्ति सकाम कर्मों में लगा है , उसके लिए इस वृक्ष का कोई अंत नहीं है। वह एक शाखा से दूसरी में और दूसरी से तीसरी में घूमता रहता है। इस जगत् रूपी वृक्ष का कोई अंत नहीं है और जो इस वृक्ष में आसक्त है, उसकी मुक्ति की कोई संभावना नहीं है। वैदिक स्तोत्र, जो आत्मोत्रति के लिए है, वे ही इस वृक्ष के पत्ते हैं। इस वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर बढ़ती है, क्योंकि वे इस ब्रह्मांड के सर्वोच्चलोक से प्रारंभ होती है, जहाँ वह ब्राह्मा स्थित है। यदि कोई इस मोह रूपी अविनाशी वृक्ष को समझ लेता है, तो वह इससे बाहर निकल सकता है।
 

 
 
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥
 
अध: - नीचे; च - तथा; ऊर्ध्वम् - ऊपर की ओर; प्रसृता: - फैली हुई; तस्य - उसकी; शाखा: - शाखाएँ; गुण - प्रकृति के गुणों द्वारा; प्रवृद्धा: - विकसित; विषय - इन्द्रियविषय; प्रवाला: -टहनियाँ; अध: - नीचे की ओर; च - तथा; मूलानि - जड़ों को; अनुसन्ततानि - विस्तृत; कर्म - कर्म करने के लिए; अनुबन्धीनि - बँधा; मनुष्य लोके - मानव समाज के जगत में,
 
भावार्थ :  उस संसार वृक्ष की तीनों गुणोंरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय-भोग रूप कोंपलोंवाली ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध -ये पाँचों स्थूलदेह और इन्द्रियों की अपेक्षा सूक्ष्म होने के कारण उन शाखाओं की 'कोंपलों' के रूप में कहे गए हैं।) देव, मनुष्य और तिर्यक्‌ आदि योनिरूप शाखाएँ (मुख्य शाखा रूप ब्रह्मा से सम्पूर्ण लोकों सहित देव, मनुष्य और तिर्यक्‌ आदि योनियों की उत्पत्ति और विस्तार हुआ है, इसलिए उनका यहाँ 'शाखाओं' के रूप में वर्णन किया है) नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य लोक में ( अहंता, ममता और वासनारूप मूलों को केवल मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली कहने का कारण यह है कि अन्य सब योनियों में तो केवल पूर्वकृत कर्मों के फल को भोगने का ही अधिकार है और मनुष्य योनि में नवीन कर्मों के करने का भी अधिकार है) कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता-ममता और वासना रूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं। ॥2॥
 
तात्पर्य : अश्वत्थ वृक्ष की यहाँ और भी व्याख्या की गई है। इसकी शाखाएँ चतुर्दिक फैली हुई है निचले भाग में जीवों की विभिन्न योनियाँ है , यथा मनुष्य, पशु, घोड़े, गाय, कुत्ते, बिल्लियाँ आदि।ये सभी वृक्ष की शाखाओं के निचले भाग में स्थित है। लेकिन ऊपरी भाग में जीवों की उच्च योनियाँ है - यथा देव, गन्धर्व तथा अन्य बहुत सी उच्चतर योनियाँ। जिस प्रकार सामान्य वृक्ष का पोषण जल से होता है, उसी प्रकार यह वृक्ष प्रकृति के तीन गुणों द्वारा पोषित है । कभी कभी हम देखते हैं कि जलाभाव से कोई कोई भूखंड वीरान हो जाता है, तो कोई खण्ड लहलहाता है, इसी प्रकार जहाँ प्रकृति के किन्हीं विशेष गुणों का आनुपातिक आधिक्य होता है, वहाँ उसी के अनुरूप जीवों की योनियाँ प्रकट होती है।
 

 
 
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥३॥
 
न- नहीं; रूपम् - रूप; अस्य - इस वृक्ष का; इह - इस संसार में; तथा - भी; उपलभ्यते - अनुभव किया जा सकता है; न - कभी नहीं; अन्त: - अन्त; न - कभी नहीं; च - भी; आदि - प्रारंभ; न - कभी नहीं; च - भी; सम्प्रतिष्ठा - नींव ; अश्वत्थम् - अश्वत्थ वृक्ष को; एनम् - इस ; सु-विरूढ - अत्यंत दृढता से; मूलम् - जडवाला;  असग्ड़-शस्त्रेण - विरक्ति के हथियार से; दृढेन - दृढ़; छित्वा - काट कर;
 
भावार्थ :  इस संसार वृक्ष का स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचार काल में नहीं पाया जाता (इस संसार का जैसा स्वरूप शास्त्रों में वर्णन किया गया है और जैसा देखा-सुना जाता है, वैसा तत्त्व ज्ञान होने के पश्चात नहीं पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलने के पश्चात स्वप्न का संसार नहीं पाया जाता) क्योंकि न तो इसका आदि है (इसका आदि नहीं है, यह कहने का प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कब से चली आ रही है, इसका कोई पता नहीं है) और न अन्त है (इसका अन्त नहीं है, यह कहने का प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कब तक चलती रहेगी, इसका कोई पता नहीं है) तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है (इसकी अच्छी प्रकार स्थिति भी नहीं है, यह कहने का प्रयोजन यह है कि वास्तव में यह क्षणभंगुर और नाशवान है) इसलिए इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसार रूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप (ब्रह्मलोक तक के भोग क्षणिक और नाशवान हैं, ऐसा समझकर, इस संसार के समस्त विषयभोगों में सत्ता, सुख, प्रीति और रमणीयता का न भासना ही 'दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र' है) शस्त्र द्वारा काटकर (स्थावर, जंगमरूप यावन्मात्र संसार के चिन्तन का तथा अनादिकाल से अज्ञान द्वारा दृढ़ हुई अहंता, ममता और वासना रूप मूलों का त्याग करना ही संसार वृक्ष का अवान्तर 'मूलों के सहित काटना' है।)॥3॥
 

 
 
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥४॥
 
तत: - तत्पश्चात; पदम् - स्थिति को; तत् - उस ; परिमार्गितव्यम् - खोजना चाहिए; यस्मिन् - जहाँ; गता: - जाकर ; न -कभी नहीं; निवर्तन्ति - वापस आते हैं; भूय: - पुन:; तम् - उसको; एव - ही; च - भी; आद्यम् - आदि; पुरूषम् - भगवान की; प्रपद्ये - शरण में जाता हूँ; यत: - जिससे; प्रवृत्ति: - प्रारंभ; प्रसृता - विस्तीर्ण; पुराणी - अत्यंत पुरानी;
 
भावार्थ :  उसके पश्चात उस परम-पदरूप परमेश्वर को भलीभाँति खोजना चाहिए, जिसमें गए हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायण के मैं शरण हूँ- इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिए॥4॥
 

 
 
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ॥५॥
 
भावार्थ :  जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं॥5॥
 


 
 
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥६॥
 
भावार्थ :  जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परम धाम ('परम धाम' का अर्थ गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में देखना चाहिए।) है॥6॥
 

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