चुतियार्थ प्रकाश,
सत्यानाश प्रकाश
सत्यानाश प्रकाश- भूमिका (Satyanash Prakash Bhumika)
ॐ इत्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव॥
भूमिका
पूर्व काल मे भारतवर्ष विद्या बुद्धि और सर्वगुणों की खान था, जिस समय इस भारत वर्ष की कीर्तिपताका भूमंडल के चारो तरफ फहरा रही थी, उस समय कनो से सुनी कीर्तियो और नेत्रो से देखने निमित दूर देशो से लोग यहाँ आते थे, और अपने नेत्रो को सुफलकर यहाँ की अतुलनीय कीर्ति को अपनी भाषा के ग्रंथो मे रचते थे, वे ग्रंथ आज भी इस देश की गुरुता और कीर्ति का स्मरण कराते है, जिस समय यह विश्व अज्ञानान्धकार मे मग्न था पृथ्वी के अधिकांश भाग असभ्यता पूर्ण ही रही थी उस समय यही देश धर्म आस्तिकता और भक्ति और सभ्यता के पूर्ण प्रकाश से जगमगा रहा था, उस समय इस देश मे ही ज्ञान विज्ञान गणित दर्शन ज्योतिष काव्य पुराण साहित्य धर्मादि विषयो मे पूर्ण उन्नति की थी,
कश्यप मरीचि विश्वामित्र आदि जहा के ऋषि, व्यास बाल्मीकि कालिदास जहा के कवि, धन्वन्तरि सुश्रुत चरक आदि जहा, के वैद्य, गौतम कणाद कपिल जहा के शास्त्रकार, नारद मनु बृहस्पति जहा के धर्मपदेष्ठा, वशिष्ठ आर्यभट्ट पराशर आदि जहा के ज्योतिर्विद, शंकराचार्य, रामानुज स्वामी, वल्लभाचार्य जहा के धर्मप्रचारक, सायणाचार्य, यज्ञदेव मल्लिनाथ जहा के भाष्यकार, अमरसिंह, महेश्वर जहा के कोषकार हो गए है, ऐसा एक ही देश है और वो भारत ही है।
जिस समय मे यह सब सामग्री विद्यमान थी, उस समय इस देश मे सनातन वैदिक धर्म पूर्णरूप से प्रचलित था, नरपति ऋषिमुनियो के यज्ञ से पुण्य क्षेत्र, पश्वयज्ञ से ग्रस्थियो के घर, और अरण्यक पाठ से कानो मे पुण्य का प्रवाह बह रहा था, सनातन धर्म की महिमा और भक्ति सबके अंतःकरण मे खिल रही थी।
परंतु समय की भी क्या अलौकिक महिमा है, की सूर्यमंडल को आकाश मे चढ़कर मध्यान्ह समय महातीक्ष्ण होकर फिर से नीचे उतरना पड़ता है ठीक वही दशा इस देश की हुई, जो सबका शिर मौर था वो पराधीनता के भार से महापीङित हो रहा है, भारत के उपरांत यह देश विदेशी चढ़ाइयों से गारत होकर ऐसा आहत हुआ है, की निस्सार बलहीन होकर आलस्य का भंडार हो गया है, इसकी विद्या बुद्धि सब विदेशी शिक्षा मे लय हो गयी है, धर्म कर्म मे असावधानी हो गयी है, संस्कृत विद्या जो द्विजमात्र का आधार थी, उसके शब्द भी अब शुद्ध नही उच्चारण होते, इस प्रकार धर्म विलुप्त होने से अनेक मतभेद भी हो गए है, जिस पुरुष को कुछ भी सहायता मिली झट उसने अपना नवीन पंथ की कलपना कर शब्द ब्रह्म की कल्पना कर ली, और शिष्यो को उपदेश देना आरंभ कर दिया, इसका फल इस देश मे यह हुआ की फूट का वृक्ष उतपन्न हो गया और सत् धर्म ने बाधा पड़ने लगी, इन नवीन मतो से हानि तो हो ही रही थी, इसी समय दयानन्द सरस्वती ने अपना मत चलाकर कोप लीला प्रारम्भ की, इसमे भक्ति, भाव मूर्तिपूजा, अवतार, श्राद्ध, पाप दोइर होना, तीर्थ, माहात्म्य आदि का निषेध करके जप तप, आचार विचार, जाती को मेटकर, कर्म से ब्राह्मणादि वर्ण, नियोग-प्रचार, स्त्री के एकादश (ग्यारह) पति आदि करने की विधि आदि की आज्ञा देकर वेद मे रेल, तार, कमेटी आदि का वर्णन कर सब कुछ वेदों के नाम से ही लिख दिया है, इससे संस्कृत ना जानने वाले सनातन धर्म से हीन हो उनकी व्याख्या सुन अपने महान पुरुषो की गति श्याग इस नाम मात्र मे मगन हो जाते है, इनके संगठन का नाम आर्य समाज है, तथाकथित सन्यासी जी के बनाये हुए ग्रंथो मे दूसरी बार का छपा सत्यार्थप्रकाश ही इस मत का मूल है, स्वामी जी के अनुयायी इसको पत्थर की लकीर समझते है, इसका पाठ करते है और कोई कोई इसकी कथा भी कहाते है, समाजियों मे इसका पाठ होता है, और शास्त्रार्थ मे प्रमाण भी उसी से देते है, ज्ञात रहे की वर्तमान में मौजूद सत्यार्थ प्रकाश स्वामी दयानंद द्वारा निर्मित सत्यार्थ प्रकाश का ही द्वितीय संस्करण है यह संशोधित संस्करण है, जिसे स्वामी जी के द्वारा की गई मूर्खता पर पर्दा डालने के लिए आर्य समाजीयों द्वारा दौबारा स्वामी जी की मृत्यु के बाद १८८४ में "वैदिक यंत्रालय" द्वारा मुद्रित कराया गया।
परन्तु समाजी नवीन समाजीयों को भ्रमित करने के लिए इसे स्वामी जी के जीते जी १८८२ में छपा बताते हैं, और संशोधित सत्यार्थ प्रकाश (द्वितीय संस्करण) की भूमिका मे लिखते हैं की-
"सत्यार्थप्रकाश को दूसरी बार शुद्ध कर छपवाया है, क्योंकि जिस समय यह ग्रंथ बनाया था, उस समय और उसके पूर्व संस्कृत भाषण करना, पठन-पाठन मे संस्कृत ही बोलने का अभ्यास और जन्मभूमि की भाषा गुजराती थी, इत्यादि कारणों से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान नही था, अब इसको अच्छे प्रकार से भाषा के व्याकरणानुसार अभ्यास भी कर लिया है, इसलिए इस समय इसकी भाषा पूर्व से उत्तम है, कही कही शब्द वाक्य रचना का भेद हुआ है, वह करना उचित था क्योंकि उसके भेद किये बिना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परंतु अर्थ का भेद नही किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है हा, जो प्रथम छपने मे कही कही भूल रह गयी थी, वह वह निकाल कर शोधकर ठीक ठीक कर दि गयी है"
इससे यह स्पष्ट है की दूसरी वाली सत्यार्थ प्रकाश पर उनके अनुयायी अधिक श्रद्धा रखते है, लेकिन नवीन समाजी ये नहीं जानते कि ये भूमिका नवीन समाजीयों को भ्रमित करने के लिए तैयार की गई है, जिसका खंडन हम इस पुस्तक के प्रथम खंड (दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उनके वेद भाष्यों की वास्तविकता) में कर चुके हैं।
जहाँ तक मेरी बुद्धि की पहुचँ है तो सत्यार्थप्रकाश वेद शास्त्र प्रतिकूल और परस्पर विरुद्ध बातों से भरा हुआ दिखता है, इसमे वेद के नाम से लाल बाग दिखाया गया है और संस्कृत अनभिज्ञो को वशीभूत करने को शम्बर की माया दिखाई देती है, इसके अनुयायियों के अनर्गल बातो को सुनकर देखकर मुझे इसकी समीक्षा की आवश्यकता हुई कारण की इसकी समीक्षा से देश का उपकार होकर सनातन धर्म की वृद्धि होगी और इसको पढ़कर मनुष्य इस कपोल कल्पित मत से बचेंगे।
अब क्योकि यह मत स्वामी जी द्वारा स्थापित किया गया है अतः उन्हीं के ग्रंथों की समालोचना करना उचित है, सो इस पुस्तक मे स्वामी जी के कपोल कल्पित ग्रंथ का प्राचीन ग्रंथों से मिलान कर सज्जनों के सामने प्रगट करता हुँ उससे बुद्धिमान स्वयं सत्य-असत्य का निर्णय कर सकेंगे, सत्यार्थ प्रकाश दो भाग मे है पूर्वार्ध और उत्तरार्ध, पूर्वार्ध के १० सम्मुलासों मे स्वामी जी ने अपना मंतव्य प्रकाशित कर नवीन धर्म की निव डाली है और उत्तरार्ध के ४ संमुल्लासों मे आर्यवर्तीय मतों का खंडन किया है, जैन, बौद्ध, चार्वाक, ईसाई तथा यवनों का भी खंडन किया है इनके खंडन से हमारा प्रयोजन नही है, हमको प्रथम उनके द्वारा स्थापित मत की परीक्षा करनी है, जिसको वे वेदानुसार बताकर मनुष्यों को भ्रम मे डालते है, खंडन करने से मेरा प्रयोजन द्वेष शत्रुता या किसी का जी दुखानें से नही है, किन्तु इसके लिखने का प्रयोजन केवल यह है की मनुष्य को सत्य असत्य का ज्ञान होकर स्वामी जी के ग्रंथों का वृतांत विदित हो जाये की उनके अनुसार चलने से हम वर्तमान मे धर्म पथ पर स्थित है या नही
मैंने जो इस पुस्तक मे प्रमाण लिखे है जिनको स्वामी जी ने माना और अपने ग्रंथ मे लिखा है और मंत्रो के अर्थ प्राचीन भाष्यानुसार लिखे है, सनातन धर्मावलंवियों को इससे महालाभ की संभावना है कारण की सम्पूर्ण धर्म विषय वेद से भाष्य सहित प्रतिपादित किये गए है, जिससे किसी प्रकार की भ्रान्ति नही रहती, धर्म की प्राप्ति और पाखंड की निरवृत्ति ही इस पुस्तक का उद्देश्य है,आर्य समाजियों से विशेष प्रार्थना है की जब भी वो इस पुस्तक को पढ़ें तो शांति से विचारे और यदि बकरे की तीन टांग का ही हठ है, तो सत्य असत्य का निर्णय नही हो सकेगा और फिर किसी के कुछ भी समझाने का कोई फल नही होगा।
अज्ञ:सुखमाराव्य:सुखतरमाराध्यतेविशेषज्ञ: ।
ज्ञान्दुविदग्धहृदयं ब्रह्मपितंनरंनरञ्जयति ॥
अर्थात- अज्ञानी सुख से और ज्ञानी महासुख से समझाया जा सकता है परंतु ज्ञान दुर्विग्ध हृदय वाले मनुष्य को स्वयम ब्रह्मा जी भी नही समझा सकते।
पाठक महाशयो से निवेदन है की यदि इसमे कोई भूल रह गयी हो तो अवश्य हमे सूचित कर दे, उचित होगी तो दूसरी बार बना दी जायेगी, आपको लाभ होने से मेरा परिश्रम सफल होगा।
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