शतपथ ब्राह्मण
शतपथब्राह्मणम् काण्डम् १४
॥काण्डम् १४॥
ओम् देवा ह वै सत्त्रं निषेदुः अग्निरिन्द्रः सोमो मखो विष्णुर्विश्वे देवा
अन्यत्रैवाश्विभ्याम्
अन्यत्रैवाश्विभ्याम्
१४/१/१/२
तेषां कुरुक्षेत्रं देवयजनमास तस्मादाहुः कुरुक्षेत्रं देवानां
देवयजनमिति तस्माद्यत्र क्व च कुरुक्षेत्रस्य निगचति तदेव मन्यत इदम्
देवयजनमिति तद्धि देवानां देवयजनम्
देवयजनमिति तस्माद्यत्र क्व च कुरुक्षेत्रस्य निगचति तदेव मन्यत इदम्
देवयजनमिति तद्धि देवानां देवयजनम्
१४/१/१/३
त आसत श्रियं गचेम यशः स्यामान्नादाः स्यामेति तथो एवेमे सत्त्रमासते श्रियं
गचेम यशः स्यामान्नादाः स्यामेति
गचेम यशः स्यामान्नादाः स्यामेति
१४/१/१/४
ते होचुः यो नः श्रमेण तपसा श्रद्धया यैञेनाहुतिभिर्यज्ञस्योदृचम्
पूर्वोऽवगचात्स नः श्रेष्ठोऽसत्तदु नः सर्वेषां सहेति तथेति
पूर्वोऽवगचात्स नः श्रेष्ठोऽसत्तदु नः सर्वेषां सहेति तथेति
१४/१/१/५
तद्विष्णुः प्रथमः प्राप स देवानां श्रेष्ठोऽभवत्तस्मादाहुर्विष्णुर्देवानां
श्रेष्ठ इति
१४/१/१/६
१४/१/१/७
१४/१/१/८
१४/१/१/९
१४/१/१/१०
१४/१/१/११
१४/१/१/१२
१४/१/१/१३
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१४/१/१/१७
१४/१/१/१८
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१४/१/१/२१
१४/१/१/२२
१४/१/१/२३
१४/१/१/२४
१४/१/१/२५
१४/१/१/२६
तन्न सर्वस्मा अनुब्रूयात् एनस्यं हि तदथो नेन्म इन्द्रः शिरश्चिनददिति यो न्वेव
ज्ञातस्तस्मै ब्रूयादथ योऽनूचानोऽथ योऽस्य प्रियः स्यान्न त्वेव सर्वस्मा इव
१४/१/१/२७
१४/१/१/२८
१४/१/१/२९
१४/१/१/३०
१४/१/१/३१
१४/१/१/३२
१४/१/१/३३
१४/१/२/१
स वै सम्भारान्त्सम्भरति स यद्वा एनानित्थाच्चेत्थाच्च सम्भरति
तत्सम्भाराणां सम्भारत्वं स वै यत्रयत्र यज्ञस्य न्यक्तं ततस्ततः
सम्भरति
१४/१/२/२
१४/१/२/३
१४/१/२/४
१४/१/२/५
१४/१/२/६
१४/१/२/७
१४/१/२/८
१४/१/२/९
१४/१/२/१०
१४/१/२/११
१४/१/२/१२
१४/१/२/१३
१४/१/२/१४
१४/१/२/१५
१४/१/२/१६
१४/१/२/१७
१४/१/२/१८
१४/१/२/१९
१४/१/२/२०
१४/१/२/२१
१४/१/२/२२
१४/१/२/२३
१४/१/२/२४
१४/१/२/२५
१४/१/२/२६
१४/१/३/१
१४/१/३/२
१४/१/३/३
१४/१/३/४
१४/१/३/५
१४/१/३/६
१४/१/३/७
१४/१/३/८
१४/१/३/९
१४/१/३/१०
१४/१/३/११
१४/१/३/१२
१४/१/३/१४
१४/१/३/१५
१४/१/३/१६
१४/१/३/१७
१४/१/३/१८
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१४/१/३/२०
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१४/१/३/२२
१४/१/३/२३
१४/१/३/२४
१४/१/३/२५
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१४/१/३/२९
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१४/१/४/६
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१४/१/४/११
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१४/२/१/१
१४/२/१/२
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१४/२/१/५
१४/२/१/६
१४/२/१/७
१४/२/१/८
१४/२/१/९
१४/२/१/१०
१४/२/१/११
अथ पिन्वने पिन्वयति अश्विभ्यां पिन्वस्वेत्यश्विनावेवैतदाहाश्विनौ वा
एतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहाश्विभ्यां पिन्वस्वेति
१४/२/१/१२
१४/२/१/१३
१४/२/१/१४
१४/२/१/१५
१४/२/१/१६
१४/२/१/१७
१४/२/१/१८
१४/२/१/२०
१४/२/१/२१
१४/२/१/२२
१४/२/२/१
१४/२/२/२
१४/२/२/३
१४/२/२/४
अनाधृष्याय त्वा वाताय स्वाहाप्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहेति अयं वा
अनाधृष्योऽप्रतिधृष्यो योऽयं पवते तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाहानाधृष्याय
त्वा वाताय स्वाहाप्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहेति
१४/२/२/५
१४/२/२/६
१४/२/२/७
१४/२/२/८
१४/२/२/९
१४/२/२/१०
१४/२/२/११
१४/२/२/१२
१४/२/२/१३
१४/२/२/१४
१४/२/२/१५
१४/२/२/१६
१४/२/२/१७
१४/२/२/१८
१४/२/२/१९
१४/२/२/२०
अश्विना घर्मं पातमिति अश्विनावेवैतदाहाश्विनौ ह्येतद्यज्ञस्य शिरः
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति
१४/२/२/२१
१४/२/२/२२
१४/२/२/२३
१४/२/२/२४
१४/२/२/२५
१४/२/२/२६
१४/२/२/२७
१४/२/२/२८
१४/२/२/३०
१४/२/२/३१
१४/२/२/३२
१४/२/२/३३
१४/२/२/३४
१४/२/२/३५
१४/२/२/३६
१४/२/२/३७
१४/२/२/३८
१४/२/२/३९
१४/२/२/४०
१४/२/२/४१
१४/२/२/४२
१४/२/२/४३
१४/२/२/४४
१४/२/२/४५
१४/२/२/४७
१४/२/२/४८
१४/२/२/४९
१४/२/२/५०
१४/२/२/५१
१४/२/२/५३
१४/२/२/५५
१४/३/१/१
१४/३/१/२
१४/३/१/३
१४/३/१/४
१४/३/१/५
१४/३/१/६
१४/३/१/७
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१४/३/१/९
१४/३/१/१०
१४/३/१/११
१४/३/१/१२
१४/३/१/१३
१४/३/१/१४
१४/३/१/१५
उत्तरवेदौ त्वेवोत्सादयेत् यज्ञो वा उत्तरवेदिः शिरः प्रवर्ग्यो यज्ञ एवतचिरः
प्रतिदधाति
१४/३/१/१६
१४/३/१/१७
१४/३/१/१८
१४/३/१/१९
१४/३/१/२०
१४/३/१/२१
१४/३/१/२२
१४/३/१/२३
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१४/३/१/२५
१४/३/१/२६
१४/३/१/२७
१४/३/१/२८
१४/३/१/२९
१४/३/१/३०
१४/३/१/३१
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१४/३/१/३३
१४/३/१/३४
१४/३/१/३५
१४/३/१/३६
१४/३/२/१
१४/३/२/२
पूर्णाहुतिं जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं
यज्ञस्य
१४/३/२/३
१४/३/२/४
१४/३/२/५
१४/३/२/६
१४/३/२/७
१४/३/२/८
१४/३/२/९
१४/३/२/१०
१४/३/२/११
१४/३/२/१२
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१४/३/२/१६
१४/३/२/१७
१४/३/२/१८
१४/३/२/१९
१४/३/२/२०
१४/३/२/२१
१४/३/२/२३
१४/३/२/२४
१४/३/२/२५
१४/३/२/२६
१४/३/२/२७
१४/३/२/२८
चितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै चातुर्मास्यानि पिन्वन्तेऽथैनानि सर्वे देवाः सर्वाणि
भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा अस्मै चातुर्मास्यानि य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२९
१४/३/२/३०
१४/३/२/३१
१४/४/१/१
१४/४/१/२
१४/४/१/४
१४/४/१/५
१४/४/१/६
१४/४/१/७
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१४/४/१/१०
१४/४/१/११
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१४/४/१/१३
१४/४/१/१४
१४/४/१/१५
१४/४/१/१६
१४/४/१/१७
१४/४/१/१८
१४/४/१/१९
ते देवा अब्रुवन् एतावद्वा इदं सर्वं यदन्नं तदात्मन आगासीरनु नोऽस्मिन्नन्न
आभजस्वेति ते वै माभिसम्विशतेति तथेति तं समन्तं परिण्यविशन्त
तस्माद्यदनेनान्नमत्ति तेनैतास्तृप्यन्त्येवं ह वा एनं स्वा अभिसम्विशन्ति भर्ता
स्वानां श्रेष्ठः पुरएता भवत्यन्नादोऽधिपतिर्य एवं वेद
१४/४/१/२०
१४/४/१/२१
१४/४/१/२२
१४/४/१/२३
१४/४/१/२४
१४/४/१/२५
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१४/४/२/३१
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१४/४/३/२४
१४/४/३/२५
१४/४/३/२६
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१४/४/३/२८
१४/४/३/२९
अद्भ्यश्चैनं चन्द्रमसश्च दैवः प्राण आविशति स वै दैवः प्राणो यः
संचरंश्चासंचरंश्च न व्यथतेऽथो न रिश्यति स एष एवंवित्सर्वेषाम्
भूतानामात्मा भवति यथैषा देवतैवं स यथैतां देवतां सर्वाणि
भूतान्यवन्त्येवं हैवंविदं सर्वाणि भूतान्यवन्ति यदु किं चेमाः प्रजाः
शोचन्त्यमैवासां तद्भवति पुण्यमेवामुं गचति न ह वै देवान्पापं गचति
१४/४/३/३०
१४/४/३/३१
१४/४/३/३२
१४/४/३/३३
१४/४/३/३४
१४/४/४/१
१४/४/४/२
अथ रूपाणाम् चक्षुरित्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि रूपाण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां
सामैतद्धि सर्वै रूपैः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि रूपाणि बिभर्ति
१४/४/४/३
१४/५/१/१
१४/५/१/२
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१४/५/१/२०
१४/५/१/२१
१४/५/१/२२
१४/५/१/२३
स यथोर्णवाभिस्तन्तुनोच्चरेत् यथाग्नेः क्षुद्रा विष्फुलिङ्गा
व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि
भूतानि
सर्व एत आत्मानो व्युच्चरन्ति तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं
तेषामेष सत्यम्
१४/५/२/१
१४/५/२/२
१४/५/२/३
१४/५/२/४
१४/५/२/५
१४/५/२/६
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१४/५/३/२
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१४/५/३/४
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१४/५/३/७
१४/५/३/८
१४/५/३/९
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१४/६/१/१
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१४/६/४/
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१४/६/७/९
१४/६/७/१०
१४/६/७/११
यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो
वायुमन्तरो यम>
१४/६/७/१२
१४/६/७/१३
१४/६/७/१४
१४/६/७/१५
१४/६/७/१६
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१४/६/७/१८
१४/६/७/१९
१४/६/७/२०
यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न
विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयति स त
आत्मान्तर्याम्यमृत इत्यु एवाधिभूतमथाध्यात्मम्
१४/६/७/२१
१४/६/७/२२
१४/६/७/३०
१४/६/८/१
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१४/६/९/२२
१४/६/९/२३
१४/६/९/२४
१४/६/९/२५
१४/६/९/२६
अहल्लिकेति होवाच याज्ञवल्क्यो यत्रैतदन्यत्रास्मन्मन्यासै
यत्रैतदन्यत्रास्मत्स्याच्वानो वैनदद्युर्वयांसि वैनद्विमथ्नीरन्निति
१४/६/९/२७
१४/६/९/२८
१४/६/९/२९
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१४/७/१/५
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ किंज्योतिरेवायं पुरुष
इति वाग्ज्योतिः सम्राडिति होवाच वाचैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीति तस्माद्वै सम्राडपि यत्र स्वः पाणिर्न विनिर्ज्ञायतेऽथ यत्र
वागुच्चरत्युपैव तत्र ण्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/६
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१४/७/२/२२
१४/७/२/२३
१४/७/२/२४
१४/७/२/२५
१४/७/२/२६
१४/७/२/२८
१४/७/२/२९
१४/७/२/३०
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१४/७/३/१
१४/७/३/२
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१४/७/३/६
१४/७/३/७
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१४/७/३/१४
१४/७/३/१५
१४/७/३/१६
१४/७/३/२५
१४/७/३/२६
१४/७/३/२८
१४/८/१/
१४/८/२/१
१४/८/२/२
१४/८/२/३
१४/८/२/४
१४/८/३/
१४/८/४/
१४/८/५/
१४/८/६/१
१४/८/६/२
१४/८/६/३
१४/८/६/४
१४/८/६/५
अथ योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः तस्य भूरिति शिर एकं शिर एकमेतदक्षरम्
भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते
अक्षरे तस्योपनिषदहमिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद
१४/८/७/
१४/८/८/
१४/८/९/
१४/८/१०/
१४/८/११/
१४/८/१२/
१४/८/१३/
१४/८/१३/
१४/८/१४/१
१४/८/१४/२
१४/८/१४/३
१४/८/१४/४
१४/८/१५/१
१४/८/१५/२
१४/८/१५/३
१४/८/१५/४
१४/८/१५/५
१४/८/१५/६
१४/८/१५/७
१४/८/१५/८
१४/८/१५/९
१४/८/१५/१०
१४/८/१५/११
१४/८/१५/१२
१४/९/१/१
१४/९/१/२
१४/९/१/३
१४/९/१/४
१४/९/१/५
१४/९/१/६
१४/९/१/८
१४/९/१/९
१४/९/१/११
१४/९/१/१२
१४/९/१/१३
१४/९/१/१४
१४/९/१/१५
पुरुषो वा अग्निर्गौतम तस्य व्यात्तमेव समित्प्राणो धूमो वागर्चिश्चक्षुरङ्गाराः
श्रोत्रं विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः
सम्भवति
१४/९/१/१६
१४/९/१/१७
१४/९/१/१८
१४/९/१/१९
१४/९/२/१
१४/९/२/२
१४/९/२/३
१४/९/२/४
१४/९/२/५
१४/९/२/६
१४/९/२/७
१४/९/२/८
१४/९/२/९
१४/९/२/१०
१४/९/२/११
१४/९/२/१२
१४/९/२/१३
१४/९/२/१४
१४/९/२/१५
१४/९/३/१
१४/९/३/२
१४/९/३/४
१४/९/३/५
१४/९/३/६
१४/९/३/७
१४/९/३/८
१४/९/३/९
१४/९/३/१०
१४/९/३/११
१४/९/३/१२
१४/९/३/१३
१४/९/३/१४
१४/९/३/१५
१४/९/३/१६
१४/९/३/१७
१४/९/३/१८
१४/९/३/१९
१४/९/३/२०
१४/९/३/२१
१४/९/३/२२
१४/९/४/१
१४/९/४/२
१४/९/४/३
१४/९/४/४
१४/९/४/५
१४/९/४/७
१४/९/४/८
१४/९/४/९
१४/९/४/१०
१४/९/४/११
१४/९/४/१२
१४/९/४/१३
१४/९/४/१५
१४/९/४/१६
१४/९/४/१७
१४/९/४/१८
१४/९/४/१९
१४/९/४/२०
१४/९/४/२१
१४/९/४/२२
१४/९/४/२३
१४/९/४/२४
१४/९/४/२५
१४/९/४/२६
१४/९/४/२७
१४/९/४/२८
१४/९/४/२९
१४/९/४/३०
१४/९/४/३१
१४/९/४/३२
१४/९/४/३३
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१४/३/१/
१४/३/१/
१४/३/१/
१४/३/१/
१४/३/२/१
१४/३/२/२
१४/३/२/३
१४/३/२/४
१४/३/२/५
अग्नये स्वाहेति अग्निर्वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृड्>अं यज्ञस्य
१४/३/२/६
१४/३/२/७
१४/३/२/८
१४/३/२/९
१४/३/२/१०
१४/३/२/११
१४/३/२/१२
१४/३/२/१३
१४/३/२/१४
१४/३/२/१५
१४/३/२/१६
१४/३/२/१७
१४/३/२/१८
१४/३/२/१९
१४/३/२/२०
१४/३/२/२१
१४/३/२/२२
१४/३/२/२३
१४/३/२/२४
१४/३/२/२५
१४/३/२/२६
१४/३/२/२७
१४/३/२/२९
१४/३/२/३०
१४/३/२/३१
श्रेष्ठ इति
१४/१/१/६
स यः स विष्णुर्यज्ञः स स यः स यज्ञोऽसौ स आदित्यस्तद्धेदं यशो विष्नुर्न
शशाक संयन्तु तदिदमप्येतर्हि नैव सर्वैव यशः शक्नोति संयन्तुम्
शशाक संयन्तु तदिदमप्येतर्हि नैव सर्वैव यशः शक्नोति संयन्तुम्
१४/१/१/७
स तिसृधन्वमादायापचक्राम स धनुरार्त्न्या शिर उपस्तभ्य तस्थौ तं देवा
अनभिधृष्णुवन्तः समन्तं परिण्यविशन्त
अनभिधृष्णुवन्तः समन्तं परिण्यविशन्त
१४/१/१/८
ता ह वम्र्य ऊचुः इमा वै वम्र्यो यदुपदीका योऽस्य ज्यामप्यद्यात्किमस्मै
प्रयचेतेत्यन्नाद्यमस्मै प्रयचेमापि धन्वन्नपोऽधिगचेत्तथास्मै
सर्वमन्नाद्यं प्रयचेमेति तथेति
प्रयचेतेत्यन्नाद्यमस्मै प्रयचेमापि धन्वन्नपोऽधिगचेत्तथास्मै
सर्वमन्नाद्यं प्रयचेमेति तथेति
१४/१/१/९
तस्योपपरासृत्य ज्यामपिजक्षुस्तस्यां चिन्नायां धनुरार्त्न्यौ विष्फुरन्त्यौ
विष्णोः शिरः प्रचिचिदतुः
विष्णोः शिरः प्रचिचिदतुः
१४/१/१/१०
तद्घृङ्ङिति पपात तत्पतित्वासावादित्योऽभवदथेतरः प्राङेव प्रावृज्यत
तद्यद्घृङ्ङित्यपतत्तस्माद्घर्मोऽथ यत्प्रावृज्यत तस्मात्प्रवर्ग्यः
तद्यद्घृङ्ङित्यपतत्तस्माद्घर्मोऽथ यत्प्रावृज्यत तस्मात्प्रवर्ग्यः
१४/१/१/११
ते देवा अब्रुवन् महान्बत नो वीरोऽदादीति तस्मान्महावीरस्तस्य यो रसो
व्यक्षरत्तं पाणिभिः सम्ममृजुस्तस्मात्सम्म्राट्
व्यक्षरत्तं पाणिभिः सम्ममृजुस्तस्मात्सम्म्राट्
१४/१/१/१२
तं देवा अभ्यमृज्यन्त यथा वित्तिं वेत्स्यमाना एवं तमिन्द्रः प्रथमः प्राप
तमन्वङ्गमनुन्यपद्यत तं पर्यगृह्णात्तं परिगृह्येदं
यशोऽभवद्यदिदमिन्द्रो यशो यशो ह भवति य एवं वेद
तमन्वङ्गमनुन्यपद्यत तं पर्यगृह्णात्तं परिगृह्येदं
यशोऽभवद्यदिदमिन्द्रो यशो यशो ह भवति य एवं वेद
१४/१/१/१३
स उ एव मखः स विष्णुः तत इन्द्रो मखवानभवन्मखवान्ह वै तम्
मघवानित्याचक्षते परोऽक्षं परोऽक्षकामा हि देवाः
मघवानित्याचक्षते परोऽक्षं परोऽक्षकामा हि देवाः
१४/१/१/१४
ताभ्यो वम्रीभ्योऽन्नाद्यं प्रायचन् आपो वै सर्वमन्नं
ताभिर्हीदमभिक्नूयमिवादन्ति यदिदं किम्वदन्ति
ताभिर्हीदमभिक्नूयमिवादन्ति यदिदं किम्वदन्ति
१४/१/१/१५
अथेमं विष्णुं यज्ञं त्रेधा व्यभजन्त वसवः प्रातःसवनं रुद्रा
माध्यन्दिनं सवनमादित्यास्तृतीयसवनम्
माध्यन्दिनं सवनमादित्यास्तृतीयसवनम्
१४/१/१/१६
अग्निः प्रातःसवनम् इन्द्रो माध्यन्दिनं सवनं विश्वे देवास्तृतीयसवनम्
१४/१/१/१७
गायत्री प्रतःसवनम् त्रिष्टुम्माध्यन्दिनं सवनं जगती तृतीयसवनं
तेनापशीर्ष्णा यज्ञेन देवा अर्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुः
तेनापशीर्ष्णा यज्ञेन देवा अर्चन्तः श्राम्यन्तश्चेरुः
१४/१/१/१८
दध्यङ्ह वा आथर्वणः एतं शुक्रमेतं यज्ञं विदां चकार
यथायथैतद्यज्ञस्य शिरः प्रतिधीयते यथैष कृत्स्नो यज्ञो भवति
यथायथैतद्यज्ञस्य शिरः प्रतिधीयते यथैष कृत्स्नो यज्ञो भवति
१४/१/१/१९
स हेन्द्रेणोक्त आस एतं चेदन्यस्मा अनुब्रूयास्तत एव ते शिरश्चिन्द्यामिति
१४/१/१/२०
तदु हाश्विनोरनुश्रुतमास दध्यङ्ङु ह वा आथर्वण एतं शुक्रमेतं यज्ञम्
वेद यथायथैतद्यज्ञस्य शिरः प्रतिधीयते यथैष कृत्स्नो यज्ञो भवति
वेद यथायथैतद्यज्ञस्य शिरः प्रतिधीयते यथैष कृत्स्नो यज्ञो भवति
१४/१/१/२१
तौ हेत्योचतुः उप त्वायावेति किमनुवक्ष्यमाणावित्येतं शुक्रमेतं यज्ञम्
यथायथैतद्यज्ञस्य शिरः प्रतिधीयते यथैष कृत्स्नो यज्ञो भवतीति
यथायथैतद्यज्ञस्य शिरः प्रतिधीयते यथैष कृत्स्नो यज्ञो भवतीति
१४/१/१/२२
स होवाच इन्द्रेण वा उक्तोऽस्म्येतं चेदन्यस्मा अनुब्रूयास्तत एव ते शिरश्चिन्द्यामिति
तस्माद्वै बिभेमि यद्वै मे स शिरो न चिन्द्यान्न वामुपनेष्य इति
तस्माद्वै बिभेमि यद्वै मे स शिरो न चिन्द्यान्न वामुपनेष्य इति
१४/१/१/२३
तौ होचतुः आवां त्वा तस्मात्त्रास्यावह इति कथं मा त्रास्येथे इति यदा ना
उपनेष्यसेऽथ ते शिरश्चित्त्वान्यत्रापनिधास्यावोऽथाश्वस्य शिर आहृत्य तत्ते
प्रतिधास्यावस्तेन नावनुवक्ष्यसि स यदा नावनुवक्ष्यस्यथ ते शिरश्चेत्स्यत्यथ
ते स्वं शिर आहृत्य तत्ते प्रतिधास्याव इति तथेति
उपनेष्यसेऽथ ते शिरश्चित्त्वान्यत्रापनिधास्यावोऽथाश्वस्य शिर आहृत्य तत्ते
प्रतिधास्यावस्तेन नावनुवक्ष्यसि स यदा नावनुवक्ष्यस्यथ ते शिरश्चेत्स्यत्यथ
ते स्वं शिर आहृत्य तत्ते प्रतिधास्याव इति तथेति
१४/१/१/२४
तौ होपनिन्ये तौ यदोपनिन्येऽथास्य शिरश्चित्त्वान्यत्रापनिदधतुरथाश्वस्य शिर
आहृत्य तद्धास्य प्रतिदधतुस्तेन हाभ्यामनूवाच स यदाभ्यामनूवाचाथास्य
तदिन्द्रः शिरश्चिचेदाथास्य स्वं शिर आहृत्य तद्धास्य प्रतिदधतुः
आहृत्य तद्धास्य प्रतिदधतुस्तेन हाभ्यामनूवाच स यदाभ्यामनूवाचाथास्य
तदिन्द्रः शिरश्चिचेदाथास्य स्वं शिर आहृत्य तद्धास्य प्रतिदधतुः
१४/१/१/२५
तस्मादेतदृषिणाभ्यनूक्तम् दध्यङ्ह यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र
यदीमुवाचेत्ययतं तदुवाचेति हैवैतदुक्तम्
यदीमुवाचेत्ययतं तदुवाचेति हैवैतदुक्तम्
१४/१/१/२६
तन्न सर्वस्मा अनुब्रूयात् एनस्यं हि तदथो नेन्म इन्द्रः शिरश्चिनददिति यो न्वेव
ज्ञातस्तस्मै ब्रूयादथ योऽनूचानोऽथ योऽस्य प्रियः स्यान्न त्वेव सर्वस्मा इव
१४/१/१/२७
सम्वत्सरवासिनेऽनुब्रूयात् एष वै सम्वत्सरो य एष तपत्येष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मात्सम्वत्सरवासिनेऽनुब्रूयात्
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मात्सम्वत्सरवासिनेऽनुब्रूयात्
१४/१/१/२८
तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरति त्रयो वा ऋतवः सम्वत्सरस्य सम्वत्सर एष य एष
तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मात्तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरति
तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मात्तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरति
१४/१/१/२९
तप्तमाचामति तपस्व्यनुब्रवा इत्यमांसाश्यनुब्रूते तपस्व्यनुब्रवा इति
१४/१/१/३०
अमृन्मयपायी अस्ति वा अस्यां संसृष्टमिव यदस्यामनृतं वदति
तस्मादमृन्मयदायी
तस्मादमृन्मयदायी
१४/१/१/३१
अशूद्रोचिष्टी एष वै धर्मो य एष तपति सैषा श्रीः सत्यं ज्योतिरनृतं स्त्री शूद्रः
श्वा कृष्णः शकुनिस्तानि न प्रेक्षेत नेच्रियं च पाप्मानं च नेज्ज्योतिश्च तमश्च
नेत्सत्यानृते संसृजानीति
श्वा कृष्णः शकुनिस्तानि न प्रेक्षेत नेच्रियं च पाप्मानं च नेज्ज्योतिश्च तमश्च
नेत्सत्यानृते संसृजानीति
१४/१/१/३२
अथैष वाव यशः य एष तपति तद्यत्तदादित्यो यशो यज्ञो हैव
तद्यशस्तद्यत्तद्यज्ञो यशो यजमानो हैव तद्यशस्तद्यत्तद्यजमानो यश ऋत्विजो
हैव तद्यशस्तद्यत्तदृत्विजो यशो दक्षिणा हैव तद्यशस्तस्माद्यामस्मै
दक्षिणामानयेयुर्न ता इत्सद्योऽन्यस्मा अतिदिशेन्नेद्यन्मेदं यश
आगंस्तत्सद्योऽन्यस्मा अतिदिशानीति श्वो वैव भूते द्व्यहे वा तदात्मन्येवैतद्यशः
कृत्वा यदेव तद्भवति तत्स ददाति हिरण्यं गां वासोऽश्वं वा
तद्यशस्तद्यत्तद्यज्ञो यशो यजमानो हैव तद्यशस्तद्यत्तद्यजमानो यश ऋत्विजो
हैव तद्यशस्तद्यत्तदृत्विजो यशो दक्षिणा हैव तद्यशस्तस्माद्यामस्मै
दक्षिणामानयेयुर्न ता इत्सद्योऽन्यस्मा अतिदिशेन्नेद्यन्मेदं यश
आगंस्तत्सद्योऽन्यस्मा अतिदिशानीति श्वो वैव भूते द्व्यहे वा तदात्मन्येवैतद्यशः
कृत्वा यदेव तद्भवति तत्स ददाति हिरण्यं गां वासोऽश्वं वा
१४/१/१/३३
अथैतद्वा आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूतेभक्षयति वा तस्य
व्रतचर्या नातपति प्रचादयेत नेदेतस्मात्तिरोऽसानीति नातपति
निष्ठीवेन्नेदेतमभिनिष्ठीवानीति नातपति प्रस्रावयेत नेदेतमभिप्रस्रावया इति
यावद्वा एष आतपति तावानेष नेदेतमेतैर्हिनसानीत्यवज्योत्य
रात्रावश्नीयात्तदेतदस्य रूपं क्रियते य एष तपति तदु होवाचासुरिरेकं ह वै
देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्यं तस्मादु सत्यमेव वदेत्
व्रतचर्या नातपति प्रचादयेत नेदेतस्मात्तिरोऽसानीति नातपति
निष्ठीवेन्नेदेतमभिनिष्ठीवानीति नातपति प्रस्रावयेत नेदेतमभिप्रस्रावया इति
यावद्वा एष आतपति तावानेष नेदेतमेतैर्हिनसानीत्यवज्योत्य
रात्रावश्नीयात्तदेतदस्य रूपं क्रियते य एष तपति तदु होवाचासुरिरेकं ह वै
देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्यं तस्मादु सत्यमेव वदेत्
१४/१/२/१
स वै सम्भारान्त्सम्भरति स यद्वा एनानित्थाच्चेत्थाच्च सम्भरति
तत्सम्भाराणां सम्भारत्वं स वै यत्रयत्र यज्ञस्य न्यक्तं ततस्ततः
सम्भरति
१४/१/२/२
कृष्णाजिनं सम्भरति यज्ञो वै कृष्णजिनं यज्ञ एवैनमेतत्सम्भरति
लोमतश्चन्दांसि वै लोमानि चन्दःस्वेवैनमेतत्सम्भरत्युत्तरत उदीची हि
मनुष्याणां दिक्प्राचीनग्रीवे तद्धि देवत्रा
लोमतश्चन्दांसि वै लोमानि चन्दःस्वेवैनमेतत्सम्भरत्युत्तरत उदीची हि
मनुष्याणां दिक्प्राचीनग्रीवे तद्धि देवत्रा
१४/१/२/३
अभ्र्या वज्रो वा अभ्रिर्वीर्यं वै वज्रो वीर्येणैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं
करोति
करोति
१४/१/२/४
औदुम्बरी भवति ऊर्ग्वै रस उदुम्बर ऊर्जैवैनमेतद्रसेन समर्धयति
कृत्स्नं करोति
कृत्स्नं करोति
१४/१/२/५
अथो वैकङ्कती प्रजापतिर्यां प्रथमामाहुतिमजुहोत्स हुत्वा यत्र न्यमृष्ट ततो
विकङ्कतः समभवद्यज्ञो वा आहुतिर्यज्ञो विकङ्कतो
यज्ञेनैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
विकङ्कतः समभवद्यज्ञो वा आहुतिर्यज्ञो विकङ्कतो
यज्ञेनैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/१/२/६
अरत्निमात्री भवति बाहुर्वा अरत्निर्बाहुनो वै वीर्यं क्रियते वीर्यसम्मितैव
तद्भवति वीर्येणैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
तद्भवति वीर्येणैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/१/२/७
तामादत्ते देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामाददे
नारिरसीत्यसावेव बन्धुः
नारिरसीत्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/८
तां सव्ये पाणौ कृत्वा दक्षिणेनाभिमृश्य जपति युञ्जते मन उत युञ्जते धियो
विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य
सवितुः परिष्टुतिरित्यसावेव बन्धुः
विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य
सवितुः परिष्टुतिरित्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/९
अथ मृत्पिण्डं पव्रिगृह्णाति अभ्र्या च दक्षिणतो हस्तेन च हस्तेनैवोत्तरतो देवी
द्यावापृथिवी इति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स इमे द्यावापृथिवी
अगचद्यन्मृदियं तद्यदापोऽसौ तन्मृदश्चापां च महावीराः कृता भवन्ति
तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति तस्मादाह देवी द्यावापृथिवी इति
मखस्य वामद्य शिरो राध्यासमिति यज्ञो वै मखो यज्ञस्य वामद्य शिरो
राध्यासमित्येवैतदाह देवयजने पृथिव्या इति देवयजने हि पृथिव्यै सम्भरति
मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इति यज्ञो वै मखो यज्ञाय त्वा यज्ञस्य त्वा
शीर्ष्ण इत्येवैतदाह
द्यावापृथिवी इति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स इमे द्यावापृथिवी
अगचद्यन्मृदियं तद्यदापोऽसौ तन्मृदश्चापां च महावीराः कृता भवन्ति
तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति तस्मादाह देवी द्यावापृथिवी इति
मखस्य वामद्य शिरो राध्यासमिति यज्ञो वै मखो यज्ञस्य वामद्य शिरो
राध्यासमित्येवैतदाह देवयजने पृथिव्या इति देवयजने हि पृथिव्यै सम्भरति
मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इति यज्ञो वै मखो यज्ञाय त्वा यज्ञस्य त्वा
शीर्ष्ण इत्येवैतदाह
१४/१/२/१०
अथ वल्मीकवपाम् देव्यो वम्र्य इत्येता वा एतदकुर्वत यथायथैतद्यज्ञस्य
शिरोऽचिद्यत ताभिरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति भूतस्य प्रथमजा
इतीयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा तदनयैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं
करोति मखस्य वोऽद्य शिरो राध्यासं देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य
त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
शिरोऽचिद्यत ताभिरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति भूतस्य प्रथमजा
इतीयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा तदनयैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं
करोति मखस्य वोऽद्य शिरो राध्यासं देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य
त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/११
अथ वराहविहतम् इयत्यग्र आसीदितीयती ह वा इयमग्रे पृथिव्यास प्रादेशमात्री
तामेमूष इति वराह उज्जघान सोऽस्याः पतिः प्रजापतिस्तेनैवैनमेतन्मिथुनेन
प्रियेण धाम्ना समर्धयति कृत्स्नं करोति मखस्य तेऽद्य शिरो राध्यासं
देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
तामेमूष इति वराह उज्जघान सोऽस्याः पतिः प्रजापतिस्तेनैवैनमेतन्मिथुनेन
प्रियेण धाम्ना समर्धयति कृत्स्नं करोति मखस्य तेऽद्य शिरो राध्यासं
देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/१२
अथादारान् इन्द्रस्यौज स्थेति यत्र वा एनमिन्द्र ओजसा पर्यगृह्णात्तदस्य
परिगृहीतस्य रसो व्यक्षरत्स पूयन्निवाशेत सोऽब्रवीदादीर्येव बत म एष
रसोऽस्तौषीदिति तस्मादादारा अथ यत्पूयन्निवाशेत
तस्मात्पूतीकास्तस्मादग्नावाहुतिरिवाभ्याहिता ज्वलन्ति तस्मादु सुरभयो यज्ञस्य हि
रसात्सम्भूता अथ यदेनं तदिन्द्र ओजसा पर्यगृह्णात्तस्मादाहेन्द्रस्यौज स्थेति
मखस्य वोऽद्य शिरो राध्यासं देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य त्वा
शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
परिगृहीतस्य रसो व्यक्षरत्स पूयन्निवाशेत सोऽब्रवीदादीर्येव बत म एष
रसोऽस्तौषीदिति तस्मादादारा अथ यत्पूयन्निवाशेत
तस्मात्पूतीकास्तस्मादग्नावाहुतिरिवाभ्याहिता ज्वलन्ति तस्मादु सुरभयो यज्ञस्य हि
रसात्सम्भूता अथ यदेनं तदिन्द्र ओजसा पर्यगृह्णात्तस्मादाहेन्द्रस्यौज स्थेति
मखस्य वोऽद्य शिरो राध्यासं देवयजने पृथिव्या मखाय त्वा मखस्य त्वा
शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/१३
अथाजाक्षीरम् यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य शुगुदक्रामत्ततोऽजा
समभवत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति मखाय त्वा मखस्य
त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
समभवत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति मखाय त्वा मखस्य
त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/१४
तान्वा एतान्पञ्च सम्भारान्सम्भरति पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्तः पशुः पञ्चर्तवः
सम्वत्सरस्य सम्वत्सर एष य एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति
तान्त्सम्भृतानभिमृशति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
सम्वत्सरस्य सम्वत्सर एष य एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति
तान्त्सम्भृतानभिमृशति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुः
१४/१/२/१५
अथोत्तरतः परिश्रितं भवति तदभिप्रयन्तो जपन्ति प्रैतु ब्रह्मणस्पतिरित्येष
वै ब्रह्मणस्पतिर्य एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
प्रैतु ब्रह्मणस्पतिरिति प्रदेव्येतु सूनृतेति देवी ह्येषा सूनृताचा वीरं नर्यम्
पङ्क्तिराधसमित्युपस्तौत्येवैनमेतन्महयत्येव देवा यज्ञं नयन्तु न इति
सर्वानेवास्मा एतद्देवानभिगोप्तॄ!न्करोति
वै ब्रह्मणस्पतिर्य एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
प्रैतु ब्रह्मणस्पतिरिति प्रदेव्येतु सूनृतेति देवी ह्येषा सूनृताचा वीरं नर्यम्
पङ्क्तिराधसमित्युपस्तौत्येवैनमेतन्महयत्येव देवा यज्ञं नयन्तु न इति
सर्वानेवास्मा एतद्देवानभिगोप्तॄ!न्करोति
१४/१/२/१६
परिश्रितं भवति एतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इममिह रक्षांसि नाष्ट्रा न
हन्युरिति तस्मा एतां पुरं पर्यश्रयंस्तथैवास्मा अयमेतां पुरं परिष्रयति
हन्युरिति तस्मा एतां पुरं पर्यश्रयंस्तथैवास्मा अयमेतां पुरं परिष्रयति
१४/१/२/१७
अथ खरे सादयति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरथ
मृत्पिण्डमपादाय महावीरं करोति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव
बन्धुः प्रादेशमात्रं प्रादेशमात्रमिव हि शिरो मध्ये सङ्गृहीतं मध्ये
सङ्गृहीतमिव हि शिरोऽथास्योपरिष्टात्त्र्यङ्गुलं मुखमुन्नयति
नासिकामेवास्मिन्नेतद्दधाति तं निष्ठितमभिमृशति मखस्य शिरोऽसीति मखस्य
ह्येतत्सौम्यस्य शिर एवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले
मृत्पिण्डमपादाय महावीरं करोति मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव
बन्धुः प्रादेशमात्रं प्रादेशमात्रमिव हि शिरो मध्ये सङ्गृहीतं मध्ये
सङ्गृहीतमिव हि शिरोऽथास्योपरिष्टात्त्र्यङ्गुलं मुखमुन्नयति
नासिकामेवास्मिन्नेतद्दधाति तं निष्ठितमभिमृशति मखस्य शिरोऽसीति मखस्य
ह्येतत्सौम्यस्य शिर एवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले
१४/१/२/१८
प्रजापतिर्वा एष यज्ञो भवति उभयं वा एतत्प्रजापतिर्निरुक्तश्चानिरुक्तश्च
परिमितश्चापरिमितश्च तद्यद्यजुषा करोति यदेवास्य निरुक्तं परिमितं रूपं
तदस्य तेन संस्करोत्यथ यत्तूष्णीं यदेवास्यानिरुक्तमपरिमितं रूपं तदस्य
तेन संस्करोति स ह वा एतं सर्वं कृत्स्नं प्रजापतिं संस्करोति य एवम्
विद्वानेतदेवं करोत्यथोपशयायै पिण्डं परिशिनष्टि प्रायश्चित्तिभ्यः
परिमितश्चापरिमितश्च तद्यद्यजुषा करोति यदेवास्य निरुक्तं परिमितं रूपं
तदस्य तेन संस्करोत्यथ यत्तूष्णीं यदेवास्यानिरुक्तमपरिमितं रूपं तदस्य
तेन संस्करोति स ह वा एतं सर्वं कृत्स्नं प्रजापतिं संस्करोति य एवम्
विद्वानेतदेवं करोत्यथोपशयायै पिण्डं परिशिनष्टि प्रायश्चित्तिभ्यः
१४/१/२/१९
अथ गवेधुकाभिर्हिन्वति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्तत एता ओषधयो
जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति मखाय त्वा मखस्य
त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले
जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति मखाय त्वा मखस्य
त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले
१४/१/२/२०
अथैनान्धूपयति अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामीति वृषा वा अश्वो वीर्यं वै
वृषा वीर्येणैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति देवयजने पृथिव्या मखाय
त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्नीं
रौहिणकपाले
वृषा वीर्येणैवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति देवयजने पृथिव्या मखाय
त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्नीं
रौहिणकपाले
१४/१/२/२१
अथैनाञ्च्रपयति शृतं हि देवानामिष्ट्काभिः श्रपयत्येत वा एतदकुर्वत
यथायथैतद्यज्ञस्य शिरोऽचिद्यत ताभिरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
तदु येनैव सुशृताः स्युस्तेन श्रपयेदथ पचनमवधाय महावीरमवदधाति
मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने
तूष्णीं रौहिणकपाले तान्दिवैवोपवपेद्दिवोद्वपेदहर्हि देवानाम्
यथायथैतद्यज्ञस्य शिरोऽचिद्यत ताभिरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
तदु येनैव सुशृताः स्युस्तेन श्रपयेदथ पचनमवधाय महावीरमवदधाति
मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने
तूष्णीं रौहिणकपाले तान्दिवैवोपवपेद्दिवोद्वपेदहर्हि देवानाम्
१४/१/२/२२
स उद्वपति ऋजवे त्वेत्यसौ वै लोक ऋजुः सत्यं ह्यृजुः सत्यमेष य एष तव्पत्येष
उ प्रथमः प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहर्जवे त्वेति
उ प्रथमः प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहर्जवे त्वेति
१४/१/२/२३
साधवे त्वेति अयं वै साधुर्योऽयं पवत एष हीमांलोकान्त्सिद्धोऽनुपवत एष
उ द्वितीयः प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह साधवे त्वेति
उ द्वितीयः प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह साधवे त्वेति
१४/१/२/२४
सुक्षित्यै त्वेति अयं वै लोकः सुक्षितिरस्मिन्हि लोके सर्वाणि भूतानि क्षियन्त्यथो
अग्निर्वै सुक्षितिरग्निर्ह्येवास्मिंलोके सर्वाणि भूतानि क्षियत्येष उ तृतीयः
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सुक्षित्यै त्वेति तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं
रौहिणकपाले
अग्निर्वै सुक्षितिरग्निर्ह्येवास्मिंलोके सर्वाणि भूतानि क्षियत्येष उ तृतीयः
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सुक्षित्यै त्वेति तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं
रौहिणकपाले
१४/१/२/२५
अथैनानाचृणत्ति अजायै पयसा मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्ण इत्यसावेव
बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले
बन्धुरेवमितरौ तूष्णीं पिन्वने तूष्णीं रौहिणकपाले
१४/१/२/२६
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्षयति वा तस्य
व्रतचर्या या सृष्टौ
व्रतचर्या या सृष्टौ
१४/१/३/१
स यदैतदातिथ्येन प्रचरति अथ प्रवर्ग्येण चरिष्यन्पुरोपसदोऽग्रेण
गार्हपत्यं प्राचः कुशान्त्संस्तीर्य द्वन्द्वं पात्राण्युपसादयत्युपयमनीम्
महावीरं परीषासौ पिन्वने रौहिणकपाले रौहिणहवन्यौ स्रुचौ यदु
चान्यद्भवति तद्दश दशाक्षरा वै विराड्विराड्वै
यज्ञस्तद्विराजमेवैतद्यज्ञमभिसम्पादयत्यथ यद्द्वन्द्वम्द्वन्द्वं वै
वीर्यं यदा वै द्वौ संरभेते अथ तौ वीर्यं कुरुतो द्वन्द्वं वै मिथुनम्
प्रजननं मिथुनेनैवैनमेतत्प्रजननेन समर्धयति कृत्स्नं करोति
गार्हपत्यं प्राचः कुशान्त्संस्तीर्य द्वन्द्वं पात्राण्युपसादयत्युपयमनीम्
महावीरं परीषासौ पिन्वने रौहिणकपाले रौहिणहवन्यौ स्रुचौ यदु
चान्यद्भवति तद्दश दशाक्षरा वै विराड्विराड्वै
यज्ञस्तद्विराजमेवैतद्यज्ञमभिसम्पादयत्यथ यद्द्वन्द्वम्द्वन्द्वं वै
वीर्यं यदा वै द्वौ संरभेते अथ तौ वीर्यं कुरुतो द्वन्द्वं वै मिथुनम्
प्रजननं मिथुनेनैवैनमेतत्प्रजननेन समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/१/३/२
अथाध्वर्युः प्रोक्षणीरादायोपोत्तिष्ठन्नाह ब्रह्मन्प्रचरिष्यामो
होतरभिष्टुहीति ब्रह्मा वै यज्ञस्य दक्षिणत आस्तेऽभिगोप्ता
तमेवैतदाहाप्रमत्त आस्स्व यज्ञस्य शिरः प्रतिधास्याम इति होतरभिष्टुहीति यज्ञो
वै होता तमेवैतदाह यज्ञस्य शिरः प्रतिधेहीति प्रतिपद्यते होता
होतरभिष्टुहीति ब्रह्मा वै यज्ञस्य दक्षिणत आस्तेऽभिगोप्ता
तमेवैतदाहाप्रमत्त आस्स्व यज्ञस्य शिरः प्रतिधास्याम इति होतरभिष्टुहीति यज्ञो
वै होता तमेवैतदाह यज्ञस्य शिरः प्रतिधेहीति प्रतिपद्यते होता
१४/१/३/३
ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तादिति असौ वा आदित्यो ब्रह्माहरहः
पुरस्ताज्जायत एष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह ब्रह्म जज्ञानम्
प्रथमं पुरस्तादित्यथ प्रोक्षत्यसावेव बन्धुः
पुरस्ताज्जायत एष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह ब्रह्म जज्ञानम्
प्रथमं पुरस्तादित्यथ प्रोक्षत्यसावेव बन्धुः
१४/१/३/४
स प्रोक्षति यमाय त्वेत्येष वै यमो य एष तपत्येष हीदं सर्वं
यमयत्येतेनेदं सर्वं यतमेष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
यमाय त्वेति
यमयत्येतेनेदं सर्वं यतमेष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
यमाय त्वेति
१४/१/३/५
मखाय त्वेति एष वै मखो य एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति
तस्मादाह मखाय त्वेति
तस्मादाह मखाय त्वेति
१४/१/३/६
सूर्यस्य त्वा तपस इति एष वै सूर्यो य एष तपत्येष
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सूर्यस्य त्वा तपस इति
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सूर्यस्य त्वा तपस इति
१४/१/३/७
पूर्वया द्वारा स्थूणां निर्हृत्य दक्षिणतो निमिन्वन्ति यथैनां
होताभिष्टुवन्परापश्येद्यज्ञो वै होता स एवास्यामेतद्यज्ञं प्रतिदधाति तथैषा
घर्मं पिन्वते
होताभिष्टुवन्परापश्येद्यज्ञो वै होता स एवास्यामेतद्यज्ञं प्रतिदधाति तथैषा
घर्मं पिन्वते
१४/१/३/८
अग्रेणाहवनीयम् सम्राडासन्दीं पर्याहृत्य दक्षिणतः प्राचीमासादयत्युत्तरां
राजासन्द्यै
राजासन्द्यै
१४/१/३/९
औदुम्बरी भवति ऊर्ग्वै रस उदुम्बर ऊर्जैवैनमेतद्रसेन समर्धयति
कृत्स्नं करोति
कृत्स्नं करोति
१४/१/३/१०
अंसदघ्ना भवति अंसयोर्वा इदं शिरः प्रतिष्थितं तदंसयोरेवैतचिरः
प्रतिष्ठापयति
प्रतिष्ठापयति
१४/१/३/११
बाल्वजीभी रज्जुभिर्व्युता भवति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्तत एता
ओषधयो जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति
ओषधयो जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/१/३/१२
अथ यदुत्तरत आसादयति यज्ञो वै सोमः शिरः प्रवर्ग्य उत्तरं वै
शिरस्तस्मादुत्तरत आसादयत्यथो राजा वै सोमः सम्राट्प्रवर्ग्य उत्तरं वै
राज्यात्साम्राज्यं तस्मादुत्तरत आसादयति
शिरस्तस्मादुत्तरत आसादयत्यथो राजा वै सोमः सम्राट्प्रवर्ग्य उत्तरं वै
राज्यात्साम्राज्यं तस्मादुत्तरत आसादयति
१४/१/३/१३
स यत्रैतां होतान्वाह अञ्जन्ति यं प्रथयन्तो न विप्रा इति तदेतं प्रचरणीयम्
महावीरमाज्येन समनक्ति देवस्त्वा सविता मध्वानक्त्विति सविता वै देवानाम्
प्रसविता सर्वम्वा इदं मधु यदिदं किं च तदेनमनेन सर्वेण समनक्ति
तदस्मै सविता प्रसविता प्रसौति तस्मादाह देवस्त्वा सविता मध्वानक्त्विति
महावीरमाज्येन समनक्ति देवस्त्वा सविता मध्वानक्त्विति सविता वै देवानाम्
प्रसविता सर्वम्वा इदं मधु यदिदं किं च तदेनमनेन सर्वेण समनक्ति
तदस्मै सविता प्रसविता प्रसौति तस्मादाह देवस्त्वा सविता मध्वानक्त्विति
१४/१/३/१४
अथोत्तरतः सिकता उपकीर्णा भवन्ति तद्रजतं हिरण्यमधस्तादुपास्यति पृथिव्याः
संस्पृशस्पाहीत्येतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इममधस्ताद्रक्षांसि नाष्ट्रा न
हन्युरित्यग्नेर्वा एतद्रेतो यद्धिरण्यं नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या अथो पृथिव्यु
ह वा एतस्माद्बिभयां चकार यद्वै मायं तप्तः शुशुचानो न हिंस्यादिति तदेवास्या
एतदन्तर्दधाति रजतं भवति रजतैव हीयं पृथिवी
संस्पृशस्पाहीत्येतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इममधस्ताद्रक्षांसि नाष्ट्रा न
हन्युरित्यग्नेर्वा एतद्रेतो यद्धिरण्यं नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या अथो पृथिव्यु
ह वा एतस्माद्बिभयां चकार यद्वै मायं तप्तः शुशुचानो न हिंस्यादिति तदेवास्या
एतदन्तर्दधाति रजतं भवति रजतैव हीयं पृथिवी
१४/१/३/१५
स यत्रैतां होतान्वाह संसीदस्व महां महाम् असीति तदुभयत आदीप्ता
मौञ्जाः प्रलवा भवन्ति तानुपास्य तेषु प्रवृणक्ति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो
व्यक्षरत्तत एता ओषधयो जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं
करोति
मौञ्जाः प्रलवा भवन्ति तानुपास्य तेषु प्रवृणक्ति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो
व्यक्षरत्तत एता ओषधयो जज्ञिरे तेनैवैनमेतद्रसेन समर्धयति कृत्स्नं
करोति
१४/१/३/१६
अथ यदुभयत आदीप्ता भवन्ति सर्वाभ्य एवैतद्दिग्भ्यो रक्षांसि नाष्ट्रा
अपहन्ति तस्मिन्प्रवृज्यमाने पत्नी शिरः प्रोर्णुते तप्तो वा एष शुशुचानो भवति
नेन्मेऽयं तप्तः शुशुचानश्चक्षुः प्रमुष्णादिति
अपहन्ति तस्मिन्प्रवृज्यमाने पत्नी शिरः प्रोर्णुते तप्तो वा एष शुशुचानो भवति
नेन्मेऽयं तप्तः शुशुचानश्चक्षुः प्रमुष्णादिति
१४/१/३/१७
स प्रवृणक्ति अर्चिरसि शोचिरसि तपोऽसीत्येष वै घर्मो य एष तपति सर्वं वा
एतदेष तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहार्चिरसि शोचिरसि तपोऽसीति
एतदेष तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहार्चिरसि शोचिरसि तपोऽसीति
१४/१/३/१८
अथास्यामाशिष आशास्त इयं वै यज्ञोऽस्यामेवैतदाशिष आशास्ते ता अस्मा इयं सर्वाः
समर्धयति
समर्धयति
१४/१/३/१९
अनाधृष्टा पुरस्तादिति अनाधृष्टा ह्येषा
पुरस्ताद्रक्षोभिर्नाष्ट्राभिरग्नेराधिपत्य इत्यग्निमेवास्या अधिपतिं करोति
नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या आयुर्मे दा इत्यायुरेवात्मन्धत्ते तथो सर्वमायुरेति
पुरस्ताद्रक्षोभिर्नाष्ट्राभिरग्नेराधिपत्य इत्यग्निमेवास्या अधिपतिं करोति
नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या आयुर्मे दा इत्यायुरेवात्मन्धत्ते तथो सर्वमायुरेति
१४/१/३/२०
पुत्रवती दक्षिणत इति नात्र तिरोहितमिवास्तीन्द्रस्याधिपत्य इतीन्द्रमेवास्या
अधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्यै प्रजां मे दा इति प्रजामेव
पशूनात्मन्धत्ते तथो ह पुत्री पशुमान्भवति
अधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्यै प्रजां मे दा इति प्रजामेव
पशूनात्मन्धत्ते तथो ह पुत्री पशुमान्भवति
१४/१/३/२१
सुषदा पश्चादिव्ति नात्र तिरोहितमिवास्ति देवस्य सवितुराधिपत्य इति देवमेवास्यै
सवितारमधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्यै चक्षुर्मे दा इति
चक्षुरेवात्मन्धत्ते तथो ह चक्षुष्मान्भवति
सवितारमधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्यै चक्षुर्मे दा इति
चक्षुरेवात्मन्धत्ते तथो ह चक्षुष्मान्भवति
१४/१/३/२२
आश्रुतिरुत्तरत इति आश्रावयन्नुत्तरत इत्येवैतदाह धातुराधिपत्य इति
धातारमेवास्या अधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्यै रायस्पोषं मे दा
इति रयिमेव पुष्टिमात्मन्धत्ते तथो ह रयिमान्पुष्टिमान्भवति
धातारमेवास्या अधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्यै रायस्पोषं मे दा
इति रयिमेव पुष्टिमात्मन्धत्ते तथो ह रयिमान्पुष्टिमान्भवति
१४/१/३/२३
विधृतिरुपरिष्टादिति विधारयन्नुपरिष्टादित्येवैतदाह बृहस्पतेराधिपत्य इति
बृहस्पतिमेवास्या अधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या ओजो मे दा इत्योज
एवात्मन्धत्ते तथौजस्वी बलवान्भवति
बृहस्पतिमेवास्या अधिपतिं करोति नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या ओजो मे दा इत्योज
एवात्मन्धत्ते तथौजस्वी बलवान्भवति
१४/१/३/२४
अथ दक्षिणत उत्तानेन पाणिना निह्नुते विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्यस्पाहीति सर्वाभ्यो
मार्तिभ्यो गोपायेत्येवैतदाह यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तैरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
मार्तिभ्यो गोपायेत्येवैतदाह यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तैरेवैनमेतत्समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/१/३/२५
अथेमामभिमृश्य जपति मनोरश्वासीत्यश्वा ह वा इयं भूत्वा मनुमुवाह
सोऽस्याः पतिः प्रजापतिस्तेनैवैनमेतन्मिथुनेन प्रियेण धाम्ना समर्धयति
कृत्स्नं करोति
सोऽस्याः पतिः प्रजापतिस्तेनैवैनमेतन्मिथुनेन प्रियेण धाम्ना समर्धयति
कृत्स्नं करोति
१४/१/३/२६
अथ वैकङ्कतौ शकलौ परिश्रयति प्राञ्चौ स्वाहा मरुद्भिः परिश्रीयस्वेत्यवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामेष वै स्वाहाकारो य एष तपत्येष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादवरं स्वाहाकारं करोति दरां देवताम्
स्वाहाकारं करोति परां देवतामेष वै स्वाहाकारो य एष तपत्येष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादवरं स्वाहाकारं करोति दरां देवताम्
१४/१/३/२७
मरुद्भिः परिश्रीयस्वेति विशो वै मरुतो विशैवैतत्क्षत्रं परिबृंहति तदिदं
क्षत्रमुभयतो विशा परिबृढं तूष्णीमुदञ्चौ तूष्णीं प्राञ्चौ तूष्णीमुदञ्चौ
तूष्णीं प्राञ्चौ
क्षत्रमुभयतो विशा परिबृढं तूष्णीमुदञ्चौ तूष्णीं प्राञ्चौ तूष्णीमुदञ्चौ
तूष्णीं प्राञ्चौ
१४/१/३/२८
त्रयोदश सम्पादयति त्रयोदश वै मासाः सम्वत्सरस्य सम्वत्सर एष य एष
तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मात्त्रयोदश सम्पादयति
तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मात्त्रयोदश सम्पादयति
१४/१/३/२९
अथ सुवर्णं हिरण्यमुपरिष्टान्निदधाति दिवः संस्पृशस्पाहीत्येतद्वै देवा
अबिभयुर्यद्वै न इममुपरिष्टाद्रक्षांसि नाष्ट्रा न हन्युरित्यग्नेर्वा एतद्रेतो
यद्धिरण्यं नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या अथो द्यौर्ह वा एतस्माद्बिभयां चकार
यद्वै मायं तप्तः शुशुचानो न हिंस्यादिति तदेवास्या एतदन्तर्दधाति हरितम्
भवति हरिणीव हि द्यौः
अबिभयुर्यद्वै न इममुपरिष्टाद्रक्षांसि नाष्ट्रा न हन्युरित्यग्नेर्वा एतद्रेतो
यद्धिरण्यं नाष्ट्राणां रक्षसामपहत्या अथो द्यौर्ह वा एतस्माद्बिभयां चकार
यद्वै मायं तप्तः शुशुचानो न हिंस्यादिति तदेवास्या एतदन्तर्दधाति हरितम्
भवति हरिणीव हि द्यौः
१४/१/३/३०
अथ धवित्रैराधूनोति मधु मध्विति त्रिः प्राणो वै मधु
प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधाति त्रीणि भवन्ति त्रयो वै प्राणाः प्राण उदानो
व्यानस्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधाति त्रीणि भवन्ति त्रयो वै प्राणाः प्राण उदानो
व्यानस्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/१/३/३१
अथापसलवि त्रिर्धून्वन्ति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तैरेवैनमेतत्समीरयति
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तैरेवैनमेतत्समीरयति
१४/१/३/३२
अप वा एतेभ्यःप्रणाः क्रामन्ति ये यज्ञे धुवनं तन्वते पुनः प्रसलवि
त्रिर्धून्वन्ति षट्सम्पद्यन्ते षड्वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
श्रपयन्ति रौहिणौ स यदार्चिर्जायते अथ हिरण्यमादत्ते
त्रिर्धून्वन्ति षट्सम्पद्यन्ते षड्वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
श्रपयन्ति रौहिणौ स यदार्चिर्जायते अथ हिरण्यमादत्ते
१४/१/३/३३
स यत्रैतां होतान्वाह अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे इति
तदध्वर्युरुपोत्तिष्ठन्नाह रुचितो घर्म इति स यदि रुचितः स्याच्रेयान्यजमानो
भविष्यतीति विद्यादथ यद्यरुचितः पापीयान्भविष्यतीति विद्यादथ यदि नैव
रुचितो नारुचितो नैव श्रेयन्न पापीयान्भविष्यतीति विद्याद्यथा न्वेव रुचितः
स्यात्तथा धवितव्यः
तदध्वर्युरुपोत्तिष्ठन्नाह रुचितो घर्म इति स यदि रुचितः स्याच्रेयान्यजमानो
भविष्यतीति विद्यादथ यद्यरुचितः पापीयान्भविष्यतीति विद्यादथ यदि नैव
रुचितो नारुचितो नैव श्रेयन्न पापीयान्भविष्यतीति विद्याद्यथा न्वेव रुचितः
स्यात्तथा धवितव्यः
१४/१/३/३४
अथैतद्वै आय्रेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनुवा ब्रूते भक्ष् ।यति वा तस्य व्रतचर्या
या सृस्।त् ।ौ
या सृस्।त् ।ौ
१४/१/४/१
स यदैतदध्वर्युः उपोत्तिष्ठन्नाह रुचितो घर्म इति
तदुपोत्थायावकाशैरुपतिष्ठन्ते प्राणा वा अवकाशाः प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति
षडुपतिष्ठन्ते षड्वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
तदुपोत्थायावकाशैरुपतिष्ठन्ते प्राणा वा अवकाशाः प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति
षडुपतिष्ठन्ते षड्वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/१/४/२
गर्भो देवानामिति एष वै गर्भो देवानां य एष तपत्येष हीदं सर्वं
गृह्णात्येतेनेदं सर्वं गृभीतमेष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
गर्भो देवानामिति
गृह्णात्येतेनेदं सर्वं गृभीतमेष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
गर्भो देवानामिति
१४/१/४/३
पिता मतीनामिति पिता ह्येष मतीनां पतिः प्रजानामिति पतिर्ह्येष प्रजानाम्
१४/१/४/४
सं देवो देवेन सवित्रागतेति सं हि देवो देवेन सवित्रागत सं सूर्येण रोचत इति सं
हि सूर्येण रोचते
हि सूर्येण रोचते
१४/१/४/५
समग्निरग्निनागतेति सं ह्यग्निरग्निनागत सं दैवेन सवित्रेति सं हि दैवेन
सवित्रागत सं सूर्येणारोचिष्टेति सं हि सूर्येणारोचिष्ट
सवित्रागत सं सूर्येणारोचिष्टेति सं हि सूर्येणारोचिष्ट
१४/१/४/६
स्वाहा समग्निस्तपसागतेति सं ह्यग्निस्तपसागतावरं स्वाहाकारं करोति परां
देवतामसावेव बन्धुः सं दैव्येन सवित्रेति सं हि दैव्येन सवित्रागत सं
सूर्येणारूरुचतेति सं हि सूर्येणारूरुचत
देवतामसावेव बन्धुः सं दैव्येन सवित्रेति सं हि दैव्येन सवित्रागत सं
सूर्येणारूरुचतेति सं हि सूर्येणारूरुचत
१४/१/४/७
ते वा एते त्रयोऽवकाशा भवन्ति त्रयो वै प्राणाः प्राण उदानो
व्यानस्तेनैवास्मिन्नेतद्दधाति
व्यानस्तेनैवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/१/४/८
धर्ता दिवो विभाति तपसस्पृथिव्यामिति धर्ता ह्येष दिवो विभाति तपसस्पृथिव्यां
धर्ता देवो देवानाममर्त्यस्तपोजा इति धर्ता ह्येष देवो देवानाममर्त्यस्तपोजा
वाचमस्मे नियच देवायुवमिति यज्ञो वै वाग्यज्ञमस्मभ्यं प्रयच येन
देवान्प्रीणामेत्येवैतदाह
धर्ता देवो देवानाममर्त्यस्तपोजा इति धर्ता ह्येष देवो देवानाममर्त्यस्तपोजा
वाचमस्मे नियच देवायुवमिति यज्ञो वै वाग्यज्ञमस्मभ्यं प्रयच येन
देवान्प्रीणामेत्येवैतदाह
१४/१/४/९
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमिति एष वै गोपा य एष तपत्येष हीदं सर्वं
गोपायत्यथो न निपद्यते तस्मादाहापश्यं गोपामनिपद्यमानमिति
गोपायत्यथो न निपद्यते तस्मादाहापश्यं गोपामनिपद्यमानमिति
१४/१/४/१०
आ च परा च पथिभिश्चरन्तमिति आ च ह्येष परा च देवैः पथिभिश्चरति स
सध्रीचीः स विशूचीर्वसान इति सध्रीचीश्च ह्येष विशूचीश्च दिशो वस्तेऽथो
रश्मीनावरीवर्त्ति भुवनेष्वन्तरिति पुनःपुनर्ह्येष एषु लोकेषु
वरीवर्त्यमानश्चरति
सध्रीचीः स विशूचीर्वसान इति सध्रीचीश्च ह्येष विशूचीश्च दिशो वस्तेऽथो
रश्मीनावरीवर्त्ति भुवनेष्वन्तरिति पुनःपुनर्ह्येष एषु लोकेषु
वरीवर्त्यमानश्चरति
१४/१/४/११
विश्वासां भुवां पते विश्वस्य मनसस्पते विश्वस्य वचसस्पते सर्वस्य
वचसस्पत इत्येतस्य सर्वस्य पत इत्येतद्देवश्रुत्त्वं देव घर्म देवो
देवान्पाहीति नात्र तिरोहितमिवास्ति
वचसस्पत इत्येतस्य सर्वस्य पत इत्येतद्देवश्रुत्त्वं देव घर्म देवो
देवान्पाहीति नात्र तिरोहितमिवास्ति
१४/१/४/१२
अत्र प्रावीरनु वां देववीतय इति अश्विनावेवैतदाहाश्विनौ वा एतद्यज्ञस्य शिरः
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहात्र प्रावीरनु वां देववीतय इति
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहात्र प्रावीरनु वां देववीतय इति
१४/१/४/१३
मधु माध्वीभ्यां मधु माधूचीभ्यामिति दध्यङ्ह वा आभ्यामाथर्वणो
मधु नाम ब्राह्मणमुवाच तदेनयोः प्रियं धाम तदेवैनयोरेतेनोपगचति
तस्मादाह मधु माध्वीभ्यां मधु माधूचीभ्यामिति
मधु नाम ब्राह्मणमुवाच तदेनयोः प्रियं धाम तदेवैनयोरेतेनोपगचति
तस्मादाह मधु माध्वीभ्यां मधु माधूचीभ्यामिति
१४/१/४/१४
हृदे त्वा मनसे त्वा दिवे त्वा सूर्याय त्वा ऊर्ध्वो अध्वरं दिवि देवेषु धेहीति नात्र
तिरोहितमिवास्ति
तिरोहितमिवास्ति
१४/१/४/१५
पिता नोऽसि पिता नो बोधीति एष वै पिता य एष तपत्येष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह पिता नोऽसि पिता नो बोधीति नमस्ते अस्तु
मा मा हिंसीरित्याशिषमेवैतदाशास्ते
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह पिता नोऽसि पिता नो बोधीति नमस्ते अस्तु
मा मा हिंसीरित्याशिषमेवैतदाशास्ते
१४/१/४/१६
अथ पत्न्यै शिरोऽपवृत्य महावीरमीक्षमाणां वाचयति त्वष्टृमन्तस्त्वा सपेमेति
वृषा वै प्रवर्ग्यो योषा पत्नी मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते
वृषा वै प्रवर्ग्यो योषा पत्नी मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते
१४/१/४/१७
अथैतद्वै आयुरेत्ज्ज्योतिः प्रविशति य एतमु वा ब्रूतेभ्क्ष् ।यति वा तस्य ब्रतचर्या या
सृस्।त् ।ौ
सृस्।त् ।ौ
१४/२/१/१
अथातो रोहिणौ जुहोति अहः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्युभावेतेन यजुषा
प्राता रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्युभावेतेन यजुषा सायम्
प्राता रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्युभावेतेन यजुषा सायम्
१४/२/१/२
तद्यद्रोहिणौ जुहोति अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्यां हि देवताभ्यां
यजमानाः स्वर्गं लोकं रोहन्ति
यजमानाः स्वर्गं लोकं रोहन्ति
१४/२/१/३
अथो अहोरात्रे वै रौहिणौ आदित्यः प्रवर्ग्योऽमुं तदादित्यमहोरात्राभ्याम्
परिगृह्णाति तस्मादेषोऽहोरात्राभ्यां परिगृहीतः
परिगृह्णाति तस्मादेषोऽहोरात्राभ्यां परिगृहीतः
१४/२/१/४
अथो इमौ वै लोकौ रौहिणौ आदित्यः प्रवर्ग्योऽमुं तदादित्यमाभ्यां लोकाभ्याम्
परिगृह्णाति तस्मादेष आभ्यां लोकाभ्यां परिगृहीतः
परिगृह्णाति तस्मादेष आभ्यां लोकाभ्यां परिगृहीतः
१४/२/१/५
अथो चक्षुषी वै रौहिणौ शिरः प्रवर्ग्यः शीर्षंस्तच्चक्षुर्दधाति
१४/२/१/६
अथ रज्जुमादत्ते देवेभ्यस्त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो
हस्ताभ्यामाददे रास्नासीत्यसावेव बन्धुः
हस्ताभ्यामाददे रास्नासीत्यसावेव बन्धुः
१४/२/१/७
अथ गामाह्वयति जघनेन गार्हपत्यं यन्निड एह्यदित एहि सरस्वत्येहीतीडा हि
गौरदितिर्हि गौः सरस्वती हि गौरथो तैराह्वयति नाम्नासावेह्यसावेहीति त्रिः
गौरदितिर्हि गौः सरस्वती हि गौरथो तैराह्वयति नाम्नासावेह्यसावेहीति त्रिः
१४/२/१/८
तामागतामभिदधाति अदित्यै रास्नासीन्द्राण्या उष्णीष इतीन्द्राणी ह वा इन्द्रस्य प्रिया
पत्नी तस्या उष्णीषो विश्वरूपतमः सोऽसीति तदाह तमेवैनमेतत्करोति
पत्नी तस्या उष्णीषो विश्वरूपतमः सोऽसीति तदाह तमेवैनमेतत्करोति
१४/२/१/९
अथ वत्समुपार्जति पूषासीत्ययं वै पूषा योयं पवत एष हीदं सर्वम्
पुष्यत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह पूषासीति
पुष्यत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह पूषासीति
१४/२/१/१०
अथोन्नयति घर्माय दीष्वेत्येष वा अत्र घर्मो रसो भवति यमेषा पिन्वते
तस्यै दयस्वेत्येवैतदाह
तस्यै दयस्वेत्येवैतदाह
१४/२/१/११
अथ पिन्वने पिन्वयति अश्विभ्यां पिन्वस्वेत्यश्विनावेवैतदाहाश्विनौ वा
एतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहाश्विभ्यां पिन्वस्वेति
१४/२/१/१२
सरस्वत्यै पिन्वस्वेति वाग्वै सरस्वती वाचा वा एतदश्विनौ यज्ञस्य शिरः
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सरस्वत्यै पिन्वस्वेति
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह सरस्वत्यै पिन्वस्वेति
१४/२/१/१३
इन्द्राय पिन्वस्वेति इन्द्रो वै यज्ञस्य देवता सा यैव यज्ञस्य देवता
तयैवैतदश्विनौ यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहेन्द्राय
पिन्वस्वेति
तयैवैतदश्विनौ यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहेन्द्राय
पिन्वस्वेति
१४/२/१/१४
अथ विप्रुषोऽभिमन्त्रयते स्वाहेन्द्रवत्स्वाहेन्द्रवदितीन्द्रो वै यज्ञस्य देवता सा
यैव यज्ञस्य देवता तामेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह स्वाहेन्द्रवत्स्वाहेन्द्रवदिति
त्रिष्कृत्व आह त्रिवृद्धि यज्ञोऽवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
यैव यज्ञस्य देवता तामेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह स्वाहेन्द्रवत्स्वाहेन्द्रवदिति
त्रिष्कृत्व आह त्रिवृद्धि यज्ञोऽवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
१४/२/१/१५
अथास्यै स्तनमभिपद्यते यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूरिति यस्ते स्तनो निहितो
गुहायामित्येवैतदाह यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्र इति यो धनानां दाता
वसुवित्पणाव्य इत्येवैतदाह येन विश्वा पुष्यसि वार्याणीति येन सर्वान्देवान्त्सर्वाणि
भूतानि बिभर्षीत्येवैतदाह सरस्वति तमिह धातवेऽकरिति वाग्वै सरस्वती सैषा
घर्मदुघा यज्ञो वै वाग्यज्ञमस्मभ्यं प्रयच येन
देवान्प्रीणामेत्येवैतदाहाथ
गार्हपत्यस्यार्धमैत्युर्वन्तरिक्षमन्वेमीत्यसावेव बन्धुः
गुहायामित्येवैतदाह यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्र इति यो धनानां दाता
वसुवित्पणाव्य इत्येवैतदाह येन विश्वा पुष्यसि वार्याणीति येन सर्वान्देवान्त्सर्वाणि
भूतानि बिभर्षीत्येवैतदाह सरस्वति तमिह धातवेऽकरिति वाग्वै सरस्वती सैषा
घर्मदुघा यज्ञो वै वाग्यज्ञमस्मभ्यं प्रयच येन
देवान्प्रीणामेत्येवैतदाहाथ
गार्हपत्यस्यार्धमैत्युर्वन्तरिक्षमन्वेमीत्यसावेव बन्धुः
१४/२/१/१६
अथ शफावादत्ते गायत्रं चन्दोऽसि त्रैष्टुभं चन्दोऽसीति गायत्रेण
चैवैनावेतत्त्रैष्टुभेन च चन्दसादत्ते द्यावापृथिवीभ्यां त्वा परिगृह्णामीतीमे
वै द्यावापृथिवी परीशासावादित्यः प्रवर्ग्योऽमुं तदादित्यमाभ्यां
द्यावापृथिवीभ्यां परिगृह्णात्यथ मौञ्जेन वेदेनोपमार्ष्ट्यसावेव बन्धुः
चैवैनावेतत्त्रैष्टुभेन च चन्दसादत्ते द्यावापृथिवीभ्यां त्वा परिगृह्णामीतीमे
वै द्यावापृथिवी परीशासावादित्यः प्रवर्ग्योऽमुं तदादित्यमाभ्यां
द्यावापृथिवीभ्यां परिगृह्णात्यथ मौञ्जेन वेदेनोपमार्ष्ट्यसावेव बन्धुः
१४/२/१/१७
अथोदयमन्योपगृह्णाति अन्तरिक्षेणोपयचामीत्यन्तरिक्षं वा
उपयमन्यन्तरिक्षेण हीदं सर्वमुपयतमत्>ओ उदरं वा उपयमन्युदरेण
हीदं सर्वमन्नाद्यमुपयतं तस्मादाहान्तरिक्षेणोपयचामीति
उपयमन्यन्तरिक्षेण हीदं सर्वमुपयतमत्>ओ उदरं वा उपयमन्युदरेण
हीदं सर्वमन्नाद्यमुपयतं तस्मादाहान्तरिक्षेणोपयचामीति
१४/२/१/१८
अथाजाक्षीरमानयति तप्तो वा एष शुशुचानो भवति तमेवैतचमयति तस्मिञ्चान्ते
गोक्षीरमानयति
गोक्षीरमानयति
१४/२/१/१९
इन्द्राश्विनेति इन्द्रो वै यज्ञस्य देवता सा यैव यज्ञस्य देवता
तामेवैतत्प्रीणात्यश्विनेत्यश्विनावेवैतदाहाश्विनौ वा एतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां
तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहेन्द्राश्विनेति
तामेवैतत्प्रीणात्यश्विनेत्यश्विनावेवैतदाहाश्विनौ वा एतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां
तावेवैतत्प्रीणाति तस्मादाहेन्द्राश्विनेति
१४/२/१/२०
मधुनः सारघस्येति एतद्वै मधु सारघं घर्मं पातेति रसम्
पातेत्येवैतदाह वसव इत्येते वै वसव एते हीदं सर्वं वासयन्ते यजत वाडिति
तद्यथा वषट्कृतं हुतमेवमस्यैतद्भवति
पातेत्येवैतदाह वसव इत्येते वै वसव एते हीदं सर्वं वासयन्ते यजत वाडिति
तद्यथा वषट्कृतं हुतमेवमस्यैतद्भवति
१४/२/१/२१
स्वाहा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनय इति सूर्यस्य ह वा एको रश्मिर्वृष्टिवनिर्नाम
येनेमाः सर्वाः प्रजा बिभर्ति तमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह स्वाहा सूर्यस्य रश्मये
वृष्टिवनय इत्यवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
येनेमाः सर्वाः प्रजा बिभर्ति तमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह स्वाहा सूर्यस्य रश्मये
वृष्टिवनय इत्यवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
१४/२/१/२२
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्ष् ।यति वा तस्य
व्रतचर्या य॑! सृस्।त् ।ौ
व्रतचर्या य॑! सृस्।त् ।ौ
१४/२/२/१
स यत्रैतां होतान्वाह प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृतेति तदध्वर्युः
प्राङुदायन्वातनामानि जुहोत्येतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इममन्तरा रक्षांसि
नाष्ट्रा न हन्युरिति तमेतत्पुरैवाहवनीयात्स्वाहाकारेणाजुहवुस्तं हुतमेव
सन्तमग्नाव जुहुवुस्तथो एवैनमेष एतत्पुरैवाहवनीयात्स्वाहाकारेण जुहोति तं
हुतमेव सन्तमग्नौ जुहोति
प्राङुदायन्वातनामानि जुहोत्येतद्वै देवा अबिभयुर्यद्वै न इममन्तरा रक्षांसि
नाष्ट्रा न हन्युरिति तमेतत्पुरैवाहवनीयात्स्वाहाकारेणाजुहवुस्तं हुतमेव
सन्तमग्नाव जुहुवुस्तथो एवैनमेष एतत्पुरैवाहवनीयात्स्वाहाकारेण जुहोति तं
हुतमेव सन्तमग्नौ जुहोति
१४/२/२/२
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहेति अयं वै समुद्रो योऽयं पवत एतस्माद्वै
समुद्रात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्द्रवन्ति तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाह
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा
समुद्रात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्द्रवन्ति तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाह
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा
१४/२/२/३
सरिराय त्वा वाताय स्वाहेति अयं वै सरिरो योऽयं पवत एतस्माद्वै सरिरात्सर्वे
देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाह सरिराय त्वा वाताय
स्वाहा
देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाह सरिराय त्वा वाताय
स्वाहा
१४/२/२/४
अनाधृष्याय त्वा वाताय स्वाहाप्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहेति अयं वा
अनाधृष्योऽप्रतिधृष्यो योऽयं पवते तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाहानाधृष्याय
त्वा वाताय स्वाहाप्रतिधृष्याय त्वा वाताय स्वाहेति
१४/२/२/५
अवस्यवे त्वा वाताय स्वाहाशिमिदाय त्वा वाताय स्वाहेति अयं वा अवस्युरशिमिदो योऽयम्
पवते तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाहावस्यवे त्वा वाताय स्वाहाशिमिदाय त्वा वाताय
स्वाहेति
पवते तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाहावस्यवे त्वा वाताय स्वाहाशिमिदाय त्वा वाताय
स्वाहेति
१४/२/२/६
इन्द्राय त्वा वसुमते रुद्रवते स्वाहेति अयं वा इन्द्रो योऽयं पवते तस्मा एवैनं
जुहोति तस्मादाहेन्द्राय त्वेति वसुमते रुद्रवत इति तदिन्द्रमेवानु वसूंश्च
रुद्रांश्चाभजत्यथो प्रातःसवनस्य चैवैतन्माध्यन्दिनस्य च सवनस्य रूपं
क्रियते
जुहोति तस्मादाहेन्द्राय त्वेति वसुमते रुद्रवत इति तदिन्द्रमेवानु वसूंश्च
रुद्रांश्चाभजत्यथो प्रातःसवनस्य चैवैतन्माध्यन्दिनस्य च सवनस्य रूपं
क्रियते
१४/२/२/७
इन्द्राय त्वादित्यवते स्वाहेति अयं वा इन्द्रो योऽयं पवते तस्मा एवैनं जुहोति
तस्मादाहेन्द्राय त्वेत्यादित्यवत इति तदिन्द्रमेवान्वादित्यानाभजत्यथो
तृतीयसवनस्यैवैतद्रूपं क्रियते
तस्मादाहेन्द्राय त्वेत्यादित्यवत इति तदिन्द्रमेवान्वादित्यानाभजत्यथो
तृतीयसवनस्यैवैतद्रूपं क्रियते
१४/२/२/८
इन्द्राय त्वाभिमातिघ्ने स्वाहेति अयं वा इन्द्रो योऽयं पवते तस्मा एवैनं जुहोति
तस्मादाहेन्द्राय त्वेत्यभिमातिघ्न इति सपत्नो वाअभिमातिरिन्द्राय त्वा सपत्नघ्न
इत्येवैतदाह सोऽस्योद्धारो यथा श्रेष्ठस्योद्धार एवमस्यैष ऋते देवेभ्यः
तस्मादाहेन्द्राय त्वेत्यभिमातिघ्न इति सपत्नो वाअभिमातिरिन्द्राय त्वा सपत्नघ्न
इत्येवैतदाह सोऽस्योद्धारो यथा श्रेष्ठस्योद्धार एवमस्यैष ऋते देवेभ्यः
१४/२/२/९
सवित्रे त्व ऋभुमते विभुमते वाजवते स्वाहेति अयं वै सविता योऽयं पवते
तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाह सवित्रे त्वेत्यृभुमते विभुमते वाजवत इति
तदस्मिन्विश्वान्देवानन्वाभजति
तस्मा एवैनं जुहोति तस्मादाह सवित्रे त्वेत्यृभुमते विभुमते वाजवत इति
तदस्मिन्विश्वान्देवानन्वाभजति
१४/२/२/१०
बृहस्पतये त्वा विश्वदेव्यावते स्वाहेति अयं वै बृहस्पतिर्योऽयं पवते तस्मा
एवैनं जुहोति तस्मादाह बृहस्पतये त्वेति विश्वदेव्यावत इति
तदस्मिन्विश्वान्त्सर्वान्देवान्न्वाभजति
एवैनं जुहोति तस्मादाह बृहस्पतये त्वेति विश्वदेव्यावत इति
तदस्मिन्विश्वान्त्सर्वान्देवान्न्वाभजति
१४/२/२/११
यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितृमते स्वाहेति अयं वै यमो योऽयं पवते तस्मा एवैनं
जुहोति तस्मादाह यमाय त्वेत्यङ्गिरस्वते पितृमत इति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो
व्यक्षरत्स पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तानेवैतदन्वाभजति
जुहोति तस्मादाह यमाय त्वेत्यङ्गिरस्वते पितृमत इति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो
व्यक्षरत्स पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तानेवैतदन्वाभजति
१४/२/२/१२
द्वादशैतानि नामानि भवन्ति द्वादश वै मासाः सम्वत्सरस्य सम्वत्सर एष य
एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्माद्द्वादश भवन्ति
एष तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्माद्द्वादश भवन्ति
१४/२/२/१३
अथोपयमन्या महावीर आनयति स्वाहा घर्मायेत्येष वै घर्मो य एष
तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह स्वाहा घर्मायेत्यवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
तपत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह स्वाहा घर्मायेत्यवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
१४/२/२/१४
आनीते जपति स्वाहा घर्मः पित्र इति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तानेवैतत्प्रीणात्यवरं स्वाहाकारं करोति परां
देवतामसावेव बन्धुः
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तानेवैतत्प्रीणात्यवरं स्वाहाकारं करोति परां
देवतामसावेव बन्धुः
१४/२/२/१५
नानुवाक्यामन्वाह सकृदु ह्येव पराञ्चः
पितरस्तस्मान्नानुवाक्यामन्वाहातिक्रम्याश्राव्याह घर्मस्य यजेति वषट्कृते जुहोति
पितरस्तस्मान्नानुवाक्यामन्वाहातिक्रम्याश्राव्याह घर्मस्य यजेति वषट्कृते जुहोति
१४/२/२/१६
विश्वा आशा दक्षिणसदिति सर्वा आशा दक्षिणसदित्येवैतदाह विश्वान्देवानयाडिहेति
सर्वान्देवानयाक्षीदिहेत्येवैतदाह स्वाहाकृतस्य घर्मस्य मधोः
पिबतमश्विनेत्यश्विनावेवैतदाहाश्विनौ ह्येतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां
तावेवैतत्प्रीणात्यवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
सर्वान्देवानयाक्षीदिहेत्येवैतदाह स्वाहाकृतस्य घर्मस्य मधोः
पिबतमश्विनेत्यश्विनावेवैतदाहाश्विनौ ह्येतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां
तावेवैतत्प्रीणात्यवरं स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुः
१४/२/२/१७
अथ हुत्वोर्ध्वमुत्कम्पयति दिवि धा इमं यज्ञमिमं यज्ञं दिवि धा इत्यसौ
वा आदित्यो घर्मो यज्ञो दिवि वा एष हितो दिवि प्रतिष्ठितस्तमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
दिवि धा इमं यज्ञमिमं यैञं दिवि धा इत्यनुवषट्कृते जुहोति
वा आदित्यो घर्मो यज्ञो दिवि वा एष हितो दिवि प्रतिष्ठितस्तमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
दिवि धा इमं यज्ञमिमं यैञं दिवि धा इत्यनुवषट्कृते जुहोति
१४/२/२/१८
स्वाहाग्नये यज्ञियायेति तत्स्विष्टकृद्भाजनमग्निर्हि स्विष्टकृचं यजुर्भ्य इति
यजुर्भिर्ह्येषोऽस्मिंलोके प्रतिष्ठितस्तान्येवैतत्प्रीणात्यवरं स्वाहाकारं करोति
परां देवतामसावेव बन्धुः
यजुर्भिर्ह्येषोऽस्मिंलोके प्रतिष्ठितस्तान्येवैतत्प्रीणात्यवरं स्वाहाकारं करोति
परां देवतामसावेव बन्धुः
१४/२/२/१९
अथ ब्रह्मानुमन्त्रयते ब्रह्मा वा ऋत्विजां भिषक्तमस्तद्य एवर्त्विजाम्
भिषक्तमस्तेनैवैनमेतद्यज्ञं भिषज्यति
भिषक्तमस्तेनैवैनमेतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/२/२/२०
अश्विना घर्मं पातमिति अश्विनावेवैतदाहाश्विनौ ह्येतद्यज्ञस्य शिरः
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति
१४/२/२/२१
हार्द्वानमहर्दिवाभिरूतिभिरिति अनिरुक्तमन् रुक्तो वै प्रजापतिः
प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/२/२/२२
तन्त्रायिण इति एष वै तन्त्रायी य एष तपत्येष
हीमांलोकांस्तन्त्रमिवानुसञ्चरत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
तन्त्रायिण इति
हीमांलोकांस्तन्त्रमिवानुसञ्चरत्येष उ प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह
तन्त्रायिण इति
१४/२/२/२३
नमो द्यावापृथिवीभ्यामिति तदाभ्यां द्यावापृथिवीभ्यां निह्नुते ययोरिदं
सर्वमधि
सर्वमधि
१४/२/२/२४
अथ यजमानः यज्ञो वै यजमानो यज्ञेनेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/२/२/२५
अपातामश्विना घर्ममिति अश्विनावेवैतदाहाश्विनौ ह्येतद्यज्ञस्य शिरः
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति
प्रत्यधत्तां तावेवैतत्प्रीणाति
१४/२/२/२६
अनुद्यावापृथिवी अमंसातामिति तदिमे द्यावापृथिवी आह ययोरिदं सर्वमधीहैव
रातयः सन्त्वितीहैव नो धनानि सन्त्वित्येवैतदाह
रातयः सन्त्वितीहैव नो धनानि सन्त्वित्येवैतदाह
१४/२/२/२७
अथ पिन्वमानमनुमन्त्रयते इषे पिन्वस्वेति वृष्ट्यै तदाह यदाहेषे
पिन्वस्वेत्यूर्जे पिन्वस्वेति यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह ब्रह्मणे पिन्वस्वेति
तद्ब्रह्मण आह क्षत्राय पिन्वस्वेति तत्क्षत्रायाह द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्वेति
तदाभ्यां द्यावापृथिवीभ्यामाह ययोरिदं सर्वमधि
पिन्वस्वेत्यूर्जे पिन्वस्वेति यो वृष्टादूर्ग्रसो जायते तस्मै तदाह ब्रह्मणे पिन्वस्वेति
तद्ब्रह्मण आह क्षत्राय पिन्वस्वेति तत्क्षत्रायाह द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्वेति
तदाभ्यां द्यावापृथिवीभ्यामाह ययोरिदं सर्वमधि
१४/२/२/२८
स यदूर्ध्वः पिन्वते तद्यजमानाय पिन्वते यत्प्राङ्तद्देवेभ्यो यद्दक्षिणा
तत्पितृभ्यो यत्प्रत्यङ्तत्पशुभ्यो यदुदङ्तत्प्रजाया अनपराद्धं न्वेव
यजमानस्योर्ध्वो ह्येव पिन्वत्याथ यां दिशं पिन्वते तां पिन्वते यदा शाम्यन्ति
विप्रुषः
तत्पितृभ्यो यत्प्रत्यङ्तत्पशुभ्यो यदुदङ्तत्प्रजाया अनपराद्धं न्वेव
यजमानस्योर्ध्वो ह्येव पिन्वत्याथ यां दिशं पिन्वते तां पिन्वते यदा शाम्यन्ति
विप्रुषः
१४/२/२/२९
अथ प्राङिवोदङ्ङुत्क्रामति धर्मासि सुधर्मेत्येष वै धर्मो य एष तपत्येष
हीदं सर्वं धारयत्येतेनेदं सर्वं धृतमेष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह धर्मासि सुधर्मेति
हीदं सर्वं धारयत्येतेनेदं सर्वं धृतमेष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह धर्मासि सुधर्मेति
१४/२/२/३०
अथ खरे सादयति अमेन्यस्मे नृम्णानि धारयेत्यक्रुध्यन्नो धनानि
धारयेत्येवैतदाह ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धारयेत्येतत्सर्वं
धारयेत्येवैतदाह
धारयेत्येवैतदाह ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धारयेत्येतत्सर्वं
धारयेत्येवैतदाह
१४/२/२/३१
अथ शाकलैर्जुहोति प्राणा वै शाकलाः प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/२/२/३२
स्वाहा पूष्णे शरस इति अयं वै पूषा योऽयं पवत एष हीदं सर्वं पुष्यत्येष
उ प्राणः प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधाति तस्मादाह स्वाहा पूष्णे शरस इत्यवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुर्हुत्वा मध्यमे परिधाउपश्रयति
उ प्राणः प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधाति तस्मादाह स्वाहा पूष्णे शरस इत्यवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्धुर्हुत्वा मध्यमे परिधाउपश्रयति
१४/२/२/३३
स्वाहा ग्रावभ्य इति प्राणा वै ग्रावाणः प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति हुत्वा मध्यमे
परिधाउपश्रयति
परिधाउपश्रयति
१४/२/२/३४
स्वाहा प्रतिरवेभ्य इति प्राणा वै प्रतिरवाः प्राणान्हीदं सर्वं प्रतिरतम्
प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति हुत्वा मध्यमे परिधाउपश्रयति
प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति हुत्वा मध्यमे परिधाउपश्रयति
१४/२/२/३५
स्वाहा पितृभ्य ऊर्ध्वबर्हिर्भ्यो घर्मपावभ्य इति अहुत्वैवोदङ्ङीक्षमाणो
दक्षिणार्धे बर्हिष उपगूहति यज्ञस्य शीर्षच्>इन्नस्य रसो व्यक्षरत्स
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तानेवैतत्प्रीणात्यथ यन्न प्रेक्षते सकृदु ह्येव
पराञ्चः पितरः
दक्षिणार्धे बर्हिष उपगूहति यज्ञस्य शीर्षच्>इन्नस्य रसो व्यक्षरत्स
पितॄ!नगचत्त्रया वै पितरस्तानेवैतत्प्रीणात्यथ यन्न प्रेक्षते सकृदु ह्येव
पराञ्चः पितरः
१४/२/२/३६
स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यामिति प्राणोदानौ वै
द्यावापृथिवीप्राणोदानावेवास्मिन्नेतद्दधाति हुत्वा मध्यमे परिद्>आउपश्रयति
द्यावापृथिवीप्राणोदानावेवास्मिन्नेतद्दधाति हुत्वा मध्यमे परिद्>आउपश्रयति
१४/२/२/३७
स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्य इति प्राणा वै विश्वे देवाः प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति
हुत्वा
मध्यमे परिधाउपश्रयति
हुत्वा
मध्यमे परिधाउपश्रयति
१४/२/२/३८
स्वाहा रुद्राय रुद्रहूतय इति अहुत्वैव दक्षिणेक्षमाणः प्रतिप्रस्थात्रे प्रयचति
तं स उत्तरतः शालाया उदञ्चं निरस्यत्येषा ह्येतस्य देवस्य
दिक्ष्वायामेवैनमेतद्दिशि प्रीणात्यथ यन्न प्रेक्षते नेन्मा रुद्रो हिनसदिति
तं स उत्तरतः शालाया उदञ्चं निरस्यत्येषा ह्येतस्य देवस्य
दिक्ष्वायामेवैनमेतद्दिशि प्रीणात्यथ यन्न प्रेक्षते नेन्मा रुद्रो हिनसदिति
१४/२/२/३९
सप्तैता आहुतयो भ्वन्ति सप्त वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/२/२/४०
अथ महावीरादुपयमन्यां प्रत्यानयति स्वाहा सं ज्योतिषा ज्योतिरिति ज्योतिर्वा
इतरस्मिन्पयो भवति ज्योतिरितरस्यां ते ह्येतदुभे ज्योतिषी सङ्गचेते अवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्दुः
इतरस्मिन्पयो भवति ज्योतिरितरस्यां ते ह्येतदुभे ज्योतिषी सङ्गचेते अवरं
स्वाहाकारं करोति परां देवतामसावेव बन्दुः
१४/२/२/४१
अथ रौहिणौ जुहोति अहः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्यसावेव बन्धू
रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्यसावेव बन्धुः
रात्रिः केतुना जुषतां सुज्योतिर्ज्योतिषा स्वाहेत्यसावेव बन्धुः
१४/२/२/४२
अथ यजमानाय घर्मोचिष्टं प्रयचति स उपहवमिष्ट्वा भक्षयति मधु
हुतमिन्द्रतमे अग्नाविति मधु हुतमिन्द्रियवत्तमेऽग्नावित्येवैतदाहाश्याम ते
देव घर्म नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीरित्याशिषमेवैतदाशास्ते
हुतमिन्द्रतमे अग्नाविति मधु हुतमिन्द्रियवत्तमेऽग्नावित्येवैतदाहाश्याम ते
देव घर्म नमस्ते अस्तु मा मा हिंसीरित्याशिषमेवैतदाशास्ते
१४/२/२/४३
अथ दक्षिणतः सिकता उपकीर्णा भवन्ति तन्मार्जयन्ते य एव मार्जालीये बन्धुः
सोऽत्रानुप्रहरति शाकलानथोपसदा चरन्त्येतदु यज्ञस्य शिरः संस्कृतं
यथायथैनं तदश्विनौ प्रत्यधत्ताम्
सोऽत्रानुप्रहरति शाकलानथोपसदा चरन्त्येतदु यज्ञस्य शिरः संस्कृतं
यथायथैनं तदश्विनौ प्रत्यधत्ताम्
१४/२/२/४४
तं न प्रथमयज्ञे प्रवृञ्ज्यात् एनस्यं हि तदथो नेन्म इन्द्रः शिरश्चिनददिति
द्वितीये वैव तृतीये वापशीर्ष्णा ह्येवाग्रे यज्ञेन देवा अर्चन्तः
श्राम्यन्तश्चेरुस्तस्माद्द्वितीये वैव तृतीये वाथो तप्तो वा एष शुशुचानो भवति
द्वितीये वैव तृतीये वापशीर्ष्णा ह्येवाग्रे यज्ञेन देवा अर्चन्तः
श्राम्यन्तश्चेरुस्तस्माद्द्वितीये वैव तृतीये वाथो तप्तो वा एष शुशुचानो भवति
१४/२/२/४५
तं यत्प्रथमयञे प्रवृञ्ज्यात् एषोऽस्य तप्तः शुशुचानः प्रजां च पशूंश्च
प्रदहेदथो आयुः प्रमायुको यजमानः स्यात्तस्माद्द्वितीये वैव तृतीये वा
प्रदहेदथो आयुः प्रमायुको यजमानः स्यात्तस्माद्द्वितीये वैव तृतीये वा
१४/२/२/४६
तं न सर्वस्मा इव प्रवृञ्ज्यात् सर्वं वै प्रवर्ग्यो नेत्सर्वस्मा इव सर्वं
करवाणीति यो न्वेव ज्ञतस्तस्मै प्रवृञ्ज्याद्यो वास्य प्रियः स्याद्यो
वानूचानोऽनूक्तेनैनं प्राप्नुयात्
करवाणीति यो न्वेव ज्ञतस्तस्मै प्रवृञ्ज्याद्यो वास्य प्रियः स्याद्यो
वानूचानोऽनूक्तेनैनं प्राप्नुयात्
१४/२/२/४७
सहस्रे प्रवृञ्ज्यात् सर्वं वै सहस्रं सर्वमेष सर्ववेदसे प्रवृञ्ज्यात्सर्वं वै
सर्ववेदसं सर्वमेष विश्वजिति सर्वपृष्थे प्रवृञ्ज्यात्सर्वं वै
विश्वजित्सर्वपृष्ठः सर्वमेष वाजपेये राजसूये प्रवृञ्ज्यात्सर्वं हि तत्सत्त्रे
प्रवृञ्ज्यात्सर्वं वै सत्त्रं सर्वमेष एतान्यस्य प्रवर्जनान्यतो नान्यत्र
सर्ववेदसं सर्वमेष विश्वजिति सर्वपृष्थे प्रवृञ्ज्यात्सर्वं वै
विश्वजित्सर्वपृष्ठः सर्वमेष वाजपेये राजसूये प्रवृञ्ज्यात्सर्वं हि तत्सत्त्रे
प्रवृञ्ज्यात्सर्वं वै सत्त्रं सर्वमेष एतान्यस्य प्रवर्जनान्यतो नान्यत्र
१४/२/२/४८
तदाहुः यदपशिरा अप्रवर्ग्योऽथ केनास्याग्निहोत्रं
शीर्षण्वद्भवतीत्याहवनीयेनेति ब्रूयात्कथं दर्शपूर्णमासावित्याज्येन च
पुरोडाशेन चेति ब्रूयात्कथं चातुर्मास्यानीति पयस्ययेति ब्रूयात्कथं पशुबन्ध
इति पशुना च पुरोडाशेन चेति ब्रूयात्कथं सौम्योऽध्वर इति हविर्धानेनेति ब्रूयात्
शीर्षण्वद्भवतीत्याहवनीयेनेति ब्रूयात्कथं दर्शपूर्णमासावित्याज्येन च
पुरोडाशेन चेति ब्रूयात्कथं चातुर्मास्यानीति पयस्ययेति ब्रूयात्कथं पशुबन्ध
इति पशुना च पुरोडाशेन चेति ब्रूयात्कथं सौम्योऽध्वर इति हविर्धानेनेति ब्रूयात्
१४/२/२/४९
अथो आहुः यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य शिर एतद्देवाः प्रत्यदधुर्यदातिथ्यं न ह वा
अस्यापशीर्ष्णा केन चन यज्ञेनेष्टं भवति य एवमेतद्वेद
अस्यापशीर्ष्णा केन चन यज्ञेनेष्टं भवति य एवमेतद्वेद
१४/२/२/५०
तदाहुः यत्प्रणीताः प्रणयन्ति यज्ञेऽथ कस्मादत्र न प्रणयतीति शिरो वा
एतद्यज्ञास्य यत्प्रणीताः शिरः प्रवर्ग्यो नेचिरसा शिरोऽभ्यारोहयाणीति
एतद्यज्ञास्य यत्प्रणीताः शिरः प्रवर्ग्यो नेचिरसा शिरोऽभ्यारोहयाणीति
१४/२/२/५१
तदाहुः यत्प्रयाजानुयाजा अन्यत्र भवन्त्यथ कस्मादत्र न भवन्तीति प्राणा वै
प्रयाजानुयाजाः प्राणा अवकाशाः प्राणाः शाकल नेत्प्राणैः प्राणानभ्यारोहयाणीति
प्रयाजानुयाजाः प्राणा अवकाशाः प्राणाः शाकल नेत्प्राणैः प्राणानभ्यारोहयाणीति
१४/२/२/५२
तदाहुः यदाज्यभागावन्यत्र जुह्वत्यथ कस्मादत्र न जुहोतीति चक्षुषी वा एते
यज्ञस्य यदाज्यभागौ चक्षुषी रौहिणौ नेच्चक्षुषा चक्षुरभ्यारोहयाणीति
यज्ञस्य यदाज्यभागौ चक्षुषी रौहिणौ नेच्चक्षुषा चक्षुरभ्यारोहयाणीति
१४/२/२/५३
तदाहुः यद्वानस्पत्यैर्देवेभ्यो जुह्वत्यथ कस्मादेतं म्ंमयेनैव जुहोतीति
यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स इमे द्यावापृथिवी अगचद्यन्मृदियं
तद्यदापोऽसौ तन्मृदश्चापां च महावीराः कृता भवन्ति तेनैवैनमेतद्रसेन
समर्धयति कृत्स्नं करोति
यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य रसो व्यक्षरत्स इमे द्यावापृथिवी अगचद्यन्मृदियं
तद्यदापोऽसौ तन्मृदश्चापां च महावीराः कृता भवन्ति तेनैवैनमेतद्रसेन
समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/२/२/५४
स यद्वानस्पत्यः स्यात् प्रदह्येत यद्धिरण्मयः स्यात्प्रलीयेत यल्लोहमयः
स्यात्प्रसिच्येत यदयस्मयः स्यात्प्रदहेत्परीशासावथैष एवैतस्माअतिष्ठत
तस्मादेतं मृन्मयेनैव जुहोति
स्यात्प्रसिच्येत यदयस्मयः स्यात्प्रदहेत्परीशासावथैष एवैतस्माअतिष्ठत
तस्मादेतं मृन्मयेनैव जुहोति
१४/२/२/५५
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्ष् ।यति वा तस्य
व्रतचर्या या सृस्।त् ।ौ
व्रतचर्या या सृस्।त् ।ौ
१४/३/१/१
स वै तृतीयेऽहन् षष्ठे वा द्वादशे वा प्रवर्ग्योपसदौ समस्य
प्रवर्ग्यमुत्सादयत्युत्सन्नमिव हीदं शिरस्तद्यदेतमभितो भवति तत्सर्वं
समादायाग्रेण शालामन्तर्वेद्युपसमायन्ति
प्रवर्ग्यमुत्सादयत्युत्सन्नमिव हीदं शिरस्तद्यदेतमभितो भवति तत्सर्वं
समादायाग्रेण शालामन्तर्वेद्युपसमायन्ति
१४/३/१/२
अथाग्नीध्रः आहवनीये त्रीञ्चालाकानुपकल्पयते तेषामेकमुज्ज्वलय्य
मुखदघ्ने धारयमाणो जुहोति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य
शुगुदक्रामत्सेमांलोकानाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति
मुखदघ्ने धारयमाणो जुहोति यज्ञस्य शीर्षचिन्नस्य
शुगुदक्रामत्सेमांलोकानाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/३/१/३
अथ यन्मुखदघ्ने उपरीव वै तद्यन्मुखदघ्नमुपरीव तद्यदसौ
लोकस्तद्यामुं लोकं शुगाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति
लोकस्तद्यामुं लोकं शुगाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/३/१/४
या ते घर्म दिव्या शुगिति यैव दिव्या शुग्या गायत्र्यांहविर्धान इति यैव गायत्र्यां
हविर्धाने सा त आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
हविर्धाने सा त आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
१४/३/१/५
अथ द्वितीयमुज्ज्वलय्य नाभिदघ्ने धारयमाणो जुहोति मध्यमिव वै
तद्यन्नाभिदघ्नं मध्यमिवान्तरिक्षलोकस्तद्यान्तरिक्षलोकं
शुगाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति
तद्यन्नाभिदघ्नं मध्यमिवान्तरिक्षलोकस्तद्यान्तरिक्षलोकं
शुगाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं करोति
१४/३/१/६
याते घर्मान्तरिक्षे शुगिति यैवान्तरिक्षे शुग्या त्रिष्टुभ्याग्नीध्र इति यैव
त्रिष्टुभ्याग्नीध्रे सा त आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
त्रिष्टुभ्याग्नीध्रे सा त आप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
१४/३/१/७
अथ तृतीयमभ्याधाय तस्मिन्नासीनो जुहोत्यधैव वै तद्यदासीनोऽधैव
तद्यदयं लोकस्तद्येमं लोकं शुगाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं
करोति
तद्यदयं लोकस्तद्येमं लोकं शुगाविशत्तयैवैनमेतचुचा समर्धयति कृत्स्नं
करोति
१४/३/१/८
या ते घर्म पृथिव्यां शुगिति यैव पृथिव्यां शुग्या जगत्यां सदस्येति यैव
जगत्यां सदस्या सा तआप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
जगत्यां सदस्या सा तआप्यायतां निष्ट्यायतां तस्यै ते स्वाहेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
१४/३/१/९
अथोपनिष्क्रामति क्षत्रस्य त्वा परस्पायेत्येतद्वै दैवं क्षत्रं य एष
तपत्यस्य त्वा मानुषस्य क्षत्रस्य परस्पत्वायेत्येवैतदाह ब्रह्मणस्तन्वम्
पाहीति ब्रह्मण आत्मानं गोपायेत्येवैतदाह विशस्त्वा धर्मणा वयमिति यज्ञो वै
विड्यज्ञस्य त्वारिष्ट्या इत्येवैतदामानुक्रामाम सुविताय नव्यस इति यज्ञस्य
त्वारिष्ट्या अह्वलाया इत्येवैतदाह
तपत्यस्य त्वा मानुषस्य क्षत्रस्य परस्पत्वायेत्येवैतदाह ब्रह्मणस्तन्वम्
पाहीति ब्रह्मण आत्मानं गोपायेत्येवैतदाह विशस्त्वा धर्मणा वयमिति यज्ञो वै
विड्यज्ञस्य त्वारिष्ट्या इत्येवैतदामानुक्रामाम सुविताय नव्यस इति यज्ञस्य
त्वारिष्ट्या अह्वलाया इत्येवैतदाह
१४/३/१/१०
अथाह साम गायेति साम ब्रूहीति वा गायेति त्वेव ब्रूयाद्गायन्ति हि साम तद्यत्साम
गायति नेदिमान्बहिर्धा यज्ञाचरीरान्नाष्ट्रा रक्षांसि हिनसन्निति साम हि नाष्ट्राणां
रक्षसामपहन्ता
गायति नेदिमान्बहिर्धा यज्ञाचरीरान्नाष्ट्रा रक्षांसि हिनसन्निति साम हि नाष्ट्राणां
रक्षसामपहन्ता
१४/३/१/११
आग्नेय्यां गायति अग्निर्हि रक्षसामपहन्तातिचन्दसि गायत्येषा वै सर्वाणि चन्दांसि
यदव्तिचन्दास्तस्मादतिचन्दसि गायति
यदव्तिचन्दास्तस्मादतिचन्दसि गायति
१४/३/१/१२
स गायति अग्निष्टपति प्रतिदहत्यहावोऽहाव इति तन्नाष्ट्रा वै
तद्रक्षांस्यतोऽपहन्ति
तद्रक्षांस्यतोऽपहन्ति
१४/३/१/१३
त उदञ्चो निष्क्रामन्ति जग्>अनेन चात्वालमग्रेणाग्नीध्रमेषा हि यज्ञस्य द्वाः स
यस्यां ततो दिश्यापो भवन्ति तद्यन्ति
यस्यां ततो दिश्यापो भवन्ति तद्यन्ति
१४/३/१/१४
तं वै परिष्यन्द उत्सादयेत् तप्तो वा एष शुशुचानो भवति तं
यदस्यामुत्सादयेदिमामस्य शुगृचेद्यदप्सूत्सादयेदपोऽस्य शुगृचेदथ
यत्परिष्यन्द उत्सादयति तथो ह नैवापो हिनस्ति नेमां यदहाप्सु न प्रास्यति
तेनापो न हिनस्त्यथ यत्समन्तमापः परियन्ति शान्तिर्वा आपस्तेनो इमां न हिनस्ति
तस्मात्परिष्यन्द उत्सादयेत्
यदस्यामुत्सादयेदिमामस्य शुगृचेद्यदप्सूत्सादयेदपोऽस्य शुगृचेदथ
यत्परिष्यन्द उत्सादयति तथो ह नैवापो हिनस्ति नेमां यदहाप्सु न प्रास्यति
तेनापो न हिनस्त्यथ यत्समन्तमापः परियन्ति शान्तिर्वा आपस्तेनो इमां न हिनस्ति
तस्मात्परिष्यन्द उत्सादयेत्
१४/३/१/१५
उत्तरवेदौ त्वेवोत्सादयेत् यज्ञो वा उत्तरवेदिः शिरः प्रवर्ग्यो यज्ञ एवतचिरः
प्रतिदधाति
१४/३/१/१६
उत्तरनाभ्या संस्पृष्टम् प्रथमं प्रवर्ग्यमुत्सादयति वाग्वा उत्तरनाभिः
शिरः प्रवर्ग्यः शीर्षंस्तद्वाचं दधाति
शिरः प्रवर्ग्यः शीर्षंस्तद्वाचं दधाति
१४/३/१/१७
चतुःस्रक्तिरिति एष वै चतुःस्रक्तिर्य एष तपति दिशो ह्येतस्य स्रक्तयस्तस्मादाह
चतुःस्रक्तिरिति
चतुःस्रक्तिरिति
१४/३/१/१८
नाभिरृतस्य सप्रथा इति सत्यं वा ऋतं सत्यस्य नाभिः सप्रथा इत्येवैतदाह स नो
विश्वायुः सप्रथा इति स नः सर्वायुः सप्रथा इत्येवैतदाह
विश्वायुः सप्रथा इति स नः सर्वायुः सप्रथा इत्येवैतदाह
१४/३/१/१९
अप द्वेषो अप ह्वर इति नात्र तिरोहितमिवास्त्यन्यव्रतस्य सश्चिमेत्यन्यद्वा एतस्य
व्रतमन्यन्मनुष्याणां तस्मादाहान्यव्रतस्य सश्चिमेत्येवमितरौ प्राञ्चौ
तत्त्रिवृत्त्रिवृद्धीदं शिरः
व्रतमन्यन्मनुष्याणां तस्मादाहान्यव्रतस्य सश्चिमेत्येवमितरौ प्राञ्चौ
तत्त्रिवृत्त्रिवृद्धीदं शिरः
१४/३/१/२०
पुरस्तादुपशयां मृदम् मांसमेवास्मिन्नेतद्दधाति तदभितः परीशासौ बाहू
एवास्मिन्नेतद्दधात्यभितः परे रौहिणहवन्यौ स्रुचौ
हस्तावेवास्मिन्नेतद्दधाति
एवास्मिन्नेतद्दधात्यभितः परे रौहिणहवन्यौ स्रुचौ
हस्तावेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/३/१/२१
उत्तरतोऽभ्रिम् तद्धि तस्या आयतनं दक्षिणतः सम्राडासन्दीं तद्धि तस्या
आयतनमुत्तरतः कृष्णाजिनं तद्धि तस्यायतनं सर्वतो धवित्राणि प्राणा वै
धवित्राणि प्राणानेवास्मिन्नेतद्दद्>आति त्रीणि भवन्ति त्रयो वै प्राणाः प्र्ण उदानो
व्यानस्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
आयतनमुत्तरतः कृष्णाजिनं तद्धि तस्यायतनं सर्वतो धवित्राणि प्राणा वै
धवित्राणि प्राणानेवास्मिन्नेतद्दद्>आति त्रीणि भवन्ति त्रयो वै प्राणाः प्र्ण उदानो
व्यानस्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/३/१/२२
अथैतद्रज्जुसन्दानम् उपयमन्यामाधाय
पश्चात्प्राचीमासादयत्युदरमेवास्मिन्नेतद्दधाति तदभितः पिन्वने
आण्डावेवास्मिन्नेतद्दधात्याण्डाभ्यां हि वृषा पिन्वते पश्चात्स्थूणामयूखमूरू
एवास्मिन्नेतद्दधाति पश्चाद्रौहिणकपाले जानुनी एवास्मिन्नेतद्दधाति ते
यदेककपाले भवत एककपाले इव हीमे जानुनी पश्चाद्धृष्टी
पादावेवास्मिन्नेतद्दधाति पादाभ्यां हि धृष्टं प्रहरत्युत्तरतः खरौ
प्रचरणीयौ तद्धि तयोरायतनं दक्षिणतो मार्जालीयं तद्धि तस्यायतनम्
पश्चात्प्राचीमासादयत्युदरमेवास्मिन्नेतद्दधाति तदभितः पिन्वने
आण्डावेवास्मिन्नेतद्दधात्याण्डाभ्यां हि वृषा पिन्वते पश्चात्स्थूणामयूखमूरू
एवास्मिन्नेतद्दधाति पश्चाद्रौहिणकपाले जानुनी एवास्मिन्नेतद्दधाति ते
यदेककपाले भवत एककपाले इव हीमे जानुनी पश्चाद्धृष्टी
पादावेवास्मिन्नेतद्दधाति पादाभ्यां हि धृष्टं प्रहरत्युत्तरतः खरौ
प्रचरणीयौ तद्धि तयोरायतनं दक्षिणतो मार्जालीयं तद्धि तस्यायतनम्
१४/३/१/२३
अथास्मिन्पय आनयति घर्मैतत्ते पुरीषमित्यन्नं वै
पुरीषमन्नमेवास्मिन्नेतद्दधाति तेन वर्धस्व चा च प्यायस्वेति नात्र
तिरोहितमिवास्ति वर्धिषीमहि च वयमा च प्यासिषीमहीत्याशिषमेवैतदाशास्ते
पुरीषमन्नमेवास्मिन्नेतद्दधाति तेन वर्धस्व चा च प्यायस्वेति नात्र
तिरोहितमिवास्ति वर्धिषीमहि च वयमा च प्यासिषीमहीत्याशिषमेवैतदाशास्ते
१४/३/१/२४
स वै न सर्वमिवानयेत् नेद्यजमानात्परागन्नमसदित्यर्धं वा भूयो वा
परिषिनष्टि तस्मिन्नपराह्णे यजमानाय व्रतमभ्युत्सिच्य प्रयचति तद्यजमान
एवैतदन्नाद्यं दधाति तथो ह यजमानान्न परागन्नं भवति
परिषिनष्टि तस्मिन्नपराह्णे यजमानाय व्रतमभ्युत्सिच्य प्रयचति तद्यजमान
एवैतदन्नाद्यं दधाति तथो ह यजमानान्न परागन्नं भवति
१४/३/१/२५
अथैनमद्भिः परिषिञ्चति शान्तिर्वा आपः शमयत्येवैनमेतत्सर्वतः परिषिञ्चति
सर्वत एवैनमेतचमयति त्रिष्कृत्वः परिषिञ्चति त्रिवृद्धि यज्ञः
सर्वत एवैनमेतचमयति त्रिष्कृत्वः परिषिञ्चति त्रिवृद्धि यज्ञः
१४/३/१/२६
अथाह वार्षाहरं साम गायति एष वै वृषा हरिर्य एष तपत्येष उ
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह वार्षाहरं साम गायति
प्रवर्ग्यस्तदेतमेवैतत्प्रीणाति तस्मादाह वार्षाहरं साम गायति
१४/३/१/२७
अथ चात्वाले मार्जयन्ते सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्त्वित्यञ्जलिनाप उपाचति वज्रो
वा आपो वज्रेणैवैतन्मित्रधेयं कुरुते दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यं
च वयं द्विष्म इति यामस्य दिशं द्वेष्यः स्यात्तां दिशं परासिञ्चेत्तेनैव तम्
पराभावयति
वा आपो वज्रेणैवैतन्मित्रधेयं कुरुते दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यं
च वयं द्विष्म इति यामस्य दिशं द्वेष्यः स्यात्तां दिशं परासिञ्चेत्तेनैव तम्
पराभावयति
१४/३/१/२८
अथ प्राङिवोदङ्ङुत्क्रामति उद्वयं तमसस्परीति पाप्मा वै तमः पाप्मानमेव
तमोऽपहते स्वः पश्यन्त उत्तरमित्ययं वै लोकोऽद्भ्य उत्तरोऽस्मिन्नेव लोके
प्रतितिष्ठति देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तममिति स्वर्गो वै लोकः सूर्यो
ज्योतिरुत्तमं स्वर्ग एव लोकेऽन्ततः प्रतितिष्ठत्यनपेक्षमेत्याहवनीये
समिधमभ्यादधाति समिदसि तेजोऽसि तेजो मयि धेहीत्याशिषमेवैतदाशास्ते
तमोऽपहते स्वः पश्यन्त उत्तरमित्ययं वै लोकोऽद्भ्य उत्तरोऽस्मिन्नेव लोके
प्रतितिष्ठति देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तममिति स्वर्गो वै लोकः सूर्यो
ज्योतिरुत्तमं स्वर्ग एव लोकेऽन्ततः प्रतितिष्ठत्यनपेक्षमेत्याहवनीये
समिधमभ्यादधाति समिदसि तेजोऽसि तेजो मयि धेहीत्याशिषमेवैतदाशास्ते
१४/३/१/२९
अथ प्रसुते दधिघर्मेण चरन्ति यज्ञो वै सोमः शिरः प्रवर्ग्यो यज्ञ
एवैतचिरः प्रतिदधाति माध्यन्दिने सवन एतद्वा इन्द्रस्य निष्केवल्यं सवनं
यन्माध्यन्दिनं सवनं स्व एवैनमेतद्भागे प्रीणाति स्तुते माध्यन्दिने
पवमाने प्राणो वै माध्यन्दिनः पवमानः
प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधात्यग्निहोत्रहवण्या मुखं वा एतद्यज्ञानां
यदग्निहोत्रं शीर्षंस्तन्मुखं दधाति
एवैतचिरः प्रतिदधाति माध्यन्दिने सवन एतद्वा इन्द्रस्य निष्केवल्यं सवनं
यन्माध्यन्दिनं सवनं स्व एवैनमेतद्भागे प्रीणाति स्तुते माध्यन्दिने
पवमाने प्राणो वै माध्यन्दिनः पवमानः
प्राणमेवास्मिन्नेतद्दधात्यग्निहोत्रहवण्या मुखं वा एतद्यज्ञानां
यदग्निहोत्रं शीर्षंस्तन्मुखं दधाति
१४/३/१/३०
स आनीयमान आह होतर्वदस्व यत्ते वाद्यमिति वदते ह्यत्र
होताथोपोत्तिष्ठन्नाह श्रातं हविरिति श्रातं हि भवत्यतिक्रम्याश्राव्याह
दधिघर्मस्य यजेति वषट्कृते जुहोत्यनुवषट्कृत आहरति भक्षं तं
यजमानाय प्रयचति
होताथोपोत्तिष्ठन्नाह श्रातं हविरिति श्रातं हि भवत्यतिक्रम्याश्राव्याह
दधिघर्मस्य यजेति वषट्कृते जुहोत्यनुवषट्कृत आहरति भक्षं तं
यजमानाय प्रयचति
१४/३/१/३१
स उपहवमिष्ट्वा भक्षयति मयि त्यदिन्द्रियं बृहदित्येतद्वा इन्द्रियं बृहद्य
एष तपति मयि दक्षो मयि क्रतुरिति क्रतूदक्षावेवात्मन्धत्ते
घर्मस्त्रिशुग्विराजतीति घर्मो ह्येष त्रिशुग्विराजति विराजा ज्योतिषा सहेति विराजा ह्येष
ज्योतिषा सह ब्रह्मणा तेजसा सहेति ब्रह्मणा ह्येष तेजसा सह पयसो रेत
आभृतमिति पयसो ह्येतद्रेत आभृतं तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तरां
समामित्याशिषमेवैतदाशास्तेऽथ चात्वाले मार्जयन्तेऽसावेव बन्धुः
एष तपति मयि दक्षो मयि क्रतुरिति क्रतूदक्षावेवात्मन्धत्ते
घर्मस्त्रिशुग्विराजतीति घर्मो ह्येष त्रिशुग्विराजति विराजा ज्योतिषा सहेति विराजा ह्येष
ज्योतिषा सह ब्रह्मणा तेजसा सहेति ब्रह्मणा ह्येष तेजसा सह पयसो रेत
आभृतमिति पयसो ह्येतद्रेत आभृतं तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तरां
समामित्याशिषमेवैतदाशास्तेऽथ चात्वाले मार्जयन्तेऽसावेव बन्धुः
१४/३/१/३२
अथातो दक्षिणानाम् सुवर्णं हिरण्यं शतमानं ब्रह्मणे ददात्यासीनो वै ब्रह्मा
यशः शयानं हिरण्यं तस्मात्सुवर्णं हिरण्यं शतमानं ब्रह्मणे ददाति
यशः शयानं हिरण्यं तस्मात्सुवर्णं हिरण्यं शतमानं ब्रह्मणे ददाति
१४/३/१/३३
अथ यैषा घर्मदुघा तामध्वर्यवे ददाति तप्तैव वै
घर्मस्तप्तमिवाध्वर्युर्निष्क्रामति तस्मात्तामध्वर्य वे ददाति
घर्मस्तप्तमिवाध्वर्युर्निष्क्रामति तस्मात्तामध्वर्य वे ददाति
१४/३/१/३४
अथ यैषा यजमानस्य व्रतदुघा तां होत्रे ददाति यज्ञो वै होता यज्ञो
यजमानस्तस्मात्तां होत्रे ददाति
यजमानस्तस्मात्तां होत्रे ददाति
१४/३/१/३५
अथ यैषा पत्न्यै व्रतदुघा तामुद्गातृभ्यो ददाति पत्नीकर्मेव वा एतेऽत्र
कुर्वन्ति यदुद्गातारस्तस्मात्तामुद्गातृभ्यो ददाति
कुर्वन्ति यदुद्गातारस्तस्मात्तामुद्गातृभ्यो ददाति
१४/३/१/३६
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्षयति वा तस्य
व्रतचर्या या सृष्टौ
व्रतचर्या या सृष्टौ
१४/३/२/१
सर्वेषां वा एष भूतानाम् सर्वेषां देवानामात्मा यद्यज्ञस्तस्य समृद्धिमनु
यजमानः प्रजया पशुभिरृध्यते वि वा एष प्रजया पशुभिरृध्यते यस्य घर्मो
विदीर्यते तत्र प्रायश्चित्तिः
यजमानः प्रजया पशुभिरृध्यते वि वा एष प्रजया पशुभिरृध्यते यस्य घर्मो
विदीर्यते तत्र प्रायश्चित्तिः
१४/३/२/२
पूर्णाहुतिं जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं
यज्ञस्य
१४/३/२/३
स्वाहा प्राणेभ्यः साधिपतिकेभ्य इति मनो वै प्राणानामधिपतिर्मनसि हि सर्वे
प्राणाः प्रतिष्ठितास्तन्मनसैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
प्राणाः प्रतिष्ठितास्तन्मनसैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/४
पृथिव्यै स्वाहेति पृथिवी वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/५
अग्नये स्वाहेति अग्निर्वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृड्>अं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृड्>अं यज्ञस्य
१४/३/२/६
अन्तरिक्षाय स्वाहेति अन्तरिक्षं वै सर्वेषां देवानामायतनं तत्सर्वा>
१४/३/२/७
वायवे स्वाहेति वायुर्वै सर्वेषां देवानामात्मा तत्सर्वा>
१४/३/२/८
दिवे स्वाहेति द्यौर्वै सर्वेषां देवानामायतनं तत्सर्वा>
१४/३/२/९
सूर्याय स्वाहेति सूर्यो वै सर्वेषां देवानामात्मा तत्सर्वा>
१४/३/२/१०
दिग्भ्यः स्वाहेति दिशो वै सर्वेषां देवानामायतनं तत्सर्वा>
१४/३/२/११
चन्द्राय स्वाहेति चन्द्रो वै सर्वेषां देवानामात्मा तत्सर्वा>
१४/३/२/१२
नक्षत्रेभ्यः स्वाहेति नक्षत्राणि वै सर्वेषां देवानामायतनं तत्सर्वा>
१४/३/२/१३
अद्भ्यः स्वाहेति आपो वै सर्वेषां देवानामायतनं तत्सर्वा>
१४/३/२/१४
वरुणाय स्वाहेति वरुणो वै सर्वेषां देवानामात्मा तत्सर्वा>
१४/३/२/१५
नाभ्यै स्वाहा पूताय स्वाहेति अनिरुक्तमनिरुक्तो वै प्रजापतिः
प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/३/२/१६
त्रयोदशैता आहुतयो भवन्ति त्रयोदश वै मासाः सम्वत्सरस्य सम्वत्सरः
प्रजापतिः प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
प्रजापतिः प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/३/२/१७
वाचे स्वाहेति मुखमेवास्मिन्नेतद्दधाति प्राणाय स्वाहा प्राणाय स्वाहेति नासिके
एवास्मिन्नेतद्दधाति चक्षुषे स्वाहा चक्षुषे स्वाहेत्यक्षिणी एवास्मिन्नेतद्दधाति
श्रोत्राय स्वाहा श्रोत्राय स्वाहेति कर्णावेवास्मिन्नेतद्दधाति
एवास्मिन्नेतद्दधाति चक्षुषे स्वाहा चक्षुषे स्वाहेत्यक्षिणी एवास्मिन्नेतद्दधाति
श्रोत्राय स्वाहा श्रोत्राय स्वाहेति कर्णावेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/३/२/१८
सप्तैता आहुतयो भवन्ति सप्त वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
पूर्णाहुतिमुत्तमां जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च
विवृढं यज्ञस्य
पूर्णाहुतिमुत्तमां जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च
विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/१९
मनसः काममाकूतिमिति मनसा वा इदं सर्वमाप्तं तन्मनसैवैतद्भिषज्यति
यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/२०
वाचः सत्यमशीयेति वाचा वा इदं सर्वमाप्तं तद्वाचैवैतद्भिषज्यति यत्किं च
विवृढं यज्ञस्य पशूनां रूपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि
स्वाहेत्याशिषमेवैतदाशास्ते
विवृढं यज्ञस्य पशूनां रूपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि
स्वाहेत्याशिषमेवैतदाशास्ते
१४/३/२/२१
अथ तं चोपशयां च पिष्ट्वा मार्त्स्नया मृदा संसृज्यावृता करोत्यावृता
पचत्युत्सादनार्थमथ य उपशययोर्दृढः स्यात्तेन प्रचरेत्
पचत्युत्सादनार्थमथ य उपशययोर्दृढः स्यात्तेन प्रचरेत्
१४/३/२/२२
संवत्सरो वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै संवत्सरः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यत्प्रवृक्तस्तद्वसन्तो यद्रुचितस्तद्ग्रीष्मो यत्पिन्वितस्तद्वर्षा यदा वै वर्षाह्
पिन्वन्तेऽथैनाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वाअस्मै वर्षा य
एवमेतद्वेद
यत्प्रवृक्तस्तद्वसन्तो यद्रुचितस्तद्ग्रीष्मो यत्पिन्वितस्तद्वर्षा यदा वै वर्षाह्
पिन्वन्तेऽथैनाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वाअस्मै वर्षा य
एवमेतद्वेद
१४/३/२/२३
इमे वै लोकाः प्रवर्ग्यः सर्वं वा इमे लोकाः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यत्प्रवृक्तस्तदयं लोको यद्रुचितस्तदन्तरिक्षलोको यत्पिन्वितस्तदसौ लोको यदा वा
असौ लोकः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्म्
असौ लोको य एवमेतद्वेद
यत्प्रवृक्तस्तदयं लोको यद्रुचितस्तदन्तरिक्षलोको यत्पिन्वितस्तदसौ लोको यदा वा
असौ लोकः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्म्
असौ लोको य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२४
एता वै देवताः प्रवर्ग्यः अग्निर्वायुरादित्यः सर्वं वा एता देवता सर्वम्
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदग्निर्यद्रुचितस्तद्वायुर्यत्पिन्वितस्तदसावादित्यो यदा वा
असावादित्यःपिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा
असावादित्यो य एवमेतद्वेद
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदग्निर्यद्रुचितस्तद्वायुर्यत्पिन्वितस्तदसावादित्यो यदा वा
असावादित्यःपिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा
असावादित्यो य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२५
यजमानो वै प्रवर्ग्यः तस्यात्मा प्रजा पशवः सर्वं वै यजमानः सर्वम्
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदात्मा यद्रुचितस्तत्प्रजा यत्पिन्वितस्तत्पशवो यदा वै
पशवः पिन्वतेऽथैनान्त्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा अस्मै
पशवो य एवमेतद्वेद
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदात्मा यद्रुचितस्तत्प्रजा यत्पिन्वितस्तत्पशवो यदा वै
पशवः पिन्वतेऽथैनान्त्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा अस्मै
पशवो य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२६
अग्निहोत्रं वै प्रवर्ग्यः सर्वं वाअग्निहोत्रं सर्वं प्रवर्ग्यः स यदधिश्रितं
तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वाअग्निहोत्रम्
पिन्वतेऽथैनत्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा अग्निहोत्रं
य एवमेतद्वेद
तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वाअग्निहोत्रम्
पिन्वतेऽथैनत्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा अग्निहोत्रं
य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२७
दर्शपूर्णमासौ वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै दर्शपूर्णमासौ सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै
दर्शपूर्णमासौ पिन्वेते अथैनौ सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वेते ह
वा अस्मै दर्शपूर्णमासौ य एवमेतद्वेद
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै
दर्शपूर्णमासौ पिन्वेते अथैनौ सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वेते ह
वा अस्मै दर्शपूर्णमासौ य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२८
चातुर्मास्यानि वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै चातुर्मास्यानि सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रु
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रु
=====================================
दते fरि, २६ जुल्१ऋऋ६ १५४३२२ ०६०० (च्स्थ्fरोम् "व्/ प्/ लेह्मन्न्"
<लेह्मन्न्॰ुत्क्ष्व्म्स्/च्च्/उतेक्षस्/एदु>सुब्जेच्त् स्ब्१४ ओ
ज्गर्द्नेर्॰ब्लुए/वेएग्/उइओवैदुमिमेवेर्सिओन् १/० ततुस्रोक्ष्स्ततुस्
<लेह्मन्न्॰ुत्क्ष्व्म्स्/च्च्/उतेक्षस्/एदु>सुब्जेच्त् स्ब्१४ ओ
ज्गर्द्नेर्॰ब्लुए/वेएग्/उइओवैदुमिमेवेर्सिओन् १/० ततुस्रोक्ष्स्ततुस्
चितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै चातुर्मास्यानि पिन्वन्तेऽथैनानि सर्वे देवाः सर्वाणि
भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा अस्मै चातुर्मास्यानि य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२९
पशुबन्धो वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै पशुबन्धः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदधिश्रितस्तत्प्रवृक्तो यदासन्नस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै
पशुबन्धः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा
अस्मै पशुबन्धो य एवमेतद्वेद
यदधिश्रितस्तत्प्रवृक्तो यदासन्नस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै
पशुबन्धः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा
अस्मै पशुबन्धो य एवमेतद्वेद
१४/३/२/३०
सोमो वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै सोमः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदभिषुतस्तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै सोमः
पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपयुञ्जन्ति पिन्वते ह वा अस्मै सोमो य
एवमेतद्वेद न ह वा अस्याप्रवर्ग्येण केन चन यज्ञेनेष्टं भवति य
एवमेतद्वेद
यदभिषुतस्तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै सोमः
पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपयुञ्जन्ति पिन्वते ह वा अस्मै सोमो य
एवमेतद्वेद न ह वा अस्याप्रवर्ग्येण केन चन यज्ञेनेष्टं भवति य
एवमेतद्वेद
१४/३/२/३१
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्षयति वा तस्य
व्रतचर्या या सृष्टौ
व्रतचर्या या सृष्टौ
१४/४/१/१
द्वया ह प्राजापत्याः देवाश्चासुराश्च ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुरास्तएषु
लोकेष्वस्पर्धन्त
लोकेष्वस्पर्धन्त
१४/४/१/२
ते ह देवा ऊचुः हन्तासुरान्यज्ञ उद्गीथेनात्ययामेति
१४/४/१/३
ते ह वाचमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यो वागुदगायद्यो वाचि भोगस्तं
देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं वदति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं वदति स एव स पाप्मा
ते ह वाचमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यो वागुदगायद्यो वाचि भोगस्तं
देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं वदति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं वदति स एव स पाप्मा
१४/४/१/४
अथ ह प्राणमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यः प्राण उदगायद्यः प्राणे
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं जिघ्रति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं जिघ्रति स एव स पाप्मा
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं जिघ्रति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं जिघ्रति स एव स पाप्मा
१४/४/१/५
अथ ह चक्षुरूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यश्चक्षुरुदगायद्यश्चक्षुषि
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं पश्यति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं पश्यति स एव स पाप्मा
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं पश्यति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं पश्यति स एव स पाप्मा
१४/४/१/६
अथ ह श्रोत्रमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यः श्रोत्रमुदगायद्यः श्रोत्रे
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं शृणोति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं शृणोति स एव स पाप्मा
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं शृणोति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं शृणोति स एव स पाप्मा
१४/४/१/७
अथ ह मन ऊचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यो मन उदगायद्यो मनसि
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं सङ्कल्पयति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं सङ्कल्पयति स एव स पाप्मैवमु खल्वेता देवताः
पाप्मभिरुपासृजन्नेवमेनाः पाप्मनाविध्यन्
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं सङ्कल्पयति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं सङ्कल्पयति स एव स पाप्मैवमु खल्वेता देवताः
पाप्मभिरुपासृजन्नेवमेनाः पाप्मनाविध्यन्
१४/४/१/८
अथ हेममासन्यं प्राणमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्य एष प्राण
उदगायत्तेऽविदुरनेन वै न उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविव्यत्सन्त्स
यथाश्मानमृत्वा लोष्टो विध्वंसेतैवं हैव विध्वंसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो
देवा अभवन्परासुरा भवत्यात्मना परास्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद
उदगायत्तेऽविदुरनेन वै न उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविव्यत्सन्त्स
यथाश्मानमृत्वा लोष्टो विध्वंसेतैवं हैव विध्वंसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो
देवा अभवन्परासुरा भवत्यात्मना परास्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद
१४/४/१/९
ते होचुः क्व नु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति सोऽयास्य
आङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः
आङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः
१४/४/१/१०
सा वा एषा देवता दूः नाम दूरं ह्यस्या मृत्युर्दूरं ह वा अस्मान्मृत्युर्भवति य
एवं वेद
एवं वेद
१४/४/१/११
सा वा एषा देवता एतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्य यत्रासां
दिशामन्तस्तद्गमयां चकार तदासां पाप्मनो विन्यदधात्तस्मान्न
जनमियान्नान्तमियान्नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववायानीति
दिशामन्तस्तद्गमयां चकार तदासां पाप्मनो विन्यदधात्तस्मान्न
जनमियान्नान्तमियान्नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववायानीति
१४/४/१/१२
सा वा एषा देवता एतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्याथैना
मृत्युमत्यवहत्
मृत्युमत्यवहत्
१४/४/१/१३
स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत् सा यदा मृत्युमत्यमुच्यत
सोऽग्निरभवत्सोऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते
सोऽग्निरभवत्सोऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते
१४/४/१/१४
अथ प्राणमत्यवहत् स यदा मृत्युमत्यमुच्यत स वायुरभवत्सोऽयं वायुः
परेण मृत्युमतिक्रान्तः पवते
परेण मृत्युमतिक्रान्तः पवते
१४/४/१/१५
अथ चक्षुरत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽभवत्सोऽसावादित्यः
परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपति
परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपति
१४/४/१/१६
अथ श्रोत्रमत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत ता दिशोऽभवंस्ता इमा दिशः
परेण मृत्युमतिक्रान्ताः
परेण मृत्युमतिक्रान्ताः
१४/४/१/१७
अथ मनोऽत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स चन्द्रमा अभवत्सोऽसौ चन्द्रः
परेण मृत्युमतिक्रान्तो भात्येवं ह वा एनमेषा देवता मृत्युमतिवहति य एवम्
वेद
परेण मृत्युमतिक्रान्तो भात्येवं ह वा एनमेषा देवता मृत्युमतिवहति य एवम्
वेद
१४/४/१/१८
अथात्मनेऽन्नाद्यमागायत् यद्धि किं चान्नमद्यतेऽनेनैव तदद्यत इह
प्रतितिष्ठति
प्रतितिष्ठति
१४/४/१/१९
ते देवा अब्रुवन् एतावद्वा इदं सर्वं यदन्नं तदात्मन आगासीरनु नोऽस्मिन्नन्न
आभजस्वेति ते वै माभिसम्विशतेति तथेति तं समन्तं परिण्यविशन्त
तस्माद्यदनेनान्नमत्ति तेनैतास्तृप्यन्त्येवं ह वा एनं स्वा अभिसम्विशन्ति भर्ता
स्वानां श्रेष्ठः पुरएता भवत्यन्नादोऽधिपतिर्य एवं वेद
१४/४/१/२०
य उ हैवम्विदम् स्वेषु प्रतिप्रतिर्बुभूषति न हैवालं भार्येभ्यो भवत्यथ
य एवैतमनु भवति यो वैतमनु भार्यान्बुभूर्षति स हैवालं भार्येभ्यो
भवति
य एवैतमनु भवति यो वैतमनु भार्यान्बुभूर्षति स हैवालं भार्येभ्यो
भवति
१४/४/१/२१
सोऽयास्य आङिरसो अङ्गानां हि रसः प्राणो वा अङ्गानां रसः प्राणो हि वा अङ्गानां
रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तचुष्यत्येष हि वा अङ्गानां
रसः
रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तचुष्यत्येष हि वा अङ्गानां
रसः
१४/४/१/२२
एष उ एव बृहस्पतिः वाग्वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः
१४/४/१/२३
एष उ एव ब्रह्मणस्पतिः वाग्वै ब्रह्म तस्या एष पतिस्तस्मादु ह ब्रह्मणस्पतिः
१४/४/१/२४
एष उ एव साम वाग्वै सामैष सा चामश्चेति तत्साम्नः सामत्वं यद्वेव समः
प्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकैः समोऽनेन सर्वेण
तस्माद्वेव सामाश्नुते साम्नः सायुज्यं सलोकतां य एवमेतत्साम वेद
प्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकैः समोऽनेन सर्वेण
तस्माद्वेव सामाश्नुते साम्नः सायुज्यं सलोकतां य एवमेतत्साम वेद
१४/४/१/२५
एष उ वा उद्गीथः प्राणो वा उत्प्राणेन हीदं सर्वमुत्तब्धं वागेव गीथोच्च
गीथा चेति स उद्गीथः
गीथा चेति स उद्गीथः
१४/४/१/२६
तद्धापि ब्रह्मदत्तश्चैकितानेयो राजानं भक्षयन्नुवाचायं त्यस्य राजा
मूर्धानं विपातयताद्यदितोऽयास्य आङ्गिरसोऽन्येनोदगायदिति वाचा च ह्येव स
प्राणेन चोदगायदिति
मूर्धानं विपातयताद्यदितोऽयास्य आङ्गिरसोऽन्येनोदगायदिति वाचा च ह्येव स
प्राणेन चोदगायदिति
१४/४/१/२७
तस्य हैतस्य साम्नो यः स्वं वेद भवति हास्य स्वं तस्य वै स्वर एव स्वं
तस्मादार्त्विज्यं करिष्यन्वाचि स्वरमिचेत तया वाचा स्वरसम्पन्नयार्त्विज्यं
कुर्यात्तस्माद्यज्ञे स्वरवन्तं दिदृक्षन्त एवाथो यस्य स्वं भवति भवति हास्य
स्वं य एवमेतत्सामनः स्वं वेद
तस्मादार्त्विज्यं करिष्यन्वाचि स्वरमिचेत तया वाचा स्वरसम्पन्नयार्त्विज्यं
कुर्यात्तस्माद्यज्ञे स्वरवन्तं दिदृक्षन्त एवाथो यस्य स्वं भवति भवति हास्य
स्वं य एवमेतत्सामनः स्वं वेद
१४/४/१/२८
तस्य हैतस्य साम्नो यः सुवर्णं वेद भवति हास्य सुवर्णं तस्य वै स्वर एव
सुवर्णं भवति हास्य सुवर्णं य एवमेतत्साम्नः सुवर्णं वेद
सुवर्णं भवति हास्य सुवर्णं य एवमेतत्साम्नः सुवर्णं वेद
१४/४/१/२९
तस्य हैतस्य साम्नो यः प्रतिष्ठां वेद प्रति ह तिष्ठति तस्य वै वागेव
प्रतिष्ठा वाचि हि खल्वेष एतत्प्राणः प्रतिष्ठितो गीयतेऽन्न इत्यु हैक आहुः
प्रतिष्ठा वाचि हि खल्वेष एतत्प्राणः प्रतिष्ठितो गीयतेऽन्न इत्यु हैक आहुः
१४/४/१/३०
अथातः पवमानानामेवाभ्यारोहः स वै खलु प्रस्तोता साम प्रस्तौति स यत्र
प्रस्त्युआत्तदेतानि जपेदसतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतं
गमयेति
प्रस्त्युआत्तदेतानि जपेदसतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतं
गमयेति
१४/४/१/३१
स यदाहासतो मा सद्गमयेति मृत्युर्वा असत्सदमृतं मृत्योर्मामृतं
गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह
गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह
१४/४/१/३२
तमसो मा ज्योतिर्गमयेति मृत्युर्वै तमो ज्योतिरमृतं मृत्योर्मामृतं
गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह मृत्योर्मामृतं गमयेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह मृत्योर्मामृतं गमयेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
१४/४/१/३३
अथ यानीतराणि स्तोत्राणि तेष्वात्मनेऽन्नाद्यमागायेत्तस्मादु तेषु वरं वृणीत यम्
कामं कामयेत तं स एष एवम्विदुद्गातात्मने वा यजमानाय वा यं कामं
कामयते तमागायति तद्धैतल्लोकजिदेव न हैवालोक्यताया आशास्ति य एवमेतत्साम
वेद
कामं कामयेत तं स एष एवम्विदुद्गातात्मने वा यजमानाय वा यं कामं
कामयते तमागायति तद्धैतल्लोकजिदेव न हैवालोक्यताया आशास्ति य एवमेतत्साम
वेद
१४/४/२/१
आत्मैवेदमग्र आसीत् पुरुषविधः सोऽनुवीक्ष्य
नान्यदात्मनोऽपश्यत्सोऽहमस्मीत्यग्रेव्याहरत्ततोऽहंनामाभवत्तस्मादप्येतर्ह्या
मन्त्रितोऽहमयमित्येवाग्र उक्त्वाथान्यन्नाम प्रब्रूते यदस्य भवति
नान्यदात्मनोऽपश्यत्सोऽहमस्मीत्यग्रेव्याहरत्ततोऽहंनामाभवत्तस्मादप्येतर्ह्या
मन्त्रितोऽहमयमित्येवाग्र उक्त्वाथान्यन्नाम प्रब्रूते यदस्य भवति
१४/४/२/२
स यत्पूर्वोऽस्मात् सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुष ओषति ह वै स तं
योऽस्मात्पूर्वो बुभूषति य एवं वेद
योऽस्मात्पूर्वो बुभूषति य एवं वेद
१४/४/२/३
सोऽबिभेत् तस्मादेकाकी बिभेति स हायमीक्षां चक्रे यन्मदन्यन्नास्ति कस्मान्नु
बिभेमीति तत एवास्य भयं वीयाय कस्माद्ध्यभेष्यद्द्वितीयद्वै भयम्
भवति
बिभेमीति तत एवास्य भयं वीयाय कस्माद्ध्यभेष्यद्द्वितीयद्वै भयम्
भवति
१४/४/२/४
स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैचत्स हैतावानास यथा
स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ
स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ
१४/४/२/५
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् ततः पतिश्च पत्नी चाभवतां
तस्मादिदमर्धवृगलमिव स्व इति ह स्माह याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाश स्त्रिया
पूर्यत एव तां समभवत्ततो मनुष्या अजायन्त
तस्मादिदमर्धवृगलमिव स्व इति ह स्माह याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाश स्त्रिया
पूर्यत एव तां समभवत्ततो मनुष्या अजायन्त
१४/४/२/६
सो हेयमीक्षां चक्रे कथं नु मात्मन एव जनयित्वा सम्भवति हन्त
तिरोऽसानीति
तिरोऽसानीति
१४/४/२/७
सा गौरभवत् वृषभ इतरस्तां समेवाभवत्ततो गावोऽजायन्त
१४/४/२/८
वडवेतराभवत् अश्ववृष इतरो गर्दभीतरा गर्दभ इतरस्तां समेवाभवत्तत
एकशफमजायत
एकशफमजायत
१४/४/२/९
अजेतराभवत् वस्त इतरोऽविरितरो मेष इतरस्तां
समेवाभ्वत्ततोऽजावयोऽजायन्तैवमेव यदिदं किं च मिथुनमा
पिपीलिकाभ्यस्तत्सर्वमसृजत
समेवाभ्वत्ततोऽजावयोऽजायन्तैवमेव यदिदं किं च मिथुनमा
पिपीलिकाभ्यस्तत्सर्वमसृजत
१४/४/२/१०
सोऽवेत् अहं वाव सृष्टिरस्म्यहं हीदं सर्वमसृक्षीति ततः सृष्टिरभवत्सृष्ट्यां
हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद
हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद
१४/४/२/११
अथेत्यभ्यमन्थत् स मुखाच्च योनेर्हस्ताभ्यां चाग्निमसृजत
तस्मादेतदुभयमलोमकमन्तरतोऽलोमका हि योनिरन्तरतः
तस्मादेतदुभयमलोमकमन्तरतोऽलोमका हि योनिरन्तरतः
१४/४/२/१२
तद्यदिदमाहुः अमुं यजामुं यजेत्येकैकं देवमेतस्यैव सा विसृष्टिरेष उ
ह्येव सर्वे देवाः
ह्येव सर्वे देवाः
१४/४/२/१३
अथ यत्किं चेदमार्द्रम् तद्रेतसोऽसृजत तदु सोम एतावद्वा इदं सर्वमन्नं
चैवान्नादश्च सोम एवान्नमग्निरन्नादः
चैवान्नादश्च सोम एवान्नमग्निरन्नादः
१४/४/२/१४
सैषा ब्रह्मणोऽतिसृष्टिः यच्रेयसो देवानसृजताथ यन्मर्त्यः सन्नमृतानसृजत
तस्मादतिसृष्टिरतिसृष्ट्यां हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद
तस्मादतिसृष्टिरतिसृष्ट्यां हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद
१४/४/२/१५
तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव
व्याक्रियतासौनामायमिदंरूप इति तदिदमप्येतर्हि नामरूपाभ्यामेव
व्याक्रियतेऽसौनामायमिदंरूप इति
व्याक्रियतासौनामायमिदंरूप इति तदिदमप्येतर्हि नामरूपाभ्यामेव
व्याक्रियतेऽसौनामायमिदंरूप इति
१४/४/२/१६
स एष इह प्रविष्टः आ नखाग्रेभ्यो यथा क्षुरः क्षुरधानेऽवहितः
स्याद्विश्वम्भरो वा विश्वम्भरकुलाये तं न पश्यन्त्यकृत्स्नो हि सः
स्याद्विश्वम्भरो वा विश्वम्भरकुलाये तं न पश्यन्त्यकृत्स्नो हि सः
१४/४/२/१७
प्राणन्नेव प्राणो नाम भवति वदन्वाक्पश्यंश्चक्षुः शृण्वञ्च्रोत्रं मन्वानो
मनस्तान्यस्यैतानि कर्मनामान्येव स योऽत एकैकमुपास्ते न स वेदाकृत्स्नो
ह्येषोऽत एकैकेन भवति
मनस्तान्यस्यैतानि कर्मनामान्येव स योऽत एकैकमुपास्ते न स वेदाकृत्स्नो
ह्येषोऽत एकैकेन भवति
१४/४/२/१८
आत्मेत्येवोपासीत अत्र ह्येते सर्व एकं भवन्ति तदेतत्पदनीयमस्य सर्वस्य
यदयमात्मानेन ह्येतत्सर्वं वेद यथा ह वै पदेनानुविन्देदेवं कीर्तिं
श्लोकं विन्दते य एवं वेद
यदयमात्मानेन ह्येतत्सर्वं वेद यथा ह वै पदेनानुविन्देदेवं कीर्तिं
श्लोकं विन्दते य एवं वेद
१४/४/२/१९
तदेतत्प्रेयः पुत्रात् प्रेयो वित्तात्प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा स
योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीतीश्वरो ह तथैव
स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत स य आत्मानमेव प्रियमुपास्ते न हास्य प्रियम्
प्रमायुकं भवति
योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीतीश्वरो ह तथैव
स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत स य आत्मानमेव प्रियमुपास्ते न हास्य प्रियम्
प्रमायुकं भवति
१४/४/२/२०
तदाहुः यद्ब्रह्मविद्यया सर्वं भविष्यन्तो मनुष्या मन्यन्ते किमु
तद्ब्रह्मावेद्यस्मात्तत्सर्वमभवदिति
तद्ब्रह्मावेद्यस्मात्तत्सर्वमभवदिति
१४/४/२/२१
ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् तदात्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मीति
तस्मात्तत्सर्वमभवत्तद्योयो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव
तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम्
तस्मात्तत्सर्वमभवत्तद्योयो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव
तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम्
१४/४/२/२२
तद्धैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदे अहं मनुरभवं सूर्यश्चेति
तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति तस्य ह न
देवाश्चनाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवत्यथ योऽन्यां
देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानां यथा
ह वै बहवः पशवो मनुष्यं भुञ्ज्युरेवमेकैकः पुरुषो
देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं भवति किमु बहुषु
तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः
तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति तस्य ह न
देवाश्चनाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवत्यथ योऽन्यां
देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानां यथा
ह वै बहवः पशवो मनुष्यं भुञ्ज्युरेवमेकैकः पुरुषो
देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं भवति किमु बहुषु
तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः
१४/४/२/२३
ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् एकमेव तदेकं सन्न व्यभवत्तच्रेयो रूपमत्यसृजत
क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो
मृत्युरीशान इति तस्मात्क्षत्रात्परं नास्ति तस्माद्ब्राह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते
राजसूये क्षत्र एव तद्यशो दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म तस्माद्यद्यपि
राजा परमतां गचति ब्रह्मैवान्तत उपनिश्रयति स्वां योनिं य उ एनं हिनस्ति स्वां
स योनिमृचति स पापीयान्भवति यथा श्रेयांसं हिंसित्वा
क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो
मृत्युरीशान इति तस्मात्क्षत्रात्परं नास्ति तस्माद्ब्राह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते
राजसूये क्षत्र एव तद्यशो दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म तस्माद्यद्यपि
राजा परमतां गचति ब्रह्मैवान्तत उपनिश्रयति स्वां योनिं य उ एनं हिनस्ति स्वां
स योनिमृचति स पापीयान्भवति यथा श्रेयांसं हिंसित्वा
१४/४/२/२४
स नैव व्यभवत् स विशमसृजत यान्येतानि देवजातानि गणश आख्यायन्ते वसवो
रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति
रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति
१४/४/२/२५
स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेयं हीदं
सर्वं पुष्यति यदिदं किं च
सर्वं पुष्यति यदिदं किं च
१४/४/२/२६
स नैव व्यभवत् तच्रेयो रूपमत्यसृजत धर्मं तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं
यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात्परं नास्त्यथो अबलीयान्बलीयांस्मम्!शंसते धर्मेण
यथा राज्ञैवं यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यम्
वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तं सत्यम्
वदतीत्येतद्ध्येवैतदुभयं भवति
यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात्परं नास्त्यथो अबलीयान्बलीयांस्मम्!शंसते धर्मेण
यथा राज्ञैवं यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यम्
वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तं सत्यम्
वदतीत्येतद्ध्येवैतदुभयं भवति
१४/४/२/२७
तदेतद्ब्रह्म क्षत्रं विट्शूद्रः तदग्निनैव देवेषु ब्रह्माभवद्ब्राह्मणो
मनुष्येषु क्षत्रियेण क्षत्रियो वैश्येन वैश्यः शूद्रेण शूद्रस्तस्मादग्नावेव
देवेषु लोकमिचन्ते ब्राह्मणे मनुष्येष्वेताभ्यां हि रूपाभ्यां ब्रह्माभवत्
मनुष्येषु क्षत्रियेण क्षत्रियो वैश्येन वैश्यः शूद्रेण शूद्रस्तस्मादग्नावेव
देवेषु लोकमिचन्ते ब्राह्मणे मनुष्येष्वेताभ्यां हि रूपाभ्यां ब्रह्माभवत्
१४/४/२/२८
अथ यो ह वा अस्माल्लोकात्स्वं लोकमदृष्ट्वा प्रैति स एनमविदितो न भुनक्ति यथा
वेदो वाननूक्तोऽन्यद्वा कर्माकृतं यदि ह वा अप्यनेवम्विन्महत्पुण्यं कर्म
करोति तद्धास्यान्ततः क्षीयत एवात्मानमेव लोकमुपासीत स य आत्मानमेव
लोकमुपास्ते न हास्य कर्म क्षीयतेऽस्माद्ध्येवात्मनो यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते
वेदो वाननूक्तोऽन्यद्वा कर्माकृतं यदि ह वा अप्यनेवम्विन्महत्पुण्यं कर्म
करोति तद्धास्यान्ततः क्षीयत एवात्मानमेव लोकमुपासीत स य आत्मानमेव
लोकमुपास्ते न हास्य कर्म क्षीयतेऽस्माद्ध्येवात्मनो यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते
१४/४/२/२९
अथो अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः स यज्जुहोति यद्यजते तेन देवानां
लोकोऽथ यदनुब्रूते तेनर्षीणामथ यत्प्रजामिचते यत्पितृभ्यो निपृणाति तेन
पितॄणामथ यन्मनुष्यान्वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ
यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदा वयांस्या
पिपीलिकाभ्य उपजीवन्ति तेन तेषां लोको यथा ह वै स्वाय लोकायारिष्टिमिचेदेवं
हैवम्विदे सर्वदा सर्वाणि भूतान्यरिष्टिमिचन्ति तद्वा एतद्विदितं मीमांसितम्
लोकोऽथ यदनुब्रूते तेनर्षीणामथ यत्प्रजामिचते यत्पितृभ्यो निपृणाति तेन
पितॄणामथ यन्मनुष्यान्वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ
यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदा वयांस्या
पिपीलिकाभ्य उपजीवन्ति तेन तेषां लोको यथा ह वै स्वाय लोकायारिष्टिमिचेदेवं
हैवम्विदे सर्वदा सर्वाणि भूतान्यरिष्टिमिचन्ति तद्वा एतद्विदितं मीमांसितम्
१४/४/२/३०
आत्मैवेदमग्र आसीत् एक एव सोऽकामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे
स्यादथ कर्म कुर्वीयेत्येतान्वावै कामो नेचंश्चनातो भूयो
विन्देत्तस्मादप्येतर्ह्येकाकी कामयते जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे
स्यादथ कर्म कुर्वीयेति स यावदप्येतेषामेकैकं न प्राप्नोत्यकृत्स्न एव
तावन्मन्यते तस्यो कृत्स्नता
स्यादथ कर्म कुर्वीयेत्येतान्वावै कामो नेचंश्चनातो भूयो
विन्देत्तस्मादप्येतर्ह्येकाकी कामयते जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे
स्यादथ कर्म कुर्वीयेति स यावदप्येतेषामेकैकं न प्राप्नोत्यकृत्स्न एव
तावन्मन्यते तस्यो कृत्स्नता
१४/४/२/३१
मन एवास्यात्मा वाग्जाया प्राणः प्रजा चक्षुर्मानुषं वित्तं चक्षुषा हि
तद्विन्दति श्रोत्रं दैवं श्रोत्रेण हि तचृणोत्यात्मैवास्य कर्मात्मना हि कर्म करोति
स एष पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्तः पशुः पाङ्क्तः पुरुषः पाङ्क्तमिदं किं च तदिदं
सर्वमाप्नोति यदिदं किं च य एवं वेद
तद्विन्दति श्रोत्रं दैवं श्रोत्रेण हि तचृणोत्यात्मैवास्य कर्मात्मना हि कर्म करोति
स एष पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्तः पशुः पाङ्क्तः पुरुषः पाङ्क्तमिदं किं च तदिदं
सर्वमाप्नोति यदिदं किं च य एवं वेद
१४/४/३/१
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाजनयत्पिता एकमस्य साधारणं द्वे देवानभाजयत्
त्रीण्यात्मनेऽकुरुत पशुभ्य एकं प्रायचत् तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च
प्राणिति यच्च न कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदा यो वै तामक्षितिं वेद
सोऽन्नमत्ति प्रतीकेन स देवानपिगचति स ऊर्जमुपजीवतीति श्लोकाः
त्रीण्यात्मनेऽकुरुत पशुभ्य एकं प्रायचत् तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च
प्राणिति यच्च न कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदा यो वै तामक्षितिं वेद
सोऽन्नमत्ति प्रतीकेन स देवानपिगचति स ऊर्जमुपजीवतीति श्लोकाः
१४/४/३/२
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाजनयत्पितेति मेधया हि तपसाजनयत्पितैकमस्य
साधारणमितीदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते स य एतदुपास्ते न स
पाप्मनो व्यावर्तते मिष्रं ह्येतत्
साधारणमितीदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते स य एतदुपास्ते न स
पाप्मनो व्यावर्तते मिष्रं ह्येतत्
१४/४/३/३
द्वे देवानभाजयदिति हुतं च प्रहुतं च तस्माद्देवेभ्यो जुह्वति च प्र च
जुह्वत्यथो आहुर्दर्शपूर्णमासाविति तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात्
जुह्वत्यथो आहुर्दर्शपूर्णमासाविति तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात्
१४/४/३/४
पशुभ्य एकं प्रायचदिति तत्पयः पयो ह्येवाग्रे मनुष्याश्च पशवश्चोपजीवन्ति
तस्मात्कुमारं जातं घृतं वैवाग्रे प्रतिलेहयन्ति स्तनं वानुधाप्यन्ति
तस्मात्कुमारं जातं घृतं वैवाग्रे प्रतिलेहयन्ति स्तनं वानुधाप्यन्ति
१४/४/३/५
अथ वत्सं जातमाहुः अतृणाद इति तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च नेति
पयसि हीदं सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न
पयसि हीदं सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न
१४/४/३/६
तद्यदिदमाहुः सम्वत्सरं पयसा जुह्वदप पुनर्मृत्युं जयतीति न तथा
विद्याद्यदहरेव जुहोति तदहः पुनर्मृत्युमापजयत्येवं विद्वान्त्सर्वं हि
देवेभ्योऽन्नाद्यं प्रयचति कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदेति
विद्याद्यदहरेव जुहोति तदहः पुनर्मृत्युमापजयत्येवं विद्वान्त्सर्वं हि
देवेभ्योऽन्नाद्यं प्रयचति कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदेति
१४/४/३/७
पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं पुनःपुनर्जनयते यो वै तामक्षितिं वेदेति
पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं धियाधिया जनयते कर्मभिर्यद्धैतन्न
कुर्यात्क्षीयेत ह सोऽन्नमत्ति प्रतीकेनेति मुखं प्रतीकं मुखेनेत्येतत्स
देवानपिगचति स ऊर्जमुपजीवतीति प्रशंसा
पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं धियाधिया जनयते कर्मभिर्यद्धैतन्न
कुर्यात्क्षीयेत ह सोऽन्नमत्ति प्रतीकेनेति मुखं प्रतीकं मुखेनेत्येतत्स
देवानपिगचति स ऊर्जमुपजीवतीति प्रशंसा
१४/४/३/८
त्रीण्यात्मनेऽकुरुतेति मनो वाचं प्राणं तान्यात्मनेऽकुरुतान्यत्रमना अभूवं
नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति
नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति
१४/४/३/९
कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वम्
मन एव तस्मादपि पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति
मन एव तस्मादपि पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति
१४/४/३/१०
यः कश्च शब्दो वागेव सैषा ह्यन्तमायत्तैषा हि न प्राणोऽपानो व्यान उदानः
समानोऽन इत्येतत्सर्वं प्राण एवैतन्मन्यो वा अयमात्मा वाङ्मयो मनोमयः
प्राणमयः
समानोऽन इत्येतत्सर्वं प्राण एवैतन्मन्यो वा अयमात्मा वाङ्मयो मनोमयः
प्राणमयः
१४/४/३/११
त्रयो लोका एत एव वागेवायं लोको मनोऽन्तरिक्षलोकः प्राणोऽसौ लोकः
१४/४/३/१२
त्रयो वेदा एत एव वागेवर्ग्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः
१४/४/३/१३
देवाः पितरो मनुष्या एत एव वागेव देवा मनः पितरः प्राणो मनुष्याः
१४/४/३/१४
पिता माता प्रजैत एव मन एव पिता वाङ्ग्माता प्राणः प्रजा
१४/४/३/१५
विज्ञातं विजिज्ञास्यम् अविज्ञातमेत एव यत्किं च विज्ञातं वाचस्तद्रूपं वाग्घि
विज्ञाता वागेनं तद्भूत्वावति
विज्ञाता वागेनं तद्भूत्वावति
१४/४/३/१६
यत्किं च विजिज्ञास्यम् मनस्तद्रूपं मनो हि विजिज्ञास्यं मन एव तद्भूत्वावति
१४/४/३/१७
यत्किं चाविज्ञातम् प्राणस्य तद्रूपं प्राणो ह्यविज्ञातः प्राण एव तद्भूत्वावति
१४/४/३/१८
तस्यै वाचः पृथिवी शरीरम् ज्योती रूपमयमग्निस्तद्यावत्येव वाक्तावती पृथिवी
तावानयमग्निः
तावानयमग्निः
१४/४/३/१९
अथैतस्य मनसो द्यौः शरीरं ज्योती रूपमसावादित्यस्तद्यावदेव मनस्तावती
द्यौस्तावानसावादित्यस्तौ मिथुनं समैतां ततः प्राणोऽजायत स इन्द्रः स
एषोऽसपत्नो द्वितीयो वै सपत्नो नास्य सपत्नो भवति य एवं वेद
द्यौस्तावानसावादित्यस्तौ मिथुनं समैतां ततः प्राणोऽजायत स इन्द्रः स
एषोऽसपत्नो द्वितीयो वै सपत्नो नास्य सपत्नो भवति य एवं वेद
१४/४/३/२०
अथैतस्य प्राणस्यापः शरीरं ज्योती रूपमसौ चन्द्रस्तद्यावा नेव प्राणस्तावत्य
आपस्तावानसौ चन्द्रः
आपस्तावानसौ चन्द्रः
१४/४/३/२१
त एते सर्व एव समाः सर्वेऽनन्ताः स यो हैतानन्तवत उपास्तेऽन्तवतं स लोकं
जयत्यथ यो हैताननन्तानुपास्तेऽनन्तं स लोकं जयति
जयत्यथ यो हैताननन्तानुपास्तेऽनन्तं स लोकं जयति
१४/४/३/२२
स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलस्तस्य रात्रय एव पञ्चदश कला
ध्रुवैवास्य षोडशी कला स रात्रिभिरेवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते सोऽमावास्यां
रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते
तस्मादेतां रात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विचिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया
अपचित्यै
ध्रुवैवास्य षोडशी कला स रात्रिभिरेवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते सोऽमावास्यां
रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते
तस्मादेतां रात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विचिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया
अपचित्यै
१४/४/३/२३
यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलोऽयमेव स योऽयमेवंवित्पुरुषस्तस्य
वित्तमेव पञ्चदश कला आत्मैवास्य षोडशी कला स वित्तेनैवा च पूर्यतेऽप च
क्षीयते तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा प्रधिर्वित्तं तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं
जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनागादित्याहुः
वित्तमेव पञ्चदश कला आत्मैवास्य षोडशी कला स वित्तेनैवा च पूर्यतेऽप च
क्षीयते तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा प्रधिर्वित्तं तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं
जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनागादित्याहुः
१४/४/३/२४
अथ त्रयो वाव लोकाः मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति सोऽयं मनुष्यलोकः
पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोको देवलोको वै लोकानां
श्रेष्ठस्तस्माद्विद्यां प्रशंसन्ति
पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोको देवलोको वै लोकानां
श्रेष्ठस्तस्माद्विद्यां प्रशंसन्ति
१४/४/३/२५
अथातः सम्प्रत्तिः यदा प्रैष्यन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म त्वं
यज्ञस्त्वं लोक इति स पुत्रः प्रत्याहाहं ब्रह्माहं यज्ञोऽहं लोक इति
यज्ञस्त्वं लोक इति स पुत्रः प्रत्याहाहं ब्रह्माहं यज्ञोऽहं लोक इति
१४/४/३/२६
यद्वै किं चानूक्तम् तस्य सर्वस्य ब्रह्मेत्येकता ये वै के च यज्ञास्तेषां
सर्वेषां यज्ञ इत्येकता ये वै के च लोकास्तेषां सर्वेषां लोक इत्येकतैतावद्वा इदं
सर्वमेतन्मा सर्वं सन्नयमितो भुनजदिति तस्मात्पुत्रमनुशिष्टं
लोक्यमाहुस्तस्मादेनमनुशासति स यदैवंविदस्माल्लोकात्प्रैत्यथैभिरेव प्राणैः
सह पुत्रमाविशति स यद्यनेन किंचिदक्ष्णयाकृतं भवति तस्मादेनं
सर्वस्मात्पुत्रो मुञ्चति तस्मात्पुत्रो नाम स पुत्रेणैवास्मिंलोके
प्रतितिष्ठत्यथैनमेते दैवाः प्राणा अमृता आविशन्ति
सर्वेषां यज्ञ इत्येकता ये वै के च लोकास्तेषां सर्वेषां लोक इत्येकतैतावद्वा इदं
सर्वमेतन्मा सर्वं सन्नयमितो भुनजदिति तस्मात्पुत्रमनुशिष्टं
लोक्यमाहुस्तस्मादेनमनुशासति स यदैवंविदस्माल्लोकात्प्रैत्यथैभिरेव प्राणैः
सह पुत्रमाविशति स यद्यनेन किंचिदक्ष्णयाकृतं भवति तस्मादेनं
सर्वस्मात्पुत्रो मुञ्चति तस्मात्पुत्रो नाम स पुत्रेणैवास्मिंलोके
प्रतितिष्ठत्यथैनमेते दैवाः प्राणा अमृता आविशन्ति
१४/४/३/२७
पृथिव्यै चैनमग्नेश्च दैवी वागाविशति सा वै दैवी वाग्यया यद्यदेव वदति
तत्तद्भवति
तत्तद्भवति
१४/४/३/२८
दिवश्चैनमादित्याच्च दैवं मन आविशति तद्वै दैवं मनो येनानन्द्येव
भवत्यथो न शोचति
भवत्यथो न शोचति
१४/४/३/२९
अद्भ्यश्चैनं चन्द्रमसश्च दैवः प्राण आविशति स वै दैवः प्राणो यः
संचरंश्चासंचरंश्च न व्यथतेऽथो न रिश्यति स एष एवंवित्सर्वेषाम्
भूतानामात्मा भवति यथैषा देवतैवं स यथैतां देवतां सर्वाणि
भूतान्यवन्त्येवं हैवंविदं सर्वाणि भूतान्यवन्ति यदु किं चेमाः प्रजाः
शोचन्त्यमैवासां तद्भवति पुण्यमेवामुं गचति न ह वै देवान्पापं गचति
१४/४/३/३०
अथातो व्रतमीमांसा प्रजापतिर्ह कर्माणि ससृजे तानि सृष्टान्यन्योऽन्येनास्पर्धन्त
वदिष्याम्येवाहमिति वाग्दध्रे द्रक्ष्याम्यहमिति चक्षुः श्रोष्याम्यहमिति
श्रोत्रमेवमन्यानि कर्माणि यथाकर्म
वदिष्याम्येवाहमिति वाग्दध्रे द्रक्ष्याम्यहमिति चक्षुः श्रोष्याम्यहमिति
श्रोत्रमेवमन्यानि कर्माणि यथाकर्म
१४/४/३/३१
तानि मृत्युः श्रमो भूत्वोपयेमे तान्याप्नोत्तान्याप्त्वा मृत्युरवारुन्द्ध
तस्माच्राम्यत्येव वाक्श्राम्यति चक्षुः श्राम्यति श्रोत्रमथेममेव नाप्नोद्योऽयम्
मध्यमः प्राणः
तस्माच्राम्यत्येव वाक्श्राम्यति चक्षुः श्राम्यति श्रोत्रमथेममेव नाप्नोद्योऽयम्
मध्यमः प्राणः
१४/४/३/३२
तानि ज्ञातुं दध्रिरे ऽयं वै नः श्रेष्ठो यः संचरंश्चासंचरंश्च न
व्यथतेऽथो न रिष्यति हन्तास्यैव सर्वे रूपं भवामेति त एतस्यैव सर्वे
रूपमभवंस्तस्मादेत एतेनाख्यायन्ते प्राणा इति तेन ह वाव तत्कुलमाख्यायते
यस्मिन्कुले भवति य एवं वेद य उ हैवंविदा स्पर्धतेऽनुशुष्य हैवान्ततो
म्रियत इत्यध्यात्मम्
व्यथतेऽथो न रिष्यति हन्तास्यैव सर्वे रूपं भवामेति त एतस्यैव सर्वे
रूपमभवंस्तस्मादेत एतेनाख्यायन्ते प्राणा इति तेन ह वाव तत्कुलमाख्यायते
यस्मिन्कुले भवति य एवं वेद य उ हैवंविदा स्पर्धतेऽनुशुष्य हैवान्ततो
म्रियत इत्यध्यात्मम्
१४/४/३/३३
अथाधिदेवतं ज्वलिष्याम्येवाहमित्यग्निर्दध्रे तप्स्यास्यहमित्यादित्यो
भास्याम्यहमिति चन्द्रमा एवमन्या देवता यथादेवतं स यथैषां प्राणानाम्
मध्यमः प्राण एवमेतासां देवतानां वायुर्म्लोचन्ति ह्यन्या देवता न वायुः
सैषानस्तमिता देवता यद्वायुः
भास्याम्यहमिति चन्द्रमा एवमन्या देवता यथादेवतं स यथैषां प्राणानाम्
मध्यमः प्राण एवमेतासां देवतानां वायुर्म्लोचन्ति ह्यन्या देवता न वायुः
सैषानस्तमिता देवता यद्वायुः
१४/४/३/३४
अथैष श्लोको भवति यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गचतीति प्राणाद्वा एष उदेति
प्राणेऽस्तमेति तं देवाश्चक्रिरे धर्मं स एवाद्य स उ श्व इति यद्वा
एतेऽमुर्ह्यध्रियन्त तदेवाप्यद्य कुर्वन्ति तस्मादेकमेव व्रतं
चरेत्प्राण्याच्चैवापान्याच्च नेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नवदिति यद्यु
चरेत्समापिपयिषेत्तेनो एतस्यै देवतायै सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
प्राणेऽस्तमेति तं देवाश्चक्रिरे धर्मं स एवाद्य स उ श्व इति यद्वा
एतेऽमुर्ह्यध्रियन्त तदेवाप्यद्य कुर्वन्ति तस्मादेकमेव व्रतं
चरेत्प्राण्याच्चैवापान्याच्च नेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नवदिति यद्यु
चरेत्समापिपयिषेत्तेनो एतस्यै देवतायै सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/४/४/१
त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थमतो हि
सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां सामैतद्धि सर्वैर्नामभिः सममेतदेषाम्
ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्ति
सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां सामैतद्धि सर्वैर्नामभिः सममेतदेषाम्
ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्ति
१४/४/४/२
अथ रूपाणाम् चक्षुरित्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि रूपाण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां
सामैतद्धि सर्वै रूपैः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि रूपाणि बिभर्ति
१४/४/४/३
अथ कर्मणाम् आत्मेत्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि कर्माण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां
सामैतद्धि सर्वैः कर्मभिः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि कर्माणि
बिभर्ति तदेतत्त्रयं सदेकमयमात्मात्मो एकः सन्नेतत्त्रयं तदेतदमृतं
सत्येन चन्नं प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्यामयं प्राणश्चन्नः
सामैतद्धि सर्वैः कर्मभिः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि कर्माणि
बिभर्ति तदेतत्त्रयं सदेकमयमात्मात्मो एकः सन्नेतत्त्रयं तदेतदमृतं
सत्येन चन्नं प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्यामयं प्राणश्चन्नः
१४/५/१/१
दृप्तबालाकिर्हानूचानो गार्ग्य आस स होवाचाजातशत्रुं काश्यं ब्रह्म ते ब्रवाणीति
स
होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दद्मो जनको जनक इति वै जना धावन्तीति
स
होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दद्मो जनको जनक इति वै जना धावन्तीति
१४/५/१/२
स होवाच गार्ग्यो य एवासावादित्ये पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा अतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धा
राजेति वा अहमेतमुपास इति स यएतमेवमुपास्तेऽतिष्ठाः सर्वेषां भूतानाम्
मूर्धा राजा भवति
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा अतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धा
राजेति वा अहमेतमुपास इति स यएतमेवमुपास्तेऽतिष्ठाः सर्वेषां भूतानाम्
मूर्धा राजा भवति
१४/५/१/३
स होवाच गार्ग्यो य एवासौ चन्द्रे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा बृहन्पाण्डरवासाः सोमो राजेति वा
अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्तेऽहरहर्ह सुतः प्रसुतो भवति नास्यान्नं
क्षीयते
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा बृहन्पाण्डरवासाः सोमो राजेति वा
अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्तेऽहरहर्ह सुतः प्रसुतो भवति नास्यान्नं
क्षीयते
१४/५/१/४
स होवाच गार्ग्यो य एवायं विद्युति पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठास्तेजस्वीति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते तेजस्वी ह भवति तेजस्विनी हास्य प्रजा भवति
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठास्तेजस्वीति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते तेजस्वी ह भवति तेजस्विनी हास्य प्रजा भवति
१४/५/१/५
स होवाच गार्ग्यो य एवायमाकाशे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठाः पूर्णमप्रवर्तीति वा अहमेतमुपास इति
स य एतमेवमुपास्ते पूर्यते प्रजया पशुभिर्नास्यास्माल्लोकात्प्रजोद्वर्तते
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठाः पूर्णमप्रवर्तीति वा अहमेतमुपास इति
स य एतमेवमुपास्ते पूर्यते प्रजया पशुभिर्नास्यास्माल्लोकात्प्रजोद्वर्तते
१४/५/१/६
स होवाच गार्ग्यो य एवायं वायौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा इन्द्रो वैकुण्ठोऽपराजिता सेनेति वा
अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्ते जिष्णुर्हापराजिष्णुर्भवत्यन्यतस्त्यजायी
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा इन्द्रो वैकुण्ठोऽपराजिता सेनेति वा
अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्ते जिष्णुर्हापराजिष्णुर्भवत्यन्यतस्त्यजायी
१४/५/१/७
स होवाच गार्ग्यो य एवायमग्नौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा विषासहिरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते विषासहिर्ह भवति विषासहिर्हास्य प्रजा भवति
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा विषासहिरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते विषासहिर्ह भवति विषासहिर्हास्य प्रजा भवति
१४/५/१/८
स होवाच गार्ग्यो य एवायमप्सु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठाः प्रतिरूप इति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते प्रतिरूपं हैवैनमुपगचति नाप्रतिरूपमथो
प्रतिरूपोऽस्माज्जायते
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठाः प्रतिरूप इति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते प्रतिरूपं हैवैनमुपगचति नाप्रतिरूपमथो
प्रतिरूपोऽस्माज्जायते
१४/५/१/९
स होवाच गार्ग्यो य एवायमादर्शे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा रोचिष्णुरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते रोचिष्णुर्ह भवति रोचिष्णुर्हास्य प्रजा भवत्यथो यैः संनिगचति
सर्वांस्तानतिरोचते
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा रोचिष्णुरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते रोचिष्णुर्ह भवति रोचिष्णुर्हास्य प्रजा भवत्यथो यैः संनिगचति
सर्वांस्तानतिरोचते
१४/५/१/१०
स होवाच गार्ग्यो य एवायं दिक्षु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा द्वितीयोऽनपग इति वा अहमेतमुपास इति
स य एतमेवमुपास्ते द्वितीयवान्ह भवति नास्माद्गणश्चिद्यते
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा द्वितीयोऽनपग इति वा अहमेतमुपास इति
स य एतमेवमुपास्ते द्वितीयवान्ह भवति नास्माद्गणश्चिद्यते
१४/५/१/११
स होवाच गार्ग्यो य एवायं यन्तं पश्चाचब्दोऽनूदैत्येतमेवाहं ब्रह्मोपास इति
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा असुरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते सर्वं हैवास्मिंलोक आयुरेति नैनं पुरा कालात्प्राणो जहाति
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा असुरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते सर्वं हैवास्मिंलोक आयुरेति नैनं पुरा कालात्प्राणो जहाति
१४/५/१/१२
स होवाच गार्ग्यो य एवायं चायामयः पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा मृत्युरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते सर्वं हैवास्मिंलोक आयुरेति नैनं पुरा कालान्मृत्युरागचति
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा मृत्युरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते सर्वं हैवास्मिंलोक आयुरेति नैनं पुरा कालान्मृत्युरागचति
१४/५/१/१३
स होवाच गार्ग्यो यश्चायमात्मनि पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा आत्मन्वीति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्त आत्मन्वी ह भवत्यात्मन्विनी हास्य प्रजा भवति स ह तूष्णीमास
गार्ग्यः
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा आत्मन्वीति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्त आत्मन्वी ह भवत्यात्मन्विनी हास्य प्रजा भवति स ह तूष्णीमास
गार्ग्यः
१४/५/१/१४
स होवाचाजातशत्रुः एतावन्नू३ त्येतावद्धीति नैतावता विदितं भवतीति स होवाच
गार्ग्य उप त्वायानीति
गार्ग्य उप त्वायानीति
१४/५/१/१५
स होवाचाजातशत्रुः प्रतिलोमं वै तद्यद्ब्राह्मणः क्षत्रियमुपेयाद्ब्रह्म मे
वक्ष्यतीति व्येव त्वा ज्ञपयिष्यामीति तं पाणावादायोत्तस्थौ तौ ह पुरुषं
सुप्तमाजग्मतुस्तमेतैर्नामभिरामन्त्रयां चक्रे बृहन्पाण्डरवासः सोम
राजन्निति स नोत्तस्थौ तं पाणिनापेषं बोधयां चकार स होत्तस्थौ
वक्ष्यतीति व्येव त्वा ज्ञपयिष्यामीति तं पाणावादायोत्तस्थौ तौ ह पुरुषं
सुप्तमाजग्मतुस्तमेतैर्नामभिरामन्त्रयां चक्रे बृहन्पाण्डरवासः सोम
राजन्निति स नोत्तस्थौ तं पाणिनापेषं बोधयां चकार स होत्तस्थौ
१४/५/१/१६
स होवाचाजातशत्रुः यत्रैष एतत्सुप्तोऽभूद्य एष विज्ञानमयः पुरुषः क्वैष
तदाभूत्कुत एतदागादिति तदु ह न मेने गार्ग्यः
तदाभूत्कुत एतदागादिति तदु ह न मेने गार्ग्यः
१४/५/१/१७
स होवाचाजातशत्रुः यत्रैष एतत्सुप्तोऽभूद्य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषाम्
प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्चेति
प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्चेति
१४/५/१/१८
तानि यदा गृह्णाति अथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम तद्गृहीत एव प्राणो भवति गृहीता
वाग्गृहीतं चक्षुर्गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः
वाग्गृहीतं चक्षुर्गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः
१४/५/१/१९
स यत्रैतत्स्वप्न्यया चरति ते हास्य लोकास्तदुतेव महाराजो भवत्युतेव
महाब्राह्मण उतेवोच्चावचं निगचति
महाब्राह्मण उतेवोच्चावचं निगचति
१४/५/१/२०
स यथा महाराजो जानपदान्गृहीत्वा स्वे जनपदे यथाकामम्
परिवर्तेतैवमेवैष एतत्प्राणान्गृहीत्वा स्वे शरीरे यथाकामं परिवर्तते
परिवर्तेतैवमेवैष एतत्प्राणान्गृहीत्वा स्वे शरीरे यथाकामं परिवर्तते
१४/५/१/२१
अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्य चन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः
सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते
सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते
१४/५/१/२२
स यथा कुमारो वा महाब्राह्मणो वा ऽतिघ्नीमानन्दस्य गत्वा शयीतैवमेवैष
एतचेते
एतचेते
१४/५/१/२३
स यथोर्णवाभिस्तन्तुनोच्चरेत् यथाग्नेः क्षुद्रा विष्फुलिङ्गा
व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि
भूतानि
सर्व एत आत्मानो व्युच्चरन्ति तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं
तेषामेष सत्यम्
१४/५/२/१
यो ह वै शिशुं साधनं सप्रत्याधानं सस्थूणं सदामं वेद सप्त ह द्विषतो
भ्रातृव्यानवरुणद्धि
भ्रातृव्यानवरुणद्धि
१४/५/२/२
अयं वाव शिशुर्योऽयं मध्यमः प्राणः तस्येदमेवाधानमिदं प्रत्याधानम्
प्राण स्थूणान्नं दाम तमेताः सप्ताक्षितय उपतिष्ठन्ते
प्राण स्थूणान्नं दाम तमेताः सप्ताक्षितय उपतिष्ठन्ते
१४/५/२/३
तद्या इमा अक्षंलोहिन्यो राजयः ताभिरेनं रुद्रोऽन्वायत्तोऽथ या अक्षन्नापस्ताभिः
पर्जन्यो या कनीनका तयादित्यो यचुक्लं तेनाग्निर्यत्कृष्णं तेनेन्द्रोऽधरयैनं
वर्तन्या पृथिव्यन्वायत्ता द्यौरुत्तरया नास्यान्नं क्षीयते य एवं वेद
पर्जन्यो या कनीनका तयादित्यो यचुक्लं तेनाग्निर्यत्कृष्णं तेनेन्द्रोऽधरयैनं
वर्तन्या पृथिव्यन्वायत्ता द्यौरुत्तरया नास्यान्नं क्षीयते य एवं वेद
१४/५/२/४
तदेष श्लोको भवति अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो निहितं
विश्वरूपम् तस्यासत ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति
विश्वरूपम् तस्यासत ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति
१४/५/२/५
अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्न इति इदं तचिर एष ह्यर्वाग्बिलश्चमस
ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपमिति प्राणा वै यशो निहितं विश्वरूपम्
प्राणानेतदाह तस्यासत ऋषयः सप्त तीर इति प्राणा वा ऋषयः प्राणानेतदाह
वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति वाग्घ्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते
ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपमिति प्राणा वै यशो निहितं विश्वरूपम्
प्राणानेतदाह तस्यासत ऋषयः सप्त तीर इति प्राणा वा ऋषयः प्राणानेतदाह
वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति वाग्घ्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते
१४/५/२/६
इमावेव गोतमभरद्वाजौ अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव
विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव
वसष्ठिकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचा
ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नम्
भवति य एवं वेद
विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव
वसष्ठिकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचा
ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नम्
भवति य एवं वेद
१४/५/३/१
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च
सच्च त्यं च
सच्च त्यं च
१४/५/३/२
तदेतन्मूर्तम् यदन्यद्वायोश्चान्तरिक्षाच्चैतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत्
१४/५/३/३
तस्यैतस्य मूर्तस्यैतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो य एष तपति
सतो ह्येष रसः
सतो ह्येष रसः
१४/५/३/४
अथामूर्तम् वायुश्चान्तरिक्षं चैतदमृतमेतद्यदेतत्त्यम्
१४/५/३/५
तस्यैतस्यामूर्तस्य एतस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो य एष
एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्त्यस्य ह्येष रस इत्यधिदेवतम्
एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्त्यस्य ह्येष रस इत्यधिदेवतम्
१४/५/३/६
अथाध्यात्मम् इदमेव मूर्तं यदन्यत्प्राणाच्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश
एतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत्
एतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत्
१४/५/३/७
तस्यैतस्य मूर्तस्य एतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो यच्चक्षुः
सतो ह्येष रसः
सतो ह्येष रसः
१४/५/३/८
अथामूर्तम् प्राणश्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश एतदमृतमेतद्यदेतत्त्यम्
१४/५/३/९
तस्यैतस्यामूर्तस्य एतस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो योऽयं
दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्त्यस्य ह्येष रसः
दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्त्यस्य ह्येष रसः
१४/५/३/१०
तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपम् यथा माहारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं
यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्तं सकृद्विद्युत्तेव
ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेद
यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्तं सकृद्विद्युत्तेव
ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेद
१४/५/३/११
अथात आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत्परमस्त्यथ नामधेयं सत्यस्य
सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम्
सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम्
१४/५/४/१
मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्यः उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि हन्त तेऽनया
कात्यायन्यान्तं करवाणीति
कात्यायन्यान्तं करवाणीति
१४/५/४/२
स होवाच मैत्रेयी यन्म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्कथं
तेनामृता स्यामिति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते
जीवितं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति
तेनामृता स्यामिति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते
जीवितं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति
१४/५/४/३
सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां यदेव भगवान्वेद
तदेव मे ब्रूहीति
तदेव मे ब्रूहीति
१४/५/४/४
स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया वतारे नः सती प्रियं भाषस एह्यास्व व्याख्यास्यामि
ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ब्रवीतु भगवानिति
ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ब्रवीतु भगवानिति
१४/५/४/५
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु
कामाय पतिः प्रियो भवति नवा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु
कामाय जाया प्रिया भवति न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तम्
प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति न वा अरे ब्रह्मणः
कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति न वा अरे
क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियम्
भवति न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया
भवन्ति न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः
प्रिया भवन्ति न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु
कामाय
भूतानि प्रियाणि भवन्ति न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु
कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं
सर्वं विदितम्
कामाय पतिः प्रियो भवति नवा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु
कामाय जाया प्रिया भवति न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तम्
प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति न वा अरे ब्रह्मणः
कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति न वा अरे
क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियम्
भवति न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया
भवन्ति न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः
प्रिया भवन्ति न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु
कामाय
भूतानि प्रियाणि भवन्ति न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु
कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं
सर्वं विदितम्
१४/५/४/६
ब्रह्म तं परादात् योऽन्यत्रात्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तम्
परादाद्योऽन्यत्रात्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद
देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो
भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं
क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा
परादाद्योऽन्यत्रात्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद
देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो
भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं
क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा
१४/५/४/७
स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याञ्चब्दाञ्चक्नुयाद्ग्रहणाय दुन्दुभेस्तु
ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो भवति गृहीतः
ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो भवति गृहीतः
१४/५/४/८
स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्याञ्चब्दाञ्चक्नुयाद्ग्रहणाय वीणायै तु
ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः
ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः
१४/५/४/९
स यथा शङ्खस्य ध्मायमानस्य न बाह्याञ्चब्दाञ्चक्नुयाद्ग्रहणाय शङ्खस्य
तु ग्रहणेन शङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः
तु ग्रहणेन शङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः
१४/५/४/१०
स यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो
भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः
पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि
सर्वाणि निश्वसितानि
भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः
पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि
सर्वाणि निश्वसितानि
१४/५/४/११
स यथा सर्वासामपां समुद्र एकायनम् एवं सर्वेषां स्पर्शानां
त्वगेकायनमेवं सर्वेषां गन्धानां नासिके एकायनमेवं सर्वेषां रसानां
जिह्वैकायनमेवं सर्वेषां रूपाणां चक्षुरेकायनमेवं सर्वेषां शब्दानां
श्रोत्रमेकायनमेवं सर्वेषां संकल्पानां मन एकायनमेवं सर्वेषां
वेदानां हृदयमेकायनमेवं सर्वेषां कर्मणां हस्तावेकायनमेवं
सर्वेषामध्वनां पादावेकायनमेवं सर्वेषामानन्दानन्दानामुपस्थ
एकायनमेवं सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेवं सर्वासां विद्यानां
वागेकायनम्
त्वगेकायनमेवं सर्वेषां गन्धानां नासिके एकायनमेवं सर्वेषां रसानां
जिह्वैकायनमेवं सर्वेषां रूपाणां चक्षुरेकायनमेवं सर्वेषां शब्दानां
श्रोत्रमेकायनमेवं सर्वेषां संकल्पानां मन एकायनमेवं सर्वेषां
वेदानां हृदयमेकायनमेवं सर्वेषां कर्मणां हस्तावेकायनमेवं
सर्वेषामध्वनां पादावेकायनमेवं सर्वेषामानन्दानन्दानामुपस्थ
एकायनमेवं सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेवं सर्वासां विद्यानां
वागेकायनम्
१४/५/४/१२
स यथा सैन्धवखिल्यः उदके प्रास्त उदकमेवानुविलीयेत नाहास्योद्ग्रहणायेव
स्याद्यतोयतस्त्वाददीत लवणमेवैवं वा अर इदं महद्भूतमनन्तमपारं
विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य
संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः
स्याद्यतोयतस्त्वाददीत लवणमेवैवं वा अर इदं महद्भूतमनन्तमपारं
विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य
संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः
१४/५/४/१३
सा होवाच मैत्रेयी अत्रैव मा भगवानमूमुहन्न प्रेत्य संज्ञास्तीति
१४/५/४/१४
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे हं मोहं ब्रवीम्यलं वा अर इदं विज्ञानाय
१४/५/४/१५
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर
इतरमभिवदति तदितर इतरं शृणोति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति
इतरमभिवदति तदितर इतरं शृणोति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति
१४/५/४/१६
यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन
कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं
विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति
कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं
विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति
१४/५/५/१
इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्यां पृथिव्यां तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
शारीरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदम्
ब्रह्मेदं सर्वम्
यश्चायमस्यां पृथिव्यां तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
शारीरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदम्
ब्रह्मेदं सर्वम्
१४/५/५/२
इमा आपः सर्वेषां भूतानां मध्वासामपां सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमास्वप्सु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
रैतसस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमास्वप्सु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
रैतसस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/३
अयमग्निः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याग्नेः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नग्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
वाङ्मयस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्नग्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
वाङ्मयस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/४
अयमाकाशः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याकाशस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नाकाशे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
हृद्याकाशस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्नाकाशे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
हृद्याकाशस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/५
अयं वायुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य वायोः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्वायौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
प्राणस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्वायौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
प्राणस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/६
अयमादित्यः सर्वेषां भूतानां मध्वस्यादित्यस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नादित्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
चक्षुषस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्नादित्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
चक्षुषस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/७
अयं चन्द्रः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य चन्द्रस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिंश्चन्द्रे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
मानसस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिंश्चन्द्रे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
मानसस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/८
इमा दिशः सर्वेषां भूतानां मध्वासां दिशां सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमासु
दिक्षु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं श्रौत्रः
प्रातिश्रुत्कस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमासु
दिक्षु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं श्रौत्रः
प्रातिश्रुत्कस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/९
इयं विद्युत् सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै विद्युतः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्यां विद्युति तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
तैजसस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्यां विद्युति तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
तैजसस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१०
अयं स्तनयित्नुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य स्तनयित्नोः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्त्स्तनयित्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं शाब्दः
सौवरस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्त्स्तनयित्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं शाब्दः
सौवरस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/११
अयं धर्मः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य धर्मस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्धर्मे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
धार्मस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्धर्मे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
धार्मस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१२
इदं सत्यं सर्वेषां भूतानां मध्वस्य सत्यस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्त्सत्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
सात्यस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्त्सत्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
सात्यस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१३
इदं मानुषम् सर्वेषां भूतानां मध्वस्य मानुषस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्मानुषे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
मानुषस्तेजोमयोऽमृत>
यश्चायमस्मिन्मानुषे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
मानुषस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१४
अयमात्मा सर्वेषां भूतानां मध्वस्यात्मनः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नात्मनि तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमात्मा
तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदम्
सर्वम्
यश्चायमस्मिन्नात्मनि तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमात्मा
तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदम्
सर्वम्
१४/५/५/१५
स वा अयमात्मा सर्वेषां भूतानामधिपतिः सर्वेषां भूतानां राजा तद्यथा
रथनाभौ च रथनेमौ चाराः सर्वे समर्पिता एवमेवास्मिन्नात्मनि सर्वे प्राणाः
सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सर्वं एत आत्मानः समर्पिताः
रथनाभौ च रथनेमौ चाराः सर्वे समर्पिता एवमेवास्मिन्नात्मनि सर्वे प्राणाः
सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सर्वं एत आत्मानः समर्पिताः
१४/५/५/१६
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिं दध्यङ्ह
यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाचेति
तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिं दध्यङ्ह
यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाचेति
१४/५/५/१७
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतं स वां मधु
प्रवोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वामिति
आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतं स वां मधु
प्रवोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वामिति
१४/५/५/१८
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
पुरश्चक्रे द्विपदः पुरश्चक्रे चतुष्पदः पुरः स पक्षी भूत्वा पुरः पुरुष
आविषदिति स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैनेन किं चनानावृतं
नैनेन किं चनासंवृतम्
पुरश्चक्रे द्विपदः पुरश्चक्रे चतुष्पदः पुरः स पक्षी भूत्वा पुरः पुरुष
आविषदिति स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैनेन किं चनानावृतं
नैनेन किं चनासंवृतम्
१४/५/५/१९
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽृ=विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय इन्द्रो मायाभिः
पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेत्ययं वै हरयोऽयं वै दश च
सहस्राणि बहूनि चानन्तानि च तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्य मयमात्मा
ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशाव्सनम्
रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय इन्द्रो मायाभिः
पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेत्ययं वै हरयोऽयं वै दश च
सहस्राणि बहूनि चानन्तानि च तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्य मयमात्मा
ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशाव्सनम्
१४/५/५/२०
अथ वंशः तदिदं वयं शौर्पणाय्याचौर्पणाय्यो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यो
वात्स्याच्च पाराशर्याच्च पाराशर्यः सांकृत्याच्च भारद्वाजाच्च भारद्वाज
औदवाहेश्च
शाण्डिल्याच्च शाण्डिल्यो वैजवापाच्च गौतमाच्च गौतमो वैजवापायनाच्च
वैष्टपुरेयाच्च वैष्टपुरेयः शाण्डिल्याच्च रौहिणायनाच्च रौहिणायनः
शौनकाच्चात्रेयाच्च रैभ्याच्च रैभ्यः पौतिमाष्यायणाच्च कौण्डिन्यायनाच्च
कौण्डिन्यायनः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः
कौण्डिन्याच्चाग्निवेश्याच्च
वात्स्याच्च पाराशर्याच्च पाराशर्यः सांकृत्याच्च भारद्वाजाच्च भारद्वाज
औदवाहेश्च
शाण्डिल्याच्च शाण्डिल्यो वैजवापाच्च गौतमाच्च गौतमो वैजवापायनाच्च
वैष्टपुरेयाच्च वैष्टपुरेयः शाण्डिल्याच्च रौहिणायनाच्च रौहिणायनः
शौनकाच्चात्रेयाच्च रैभ्याच्च रैभ्यः पौतिमाष्यायणाच्च कौण्डिन्यायनाच्च
कौण्डिन्यायनः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः
कौण्डिन्याच्चाग्निवेश्याच्च
१४/५/५/२१
आग्निवेश्यः सैतवात् सैतवः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकार्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च गौतमाच्च गौतमो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो वैजवापायनाद्वैजवापायनः कौशिकायनेः
कौशिकायनिर्घृतकौशिकाद्घृतकौशिकः पाराशर्यायणात्पाराशर्यायणः
पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो भारद्वाजाद्भारद्वाजो
भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च
यास्काच्चासुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजा
द्भारद्वाज आत्रेयात्
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च गौतमाच्च गौतमो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो वैजवापायनाद्वैजवापायनः कौशिकायनेः
कौशिकायनिर्घृतकौशिकाद्घृतकौशिकः पाराशर्यायणात्पाराशर्यायणः
पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो भारद्वाजाद्भारद्वाजो
भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च
यास्काच्चासुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजा
द्भारद्वाज आत्रेयात्
१४/५/५/२२
आत्रेयो माण्टेः माण्टिर्गौतमाद्गौतमो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यः
शाण्डिल्याचाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात्कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात्कुमारहारितो
गालवाद्गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो
बाभ्रवाद्वत्सनपाद्बाभ्रवः पथः सौभरात्पन्थाः
सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो
विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच
आथर्वणाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वंसनान्मृत्युः प्राध्वंसनः प्रध्वंसनात्प्रध्वंसन
एकर्षेरेकर्षिविप्रजित्तेर्विप्रजित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः सनारोः सनारुः सनातनात्सनातनः
सनगात्सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे
नमः
शाण्डिल्याचाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात्कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात्कुमारहारितो
गालवाद्गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो
बाभ्रवाद्वत्सनपाद्बाभ्रवः पथः सौभरात्पन्थाः
सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो
विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच
आथर्वणाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वंसनान्मृत्युः प्राध्वंसनः प्रध्वंसनात्प्रध्वंसन
एकर्षेरेकर्षिविप्रजित्तेर्विप्रजित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः सनारोः सनारुः सनातनात्सनातनः
सनगात्सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे
नमः
१४/६/१/१
जनको ह वैदेहो बहुदक्षिणेन यज्ञेनेजे तत्र ह कुरुपञ्चालानां ब्राह्मणा
अभिसमेता बभूवुस्तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा बभूव कः स्विदेषाम्
ब्राह्मणानामनूचानतम इति
अभिसमेता बभूवुस्तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा बभूव कः स्विदेषाम्
ब्राह्मणानामनूचानतम इति
१४/६/१/२
स ह गवां सहस्रमवरुरोध दशदश पादा एकैकस्याः शृङ्गयोराबद्धा
बभूवुस्तान्होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वो ब्रह्मिष्ठः स एता गा उदजतामिति ते
ह ब्राह्मणा न दधृषुः
बभूवुस्तान्होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वो ब्रह्मिष्ठः स एता गा उदजतामिति ते
ह ब्राह्मणा न दधृषुः
१४/६/१/३
अथ ह याज्ञवल्क्यः स्वमेव ब्रह्मचारिणमुवाचैताः सौम्योदज सामश्रवा३ इति ता
होदाचकार ते ह ब्राह्मणाश्चुक्रुधुः कथं नु नो ब्रह्मिष्ठो ब्रुवीतेति
होदाचकार ते ह ब्राह्मणाश्चुक्रुधुः कथं नु नो ब्रह्मिष्ठो ब्रुवीतेति
१४/६/१/४
अथ ह जनकस्य वैदे हस्य होताश्वलो बभूव स हैनं पप्रच त्वं नु खलु
नो याज्ञवल्क्य ब्रह्मिष्ठोऽसी३ इति स होवाच नमो वयं ब्रह्मिष्ठाय कुर्मो
गोकामा एव वयं स्म इति तं ह तत एव प्रष्टुं दध्रे होताश्वलः
नो याज्ञवल्क्य ब्रह्मिष्ठोऽसी३ इति स होवाच नमो वयं ब्रह्मिष्ठाय कुर्मो
गोकामा एव वयं स्म इति तं ह तत एव प्रष्टुं दध्रे होताश्वलः
१४/६/१/५
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वं मृत्युनाप्तं सर्वं मृत्युनाभिपन्नं केन
यजमानो मृत्योराप्तिमतिमुच्यत इति होत्रर्त्विजाग्निना वाचा वाग्वै यज्ञस्य होव्ता
तद्येयं वाक्षोऽयमग्निः स होता सा मुक्तिः सातिमुक्तिः
यजमानो मृत्योराप्तिमतिमुच्यत इति होत्रर्त्विजाग्निना वाचा वाग्वै यज्ञस्य होव्ता
तद्येयं वाक्षोऽयमग्निः स होता सा मुक्तिः सातिमुक्तिः
१४/६/१/६
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वमहोरात्राभ्यामाप्तं
सर्वमहोरात्राभ्यामभिपन्नं केन यजमानोऽहोरात्रयोराप्तिमतिमुच्यत
इत्यध्वर्युणर्त्विजा चक्षुषादित्येन चक्षुर्वै यज्ञस्याध्वर्युस्तद्यदिदं चक्षुः
सोऽसावादित्यः सोऽध्वर्युः सा मुक्तिः सातिमुक्तिः
सर्वमहोरात्राभ्यामभिपन्नं केन यजमानोऽहोरात्रयोराप्तिमतिमुच्यत
इत्यध्वर्युणर्त्विजा चक्षुषादित्येन चक्षुर्वै यज्ञस्याध्वर्युस्तद्यदिदं चक्षुः
सोऽसावादित्यः सोऽध्वर्युः सा मुक्तिः सातिमुक्तिः
१४/६/१/७
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वं पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामाप्तं सर्वम्
पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामभिपन्नं केन यजमानः
पूर्वपक्षापरपक्षयोराप्तिमतिमुच्यत इति ब्रह्मणर्त्विजा मनसा चन्द्रेण मनो
वै यज्ञस्य ब्रह्मा तद्यदिदं मनः सोऽसौ चन्द्रः स ब्रह्मा सा मुक्तिः
सातिमुक्तिः
पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामभिपन्नं केन यजमानः
पूर्वपक्षापरपक्षयोराप्तिमतिमुच्यत इति ब्रह्मणर्त्विजा मनसा चन्द्रेण मनो
वै यज्ञस्य ब्रह्मा तद्यदिदं मनः सोऽसौ चन्द्रः स ब्रह्मा सा मुक्तिः
सातिमुक्तिः
१४/६/१/८
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदमन्तरिक्षमनारम्बणमिवाथ केनाक्रमेण
यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमत इत्युद्गात्रर्त्विजा वायुना प्राणेन प्राणो वै
यज्ञस्योद्गाता तद्योऽयं प्राण स वायुः स उद्गाता सा मुक्तिः सातिमुक्तिरित्यतिमोक्षा
अथ सम्पदः
यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमत इत्युद्गात्रर्त्विजा वायुना प्राणेन प्राणो वै
यज्ञस्योद्गाता तद्योऽयं प्राण स वायुः स उद्गाता सा मुक्तिः सातिमुक्तिरित्यतिमोक्षा
अथ सम्पदः
१४/६/१/९
याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्यर्ग्भिर्होतास्मिन्यज्ञे करिष्यतीति तिसृभिरिति
कतमास्तास्तिस्र इति पुरोऽनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया किं ताभिर्जयतीति
पृथिविलोकमेव पुरोऽनुवाक्यया जयत्यन्तरिक्षलोकं याज्यया द्यौर्लोकं शस्यया
कतमास्तास्तिस्र इति पुरोऽनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया किं ताभिर्जयतीति
पृथिविलोकमेव पुरोऽनुवाक्यया जयत्यन्तरिक्षलोकं याज्यया द्यौर्लोकं शस्यया
१४/६/१/१०
याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्याध्वर्युरस्मिन्यज्ञ आहुतीर्होष्यतीति तिस्र इति
कतमास्तास्तिस्र इति या हुता उज्ज्वलन्ति या हुता अतिनेदन्ति या हुता अधिशेरते किं
ताभिर्जयतीति या हुता उज्ज्वलन्ति देवलोकमेव ताभिर्जयति दीप्यत इव हि देवलोको या
हुता अतिनेदन्ति मनुष्यलोकमेव ताभिर्जयत्यतीव हि मनुष्यलोको या हुता
अधिशेरते पितृलोकमेव ताभिर्जयत्यध इव हि पितृलोकः
कतमास्तास्तिस्र इति या हुता उज्ज्वलन्ति या हुता अतिनेदन्ति या हुता अधिशेरते किं
ताभिर्जयतीति या हुता उज्ज्वलन्ति देवलोकमेव ताभिर्जयति दीप्यत इव हि देवलोको या
हुता अतिनेदन्ति मनुष्यलोकमेव ताभिर्जयत्यतीव हि मनुष्यलोको या हुता
अधिशेरते पितृलोकमेव ताभिर्जयत्यध इव हि पितृलोकः
१४/६/१/११
याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्य ब्रह्मा यज्ञं दक्षिणतो
देवताभिर्गोपायिष्यतीत्येकयेति कतमा सैकेति मन एवेत्यनन्तं वै मनोऽनन्ता
विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति
देवताभिर्गोपायिष्यतीत्येकयेति कतमा सैकेति मन एवेत्यनन्तं वै मनोऽनन्ता
विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति
१४/६/१/१२
याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्योद्गातास्मिन्यज्ञे स्तोत्रिया स्तोष्यतीति तिस्र इति
कतमास्तास्तिस्र इति पुरोऽनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीयाधिदेवतमथाध्यात्मं
कतमास्ता या अध्यात्ममिति प्राण एव पुरोनुवाक्यापानो याज्या व्यानः शस्या किं
ताभिर्जयतीति यत्किं चेदं प्राणभृदिति ततो ह होताश्वल उपरराम
कतमास्तास्तिस्र इति पुरोऽनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीयाधिदेवतमथाध्यात्मं
कतमास्ता या अध्यात्ममिति प्राण एव पुरोनुवाक्यापानो याज्या व्यानः शस्या किं
ताभिर्जयतीति यत्किं चेदं प्राणभृदिति ततो ह होताश्वल उपरराम
१४/६/२/१
अथ हैनं जारत्कारव आर्तभागः पप्रच याज्ञवल्क्येति होवाच कति ग्रहाः
कत्यतिग्रहा इत्यष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहा ये तेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः कतमे
त इति
कत्यतिग्रहा इत्यष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहा ये तेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः कतमे
त इति
१४/६/२/२
प्राणो वै ग्रहः सोऽपानेनातिग्रहेण गृहीतोऽपानेन हि गन्धान्जिघ्रति
१४/६/२/३
जिह्वा वै ग्रहः स रसेनातिग्रहेण गृहीतो जिह्वया हि रसान्विजानाति
१४/६/२/४
वाग्वै ग्रहः स नाम्नातिग्रहेण गृहीतो वाचा हि नामान्यभिवदति
१४/६/२/५
चक्षुर्वै ग्रहः स रूपेणातिग्रहेण गृहीतश्चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति
१४/६/२/६
श्रोत्रं वै ग्रहः स शब्देनातिग्रहेण गृहीतः श्रोत्रेण हि शब्दाञ्चृणोति
१४/६/२/७
मनो वै ग्रहः स कामेनातिग्रहेण गृहीतो मनसा हि कामान्कामयते
१४/६/२/८
हस्तौ वै ग्रहः स कर्मणातिग्रहेण गृहीतो हस्ताभ्यां हि कर्म करोति
१४/६/२/९
त्वग्वै ग्रहः स स्पर्शेनातिग्रहेण गृहीतस्त्वचा हि स्पर्शान्वेदयत इत्यष्टौ ग्रहा
अष्टावतिग्रहाः
अष्टावतिग्रहाः
१४/६/२/१०
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वं मृत्योरन्नं का स्वित्सा देवता यस्या
मृत्युरन्नमित्यग्निर्वै मृत्युः सोऽपामन्नमप पुनर्मृत्युं जयति
मृत्युरन्नमित्यग्निर्वै मृत्युः सोऽपामन्नमप पुनर्मृत्युं जयति
१४/६/२/११
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियते किमेनं न जहातीति नामेत्यनन्तं
वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति एव स तेन लोकं जयति
वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति एव स तेन लोकं जयति
१४/६/२/१२
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियत उदस्मात्प्राणाः क्रामन्त्याहो नेति नेति
होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रैव समवनीयन्ते स उच्वयत्याध्मायत्याध्मातो मृतः शेते
होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रैव समवनीयन्ते स उच्वयत्याध्मायत्याध्मातो मृतः शेते
१४/६/२/१३
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्निं वागप्येति वातम्
प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं
शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन्केशा अप्सु लोहितं च रेतश्च निधीयते
क्वायं तदा पुरुषो भवतीत्याहर सौम्य हस्तम्
प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं
शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन्केशा अप्सु लोहितं च रेतश्च निधीयते
क्वायं तदा पुरुषो भवतीत्याहर सौम्य हस्तम्
१४/६/२/१४
आर्तभागेति होवाच आवमेवैतद्वेदिष्यावो न नावेतत्सजन इति तौ होत्क्रस्य
मन्त्रयां चक्रतुस्तौ ह यदूचतुः कर्म हैव तदूचतुरथ ह यत्प्रशशंसतुः
कर्म हैव तत्प्रशशंसतुः पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति ततो
ह जारत्कारव आर्तभाग उपरराम
मन्त्रयां चक्रतुस्तौ ह यदूचतुः कर्म हैव तदूचतुरथ ह यत्प्रशशंसतुः
कर्म हैव तत्प्रशशंसतुः पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति ततो
ह जारत्कारव आर्तभाग उपरराम
१४/६/३/१
अथ हैनं भुज्युर्लाह्यायनिः पप्रच याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेषु चरकाः
पर्यव्रजाम ते एतञ्चलस्य काप्यस्य गृहानैम तस्यासीद्दुहिता गन्धर्वगृहीता
तमपृचाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्सुधन्वाङ्गिरस इति तं यदा
लोकानामन्तानपृचामाथैतमब्रूम क्व पारिक्षिता अभवन्क्व पारिक्षिता
अभवन्निति तत्त्वा पृचामि याज्ञवल्क्य क्व पारिक्षिता अभवन्निति
पर्यव्रजाम ते एतञ्चलस्य काप्यस्य गृहानैम तस्यासीद्दुहिता गन्धर्वगृहीता
तमपृचाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्सुधन्वाङ्गिरस इति तं यदा
लोकानामन्तानपृचामाथैतमब्रूम क्व पारिक्षिता अभवन्क्व पारिक्षिता
अभवन्निति तत्त्वा पृचामि याज्ञवल्क्य क्व पारिक्षिता अभवन्निति
१४/६/३/२
स होवाच उवाच वै स तदगचन्वै ते तत्र यत्राश्वमेधयाजिनो गचन्तीति क्व
न्वश्वमेधयाजिनो गचन्तीति द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्नूयान्ययं लोकस्तं
समन्तं लोकं द्विस्तावत्पृथिवी पर्येति तां पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति
तद्यावती क्षुरस्य धारा यावद्वा मक्षिकायाः पत्रं तावानन्तरेणाकाशस्तानिन्द्रः
सुपर्णो भूत्वा वायवे प्रायचत्तान्वायुरात्मनि धित्वा तत्रागमयद्यत्र पारिक्षिता
अभवन्नित्येवमिव वै स वायुमेव प्रशशंस तस्माद्वायुरेव व्यष्टिर्वायुः
समष्टिरप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति य एवं वेद ततो ह
भुज्युर्लाह्यायनिरुपरराम
न्वश्वमेधयाजिनो गचन्तीति द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्नूयान्ययं लोकस्तं
समन्तं लोकं द्विस्तावत्पृथिवी पर्येति तां पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति
तद्यावती क्षुरस्य धारा यावद्वा मक्षिकायाः पत्रं तावानन्तरेणाकाशस्तानिन्द्रः
सुपर्णो भूत्वा वायवे प्रायचत्तान्वायुरात्मनि धित्वा तत्रागमयद्यत्र पारिक्षिता
अभवन्नित्येवमिव वै स वायुमेव प्रशशंस तस्माद्वायुरेव व्यष्टिर्वायुः
समष्टिरप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति य एवं वेद ततो ह
भुज्युर्लाह्यायनिरुपरराम
१४/६/४/
अथ हैनं कहोडः कौषीतकेयः पप्रच याज्ञवल्क्येति होवाच
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा
सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो योऽषनायापिपासे शोकं मोहं जराम्
मृत्युमत्येत्येतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च
लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा
या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतस्तस्मात्पण्डितः पाण्डित्यं
निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेद्बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिरमौनं च
मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः स ब्राह्मणः केन स्याद्येन स्यात्तेनेदृश एव
भवति य एवं वेद ततो ह कहोडः कौषीतकेय उपरराम
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा
सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो योऽषनायापिपासे शोकं मोहं जराम्
मृत्युमत्येत्येतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च
लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा
या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतस्तस्मात्पण्डितः पाण्डित्यं
निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेद्बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिरमौनं च
मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः स ब्राह्मणः केन स्याद्येन स्यात्तेनेदृश एव
भवति य एवं वेद ततो ह कहोडः कौषीतकेय उपरराम
१४/६/५
अथ हैनमुषस्तश्चाक्रायणः पप्रच याज्ञवल्क्येति होवाच
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा
सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो यः प्राणेन प्राणिति स त आत्मा सर्वान्तरो
योऽपानेनापानिति स त आत्मा सर्वान्तरो यो व्यानेन व्यनिति स त आत्मा सर्वान्तरो य
उदानेनोदनिति स त आत्मा सर्वान्तरो यः समानेन समनिति स त आत्मा सर्वान्तरः स
होवाचोषस्तश्चाक्रायणो यथा वै ब्रूयादसौ गौरसावश्व
इत्येवमेवैतद्व्यपदिष्टं भवति यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा
सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य
सर्वान्तरो न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येर्न श्रुतेः श्रोतारं शृणुया न मतेर्मन्तारम्
मन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं विज्ञानीया एष त आत्मा सर्वान्तरोऽतोऽन्यदार्तं ततो
होषस्तश्चाक्रायण उपरराम
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा
सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो यः प्राणेन प्राणिति स त आत्मा सर्वान्तरो
योऽपानेनापानिति स त आत्मा सर्वान्तरो यो व्यानेन व्यनिति स त आत्मा सर्वान्तरो य
उदानेनोदनिति स त आत्मा सर्वान्तरो यः समानेन समनिति स त आत्मा सर्वान्तरः स
होवाचोषस्तश्चाक्रायणो यथा वै ब्रूयादसौ गौरसावश्व
इत्येवमेवैतद्व्यपदिष्टं भवति यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा
सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य
सर्वान्तरो न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येर्न श्रुतेः श्रोतारं शृणुया न मतेर्मन्तारम्
मन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं विज्ञानीया एष त आत्मा सर्वान्तरोऽतोऽन्यदार्तं ततो
होषस्तश्चाक्रायण उपरराम
१४/६/६/
अथ हैनं गार्गी वाचक्नवी पप्रच याज्ञवल्क्येति होवाच यदितं सर्वमप्स्वोतं
च प्रोतं च कस्मिन्न्वाप ओताश्च प्रोतश्चेति वायौ गार्गीति कस्मिन्नु वायुरोतश्च
प्रोतश्चेत्याकाश एव गार्गीति कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति
कस्मिन्न्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेति द्यौर्लोके गार्गीति कस्मिन्नु द्यौर्लोक
ओतश्च प्रोतश्चेत्यादित्यलोकेषु गार्गीति कस्मिन्न्वादित्यलोका ओताश्च प्रोताश्चेति
चन्द्रलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु चन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति नक्षत्रलोकेषु गार्गीति
कस्मिन्नु नक्षत्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति देवलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु देवलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति गन्धर्वलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु गन्धर्वलोका ओताश्च प्रोताश्चेति
प्रजापतिलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु प्रजापतिलोका ओताश्च प्रोताश्चेति ब्रह्मलोकेषु
गार्गीति कस्मिन्नु ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्चेति स होवाच गार्गि मातिप्राक्षीर्मा ते
मूर्धा व्यपप्तदनतिप्रश्न्या वै देवता अतिपृचसि गार्गि मातिप्राक्षीरिति ततो ह गार्गी
वाचक्नव्युपरराम
च प्रोतं च कस्मिन्न्वाप ओताश्च प्रोतश्चेति वायौ गार्गीति कस्मिन्नु वायुरोतश्च
प्रोतश्चेत्याकाश एव गार्गीति कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति
कस्मिन्न्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेति द्यौर्लोके गार्गीति कस्मिन्नु द्यौर्लोक
ओतश्च प्रोतश्चेत्यादित्यलोकेषु गार्गीति कस्मिन्न्वादित्यलोका ओताश्च प्रोताश्चेति
चन्द्रलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु चन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति नक्षत्रलोकेषु गार्गीति
कस्मिन्नु नक्षत्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति देवलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु देवलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति गन्धर्वलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु गन्धर्वलोका ओताश्च प्रोताश्चेति
प्रजापतिलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु प्रजापतिलोका ओताश्च प्रोताश्चेति ब्रह्मलोकेषु
गार्गीति कस्मिन्नु ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्चेति स होवाच गार्गि मातिप्राक्षीर्मा ते
मूर्धा व्यपप्तदनतिप्रश्न्या वै देवता अतिपृचसि गार्गि मातिप्राक्षीरिति ततो ह गार्गी
वाचक्नव्युपरराम
१४/६/७/१
अथ हैनमुद्दालक आरुणिः पप्रच याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेष्ववसाम
पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहेषु यज्ञमधीयानास्तस्यासीद्भार्या गन्धर्वगृहीता
तमपृचाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्कबन्ध आथर्वण इति
पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहेषु यज्ञमधीयानास्तस्यासीद्भार्या गन्धर्वगृहीता
तमपृचाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्कबन्ध आथर्वण इति
१४/६/७/२
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकांश्च वेत्थ नु त्वं काप्य तत्सूत्रं यस्मिन्नयं
च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्तीति सोऽब्रवीत्पतञ्चलः
काप्यो नाहं तद्भगवन्वेदेति
च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्तीति सोऽब्रवीत्पतञ्चलः
काप्यो नाहं तद्भगवन्वेदेति
१४/६/७/३
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकांश्च वेत्थ नु त्वं काप्य तमन्तर्यामिणं य
इमं च लोकं परं च लोकं सर्वाणि च भूतान्यन्तरो यमयतीति
सोऽब्रवीत्पतञ्चलः काप्यो नाहं तं भगवन्वेदेति
इमं च लोकं परं च लोकं सर्वाणि च भूतान्यन्तरो यमयतीति
सोऽब्रवीत्पतञ्चलः काप्यो नाहं तं भगवन्वेदेति
१४/६/७/४
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकांश्च यो वै तत्काप्य सूत्रं विद्यात्तं
चान्तर्यामिणं स ब्रह्मवित्स लोकवित्स देववित्स वेदवित्स यज्ञवित्स भूतवित्स
आत्मवित्स सर्वविदिति तेभ्योऽब्रवीत्तदहं वेद तच्चेत्त्वं याज्ञवल्क्य
सूत्रमविद्वांस्तं चान्तर्यामिणं ब्रह्मगवीरुदजसे मूर्धा ते विपतिष्यतीति
चान्तर्यामिणं स ब्रह्मवित्स लोकवित्स देववित्स वेदवित्स यज्ञवित्स भूतवित्स
आत्मवित्स सर्वविदिति तेभ्योऽब्रवीत्तदहं वेद तच्चेत्त्वं याज्ञवल्क्य
सूत्रमविद्वांस्तं चान्तर्यामिणं ब्रह्मगवीरुदजसे मूर्धा ते विपतिष्यतीति
१४/६/७/५
वेद वा अहं गौतम तत्सूत्रं तं चान्तर्यामिणमिति यो वा इदं कश्च
ब्रूयाद्वेदवेदेति यथा वेत्थ तथा ब्रूहीति
ब्रूयाद्वेदवेदेति यथा वेत्थ तथा ब्रूहीति
१४/६/७/६
वायुर्वै गौतम तत्सूत्रम् वायुना वै गौतम सूत्रेणायं च लोकः परश्च लोकः
सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति तस्माद्वै गौतम पुरुषम्
प्रेतमाहुर्व्यस्रंसिषतास्याङ्गानीति वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि
भवन्तीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्यान्तर्यामिणं ब्रूहीति
सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति तस्माद्वै गौतम पुरुषम्
प्रेतमाहुर्व्यस्रंसिषतास्याङ्गानीति वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि
भवन्तीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्यान्तर्यामिणं ब्रूहीति
१४/६/७/७
यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः
पृथिवीमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
पृथिवीमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/८
सोऽप्सु तिष्ठन् अद्भ्योऽन्तरो यमापो न विदुर्यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरो यमयति
स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/९
योऽग्नौ तिष्ठन् अग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं योऽग्निमन्तरो
यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/१०
य आकाशे तिष्ठन् आकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याकाशः शरीरं य
आकाशमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
आकाशमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/११
यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो
वायुमन्तरो यम>
१४/६/७/१२
य आदित्ये तिष्ठन् आदित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य
आदित्यमन्तरो यम>
आदित्यमन्तरो यम>
१४/६/७/१३
यश्चन्द्रतारके तिष्ठन् चन्द्रतारकादन्तरो यं चन्द्रतारकं न वेद यस्य
चन्द्रतारकं शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यम>
चन्द्रतारकं शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यम>
१४/६/७/१४
यो दिक्षु तिष्ठन् दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं यो दिशोऽन्तरो
यम>
यम>
१४/६/७/१५
यो विद्युति तिष्ठन् विद्युतोऽन्तरो यं विद्युन्न वेद यस्य विद्युचरीरं यो
विद्युतमन्तरो यम>
विद्युतमन्तरो यम>
१४/६/७/१६
य स्तनयित्नौ तिष्ठन् स्तनयित्नोरन्तरो यं स्तनयित्नुर्न वेद यस्य स्तनयित्नुः
शरीरं य स्तनयित्नुमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत
इत्यधिदेवतमथाधिलोकम्
शरीरं य स्तनयित्नुमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत
इत्यधिदेवतमथाधिलोकम्
१४/६/७/१७
यः सर्वेषु लोकेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो लोकेभ्योऽन्तरो यं सर्वे लोका न विदुर्यस्य
सर्वे लोकाः शरीरं यः सर्वांलोकानन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत इत्यु
एवाधिलोकमथाधिवेदम्
सर्वे लोकाः शरीरं यः सर्वांलोकानन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत इत्यु
एवाधिलोकमथाधिवेदम्
१४/६/७/१८
यः सर्वेषु वेदेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो वेदेभ्योऽन्तरो इत्यु
एवाधिवेदमथाधियज्ञम्
एवाधिवेदमथाधियज्ञम्
१४/६/७/१९
सर्वेषु यज्ञेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो यज्ञेभ्योऽन्तरो इत्यु
एवाधियज्ञमथाधिभूतम्
एवाधियज्ञमथाधिभूतम्
१४/६/७/२०
यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न
विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयति स त
आत्मान्तर्याम्यमृत इत्यु एवाधिभूतमथाध्यात्मम्
१४/६/७/२१
यः प्राणे तिष्ठन् प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं यः
प्राणमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
प्राणमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/२२
यो वाचि तिष्ठन् वाचोऽन्तरो>
१४/६/७/२३
यश्चक्षुषि तिष्ठन् चक्षुषोऽन्तरो>
१४/६/७/२४
यः श्रोत्रे तिष्ठन् श्रोत्रादन्तरो>
१४/६/७/२५
यो मनसि तिष्ठन् मनसोऽन्तरो>
१४/६/७/२६
यस्त्वचि तिष्ठन् त्वचोऽन्तरो>
१४/६/७/२७
यस्तेजसि तिष्ठन् तेजसोऽन्तरो>
१४/६/७/२८
यस्तमसि तिष्ठन् तमसोऽन्तरो>
१४/६/७/२९
यो रेतसि तिष्ठन् रेतसोऽन्तरो>
१४/६/७/३०
य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो>
१४/६/७/३१
अदृष्टो द्रष्टाश्रुतः श्रोता अमतो मन्ताविज्ञातो विज्ञाता नान्योऽस्ति द्रष्टा नान्योऽस्ति
श्रोता नान्योऽस्ति मन्ता नान्योऽस्ति विज्ञातैष त आत्मान्तर्याम्यमृतोऽतोऽन्यदार्तं ततो
होद्दालक आरुणिरुपरराम
श्रोता नान्योऽस्ति मन्ता नान्योऽस्ति विज्ञातैष त आत्मान्तर्याम्यमृतोऽतोऽन्यदार्तं ततो
होद्दालक आरुणिरुपरराम
१४/६/८/१
अथ ह वाचक्नव्युवाच ब्राह्मणा भगवन्तो हन्ताहमिमं याज्ञवल्क्यं द्वौ
प्रश्नौ प्रक्ष्यामि तौ चेन्मे विवक्ष्यति न वै जातु युष्माकमिमं
कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति तौ चेन्मे न विवक्ष्यति मूर्धास्य विपतिष्यतीति पृच
गार्गीति
प्रश्नौ प्रक्ष्यामि तौ चेन्मे विवक्ष्यति न वै जातु युष्माकमिमं
कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति तौ चेन्मे न विवक्ष्यति मूर्धास्य विपतिष्यतीति पृच
गार्गीति
१४/६/८/२
सा होवाच अहं वै त्वा याज्ञवल्क्य यथा काश्यो वा वैदेहो ओग्रपुत्र उद्यं
धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ वाणवन्तौ सपत्नाधिव्याधिनौ हस्ते
कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थां तौ मे ब्रूहीति
पृच गार्गीति
धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ वाणवन्तौ सपत्नाधिव्याधिनौ हस्ते
कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थां तौ मे ब्रूहीति
पृच गार्गीति
१४/६/८/३
सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिंस्तदोतं च प्रोतं चेति
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिंस्तदोतं च प्रोतं चेति
१४/६/८/४
स होवाच यदूर्ध्वं गार्गी दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाशे तदोतं च प्रोतं चेति
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाशे तदोतं च प्रोतं चेति
१४/६/८/५
सा होवाच नमस्ते याज्ञवल्क्य यो म एतं व्यवोचोऽपरस्मै धारयस्वेति पृच
गार्गीति
गार्गीति
१४/६/८/६
सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिन्नेव तदोतं च प्रोतं चेति
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिन्नेव तदोतं च प्रोतं चेति
१४/६/८/७
स होवाच यदूर्ध्वं गार्गी दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति
कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति
कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति
१४/६/८/८
स होवाच एतद्वै तदक्षरं गार्गी ब्राह्मणा
अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमचायमतमोऽवाय्वना
काशमसङ्गमस्पर्शमगन्धमरसमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कम
प्राणममुखमनामागोत्रमजरममरमभयममृतमरजोऽशब्दमविवृतम
संवृतमपूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यं न तदश्नोति कं चन न तदश्नोति
कश्चन
अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमचायमतमोऽवाय्वना
काशमसङ्गमस्पर्शमगन्धमरसमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कम
प्राणममुखमनामागोत्रमजरममरमभयममृतमरजोऽशब्दमविवृतम
संवृतमपूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यं न तदश्नोति कं चन न तदश्नोति
कश्चन
१४/६/८/९
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी द्यावापृथिवी विधृते तिष्ठत एतस्य वा
अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य
प्रशासने गार्ग्यहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा विधृतास्तिष्ठन्त्येतस्य
वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि प्राच्योऽन्या नद्यः स्यन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः
प्रतीच्योऽन्या यां यां च दिशमेतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ददतम्
मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवा दर्व्यं पितरोऽन्वायत्ताः
अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य
प्रशासने गार्ग्यहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा विधृतास्तिष्ठन्त्येतस्य
वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि प्राच्योऽन्या नद्यः स्यन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः
प्रतीच्योऽन्या यां यां च दिशमेतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ददतम्
मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवा दर्व्यं पितरोऽन्वायत्ताः
१४/६/८/१०
यो वा एतदक्षरमविदित्वा गार्गि अस्मिंलोके जुहोति ददाति तपस्यत्यपि बहूनि
वर्षसहस्राण्यन्तवानेवास्य स लोको भवति यो वा एतदक्षरमविदित्वा
गार्ग्यस्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स
ब्राह्मणः
वर्षसहस्राण्यन्तवानेवास्य स लोको भवति यो वा एतदक्षरमविदित्वा
गार्ग्यस्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स
ब्राह्मणः
१४/६/८/११
तद्वा एतदक्षरं गार्गि अदृष्टं द्रष्ट्रश्रुतं मन्त्र!विज्ञातं विज्ञातृ नान्यदस्ति
द्रष्टृ नान्यदस्ति श्रोतृ नान्यदस्ति मन्तृ नान्यदस्ति विज्ञात्रेतद्वै तदक्षरं गार्गि
यस्मिन्नाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति
द्रष्टृ नान्यदस्ति श्रोतृ नान्यदस्ति मन्तृ नान्यदस्ति विज्ञात्रेतद्वै तदक्षरं गार्गि
यस्मिन्नाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति
१४/६/८/१२
सा होवाच ब्राह्मणा भगवन्तस्तदेव बहु मन्यध्वं यदस्मान्नमस्कारेण
मुच्याध्वै न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति ततो ह
वाचक्नव्युपरराम
मुच्याध्वै न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति ततो ह
वाचक्नव्युपरराम
१४/६/९/१
अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच कति देवा याज्ञवल्क्येति स हैतयैव निविदा
प्रतिपेदे यावन्तो वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च
सहस्रेत्योमिति होवाच
प्रतिपेदे यावन्तो वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च
सहस्रेत्योमिति होवाच
१४/६/९/२
कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति त्रयस्त्रिंशदित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति
षडित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति त्रय इत्योमिति होवाच कत्येव देवा
याज्ञवल्क्येति द्वावित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्यध्यर्ध इत्योमिति
होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्येक इत्योमिति होवाच कतमे ते त्रयश्च त्री च शता
त्रयश्च त्री च सहस्रेति
षडित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति त्रय इत्योमिति होवाच कत्येव देवा
याज्ञवल्क्येति द्वावित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्यध्यर्ध इत्योमिति
होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्येक इत्योमिति होवाच कतमे ते त्रयश्च त्री च शता
त्रयश्च त्री च सहस्रेति
१४/६/९/३
स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवा इति कतमे ते
त्रयस्त्रिंशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्त एकत्रिंशदिन्द्रश्चैव
प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिंशाविति
त्रयस्त्रिंशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्त एकत्रिंशदिन्द्रश्चैव
प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिंशाविति
१४/६/९/४
कतमे वसव इति अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च
नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते
तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति
नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते
तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति
१४/६/९/५
कतमे रुद्रा इति दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते
यदास्मान्मर्त्याचरीरादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति
यदास्मान्मर्त्याचरीरादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति
१४/६/९/६
कतम आदित्या इति द्वादश मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीदं सर्वमाददाना
यन्ति तद्यदिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति
यन्ति तद्यदिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति
१४/६/९/७
कतम इन्द्रः कतमः प्रजापतिरिति स्तनयित्नुरेवेन्द्रो यज्ञः प्रजापतिरिति कतम
स्तनयित्नुरित्यशनिरिति कतमो यज्ञ इति पशव इति
स्तनयित्नुरित्यशनिरिति कतमो यज्ञ इति पशव इति
१४/६/९/८
कतमे षडिति अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्चैते ह्येवेदं
सर्वं षडिति
सर्वं षडिति
१४/६/९/९
कतमे ते त्रयो देवा इतीम एव त्रयो लोका एषु हीमे सर्वे देवा इति कतमौ द्वौ
देवावित्यन्नं चैव प्राणश्चेति कतमोऽध्यर्ध इति योऽयं पवत इति
देवावित्यन्नं चैव प्राणश्चेति कतमोऽध्यर्ध इति योऽयं पवत इति
१४/६/९/१०
तदाहुः यदयमेक एव पवतेऽथ कथमध्यर्ध इति यदस्मिन्निदं
सर्वमध्यार्ध्नोत्तेनाध्यर्ध इति कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते
सर्वमध्यार्ध्नोत्तेनाध्यर्ध इति कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते
१४/६/९/११
पृथिव्येव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनोज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्यात्मनः परायणं स वै वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य वेद वा अहं तम्
पुरुषं सर्वस्यात्मनः परायणं यमात्थ य एवायं शारीरः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति स्त्रिय इति होवाच
विद्यात्सर्वस्यात्मनः परायणं स वै वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य वेद वा अहं तम्
पुरुषं सर्वस्यात्मनः परायणं यमात्थ य एवायं शारीरः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति स्त्रिय इति होवाच
१४/६/९/१२
रूपाण्येव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनोज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्यात्मनः परायणं स वै वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य वेद वा अहं तम्
पुरुषं सर्वस्यात्मनः परायणं यमात्थ य एवासावादित्ये पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति चक्षुरिति होवाच
विद्यात्सर्वस्यात्मनः परायणं स वै वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य वेद वा अहं तम्
पुरुषं सर्वस्यात्मनः परायणं यमात्थ य एवासावादित्ये पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति चक्षुरिति होवाच
१४/६/९/१३
आकाश एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायं वायौ पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति प्राण इति होवाच
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति प्राण इति होवाच
१४/६/९/१४
काम एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवासौ चन्द्रे पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति मन इति होवाच
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति मन इति होवाच
१४/६/९/१५
तेज एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायमग्नौ पुरुषः स एष वदैव
शाकल्य तस्य का देवतेति वागिति होवाच
शाकल्य तस्य का देवतेति वागिति होवाच
१४/६/९/१६
तम एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायं चायामयः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति मृत्युरिति होवाच
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति मृत्युरिति होवाच
१४/६/९/१७
आप एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायमप्सु पुरुषः स एष वदैव
शाकल्य तस्य का देवतेति वरुण इति होवाच
शाकल्य तस्य का देवतेति वरुण इति होवाच
१४/६/९/१८
रेत एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायं पुत्रमयः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति प्रजापतिरिति होवाच
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति प्रजापतिरिति होवाच
१४/६/९/१९
शाकल्येति होवाच याज्ञवल्क्यः त्वां स्विदिमे ब्राह्मणा अङ्गारावक्षयणमक्रता३ इति
१४/६/९/२०
याज्ञवल्क्येति होवाच शाकल्यो यदिदं कुरुपञ्चालानां ब्राह्मणानत्यवादीः किम्
ब्रह्म विद्वानिति दिशो वेद सदेवाः सप्रतिष्ठा इति यद्दिशो वेत्थ सदेवाः
सप्रतितिष्ठाः
ब्रह्म विद्वानिति दिशो वेद सदेवाः सप्रतिष्ठा इति यद्दिशो वेत्थ सदेवाः
सप्रतितिष्ठाः
१४/६/९/२१
किंदेवतोऽस्यां प्राच्यां दिश्यसीति आदित्यदेवत इति स आदित्यः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
चक्षुषीति कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितं भवतीति रूपेष्विति चक्षुषा हि रूपाणि
पश्यति कस्मिन्नु रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीति हृदय इति हृदयेन हि रूपाणि जानाति
हृदये ह्येव रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
चक्षुषीति कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितं भवतीति रूपेष्विति चक्षुषा हि रूपाणि
पश्यति कस्मिन्नु रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीति हृदय इति हृदयेन हि रूपाणि जानाति
हृदये ह्येव रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२२
किंदेवतोऽस्यां दक्षिणायां दिश्यसीति यमदेवत इति स यमः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
दक्षिणायामिति कस्मिन्नु दक्षिणा प्रतिष्ठिता भवतीति श्रद्धायामिति यदा ह्येव
श्रद्धत्तेऽथ दक्षिणां ददाति श्रद्धायां ह्येव दक्षिणा प्रतिष्ठिता भवतीति
कस्मिन्नु श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीति हृदय इति हृदयेन हि श्रद्धत्ते हृदये
ह्येव श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
दक्षिणायामिति कस्मिन्नु दक्षिणा प्रतिष्ठिता भवतीति श्रद्धायामिति यदा ह्येव
श्रद्धत्तेऽथ दक्षिणां ददाति श्रद्धायां ह्येव दक्षिणा प्रतिष्ठिता भवतीति
कस्मिन्नु श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीति हृदय इति हृदयेन हि श्रद्धत्ते हृदये
ह्येव श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२३
किंदेवतोऽस्यां प्रतीच्यां दिश्यसीति वरुणदेवत इति स वरुणः कस्मिन्प्रतिष्ठित
इत्यप्स्विति कस्मिन्न्वापः प्रतिष्ठिता भवन्तीति रेतसीति कस्मिन्नु रेतः प्रतिष्ठितम्
भवतीति हृदय इति तस्मादपि प्रतिरूपं जातमाहुर्हृदयादिव सृप्तो हृदयादिव
निर्मित इति हृदये ह्येव रेतः प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
इत्यप्स्विति कस्मिन्न्वापः प्रतिष्ठिता भवन्तीति रेतसीति कस्मिन्नु रेतः प्रतिष्ठितम्
भवतीति हृदय इति तस्मादपि प्रतिरूपं जातमाहुर्हृदयादिव सृप्तो हृदयादिव
निर्मित इति हृदये ह्येव रेतः प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२४
किंदेवतोऽस्यामुदीच्यां दिश्यसीति सोमदेवत इति स सोमः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
दीक्षायामिति कस्मिन्नु दीक्षा प्रतिष्ठिता भवतीति सत्य इति तस्मादपि
दीक्षितमाहुः सत्यं वदेति सत्ये ह्येव दीक्षा प्रतिष्ठिता भवतीति कस्मिन्नु
सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीति हृदय इति हृदयेन हि सत्यं जानाति हृदये ह्येव
सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
दीक्षायामिति कस्मिन्नु दीक्षा प्रतिष्ठिता भवतीति सत्य इति तस्मादपि
दीक्षितमाहुः सत्यं वदेति सत्ये ह्येव दीक्षा प्रतिष्ठिता भवतीति कस्मिन्नु
सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीति हृदय इति हृदयेन हि सत्यं जानाति हृदये ह्येव
सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२५
किंदेवतोऽस्यां ध्रुवाया+ दिश्यसीति अग्निदेवत इति सोऽग्निः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
वाचीति कस्मिन्नु वाक्प्रतिष्ठिता भवतीति मनसीति कस्मिन्नु मनः प्रतिष्ठितम्
भवतीति हृदय इति कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितं भवतीति
वाचीति कस्मिन्नु वाक्प्रतिष्ठिता भवतीति मनसीति कस्मिन्नु मनः प्रतिष्ठितम्
भवतीति हृदय इति कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितं भवतीति
१४/६/९/२६
अहल्लिकेति होवाच याज्ञवल्क्यो यत्रैतदन्यत्रास्मन्मन्यासै
यत्रैतदन्यत्रास्मत्स्याच्वानो वैनदद्युर्वयांसि वैनद्विमथ्नीरन्निति
१४/६/९/२७
कस्मिन्नु त्वं चात्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति प्राण इति कस्मिन्नु प्राणः प्रतिष्ठित
इत्यपान इति कस्मिन्न्वपानः प्रतिष्ठित इति व्यान इति कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित
इत्युदान इति कस्मिन्नूदानः प्रतिष्ठित इति समान इति
इत्यपान इति कस्मिन्न्वपानः प्रतिष्ठित इति व्यान इति कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित
इत्युदान इति कस्मिन्नूदानः प्रतिष्ठित इति समान इति
१४/६/९/२८
स एष तेति नेत्यास्मा अगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गोऽसितो न सज्यते न
व्यथत इत्येतान्यष्टावायतनान्यष्टौ लोका अष्टौ पुरुषाः स
यस्तान्पुरुषान्व्युदुह्य प्रत्युह्यात्यक्रामीत्तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृचामि
तं चेन्मे न विवक्ष्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति तं ह शाकल्यो न मेने तस्य ह
मूर्धा विपपात तस्य हाप्यन्यन्मन्यमानाः परिमोषिणोऽस्थीन्यपजह्रुः
व्यथत इत्येतान्यष्टावायतनान्यष्टौ लोका अष्टौ पुरुषाः स
यस्तान्पुरुषान्व्युदुह्य प्रत्युह्यात्यक्रामीत्तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृचामि
तं चेन्मे न विवक्ष्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति तं ह शाकल्यो न मेने तस्य ह
मूर्धा विपपात तस्य हाप्यन्यन्मन्यमानाः परिमोषिणोऽस्थीन्यपजह्रुः
१४/६/९/२९
अथ ह याज्ञवल्क्य उवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वः कामयते स मा पृचतु सर्वे
वा मा पृचत यो वः कामयते तं वः पृचानि सर्वान्वा वः पृचानीति तेह ब्राह्मणा
न
दधृषुः
वा मा पृचत यो वः कामयते तं वः पृचानि सर्वान्वा वः पृचानीति तेह ब्राह्मणा
न
दधृषुः
१४/६/९/३०
तान्हैतैः श्लोकैः पप्रच यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा तस्य
पर्णानि लोमानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः
पर्णानि लोमानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः
१४/६/९/३१
त्वच एवास्य रुधिरं प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः तस्मात्तदातुन्नात्प्रैति रसो
वृक्षादिवाहतात्
वृक्षादिवाहतात्
१४/६/९/३२
मांसान्यस्य शकराणि किनाटं स्नाव तत्स्थिरम् अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा
मज्जोपमा कृता
मज्जोपमा कृता
१४/६/९/३३
यद्वृक्षो वृक्णो रोहति मूलान्नवतरः पुनः मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः
कस्मान्मूलात्प्ररोहति
कस्मान्मूलात्प्ररोहति
१४/६/९/३४
रेतस इति मा वोचत जीवतस्तत्प्रजायते जात एव न जायते को न्वेनं जनयेत्पुनः
धानारुह उ वै वृक्षोऽन्यतः प्रेत्य सम्भवः यत्समूलमुद्वृहेयुर्वृक्षं न
पुनराभवेत्मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति विज्ञानमानन्दम्
ब्रह्म रातेर्दातुः परायणम् तिष्ठमानस्य तद्विद इति
धानारुह उ वै वृक्षोऽन्यतः प्रेत्य सम्भवः यत्समूलमुद्वृहेयुर्वृक्षं न
पुनराभवेत्मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति विज्ञानमानन्दम्
ब्रह्म रातेर्दातुः परायणम् तिष्ठमानस्य तद्विद इति
१४/६/१०/१
जनको ह वैदेह आसां चक्रे अथ ह याज्ञवल्क्य आवव्राज स होवाच जनको वैदेहो
याज्ञवल्क्य किमर्थमचारीः पशूनिचन्नण्वन्तानित्युभयमेव सम्राडिति होवाच
यत्ते कश्चिदब्रवीत्तचृणवामेति
याज्ञवल्क्य किमर्थमचारीः पशूनिचन्नण्वन्तानित्युभयमेव सम्राडिति होवाच
यत्ते कश्चिदब्रवीत्तचृणवामेति
१४/६/१०/२
अब्रवीन्म उदङ्कः शौल्वायनः प्राणो वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तचौल्वायनोऽब्रवीत्प्राणो वै ब्रह्मेत्यप्राणतो
हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा
एतत्सम्राडिति
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तचौल्वायनोऽब्रवीत्प्राणो वै ब्रह्मेत्यप्राणतो
हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा
एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/३
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य स एवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रियमित्येनदुपासीत का
प्रियता याज्ञवल्क्य प्राण एव सम्राडिति होवाच प्राणस्य वै सम्राट्कामायायाज्यं
याजयत्यप्रतिगृह्यस्य प्रतिगृह्णात्यपि तत्र वधाशङ्गा भवति यां दिशमेति
प्राणस्यैव सम्राट्कामाय प्राणो वै सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं प्राणो जहाति
सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
प्रियता याज्ञवल्क्य प्राण एव सम्राडिति होवाच प्राणस्य वै सम्राट्कामायायाज्यं
याजयत्यप्रतिगृह्यस्य प्रतिगृह्णात्यपि तत्र वधाशङ्गा भवति यां दिशमेति
प्राणस्यैव सम्राट्कामाय प्राणो वै सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं प्राणो जहाति
सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/४
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृषभं सहस्रं ददामीति
होवाच जनको वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति क एव ते किमब्रवीदिति
होवाच जनको वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति क एव ते किमब्रवीदिति
१४/६/१०/५
अब्रवीन्मे जित्वा शैलिनो वाग्वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा
तचैलिनोऽब्रवीद्वाग्वै ब्रह्मेत्यववदतो हि किं स्यादब्रवीत्तु ते तस्यायतनम्
प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
तचैलिनोऽब्रवीद्वाग्वै ब्रह्मेत्यववदतो हि किं स्यादब्रवीत्तु ते तस्यायतनम्
प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/६
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य वागेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रज्ञेत्येनदुपासीत का
प्रज्ञता याज्ञवल्क्य वागेव सम्राडिति होवाच वाचा वै सम्राड्बन्धुः प्रज्ञायत
ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः
सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि वाचैव सम्राट्प्रज्ञायन्ते वाग्वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं वाग्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
प्रज्ञता याज्ञवल्क्य वागेव सम्राडिति होवाच वाचा वै सम्राड्बन्धुः प्रज्ञायत
ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः
सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि वाचैव सम्राट्प्रज्ञायन्ते वाग्वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं वाग्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/७
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ>
१४/६/१०/८
अब्रवीन्मे वर्कुवार्ष्णः चक्षुर्वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तद्वार्ष्णोऽब्रवीच्चक्षुर्वै ब्रह्मेत्यपश्यतो
हि किं स्यादब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा
एतत्सम्राडिति
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तद्वार्ष्णोऽब्रवीच्चक्षुर्वै ब्रह्मेत्यपश्यतो
हि किं स्यादब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा
एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/९
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य चक्षुरेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा
सत्यमित्येनदुपासीत का सत्यता याज्ञवल्क्य चक्षुरेव सम्राडिति होवाच चक्षुषा
वै सम्राट्पश्यन्तमाहुरद्राक्षीरिति स आहाद्राक्षमिति तत्सत्यं भवति चक्षुर्वै
सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं चक्षुर्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
सत्यमित्येनदुपासीत का सत्यता याज्ञवल्क्य चक्षुरेव सम्राडिति होवाच चक्षुषा
वै सम्राट्पश्यन्तमाहुरद्राक्षीरिति स आहाद्राक्षमिति तत्सत्यं भवति चक्षुर्वै
सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं चक्षुर्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१०
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ
१४/६/१०/११
अब्रवीन्मे गर्दभीविपीतो भारद्वाजः श्रोत्रं वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तद्भारद्वाजोऽब्रवीच्रोत्रं वै
ब्रह्मेत्यशृण्वतो हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तद्भारद्वाजोऽब्रवीच्रोत्रं वै
ब्रह्मेत्यशृण्वतो हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/१२
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य श्रोत्रमेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठानन्त इत्येनदुपासीत
कानन्तता याज्ञवल्क्य दिश एव सम्राडिति होवाच तस्माद्वै सम्राड्यां कां च दिशं
गचति नैवास्या अन्तं गचत्यनन्ता हि दिशः श्रोत्रं हि दिशः श्रोत्रं वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं श्रोत्रं जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
कानन्तता याज्ञवल्क्य दिश एव सम्राडिति होवाच तस्माद्वै सम्राड्यां कां च दिशं
गचति नैवास्या अन्तं गचत्यनन्ता हि दिशः श्रोत्रं हि दिशः श्रोत्रं वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं श्रोत्रं जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१३
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ>
१४/६/१०/१४
अब्रवीन्मे सत्यकामो जावालो मनो वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तत्सत्यकामोऽब्रवीन्मनो वै
ब्रह्मेत्यमनसो हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तत्सत्यकामोऽब्रवीन्मनो वै
ब्रह्मेत्यमनसो हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/१५
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य मन एवायतनमाकाशः प्रतिष्ठानन्द इत्येनदुपासीत
कानन्दता याज्ञवल्क्य मन एव सम्राडिति होवाच मनसा वै सम्राट्
स्त्रियमभिहर्यति तस्यां प्रतिरूपः पुत्रो जायते स आनन्दो मनो वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं मनो जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
कानन्दता याज्ञवल्क्य मन एव सम्राडिति होवाच मनसा वै सम्राट्
स्त्रियमभिहर्यति तस्यां प्रतिरूपः पुत्रो जायते स आनन्दो मनो वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं मनो जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१६
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ>
१४/६/१०/१७
अब्रवीन्मे विदग्धः शाकल्यो हृदयं वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तचाकल्योऽब्रवीद्धृदयं वै
ब्रह्मेत्यहृदयस्य हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तचाकल्योऽब्रवीद्धृदयं वै
ब्रह्मेत्यहृदयस्य हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/१८
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य हृदयमेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा
स्थितिरित्येनदुपासीत का स्थितिता याज्ञवल्क्य हृदयमेव सम्राडिति होवाच हृदयं
वै सम्राट्सर्वेषां भूतानां प्रतिष्ठा हृदयेन हि सर्वाणि भूतानि प्रतितिष्ठन्ति
हृदयं वै सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं हृदयं जहाति सर्वाण्येनम्
भूतान्यभिक्षरन्ति
स्थितिरित्येनदुपासीत का स्थितिता याज्ञवल्क्य हृदयमेव सम्राडिति होवाच हृदयं
वै सम्राट्सर्वेषां भूतानां प्रतिष्ठा हृदयेन हि सर्वाणि भूतानि प्रतितिष्ठन्ति
हृदयं वै सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं हृदयं जहाति सर्वाण्येनम्
भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१९
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृषभं सहस्रं ददामीति
होवाच जनको वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति
होवाच जनको वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति
१४/६/११/१
अथ ह जनको वैदेहः कूर्चादुपावसर्पन्नुवाच नमस्ते याज्ञवल्क्यानु मा
शाधीति स होवाच यथा वै सम्राण्महान्तमध्वानमेष्यन्रथं वा नावं वा
समाददीतैवमेवैताभिरुपनिषद्भिः समाहितात्मास्येवं वृन्दारक आढ्यः
सन्नधीतवेद उक्तोपनिषत्क इतो विमुच्यमानः क्व गमिष्यसीति नाहं
तद्भगवन्वेद यत्र गमिष्यामीत्यथ वै तेऽहं तद्वक्ष्यामि यत्र गमिष्यसीति
ब्रवीतु भगवानिति
शाधीति स होवाच यथा वै सम्राण्महान्तमध्वानमेष्यन्रथं वा नावं वा
समाददीतैवमेवैताभिरुपनिषद्भिः समाहितात्मास्येवं वृन्दारक आढ्यः
सन्नधीतवेद उक्तोपनिषत्क इतो विमुच्यमानः क्व गमिष्यसीति नाहं
तद्भगवन्वेद यत्र गमिष्यामीत्यथ वै तेऽहं तद्वक्ष्यामि यत्र गमिष्यसीति
ब्रवीतु भगवानिति
१४/६/११/२
स होवाच इन्धो वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तं वा एतमिन्धं
सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोऽक्षेणेव परोऽक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः
सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोऽक्षेणेव परोऽक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः
१४/६/११/३
अथैतद्वामेऽक्षिणि पुरुषरूपम् एषास्य पत्नी विराट्तयोरेष संस्तावो य
एषोऽन्तर्हृदय आकाशोऽथैनयोरेतदन्नं य एषोऽन्तर्हृदये
लोहितपिण्डोऽथैनयोरेतत्प्रावरणं यदेतदन्तर्हृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः
सती संचरणी यैषा हृदयादूर्ध्वां नाड्युच्चरति
एषोऽन्तर्हृदय आकाशोऽथैनयोरेतदन्नं य एषोऽन्तर्हृदये
लोहितपिण्डोऽथैनयोरेतत्प्रावरणं यदेतदन्तर्हृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः
सती संचरणी यैषा हृदयादूर्ध्वां नाड्युच्चरति
१४/६/११/४
ता वा अस्यैताः हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्न एताभिर्वा
एतमास्रवदास्रवति तस्मादेष प्रविविक्ताहारतर इव भवत्यस्माचारीरादात्मनः
एतमास्रवदास्रवति तस्मादेष प्रविविक्ताहारतर इव भवत्यस्माचारीरादात्मनः
१४/६/११/५
तस्या वा एतस्य पुरुषस्य प्राची दिक्प्राञ्चः प्राणा दक्षिणा दिग्दक्षिणाः प्राणाः
प्रतीची दिक्प्रत्यञ्चः प्राणा उदीची दिगुदञ्चः प्राणा ऊ ऊर्ध्वा दिगूर्ध्वाः प्राणा
अवाची
दिगवाञ्चः प्राणा सर्वा दिशः सर्वे प्राणाः
प्रतीची दिक्प्रत्यञ्चः प्राणा उदीची दिगुदञ्चः प्राणा ऊ ऊर्ध्वा दिगूर्ध्वाः प्राणा
अवाची
दिगवाञ्चः प्राणा सर्वा दिशः सर्वे प्राणाः
१४/६/११/६
स एष नेति नेत्यात्मा अगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गोऽसितो न सज्यते न
व्यथतेऽभयं वै जनक प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः स होवाच जनको वैदेहो
नमस्ते याज्ञवल्क्याभयं त्वागचताद्यो नो भगवन्नभयं वेदयस इमे विदेहा
अयमहमस्मीति
व्यथतेऽभयं वै जनक प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः स होवाच जनको वैदेहो
नमस्ते याज्ञवल्क्याभयं त्वागचताद्यो नो भगवन्नभयं वेदयस इमे विदेहा
अयमहमस्मीति
१४/७/१/१
जनकं ह वैदेहं याज्ञवल्क्यो जगाम समेनेन वदिष्य इत्यथ ह यज्जनकश्च
वैदेहो याज्ञवल्क्यश्चाग्निहोत्रे समूदतुस्तस्मै ह याज्ञवल्क्यो वरं ददौ स ह
कामप्रश्नमेव वव्रे तं हास्मै ददौ तं ह सम्राडेव पूर्वः पप्रच
वैदेहो याज्ञवल्क्यश्चाग्निहोत्रे समूदतुस्तस्मै ह याज्ञवल्क्यो वरं ददौ स ह
कामप्रश्नमेव वव्रे तं हास्मै ददौ तं ह सम्राडेव पूर्वः पप्रच
१४/७/१/२
याज्ञवल्क्य किंज्योतिरयं पुरुष इति आदित्यज्योतिः सम्राडिति होवाचादित्येनैवायं
ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते उइपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते उइपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/३
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य किंज्योतिरेवायं पुरुष इति चन्द्रज्योतिः सम्राडिति
होवाच चन्द्रेणैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
होवाच चन्द्रेणैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/४
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते किंज्योतिरेवायं पुरुष
इत्यग्निज्योतिः सम्राडिति होवाचाग्निनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
इत्यग्निज्योतिः सम्राडिति होवाचाग्निनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/५
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ किंज्योतिरेवायं पुरुष
इति वाग्ज्योतिः सम्राडिति होवाच वाचैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीति तस्माद्वै सम्राडपि यत्र स्वः पाणिर्न विनिर्ज्ञायतेऽथ यत्र
वागुच्चरत्युपैव तत्र ण्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/६
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां वाचि
किंज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मज्योतिः सम्राडिति होवाचात्मनैवायं ज्योतिषास्ते
पल्ययते कर्म कुरुते विपर्येतीति
किंज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मज्योतिः सम्राडिति होवाचात्मनैवायं ज्योतिषास्ते
पल्ययते कर्म कुरुते विपर्येतीति
१४/७/१/७
कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः पुरुषः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः स समानः
सन्नुभौ लोकौ संचरति ध्यायतीव लेलायतीव सधीः स्वप्नो भूत्वेमं
लोकमतिक्रामति
सन्नुभौ लोकौ संचरति ध्यायतीव लेलायतीव सधीः स्वप्नो भूत्वेमं
लोकमतिक्रामति
१४/७/१/८
स वा अयं पुरुषो जायमानः शरीरमभिसम्पद्यमानः पाप्मभिः संसृज्यते स
उत्क्रामन्म्रियमाणः पाप्मनो विजहाति मृत्यो रूपाणि
उत्क्रामन्म्रियमाणः पाप्मनो विजहाति मृत्यो रूपाणि
१४/७/१/९
तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत इदं च परलोकस्थानं च
संध्यं तृतीयं स्वप्नस्थानं तस्मिन्त्संध्ये स्थाने तिष्ठन्नुभे स्थाने
पश्यतीदं च परलोकस्थानं च
संध्यं तृतीयं स्वप्नस्थानं तस्मिन्त्संध्ये स्थाने तिष्ठन्नुभे स्थाने
पश्यतीदं च परलोकस्थानं च
१४/७/१/१०
अथ यथाक्रमोऽयं परलोकस्थाने भवति तमाक्रममाक्रम्योभयान्पाप्मन
आनन्दांश्च पश्यति स यत्रायं प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय
स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुषः
स्वयंज्योतिर्भवति
आनन्दांश्च पश्यति स यत्रायं प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय
स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुषः
स्वयंज्योतिर्भवति
१४/७/१/११
न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्ति अथ रथान्रथयोगान्पथः
सृजते न तत्रानन्दा मुदः प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुदः प्रमुदः सृजते न
तत्र वेशान्ताः स्रवन्त्यः पुष्करिण्यो भवन्त्यथ वेशान्ताः स्रवन्तीः पुष्करिणीः
सृजते स हि कर्ता
सृजते न तत्रानन्दा मुदः प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुदः प्रमुदः सृजते न
तत्र वेशान्ताः स्रवन्त्यः पुष्करिण्यो भवन्त्यथ वेशान्ताः स्रवन्तीः पुष्करिणीः
सृजते स हि कर्ता
१४/७/१/१२
तदप्येते श्लोकाः स्वप्नेन शारीरमभिप्रहत्यासुप्तः सुप्तानभिचाकशीति
शुक्रमादाय पुनरैति स्थानं हिरण्मयः पौरुष एकहंसः
शुक्रमादाय पुनरैति स्थानं हिरण्मयः पौरुष एकहंसः
१४/७/१/१३
प्राणेन रक्षन्नपरं कुलायं बहिष्कुलायादमृतश्चरित्वा स ईयते अमृतो
यत्रकामं हिरण्मयः पौरुष एकहंसः
यत्रकामं हिरण्मयः पौरुष एकहंसः
१४/७/१/१४
स्वप्नान्त उच्चावचमीयमानो रूपाणि देवः कुरुते बहूनिउतेव स्त्रीभिः सह
मोदमानो जक्षदुतेवापि भयानि पश्यन्
मोदमानो जक्षदुतेवापि भयानि पश्यन्
१४/७/१/१५
आराममस्य पश्यन्ति न तं कश्चन पश्यतीति तं नायतम्
बोधयेदित्याहुर्दुर्भिषज्यं हास्मै भवति यमेष न प्रतिपद्यते
बोधयेदित्याहुर्दुर्भिषज्यं हास्मै भवति यमेष न प्रतिपद्यते
१४/७/१/१६
अथो खल्वाहुः जागरितदेश एवास्यैष यानि ह्येव जाग्रत्पश्यति तानि सुप्त इत्यत्रायम्
पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं
ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति
पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं
ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/१७
स वा एष एतस्मिन्त्स्वप्नान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुनः
प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यदत्र
किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यदत्र
किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/१८
तद्यथा महामत्स्यः उभे कूले अनुसंचरति पूर्वं चापरं चैवमेवायम्
पुरुष एता उभावन्तावनुसंचरति स्वप्नान्तं च बुद्धान्तं च
पुरुष एता उभावन्तावनुसंचरति स्वप्नान्तं च बुद्धान्तं च
१४/७/१/१९
तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः संहत्य पक्षौ
सल्लयायैव ध्रियत एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कं
चन कामं कामयते न कं चन स्वप्नं पश्यति
सल्लयायैव ध्रियत एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कं
चन कामं कामयते न कं चन स्वप्नं पश्यति
१४/७/१/२०
ता वा अस्यैता हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्नस्तावताणिम्ना तिष्ठन्ति
शुक्लस्य नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णा अथ यत्रैनं घ्नन्तीव
जिनन्तीव हस्तीव विचाययति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद्भयं पश्यति
तदत्राविद्यया भयं मन्यतेऽथ यत्र राजेव देवैवाहमेवेदं सर्वमस्मीति
मन्यते सोऽस्य परमो लोकोऽथ यत्र सुप्तो न कं चन कामं कामयते न कं
चन स्वप्नं पश्यति
शुक्लस्य नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णा अथ यत्रैनं घ्नन्तीव
जिनन्तीव हस्तीव विचाययति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद्भयं पश्यति
तदत्राविद्यया भयं मन्यतेऽथ यत्र राजेव देवैवाहमेवेदं सर्वमस्मीति
मन्यते सोऽस्य परमो लोकोऽथ यत्र सुप्तो न कं चन कामं कामयते न कं
चन स्वप्नं पश्यति
१४/७/१/२१
तद्वा अस्यैतत् आत्मकाममाप्तकाममकामं रूपं तद्यथा प्रियया स्त्रिया
सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नान्तरमेवमेवायं शारीर आत्मा
प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नान्तरम्
सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नान्तरमेवमेवायं शारीर आत्मा
प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नान्तरम्
१४/७/१/२२
तद्वा अस्यैतत् अतिचन्दोऽपहतपाप्माभयं रूपमशोकान्तरमत्र पितापिता भवति
मातामाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा यज्ञा अयज्ञा अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति
भ्रूणहाभ्रूणहा पौल्कसोऽपौल्कसश्चाण्डालो चाण्डालः श्रमणोऽश्रमणस्तापसो
तापसोऽनन्वागतः पुण्येनान्वागतः पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्चोकान्हृदयस्य
भवति
मातामाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा यज्ञा अयज्ञा अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति
भ्रूणहाभ्रूणहा पौल्कसोऽपौल्कसश्चाण्डालो चाण्डालः श्रमणोऽश्रमणस्तापसो
तापसोऽनन्वागतः पुण्येनान्वागतः पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्चोकान्हृदयस्य
भवति
१४/७/१/२३
यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तद्द्रष्टव्यं न पश्यति न हि
द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यत्पश्येत्
द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यत्पश्येत्
१४/७/१/२४
यद्वै तन्न जिघ्रति जिघ्रन्वै तद्घ्रातव्यं न जिघ्रति न हि
घ्रातुर्घ्राणाद्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यज्जिघ्रेत्
घ्रातुर्घ्राणाद्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यज्जिघ्रेत्
१४/७/१/२५
यद्वै तन्न रसयति विजानन्वै तद्रसं न रसयति न हि रसयितू रसाद्विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्रसयेत्
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्रसयेत्
१४/७/१/२६
यद्वै तन्न वदति वदन्वै तद्वक्तव्यं न वदति न हि वक्तुर्वचो विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्वदेत्
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्वदेत्
१४/७/१/२७
यद्वै तन्न शृणोति शृण्वन्वै तच्रोतव्यं न शृणोति न हि श्रोतुः श्रुतेर्विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यचृणुयात्
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यचृणुयात्
१४/७/१/२८
यद्वै तन्न मनुते मन्वानो वै तन्मन्तव्यं न मनुते न हि
मन्तुर्मतेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्तिततोऽन्यद्विभक्तं
यन्मन्वीत
मन्तुर्मतेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्तिततोऽन्यद्विभक्तं
यन्मन्वीत
१४/७/१/२९
यद्वै तन्न स्पृशति स्पृशन्वै तत्स्प्रष्टव्यं न स्पृशति न हि स्प्रष्टु
स्पृष्टेर्विपरिलोपोऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्स्पृशेत्
स्पृष्टेर्विपरिलोपोऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्स्पृशेत्
१४/७/१/३०
यद्वै तन्न विजानाति विजानन्वै तद्विज्ञेयं न विजानाति न हि
विज्ञातुर्विज्ञानाद्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यद्विजानीयात्
विज्ञातुर्विज्ञानाद्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यद्विजानीयात्
१४/७/१/३१
सलिल एको द्रष्टाद्वैतो भवति एष ब्रह्मलोकः सम्राडिति हैनमुवाचैषास्य
परमो लोक एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि
मात्रामुपजीवन्ति
परमो लोक एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि
मात्रामुपजीवन्ति
१४/७/१/३२
स यो मनुष्याणां रुद्धः समृद्धो भवति अन्येषामधिपतिः
सर्वैर्मानुष्यकैः कामैः सम्पन्नतमः स मनुष्याणां परम आनन्दः
सर्वैर्मानुष्यकैः कामैः सम्पन्नतमः स मनुष्याणां परम आनन्दः
१४/७/१/३३
अथ ये शतं मनुष्याणामानन्दाः स एकः पितॄणां जितलोकानामानन्दः
१४/७/१/३४
अथ ये शतं पितॄणां जितलोकानामानन्दाः स एकः कर्मदेवानामानन्दो ये
कर्मणा
देवत्वमभिसम्पद्यन्ते
कर्मणा
देवत्वमभिसम्पद्यन्ते
१४/७/१/३५
अथ ये शतं कर्मदेवानामानन्दाः स एक आजानदेवानामानन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
१४/७/१/३६
अथ ये शतमाजानदेवानामानन्दाः स एको देवलोक आनन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
१४/७/१/३७
अथ ये शतं देवलोक आनन्दाः स एको गन्धर्वलोक आनन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
१४/७/१/३८
अथ ये शतं गन्धर्वलोक आनन्दाः स एकः प्रजापतिलोक आनन्दाः स एको
ब्रह्मलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहत एष ब्रह्मलोकः सम्राडिति
हैनमनुशशासैतदमृतं सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
ब्रह्मलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहत एष ब्रह्मलोकः सम्राडिति
हैनमनुशशासैतदमृतं सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/३९
स वा एष एतस्मिन्त्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुनः
प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यदत्र
किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यदत्र
किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/४०
अत्र ह याज्ञवल्क्यो बिभयां चकार मेधावी राजा सर्वेभ्यो मान्तेभ्य
उदरौत्सीदिति स यत्राणिमानं न्येति जरया वोपतपता वाणिमानं निगचति यथाम्रं
वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा बन्धनात्प्रमुच्येतैवमेवायं शारीर
आत्मैभ्योऽङ्गेभ्यः सम्प्रमुच्य पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति प्राणायैव
उदरौत्सीदिति स यत्राणिमानं न्येति जरया वोपतपता वाणिमानं निगचति यथाम्रं
वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा बन्धनात्प्रमुच्येतैवमेवायं शारीर
आत्मैभ्योऽङ्गेभ्यः सम्प्रमुच्य पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति प्राणायैव
१४/७/१/४१
तद्यथानः सुसमाहितम् उत्सर्जद्यायादेवमेवायं शारीर आत्मा
प्राज्ञेनात्मनान्वारूढ उत्सर्जद्याति
प्राज्ञेनात्मनान्वारूढ उत्सर्जद्याति
१४/७/१/४२
तद्यथा राजानमायन्तम् उग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्योऽन्नैः पानैरावसथैः
प्रतिकल्पन्तेऽयमायात्ययमागचतीत्येवं हैवंविदं सर्वाणि भूतानि प्रतिकल्पन्त
इदं ब्रह्मायातीदमागचतीति
प्रतिकल्पन्तेऽयमायात्ययमागचतीत्येवं हैवंविदं सर्वाणि भूतानि प्रतिकल्पन्त
इदं ब्रह्मायातीदमागचतीति
१४/७/१/४३
तद्यथा राजानं प्रयियासन्तम् उग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्य उपसमायन्त्येवं
हैवंविदं सर्वे प्राणा उपसमायन्ति यत्रैतदूर्ध्वोच्वासी भवति
हैवंविदं सर्वे प्राणा उपसमायन्ति यत्रैतदूर्ध्वोच्वासी भवति
१४/७/२/१
स यत्रायं शारीर आत्माबल्यं नीत्य सम्मोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा
अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति
अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति
१४/७/२/२
स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ्पर्यावर्ततेऽथारूपजो भवत्येकीभवति न
पश्यतीत्याहुरेकीभवति न रसयतीत्याहुरेकीभवति न वदतीत्याहुरेकीभवति न
शृणोतीत्याहुरेकीभवति न मनुत इत्याहुरेकीभवति न स्पृशतीत्याहुरेकीभवति न
विजानातीत्याहुः
पश्यतीत्याहुरेकीभवति न रसयतीत्याहुरेकीभवति न वदतीत्याहुरेकीभवति न
शृणोतीत्याहुरेकीभवति न मनुत इत्याहुरेकीभवति न स्पृशतीत्याहुरेकीभवति न
विजानातीत्याहुः
१४/७/२/३
तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति
चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वान्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तम्
प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति
संज्ञानमेवान्ववक्रामति स एष ज्ञः सविज्ञानो भवति तं विद्याकर्मणी
समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च
चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वान्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तम्
प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति
संज्ञानमेवान्ववक्रामति स एष ज्ञः सविज्ञानो भवति तं विद्याकर्मणी
समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च
१४/७/२/४
तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वात्मानमुपसंहरत्येवमेवायं पुरुष
इदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वात्मानमुपसंहरति
इदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वात्मानमुपसंहरति
१४/७/२/५
तद्यथा पेशस्कारी पेशसो मात्रामपादायान्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं तनुत
एवमेवायं पुरुष इदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यन्नवतरं रूपं
तनुते पित्र्यं वा गन्धर्वं वा ब्राह्मं वा प्राजापत्यं वा दैवं वा मानुषं
वान्येभ्यो वा भूतेभ्यः
एवमेवायं पुरुष इदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यन्नवतरं रूपं
तनुते पित्र्यं वा गन्धर्वं वा ब्राह्मं वा प्राजापत्यं वा दैवं वा मानुषं
वान्येभ्यो वा भूतेभ्यः
१४/७/२/६
स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयो वाङ्मयः
प्राणमयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमय आकाशमयो वायुमयस्तेजोमय आपोमयः
पृथिवीमयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो हर्षमयोऽहर्षमयो
धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयस्तद्यदेदम्मयोऽदोमय इति यथाकारी
यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः
पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति
प्राणमयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमय आकाशमयो वायुमयस्तेजोमय आपोमयः
पृथिवीमयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो हर्षमयोऽहर्षमयो
धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयस्तद्यदेदम्मयोऽदोमय इति यथाकारी
यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः
पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति
१४/७/२/७
अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति
तथाक्रतुर्भवति यथाक्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते
तदभिसम्पद्यत इति
तथाक्रतुर्भवति यथाक्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते
तदभिसम्पद्यत इति
१४/७/२/८
तदेष श्लोको भवति तदेव सत्तत्सह कर्मणैति लिङ्गं मनो यत्र निषक्तमस्य
प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किं चेह करोत्ययम् तस्माल्लोकात्पुनरैत्यस्मै लोकाय
कर्मण इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो योऽकामो निष्काम आत्मकाम आप्तकामो
भवति न तस्मात्प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवनीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति
प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किं चेह करोत्ययम् तस्माल्लोकात्पुनरैत्यस्मै लोकाय
कर्मण इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो योऽकामो निष्काम आत्मकाम आप्तकामो
भवति न तस्मात्प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवनीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति
१४/७/२/९
तदेष श्लोको भवति यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः अथ
मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुत इति
मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुत इति
१४/७/२/१०
तद्यथाहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदं शरीरं
शेतेऽथायमनस्थिकोऽशरीरः प्राज्ञ आत्मा ब्रह्मैव लोक एव सम्राडिति होवाच
याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः
शेतेऽथायमनस्थिकोऽशरीरः प्राज्ञ आत्मा ब्रह्मैव लोक एव सम्राडिति होवाच
याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः
१४/७/२/११
तदप्येते श्लोकाः अणुः पन्था वितरः पुराणो मांस्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव तेन धीरा
अपियन्ति ब्रह्मविद उत्क्रम्य स्वर्गं लोकमितो विमुक्ताः
अपियन्ति ब्रह्मविद उत्क्रम्य स्वर्गं लोकमितो विमुक्ताः
१४/७/२/१२
तस्मिञ्चुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं चएष पन्था ब्रह्मणा
हानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्तैजसः पुण्यकृच्च
हानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्तैजसः पुण्यकृच्च
१४/७/२/१३
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ततो भूय इव ते तमो य उ
सम्भूत्यां रताः
सम्भूत्यां रताः
१४/७/२/१४
असुर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः तांस्ते प्रेत्यापिगचन्त्यविद्वांसोऽबुधा
जनाः
जनाः
१४/७/२/१५
तदेव सन्तस्तदु तद्भवामो न चेदवेदी महती विनष्टिःये तद्विदुरमृतास्ते
भवन्त्यथेतरे दुःखमेवोपयन्ति
भवन्त्यथेतरे दुःखमेवोपयन्ति
१४/७/२/१६
आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पुरुषः किमिचन्कस्य कामाय शरीरमनु
संचरेत्
संचरेत्
१४/७/२/१७
यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आत्मास्मिन्त्संदेहे गहने प्रविष्टः स विश्वकृत्स ह
सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव
सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव
१४/७/२/१८
यदैतमनुपश्यति आत्मानं देवमञ्जसा ईशानं भूतभव्यस्य न तदा विचिकित्सति
१४/७/२/१९
यस्मिन्पञ्च पञ्चजनाः आकाशश्च प्रतिष्ठितः तमेव मन्य आत्मानं
विद्वान्ब्रह्मामृतोऽमृतम्
विद्वान्ब्रह्मामृतोऽमृतम्
१४/७/२/२०
यस्मादर्वाक्षंवत्सरोऽहोभिः परिवर्तते तद्देवा ज्योतिषां
ज्योतिरायुर्ह्योपासतेऽमृतम्
ज्योतिरायुर्ह्योपासतेऽमृतम्
१४/७/२/२१
प्राणस्य प्राणम् उत चक्षुषश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रमन्नस्यान्नं मनसो ये
मनो विदुः ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्र्यं मनसैवाप्तव्यं नेह नानास्ति किं
चन
मनो विदुः ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्र्यं मनसैवाप्तव्यं नेह नानास्ति किं
चन
१४/७/२/२२
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति
मनसैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम्
मनसैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम्
१४/७/२/२३
विरजः पर आकाशात् अज आत्मा महा ध्रुवः तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत
ब्राह्मणः नानुध्यायाद्बहूञ्चब्दान्वाचो विग्लापनं हि तदिति
ब्राह्मणः नानुध्यायाद्बहूञ्चब्दान्वाचो विग्लापनं हि तदिति
१४/७/२/२४
स वा अयमात्मा सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति
यदिदं किं च स न साधुना कर्मणा भूयान्नोऽेवासाधुना कनीयानेष
भूताधिपतिरेष लोकेश्वर एष लोकपालः स सेतुर्विधरण एषां
लोकानामसम्भेदाय
यदिदं किं च स न साधुना कर्मणा भूयान्नोऽेवासाधुना कनीयानेष
भूताधिपतिरेष लोकेश्वर एष लोकपालः स सेतुर्विधरण एषां
लोकानामसम्भेदाय
१४/७/२/२५
तमेतं वेदानुवचनेन विविदिषन्ति ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया
यज्ञेनानाशकेन चैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव प्रव्राजिनो लोकमीप्सन्तः
प्रव्रजन्ति
यज्ञेनानाशकेन चैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव प्रव्राजिनो लोकमीप्सन्तः
प्रव्रजन्ति
१४/७/२/२६
एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे ब्राह्मणाः अनूचाना विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किम्
प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक इति ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च
वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव
पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः
प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक इति ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च
वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव
पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः
१४/७/२/२७
स एष नेति नेत्यात्मा अगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गोऽसितो न सज्यते न
व्यथत इत्यतः पापमकरवमित्यतः कल्याणमकरवमित्युभे उभे ह्येष एते
तरत्यमृतः साध्वसाधुनी नैनं कृताकृते तपतो नास्य केन चन कर्मणा लोको
मीयते
व्यथत इत्यतः पापमकरवमित्यतः कल्याणमकरवमित्युभे उभे ह्येष एते
तरत्यमृतः साध्वसाधुनी नैनं कृताकृते तपतो नास्य केन चन कर्मणा लोको
मीयते
१४/७/२/२८
तदेतदृचाभ्युक्तम् एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणा वर्धते नो
कनीयान् तस्यैव स्यात्पदवित्तं विद्वित्वा न कर्मणा लिप्यते पापकेनेति
तस्मादेवंविच्रान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः श्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानम्
पश्येत्सर्वमेनं पश्यति सर्वोऽस्यात्मा भवति सर्वस्यात्मा भवति सर्वम्
पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तपति नैनं पाप्मा तपति
विपापो विजरो विजिघत्सोऽपिपासो ब्राह्मणो भवति य एवं वेद
कनीयान् तस्यैव स्यात्पदवित्तं विद्वित्वा न कर्मणा लिप्यते पापकेनेति
तस्मादेवंविच्रान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः श्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानम्
पश्येत्सर्वमेनं पश्यति सर्वोऽस्यात्मा भवति सर्वस्यात्मा भवति सर्वम्
पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तपति नैनं पाप्मा तपति
विपापो विजरो विजिघत्सोऽपिपासो ब्राह्मणो भवति य एवं वेद
१४/७/२/२९
स वा एष महानज आत्मा अन्नादो वसुदानः स यो हैवमेतम्
महान्तमजमात्मानमन्नादं वसुदानं वेद विन्दतेवसु
महान्तमजमात्मानमन्नादं वसुदानं वेद विन्दतेवसु
१४/७/२/३०
स वा एष महानज आत्मा अजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं वै जनक
प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि मां चापि सह
दास्यायेति
प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि मां चापि सह
दास्यायेति
१४/७/२/३१
स वा एष महानज आत्मा अजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं वै ब्रह्माभयं
हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद
हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद
१४/७/३/१
अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुः मैत्रेयी च कात्यायनी च तयोर्ह
मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव स्त्रीप्रज्ञेव कात्यायनी
सोऽन्यद्वृत्तमुपाकरिष्यमाणः
मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव स्त्रीप्रज्ञेव कात्यायनी
सोऽन्यद्वृत्तमुपाकरिष्यमाणः
१४/७/३/२
याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीति होवाच प्रव्रजिष्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि हन्त
तेऽनया कात्यायन्यान्तं करवाणीति
तेऽनया कात्यायन्यान्तं करवाणीति
१४/७/३/३
सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्स्यां
न्वहं तेनामृताहो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं
तथैव ते जीवितं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति
न्वहं तेनामृताहो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं
तथैव ते जीवितं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति
१४/७/३/४
सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां यदेव भगवान्वेद
तदेव मे ब्रूहीति
तदेव मे ब्रूहीति
१४/७/३/५
स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया खलु नो भवती सती प्रियमवृतद्धन्त खलु
भवति तेऽहं तद्वक्ष्यामि व्याख्यास्यामि ते वाचं तु मे व्याचक्षाणस्य
निदिध्यासस्वेति ब्रवीतु भगवानिति
भवति तेऽहं तद्वक्ष्यामि व्याख्यास्यामि ते वाचं तु मे व्याचक्षाणस्य
निदिध्यासस्वेति ब्रवीतु भगवानिति
१४/७/३/६
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु
कामाय पतिः प्रियो भवति देवाः प्रिया भवन्ति न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः
प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय वेदाः प्रिया भवन्ति न वा अरे यज्ञानां कामाय
यज्ञाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय यज्ञाः प्रिया भवन्ति न वा अरे भूतानां
कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति न वा
अरे
सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियम्
भवत्यात्मा न्वरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनि
वा अरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्वं विदितम्
कामाय पतिः प्रियो भवति देवाः प्रिया भवन्ति न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः
प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय वेदाः प्रिया भवन्ति न वा अरे यज्ञानां कामाय
यज्ञाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय यज्ञाः प्रिया भवन्ति न वा अरे भूतानां
कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति न वा
अरे
सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियम्
भवत्यात्मा न्वरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनि
वा अरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्वं विदितम्
१४/७/३/७
ब्रह्म तं परादात् योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद वेदास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो
वेदान्वेद यज्ञास्तं परादुर्योन्यत्रात्मनो यज्ञान्वेद भूतानि तम्
परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं
वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमे वेदा इमे यज्ञा इमानि
भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा
वेदान्वेद यज्ञास्तं परादुर्योन्यत्रात्मनो यज्ञान्वेद भूतानि तम्
परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं
वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमे वेदा इमे यज्ञा इमानि
भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा
१४/७/३/८
स यथा दुन्दुभेर्हन्य>
१४/७/३/९
स यथा वीणायै>
१४/७/३/१०
स यथा शङ्खस्य>
१४/७/३/११
स यथार्द्रैधाग्नेर> सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि दत्तं हुतमाशितम्
पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि
स यथार्द्रैधाग्नेर> सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि दत्तं हुतमाशितम्
पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि
१४/७/३/१२
स यथा सर्वासामपां समुद्र एकायन>
१४/७/३/१३
स यथा सैन्धवघनो अनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसघन एव स्यादेवं वा अर
इदं महद्भूतमनन्तमपारं कृत्स्नः प्रज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः
समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच
याज्ञवल्क्यः
इदं महद्भूतमनन्तमपारं कृत्स्नः प्रज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः
समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच
याज्ञवल्क्यः
१४/७/३/१४
सा होवाच मैत्रेयी अत्रैव मा भगवान्मोहान्तमापीपदन्न वा अहमिदं विजानामि
न प्रेत्य संज्ञास्तीति
न प्रेत्य संज्ञास्तीति
१४/७/३/१५
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यविनाशी वा अरे
यमात्मानुच्चित्तिधर्मा मात्रासंसर्गस्त्वस्य भवति
यमात्मानुच्चित्तिधर्मा मात्रासंसर्गस्त्वस्य भवति
१४/७/३/१६
यद्वै तन्न पश्यति>
१४/७/३/१७
यद्वै तन्न जिघ्रति>
१४/७/३/१८
यद्वै तन्न रसयति
१४/७/३/१९
यद्वै तन्न वदति>
१४/७/३/२०
यद्वै तन्न शृणोति
१४/७/३/२१
यद्वै तन्न मनुते>
१४/७/३/२२
यद्वै तन्न स्पृशति
१४/७/३/२३
यद्वै तन्न विजानाति>
१४/७/३/२४
यत्र वा अन्यदिव स्यात्
तत्रान्योऽन्यत्पश्येदन्योऽन्यज्जिघ्रेदन्योऽन्यद्रसयेदन्योऽन्यदभिवदेदन्योऽन्यचृण्
उयादन्योऽन्यन्मन्वीतान्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात्
तत्रान्योऽन्यत्पश्येदन्योऽन्यज्जिघ्रेदन्योऽन्यद्रसयेदन्योऽन्यदभिवदेदन्योऽन्यचृण्
उयादन्योऽन्यन्मन्वीतान्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात्
१४/७/३/२५
यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन कं
रसयेत्तत्केन कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं
स्पृशेत्तत्केन कं विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे
केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रय्येतावदरे खल्वमृतत्वमिति होक्त्वा
याज्ञवल्क्यः प्रवव्राज
रसयेत्तत्केन कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं
स्पृशेत्तत्केन कं विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे
केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रय्येतावदरे खल्वमृतत्वमिति होक्त्वा
याज्ञवल्क्यः प्रवव्राज
१४/७/३/२६
अथ वंशः तदिदं वयं शौर्पणाय्याचौर्पणाय्यो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यो
वात्स्याच्च पाराशर्याच्च पाराशर्यः सांकृत्याच्च भारद्वाजाच्च भारद्वाज
औदवाहेश्च
शाण्डिल्याच्च शाण्डिल्यो वैजवापाच्च गौतमाच्च गौतमो वैजवापायनाच्च
वैष्टपुरेयाच्च वैष्टपुरेयः शाण्डिल्याच्च रौहिणायनाच्च रौहिणायनाच्च
रौहिणायनः शौनाकाच्च जैवन्तायनाच्च रैभ्याच्च रैभ्यः पौतिमाष्यायणाच्च
कौण्डिन्यायनाच्च कौण्डिन्यायनः कौण्डिन्याभ्यां कौण्डिन्या और्णवाभेभ्य
और्णवाभाः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्याच्चाग्निवेश्याच्च
वात्स्याच्च पाराशर्याच्च पाराशर्यः सांकृत्याच्च भारद्वाजाच्च भारद्वाज
औदवाहेश्च
शाण्डिल्याच्च शाण्डिल्यो वैजवापाच्च गौतमाच्च गौतमो वैजवापायनाच्च
वैष्टपुरेयाच्च वैष्टपुरेयः शाण्डिल्याच्च रौहिणायनाच्च रौहिणायनाच्च
रौहिणायनः शौनाकाच्च जैवन्तायनाच्च रैभ्याच्च रैभ्यः पौतिमाष्यायणाच्च
कौण्डिन्यायनाच्च कौण्डिन्यायनः कौण्डिन्याभ्यां कौण्डिन्या और्णवाभेभ्य
और्णवाभाः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्याच्चाग्निवेश्याच्च
१४/७/३/२७
आग्निवेश्यः सैतवात् सैतवः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च गौतमाच्च गौतमो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो वलाकाकौशिकाद्वलाकाकौशिकः काषायणात्काषायणः
सौकरायणात्सौकरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्घनेरौपजन्घनिः
सायकायनात्सायकायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिर्घृतकौशिकाद्घृतकौशिकः
पाराशर्यायणात्पाराशर्यायणः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च
यास्काच्चासुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्घनेरौपजन्घनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजा
द्भार्द्वाज आत्रेयात्
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च गौतमाच्च गौतमो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो वलाकाकौशिकाद्वलाकाकौशिकः काषायणात्काषायणः
सौकरायणात्सौकरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्घनेरौपजन्घनिः
सायकायनात्सायकायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिर्घृतकौशिकाद्घृतकौशिकः
पाराशर्यायणात्पाराशर्यायणः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च
यास्काच्चासुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्घनेरौपजन्घनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजा
द्भार्द्वाज आत्रेयात्
१४/७/३/२८
आत्रेयो माण्टेः माण्टिर्गौतमाद्गौतमो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यः
शाण्डिल्याचाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात्कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात्कुमारहारितो
गालवाद्गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो
बाभ्रवाद्वत्सनपाद्बाभ्रवः पथः सौभरात्पन्थाः
सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो
विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच
आथर्वणाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वंसनान्मृत्युः प्राध्वंसनः प्रध्वंसनात्प्रध्वंसन
एकर्षेरेकर्षिर्विप्रजित्तेर्विप्रजित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः सनारुः सनारुः
सनातनात्सनातनः सनगात्सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म
स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः
शाण्डिल्याचाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात्कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात्कुमारहारितो
गालवाद्गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो
बाभ्रवाद्वत्सनपाद्बाभ्रवः पथः सौभरात्पन्थाः
सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो
विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच
आथर्वणाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वंसनान्मृत्युः प्राध्वंसनः प्रध्वंसनात्प्रध्वंसन
एकर्षेरेकर्षिर्विप्रजित्तेर्विप्रजित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः सनारुः सनारुः
सनातनात्सनातनः सनगात्सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म
स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः
१४/८/१/
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यत ओं खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माह
कौरव्यायणीपुत्रो वेदोऽयं ब्राह्मणा विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम्
पूर्णमेवावशिष्यत ओं खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माह
कौरव्यायणीपुत्रो वेदोऽयं ब्राह्मणा विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम्
१४/८/२/१
त्रयाः प्राजापत्याः प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्यमूषुर्देवा मनुष्या असुराः
१४/८/२/२
उषित्वा ब्रह्मचर्यं देवा ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदक्षरमुवाच
द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दाम्यतेति न आत्थेत्योमिति होवाच
व्यज्ञासिष्टेति
द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दाम्यतेति न आत्थेत्योमिति होवाच
व्यज्ञासिष्टेति
१४/८/२/३
अथ हैनं मनुष्या ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द
इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दत्तेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति
इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दत्तेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति
१४/८/२/४
अथ हैनमसुरा ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति
व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न आत्थेत्योमिति होवाच
व्यज्ञासिष्टेति तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति स्तनयित्नुर्ददद इति दाम्यत दत्त
दयध्वमिति तदेतत्त्रयं शिक्षेद्दमं दानं दयामिति
व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न आत्थेत्योमिति होवाच
व्यज्ञासिष्टेति तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति स्तनयित्नुर्ददद इति दाम्यत दत्त
दयध्वमिति तदेतत्त्रयं शिक्षेद्दमं दानं दयामिति
१४/८/३/
वायुरनिलममृतं भस्मान्तं शरीरम् ओ३ं क्रतो स्मर क्लिबे स्मराग्ने नय
सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नमौक्तिं विधेमेति
सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नमौक्तिं विधेमेति
१४/८/४/
एष प्रजापतिर्यद्धृदयम् एतद्ब्रह्मैतत्सर्वं तदेतत्त्र्यक्षरं हृदयमिति हृ
इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद द इत्येकमक्षरं
ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य
एवं वेद
इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद द इत्येकमक्षरं
ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य
एवं वेद
१४/८/५/
तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव स यो हैवमेतन्महद्यक्षं प्रथमजं
वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमांलोकान्जित इन्न्वसावसद्य एवमेतन्महद्यक्षम्
प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति सत्यं ह्येव ब्रह्म
वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमांलोकान्जित इन्न्वसावसद्य एवमेतन्महद्यक्षम्
प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति सत्यं ह्येव ब्रह्म
१४/८/६/१
आप एवेदमग्र आसुः ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म प्रजापतिम्
प्रजापतिर्देवान्
प्रजापतिर्देवान्
१४/८/६/२
ते देवाः सत्यमित्युपासते तदेतत्त्र्यक्षरं सत्यमिति स इत्येकमक्षरं
तीत्येकमक्षरममित्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यम्
मध्यतोऽनृतं तदेतदनृतं सत्येन परिगृहीतं सत्यभूयमेव भवति
नैवंविद्वांसमनृतं हिनस्ति
तीत्येकमक्षरममित्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यम्
मध्यतोऽनृतं तदेतदनृतं सत्येन परिगृहीतं सत्यभूयमेव भवति
नैवंविद्वांसमनृतं हिनस्ति
१४/८/६/३
तद्यत्तत्सत्यम् असौ स आदित्यो य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो यश्चायं
दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तावेतावन्योऽन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ रश्मिभिर्वा
एषोऽस्मिन्प्रतिष्ठितः प्राणैरयममुष्मिन्स यदोत्क्रमिष्यन्भवति
शुद्धमेवैतन्मण्डलं पश्यति नैनमेते रश्मयः प्रत्यायन्ति
दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तावेतावन्योऽन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ रश्मिभिर्वा
एषोऽस्मिन्प्रतिष्ठितः प्राणैरयममुष्मिन्स यदोत्क्रमिष्यन्भवति
शुद्धमेवैतन्मण्डलं पश्यति नैनमेते रश्मयः प्रत्यायन्ति
१४/८/६/४
य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः तस्य भूरिति शिर एकं शिर एकमेतदक्षरम्
भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते
अक्षरे तस्योपनिषदहरिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद
भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते
अक्षरे तस्योपनिषदहरिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद
१४/८/६/५
अथ योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः तस्य भूरिति शिर एकं शिर एकमेतदक्षरम्
भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते
अक्षरे तस्योपनिषदहमिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद
१४/८/७/
विद्युद्ब्रह्मेत्याहुः विदानाद्विद्युद्विद्यत्येनं सर्वस्मात्पाप्मनो य एवं वेद
विद्युद्ब्रह्मेति विद्युद्ध्येव ब्रह्म
विद्युद्ब्रह्मेति विद्युद्ध्येव ब्रह्म
१४/८/८/
मनोमयोऽयं पुरुषो भाःसत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदये यथा व्रीहिर्वा यवो
वैवमयमन्तरात्मन्पुरुषः स एष सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः
सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किं च य एवं वेद
वैवमयमन्तरात्मन्पुरुषः स एष सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः
सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किं च य एवं वेद
१४/८/९/
वाचं धेनुमुपासीत तस्याश्चत्वार स्तनाः स्वाहाकारो वषट्कारो हन्तकारः
स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च
हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरस्तस्याः प्राण ऋषभो मनो वत्सः
स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च
हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरस्तस्याः प्राण ऋषभो मनो वत्सः
१४/८/१०/
अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते
तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति
नैतं घोषं शृणोति
तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति
नैतं घोषं शृणोति
१४/८/११/
एतद्वै परमं तपो यद्व्याहितस्तप्यते परमं हैव लोकं जयति य एवं
वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरण्यं हरन्ति परमं हैव लोकं जयति य
एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमग्नावभ्यादधति परमं हैव लोकं
जयति य एवं वेद
वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरण्यं हरन्ति परमं हैव लोकं जयति य
एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमग्नावभ्यादधति परमं हैव लोकं
जयति य एवं वेद
१४/८/१२/
यदा वै पुरुषो अस्माल्लोकात्प्रैति स वायुमागचति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा
रथचक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स आदित्यमागचति तस्मै स तत्र विजिहीते
यथाडम्बरस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स चन्द्रमसमागचति तस्मै स
तत्र विजिहीते यथा दुन्दुभेः खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स
लोकमागचत्यशोकमहिमं तस्मिन्वसति शश्वतीः समाः
रथचक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स आदित्यमागचति तस्मै स तत्र विजिहीते
यथाडम्बरस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स चन्द्रमसमागचति तस्मै स
तत्र विजिहीते यथा दुन्दुभेः खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स
लोकमागचत्यशोकमहिमं तस्मिन्वसति शश्वतीः समाः
१४/८/१३/
अन्नं ब्रह्मेत्येक आहुः तन्न तथा पूयति वा अन्नमृते प्राणात्प्राणो ब्रह्मेत्येक
आहुस्तन्न तथा शुष्यति वै प्राण ऋतेऽन्नादेते ह त्वेव देवते एकधाभूयं भूत्वा
परमतां गचतः
आहुस्तन्न तथा शुष्यति वै प्राण ऋतेऽन्नादेते ह त्वेव देवते एकधाभूयं भूत्वा
परमतां गचतः
१४/८/१३/
तद्ध स्माह प्रातृदः पितरम् किं स्विदेवैवं विदुषे साधु कुर्यात्किमेवास्मा
असाधु कुर्यादिति स ह स्माह पाणिना मा प्रातृद कस्त्वेनयोरेकधाभूयं भूत्वा
परमतां गचतीति
असाधु कुर्यादिति स ह स्माह पाणिना मा प्रातृद कस्त्वेनयोरेकधाभूयं भूत्वा
परमतां गचतीति
१४/८/१३/
तस्मा उ हैतदुवाच वीत्यन्नं वै व्यन्ने हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि रमिति
प्राणो वै रं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रतानि सर्वाणि ह वा अस्मिन्भूतानि
विशन्ते
सर्वाणि भूतानि रमन्ते य एवं वेद
प्राणो वै रं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रतानि सर्वाणि ह वा अस्मिन्भूतानि
विशन्ते
सर्वाणि भूतानि रमन्ते य एवं वेद
१४/८/१४/१
उक्थम् प्राणो वा उक्थं प्राणो हीदं सर्वमुत्थापयत्युद्धास्मा
उक्थविद्वीरस्तिष्ठत्युक्थस्य सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
उक्थविद्वीरस्तिष्ठत्युक्थस्य सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१४/२
प्राणो वै यजुः प्राणो हीमानि सर्वाणि भूतानि युज्यन्ते युज्यन्ते हास्मै सर्वाणि
भूतानि श्रैष्ठ्याय यजुषः सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
भूतानि श्रैष्ठ्याय यजुषः सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१४/३
साम प्राणो वै साम प्राणो हीमानि सर्वाणि भूतानि सम्यञ्चि हास्मिन्त्सर्वाणि भूतानि
श्रैष्ठ्याय कल्पन्ते साम्नः सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
श्रैष्ठ्याय कल्पन्ते साम्नः सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१४/४
क्षत्रम् प्राणो वै क्षत्रं प्राणो हि वै क्षत्रं त्रायते हैनं प्राणः क्षणितोः
प्र क्षत्रमात्रमाप्नोति क्षत्रस्य सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
प्र क्षत्रमात्रमाप्नोति क्षत्रस्य सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१५/१
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरिति अष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै
पदमेतदु हास्या एतत्स यावदेषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं
वेद
पदमेतदु हास्या एतत्स यावदेषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं
वेद
१४/८/१५/२
ऋचो यजूंषि सामानीति अष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु
हैवास्या एतत्स यावतीयं त्रयी विद्या तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
हैवास्या एतत्स यावतीयं त्रयी विद्या तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
१४/८/१५/३
प्राणोऽपानो व्यान इति अष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं ह वा एकं गायत्रै पदमेतदु
हैवास्या एतत्स यावदिदं प्राणि तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
हैवास्या एतत्स यावदिदं प्राणि तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
१४/८/१५/४
अथास्या एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति यद्वै चतुर्थं
तत्तुरीयं दर्शतं पदमिति ददृश इव ह्येष परोरजा इति सर्वमु ह्येष रज
उपर्युपरि तपत्येवं हैव श्रिया यशसा तपति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
तत्तुरीयं दर्शतं पदमिति ददृश इव ह्येष परोरजा इति सर्वमु ह्येष रज
उपर्युपरि तपत्येवं हैव श्रिया यशसा तपति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
१४/८/१५/५
सैषा गायत्र्येतस्मिंस्तुरीये दर्शते पदे परोरजसि प्रतिष्ठिता तद्वै तत्सत्ये
प्रतिष्ठिता चक्षुर्वै सत्यं चक्षुर्हि वै सत्यं तस्माद्यदिदानीं द्वौ
विवदमानावेयातामहमद्राक्षमहमश्रौषमिति य एव ब्रूयादहमद्राक्षमिति
तस्मा एव श्रद्दध्यात्
प्रतिष्ठिता चक्षुर्वै सत्यं चक्षुर्हि वै सत्यं तस्माद्यदिदानीं द्वौ
विवदमानावेयातामहमद्राक्षमहमश्रौषमिति य एव ब्रूयादहमद्राक्षमिति
तस्मा एव श्रद्दध्यात्
१४/८/१५/६
तद्वै तत्सत्यं बले प्रतिष्ठितम् प्राणो वै बलं तत्प्राणे प्रतिष्ठितं
तस्मादाहुर्बलं सत्यादोजीय इत्येवम्वेषा गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता
तस्मादाहुर्बलं सत्यादोजीय इत्येवम्वेषा गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता
१४/८/१५/७
सा हैषा गयांस्तत्रे प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रेतद्यद्गयांस्तत्रे तस्माद्गायत्री
नाम स यामेवामूमन्वाहैषैव सा स यस्मा अन्वाह तस्य प्राणांस्त्रायते
नाम स यामेवामूमन्वाहैषैव सा स यस्मा अन्वाह तस्य प्राणांस्त्रायते
१४/८/१५/८
तां हैके सावित्रीमनुष्टुभमन्वाहुर्वागनुष्टुबेतद्वाचमनुब्रूम इति न तथा
कुर्याद्गायत्रीमेवानुब्रूयाद्यदि ह वा अपि बह्विव प्रतिगृह्णाति न हैव तद्गायत्र्या
एकं चन पदं प्रति
कुर्याद्गायत्रीमेवानुब्रूयाद्यदि ह वा अपि बह्विव प्रतिगृह्णाति न हैव तद्गायत्र्या
एकं चन पदं प्रति
१४/८/१५/९
स य इमांस्त्रींलोकान् पूर्णान्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतत्प्रथमं पदमाप्नुयादथ
यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतद्द्वितीयं पदमाप्नुयादथ
यावदिदं प्राणि यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतत्तृतीयं पदमाप्नुयादथास्या
एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति नैव केन चनाप्यं कुत उ
एतावत्प्रतिगृह्णीयात्
यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतद्द्वितीयं पदमाप्नुयादथ
यावदिदं प्राणि यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतत्तृतीयं पदमाप्नुयादथास्या
एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति नैव केन चनाप्यं कुत उ
एतावत्प्रतिगृह्णीयात्
१४/८/१५/१०
तस्या उपस्थानम् गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि
पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापदिति यं
द्विष्यादसावस्मै कामो मा समर्धीति वा न हैवास्मै स कामः समृध्यते यस्मा
एवमुपतिष्ठतेऽहमदः प्रापमिति वा
पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापदिति यं
द्विष्यादसावस्मै कामो मा समर्धीति वा न हैवास्मै स कामः समृध्यते यस्मा
एवमुपतिष्ठतेऽहमदः प्रापमिति वा
१४/८/१५/११
एतद्ध वै तज्जनको वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु हो
तद्गायत्रीविदब्रूथा अथ कथं हस्ती भूतो वहसीति मुखं ह्यस्याः सम्राण्न
विदां चकरेति होवाच
तद्गायत्रीविदब्रूथा अथ कथं हस्ती भूतो वहसीति मुखं ह्यस्याः सम्राण्न
विदां चकरेति होवाच
१४/८/१५/१२
तस्या अग्निरेव मुखम् यदि ह वा अपि बह्विवाग्नावभ्यादधति सर्वमेव
तत्संदहत्येवं हैवैवंविद्यद्यपि बह्विव पापं करोति सर्वमेव तत्सम्प्साय
शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति
तत्संदहत्येवं हैवैवंविद्यद्यपि बह्विव पापं करोति सर्वमेव तत्सम्प्साय
शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति
१४/९/१/१
श्वेतकेतुर्ह वा आरुणेयः पञ्चालानां परिषदमाजगाम स आजगाम जैवलम्
प्रवाहणं परिचारयमाणं तमुदीक्ष्याभ्युवाद कुमारा३ इति स भो३ इति
प्रतिशुश्रावानुशिष्टो न्वसि पित्रेत्योमिति होवाच
प्रवाहणं परिचारयमाणं तमुदीक्ष्याभ्युवाद कुमारा३ इति स भो३ इति
प्रतिशुश्रावानुशिष्टो न्वसि पित्रेत्योमिति होवाच
१४/९/१/२
वेत्थ यथेमाः प्रजाः प्रयत्यो विप्रतिपद्यान्ता३ इति नेति होवाच वेत्थ यथेमं
लोकं पुनरापद्यान्ता३ इति नेति हैवोवाच वेत्थ यथासौ लोक एवं बहुभिः पुनः
पुनः प्रयद्भिर्न सम्पूर्यता३ इति नेति हैवोवाच
लोकं पुनरापद्यान्ता३ इति नेति हैवोवाच वेत्थ यथासौ लोक एवं बहुभिः पुनः
पुनः प्रयद्भिर्न सम्पूर्यता३ इति नेति हैवोवाच
१४/९/१/३
वेत्थ यतिथ्यामाहुत्यां हुतायाम् आपः पुरुषवाचो भूत्वा समुत्थाय वदन्ती३ इति
नेति हैवोवाच वेत्थो देवयानस्य वा पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा यत्कृत्वा
देवयानं वा पन्थानं प्रतिपद्यते पितृयाणं वा
नेति हैवोवाच वेत्थो देवयानस्य वा पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा यत्कृत्वा
देवयानं वा पन्थानं प्रतिपद्यते पितृयाणं वा
१४/९/१/४
अपि हि न ऋषेर्वचः श्रुतम् द्वे सृती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानां
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं चेति नाहमत एकं चन
वेदेति होवाच
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं चेति नाहमत एकं चन
वेदेति होवाच
१४/९/१/५
अथ हैनं वसत्योपमन्त्रयां चक्रे अनादृत्य वसतिं कुमारः प्रदुद्राव स
आजगाम पितरं तं होवाचेति वाव किल नो भवान्पुरानुशिष्टानवोच इति कथं
सुमेध इति पञ्च मा प्रश्नान्राजन्यबन्धुरप्राक्षीत्ततो नैकं चन वेदेति
होवाच कतमे त इतीम इति ह प्रतीकान्युदाजहार
आजगाम पितरं तं होवाचेति वाव किल नो भवान्पुरानुशिष्टानवोच इति कथं
सुमेध इति पञ्च मा प्रश्नान्राजन्यबन्धुरप्राक्षीत्ततो नैकं चन वेदेति
होवाच कतमे त इतीम इति ह प्रतीकान्युदाजहार
१४/९/१/६
स होवाच तथा नस्त्वं तात जानीथा यथा यदहं किं च वेद सर्वमहं
तत्तुभ्यमवोचं प्रेहि तु तत्र प्रतीत्य ब्रह्मचर्यं वत्स्याव इति भवानेव
गचत्विति
तत्तुभ्यमवोचं प्रेहि तु तत्र प्रतीत्य ब्रह्मचर्यं वत्स्याव इति भवानेव
गचत्विति
१४/९/१/७
स आजगाम गौतमो यत्र प्रवाहणस्य जैवलेरास तस्मा
आसनमाहार्योदकमाहारयां चकाराथ हास्मा अर्घं चकार
आसनमाहार्योदकमाहारयां चकाराथ हास्मा अर्घं चकार
१४/९/१/८
स होवाच वरं भवते गौतमाय दद्म इति स होवाच प्रतिज्ञातो म एष वरो यां
तु कुमारस्यान्ते वाचमभाषथास्तां मे ब्रूहीति
तु कुमारस्यान्ते वाचमभाषथास्तां मे ब्रूहीति
१४/९/१/९
स होवाच दैवेषु वै गौतम तद्वरेषु मानुषाणां ब्रूहीति
१४/९/१/१०
स होवाच विज्ञायते हास्ति हिरण्यस्यापात्तं गो अश्वानां दासीनां प्रवराणाम्
परिधानानां मा नो भवान्बहोरनन्तस्यापर्यन्तस्याभ्यवदान्यो भूदिति स वै
गौतम तीर्थेनेचासा इत्युपैम्यहं भवन्तीमिति वाचा ह स्मैव पूर्व उपयन्ति
परिधानानां मा नो भवान्बहोरनन्तस्यापर्यन्तस्याभ्यवदान्यो भूदिति स वै
गौतम तीर्थेनेचासा इत्युपैम्यहं भवन्तीमिति वाचा ह स्मैव पूर्व उपयन्ति
१४/९/१/११
स होपायनकीर्ता उवाच तथा नस्त्वं गौतम मापराधास्तव च पितामहा
यथेयं विद्येतः पूर्वं न कस्मिंश्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं
वक्ष्यामि को हि त्वैवं ब्रुवन्तमर्हति प्रत्याख्यातुमिति
यथेयं विद्येतः पूर्वं न कस्मिंश्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं
वक्ष्यामि को हि त्वैवं ब्रुवन्तमर्हति प्रत्याख्यातुमिति
१४/९/१/१२
असौ वै लोकोऽग्निर्गौतम तस्यादित्य एव समिद्रश्मयो धूमोऽहरर्चिश्चन्द्रमा
अङ्गारा नक्षत्राणि विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति तस्या
आहुतेः सोमो राजा सम्भवति
अङ्गारा नक्षत्राणि विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति तस्या
आहुतेः सोमो राजा सम्भवति
१४/९/१/१३
पर्जन्यो वा अग्निर्गौतम तस्य संवत्सर एव समिदभ्राणि धूमो
विद्युदर्चिरशनिरङ्गारा ह्रादुनयो विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमं
जुह्वति तस्या आहुतेर्वृष्टिः सम्भवति
विद्युदर्चिरशनिरङ्गारा ह्रादुनयो विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमं
जुह्वति तस्या आहुतेर्वृष्टिः सम्भवति
१४/९/१/१४
अयं वै लोकोऽग्निर्गौतम तस्य पृथिव्येव समिद्वायुर्धूमो रात्रिरर्चिर्दिशोऽङ्गारा
अवान्तरदिशो विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति तस्या
आहुतेरन्नं सम्भवति
अवान्तरदिशो विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति तस्या
आहुतेरन्नं सम्भवति
१४/९/१/१५
पुरुषो वा अग्निर्गौतम तस्य व्यात्तमेव समित्प्राणो धूमो वागर्चिश्चक्षुरङ्गाराः
श्रोत्रं विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः
सम्भवति
१४/९/१/१६
योषा वा अग्निर्गौतम तस्या उपस्थ एव समिल्लोमानि धूम्
ओ योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेः पुरुषः सम्भवति स जायते स जीवति यावज्जीवत्यथ
यदा म्रियतेऽथैनमग्नये हरन्ति
देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेः पुरुषः सम्भवति स जायते स जीवति यावज्जीवत्यथ
यदा म्रियतेऽथैनमग्नये हरन्ति
१४/९/१/१७
तस्याग्निरेवाग्निर्भवति समित्समिद्धूमो धूमोऽर्चिरर्चिरङ्गारा विष्फुलिङ्गा
विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः पुरुषं जुह्वति तस्या आहुतेः पुरुषो
भास्वरवर्णः सम्भवति
विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः पुरुषं जुह्वति तस्या आहुतेः पुरुषो
भास्वरवर्णः सम्भवति
१४/९/१/१८
ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते
तेऽर्चिरभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहरह्नु
आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्ङादित्य एति मासेभ्यो
देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वैद्युतं तान्वैद्युतात्पुरुषो मानस एत्य
ब्रह्मलोकान्गमयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति तेषामिह न
पुनरावृत्तिरस्ति
तेऽर्चिरभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहरह्नु
आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्ङादित्य एति मासेभ्यो
देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वैद्युतं तान्वैद्युतात्पुरुषो मानस एत्य
ब्रह्मलोकान्गमयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति तेषामिह न
पुनरावृत्तिरस्ति
१४/९/१/१९
अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकं जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति
धूमाद्रात्रिं
रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति
मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति तांस्तत्र
देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्षीयस्वेत्येवमेनांस्तत्र भक्षयन्ति तेषां
यदा तत्पर्यवैत्यथेममेवाकाशमभिनिष्पद्यन्त आकाशाद्वायुं वायोर्वृष्टिं
वृष्टेः पृथिवीं ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति त एवमेवानुपरिवर्तन्तेऽथ य
एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा यदिदं दन्दशूकम्
धूमाद्रात्रिं
रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति
मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति तांस्तत्र
देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्षीयस्वेत्येवमेनांस्तत्र भक्षयन्ति तेषां
यदा तत्पर्यवैत्यथेममेवाकाशमभिनिष्पद्यन्त आकाशाद्वायुं वायोर्वृष्टिं
वृष्टेः पृथिवीं ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति त एवमेवानुपरिवर्तन्तेऽथ य
एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा यदिदं दन्दशूकम्
१४/९/२/१
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवति
प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवत्यपि च
येषां बुभूषति य एवं वेद
प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवत्यपि च
येषां बुभूषति य एवं वेद
१४/९/२/२
यो ह वै वसिष्ठां वेद वसिष्ठः स्वानां भवति वाग्वै वसिष्ठा वसिष्ठः
स्वानां भवति य एवं वेद
स्वानां भवति य एवं वेद
१४/९/२/३
यो ह वै प्रतिष्ठां वेद प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति दुर्गे चक्षुर्वै
प्रतिष्ठा चक्षुषा हि समे च दुर्गे च प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति
दुर्गे य एवं वेद
प्रतिष्ठा चक्षुषा हि समे च दुर्गे च प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति
दुर्गे य एवं वेद
१४/९/२/४
यो ह वै सम्पदं वेद सं हास्मै पद्यते यं कामं कामयते श्रोत्रं वै
सम्पच्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः सं हास्मै पद्यते यं कामं
कामयते य एवं वेद
सम्पच्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः सं हास्मै पद्यते यं कामं
कामयते य एवं वेद
१४/९/२/५
यो ह वा आयतनं वेद आयतनं स्वानां भवत्यायतनं जनानां मनो वा
आयतनमायतनं स्वानां भवत्यायतनं जनानां य एवं वेद
आयतनमायतनं स्वानां भवत्यायतनं जनानां य एवं वेद
१४/९/२/६
यो ह वै प्रजातिं वेद प्रजायते प्रजया पशुभी रेतो वै प्रजातिः प्रजायते प्रजया
पशुभिर्य एवं वेद
पशुभिर्य एवं वेद
१४/९/२/७
ते हेमे प्राणाः अहंश्रेयसे विवदमाना ब्रह्म जग्मुः को नो वसिष्ठ इति
यस्मिन्व उत्क्रान्त इदं शरीरं पापीयो मन्यते स वो वसिष्ठ इति
यस्मिन्व उत्क्रान्त इदं शरीरं पापीयो मन्यते स वो वसिष्ठ इति
१४/९/२/८
वाग्घोच्चक्राम सा संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति
ते होचुर्यथा कडा अवदन्तो वाचा प्राणन्तः प्राणेन पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः
श्रोत्रेण विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह वाक्
ते होचुर्यथा कडा अवदन्तो वाचा प्राणन्तः प्राणेन पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः
श्रोत्रेण विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह वाक्
१४/९/२/९
चक्षुर्होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते
जीवितुमिति ते होचुर्यथान्धा अपश्यन्तश्चक्षुषा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
चक्षुः
जीवितुमिति ते होचुर्यथान्धा अपश्यन्तश्चक्षुषा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
चक्षुः
१४/९/२/१०
श्रोत्रं होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते
जीवितुमिति ते होचुर्यथा बधिरा अशृण्वन्तः श्रोत्रेण प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
श्रोत्रम्
जीवितुमिति ते होचुर्यथा बधिरा अशृण्वन्तः श्रोत्रेण प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
श्रोत्रम्
१४/९/२/११
मनो होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते
जीवितुमिति ते होचुर्यथा मुग्धा अविद्वांसो मनसा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश
ह मनः
जीवितुमिति ते होचुर्यथा मुग्धा अविद्वांसो मनसा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश
ह मनः
१४/९/२/१२
रेतो होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति
ते होचुर्यथा क्लीबा अप्रजायमाना रेतसा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वांसो मनसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
रेतः
ते होचुर्यथा क्लीबा अप्रजायमाना रेतसा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वांसो मनसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
रेतः
१४/९/२/१३
अथ ह प्राण उत्क्रमिष्यन् यथा महासुहयः सैन्धवः
पड्वीशशङ्कून्त्संवृहेदेवं हैवेमात्प्राणान्त्संववर्ह ते होचुर्मा भगव
उत्क्रमीर्न वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुमिति तस्य वै मे बलिं कुरुतेति तथेति
पड्वीशशङ्कून्त्संवृहेदेवं हैवेमात्प्राणान्त्संववर्ह ते होचुर्मा भगव
उत्क्रमीर्न वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुमिति तस्य वै मे बलिं कुरुतेति तथेति
१४/९/२/१४
सा ह वागुवाच यद्वा अहं वसिष्ठास्मि त्वं तद्वसिष्ठोऽसीति चक्षुर्यद्वा अहम्
प्रतिष्ठास्मि त्वं तत्प्रतिष्ठोऽसीति श्रोत्रं यद्वा अहं सम्पदस्मि त्वं
तत्सम्पदसीति मनो यद्वा अहमायतनमस्मि त्वं तदायतनमसीति रेतो यद्वा
अहं प्रजातिरस्मि त्वं तत्प्रजातिरसीति तस्यो मे किमन्नं किं वास इति यदिदं किं चा
श्वभ्य आ क्रिमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नमापो वास इति न ह वा अस्यानन्नं
जग्धं भवति नानन्नं प्रतिगृहीतं य एवमेतदनस्यान्नं वेद
प्रतिष्ठास्मि त्वं तत्प्रतिष्ठोऽसीति श्रोत्रं यद्वा अहं सम्पदस्मि त्वं
तत्सम्पदसीति मनो यद्वा अहमायतनमस्मि त्वं तदायतनमसीति रेतो यद्वा
अहं प्रजातिरस्मि त्वं तत्प्रजातिरसीति तस्यो मे किमन्नं किं वास इति यदिदं किं चा
श्वभ्य आ क्रिमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नमापो वास इति न ह वा अस्यानन्नं
जग्धं भवति नानन्नं प्रतिगृहीतं य एवमेतदनस्यान्नं वेद
१४/९/२/१५
तद्विद्वांसः श्रोत्रियाः अशिष्यन्त आचामन्त्यशित्वाचामन्त्येतमेव तदनमनग्नं
कुर्वन्तो मन्यन्ते तस्मादेवंविदशिष्यन्नाचामेदशित्वाचामेदेतमेव
तदनमनग्नं कुरुते
कुर्वन्तो मन्यन्ते तस्मादेवंविदशिष्यन्नाचामेदशित्वाचामेदेतमेव
तदनमनग्नं कुरुते
१४/९/३/१
स यः कामयते महत्प्राप्नुयामित्युदगयन आपूर्यमाणपक्षे पुण्याहे
द्वादशाहमुपसद्व्रती भूत्वौदुम्बरे कंसे चमसे वा वा सर्वौषधम्
फलानीति सम्भृत्य परिसमुह्य परिलिप्याग्निमुपसमाधायावृताज्यं संस्कृत्य
पुंसा नक्षत्रेण मन्थं संनीय जुहोति
द्वादशाहमुपसद्व्रती भूत्वौदुम्बरे कंसे चमसे वा वा सर्वौषधम्
फलानीति सम्भृत्य परिसमुह्य परिलिप्याग्निमुपसमाधायावृताज्यं संस्कृत्य
पुंसा नक्षत्रेण मन्थं संनीय जुहोति
१४/९/३/२
यावन्तो देवास्त्वयि जातवेदः तिर्यञ्चो घ्नन्ति पुरुषस्य कामान् तेभ्योऽहम्
भागधेयं जुहोमि ते मा तृप्ताः कामैस्तर्पयन्तु स्वाहा
भागधेयं जुहोमि ते मा तृप्ताः कामैस्तर्पयन्तु स्वाहा
१४/९/३/३
या तिरश्ची निपद्यसेऽहं विधरणी इति तां त्वा घृतस्य धारया यजे
संराधनीमहं स्वाहा प्रजापते न त्वदेतान्यन्य इति तृतीयां जुहोति
संराधनीमहं स्वाहा प्रजापते न त्वदेतान्यन्य इति तृतीयां जुहोति
१४/९/३/४
ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहेति अग्नौ हुत्वा मन्थे संस्रवमवनयति प्राणाय
स्वाहा वसिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहेत्यग्नौ श्रोत्राय
स्वाहायतनाय स्वाहेत्यग्नौ> मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहेत्यग्नौ> रेतसे
स्वाहेत्यग्नौ>
स्वाहा वसिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहेत्यग्नौ श्रोत्राय
स्वाहायतनाय स्वाहेत्यग्नौ> मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहेत्यग्नौ> रेतसे
स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/५
भूताय स्वाहेति अग्नौ> भविष्यते स्वाहेत्यग्नौ> विश्वाय स्वाहेत्यग्नौ> सर्वाय
स्वाहेत्यग्नौ>
स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/६
पृथिव्यै स्वाहेति अग्नौ> अन्तरिक्षाय स्वाहेत्यग्नौ> दिवे स्वाहेत्यग्नौ> दिग्भ्यः
स्वाहेत्यग्नौ> ब्रह्मणे स्वाहेत्यग्नौ> क्षत्राय स्वाहेत्यग्नौ>
स्वाहेत्यग्नौ> ब्रह्मणे स्वाहेत्यग्नौ> क्षत्राय स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/७
भूः स्वाहेति अग्नौ> भुवः स्वाहेत्यग्नौ स्वः स्वाहेत्यग्नौ> भूर्भुवः स्वः
स्वाहेत्यग्नौ>
स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/८
अग्नये स्वाहेति अग्नौ> सोमाय स्वाहेत्यग्नौ> तेजसे स्वाहेत्यग्नौ> श्रियै
स्वाहेत्यग्नौ> लक्ष्म्यै स्वाहेत्यग्नौ> सवित्रे स्वाहेत्यग्नौ> सरस्वत्यै
स्वाहेत्यग्नौ विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहेत्यग्नौ> प्रजापतये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे संस्रवमवनयति
स्वाहेत्यग्नौ> लक्ष्म्यै स्वाहेत्यग्नौ> सवित्रे स्वाहेत्यग्नौ> सरस्वत्यै
स्वाहेत्यग्नौ विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहेत्यग्नौ> प्रजापतये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे संस्रवमवनयति
१४/९/३/९
अथैनमभिमृशति भ्रमसि ज्वलदसि पूर्णमसि प्रस्तब्धमस्येकसभमसि
हिङ्कृतमसि हिङ्क्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि
प्रत्याश्रावितमस्यार्द्रे संदीप्तमसि विभूरसि प्रभूरसि ज्योतिरस्यन्नमसि
निधनमसि संवर्गोऽसीति
हिङ्कृतमसि हिङ्क्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि
प्रत्याश्रावितमस्यार्द्रे संदीप्तमसि विभूरसि प्रभूरसि ज्योतिरस्यन्नमसि
निधनमसि संवर्गोऽसीति
१४/९/३/१०
अथैनमुद्यचति आमोऽस्यामं हि ते मयि स हि राजेशानोऽधिपतिः स मा
राजेशानोऽधिपतिं करोत्विति
राजेशानोऽधिपतिं करोत्विति
१४/९/३/११
अथैनमाचामति तत्सवितुर्वरेण्यम् मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः भूः स्वाहा
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः भूः स्वाहा
१४/९/३/१२
भर्गो देवस्य धीमहि मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधु
द्यौरस्तु नः पिता भुवः स्वाहा
द्यौरस्तु नः पिता भुवः स्वाहा
१४/९/३/१३
धियो यो नः प्रचोदयात् मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमामस्तु सूर्यः
माध्वीर्गावो भुवन्तु नः स्वः स्वाहेति सर्वां च सावित्रीमन्वाह सर्वाश्च
मधुमतीः सर्वाश्च व्याहृतीरहमेवेदं सर्वं भूयासं भूर्भुवः स्वः
स्वाहेत्यन्तत आचम्य प्रक्षाल्य प्राणी जघनेनाग्निं प्राक्शिराः संविशति
माध्वीर्गावो भुवन्तु नः स्वः स्वाहेति सर्वां च सावित्रीमन्वाह सर्वाश्च
मधुमतीः सर्वाश्च व्याहृतीरहमेवेदं सर्वं भूयासं भूर्भुवः स्वः
स्वाहेत्यन्तत आचम्य प्रक्षाल्य प्राणी जघनेनाग्निं प्राक्शिराः संविशति
१४/९/३/१४
प्रातरादित्यमुपतिष्ठते दिशामेकपुण्डरीकमस्यहम्
मनुष्याणामेकपुण्डरीकं भूयासमिति यथेतमेत्य जघनेनाग्निमासीनो वंशं
जपति
मनुष्याणामेकपुण्डरीकं भूयासमिति यथेतमेत्य जघनेनाग्निमासीनो वंशं
जपति
१४/९/३/१५
तं हैतमुद्दालक आरुणिः वाजसनेयाय याज्ञवल्क्यायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एनं
शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज्जायेरञ्चाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति
शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज्जायेरञ्चाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति
१४/९/३/१६
एतमु हैव वाजसनेयो याज्ञवल्क्यो मधुकाय पैङ्ग्यायान्तेवा>
१४/९/३/१७
एतमु हैव मधुकः पैङ्ग्यः चूडाय भागवित्तयेऽन्तेवा>
१४/९/३/१८
एतमु हैव चूडो भागवित्तिः जानकय आयस्थूणायान्तेवा>
१४/९/३/१९
एतमु हैव जानकिरायस्थूणः सत्यकामाय जाबालायान्तेवा>
१४/९/३/२०
एतमु हैव सत्यकामो जाबालो अन्तेवासिभ्य उक्त्वोवाचापि य एनं शुष्के स्थाणौ
निषिञ्चेज्जायेरञ्चाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति तमेतं नापुत्राय वानन्तेवासिने वा
ब्रूयात्
निषिञ्चेज्जायेरञ्चाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति तमेतं नापुत्राय वानन्तेवासिने वा
ब्रूयात्
१४/९/३/२१
चतुरौदुम्बरो भवति औदुम्बरश्चमस औदुम्बर स्रुव औदुम्बर इध्म
औदुम्बर्या उपमन्थन्यौ
औदुम्बर्या उपमन्थन्यौ
१४/९/३/२२
दश ग्राम्याणि धान्यानि भवन्ति व्रीहियवास्तिलमाषा अणुप्रियङ्गवो गोधूमाश्च
मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च तान्त्सार्धं पिष्ट्वा दध्ना मधुना
घृतेनोपसिञ्चत्याज्यस्य जुहोति
मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च तान्त्सार्धं पिष्ट्वा दध्ना मधुना
घृतेनोपसिञ्चत्याज्यस्य जुहोति
१४/९/४/१
एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधय ओषधीनां पुष्पाणि
पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः
पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः
१४/९/४/२
स ह प्रजापतिरीक्षां चक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति स स्त्रियं ससृजे तां
सृष्ट्वाध उपास्त तस्मात्स्त्रियमध उपासीत श्रीर्ह्येषा स एतं प्राञ्चं
ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत्तेनैनामभ्यसृजत्
सृष्ट्वाध उपास्त तस्मात्स्त्रियमध उपासीत श्रीर्ह्येषा स एतं प्राञ्चं
ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत्तेनैनामभ्यसृजत्
१४/९/४/३
तस्या वेदिरुपस्थो लोमानि बर्हिश्चर्माधिषवणे समिद्धो मध्यतस्तौ मुष्कौ
स यावान्ह वै वाजपेयेन यजमानस्य लोको भवति तावानस्य लोको भवति य एवं
विद्वानधोपहासं चरत्या स स्त्रीणां सुकृतं वृङ्क्तेऽथ य इदमविद्वानधोपहासं
चरत्यास्य स्त्रियः सुकृतं वृञ्जते
स यावान्ह वै वाजपेयेन यजमानस्य लोको भवति तावानस्य लोको भवति य एवं
विद्वानधोपहासं चरत्या स स्त्रीणां सुकृतं वृङ्क्तेऽथ य इदमविद्वानधोपहासं
चरत्यास्य स्त्रियः सुकृतं वृञ्जते
१४/९/४/४
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणिराह एतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको
मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्कुमारहारित आह बहवो मर्या
ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वांसोऽधोपहासं
चरन्तीति
मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्कुमारहारित आह बहवो मर्या
ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वांसोऽधोपहासं
चरन्तीति
१४/९/४/५
बहु वा इदं सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेत स्कन्दति तदभिमृशेदनु वा मन्त्रयेत
यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद्यदोषधीरप्यसरद्यदपः इदमहं तद्रेत
आददे पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेज पुनर्भगः पुनरग्नयो धिष्ण्या
यथास्थानं कल्पन्तामित्यनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनौ वा भ्रुवौ
वा
निमृञ्ज्यात्
यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद्यदोषधीरप्यसरद्यदपः इदमहं तद्रेत
आददे पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेज पुनर्भगः पुनरग्नयो धिष्ण्या
यथास्थानं कल्पन्तामित्यनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनौ वा भ्रुवौ
वा
निमृञ्ज्यात्
१४/९/४/६
अथ यद्युदक आत्मानं पश्येत् तदभिमन्त्रयेत मयि तेज इन्द्रियं यशो
द्रविणं सुकृतमिति
द्रविणं सुकृतमिति
१४/९/४/७
श्रीर्ह वा एषा स्त्रीणाम् यन्मलोद्वासास्तस्मान्मलोद्वाससं
यशस्विनीमभिक्रम्योपमन्त्रयेत सा चेदस्मै न दद्यात्काममेनामपक्रीणीयात्सा
चेदस्मै नैव दद्यात्काममेनां यष्ट्या वा पाणिना वोपहत्यातिक्रामेदिन्द्रियेण ते
यशसा यश आदद इत्ययशा एव भवति
यशस्विनीमभिक्रम्योपमन्त्रयेत सा चेदस्मै न दद्यात्काममेनामपक्रीणीयात्सा
चेदस्मै नैव दद्यात्काममेनां यष्ट्या वा पाणिना वोपहत्यातिक्रामेदिन्द्रियेण ते
यशसा यश आदद इत्ययशा एव भवति
१४/९/४/८
स यामिचेत् कामयेत मेति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन मुखं
संधायोपस्थमस्या अभिमृश्य जपेदङ्गात्सम्भवसि हृदयादधि जायसे स
त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धविद्धामिव मादयेति
संधायोपस्थमस्या अभिमृश्य जपेदङ्गात्सम्भवसि हृदयादधि जायसे स
त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धविद्धामिव मादयेति
१४/९/४/९
अथ यामिचेत् न गर्भं दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन मुखं
संधायाभिप्राण्यापान्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदद इत्यरेता एव भवति
संधायाभिप्राण्यापान्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदद इत्यरेता एव भवति
१४/९/४/१०
अथ यामिचेत् गर्भं दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन मुखं
संधायापान्याभिप्राण्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदधामीति गर्भिण्येव भवति
संधायापान्याभिप्राण्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदधामीति गर्भिण्येव भवति
१४/९/४/११
अथ यस्य जायायै जारः स्यात् तं चेद्द्विष्यादामपात्रेऽग्निमुपसमाधाय प्रतिलोमं
शरबर्हि स्तीर्त्वा तस्मिन्नेतास्तिस्रः शरभृष्ठीः प्रतिलोमाः सर्पिषात्त्का
जुहुयान्मम समिद्धेऽहौषीराशापराकाशौ त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति मम
समिद्धेऽहौषीः पुत्रपशूंस्त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति मम समिद्धेऽहौषीः
प्राणापानौ त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति स वा एष निरिन्द्रियो विसुकृदस्माल्लोकात्प्रैति
यमेवंविद्ब्राह्मणः शपति तस्मादेवंविच्रोत्रियस्य जायाया उपहासं नेचेदुत
ह्येवंवित्परो भवति
शरबर्हि स्तीर्त्वा तस्मिन्नेतास्तिस्रः शरभृष्ठीः प्रतिलोमाः सर्पिषात्त्का
जुहुयान्मम समिद्धेऽहौषीराशापराकाशौ त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति मम
समिद्धेऽहौषीः पुत्रपशूंस्त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति मम समिद्धेऽहौषीः
प्राणापानौ त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति स वा एष निरिन्द्रियो विसुकृदस्माल्लोकात्प्रैति
यमेवंविद्ब्राह्मणः शपति तस्मादेवंविच्रोत्रियस्य जायाया उपहासं नेचेदुत
ह्येवंवित्परो भवति
१४/९/४/१२
अथ यस्य जायामार्तवं विन्देत् त्र्यहं कंसे न पिबेदहतवासा नैनां वृषलो न
वृषल्युपहन्यात्त्रिरात्रान्त आप्लूय व्रीहीनवघातयेत्
वृषल्युपहन्यात्त्रिरात्रान्त आप्लूय व्रीहीनवघातयेत्
१४/९/४/१३
स य इचेत् पुत्रो मे गौरो जायेत वेदमनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति क्षीरौदनम्
पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै
पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै
१४/९/४/१४
अथ य इचेत् पुत्रो मे कपिलः पिङ्गलो जायेत द्वौ वेदावनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति
दध्योदनं पाचयित्वा>
दध्योदनं पाचयित्वा>
१४/९/४/१५
अथ य इचेत् पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत त्रीन्वेदाननुब्रुवीत
सर्वमायुरियादित्युदौदनं पाचयित्वा>
सर्वमायुरियादित्युदौदनं पाचयित्वा>
१४/९/४/१६
अथ य इचेत् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं पाचयित्वा>
१४/९/४/१७
अथ य इचेत् पुत्रो मे पण्डितो विजिगीथः समितिंगमः शूश्रूषितां वाचं भाषिता
जायेत सर्वान्वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा
सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवा औक्ष्णेन वार्षभेण वा
जायेत सर्वान्वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा
सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवा औक्ष्णेन वार्षभेण वा
१४/९/४/१८
अथाभिप्रातरेव स्थालीपाकावृताज्यं चेष्टित्वा स्थालीपाकस्योपघातं जुहोत्यग्नये
स्वाहानुमतये स्वाहा देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहेति हुत्वोद्धृत्य प्राश्नाति
प्राश्येतरस्याः प्रयचति प्रक्षाल्य पाणी उदपात्रं पूरयित्वा तेनैनां
त्रिरभ्युक्षत्युतिष्ठातो विश्वावसोऽन्यामिच प्रफर्व्यम् सं जायां प्रत्या सहेति
स्वाहानुमतये स्वाहा देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहेति हुत्वोद्धृत्य प्राश्नाति
प्राश्येतरस्याः प्रयचति प्रक्षाल्य पाणी उदपात्रं पूरयित्वा तेनैनां
त्रिरभ्युक्षत्युतिष्ठातो विश्वावसोऽन्यामिच प्रफर्व्यम् सं जायां प्रत्या सहेति
१४/९/४/१९
अथैनामभिपद्यते अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमो अहं सामाहमस्मि
ऋक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् तावेहि संरभावहै सह रेतो दधावहै पुंसे
पुत्राय वित्तय इति
ऋक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् तावेहि संरभावहै सह रेतो दधावहै पुंसे
पुत्राय वित्तय इति
१४/९/४/२०
अथास्या ऊरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन
मुखं संधाय त्रिरेनामनुलोमामनुमार्ष्टि विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा
रूपाणि पिंशतु आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते गर्भं धेहि सिनीवालि
गर्भं धेहि पृथुष्टुके गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ
मुखं संधाय त्रिरेनामनुलोमामनुमार्ष्टि विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा
रूपाणि पिंशतु आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते गर्भं धेहि सिनीवालि
गर्भं धेहि पृथुष्टुके गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ
१४/९/४/२१
हिरण्ययी अरणी याभ्यां निर्मन्थतामश्विनौ देवौ तं ते गर्भं दधामहे
दशमे मासि सूतवे यथाग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण गर्भिणी वायुर्दिशां
यथा गर्भ एवं गर्भं दधामि तेऽसाविति नाम गृह्णाति
दशमे मासि सूतवे यथाग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण गर्भिणी वायुर्दिशां
यथा गर्भ एवं गर्भं दधामि तेऽसाविति नाम गृह्णाति
१४/९/४/२२
सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति यथा वातः पुष्करिणीं समीङ्गयति सर्वतः एवा ते
गर्भ एजतु सहावैतु जरायुणा इन्द्रस्यायं व्रजः कृतः सार्गडः सपरिश्रयः
तमिन्द्र निर्जहि गर्भेण सावरं सहेति
गर्भ एजतु सहावैतु जरायुणा इन्द्रस्यायं व्रजः कृतः सार्गडः सपरिश्रयः
तमिन्द्र निर्जहि गर्भेण सावरं सहेति
१४/९/४/२३
जातेऽग्निमुपसमाधाय अङ्क आधाय कंसे पृषदाज्यमानीय पृषदाज्यस्योपघातं
जुहोत्यस्मिन्त्सहस्रं पुष्यासमेधमानः स्वगृहे अस्योपसद्यां मा चैत्सीत्प्रजया
च पशुभिश्च स्वाहा मयि प्राणांस्त्वयि मनसा जुहोमि स्वाहा
जुहोत्यस्मिन्त्सहस्रं पुष्यासमेधमानः स्वगृहे अस्योपसद्यां मा चैत्सीत्प्रजया
च पशुभिश्च स्वाहा मयि प्राणांस्त्वयि मनसा जुहोमि स्वाहा
१४/९/४/२४
यत्कर्मणात्यरीरिचम् यद्वा न्यूनमिहाकरमग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्वान्त्स्विष्टं
सुहुतं करोतु स्वाहेति
सुहुतं करोतु स्वाहेति
१४/९/४/२५
अथास्यायुष्यं करोति दक्षिणं कर्णमभिनिधाय वाग्वागिति त्रिरथास्य
नामधेयं करोति वेदोऽसीति तदस्यैतद्गुह्यमेव नाम स्यादथ दधि मधु
घृतं संसृज्यानन्तर्हितेन जातरूपेण प्राशयति भूस्त्वयि दधामि भुवस्त्वयि
दधामि भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामीति
नामधेयं करोति वेदोऽसीति तदस्यैतद्गुह्यमेव नाम स्यादथ दधि मधु
घृतं संसृज्यानन्तर्हितेन जातरूपेण प्राशयति भूस्त्वयि दधामि भुवस्त्वयि
दधामि भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामीति
१४/९/४/२६
अथैनमभिमृशति अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्रुतं भव आत्मा वै
पुत्रनामासि स जीव शरदः शतमिति
पुत्रनामासि स जीव शरदः शतमिति
१४/९/४/२७
अथास्य मातरमभिमन्त्रयते इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथाः सा त्वं
वीरवती भव यास्मान्वीरवतोऽकरदिति
वीरवती भव यास्मान्वीरवतोऽकरदिति
१४/९/४/२८
अथैनं मात्रे प्रदाय स्तनं प्रयचति यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो
रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे
करिति
रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे
करिति
१४/९/४/२९
तं वा एतमाहुः अतिपिता बताभूरतिपितामहो बताभूः परमां बत काष्ठां प्राप
श्रिया यशसा ब्रह्मवर्चसेन य एवंविदो ब्राह्मणस्य पुत्रो जायत इति
श्रिया यशसा ब्रह्मवर्चसेन य एवंविदो ब्राह्मणस्य पुत्रो जायत इति
१४/९/४/३०
अथ वंशः तदिदं वयं भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रो
वात्सीमाण्डवीपुत्राद्वात्सीमाण्डवीपुत्रः पाराशरीपुत्रात्पाराशरीपुत्रो
गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रः पाराशरीकौण्डिनीपुत्रात्पाराशरीकौण्डिनीपुत्रो
गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रो गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रो बाडेयीपुत्राद्बाडेयीपुत्रो
मौषिकीपुत्रान्मौषिकीपुत्रो हारिकर्णीपुत्राद्धारिकर्णीपुत्रो
भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रः पैङ्गीपुत्रात्पैङ्गीपुत्रः
शौनकीपुत्राचौनकीपुत्रः
वात्सीमाण्डवीपुत्राद्वात्सीमाण्डवीपुत्रः पाराशरीपुत्रात्पाराशरीपुत्रो
गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रः पाराशरीकौण्डिनीपुत्रात्पाराशरीकौण्डिनीपुत्रो
गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रो गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रो बाडेयीपुत्राद्बाडेयीपुत्रो
मौषिकीपुत्रान्मौषिकीपुत्रो हारिकर्णीपुत्राद्धारिकर्णीपुत्रो
भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रः पैङ्गीपुत्रात्पैङ्गीपुत्रः
शौनकीपुत्राचौनकीपुत्रः
१४/९/४/३१
काश्यपीबालाक्यामाठरीपुत्रात्काश्यपीबालाक्यामाठरीपुत्रः
कौत्सीपुत्रात्कौत्सीपुत्रो
बौधीपुत्राद्बौधीपुत्रो शालङ्कायनीपुत्राचालन्कायनीपुत्रो
वार्षगणीपुत्राद्वार्षगणीपुत्रो गौतमीपुत्राद्गौतमीपुत्र
आत्रेयीपुत्रादात्रेयीपुत्रो गौतमीपुत्राद्गौतमीपुत्रो वात्सीपुत्राद्वात्सीपुत्रो
भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रः पाराशरीपुत्रात्पाराशरीपुत्रो
वार्कारुणीपुत्राद्वार्कारुणीपुत्र आर्तभागीपुत्रादार्तभागीपुत्रः
शौङ्गीपुत्राचौङ्गीपुत्रः सांकृतीपुत्रात्सांकृतीपुत्रः
कौत्सीपुत्रात्कौत्सीपुत्रो
बौधीपुत्राद्बौधीपुत्रो शालङ्कायनीपुत्राचालन्कायनीपुत्रो
वार्षगणीपुत्राद्वार्षगणीपुत्रो गौतमीपुत्राद्गौतमीपुत्र
आत्रेयीपुत्रादात्रेयीपुत्रो गौतमीपुत्राद्गौतमीपुत्रो वात्सीपुत्राद्वात्सीपुत्रो
भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रः पाराशरीपुत्रात्पाराशरीपुत्रो
वार्कारुणीपुत्राद्वार्कारुणीपुत्र आर्तभागीपुत्रादार्तभागीपुत्रः
शौङ्गीपुत्राचौङ्गीपुत्रः सांकृतीपुत्रात्सांकृतीपुत्रः
१४/९/४/३२
आलम्बीपुत्रात् आलम्बीपुत्र आलम्बायनीपुत्रादालम्बायनीपुत्रो
जायन्तीपुत्राज्जायन्तीपुत्रो माण्डूकायनीपुत्रान्माण्डूकायनीपुत्रो
माण्डूकीपुत्रान्माण्डूकीपुत्रः शाण्डिलीपुत्राचाण्डिलीपुत्रो
राथीतरीपुत्राद्राथीतरीपुत्रः क्रौञ्चिकीपुत्राभ्यां क्रौञ्चिकीपुत्रौ
वैदभृतीपुत्राद्वैदभृतीपुत्रो भालुकीपुत्राद्भालुकीपुत्रः
प्राचीनयोगीपुत्रात्प्राचीनयोगीपुत्रः सांजीवीपुत्रात्सांजीवीपुत्रः
कार्शकेयीपुत्रात्कार्शकेयीपुत्रः
जायन्तीपुत्राज्जायन्तीपुत्रो माण्डूकायनीपुत्रान्माण्डूकायनीपुत्रो
माण्डूकीपुत्रान्माण्डूकीपुत्रः शाण्डिलीपुत्राचाण्डिलीपुत्रो
राथीतरीपुत्राद्राथीतरीपुत्रः क्रौञ्चिकीपुत्राभ्यां क्रौञ्चिकीपुत्रौ
वैदभृतीपुत्राद्वैदभृतीपुत्रो भालुकीपुत्राद्भालुकीपुत्रः
प्राचीनयोगीपुत्रात्प्राचीनयोगीपुत्रः सांजीवीपुत्रात्सांजीवीपुत्रः
कार्शकेयीपुत्रात्कार्शकेयीपुत्रः
१४/९/४/३३
प्राश्नीपुत्रात् आसुरिवासिनः प्राश्नीपुत्र आसुरायणादासुरायण
आसुरेरासुरिर्याज्ञवल्क्याद्याज्ञवल्क्य उद्दालकादुद्दालकोऽरुणादरुण
उपवेशेरुपवेशिः
कुश्रेः कुश्रिर्वाजश्रवसो वाजश्रवा जिह्वावतो बाध्योगाज्जिह्वाया
बाध्योगोऽसिताद्वार्षगणादसितो वार्षगणो हरितात्कश्यपाद्धरितः कश्यपः
शिल्पात्कश्यपाचिल्पः कश्यपः कश्यपान्नैध्रुवेः कश्यपो नैध्रुविर्वाचो
वागम्भिण्या अम्भिण्यादित्यादादित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि वाजसनेयेन
याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते मणा ह्येष तेजसा सह पयसो रेत आभृतमिति पयसो
ह्येतद्रेत आभृतं तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तरां
समामित्याशिषमेवैतदाशास्तेऽथ चात्वाले मार्जयन्तेऽसावेव बन्धुः
आसुरेरासुरिर्याज्ञवल्क्याद्याज्ञवल्क्य उद्दालकादुद्दालकोऽरुणादरुण
उपवेशेरुपवेशिः
कुश्रेः कुश्रिर्वाजश्रवसो वाजश्रवा जिह्वावतो बाध्योगाज्जिह्वाया
बाध्योगोऽसिताद्वार्षगणादसितो वार्षगणो हरितात्कश्यपाद्धरितः कश्यपः
शिल्पात्कश्यपाचिल्पः कश्यपः कश्यपान्नैध्रुवेः कश्यपो नैध्रुविर्वाचो
वागम्भिण्या अम्भिण्यादित्यादादित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि वाजसनेयेन
याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते मणा ह्येष तेजसा सह पयसो रेत आभृतमिति पयसो
ह्येतद्रेत आभृतं तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तरां
समामित्याशिषमेवैतदाशास्तेऽथ चात्वाले मार्जयन्तेऽसावेव बन्धुः
****************************************************
१४/३/१/
अथातो दक्षिणानाम् सुवर्णं हिरण्यं शतमानं ब्रह्मणे ददात्यासीनो वै ब्रह्मा
यशः शयानं हिरण्यं तस्मात्सुवर्णं हिरण्यं शतमानं ब्रह्मणे ददाति
यशः शयानं हिरण्यं तस्मात्सुवर्णं हिरण्यं शतमानं ब्रह्मणे ददाति
१४/३/१/
अथ यैषा घर्मदुघा तामध्वर्यवे ददाति तप्तैव वै
घर्मस्तप्तमिवाध्वर्युर्निष्क्रामति तस्मात्तामध्वर्य वे ददाति
घर्मस्तप्तमिवाध्वर्युर्निष्क्रामति तस्मात्तामध्वर्य वे ददाति
१४/३/१/
अथ यैषा यजमानस्य व्रतदुघा तां होत्रे ददाति यज्ञो वै होता यज्ञो
यजमानस्तस्मात्तां होत्रे ददाति
यजमानस्तस्मात्तां होत्रे ददाति
१४/३/१/
अथ यैषा पत्न्यै व्रतदुघा तामुद्गातृभ्यो ददाति पत्नीकर्मेव वा एतेऽत्र
कुर्वन्ति यदुद्गातारस्तस्मात्तामुद्गातृभ्यो ददाति
कुर्वन्ति यदुद्गातारस्तस्मात्तामुद्गातृभ्यो ददाति
१४/३/१/
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्षयति वा तस्य
व्रतचर्या या सृष्टौ
व्रतचर्या या सृष्टौ
१४/३/२/१
सर्वेषां वा एष भूतानाम् सर्वेषां देवानामात्मा यद्यज्ञस्तस्य समृद्धिमनु
यजमानः प्रजया पशुभिरृध्यते वि वा एष प्रजया पशुभिरृध्यते यस्य घर्मो
विदीर्यते तत्र प्रायश्चित्तिः
यजमानः प्रजया पशुभिरृध्यते वि वा एष प्रजया पशुभिरृध्यते यस्य घर्मो
विदीर्यते तत्र प्रायश्चित्तिः
१४/३/२/२
पूर्णाहुतिं जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं
यज्ञस्य
यज्ञस्य
१४/३/२/३
स्वाहा प्राणेभ्यः साधिपतिकेभ्य इति मनो वै प्राणानामधिपतिर्मनसि हि सर्वे
प्राणाः प्रतिष्ठितास्तन्मनसैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
प्राणाः प्रतिष्ठितास्तन्मनसैवैतद्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/४
पृथिव्यै स्वाहेति पृथिवी वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/५
अग्नये स्वाहेति अग्निर्वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतद्देवताभिर्भिषज्यति यत्किं च विवृड्>अं यज्ञस्य
१४/३/२/६
अन्तरिक्षाय स्वाहेति अन्तरिक्षं वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/७
वायवे स्वाहेति वायुर्वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/८
दिवे स्वाहेति द्यौर्वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/९
सूर्याय स्वाहेति सूर्यो वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/१०
दिग्भ्यः स्वाहेति दिशो वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/११
चन्द्राय स्वाहेति चन्द्रो वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/१२
नक्षत्रेभ्यः स्वाहेति नक्षत्राणि वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/१३
अद्भ्यः स्वाहेति आपो वै सर्वेषां देवानामायतनं
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/१४
वरुणाय स्वाहेति वरुणो वै सर्वेषां देवानामात्मा
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
तत्सर्वाभिरेवैतदेवताभिर्ब्भिषज्ज्यति यत्किञ्च विवृडं यज्ञस्य
१४/३/२/१५
नाभ्यै स्वाहा पूताय स्वाहेति अनिरुक्तमनिरुक्तो वै प्रजापतिः
प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/३/२/१६
त्रयोदशैता आहुतयो भवन्ति त्रयोदश वै मासाः सम्वत्सरस्य सम्वत्सरः
प्रजापतिः प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
प्रजापतिः प्रजापतिर्यज्ञस्तत्प्रजापतिमेवैतद्यज्ञं भिषज्यति
१४/३/२/१७
वाचे स्वाहेति मुखमेवास्मिन्नेतद्दधाति प्राणाय स्वाहा प्राणाय स्वाहेति नासिके
एवास्मिन्नेतद्दधाति चक्षुषे स्वाहा चक्षुषे स्वाहेत्यक्षिणी एवास्मिन्नेतद्दधाति
श्रोत्राय स्वाहा श्रोत्राय स्वाहेति कर्णावेवास्मिन्नेतद्दधाति
एवास्मिन्नेतद्दधाति चक्षुषे स्वाहा चक्षुषे स्वाहेत्यक्षिणी एवास्मिन्नेतद्दधाति
श्रोत्राय स्वाहा श्रोत्राय स्वाहेति कर्णावेवास्मिन्नेतद्दधाति
१४/३/२/१८
सप्तैता आहुतयो भवन्ति सप्त वा इमे शीर्षन्प्राणास्तानेवास्मिन्नेतद्दधाति
पूर्णाहुतिमुत्तमां जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च
विवृढं यज्ञस्य
पूर्णाहुतिमुत्तमां जुहोति सर्वं वै पूर्णं सर्वेणैवैतद्भिषज्यति यत्किं च
विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/१९
मनसः काममाकूतिमिति मनसा वा इदं सर्वमाप्तं तन्मनसैवैतद्भिषज्यति
यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
यत्किं च विवृढं यज्ञस्य
१४/३/२/२०
वाचः सत्यमशीयेति वाचा वा इदं सर्वमाप्तं तद्वाचैवैतद्भिषज्यति यत्किं च
विवृढं यज्ञस्य पशूनां रूपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि
स्वाहेत्याशिषमेवैतदाशास्ते
विवृढं यज्ञस्य पशूनां रूपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि
स्वाहेत्याशिषमेवैतदाशास्ते
१४/३/२/२१
अथ तं चोपशयां च पिष्ट्वा मार्त्स्नया मृदा संसृज्यावृता करोत्यावृता
पचत्युत्सादनार्थमथ य उपशययोर्दृढः स्यात्तेन प्रचरेत्
पचत्युत्सादनार्थमथ य उपशययोर्दृढः स्यात्तेन प्रचरेत्
१४/३/२/२२
संवत्सरो वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै संवत्सरः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यत्प्रवृक्तस्तद्वसन्तो यद्रुचितस्तद्ग्रीष्मो यत्पिन्वितस्तद्वर्षा यदा वै वर्षाह्
पिन्वन्तेऽथैनाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वाअस्मै वर्षा य
एवमेतद्वेद
यत्प्रवृक्तस्तद्वसन्तो यद्रुचितस्तद्ग्रीष्मो यत्पिन्वितस्तद्वर्षा यदा वै वर्षाह्
पिन्वन्तेऽथैनाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वाअस्मै वर्षा य
एवमेतद्वेद
१४/३/२/२३
इमे वै लोकाः प्रवर्ग्यः सर्वं वा इमे लोकाः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यत्प्रवृक्तस्तदयं लोको यद्रुचितस्तदन्तरिक्षलोको यत्पिन्वितस्तदसौ लोको यदा वा
असौ लोकः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्म्
असौ लोको य एवमेतद्वेद
यत्प्रवृक्तस्तदयं लोको यद्रुचितस्तदन्तरिक्षलोको यत्पिन्वितस्तदसौ लोको यदा वा
असौ लोकः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्म्
असौ लोको य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२४
एता वै देवताः प्रवर्ग्यः अग्निर्वायुरादित्यः सर्वं वा एता देवता सर्वम्
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदग्निर्यद्रुचितस्तद्वायुर्यत्पिन्वितस्तदसावादित्यो यदा वा
असावादित्यःपिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा
असावादित्यो य एवमेतद्वेद
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदग्निर्यद्रुचितस्तद्वायुर्यत्पिन्वितस्तदसावादित्यो यदा वा
असावादित्यःपिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा
असावादित्यो य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२५
यजमानो वै प्रवर्ग्यः तस्यात्मा प्रजा पशवः सर्वं वै यजमानः सर्वम्
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदात्मा यद्रुचितस्तत्प्रजा यत्पिन्वितस्तत्पशवो यदा वै
पशवः पिन्वतेऽथैनान्त्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा अस्मै
पशवो य एवमेतद्वेद
प्रवर्ग्यः स यत्प्रवृक्तस्तदात्मा यद्रुचितस्तत्प्रजा यत्पिन्वितस्तत्पशवो यदा वै
पशवः पिन्वतेऽथैनान्त्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा अस्मै
पशवो य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२६
अग्निहोत्रं वै प्रवर्ग्यः सर्वं वाअग्निहोत्रं सर्वं प्रवर्ग्यः स यदधिश्रितं
तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वाअग्निहोत्रम्
पिन्वतेऽथैनत्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा अग्निहोत्रं
य एवमेतद्वेद
तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वाअग्निहोत्रम्
पिन्वतेऽथैनत्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा अस्मा अग्निहोत्रं
य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२७
दर्शपूर्णमासौ वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै दर्शपूर्णमासौ सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै
दर्शपूर्णमासौ पिन्वेते अथैनौ सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वेते ह
वा अस्मै दर्शपूर्णमासौ य एवमेतद्वेद
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रुचितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै
दर्शपूर्णमासौ पिन्वेते अथैनौ सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वेते ह
वा अस्मै दर्शपूर्णमासौ य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२८
चातुर्मास्यानि वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै चातुर्मास्यानि सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रु चितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै
चातुर्मास्यानि पिन्वन्तेऽथैनानि सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा
अस्मै चातुर्मास्यानि य एवमेतद्वेद
यदधिश्रितं तत्प्रवृक्तो यदासन्नं तद्रु चितो यद्धुतं तत्पिन्वितो यदा वै
चातुर्मास्यानि पिन्वन्तेऽथैनानि सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वन्ते ह वा
अस्मै चातुर्मास्यानि य एवमेतद्वेद
१४/३/२/२९
पशुबन्धो वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै पशुबन्धः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदधिश्रितस्तत्प्रवृक्तो यदासन्नस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै
पशुबन्धः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा
अस्मै पशुबन्धो य एवमेतद्वेद
यदधिश्रितस्तत्प्रवृक्तो यदासन्नस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै
पशुबन्धः पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपजीवन्ति पिन्वते ह वा
अस्मै पशुबन्धो य एवमेतद्वेद
१४/३/२/३०
सोमो वै प्रवर्ग्यः सर्वं वै सोमः सर्वं प्रवर्ग्यः स
यदभिषुतस्तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै सोमः
पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपयुञ्जन्ति पिन्वते ह वा अस्मै सोमो य
एवमेतद्वेद न ह वा अस्याप्रवर्ग्येण केन चन यज्ञेनेष्टं भवति य
एवमेतद्वेद
यदभिषुतस्तत्प्रवृक्तो यदुन्नीतस्तद्रुचितो यद्धुतस्तत्पिन्वितो यदा वै सोमः
पिन्वतेऽथैनं सर्वे देवाः सर्वाणि भूतान्युपयुञ्जन्ति पिन्वते ह वा अस्मै सोमो य
एवमेतद्वेद न ह वा अस्याप्रवर्ग्येण केन चन यज्ञेनेष्टं भवति य
एवमेतद्वेद
१४/३/२/३१
अथैतद्वै आयुरेतज्ज्योतिः प्रविशति य एतमनु वा ब्रूते भक्षयति वा तस्य
व्रतचर्या या सृष्टौ
व्रतचर्या या सृष्टौ
१४/४/१/१
द्वया ह प्राजापत्याः देवाश्चासुराश्च ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुरास्तएषु
लोकेष्वस्पर्धन्त
१४/४/१/२
ते ह देवा ऊचुः हन्तासुरान्यज्ञ उद्गीथेनात्ययामेति
१४/४/१/३
ते ह वाचमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यो वागुदगायद्यो वाचि भोगस्तं
देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं वदति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं वदति स एव स पाप्मा
१४/४/१/४
अथ ह प्राणमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यः प्राण उदगायद्यः प्राणे
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं जिघ्रति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं जिघ्रति स एव स पाप्मा
१४/४/१/५
अथ ह चक्षुरूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यश्चक्षुरुदगायद्यश्चक्षुषि
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं पश्यति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं पश्यति स एव स पाप्मा
१४/४/१/६
अथ ह श्रोत्रमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यः श्रोत्रमुदगायद्यः श्रोत्रे
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं शृणोति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं शृणोति स एव स पाप्मा
१४/४/१/७
अथ ह मन ऊचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्यो मन उदगायद्यो मनसि
भोगस्तं देवेभ्य आगायद्यत्कल्याणं सङ्कल्पयति तदात्मने तेऽविदुरनेन वै न
उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविध्यन्त्स यः स पाप्मा
यदेवेदमप्रतिरूपं सङ्कल्पयति स एव स पाप्मैवमु खल्वेता देवताः
पाप्मभिरुपासृजन्नेवमेनाः पाप्मनाविध्यन्
१४/४/१/८
अथ हेममासन्यं प्राणमूचुः त्वं न उद्गायेति तथेति तेभ्य एष प्राण
उदगायत्तेऽविदुरनेन वै न उद्गात्रात्येष्यन्तीति तमभिद्रुत्य पाप्मनाविव्यत्सन्त्स
यथाश्मानमृत्वा लोष्टो विध्वंसेतैवं हैव विध्वंसमाना विष्वञ्चो विनेशुस्ततो
देवा अभवन्परासुरा भवत्यात्मना परास्य द्विषन्भ्रातृव्यो भवति य एवं वेद
१४/४/१/९
ते होचुः क्व नु सोऽभूद्यो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्तरिति सोऽयास्य
आङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः
१४/४/१/१०
सा वा एषा देवता दूः नाम दूरं ह्यस्या मृत्युर्दूरं ह वा अस्मान्मृत्युर्भवति य
एवं वेद
१४/४/१/११
सा वा एषा देवता एतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्य यत्रासां
दिशामन्तस्तद्गमयां चकार तदासां पाप्मनो विन्यदधात्तस्मान्न
जनमियान्नान्तमियान्नेत्पाप्मानं मृत्युमन्ववायानीति
१४/४/१/१२
सा वा एषा देवता एतासां देवतानां पाप्मानं मृत्युमपहत्याथैना
मृत्युमत्यवहत्
१४/४/१/१३
स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत् सा यदा मृत्युमत्यमुच्यत
सोऽग्निरभवत्सोऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते
१४/४/१/१४
अथ प्राणमत्यवहत् स यदा मृत्युमत्यमुच्यत स वायुरभवत्सोऽयं वायुः
परेण मृत्युमतिक्रान्तः पवते
१४/४/१/१५
अथ चक्षुरत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽभवत्सोऽसावादित्यः
परेण मृत्युमतिक्रान्तस्तपति
१४/४/१/१६
अथ श्रोत्रमत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत ता दिशोऽभवंस्ता इमा दिशः
परेण मृत्युमतिक्रान्ताः
१४/४/१/१७
अथ मनोऽत्यवहत् तद्यदा मृत्युमत्यमुच्यत स चन्द्रमा अभवत्सोऽसौ चन्द्रः
परेण मृत्युमतिक्रान्तो भात्येवं ह वा एनमेषा देवता मृत्युमतिवहति य एवम्
वेद
१४/४/१/१८
अथात्मनेऽन्नाद्यमागायत् यद्धि किं चान्नमद्यतेऽनेनैव तदद्यत इह
प्रतितिष्ठति
१४/४/१/१९
ते देवा अब्रुवन् एतावद्वा इदं सर्वं यदन्नं तदात्मन आगासीरनु नोऽस्मिन्नन्न
आभजस्वेति ते वै माभिसम्विशतेति तथेति तं समन्तं परिण्यविशन्त
तस्माद्यदनेनान्नमत्ति तेनैतास्तृप्यन्त्येवं ह वा एनं स्वा अभिसम्विशन्ति भर्ता
स्वानां श्रेष्ठः पुरएता भवत्यन्नादोऽधिपतिर्य एवं वेद
१४/४/१/२०
य उ हैवम्विदम् स्वेषु प्रतिप्रतिर्बुभूषति न हैवालं भार्येभ्यो भवत्यथ
य एवैतमनु भवति यो वैतमनु भार्यान्बुभूर्षति स हैवालं भार्येभ्यो
भवति
१४/४/१/२१
सोऽयास्य आङिरसो अङ्गानां हि रसः प्राणो वा अङ्गानां रसः प्राणो हि वा अङ्गानां
रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यत्येष हि वा अङ्गानां
रसः
१४/४/१/२२
एष उ एव बृहस्पतिः वाग्वै बृहती तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः
१४/४/१/२३
एष उ एव ब्रह्मणस्पतिः वाग्वै ब्रह्म तस्या एष पतिस्तस्मादु ह ब्रह्मणस्पतिः
१४/४/१/२४
एष उ एव साम वाग्वै सामैष सा चामश्चेति तत्साम्नः सामत्वं यद्वेव समः
प्लुषिणा समो मशकेन समो नागेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकैः समोऽनेन सर्वेण
तस्माद्वेव सामाश्नुते साम्नः सायुज्यं सलोकतां य एवमेतत्साम वेद
१४/४/१/२५
एष उ वा उद्गीथः प्राणो वा उत्प्राणेन हीदं सर्वमुत्तब्धं वागेव गीथोच्च
गीथा चेति स उद्गीथः
१४/४/१/२६
तद्धापि ब्रह्मदत्तश्चैकितानेयो राजानं भक्षयन्नुवाचायं त्यस्य राजा
मूर्धानं विपातयताद्यदितोऽयास्य आङ्गिरसोऽन्येनोदगायदिति वाचा च ह्येव स
प्राणेन चोदगायदिति
१४/४/१/२७
तस्य हैतस्य साम्नो यः स्वं वेद भवति हास्य स्वं तस्य वै स्वर एव स्वं
तस्मादार्त्विज्यं करिष्यन्वाचि स्वरमिच्छेत तया वाचा स्वरसम्पन्नयार्त्विज्यं
कुर्यात्तस्माद्यज्ञे स्वरवन्तं दिदृक्षन्त एवाथो यस्य स्वं भवति भवति हास्य
स्वं य एवमेतत्सामनः स्वं वेद
१४/४/१/२८
तस्य हैतस्य साम्नो यः सुवर्णं वेद भवति हास्य सुवर्णं तस्य वै स्वर एव
सुवर्णं भवति हास्य सुवर्णं य एवमेतत्साम्नः सुवर्णं वेद
१४/४/१/२९
तस्य हैतस्य साम्नो यः प्रतिष्ठां वेद प्रति ह तिष्ठति तस्य वै वागेव
प्रतिष्ठा वाचि हि खल्वेष एतत्प्राणः प्रतिष्ठितो गीयतेऽन्न इत्यु हैक आहुः
१४/४/१/३०
अथातः पवमानानामेवाभ्यारोहः स वै खलु प्रस्तोता साम प्रस्तौति स यत्र
प्रस्तुयात्तदेतानि जपेदसतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतं
गमयेति
१४/४/१/३१
स यदाहासतो मा सद्गमयेति मृत्युर्वा असत्सदमृतं मृत्योर्मामृतं
गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह
१४/४/१/३२
तमसो मा ज्योतिर्गमयेति मृत्युर्वै तमो ज्योतिरमृतं मृत्योर्मामृतं
गमयामृतं मा कुर्वित्येवैतदाह मृत्योर्मामृतं गमयेति नात्र तिरोहितमिवास्ति
१४/४/१/३३
अथ यानीतराणि स्तोत्राणि तेष्वात्मनेऽन्नाद्यमागायेत्तस्मादु तेषु वरं वृणीत यम्
कामं कामयेत तं स एष एवम्विदुद्गातात्मने वा यजमानाय वा यं कामं
कामयते तमागायति तद्धैतल्लोकजिदेव न हैवालोक्यताया आशास्ति य एवमेतत्साम
वेद
१४/४/२/१
आत्मैवेदमग्र आसीत् पुरुषविधः सोऽनुवीक्ष्य
नान्यदात्मनोऽपश्यत्सोऽहमस्मीत्यग्रेव्याहरत्ततोऽहंनामाभवत्तस्मादप्येतर्ह्या
मन्त्रितोऽहमयमित्येवाग्र उक्त्वाथान्यन्नाम प्रब्रूते यदस्य भवति
१४/४/२/२
स यत्पूर्वोऽस्मात् सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुष ओषति ह वै स तं
योऽस्मात्पूर्वो बुभूषति य एवं वेद
१४/४/२/३
सोऽबिभेत् तस्मादेकाकी बिभेति स हायमीक्षां चक्रे यन्मदन्यन्नास्ति कस्मान्नु
बिभेमीति तत एवास्य भयं वीयाय कस्माद्ध्यभेष्यद्द्वितीयद्वै भयम्
भवति
१४/४/२/४
स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत्स हैतावानास यथा
स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ
१४/४/२/५
स इममेवात्मानं द्वेधापातयत् ततः पतिश्च पत्नी चाभवतां
तस्मादिदमर्धवृगलमिव स्व इति ह स्माह याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाश स्त्रिया
पूर्यत एव तां समभवत्ततो मनुष्या अजायन्त
१४/४/२/६
सो हेयमीक्षां चक्रे कथं नु मात्मन एव जनयित्वा सम्भवति हन्त
तिरोऽसानीति
१४/४/२/७
सा गौरभवत् वृषभ इतरस्तां समेवाभवत्ततो गावोऽजायन्त
१४/४/२/८
वडवेतराभवत् अश्ववृष इतरो गर्दभीतरा गर्दभ इतरस्तां समेवाभवत्तत
एकशफमजायत
१४/४/२/९
अजेतराभवत् वस्त इतरोऽविरितरो मेष इतरस्तां
समेवाभ्वत्ततोऽजावयोऽजायन्तैवमेव यदिदं किं च मिथुनमा
पिपीलिकाभ्यस्तत्सर्वमसृजत
१४/४/२/१०
सोऽवेत् अहं वाव सृष्टिरस्म्यहं हीदं सर्वमसृक्षीति ततः सृष्टिरभवत्सृष्ट्यां
हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद
१४/४/२/११
अथेत्यभ्यमन्थत् स मुखाच्च योनेर्हस्ताभ्यां चाग्निमसृजत
तस्मादेतदुभयमलोमकमन्तरतोऽलोमका हि योनिरन्तरतः
१४/४/२/१२
तद्यदिदमाहुः अमुं यजामुं यजेत्येकैकं देवमेतस्यैव सा विसृष्टिरेष उ
ह्येव सर्वे देवाः
१४/४/२/१३
अथ यत्किं चेदमार्द्रम् तद्रेतसोऽसृजत तदु सोम एतावद्वा इदं सर्वमन्नं
चैवान्नादश्च सोम एवान्नमग्निरन्नादः
१४/४/२/१४
सैषा ब्रह्मणोऽतिसृष्टिः यच्रेयसो देवानसृजताथ यन्मर्त्यः सन्नमृतानसृजत
तस्मादतिसृष्टिरतिसृष्ट्यां हास्यैतस्यां भवति य एवं वेद
१४/४/२/१५
तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव
व्याक्रियतासौनामायमिदंरूप इति तदिदमप्येतर्हि नामरूपाभ्यामेव
व्याक्रियतेऽसौनामायमिदंरूप इति
१४/४/२/१६
स एष इह प्रविष्टः आ नखाग्रेभ्यो यथा क्षुरः क्षुरधानेऽवहितः
स्याद्विश्वम्भरो वा विश्वम्भरकुलाये तं न पश्यन्त्यकृत्स्नो हि सः
१४/४/२/१७
प्राणन्नेव प्राणो नाम भवति वदन्वाक्पश्यंश्चक्षुः शृण्वञ्च्रोत्रं मन्वानो
मनस्तान्यस्यैतानि कर्मनामान्येव स योऽत एकैकमुपास्ते न स वेदाकृत्स्नो
ह्येषोऽत एकैकेन भवति
१४/४/२/१८
आत्मेत्येवोपासीत अत्र ह्येते सर्व एकं भवन्ति तदेतत्पदनीयमस्य सर्वस्य
यदयमात्मानेन ह्येतत्सर्वं वेद यथा ह वै पदेनानुविन्देदेवं कीर्तिं
श्लोकं विन्दते य एवं वेद
१४/४/२/१९
तदेतत्प्रेयः पुत्रात् प्रेयो वित्तात्प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरं यदयमात्मा स
योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीतीश्वरो ह तथैव
स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत स य आत्मानमेव प्रियमुपास्ते न हास्य प्रियम्
प्रमायुकं भवति
१४/४/२/२०
तदाहुः यद्ब्रह्मविद्यया सर्वं भविष्यन्तो मनुष्या मन्यन्ते किमु
तद्ब्रह्मावेद्यस्मात्तत्सर्वमभवदिति
१४/४/२/२१
ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् तदात्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मीति
तस्मात्तत्सर्वमभवत्तद्योयो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव
तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम्
१४/४/२/२२
तद्धैतत्पश्यन्नृषिर्वामदेवः प्रतिपेदे अहं मनुरभवं सूर्यश्चेति
तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति तस्य ह न
देवाश्चनाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवत्यथ योऽन्यां
देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानां यथा
ह वै बहवः पशवो मनुष्यं भुञ्ज्युरेवमेकैकः पुरुषो
देवान्भुनक्त्येकस्मिन्नेव पशावादीयमानेऽप्रियं भवति किमु बहुषु
तस्मादेषां तन्न प्रियं यदेतन्मनुष्या विद्युः
१४/४/२/२३
ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् एकमेव तदेकं सन्न व्यभवत्तच्रेयो रूपमत्यसृजत
क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो
मृत्युरीशान इति तस्मात्क्षत्रात्परं नास्ति तस्माद्ब्राह्मणः क्षत्रियमधस्तादुपास्ते
राजसूये क्षत्र एव तद्यशो दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यद्ब्रह्म तस्माद्यद्यपि
राजा परमतां गच्छति ब्रह्मैवान्तत उपनिश्रयति स्वां योनिं य उ एनं हिनस्ति स्वां
स योनिमृच्छति स पापीयान्भवति यथा श्रेयांसं हिंसित्वा
१४/४/२/२४
स नैव व्यभवत् स विशमसृजत यान्येतानि देवजातानि गणश आख्यायन्ते वसवो
रुद्रा आदित्या विश्वे देवा मरुत इति
१४/४/२/२५
स नैव व्यभवत् स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं वै पूषेयं हीदं
सर्वं पुष्यति यदिदं किं च
१४/४/२/२६
स नैव व्यभवत् तच्रेयो रूपमत्यसृजत धर्मं तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं
यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात्परं नास्त्यथो अबलीयान्बलीयांस्मम्!शंसते धर्मेण
यथा राज्ञैवं यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात्सत्यम्
वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तं सत्यम्
वदतीत्येतद्ध्येवैतदुभयं भवति
१४/४/२/२७
तदेतद्ब्रह्म क्षत्रं विट्शूद्रः तदग्निनैव देवेषु ब्रह्माभवद्ब्राह्मणो
मनुष्येषु क्षत्रियेण क्षत्रियो वैश्येन वैश्यः शूद्रेण शूद्रस्तस्मादग्नावेव
देवेषु लोकमिच्छन्ते ब्राह्मणे मनुष्येष्वेताभ्यां हि रूपाभ्यां ब्रह्माभवत्
१४/४/२/२८
अथ यो ह वा अस्माल्लोकात्स्वं लोकमदृष्ट्वा प्रैति स एनमविदितो न भुनक्ति यथा
वेदो वाननूक्तोऽन्यद्वा कर्माकृतं यदि ह वा अप्यनेवम्विन्महत्पुण्यं कर्म
करोति तद्धास्यान्ततः क्षीयत एवात्मानमेव लोकमुपासीत स य आत्मानमेव
लोकमुपास्ते न हास्य कर्म क्षीयतेऽस्माद्ध्येवात्मनो यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते
१४/४/२/२९
अथो अयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः स यज्जुहोति यद्यजते तेन देवानां
लोकोऽथ यदनुब्रूते तेनर्षीणामथ यत्प्रजामिच्छते यत्पितृभ्यो निपृणाति तेन
पितॄणामथ यन्मनुष्यान्वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति तेन मनुष्याणामथ
यत्पशुभ्यस्तृणोदकं विन्दति तेन पशूनां यदस्य गृहेषु श्वापदा वयांस्या
पिपीलिकाभ्य उपजीवन्ति तेन तेषां लोको यथा ह वै स्वाय लोकायारिष्टिमिच्छेदेवं
हैवम्विदे सर्वदा सर्वाणि भूतान्यरिष्टिमिच्छन्ति तद्वा एतद्विदितं मीमांसितम्
१४/४/२/३०
आत्मैवेदमग्र आसीत् एक एव सोऽकामयत जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे
स्यादथ कर्म कुर्वीयेत्येतान्वावै कामो नेचंश्चनातो भूयो
विन्देत्तस्मादप्येतर्ह्येकाकी कामयते जाया मे स्यादथ प्रजायेयाथ वित्तं मे
स्यादथ कर्म कुर्वीयेति स यावदप्येतेषामेकैकं न प्राप्नोत्यकृत्स्न एव
तावन्मन्यते तस्यो कृत्स्नता
१४/४/२/३१
मन एवास्यात्मा वाग्जाया प्राणः प्रजा चक्षुर्मानुषं वित्तं चक्षुषा हि
तद्विन्दति श्रोत्रं दैवं श्रोत्रेण हि तचृणोत्यात्मैवास्य कर्मात्मना हि कर्म करोति
स एष पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्तः पशुः पाङ्क्तः पुरुषः पाङ्क्तमिदं किं च तदिदं
सर्वमाप्नोति यदिदं किं च य एवं वेद
१४/४/३/१
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाजनयत्पिता एकमस्य साधारणं द्वे देवानभाजयत्
त्रीण्यात्मनेऽकुरुत पशुभ्य एकं प्रायच्छत् तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च
प्राणिति यच्च न कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदा यो वै तामक्षितिं वेद
सोऽन्नमत्ति प्रतीकेन स देवानपिगच्छति स ऊर्जमुपजीवतीति श्लोकाः
१४/४/३/२
यत्सप्तान्नानि मेधया तपसाजनयत्पितेति मेधया हि तपसाजनयत्पितैकमस्य
साधारणमितीदमेवास्य तत्साधारणमन्नं यदिदमद्यते स य एतदुपास्ते न स
पाप्मनो व्यावर्तते मिष्रं ह्येतत्
१४/४/३/३
द्वे देवानभाजयदिति हुतं च प्रहुतं च तस्माद्देवेभ्यो जुह्वति च प्र च
जुह्वत्यथो आहुर्दर्शपूर्णमासाविति तस्मान्नेष्टियाजुकः स्यात्
१४/४/३/४
पशुभ्य एकं प्रायच्छदिति तत्पयः पयो ह्येवाग्रे मनुष्याश्च पशवश्चोपजीवन्ति
तस्मात्कुमारं जातं घृतं वैवाग्रे प्रतिलेहयन्ति स्तनं वानुधाप्यन्ति
१४/४/३/५
अथ वत्सं जातमाहुः अतृणाद इति तस्मिन्त्सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च नेति
पयसि हीदं सर्वं प्रतिष्ठितं यच्च प्राणिति यच्च न
१४/४/३/६
तद्यदिदमाहुः सम्वत्सरं पयसा जुह्वदप पुनर्मृत्युं जयतीति न तथा
विद्याद्यदहरेव जुहोति तदहः पुनर्मृत्युमापजयत्येवं विद्वान्त्सर्वं हि
देवेभ्योऽन्नाद्यं प्रयच्छति कस्मात्तानि न क्षीयन्तेऽद्यमानानि सर्वदेति
१४/४/३/७
पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं पुनःपुनर्जनयते यो वै तामक्षितिं वेदेति
पुरुषो वा अक्षितिः स हीदमन्नं धियाधिया जनयते कर्मभिर्यद्धैतन्न
कुर्यात्क्षीयेत ह सोऽन्नमत्ति प्रतीकेनेति मुखं प्रतीकं मुखेनेत्येतत्स
देवानपिगच्छति स ऊर्जमुपजीवतीति प्रशंसा
१४/४/३/८
त्रीण्यात्मनेऽकुरुतेति मनो वाचं प्राणं तान्यात्मनेऽकुरुतान्यत्रमना अभूवं
नादर्शमन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषमिति मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति
१४/४/३/९
कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वम्
मन एव तस्मादपि पृष्ठत उपस्पृष्टो मनसा विजानाति
१४/४/३/१०
यः कश्च शब्दो वागेव सैषा ह्यन्तमायत्तैषा हि न प्राणोऽपानो व्यान उदानः
समानोऽन इत्येतत्सर्वं प्राण एवैतन्मन्यो वा अयमात्मा वाङ्मयो मनोमयः
प्राणमयः
१४/४/३/११
त्रयो लोका एत एव वागेवायं लोको मनोऽन्तरिक्षलोकः प्राणोऽसौ लोकः
१४/४/३/१२
त्रयो वेदा एत एव वागेवर्ग्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः
१४/४/३/१३
देवाः पितरो मनुष्या एत एव वागेव देवा मनः पितरः प्राणो मनुष्याः
१४/४/३/१४
पिता माता प्रजैत एव मन एव पिता वाङ्ग्माता प्राणः प्रजा
१४/४/३/१५
विज्ञातं विजिज्ञास्यम् अविज्ञातमेत एव यत्किं च विज्ञातं वाचस्तद्रूपं वाग्घि
विज्ञाता वागेनं तद्भूत्वावति
१४/४/३/१६
यत्किं च विजिज्ञास्यम् मनस्तद्रूपं मनो हि विजिज्ञास्यं मन एव तद्भूत्वावति
१४/४/३/१७
यत्किं चाविज्ञातम् प्राणस्य तद्रूपं प्राणो ह्यविज्ञातः प्राण एव तद्भूत्वावति
१४/४/३/१८
तस्यै वाचः पृथिवी शरीरम् ज्योती रूपमयमग्निस्तद्यावत्येव वाक्तावती पृथिवी
तावानयमग्निः
१४/४/३/१९
अथैतस्य मनसो द्यौः शरीरं ज्योती रूपमसावादित्यस्तद्यावदेव मनस्तावती
द्यौस्तावानसावादित्यस्तौ मिथुनं समैतां ततः प्राणोऽजायत स इन्द्रः स
एषोऽसपत्नो द्वितीयो वै सपत्नो नास्य सपत्नो भवति य एवं वेद
१४/४/३/२०
अथैतस्य प्राणस्यापः शरीरं ज्योती रूपमसौ चन्द्रस्तद्यावा नेव प्राणस्तावत्य
आपस्तावानसौ चन्द्रः
१४/४/३/२१
त एते सर्व एव समाः सर्वेऽनन्ताः स यो हैतानन्तवत उपास्तेऽन्तवतं स लोकं
जयत्यथ यो हैताननन्तानुपास्तेऽनन्तं स लोकं जयति
१४/४/३/२२
स एष संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलस्तस्य रात्रय एव पञ्चदश कला
ध्रुवैवास्य षोडशी कला स रात्रिभिरेवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते सोऽमावास्यां
रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते
तस्मादेतां रात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया
अपचित्यै
१४/४/३/२३
यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकलोऽयमेव स योऽयमेवंवित्पुरुषस्तस्य
वित्तमेव पञ्चदश कला आत्मैवास्य षोडशी कला स वित्तेनैवा च पूर्यतेऽप च
क्षीयते तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा प्रधिर्वित्तं तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं
जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनागादित्याहुः
१४/४/३/२४
अथ त्रयो वाव लोकाः मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति सोऽयं मनुष्यलोकः
पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोको देवलोको वै लोकानां
श्रेष्ठस्तस्माद्विद्यां प्रशंसन्ति
१४/४/३/२५
अथातः सम्प्रत्तिः यदा प्रैष्यन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म त्वं
यज्ञस्त्वं लोक इति स पुत्रः प्रत्याहाहं ब्रह्माहं यज्ञोऽहं लोक इति
१४/४/३/२६
यद्वै किं चानूक्तम् तस्य सर्वस्य ब्रह्मेत्येकता ये वै के च यज्ञास्तेषां
सर्वेषां यज्ञ इत्येकता ये वै के च लोकास्तेषां सर्वेषां लोक इत्येकतैतावद्वा इदं
सर्वमेतन्मा सर्वं सन्नयमितो भुनजदिति तस्मात्पुत्रमनुशिष्टं
लोक्यमाहुस्तस्मादेनमनुशासति स यदैवंविदस्माल्लोकात्प्रैत्यथैभिरेव प्राणैः
सह पुत्रमाविशति स यद्यनेन किंचिदक्ष्णयाकृतं भवति तस्मादेनं
सर्वस्मात्पुत्रो मुञ्चति तस्मात्पुत्रो नाम स पुत्रेणैवास्मिंलोके
प्रतितिष्ठत्यथैनमेते दैवाः प्राणा अमृता आविशन्ति
१४/४/३/२७
पृथिव्यै चैनमग्नेश्च दैवी वागाविशति सा वै दैवी वाग्यया यद्यदेव वदति
तत्तद्भवति
१४/४/३/२८
दिवश्चैनमादित्याच्च दैवं मन आविशति तद्वै दैवं मनो येनानन्द्येव
भवत्यथो न शोचति
१४/४/३/२९
अद्भ्यश्चैनं चन्द्रमसश्च दैवः प्राण आविशति स वै दैवः प्राणो यः
संचरंश्चासंचरंश्च न व्यथतेऽथो न रिश्यति स एष एवंवित्सर्वेषाम्
भूतानामात्मा भवति यथैषा देवतैवं स यथैतां देवतां सर्वाणि
भूतान्यवन्त्येवं हैवंविदं सर्वाणि भूतान्यवन्ति यदु किं चेमाः प्रजाः
शोचन्त्यमैवासां तद्भवति पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान्पापं गच्छति
१४/४/३/३०
अथातो व्रतमीमांसा प्रजापतिर्ह कर्माणि ससृजे तानि सृष्टान्यन्योऽन्येनास्पर्धन्त
वदिष्याम्येवाहमिति वाग्दध्रे द्रक्ष्याम्यहमिति चक्षुः श्रोष्याम्यहमिति
श्रोत्रमेवमन्यानि कर्माणि यथाकर्म
१४/४/३/३१
तानि मृत्युः श्रमो भूत्वोपयेमे तान्याप्नोत्तान्याप्त्वा मृत्युरवारुन्द्ध
तस्माच्राम्यत्येव वाक्श्राम्यति चक्षुः श्राम्यति श्रोत्रमथेममेव नाप्नोद्योऽयम्
मध्यमः प्राणः
१४/४/३/३२
तानि ज्ञातुं दध्रिरे ऽयं वै नः श्रेष्ठो यः संचरंश्चासंचरंश्च न
व्यथतेऽथो न रिष्यति हन्तास्यैव सर्वे रूपं भवामेति त एतस्यैव सर्वे
रूपमभवंस्तस्मादेत एतेनाख्यायन्ते प्राणा इति तेन ह वाव तत्कुलमाख्यायते
यस्मिन्कुले भवति य एवं वेद य उ हैवंविदा स्पर्धतेऽनुशुष्य हैवान्ततो
म्रियत इत्यध्यात्मम्
१४/४/३/३३
अथाधिदेवतं ज्वलिष्याम्येवाहमित्यग्निर्दध्रे तप्स्यास्यहमित्यादित्यो
भास्याम्यहमिति चन्द्रमा एवमन्या देवता यथादेवतं स यथैषां प्राणानाम्
मध्यमः प्राण एवमेतासां देवतानां वायुर्म्लोचन्ति ह्यन्या देवता न वायुः
सैषानस्तमिता देवता यद्वायुः
१४/४/३/३४
अथैष श्लोको भवति यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छतीति प्राणाद्वा एष उदेति
प्राणेऽस्तमेति तं देवाश्चक्रिरे धर्मं स एवाद्य स उ श्व इति यद्वा
एतेऽमुर्ह्यध्रियन्त तदेवाप्यद्य कुर्वन्ति तस्मादेकमेव व्रतं
चरेत्प्राण्याच्चैवापान्याच्च नेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नवदिति यद्यु
चरेत्समापिपयिषेत्तेनो एतस्यै देवतायै सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/४/४/१
त्रयं वा इदं नाम रूपं कर्म तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थमतो हि
सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां सामैतद्धि सर्वैर्नामभिः सममेतदेषाम्
ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्ति
१४/४/४/२
अथ रूपाणाम् चक्षुरित्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि रूपाण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां
सामैतद्धि सर्वै रूपैः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि रूपाणि बिभर्ति
१४/४/४/३
अथ कर्मणाम् आत्मेत्येतदेषामुक्थमतो हि सर्वाणि कर्माण्युत्तिष्ठन्त्येतदेषां
सामैतद्धि सर्वैः कर्मभिः सममेतदेषां ब्रह्मैतद्धि सर्वाणि कर्माणि
बिभर्ति तदेतत्त्रयं सदेकमयमात्मात्मो एकः सन्नेतत्त्रयं तदेतदमृतं
सत्येन च्छन्नं प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्यामयं प्राणश्चन्नः
१४/५/१/१
दृप्तबालाकिर्हानूचानो गार्ग्य आस स होवाचाजातशत्रुं काश्यं ब्रह्म ते ब्रवाणीति
स
होवाचाजातशत्रुः सहस्रमेतस्यां वाचि दद्मो जनको जनक इति वै जना धावन्तीति
१४/५/१/२
स होवाच गार्ग्यो य एवासावादित्ये पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा अतिष्ठाः सर्वेषां भूतानां मूर्धा
राजेति वा अहमेतमुपास इति स यएतमेवमुपास्तेऽतिष्ठाः सर्वेषां भूतानाम्
मूर्धा राजा भवति
१४/५/१/३
स होवाच गार्ग्यो य एवासौ चन्द्रे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा बृहन्पाण्डरवासाः सोमो राजेति वा
अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्तेऽहरहर्ह सुतः प्रसुतो भवति नास्यान्नं
क्षीयते
१४/५/१/४
स होवाच गार्ग्यो य एवायं विद्युति पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठास्तेजस्वीति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते तेजस्वी ह भवति तेजस्विनी हास्य प्रजा भवति
१४/५/१/५
स होवाच गार्ग्यो य एवायमाकाशे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठाः पूर्णमप्रवर्तीति वा अहमेतमुपास इति
स य एतमेवमुपास्ते पूर्यते प्रजया पशुभिर्नास्यास्माल्लोकात्प्रजोद्वर्तते
१४/५/१/६
स होवाच गार्ग्यो य एवायं वायौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा इन्द्रो वैकुण्ठोऽपराजिता सेनेति वा
अहमेतमुपास इति स य एतमेवमुपास्ते जिष्णुर्हापराजिष्णुर्भवत्यन्यतस्त्यजायी
१४/५/१/७
स होवाच गार्ग्यो य एवायमग्नौ पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा विषासहिरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते विषासहिर्ह भवति विषासहिर्हास्य प्रजा भवति
१४/५/१/८
स होवाच गार्ग्यो य एवायमप्सु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठाः प्रतिरूप इति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते प्रतिरूपं हैवैनमुपगच्छति नाप्रतिरूपमथो
प्रतिरूपोऽस्माज्जायते
१४/५/१/९
स होवाच गार्ग्यो य एवायमादर्शे पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा रोचिष्णुरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते रोचिष्णुर्ह भवति रोचिष्णुर्हास्य प्रजा भवत्यथो यैः संनिगच्छति
सर्वांस्तानतिरोचते
१४/५/१/१०
स होवाच गार्ग्यो य एवायं दिक्षु पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा द्वितीयोऽनपग इति वा अहमेतमुपास इति
स य एतमेवमुपास्ते द्वितीयवान्ह भवति नास्माद्गणश्चिद्यते
१४/५/१/११
स होवाच गार्ग्यो य एवायं यन्तं पश्चाच्छब्दोऽनूदैत्येतमेवाहं ब्रह्मोपास इति
स होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा असुरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते सर्वं हैवास्मिंलोक आयुरेति नैनं पुरा कालात्प्राणो जहाति
१४/५/१/१२
स होवाच गार्ग्यो य एवायं च्छायामयः पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा मृत्युरिति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्ते सर्वं हैवास्मिंलोक आयुरेति नैनं पुरा कालान्मृत्युरागच्छति
१४/५/१/१३
स होवाच गार्ग्यो यश्चायमात्मनि पुरुष एतमेवाहं ब्रह्मोपास इति स
होवाचाजातशत्रुर्मा मैतस्मिन्त्संवदिष्ठा आत्मन्वीति वा अहमेतमुपास इति स य
एतमेवमुपास्त आत्मन्वी ह भवत्यात्मन्विनी हास्य प्रजा भवति स ह तूष्णीमास
गार्ग्यः
१४/५/१/१४
स होवाचाजातशत्रुः एतावन्नू३ त्येतावद्धीति नैतावता विदितं भवतीति स होवाच
गार्ग्य उप त्वायानीति
१४/५/१/१५
स होवाचाजातशत्रुः प्रतिलोमं वै तद्यद्ब्राह्मणः क्षत्रियमुपेयाद्ब्रह्म मे
वक्ष्यतीति व्येव त्वा ज्ञपयिष्यामीति तं पाणावादायोत्तस्थौ तौ ह पुरुषं
सुप्तमाजग्मतुस्तमेतैर्नामभिरामन्त्रयां चक्रे बृहन्पाण्डरवासः सोम
राजन्निति स नोत्तस्थौ तं पाणिनापेषं बोधयां चकार स होत्तस्थौ
१४/५/१/१६
स होवाचाजातशत्रुः यत्रैष एतत्सुप्तोऽभूद्य एष विज्ञानमयः पुरुषः क्वैष
तदाभूत्कुत एतदागादिति तदु ह न मेने गार्ग्यः
१४/५/१/१७
स होवाचाजातशत्रुः यत्रैष एतत्सुप्तोऽभूद्य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषाम्
प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्चेति
१४/५/१/१८
तानि यदा गृह्णाति अथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम तद्गृहीत एव प्राणो भवति गृहीता
वाग्गृहीतं चक्षुर्गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः
१४/५/१/१९
स यत्रैतत्स्वप्न्यया चरति ते हास्य लोकास्तदुतेव महाराजो भवत्युतेव
महाब्राह्मण उतेवोच्चावचं निगच्छति
१४/५/१/२०
स यथा महाराजो जानपदान्गृहीत्वा स्वे जनपदे यथाकामम्
परिवर्तेतैवमेवैष एतत्प्राणान्गृहीत्वा स्वे शरीरे यथाकामं परिवर्तते
१४/५/१/२१
अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्य चन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः
सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते
१४/५/१/२२
स यथा कुमारो वा महाब्राह्मणो वा ऽतिघ्नीमानन्दस्य गत्वा शयीतैवमेवैष
एतच्छेते
१४/५/१/२३
स यथोर्णवाभिस्तन्तुनोच्चरेत् यथाग्नेः क्षुद्रा विष्फुलिङ्गा
व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि
भूतानि
सर्व एत आत्मानो व्युच्चरन्ति तस्योपनिषत्सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं
तेषामेष सत्यम्
१४/५/२/१
यो ह वै शिशुं साधनं सप्रत्याधानं सस्थूणं सदामं वेद सप्त ह द्विषतो
भ्रातृव्यानवरुणद्धि
१४/५/२/२
अयं वाव शिशुर्योऽयं मध्यमः प्राणः तस्येदमेवाधानमिदं प्रत्याधानम्
प्राण स्थूणान्नं दाम तमेताः सप्ताक्षितय उपतिष्ठन्ते
१४/५/२/३
तद्या इमा अक्षंलोहिन्यो राजयः ताभिरेनं रुद्रोऽन्वायत्तोऽथ या अक्षन्नापस्ताभिः
पर्जन्यो या कनीनका तयादित्यो यच्छुक्लं तेनाग्निर्यत्कृष्णं तेनेन्द्रोऽधरयैनं
वर्तन्या पृथिव्यन्वायत्ता द्यौरुत्तरया नास्यान्नं क्षीयते य एवं वेद
१४/५/२/४
तदेष श्लोको भवति अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो निहितं
विश्वरूपम् तस्यासत ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति
१४/५/२/५
अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्न इति इदं तच्छिर एष ह्यर्वाग्बिलश्चमस
ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपमिति प्राणा वै यशो निहितं विश्वरूपम्
प्राणानेतदाह तस्यासत ऋषयः सप्त तीर इति प्राणा वा ऋषयः प्राणानेतदाह
वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति वाग्घ्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते
१४/५/२/६
इमावेव गोतमभरद्वाजौ अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाज इमावेव
विश्वामित्रजमदग्नी अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरिमावेव
वसष्ठिकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचा
ह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै नामैतद्यदत्रिरिति सर्वस्यात्ता भवति सर्वमस्यान्नम्
भवति य एवं वेद
१४/५/३/१
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च
सच्च त्यं च
१४/५/३/२
तदेतन्मूर्तम् यदन्यद्वायोश्चान्तरिक्षाच्चैतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत्
१४/५/३/३
तस्यैतस्य मूर्तस्यैतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो य एष तपति
सतो ह्येष रसः
१४/५/३/४
अथामूर्तम् वायुश्चान्तरिक्षं चैतदमृतमेतद्यदेतत्त्यम्
१४/५/३/५
तस्यैतस्यामूर्तस्य एतस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो य एष
एतस्मिन्मण्डले पुरुषस्त्यस्य ह्येष रस इत्यधिदेवतम्
१४/५/३/६
अथाध्यात्मम् इदमेव मूर्तं यदन्यत्प्राणाच्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश
एतन्मर्त्यमेतत्स्थितमेतत्सत्
१४/५/३/७
तस्यैतस्य मूर्तस्य एतस्य मर्त्यस्यैतस्य स्थितस्यैतस्य सत एष रसो यच्चक्षुः
सतो ह्येष रसः
१४/५/३/८
अथामूर्तम् प्राणश्च यश्चायमन्तरात्मन्नाकाश एतदमृतमेतद्यदेतत्त्यम्
१४/५/३/९
तस्यैतस्यामूर्तस्य एतस्यामृतस्यैतस्य यत एतस्य त्यस्यैष रसो योऽयं
दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्त्यस्य ह्येष रसः
१४/५/३/१०
तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपम् यथा माहारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं
यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्तं सकृद्विद्युत्तेव
ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेद
१४/५/३/११
अथात आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत्परमस्त्यथ नामधेयं सत्यस्य
सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम्
१४/५/४/१
मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्यः उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि हन्त तेऽनया
कात्यायन्यान्तं करवाणीति
१४/५/४/२
स होवाच मैत्रेयी यन्म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्कथं
तेनामृता स्यामिति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते
जीवितं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति
१४/५/४/३
सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां यदेव भगवान्वेद
तदेव मे ब्रूहीति
१४/५/४/४
स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया वतारे नः सती प्रियं भाषस एह्यास्व व्याख्यास्यामि
ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ब्रवीतु भगवानिति
१४/५/४/५
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु
कामाय पतिः प्रियो भवति नवा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु
कामाय जाया प्रिया भवति न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्राः प्रिया
भवन्त्यात्मनस्तु कामाय पुत्राः प्रिया भवन्ति न वा अरे वित्तस्य कामाय वित्तम्
प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति न वा अरे ब्रह्मणः
कामाय ब्रह्म प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय ब्रह्म प्रियं भवति न वा अरे
क्षत्रस्य कामाय क्षत्रं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय क्षत्रं प्रियम्
भवति न वा अरे लोकानां कामाय लोकाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय लोकाः प्रिया
भवन्ति न वा अरे देवानां कामाय देवाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय देवाः
प्रिया भवन्ति न वा अरे भूतानां कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु
कामाय
भूतानि प्रियाणि भवन्ति न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु
कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं
सर्वं विदितम्
१४/५/४/६
ब्रह्म तं परादात् योऽन्यत्रात्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तम्
परादाद्योऽन्यत्रात्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद
देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो
भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं
क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा
१४/५/४/७
स यथा दुन्दुभेर्हन्यमानस्य न बाह्याञ्चब्दाञ्चक्नुयाद्ग्रहणाय दुन्दुभेस्तु
ग्रहणेन दुन्दुभ्याघातस्य वा शब्दो भवति गृहीतः
१४/५/४/८
स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्याञ्चब्दाञ्चक्नुयाद्ग्रहणाय वीणायै तु
ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो गृहीतः
१४/५/४/९
स यथा शङ्खस्य ध्मायमानस्य न बाह्याञ्चब्दाञ्चक्नुयाद्ग्रहणाय शङ्खस्य
तु ग्रहणेन शङ्खध्मस्य वा शब्दो गृहीतः
१४/५/४/१०
स यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो
भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः
पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानान्यस्यैवैतानि
सर्वाणि निश्वसितानि
१४/५/४/११
स यथा सर्वासामपां समुद्र एकायनम् एवं सर्वेषां स्पर्शानां
त्वगेकायनमेवं सर्वेषां गन्धानां नासिके एकायनमेवं सर्वेषां रसानां
जिह्वैकायनमेवं सर्वेषां रूपाणां चक्षुरेकायनमेवं सर्वेषां शब्दानां
श्रोत्रमेकायनमेवं सर्वेषां संकल्पानां मन एकायनमेवं सर्वेषां
वेदानां हृदयमेकायनमेवं सर्वेषां कर्मणां हस्तावेकायनमेवं
सर्वेषामध्वनां पादावेकायनमेवं सर्वेषामानन्दानन्दानामुपस्थ
एकायनमेवं सर्वेषां विसर्गाणां पायुरेकायनमेवं सर्वासां विद्यानां
वागेकायनम्
१४/५/४/१२
स यथा सैन्धवखिल्यः उदके प्रास्त उदकमेवानुविलीयेत नाहास्योद्ग्रहणायेव
स्याद्यतोयतस्त्वाददीत लवणमेवैवं वा अर इदं महद्भूतमनन्तमपारं
विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य
संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः
१४/५/४/१३
सा होवाच मैत्रेयी अत्रैव मा भगवानमूमुहन्न प्रेत्य संज्ञास्तीति
१४/५/४/१४
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे हं मोहं ब्रवीम्यलं वा अर इदं विज्ञानाय
१४/५/४/१५
यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर
इतरमभिवदति तदितर इतरं शृणोति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति
१४/५/४/१६
यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन
कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं
विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति
१४/५/५/१
इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्यां पृथिव्यां तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
शारीरस्तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदम्
ब्रह्मेदं सर्वम्
१४/५/५/२
इमा आपः सर्वेषां भूतानां मध्वासामपां सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमास्वप्सु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
रैतसस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/३
अयमग्निः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याग्नेः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नग्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
वाङ्मयस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/४
अयमाकाशः सर्वेषां भूतानां मध्वस्याकाशस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नाकाशे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
हृद्याकाशस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/५
अयं वायुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य वायोः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्वायौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
प्राणस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/६
अयमादित्यः सर्वेषां भूतानां मध्वस्यादित्यस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नादित्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
चक्षुषस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/७
अयं चन्द्रः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य चन्द्रस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिंश्चन्द्रे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
मानसस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/८
इमा दिशः सर्वेषां भूतानां मध्वासां दिशां सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमासु
दिक्षु तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं श्रौत्रः
प्रातिश्रुत्कस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/९
इयं विद्युत् सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै विद्युतः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्यां विद्युति तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
तैजसस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१०
अयं स्तनयित्नुः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य स्तनयित्नोः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्त्स्तनयित्नौ तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं शाब्दः
सौवरस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/११
अयं धर्मः सर्वेषां भूतानां मध्वस्य धर्मस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्धर्मे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
धार्मस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१२
इदं सत्यं सर्वेषां भूतानां मध्वस्य सत्यस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्त्सत्ये तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मं
सात्यस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१३
इदं मानुषम् सर्वेषां भूतानां मध्वस्य मानुषस्य सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्मानुषे तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्
मानुषस्तेजोमयोऽमृत>
१४/५/५/१४
अयमात्मा सर्वेषां भूतानां मध्वस्यात्मनः सर्वाणि भूतानि मधु
यश्चायमस्मिन्नात्मनि तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो यश्चायमात्मा
तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषोऽयमेव स योऽयमात्मेदममृतमिदं ब्रह्मेदम्
सर्वम्
१४/५/५/१५
स वा अयमात्मा सर्वेषां भूतानामधिपतिः सर्वेषां भूतानां राजा तद्यथा
रथनाभौ च रथनेमौ चाराः सर्वे समर्पिता एवमेवास्मिन्नात्मनि सर्वे प्राणाः
सर्वे लोकाः सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सर्वं एत आत्मानः समर्पिताः
१४/५/५/१६
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
तद्वां नरा सनये दंस उग्रमाविष्कृणोमि तन्यतुर्न वृष्टिं दध्यङ्ह
यन्मध्वाथर्वणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदीमुवाचेति
१४/५/५/१७
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
आथर्वणायाश्विना दधीचेऽश्व्यं शिरः प्रत्यैरयतं स वां मधु
प्रवोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वामिति
१४/५/५/१८
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
पुरश्चक्रे द्विपदः पुरश्चक्रे चतुष्पदः पुरः स पक्षी भूत्वा पुरः पुरुष
आविषदिति स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैनेन किं चनानावृतं
नैनेन किं चनासंवृतम्
१४/५/५/१९
इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽृ=विभ्यामुवाच तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत्
रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय इन्द्रो मायाभिः
पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेत्ययं वै हरयोऽयं वै दश च
सहस्राणि बहूनि चानन्तानि च तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्य मयमात्मा
ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशाव्सनम्
१४/५/५/२०
अथ वंशः तदिदं वयं शौर्पणाय्याचौर्पणाय्यो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यो
वात्स्याच्च पाराशर्याच्च पाराशर्यः सांकृत्याच्च भारद्वाजाच्च भारद्वाज
औदवाहेश्च
शाण्डिल्याच्च शाण्डिल्यो वैजवापाच्च गौतमाच्च गौतमो वैजवापायनाच्च
वैष्टपुरेयाच्च वैष्टपुरेयः शाण्डिल्याच्च रौहिणायनाच्च रौहिणायनः
शौनकाच्चात्रेयाच्च रैभ्याच्च रैभ्यः पौतिमाष्यायणाच्च कौण्डिन्यायनाच्च
कौण्डिन्यायनः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः
कौण्डिन्याच्चाग्निवेश्याच्च
१४/५/५/२१
आग्निवेश्यः सैतवात् सैतवः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकार्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च गौतमाच्च गौतमो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो वैजवापायनाद्वैजवापायनः कौशिकायनेः
कौशिकायनिर्घृतकौशिकाद्घृतकौशिकः पाराशर्यायणात्पाराशर्यायणः
पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो भारद्वाजाद्भारद्वाजो
भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च
यास्काच्चासुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्धनेरौपजन्धनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजा
द्भारद्वाज आत्रेयात्
१४/५/५/२२
आत्रेयो माण्टेः माण्टिर्गौतमाद्गौतमो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यः
शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात्कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात्कुमारहारितो
गालवाद्गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो
बाभ्रवाद्वत्सनपाद्बाभ्रवः पथः सौभरात्पन्थाः
सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो
विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच
आथर्वणाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वंसनान्मृत्युः प्राध्वंसनः प्रध्वंसनात्प्रध्वंसन
एकर्षेरेकर्षिविप्रजित्तेर्विप्रजित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः सनारोः सनारुः सनातनात्सनातनः
सनगात्सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु ब्रह्मणे
नमः
१४/६/१/१
जनको ह वैदेहो बहुदक्षिणेन यज्ञेनेजे तत्र ह कुरुपञ्चालानां ब्राह्मणा
अभिसमेता बभूवुस्तस्य ह जनकस्य वैदेहस्य विजिज्ञासा बभूव कः स्विदेषाम्
ब्राह्मणानामनूचानतम इति
१४/६/१/२
स ह गवां सहस्रमवरुरोध दशदश पादा एकैकस्याः शृङ्गयोराबद्धा
बभूवुस्तान्होवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वो ब्रह्मिष्ठः स एता गा उदजतामिति ते
ह ब्राह्मणा न दधृषुः
१४/६/१/३
अथ ह याज्ञवल्क्यः स्वमेव ब्रह्मचारिणमुवाचैताः सौम्योदज सामश्रवा३ इति ता
होदाचकार ते ह ब्राह्मणाश्चुक्रुधुः कथं नु नो ब्रह्मिष्ठो ब्रुवीतेति
१४/६/१/४
अथ ह जनकस्य वैदे हस्य होताश्वलो बभूव स हैनं पप्रच्छ त्वं नु खलु
नो याज्ञवल्क्य ब्रह्मिष्ठोऽसी३ इति स होवाच नमो वयं ब्रह्मिष्ठाय कुर्मो
गोकामा एव वयं स्म इति तं ह तत एव प्रष्टुं दध्रे होताश्वलः
१४/६/१/५
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वं मृत्युनाप्तं सर्वं मृत्युनाभिपन्नं केन
यजमानो मृत्योराप्तिमतिमुच्यत इति होत्रर्त्विजाग्निना वाचा वाग्वै यज्ञस्य होव्ता
तद्येयं वाक्षोऽयमग्निः स होता सा मुक्तिः सातिमुक्तिः
१४/६/१/६
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वमहोरात्राभ्यामाप्तं
सर्वमहोरात्राभ्यामभिपन्नं केन यजमानोऽहोरात्रयोराप्तिमतिमुच्यत
इत्यध्वर्युणर्त्विजा चक्षुषादित्येन चक्षुर्वै यज्ञस्याध्वर्युस्तद्यदिदं चक्षुः
सोऽसावादित्यः सोऽध्वर्युः सा मुक्तिः सातिमुक्तिः
१४/६/१/७
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वं पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामाप्तं सर्वम्
पूर्वपक्षापरपक्षाभ्यामभिपन्नं केन यजमानः
पूर्वपक्षापरपक्षयोराप्तिमतिमुच्यत इति ब्रह्मणर्त्विजा मनसा चन्द्रेण मनो
वै यज्ञस्य ब्रह्मा तद्यदिदं मनः सोऽसौ चन्द्रः स ब्रह्मा सा मुक्तिः
सातिमुक्तिः
१४/६/१/८
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदमन्तरिक्षमनारम्बणमिवाथ केनाक्रमेण
यजमानः स्वर्गं लोकमाक्रमत इत्युद्गात्रर्त्विजा वायुना प्राणेन प्राणो वै
यज्ञस्योद्गाता तद्योऽयं प्राण स वायुः स उद्गाता सा मुक्तिः सातिमुक्तिरित्यतिमोक्षा
अथ सम्पदः
१४/६/१/९
याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्यर्ग्भिर्होतास्मिन्यज्ञे करिष्यतीति तिसृभिरिति
कतमास्तास्तिस्र इति पुरोऽनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीया किं ताभिर्जयतीति
पृथिविलोकमेव पुरोऽनुवाक्यया जयत्यन्तरिक्षलोकं याज्यया द्यौर्लोकं शस्यया
१४/६/१/१०
याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्याध्वर्युरस्मिन्यज्ञ आहुतीर्होष्यतीति तिस्र इति
कतमास्तास्तिस्र इति या हुता उज्ज्वलन्ति या हुता अतिनेदन्ति या हुता अधिशेरते किं
ताभिर्जयतीति या हुता उज्ज्वलन्ति देवलोकमेव ताभिर्जयति दीप्यत इव हि देवलोको या
हुता अतिनेदन्ति मनुष्यलोकमेव ताभिर्जयत्यतीव हि मनुष्यलोको या हुता
अधिशेरते पितृलोकमेव ताभिर्जयत्यध इव हि पितृलोकः
१४/६/१/११
याज्ञवल्क्येति होवाच कतिभिरयमद्य ब्रह्मा यज्ञं दक्षिणतो
देवताभिर्गोपायिष्यतीत्येकयेति कतमा सैकेति मन एवेत्यनन्तं वै मनोऽनन्ता
विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति
१४/६/१/१२
याज्ञवल्क्येति होवाच कत्ययमद्योद्गातास्मिन्यज्ञे स्तोत्रिया स्तोष्यतीति तिस्र इति
कतमास्तास्तिस्र इति पुरोऽनुवाक्या च याज्या च शस्यैव तृतीयाधिदेवतमथाध्यात्मं
कतमास्ता या अध्यात्ममिति प्राण एव पुरोनुवाक्यापानो याज्या व्यानः शस्या किं
ताभिर्जयतीति यत्किं चेदं प्राणभृदिति ततो ह होताश्वल उपरराम
१४/६/२/१
अथ हैनं जारत्कारव आर्तभागः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच कति ग्रहाः
कत्यतिग्रहा इत्यष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहा ये तेऽष्टौ ग्रहा अष्टावतिग्रहाः कतमे
त इति
१४/६/२/२
प्राणो वै ग्रहः सोऽपानेनातिग्रहेण गृहीतोऽपानेन हि गन्धान्जिघ्रति
१४/६/२/३
जिह्वा वै ग्रहः स रसेनातिग्रहेण गृहीतो जिह्वया हि रसान्विजानाति
१४/६/२/४
वाग्वै ग्रहः स नाम्नातिग्रहेण गृहीतो वाचा हि नामान्यभिवदति
१४/६/२/५
चक्षुर्वै ग्रहः स रूपेणातिग्रहेण गृहीतश्चक्षुषा हि रूपाणि पश्यति
१४/६/२/६
श्रोत्रं वै ग्रहः स शब्देनातिग्रहेण गृहीतः श्रोत्रेण हि शब्दाञ्चृणोति
१४/६/२/७
मनो वै ग्रहः स कामेनातिग्रहेण गृहीतो मनसा हि कामान्कामयते
१४/६/२/८
हस्तौ वै ग्रहः स कर्मणातिग्रहेण गृहीतो हस्ताभ्यां हि कर्म करोति
१४/६/२/९
त्वग्वै ग्रहः स स्पर्शेनातिग्रहेण गृहीतस्त्वचा हि स्पर्शान्वेदयत इत्यष्टौ ग्रहा
अष्टावतिग्रहाः
१४/६/२/१०
याज्ञवल्क्येति होवाच यदिदं सर्वं मृत्योरन्नं का स्वित्सा देवता यस्या
मृत्युरन्नमित्यग्निर्वै मृत्युः सोऽपामन्नमप पुनर्मृत्युं जयति
१४/६/२/११
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियते किमेनं न जहातीति नामेत्यनन्तं
वै नामानन्ता विश्वे देवा अनन्तमेव स तेन लोकं जयति एव स तेन लोकं जयति
१४/६/२/१२
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रायं पुरुषो म्रियत उदस्मात्प्राणाः क्रामन्त्याहो नेति नेति
होवाच याज्ञवल्क्योऽत्रैव समवनीयन्ते स उच्वयत्याध्मायत्याध्मातो मृतः शेते
१४/६/२/१३
याज्ञवल्क्येति होवाच यत्रास्य पुरुषस्य मृतस्याग्निं वागप्येति वातम्
प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रं दिशः श्रोत्रं पृथिवीं
शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन्केशा अप्सु लोहितं च रेतश्च निधीयते
क्वायं तदा पुरुषो भवतीत्याहर सौम्य हस्तम्
१४/६/२/१४
आर्तभागेति होवाच आवमेवैतद्वेदिष्यावो न नावेतत्सजन इति तौ होत्क्रस्य
मन्त्रयां चक्रतुस्तौ ह यदूचतुः कर्म हैव तदूचतुरथ ह यत्प्रशशंसतुः
कर्म हैव तत्प्रशशंसतुः पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति ततो
ह जारत्कारव आर्तभाग उपरराम
१४/६/३/१
अथ हैनं भुज्युर्लाह्यायनिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेषु चरकाः
पर्यव्रजाम ते एतञ्चलस्य काप्यस्य गृहानैम तस्यासीद्दुहिता गन्धर्वगृहीता
तमपृच्छाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्सुधन्वाङ्गिरस इति तं यदा
लोकानामन्तानपृच्छामाथैतमब्रूम क्व पारिक्षिता अभवन्क्व पारिक्षिता
अभवन्निति तत्त्वा पृच्छामि याज्ञवल्क्य क्व पारिक्षिता अभवन्निति
१४/६/३/२
स होवाच उवाच वै स तदगच्छन्वै ते तत्र यत्राश्वमेधयाजिनो गच्छन्तीति क्व
न्वश्वमेधयाजिनो गच्छन्तीति द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्नूयान्ययं लोकस्तं
समन्तं लोकं द्विस्तावत्पृथिवी पर्येति तां पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति
तद्यावती क्षुरस्य धारा यावद्वा मक्षिकायाः पत्रं तावानन्तरेणाकाशस्तानिन्द्रः
सुपर्णो भूत्वा वायवे प्रायच्छत्तान्वायुरात्मनि धित्वा तत्रागमयद्यत्र पारिक्षिता
अभवन्नित्येवमिव वै स वायुमेव प्रशशंस तस्माद्वायुरेव व्यष्टिर्वायुः
समष्टिरप पुनर्मृत्युं जयति सर्वमायुरेति य एवं वेद ततो ह
भुज्युर्लाह्यायनिरुपरराम
१४/६/४/
अथ हैनं कहोडः कौषीतकेयः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा
सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो योऽषनायापिपासे शोकं मोहं जराम्
मृत्युमत्येत्येतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च
लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा
या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतस्तस्मात्पण्डितः पाण्डित्यं
निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेद्बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिरमौनं च
मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः स ब्राह्मणः केन स्याद्येन स्यात्तेनेदृश एव
भवति य एवं वेद ततो ह कहोडः कौषीतकेय उपरराम
१४/६/५
अथ हैनमुषस्तश्चाक्रायणः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच
यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा
सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य सर्वान्तरो यः प्राणेन प्राणिति स त आत्मा सर्वान्तरो
योऽपानेनापानिति स त आत्मा सर्वान्तरो यो व्यानेन व्यनिति स त आत्मा सर्वान्तरो य
उदानेनोदनिति स त आत्मा सर्वान्तरो यः समानेन समनिति स त आत्मा सर्वान्तरः स
होवाचोषस्तश्चाक्रायणो यथा वै ब्रूयादसौ गौरसावश्व
इत्येवमेवैतद्व्यपदिष्टं भवति यदेव साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा
सर्वान्तरस्तं मे व्याचक्ष्वेत्येष त आत्मा सर्वान्तरः कतमो याज्ञवल्क्य
सर्वान्तरो न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येर्न श्रुतेः श्रोतारं शृणुया न मतेर्मन्तारम्
मन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं विज्ञानीया एष त आत्मा सर्वान्तरोऽतोऽन्यदार्तं ततो
होषस्तश्चाक्रायण उपरराम
१४/६/६/
अथ हैनं गार्गी वाचक्नवी पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच यदितं सर्वमप्स्वोतं
च प्रोतं च कस्मिन्न्वाप ओताश्च प्रोतश्चेति वायौ गार्गीति कस्मिन्नु वायुरोतश्च
प्रोतश्चेत्याकाश एव गार्गीति कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेत्यन्तरिक्षलोकेषु गार्गीति
कस्मिन्न्वन्तरिक्षलोका ओताश्च प्रोताश्चेति द्यौर्लोके गार्गीति कस्मिन्नु द्यौर्लोक
ओतश्च प्रोतश्चेत्यादित्यलोकेषु गार्गीति कस्मिन्न्वादित्यलोका ओताश्च प्रोताश्चेति
चन्द्रलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु चन्द्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति नक्षत्रलोकेषु गार्गीति
कस्मिन्नु नक्षत्रलोका ओताश्च प्रोताश्चेति देवलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु देवलोका
ओताश्च प्रोताश्चेति गन्धर्वलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु गन्धर्वलोका ओताश्च प्रोताश्चेति
प्रजापतिलोकेषु गार्गीति कस्मिन्नु प्रजापतिलोका ओताश्च प्रोताश्चेति ब्रह्मलोकेषु
गार्गीति कस्मिन्नु ब्रह्मलोका ओताश्च प्रोताश्चेति स होवाच गार्गि मातिप्राक्षीर्मा ते
मूर्धा व्यपप्तदनतिप्रश्न्या वै देवता अतिपृच्छसि गार्गि मातिप्राक्षीरिति ततो ह गार्गी
वाचक्नव्युपरराम
१४/६/७/१
अथ हैनमुद्दालक आरुणिः पप्रच्छ याज्ञवल्क्येति होवाच मद्रेष्ववसाम
पतञ्चलस्य काप्यस्य गृहेषु यज्ञमधीयानास्तस्यासीद्भार्या गन्धर्वगृहीता
तमपृच्छाम कोऽसीति सोऽब्रवीत्कबन्ध आथर्वण इति
१४/६/७/२
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकांश्च वेत्थ नु त्वं काप्य तत्सूत्रं यस्मिन्नयं
च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्तीति सोऽब्रवीत्पतञ्चलः
काप्यो नाहं तद्भगवन्वेदेति
१४/६/७/३
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकांश्च वेत्थ नु त्वं काप्य तमन्तर्यामिणं य
इमं च लोकं परं च लोकं सर्वाणि च भूतान्यन्तरो यमयतीति
सोऽब्रवीत्पतञ्चलः काप्यो नाहं तं भगवन्वेदेति
१४/६/७/४
सोऽब्रवीत् पतञ्चलं काप्यं याज्ञिकांश्च यो वै तत्काप्य सूत्रं विद्यात्तं
चान्तर्यामिणं स ब्रह्मवित्स लोकवित्स देववित्स वेदवित्स यज्ञवित्स भूतवित्स
आत्मवित्स सर्वविदिति तेभ्योऽब्रवीत्तदहं वेद तच्चेत्त्वं याज्ञवल्क्य
सूत्रमविद्वांस्तं चान्तर्यामिणं ब्रह्मगवीरुदजसे मूर्धा ते विपतिष्यतीति
१४/६/७/५
वेद वा अहं गौतम तत्सूत्रं तं चान्तर्यामिणमिति यो वा इदं कश्च
ब्रूयाद्वेदवेदेति यथा वेत्थ तथा ब्रूहीति
१४/६/७/६
वायुर्वै गौतम तत्सूत्रम् वायुना वै गौतम सूत्रेणायं च लोकः परश्च लोकः
सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति तस्माद्वै गौतम पुरुषम्
प्रेतमाहुर्व्यस्रंसिषतास्याङ्गानीति वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि
भवन्तीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्यान्तर्यामिणं ब्रूहीति
१४/६/७/७
यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः
पृथिवीमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/८
सोऽप्सु तिष्ठन् अद्भ्योऽन्तरो यमापो न विदुर्यस्यापः शरीरं योऽपोऽन्तरो यमयति
स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/९
योऽग्नौ तिष्ठन् अग्नेरन्तरो यमग्निर्न वेद यस्याग्निः शरीरं योऽग्निमन्तरो
यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/१०
य आकाशे तिष्ठन् आकाशादन्तरो यमाकाशो न वेद यस्याकाशः शरीरं य
आकाशमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/११
यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुर्न वेद यस्य वायुः शरीरं यो
वायुमन्तरो यम>
१४/६/७/१२
य आदित्ये तिष्ठन् आदित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं य
आदित्यमन्तरो यम>
१४/६/७/१३
यश्चन्द्रतारके तिष्ठन् चन्द्रतारकादन्तरो यं चन्द्रतारकं न वेद यस्य
चन्द्रतारकं शरीरं यश्चन्द्रतारकमन्तरो यम>
१४/६/७/१४
यो दिक्षु तिष्ठन् दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं यो दिशोऽन्तरो
यम>
१४/६/७/१५
यो विद्युति तिष्ठन् विद्युतोऽन्तरो यं विद्युन्न वेद यस्य विद्युच्छरीरं यो
विद्युतमन्तरो यम>
१४/६/७/१६
य स्तनयित्नौ तिष्ठन् स्तनयित्नोरन्तरो यं स्तनयित्नुर्न वेद यस्य स्तनयित्नुः
शरीरं य स्तनयित्नुमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत
इत्यधिदेवतमथाधिलोकम्
१४/६/७/१७
यः सर्वेषु लोकेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो लोकेभ्योऽन्तरो यं सर्वे लोका न विदुर्यस्य
सर्वे लोकाः शरीरं यः सर्वांलोकानन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत इत्यु
एवाधिलोकमथाधिवेदम्
१४/६/७/१८
यः सर्वेषु वेदेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो वेदेभ्योऽन्तरो इत्यु
एवाधिवेदमथाधियज्ञम्
१४/६/७/१९
सर्वेषु यज्ञेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो यज्ञेभ्योऽन्तरो इत्यु
एवाधियज्ञमथाधिभूतम्
१४/६/७/२०
यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन् सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न
विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयति स त
आत्मान्तर्याम्यमृत इत्यु एवाधिभूतमथाध्यात्मम्
१४/६/७/२१
यः प्राणे तिष्ठन् प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरं यः
प्राणमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः
१४/६/७/२२
यो वाचि तिष्ठन् वाचोऽन्तरो>
१४/६/७/२३
यश्चक्षुषि तिष्ठन् चक्षुषोऽन्तरो>
१४/६/७/२४
यः श्रोत्रे तिष्ठन् श्रोत्रादन्तरो>
१४/६/७/२५
यो मनसि तिष्ठन् मनसोऽन्तरो>
१४/६/७/२६
यस्त्वचि तिष्ठन् त्वचोऽन्तरो>
१४/६/७/२७
यस्तेजसि तिष्ठन् तेजसोऽन्तरो>
१४/६/७/२८
यस्तमसि तिष्ठन् तमसोऽन्तरो>
१४/६/७/२९
यो रेतसि तिष्ठन् रेतसोऽन्तरो>
१४/६/७/३०
य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो>
१४/६/७/३१
अदृष्टो द्रष्टाश्रुतः श्रोता अमतो मन्ताविज्ञातो विज्ञाता नान्योऽस्ति द्रष्टा नान्योऽस्ति
श्रोता नान्योऽस्ति मन्ता नान्योऽस्ति विज्ञातैष त आत्मान्तर्याम्यमृतोऽतोऽन्यदार्तं ततो
होद्दालक आरुणिरुपरराम
१४/६/८/१
अथ ह वाचक्नव्युवाच ब्राह्मणा भगवन्तो हन्ताहमिमं याज्ञवल्क्यं द्वौ
प्रश्नौ प्रक्ष्यामि तौ चेन्मे विवक्ष्यति न वै जातु युष्माकमिमं
कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति तौ चेन्मे न विवक्ष्यति मूर्धास्य विपतिष्यतीति पृच्छ
गार्गीति
१४/६/८/२
सा होवाच अहं वै त्वा याज्ञवल्क्य यथा काश्यो वा वैदेहो ओग्रपुत्र उद्यं
धनुरधिज्यं कृत्वा द्वौ वाणवन्तौ सपत्नाधिव्याधिनौ हस्ते
कृत्वोपोत्तिष्ठेदेवमेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थां तौ मे ब्रूहीति
पृच्छ गार्गीति
१४/६/८/३
सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिंस्तदोतं च प्रोतं चेति
१४/६/८/४
स होवाच यदूर्ध्वं गार्गी दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाशे तदोतं च प्रोतं चेति
१४/६/८/५
सा होवाच नमस्ते याज्ञवल्क्य यो म एतं व्यवोचोऽपरस्मै धारयस्वेति पृच्छ
गार्गीति
१४/६/८/६
सा होवाच यदूर्ध्वं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षते कस्मिन्नेव तदोतं च प्रोतं चेति
१४/६/८/७
स होवाच यदूर्ध्वं गार्गी दिवो यदवाक्पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे
यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति
कस्मिन्न्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति
१४/६/८/८
स होवाच एतद्वै तदक्षरं गार्गी ब्राह्मणा
अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवाय्वना
काशमसङ्गमस्पर्शमगन्धमरसमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनोऽतेजस्कम
प्राणममुखमनामागोत्रमजरममरमभयममृतमरजोऽशब्दमविवृतम
संवृतमपूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यं न तदश्नोति कं चन न तदश्नोति
कश्चन
१४/६/८/९
एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी द्यावापृथिवी विधृते तिष्ठत एतस्य वा
अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य
प्रशासने गार्ग्यहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा विधृतास्तिष्ठन्त्येतस्य
वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि प्राच्योऽन्या नद्यः स्यन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः
प्रतीच्योऽन्या यां यां च दिशमेतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ददतम्
मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवा दर्व्यं पितरोऽन्वायत्ताः
१४/६/८/१०
यो वा एतदक्षरमविदित्वा गार्गि अस्मिंलोके जुहोति ददाति तपस्यत्यपि बहूनि
वर्षसहस्राण्यन्तवानेवास्य स लोको भवति यो वा एतदक्षरमविदित्वा
गार्ग्यस्माल्लोकात्प्रैति स कृपणोऽथ य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स
ब्राह्मणः
१४/६/८/११
तद्वा एतदक्षरं गार्गि अदृष्टं द्रष्ट्रश्रुतं मन्त्र!विज्ञातं विज्ञातृ नान्यदस्ति
द्रष्टृ नान्यदस्ति श्रोतृ नान्यदस्ति मन्तृ नान्यदस्ति विज्ञात्रेतद्वै तदक्षरं गार्गि
यस्मिन्नाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति
१४/६/८/१२
सा होवाच ब्राह्मणा भगवन्तस्तदेव बहु मन्यध्वं यदस्मान्नमस्कारेण
मुच्याध्वै न वै जातु युष्माकमिमं कश्चिद्ब्रह्मोद्यं जेतेति ततो ह
वाचक्नव्युपरराम
१४/६/९/१
अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच्छ कति देवा याज्ञवल्क्येति स हैतयैव निविदा
प्रतिपेदे यावन्तो वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते त्रयश्च त्री च शता त्रयश्च त्री च
सहस्रेत्योमिति होवाच
१४/६/९/२
कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति त्रयस्त्रिंशदित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति
षडित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति त्रय इत्योमिति होवाच कत्येव देवा
याज्ञवल्क्येति द्वावित्योमिति होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्यध्यर्ध इत्योमिति
होवाच कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्येक इत्योमिति होवाच कतमे ते त्रयश्च त्री च शता
त्रयश्च त्री च सहस्रेति
१४/६/९/३
स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिंशत्त्वेव देवा इति कतमे ते
त्रयस्त्रिंशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्त एकत्रिंशदिन्द्रश्चैव
प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिंशाविति
१४/६/९/४
कतमे वसव इति अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च
नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते
तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति
१४/६/९/५
कतमे रुद्रा इति दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते
यदास्मान्मर्त्याच्छरीरादुत्क्रामन्त्यथ रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति
१४/६/९/६
कतम आदित्या इति द्वादश मासाः संवत्सरस्यैत आदित्या एते हीदं सर्वमाददाना
यन्ति तद्यदिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति
१४/६/९/७
कतम इन्द्रः कतमः प्रजापतिरिति स्तनयित्नुरेवेन्द्रो यज्ञः प्रजापतिरिति कतम
स्तनयित्नुरित्यशनिरिति कतमो यज्ञ इति पशव इति
१४/६/९/८
कतमे षडिति अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्चैते ह्येवेदं
सर्वं षडिति
१४/६/९/९
कतमे ते त्रयो देवा इतीम एव त्रयो लोका एषु हीमे सर्वे देवा इति कतमौ द्वौ
देवावित्यन्नं चैव प्राणश्चेति कतमोऽध्यर्ध इति योऽयं पवत इति
१४/६/९/१०
तदाहुः यदयमेक एव पवतेऽथ कथमध्यर्ध इति यदस्मिन्निदं
सर्वमध्यार्ध्नोत्तेनाध्यर्ध इति कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते
१४/६/९/११
पृथिव्येव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनोज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्यात्मनः परायणं स वै वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य वेद वा अहं तम्
पुरुषं सर्वस्यात्मनः परायणं यमात्थ य एवायं शारीरः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति स्त्रिय इति होवाच
१४/६/९/१२
रूपाण्येव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनोज्योतिर्यो वै तं पुरुषं
विद्यात्सर्वस्यात्मनः परायणं स वै वेदिता स्याद्याज्ञवल्क्य वेद वा अहं तम्
पुरुषं सर्वस्यात्मनः परायणं यमात्थ य एवासावादित्ये पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति चक्षुरिति होवाच
१४/६/९/१३
आकाश एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायं वायौ पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति प्राण इति होवाच
१४/६/९/१४
काम एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवासौ चन्द्रे पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति मन इति होवाच
१४/६/९/१५
तेज एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायमग्नौ पुरुषः स एष वदैव
शाकल्य तस्य का देवतेति वागिति होवाच
१४/६/९/१६
तम एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायं च्छायामयः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति मृत्युरिति होवाच
१४/६/९/१७
आप एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायमप्सु पुरुषः स एष वदैव
शाकल्य तस्य का देवतेति वरुण इति होवाच
१४/६/९/१८
रेत एव यस्यायतनम् चक्षुर्लोको मनो> य एवायं पुत्रमयः पुरुषः स एष
वदैव शाकल्य तस्य का देवतेति प्रजापतिरिति होवाच
१४/६/९/१९
शाकल्येति होवाच याज्ञवल्क्यः त्वां स्विदिमे ब्राह्मणा अङ्गारावक्षयणमक्रता३ इति
१४/६/९/२०
याज्ञवल्क्येति होवाच शाकल्यो यदिदं कुरुपञ्चालानां ब्राह्मणानत्यवादीः किम्
ब्रह्म विद्वानिति दिशो वेद सदेवाः सप्रतिष्ठा इति यद्दिशो वेत्थ सदेवाः
सप्रतितिष्ठाः
१४/६/९/२१
किंदेवतोऽस्यां प्राच्यां दिश्यसीति आदित्यदेवत इति स आदित्यः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
चक्षुषीति कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितं भवतीति रूपेष्विति चक्षुषा हि रूपाणि
पश्यति कस्मिन्नु रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीति हृदय इति हृदयेन हि रूपाणि जानाति
हृदये ह्येव रूपाणि प्रतिष्ठितानि भवन्तीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२२
किंदेवतोऽस्यां दक्षिणायां दिश्यसीति यमदेवत इति स यमः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
दक्षिणायामिति कस्मिन्नु दक्षिणा प्रतिष्ठिता भवतीति श्रद्धायामिति यदा ह्येव
श्रद्धत्तेऽथ दक्षिणां ददाति श्रद्धायां ह्येव दक्षिणा प्रतिष्ठिता भवतीति
कस्मिन्नु श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीति हृदय इति हृदयेन हि श्रद्धत्ते हृदये
ह्येव श्रद्धा प्रतिष्ठिता भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२३
किंदेवतोऽस्यां प्रतीच्यां दिश्यसीति वरुणदेवत इति स वरुणः कस्मिन्प्रतिष्ठित
इत्यप्स्विति कस्मिन्न्वापः प्रतिष्ठिता भवन्तीति रेतसीति कस्मिन्नु रेतः प्रतिष्ठितम्
भवतीति हृदय इति तस्मादपि प्रतिरूपं जातमाहुर्हृदयादिव सृप्तो हृदयादिव
निर्मित इति हृदये ह्येव रेतः प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२४
किंदेवतोऽस्यामुदीच्यां दिश्यसीति सोमदेवत इति स सोमः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
दीक्षायामिति कस्मिन्नु दीक्षा प्रतिष्ठिता भवतीति सत्य इति तस्मादपि
दीक्षितमाहुः सत्यं वदेति सत्ये ह्येव दीक्षा प्रतिष्ठिता भवतीति कस्मिन्नु
सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीति हृदय इति हृदयेन हि सत्यं जानाति हृदये ह्येव
सत्यं प्रतिष्ठितं भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/६/९/२५
किंदेवतोऽस्यां ध्रुवाया+ दिश्यसीति अग्निदेवत इति सोऽग्निः कस्मिन्प्रतिष्ठित इति
वाचीति कस्मिन्नु वाक्प्रतिष्ठिता भवतीति मनसीति कस्मिन्नु मनः प्रतिष्ठितम्
भवतीति हृदय इति कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितं भवतीति
१४/६/९/२६
अहल्लिकेति होवाच याज्ञवल्क्यो यत्रैतदन्यत्रास्मन्मन्यासै
यत्रैतदन्यत्रास्मत्स्याच्वानो वैनदद्युर्वयांसि वैनद्विमथ्नीरन्निति
१४/६/९/२७
कस्मिन्नु त्वं चात्मा च प्रतिष्ठितौ स्थ इति प्राण इति कस्मिन्नु प्राणः प्रतिष्ठित
इत्यपान इति कस्मिन्न्वपानः प्रतिष्ठित इति व्यान इति कस्मिन्नु व्यानः प्रतिष्ठित
इत्युदान इति कस्मिन्नूदानः प्रतिष्ठित इति समान इति
१४/६/९/२८
स एष तेति नेत्यास्मा अगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गोऽसितो न सज्यते न
व्यथत इत्येतान्यष्टावायतनान्यष्टौ लोका अष्टौ पुरुषाः स
यस्तान्पुरुषान्व्युदुह्य प्रत्युह्यात्यक्रामीत्तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि
तं चेन्मे न विवक्ष्यसि मूर्धा ते विपतिष्यतीति तं ह शाकल्यो न मेने तस्य ह
मूर्धा विपपात तस्य हाप्यन्यन्मन्यमानाः परिमोषिणोऽस्थीन्यपजह्रुः
१४/६/९/२९
अथ ह याज्ञवल्क्य उवाच ब्राह्मणा भगवन्तो यो वः कामयते स मा पृच्छतु सर्वे
वा मा पृच्छत यो वः कामयते तं वः पृच्छानि सर्वान्वा वः पृच्छानीति तेह ब्राह्मणा
न
दधृषुः
१४/६/९/३०
तान्हैतैः श्लोकैः पप्रच्छ यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा तस्य
पर्णानि लोमानि त्वगस्योत्पाटिका बहिः
१४/६/९/३१
त्वच एवास्य रुधिरं प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः तस्मात्तदातुन्नात्प्रैति रसो
वृक्षादिवाहतात्
१४/६/९/३२
मांसान्यस्य शकराणि किनाटं स्नाव तत्स्थिरम् अस्थीन्यन्तरतो दारूणि मज्जा
मज्जोपमा कृता
१४/६/९/३३
यद्वृक्षो वृक्णो रोहति मूलान्नवतरः पुनः मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः
कस्मान्मूलात्प्ररोहति
१४/६/९/३४
रेतस इति मा वोचत जीवतस्तत्प्रजायते जात एव न जायते को न्वेनं जनयेत्पुनः
धानारुह उ वै वृक्षोऽन्यतः प्रेत्य सम्भवः यत्समूलमुद्वृहेयुर्वृक्षं न
पुनराभवेत्मर्त्यः स्विन्मृत्युना वृक्णः कस्मान्मूलात्प्ररोहति विज्ञानमानन्दम्
ब्रह्म रातेर्दातुः परायणम् तिष्ठमानस्य तद्विद इति
१४/६/१०/१
जनको ह वैदेह आसां चक्रे अथ ह याज्ञवल्क्य आवव्राज स होवाच जनको वैदेहो
याज्ञवल्क्य किमर्थमचारीः पशूनिच्छन्नण्वन्तानित्युभयमेव सम्राडिति होवाच
यत्ते कश्चिदब्रवीत्तचृणवामेति
१४/६/१०/२
अब्रवीन्म उदङ्कः शौल्वायनः प्राणो वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तचौल्वायनोऽब्रवीत्प्राणो वै ब्रह्मेत्यप्राणतो
हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा
एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/३
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य स एवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रियमित्येनदुपासीत का
प्रियता याज्ञवल्क्य प्राण एव सम्राडिति होवाच प्राणस्य वै सम्राट्कामायायाज्यं
याजयत्यप्रतिगृह्यस्य प्रतिगृह्णात्यपि तत्र वधाशङ्गा भवति यां दिशमेति
प्राणस्यैव सम्राट्कामाय प्राणो वै सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं प्राणो जहाति
सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/४
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृषभं सहस्रं ददामीति
होवाच जनको वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति क एव ते किमब्रवीदिति
१४/६/१०/५
अब्रवीन्मे जित्वा शैलिनो वाग्वै ब्रह्मेति यथा मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा
तचैलिनोऽब्रवीद्वाग्वै ब्रह्मेत्यववदतो हि किं स्यादब्रवीत्तु ते तस्यायतनम्
प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/६
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य वागेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रज्ञेत्येनदुपासीत का
प्रज्ञता याज्ञवल्क्य वागेव सम्राडिति होवाच वाचा वै सम्राड्बन्धुः प्रज्ञायत
ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः
सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि वाचैव सम्राट्प्रज्ञायन्ते वाग्वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं वाग्जहाति सर्वाण्येन
ं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/७
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ>
१४/६/१०/८
अब्रवीन्मे वर्कुवार्ष्णः चक्षुर्वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तद्वार्ष्णोऽब्रवीच्चक्षुर्वै ब्रह्मेत्यपश्यतो
हि किं स्यादब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा
एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/९
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य चक्षुरेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा
सत्यमित्येनदुपासीत का सत्यता याज्ञवल्क्य चक्षुरेव सम्राडिति होवाच चक्षुषा
वै सम्राट्पश्यन्तमाहुरद्राक्षीरिति स आहाद्राक्षमिति तत्सत्यं भवति चक्षुर्वै
सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं चक्षुर्जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१०
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ
१४/६/१०/११
अब्रवीन्मे गर्दभीविपीतो भारद्वाजः श्रोत्रं वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तद्भारद्वाजोऽब्रवीच्रोत्रं वै
ब्रह्मेत्यशृण्वतो हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/१२
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य श्रोत्रमेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठानन्त इत्येनदुपासीत
कानन्तता याज्ञवल्क्य दिश एव सम्राडिति होवाच तस्माद्वै सम्राड्यां कां च दिशं
गच्छति नैवास्या अन्तं गच्छत्यनन्ता हि दिशः श्रोत्रं हि दिशः श्रोत्रं वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं श्रोत्रं जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१३
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ>
१४/६/१०/१४
अब्रवीन्मे सत्यकामो जावालो मनो वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तत्सत्यकामोऽब्रवीन्मनो वै
ब्रह्मेत्यमनसो हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/१५
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य मन एवायतनमाकाशः प्रतिष्ठानन्द इत्येनदुपासीत
कानन्दता याज्ञवल्क्य मन एव सम्राडिति होवाच मनसा वै सम्राट्
स्त्रियमभिहर्यति तस्यां प्रतिरूपः पुत्रो जायते स आनन्दो मनो वै सम्राट्
परमं ब्रह्म नैनं मनो जहाति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१६
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृ>
१४/६/१०/१७
अब्रवीन्मे विदग्धः शाकल्यो हृदयं वै ब्रह्मेति यथा
मातृमान्पितृमानाचार्यवान्ब्रूयात्तथा तच्छाकल्योऽब्रवीद्धृदयं वै
ब्रह्मेत्यहृदयस्य हि किं स्यादित्यब्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठां न
मेऽब्रवीदित्येकपाद्वा एतत्सम्राडिति
१४/६/१०/१८
स वै नो ब्रूहि याज्ञवल्क्य हृदयमेवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा
स्थितिरित्येनदुपासीत का स्थितिता याज्ञवल्क्य हृदयमेव सम्राडिति होवाच हृदयं
वै सम्राट्सर्वेषां भूतानां प्रतिष्ठा हृदयेन हि सर्वाणि भूतानि प्रतितिष्ठन्ति
हृदयं वै सम्राट्परमं ब्रह्म नैनं हृदयं जहाति सर्वाण्येनम्
भूतान्यभिक्षरन्ति
१४/६/१०/१९
देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते हस्त्यृषभं सहस्रं ददामीति
होवाच जनको वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यः पिता मेऽमन्यत नाननुशिष्य
हरेतेति
१४/६/११/१
अथ ह जनको वैदेहः कूर्चादुपावसर्पन्नुवाच नमस्ते याज्ञवल्क्यानु मा
शाधीति स होवाच यथा वै सम्राण्महान्तमध्वानमेष्यन्रथं वा नावं वा
समाददीतैवमेवैताभिरुपनिषद्भिः समाहितात्मास्येवं वृन्दारक आढ्यः
सन्नधीतवेद उक्तोपनिषत्क इतो विमुच्यमानः क्व गमिष्यसीति नाहं
तद्भगवन्वेद यत्र गमिष्यामीत्यथ वै तेऽहं तद्वक्ष्यामि यत्र गमिष्यसीति
ब्रवीतु भगवानिति
१४/६/११/२
स होवाच इन्धो वै नामैष योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तं वा एतमिन्धं
सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोऽक्षेणेव परोऽक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः
१४/६/११/३
अथैतद्वामेऽक्षिणि पुरुषरूपम् एषास्य पत्नी विराट्तयोरेष संस्तावो य
एषोऽन्तर्हृदय आकाशोऽथैनयोरेतदन्नं य एषोऽन्तर्हृदये
लोहितपिण्डोऽथैनयोरेतत्प्रावरणं यदेतदन्तर्हृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः
सती संचरणी यैषा हृदयादूर्ध्वां नाड्युच्चरति
१४/६/११/४
ता वा अस्यैताः हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्न एताभिर्वा
एतमास्रवदास्रवति तस्मादेष प्रविविक्ताहारतर इव भवत्यस्माच्छारीरादात्मनः
१४/६/११/५
तस्या वा एतस्य पुरुषस्य प्राची दिक्प्राञ्चः प्राणा दक्षिणा दिग्दक्षिणाः प्राणाः
प्रतीची दिक्प्रत्यञ्चः प्राणा उदीची दिगुदञ्चः प्राणा ऊ ऊर्ध्वा दिगूर्ध्वाः प्राणा
अवाची
दिगवाञ्चः प्राणा सर्वा दिशः सर्वे प्राणाः
१४/६/११/६
स एष नेति नेत्यात्मा अगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गोऽसितो न सज्यते न
व्यथतेऽभयं वै जनक प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः स होवाच जनको वैदेहो
नमस्ते याज्ञवल्क्याभयं त्वागच्छताद्यो नो भगवन्नभयं वेदयस इमे विदेहा
अयमहमस्मीति
१४/७/१/१
जनकं ह वैदेहं याज्ञवल्क्यो जगाम समेनेन वदिष्य इत्यथ ह यज्जनकश्च
वैदेहो याज्ञवल्क्यश्चाग्निहोत्रे समूदतुस्तस्मै ह याज्ञवल्क्यो वरं ददौ स ह
कामप्रश्नमेव वव्रे तं हास्मै ददौ तं ह सम्राडेव पूर्वः पप्रच्छ
१४/७/१/२
याज्ञवल्क्य किंज्योतिरयं पुरुष इति आदित्यज्योतिः सम्राडिति होवाचादित्येनैवायं
ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते उइपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/३
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य किंज्योतिरेवायं पुरुष इति चन्द्रज्योतिः सम्राडिति
होवाच चन्द्रेणैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/४
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते किंज्योतिरेवायं पुरुष
इत्यग्निज्योतिः सम्राडिति होवाचाग्निनैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/५
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ किंज्योतिरेवायं पुरुष
इति वाग्ज्योतिः सम्राडिति होवाच वाचैवायं ज्योतिषास्ते पल्ययते कर्म कुरुते
विपर्येतीति तस्माद्वै सम्राडपि यत्र स्वः पाणिर्न विनिर्ज्ञायतेऽथ यत्र
वागुच्चरत्युपैव तत्र ण्येतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य
१४/७/१/६
अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते शान्तेऽग्नौ शान्तायां वाचि
किंज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मज्योतिः सम्राडिति होवाचात्मनैवायं ज्योतिषास्ते
पल्ययते कर्म कुरुते विपर्येतीति
१४/७/१/७
कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः पुरुषः प्राणेषु हृद्यन्तर्ज्योतिः स समानः
सन्नुभौ लोकौ संचरति ध्यायतीव लेलायतीव सधीः स्वप्नो भूत्वेमं
लोकमतिक्रामति
१४/७/१/८
स वा अयं पुरुषो जायमानः शरीरमभिसम्पद्यमानः पाप्मभिः संसृज्यते स
उत्क्रामन्म्रियमाणः पाप्मनो विजहाति मृत्यो रूपाणि
१४/७/१/९
तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत इदं च परलोकस्थानं च
संध्यं तृतीयं स्वप्नस्थानं तस्मिन्त्संध्ये स्थाने तिष्ठन्नुभे स्थाने
पश्यतीदं च परलोकस्थानं च
१४/७/१/१०
अथ यथाक्रमोऽयं परलोकस्थाने भवति तमाक्रममाक्रम्योभयान्पाप्मन
आनन्दांश्च पश्यति स यत्रायं प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय
स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुषः
स्वयंज्योतिर्भवति
१४/७/१/११
न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्ति अथ रथान्रथयोगान्पथः
सृजते न तत्रानन्दा मुदः प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुदः प्रमुदः सृजते न
तत्र वेशान्ताः स्रवन्त्यः पुष्करिण्यो भवन्त्यथ वेशान्ताः स्रवन्तीः पुष्करिणीः
सृजते स हि कर्ता
१४/७/१/१२
तदप्येते श्लोकाः स्वप्नेन शारीरमभिप्रहत्यासुप्तः सुप्तानभिचाकशीति
शुक्रमादाय पुनरैति स्थानं हिरण्मयः पौरुष एकहंसः
१४/७/१/१३
प्राणेन रक्षन्नपरं कुलायं बहिष्कुलायादमृतश्चरित्वा स ईयते अमृतो
यत्रकामं हिरण्मयः पौरुष एकहंसः
१४/७/१/१४
स्वप्नान्त उच्चावचमीयमानो रूपाणि देवः कुरुते बहूनिउतेव स्त्रीभिः सह
मोदमानो जक्षदुतेवापि भयानि पश्यन्
१४/७/१/१५
आराममस्य पश्यन्ति न तं कश्चन पश्यतीति तं नायतम्
बोधयेदित्याहुर्दुर्भिषज्यं हास्मै भवति यमेष न प्रतिपद्यते
१४/७/१/१६
अथो खल्वाहुः जागरितदेश एवास्यैष यानि ह्येव जाग्रत्पश्यति तानि सुप्त इत्यत्रायम्
पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवतीत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं
ददाम्यत ऊर्ध्वं विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/१७
स वा एष एतस्मिन्त्स्वप्नान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुनः
प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यदत्र
किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/१८
तद्यथा महामत्स्यः उभे कूले अनुसंचरति पूर्वं चापरं चैवमेवायम्
पुरुष एता उभावन्तावनुसंचरति स्वप्नान्तं च बुद्धान्तं च
१४/७/१/१९
तद्यथास्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्य श्रान्तः संहत्य पक्षौ
सल्लयायैव ध्रियत एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति यत्र सुप्तो न कं
चन कामं कामयते न कं चन स्वप्नं पश्यति
१४/७/१/२०
ता वा अस्यैता हिता नाम नाड्यो यथा केशः सहस्रधा भिन्नस्तावताणिम्ना तिष्ठन्ति
शुक्लस्य नीलस्य पिङ्गलस्य हरितस्य लोहितस्य पूर्णा अथ यत्रैनं घ्नन्तीव
जिनन्तीव हस्तीव विचाययति गर्तमिव पतति यदेव जाग्रद्भयं पश्यति
तदत्राविद्यया भयं मन्यतेऽथ यत्र राजेव देवैवाहमेवेदं सर्वमस्मीति
मन्यते सोऽस्य परमो लोकोऽथ यत्र सुप्तो न कं चन कामं कामयते न कं
चन स्वप्नं पश्यति
१४/७/१/२१
तद्वा अस्यैतत् आत्मकाममाप्तकाममकामं रूपं तद्यथा प्रियया स्त्रिया
सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नान्तरमेवमेवायं शारीर आत्मा
प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तो न बाह्यं किं चन वेद नान्तरम्
१४/७/१/२२
तद्वा अस्यैतत् अतिच्छन्दोऽपहतपाप्माभयं रूपमशोकान्तरमत्र पितापिता भवति
मातामाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदा यज्ञा अयज्ञा अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति
भ्रूणहाभ्रूणहा पौल्कसोऽपौल्कसश्चाण्डालो चाण्डालः श्रमणोऽश्रमणस्तापसो
तापसोऽनन्वागतः पुण्येनान्वागतः पापेन तीर्णो हि तदा सर्वाञ्चोकान्हृदयस्य
भवति
१४/७/१/२३
यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तद्द्रष्टव्यं न पश्यति न हि
द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यत्पश्येत्
१४/७/१/२४
यद्वै तन्न जिघ्रति जिघ्रन्वै तद्घ्रातव्यं न जिघ्रति न हि
घ्रातुर्घ्राणाद्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं
यज्जिघ्रेत्
१४/७/१/२५
यद्वै तन्न रसयति विजानन्वै तद्रसं न रसयति न हि रसयितू रसाद्विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्रसयेत्
१४/७/१/२६
यद्वै तन्न वदति वदन्वै तद्वक्तव्यं न वदति न हि वक्तुर्वचो विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यद्वदेत्
१४/७/१/२७
यद्वै तन्न शृणोति शृण्वन्वै तच्रोतव्यं न शृणोति न हि श्रोतुः श्रुतेर्विपरिलोपो
विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यचृणुयात्
१४/७/१/२८
यद्वै तन्न मनुते मन्वानो वै तन्मन्तव्यं न मनुते न हि
मन्तुर्मतेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्तिततोऽन्यद्विभक्तं
यन्मन्वीत
१४/७/१/२९
यद्वै तन्न स्पृशति स्पृशन्वै तत्स्प्रष्टव्यं न स्पृशति न हि स्प्रष्टु
स्पृष्टेर्विपरिलोपोऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्स्पृशेत्
१४/७/१/३०
यद्वै तन्न विजानाति विजानन्वै तद्विज्ञेयं न विजानाति न हि
विज्ञातुर्विज्ञानाद्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्न तु तद्द्वितीयमस्ति
ततोऽन्यद्विभक्तं यद्विजानीयात्
१४/७/१/३१
सलिल एको द्रष्टाद्वैतो भवति एष ब्रह्मलोकः सम्राडिति हैनमुवाचैषास्य
परमो लोक एषोऽस्य परम आनन्द एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि
मात्रामुपजीवन्ति
१४/७/१/३२
स यो मनुष्याणां रुद्धः समृद्धो भवति अन्येषामधिपतिः
सर्वैर्मानुष्यकैः कामैः सम्पन्नतमः स मनुष्याणां परम आनन्दः
१४/७/१/३३
अथ ये शतं मनुष्याणामानन्दाः स एकः पितॄणां जितलोकानामानन्दः
१४/७/१/३४
अथ ये शतं पितॄणां जितलोकानामानन्दाः स एकः कर्मदेवानामानन्दो ये
कर्मणा
देवत्वमभिसम्पद्यन्ते
१४/७/१/३५
अथ ये शतं कर्मदेवानामानन्दाः स एक आजानदेवानामानन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
१४/७/१/३६
अथ ये शतमाजानदेवानामानन्दाः स एको देवलोक आनन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
१४/७/१/३७
अथ ये शतं देवलोक आनन्दाः स एको गन्धर्वलोक आनन्दो यश्च
श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहतः
१४/७/१/३८
अथ ये शतं गन्धर्वलोक आनन्दाः स एकः प्रजापतिलोक आनन्दाः स एको
ब्रह्मलोक आनन्दो यश्च श्रोत्रियोऽवृजिनोऽकामहत एष ब्रह्मलोकः सम्राडिति
हैनमनुशशासैतदमृतं सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/३९
स वा एष एतस्मिन्त्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुनः
प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति बुद्धान्तायैव स यदत्र
किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुष
इत्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य सोऽहं भगवते सहस्रं ददाम्यत ऊर्ध्वं
विमोक्षायैव ब्रूहीति
१४/७/१/४०
अत्र ह याज्ञवल्क्यो बिभयां चकार मेधावी राजा सर्वेभ्यो मान्तेभ्य
उदरौत्सीदिति स यत्राणिमानं न्येति जरया वोपतपता वाणिमानं निगच्छति यथाम्रं
वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा बन्धनात्प्रमुच्येतैवमेवायं शारीर
आत्मैभ्योऽङ्गेभ्यः सम्प्रमुच्य पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति प्राणायैव
१४/७/१/४१
तद्यथानः सुसमाहितम् उत्सर्जद्यायादेवमेवायं शारीर आत्मा
प्राज्ञेनात्मनान्वारूढ उत्सर्जद्याति
१४/७/१/४२
तद्यथा राजानमायन्तम् उग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्योऽन्नैः पानैरावसथैः
प्रतिकल्पन्तेऽयमायात्ययमागच्छतीत्येवं हैवंविदं सर्वाणि भूतानि प्रतिकल्पन्त
इदं ब्रह्मायातीदमागच्छतीति
१४/७/१/४३
तद्यथा राजानं प्रयियासन्तम् उग्राः प्रत्येनसः सूतग्रामण्य उपसमायन्त्येवं
हैवंविदं सर्वे प्राणा उपसमायन्ति यत्रैतदूर्ध्वोच्वासी भवति
१४/७/२/१
स यत्रायं शारीर आत्माबल्यं नीत्य सम्मोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा
अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति
१४/७/२/२
स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ्पर्यावर्ततेऽथारूपजो भवत्येकीभवति न
पश्यतीत्याहुरेकीभवति न रसयतीत्याहुरेकीभवति न वदतीत्याहुरेकीभवति न
शृणोतीत्याहुरेकीभवति न मनुत इत्याहुरेकीभवति न स्पृशतीत्याहुरेकीभवति न
विजानातीत्याहुः
१४/७/२/३
तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति
चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वान्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तम्
प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति
संज्ञानमेवान्ववक्रामति स एष ज्ञः सविज्ञानो भवति तं विद्याकर्मणी
समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च
१४/७/२/४
तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वात्मानमुपसंहरत्येवमेवायं पुरुष
इदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वात्मानमुपसंहरति
१४/७/२/५
तद्यथा पेशस्कारी पेशसो मात्रामपादायान्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं तनुत
एवमेवायं पुरुष इदं शरीरं निहत्याविद्यां गमयित्वान्यन्नवतरं रूपं
तनुते पित्र्यं वा गन्धर्वं वा ब्राह्मं वा प्राजापत्यं वा दैवं वा मानुषं
वान्येभ्यो वा भूतेभ्यः
१४/७/२/६
स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयो वाङ्मयः
प्राणमयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमय आकाशमयो वायुमयस्तेजोमय आपोमयः
पृथिवीमयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो हर्षमयोऽहर्षमयो
धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयस्तद्यदेदम्मयोऽदोमय इति यथाकारी
यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः
पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति
१४/७/२/७
अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति
तथाक्रतुर्भवति यथाक्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते
तदभिसम्पद्यत इति
१४/७/२/८
तदेष श्लोको भवति तदेव सत्तत्सह कर्मणैति लिङ्गं मनो यत्र निषक्तमस्य
प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किं चेह करोत्ययम् तस्माल्लोकात्पुनरैत्यस्मै लोकाय
कर्मण इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो योऽकामो निष्काम आत्मकाम आप्तकामो
भवति न तस्मात्प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवनीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति
१४/७/२/९
तदेष श्लोको भवति यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः अथ
मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुत इति
१४/७/२/१०
तद्यथाहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता प्रत्यस्ता शयीतैवमेवेदं शरीरं
शेतेऽथायमनस्थिकोऽशरीरः प्राज्ञ आत्मा ब्रह्मैव लोक एव सम्राडिति होवाच
याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते सहस्रं ददामीति होवाच जनको वैदेहः
१४/७/२/११
तदप्येते श्लोकाः अणुः पन्था वितरः पुराणो मांस्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव तेन धीरा
अपियन्ति ब्रह्मविद उत्क्रम्य स्वर्गं लोकमितो विमुक्ताः
१४/७/२/१२
तस्मिञ्चुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं चएष पन्था ब्रह्मणा
हानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्तैजसः पुण्यकृच्च
१४/७/२/१३
अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ततो भूय इव ते तमो य उ
सम्भूत्यां रताः
१४/७/२/१४
असुर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः तांस्ते प्रेत्यापिगच्छन्त्यविद्वांसोऽबुधा
जनाः
१४/७/२/१५
तदेव सन्तस्तदु तद्भवामो न चेदवेदी महती विनष्टिःये तद्विदुरमृतास्ते
भवन्त्यथेतरे दुःखमेवोपयन्ति
१४/७/२/१६
आत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पुरुषः किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनु
संचरेत्
१४/७/२/१७
यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आत्मास्मिन्त्संदेहे गहने प्रविष्टः स विश्वकृत्स ह
सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव
१४/७/२/१८
यदैतमनुपश्यति आत्मानं देवमञ्जसा ईशानं भूतभव्यस्य न तदा विचिकित्सति
१४/७/२/१९
यस्मिन्पञ्च पञ्चजनाः आकाशश्च प्रतिष्ठितः तमेव मन्य आत्मानं
विद्वान्ब्रह्मामृतोऽमृतम्
१४/७/२/२०
यस्मादर्वाक्षंवत्सरोऽहोभिः परिवर्तते तद्देवा ज्योतिषां
ज्योतिरायुर्ह्योपासतेऽमृतम्
१४/७/२/२१
प्राणस्य प्राणम् उत चक्षुषश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रमन्नस्यान्नं मनसो ये
मनो विदुः ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्र्यं मनसैवाप्तव्यं नेह नानास्ति किं
चन
१४/७/२/२२
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति
मनसैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम्
१४/७/२/२३
विरजः पर आकाशात् अज आत्मा महा ध्रुवः तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत
ब्राह्मणः नानुध्यायाद्बहूञ्चब्दान्वाचो विग्लापनं हि तदिति
१४/७/२/२४
स वा अयमात्मा सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति
यदिदं किं च स न साधुना कर्मणा भूयान्नोऽएवासाधुना कनीयानेष
भूताधिपतिरेष लोकेश्वर एष लोकपालः स सेतुर्विधरण एषां
लोकानामसम्भेदाय
१४/७/२/२५
तमेतं वेदानुवचनेन विविदिषन्ति ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया
यज्ञेनानाशकेन चैतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव प्रव्राजिनो लोकमीप्सन्तः
प्रव्रजन्ति
१४/७/२/२६
एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे ब्राह्मणाः अनूचाना विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किम्
प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोक इति ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च
वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति या ह्येव
पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणोभे ह्येते एषणे एव भवतः
१४/७/२/२७
स एष नेति नेत्यात्मा अगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽसङ्गोऽसितो न सज्यते न
व्यथत इत्यतः पापमकरवमित्यतः कल्याणमकरवमित्युभे उभे ह्येष एते
तरत्यमृतः साध्वसाधुनी नैनं कृताकृते तपतो नास्य केन चन कर्मणा लोको
मीयते
१४/७/२/२८
तदेतदृचाभ्युक्तम् एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणा वर्धते नो
कनीयान् तस्यैव स्यात्पदवित्तं विद्वित्वा न कर्मणा लिप्यते पापकेनेति
तस्मादेवंविच्रान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः श्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानम्
पश्येत्सर्वमेनं पश्यति सर्वोऽस्यात्मा भवति सर्वस्यात्मा भवति सर्वम्
पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तपति नैनं पाप्मा तपति
विपापो विजरो विजिघत्सोऽपिपासो ब्राह्मणो भवति य एवं वेद
१४/७/२/२९
स वा एष महानज आत्मा अन्नादो वसुदानः स यो हैवमेतम्
महान्तमजमात्मानमन्नादं वसुदानं वेद विन्दतेवसु
१४/७/२/३०
स वा एष महानज आत्मा अजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं वै जनक
प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि मां चापि सह
दास्यायेति
१४/७/२/३१
स वा एष महानज आत्मा अजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं वै ब्रह्माभयं
हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद
१४/७/३/१
अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुः मैत्रेयी च कात्यायनी च तयोर्ह
मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव स्त्रीप्रज्ञेव कात्यायनी
सोऽन्यद्वृत्तमुपाकरिष्यमाणः
१४/७/३/२
याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीति होवाच प्रव्रजिष्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि हन्त
तेऽनया कात्यायन्यान्तं करवाणीति
१४/७/३/३
सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्स्यां
न्वहं तेनामृताहो३ नेति नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं
तथैव ते जीवितं स्यादमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति
१४/७/३/४
सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्यां यदेव भगवान्वेद
तदेव मे ब्रूहीति
१४/७/३/५
स होवाच याज्ञवल्क्यः प्रिया खलु नो भवती सती प्रियमवृतद्धन्त खलु
भवति तेऽहं तद्वक्ष्यामि व्याख्यास्यामि ते वाचं तु मे व्याचक्षाणस्य
निदिध्यासस्वेति ब्रवीतु भगवानिति
१४/७/३/६
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु
कामाय पतिः प्रियो भवति देवाः प्रिया भवन्ति न वा अरे वेदानां कामाय वेदाः
प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय वेदाः प्रिया भवन्ति न वा अरे यज्ञानां कामाय
यज्ञाः प्रिया भवन्त्यात्मनस्तु कामाय यज्ञाः प्रिया भवन्ति न वा अरे भूतानां
कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्त्यात्मनस्तु कामाय भूतानि प्रियाणि भवन्ति न वा
अरे
सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियम्
भवत्यात्मा न्वरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनि
वा अरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्वं विदितम्
१४/७/३/७
ब्रह्म तं परादात् योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद वेदास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो
वेदान्वेद यज्ञास्तं परादुर्योन्यत्रात्मनो यज्ञान्वेद भूतानि तम्
परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं
वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमे वेदा इमे यज्ञा इमानि
भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा
१४/७/३/८
स यथा दुन्दुभेर्हन्य>
१४/७/३/९
स यथा वीणायै>
१४/७/३/१०
स यथा शङ्खस्य>
१४/७/३/११
स यथार्द्रैधाग्नेर> सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि दत्तं हुतमाशितम्
पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि
१४/७/३/१२
स यथा सर्वासामपां समुद्र एकायन>
१४/७/३/१३
स यथा सैन्धवघनो अनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नो रसघन एव स्यादेवं वा अर
इदं महद्भूतमनन्तमपारं कृत्स्नः प्रज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः
समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीमीति होवाच
याज्ञवल्क्यः
१४/७/३/१४
सा होवाच मैत्रेयी अत्रैव मा भगवान्मोहान्तमापीपदन्न वा अहमिदं विजानामि
न प्रेत्य संज्ञास्तीति
१४/७/३/१५
स होवाच याज्ञवल्क्यो न वा अरेऽहं मोहं ब्रवीम्यविनाशी वा अरे
यमात्मानुच्चित्तिधर्मा मात्रासंसर्गस्त्वस्य भवति
१४/७/३/१६
यद्वै तन्न पश्यति>
१४/७/३/१७
यद्वै तन्न जिघ्रति>
१४/७/३/१८
यद्वै तन्न रसयति
१४/७/३/१९
यद्वै तन्न वदति>
१४/७/३/२०
यद्वै तन्न शृणोति
१४/७/३/२१
यद्वै तन्न मनुते>
१४/७/३/२२
यद्वै तन्न स्पृशति
१४/७/३/२३
यद्वै तन्न विजानाति>
१४/७/३/२४
यत्र वा अन्यदिव स्यात्
तत्रान्योऽन्यत्पश्येदन्योऽन्यज्जिघ्रेदन्योऽन्यद्रसयेदन्योऽन्यदभिवदेदन्योऽन्यचृण्
उयादन्योऽन्यन्मन्वीतान्योऽन्यत्स्पृशेदन्योऽन्यद्विजानीयात्
१४/७/३/२५
यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन कं
रसयेत्तत्केन कमभिवदेत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कं मन्वीत तत्केन कं
स्पृशेत्तत्केन कं विजानीयाद्येनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे
केन विजानीयादित्युक्तानुशासनासि मैत्रय्येतावदरे खल्वमृतत्वमिति होक्त्वा
याज्ञवल्क्यः प्रवव्राज
१४/७/३/२६
अथ वंशः तदिदं वयं शौर्पणाय्याचौर्पणाय्यो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यो
वात्स्याच्च पाराशर्याच्च पाराशर्यः सांकृत्याच्च भारद्वाजाच्च भारद्वाज
औदवाहेश्च
शाण्डिल्याच्च शाण्डिल्यो वैजवापाच्च गौतमाच्च गौतमो वैजवापायनाच्च
वैष्टपुरेयाच्च वैष्टपुरेयः शाण्डिल्याच्च रौहिणायनाच्च रौहिणायनाच्च
रौहिणायनः शौनाकाच्च जैवन्तायनाच्च रैभ्याच्च रैभ्यः पौतिमाष्यायणाच्च
कौण्डिन्यायनाच्च कौण्डिन्यायनः कौण्डिन्याभ्यां कौण्डिन्या और्णवाभेभ्य
और्णवाभाः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्यात्कौण्डिन्यः कौण्डिन्याच्चाग्निवेश्याच्च
१४/७/३/२७
आग्निवेश्यः सैतवात् सैतवः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च गौतमाच्च गौतमो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो वलाकाकौशिकाद्वलाकाकौशिकः काषायणात्काषायणः
सौकरायणात्सौकरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्घनेरौपजन्घनिः
सायकायनात्सायकायनः कौशिकायनेः कौशिकायनिर्घृतकौशिकाद्घृतकौशिकः
पाराशर्यायणात्पाराशर्यायणः पाराशर्यात्पाराशर्यो जातूकर्ण्याज्जातूकर्ण्यो
भारद्वाजाद्भारद्वाजो भारद्वाजाच्चासुरायणाच्च
यास्काच्चासुरायणस्त्रैवणेस्त्रैवणिरौपजन्घनेरौपजन्घनिरासुरेरासुरिर्भारद्वाजा
द्भार्द्वाज आत्रेयात्
१४/७/३/२८
आत्रेयो माण्टेः माण्टिर्गौतमाद्गौतमो गौतमाद्गौतमो वात्स्याद्वात्स्यः
शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यः कैशोर्यात्काप्यात्कैशोर्यः काप्यः कुमारहारितात्कुमारहारितो
गालवाद्गालवो विदर्भीकौण्डिन्याद्विदर्भीकौण्डिन्यो वत्सनपातो
बाभ्रवाद्वत्सनपाद्बाभ्रवः पथः सौभरात्पन्थाः
सौभरोऽयास्यादाङ्गिरसादयास्य आङ्गिरस आभूतेस्त्वाष्ट्रादाभूतिस्त्वाष्ट्रो
विश्वरूपात्त्वाष्ट्राद्विश्वरूपस्त्वाष्ट्रोऽश्विभ्यामश्विनौ दधीच
आथर्वणाद्दध्यङ्ङाथर्वणोऽथर्वणो दैवादथर्वा दैवो मृत्योः
प्राध्वंसनान्मृत्युः प्राध्वंसनः प्रध्वंसनात्प्रध्वंसन
एकर्षेरेकर्षिर्विप्रजित्तेर्विप्रजित्तिर्व्यष्टेर्व्यष्टिः सनारुः सनारुः
सनातनात्सनातनः सनगात्सनगः परमेष्ठिनः परमेष्ठी ब्रह्मणो ब्रह्म
स्वयम्भु ब्रह्मणे नमः
१४/८/१/
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यत ओं खं ब्रह्म खं पुराणं वायुरं खमिति ह स्माह
कौरव्यायणीपुत्रो वेदोऽयं ब्राह्मणा विदुर्वेदैनेन यद्वेदितव्यम्
१४/८/२/१
त्रयाः प्राजापत्याः प्रजापतौ पितरि ब्रह्मचर्यमूषुर्देवा मनुष्या असुराः
१४/८/२/२
उषित्वा ब्रह्मचर्यं देवा ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदक्षरमुवाच
द इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दाम्यतेति न आत्थेत्योमिति होवाच
व्यज्ञासिष्टेति
१४/८/२/३
अथ हैनं मनुष्या ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द
इति व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दत्तेति न आत्थेत्योमिति होवाच व्यज्ञासिष्टेति
१४/८/२/४
अथ हैनमसुरा ऊचुः ब्रवीतु नो भवानिति तेभ्यो हैतदेवाक्षरमुवाच द इति
व्यज्ञासिष्टा३ इति व्यज्ञासिष्मेति होचुर्दयध्वमिति न आत्थेत्योमिति होवाच
व्यज्ञासिष्टेति तदेतदेवैषा दैवी वागनुवदति स्तनयित्नुर्ददद इति दाम्यत दत्त
दयध्वमिति तदेतत्त्रयं शिक्षेद्दमं दानं दयामिति
१४/८/३/
वायुरनिलममृतं भस्मान्तं शरीरम् ओ३ं क्रतो स्मर क्लिबे स्मराग्ने नय
सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो
भूयिष्ठां ते नमौक्तिं विधेमेति
१४/८/४/
एष प्रजापतिर्यद्धृदयम् एतद्ब्रह्मैतत्सर्वं तदेतत्त्र्यक्षरं हृदयमिति हृ
इत्येकमक्षरमभिहरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद द इत्येकमक्षरं
ददन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद यमित्येकमक्षरमेति स्वर्गं लोकं य
एवं वेद
१४/८/५/
तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव स यो हैवमेतन्महद्यक्षं प्रथमजं
वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमांलोकान्जित इन्न्वसावसद्य एवमेतन्महद्यक्षम्
प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्मेति सत्यं ह्येव ब्रह्म
१४/८/६/१
आप एवेदमग्र आसुः ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म प्रजापतिम्
प्रजापतिर्देवान्
१४/८/६/२
ते देवाः सत्यमित्युपासते तदेतत्त्र्यक्षरं सत्यमिति स इत्येकमक्षरं
तीत्येकमक्षरममित्येकमक्षरं प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्यम्
मध्यतोऽनृतं तदेतदनृतं सत्येन परिगृहीतं सत्यभूयमेव भवति
नैवंविद्वांसमनृतं हिनस्ति
१४/८/६/३
तद्यत्तत्सत्यम् असौ स आदित्यो य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषो यश्चायं
दक्षिणेऽक्षन्पुरुषस्तावेतावन्योऽन्यस्मिन्प्रतिष्ठितौ रश्मिभिर्वा
एषोऽस्मिन्प्रतिष्ठितः प्राणैरयममुष्मिन्स यदोत्क्रमिष्यन्भवति
शुद्धमेवैतन्मण्डलं पश्यति नैनमेते रश्मयः प्रत्यायन्ति
१४/८/६/४
य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः तस्य भूरिति शिर एकं शिर एकमेतदक्षरम्
भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते
अक्षरे तस्योपनिषदहरिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद
१४/८/६/५
अथ योऽयं दक्षिणेऽक्षन्पुरुषः तस्य भूरिति शिर एकं शिर एकमेतदक्षरम्
भुव इति बाहू द्वौ बाहू द्वे एते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा द्वे प्रतिष्ठे द्वे एते
अक्षरे तस्योपनिषदहमिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद
१४/८/७/
विद्युद्ब्रह्मेत्याहुः विदानाद्विद्युद्विद्यत्येनं सर्वस्मात्पाप्मनो य एवं वेद
विद्युद्ब्रह्मेति विद्युद्ध्येव ब्रह्म
१४/८/८/
मनोमयोऽयं पुरुषो भाःसत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदये यथा व्रीहिर्वा यवो
वैवमयमन्तरात्मन्पुरुषः स एष सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः
सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किं च य एवं वेद
१४/८/९/
वाचं धेनुमुपासीत तस्याश्चत्वार स्तनाः स्वाहाकारो वषट्कारो हन्तकारः
स्वधाकारस्तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति स्वाहाकारं च वषट्कारं च
हन्तकारं मनुष्याः स्वधाकारं पितरस्तस्याः प्राण ऋषभो मनो वत्सः
१४/८/१०/
अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते
तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति
नैतं घोषं शृणोति
१४/८/११/
एतद्वै परमं तपो यद्व्याहितस्तप्यते परमं हैव लोकं जयति य एवं
वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमरण्यं हरन्ति परमं हैव लोकं जयति य
एवं वेदैतद्वै परमं तपो यं प्रेतमग्नावभ्यादधति परमं हैव लोकं
जयति य एवं वेद
१४/८/१२/
यदा वै पुरुषो अस्माल्लोकात्प्रैति स वायुमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा
रथचक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स आदित्यमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते
यथाडम्बरस्य खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स चन्द्रमसमागच्छति तस्मै स
तत्र विजिहीते यथा दुन्दुभेः खं तेन स ऊर्ध्व आक्रमते स
लोकमागच्छत्यशोकमहिमं तस्मिन्वसति शश्वतीः समाः
१४/८/१३/
अन्नं ब्रह्मेत्येक आहुः तन्न तथा पूयति वा अन्नमृते प्राणात्प्राणो ब्रह्मेत्येक
आहुस्तन्न तथा शुष्यति वै प्राण ऋतेऽन्नादेते ह त्वेव देवते एकधाभूयं भूत्वा
परमतां गच्छतः
१४/८/१३/
तद्ध स्माह प्रातृदः पितरम् किं स्विदेवैवं विदुषे साधु कुर्यात्किमेवास्मा
असाधु कुर्यादिति स ह स्माह पाणिना मा प्रातृद कस्त्वेनयोरेकधाभूयं भूत्वा
परमतां गच्छतीति
१४/८/१३/
तस्मा उ हैतदुवाच वीत्यन्नं वै व्यन्ने हीमानि सर्वाणि भूतानि विष्टानि रमिति
प्राणो वै रं प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रतानि सर्वाणि ह वा अस्मिन्भूतानि
विशन्ते
सर्वाणि भूतानि रमन्ते य एवं वेद
१४/८/१४/१
उक्थम् प्राणो वा उक्थं प्राणो हीदं सर्वमुत्थापयत्युद्धास्मा
उक्थविद्वीरस्तिष्ठत्युक्थस्य सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१४/२
प्राणो वै यजुः प्राणो हीमानि सर्वाणि भूतानि युज्यन्ते युज्यन्ते हास्मै सर्वाणि
भूतानि श्रैष्ठ्याय यजुषः सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१४/३
साम प्राणो वै साम प्राणो हीमानि सर्वाणि भूतानि सम्यञ्चि हास्मिन्त्सर्वाणि भूतानि
श्रैष्ठ्याय कल्पन्ते साम्नः सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१४/४
क्षत्रम् प्राणो वै क्षत्रं प्राणो हि वै क्षत्रं त्रायते हैनं प्राणः क्षणितोः
प्र क्षत्रमात्रमाप्नोति क्षत्रस्य सायुज्यं सलोकतां जयति य एवं वेद
१४/८/१५/१
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरिति अष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै
पदमेतदु हास्या एतत्स यावदेषु लोकेषु तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं
वेद
१४/८/१५/२
ऋचो यजूंषि सामानीति अष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं ह वा एकं गायत्र्यै पदमेतदु
हैवास्या एतत्स यावतीयं त्रयी विद्या तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
१४/८/१५/३
प्राणोऽपानो व्यान इति अष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं ह वा एकं गायत्रै पदमेतदु
हैवास्या एतत्स यावदिदं प्राणि तावद्ध जयति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
१४/८/१५/४
अथास्या एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति यद्वै चतुर्थं
तत्तुरीयं दर्शतं पदमिति ददृश इव ह्येष परोरजा इति सर्वमु ह्येष रज
उपर्युपरि तपत्येवं हैव श्रिया यशसा तपति योऽस्या एतदेवं पदं वेद
१४/८/१५/५
सैषा गायत्र्येतस्मिंस्तुरीये दर्शते पदे परोरजसि प्रतिष्ठिता तद्वै तत्सत्ये
प्रतिष्ठिता चक्षुर्वै सत्यं चक्षुर्हि वै सत्यं तस्माद्यदिदानीं द्वौ
विवदमानावेयातामहमद्राक्षमहमश्रौषमिति य एव ब्रूयादहमद्राक्षमिति
तस्मा एव श्रद्दध्यात्
१४/८/१५/६
तद्वै तत्सत्यं बले प्रतिष्ठितम् प्राणो वै बलं तत्प्राणे प्रतिष्ठितं
तस्मादाहुर्बलं सत्यादोजीय इत्येवम्वेषा गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता
१४/८/१५/७
सा हैषा गयांस्तत्रे प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रेतद्यद्गयांस्तत्रे तस्माद्गायत्री
नाम स यामेवामूमन्वाहैषैव सा स यस्मा अन्वाह तस्य प्राणांस्त्रायते
१४/८/१५/८
तां हैके सावित्रीमनुष्टुभमन्वाहुर्वागनुष्टुबेतद्वाचमनुब्रूम इति न तथा
कुर्याद्गायत्रीमेवानुब्रूयाद्यदि ह वा अपि बह्विव प्रतिगृह्णाति न हैव तद्गायत्र्या
एकं चन पदं प्रति
१४/८/१५/९
स य इमांस्त्रींलोकान् पूर्णान्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतत्प्रथमं पदमाप्नुयादथ
यावतीयं त्रयी विद्या यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतद्द्वितीयं पदमाप्नुयादथ
यावदिदं प्राणि यस्तावत्प्रतिगृह्णीयात्सोऽस्या एतत्तृतीयं पदमाप्नुयादथास्या
एतदेव तुरीयं दर्शतं पदं परोरजा य एष तपति नैव केन चनाप्यं कुत उ
एतावत्प्रतिगृह्णीयात्
१४/८/१५/१०
तस्या उपस्थानम् गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि न हि
पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापदिति यं
द्विष्यादसावस्मै कामो मा समर्धीति वा न हैवास्मै स कामः समृध्यते यस्मा
एवमुपतिष्ठतेऽहमदः प्रापमिति वा
१४/८/१५/११
एतद्ध वै तज्जनको वैदेहो बुडिलमाश्वतराश्विमुवाच यन्नु हो तद्गायत्रीविदब्रूथा अथ कथं हस्ती भूतो वहसीति मुखं ह्यस्याः सम्राण्न विदां चकरेति होवाच
१४/८/१५/१२
तस्या अग्निरेव मुखम् यदि ह वा अपि बह्विवाग्नावभ्यादधति सर्वमेव तत्संदहत्येवं हैवैवंविद्यद्यपि बह्विव पापं करोति सर्वमेव तत्सम्प्साय शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति
१४/९/१/१
श्वेतकेतुर्ह वा आरुणेयः पञ्चालानां परिषदमाजगाम स आजगाम जैवलम्
प्रवाहणं परिचारयमाणं तमुदीक्ष्याभ्युवाद कुमारा३ इति स भो३ इति
प्रतिशुश्रावानुशिष्टो न्वसि पित्रेत्योमिति होवाच
१४/९/१/२
वेत्थ यथेमाः प्रजाः प्रयत्यो विप्रतिपद्यान्ता३ इति नेति होवाच वेत्थ यथेमं
लोकं पुनरापद्यान्ता३ इति नेति हैवोवाच वेत्थ यथासौ लोक एवं बहुभिः पुनः
पुनः प्रयद्भिर्न सम्पूर्यता३ इति नेति हैवोवाच
१४/९/१/३
वेत्थ यतिथ्यामाहुत्यां हुतायाम् आपः पुरुषवाचो भूत्वा समुत्थाय वदन्ती३ इति
नेति हैवोवाच वेत्थो देवयानस्य वा पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा यत्कृत्वा
देवयानं वा पन्थानं प्रतिपद्यते पितृयाणं वा
१४/९/१/४
अपि हि न ऋषेर्वचः श्रुतम् द्वे सृती अशृणवं पितॄणामहं देवानामुत मर्त्यानां
ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं चेति नाहमत एकं चन
वेदेति होवाच
१४/९/१/५
अथ हैनं वसत्योपमन्त्रयां चक्रे अनादृत्य वसतिं कुमारः प्रदुद्राव स
आजगाम पितरं तं होवाचेति वाव किल नो भवान्पुरानुशिष्टानवोच इति कथं
सुमेध इति पञ्च मा प्रश्नान्राजन्यबन्धुरप्राक्षीत्ततो नैकं चन वेदेति
होवाच कतमे त इतीम इति ह प्रतीकान्युदाजहार
१४/९/१/६
स होवाच तथा नस्त्वं तात जानीथा यथा यदहं किं च वेद सर्वमहं
तत्तुभ्यमवोचं प्रेहि तु तत्र प्रतीत्य ब्रह्मचर्यं वत्स्याव इति भवानेव
गच्छत्विति
१४/९/१/७
स आजगाम गौतमो यत्र प्रवाहणस्य जैवलेरास तस्मा
आसनमाहार्योदकमाहारयां चकाराथ हास्मा अर्घं चकार
१४/९/१/८
स होवाच वरं भवते गौतमाय दद्म इति स होवाच प्रतिज्ञातो म एष वरो यां
तु कुमारस्यान्ते वाचमभाषथास्तां मे ब्रूहीति
१४/९/१/९
स होवाच दैवेषु वै गौतम तद्वरेषु मानुषाणां ब्रूहीति
१४/९/१/१०
स होवाच विज्ञायते हास्ति हिरण्यस्यापात्तं गो अश्वानां दासीनां प्रवराणाम्
परिधानानां मा नो भवान्बहोरनन्तस्यापर्यन्तस्याभ्यवदान्यो भूदिति स वै
गौतम तीर्थेनेच्छासा इत्युपैम्यहं भवन्तीमिति वाचा ह स्मैव पूर्व उपयन्ति
१४/९/१/११
स होपायनकीर्ता उवाच तथा नस्त्वं गौतम मापराधास्तव च पितामहा
यथेयं विद्येतः पूर्वं न कस्मिंश्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं
वक्ष्यामि को हि त्वैवं ब्रुवन्तमर्हति प्रत्याख्यातुमिति
१४/९/१/१२
असौ वै लोकोऽग्निर्गौतम तस्यादित्य एव समिद्रश्मयो धूमोऽहरर्चिश्चन्द्रमा
अङ्गारा नक्षत्राणि विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति तस्या
आहुतेः सोमो राजा सम्भवति
१४/९/१/१३
पर्जन्यो वा अग्निर्गौतम तस्य संवत्सर एव समिदभ्राणि धूमो
विद्युदर्चिरशनिरङ्गारा ह्रादुनयो विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमं
जुह्वति तस्या आहुतेर्वृष्टिः सम्भवति
१४/९/१/१४
अयं वै लोकोऽग्निर्गौतम तस्य पृथिव्येव समिद्वायुर्धूमो रात्रिरर्चिर्दिशोऽङ्गारा
अवान्तरदिशो विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति तस्या
आहुतेरन्नं सम्भवति
१४/९/१/१५
पुरुषो वा अग्निर्गौतम तस्य व्यात्तमेव समित्प्राणो धूमो वागर्चिश्चक्षुरङ्गाराः
श्रोत्रं विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुते रेतः
सम्भवति
१४/९/१/१६
योषा वा अग्निर्गौतम तस्या उपस्थ एव समिल्लोमानि धूम्
ओ योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ
देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेः पुरुषः सम्भवति स जायते स जीवति यावज्जीवत्यथ
यदा म्रियतेऽथैनमग्नये हरन्ति
१४/९/१/१७
तस्याग्निरेवाग्निर्भवति समित्समिद्धूमो धूमोऽर्चिरर्चिरङ्गारा विष्फुलिङ्गा
विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः पुरुषं जुह्वति तस्या आहुतेः पुरुषो
भास्वरवर्णः सम्भवति
१४/९/१/१८
ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते
तेऽर्चिरभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहरह्नु
आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्ङादित्य एति मासेभ्यो
देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वैद्युतं तान्वैद्युतात्पुरुषो मानस एत्य
ब्रह्मलोकान्गमयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति तेषामिह न
पुनरावृत्तिरस्ति
१४/९/१/१९
अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकं जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति
धूमाद्रात्रिं
रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति
मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति तांस्तत्र
देवा यथा सोमं राजानमाप्यायस्वापक्षीयस्वेत्येवमेनांस्तत्र भक्षयन्ति तेषां
यदा तत्पर्यवैत्यथेममेवाकाशमभिनिष्पद्यन्त आकाशाद्वायुं वायोर्वृष्टिं
वृष्टेः पृथिवीं ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति त एवमेवानुपरिवर्तन्तेऽथ य
एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा यदिदं दन्दशूकम्
१४/९/२/१
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवति
प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवत्यपि च
येषां बुभूषति य एवं वेद
१४/९/२/२
यो ह वै वसिष्ठां वेद वसिष्ठः स्वानां भवति वाग्वै वसिष्ठा वसिष्ठः
स्वानां भवति य एवं वेद
१४/९/२/३
यो ह वै प्रतिष्ठां वेद प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति दुर्गे चक्षुर्वै
प्रतिष्ठा चक्षुषा हि समे च दुर्गे च प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति
दुर्गे य एवं वेद
१४/९/२/४
यो ह वै सम्पदं वेद सं हास्मै पद्यते यं कामं कामयते श्रोत्रं वै
सम्पच्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः सं हास्मै पद्यते यं कामं
कामयते य एवं वेद
१४/९/२/५
यो ह वा आयतनं वेद आयतनं स्वानां भवत्यायतनं जनानां मनो वा
आयतनमायतनं स्वानां भवत्यायतनं जनानां य एवं वेद
१४/९/२/६
यो ह वै प्रजातिं वेद प्रजायते प्रजया पशुभी रेतो वै प्रजातिः प्रजायते प्रजया
पशुभिर्य एवं वेद
१४/९/२/७
ते हेमे प्राणाः अहंश्रेयसे विवदमाना ब्रह्म जग्मुः को नो वसिष्ठ इति
यस्मिन्व उत्क्रान्त इदं शरीरं पापीयो मन्यते स वो वसिष्ठ इति
१४/९/२/८
वाग्घोच्चक्राम सा संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति
ते होचुर्यथा कडा अवदन्तो वाचा प्राणन्तः प्राणेन पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः
श्रोत्रेण विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह वाक्
१४/९/२/९
चक्षुर्होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते
जीवितुमिति ते होचुर्यथान्धा अपश्यन्तश्चक्षुषा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
चक्षुः
१४/९/२/१०
श्रोत्रं होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते
जीवितुमिति ते होचुर्यथा बधिरा अशृण्वन्तः श्रोत्रेण प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा विद्वांसो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
श्रोत्रम्
१४/९/२/११
मनो होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते
जीवितुमिति ते होचुर्यथा मुग्धा अविद्वांसो मनसा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति प्रविवेश
ह मनः
१४/९/२/१२
रेतो होच्चक्राम तत्संवत्सरं प्रोष्यागत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति
ते होचुर्यथा क्लीबा अप्रजायमाना रेतसा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा
पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वांसो मनसैवमजीविष्मेति प्रविवेश ह
रेतः
१४/९/२/१३
अथ ह प्राण उत्क्रमिष्यन् यथा महासुहयः सैन्धवः
पड्वीशशङ्कून्त्संवृहेदेवं हैवेमात्प्राणान्त्संववर्ह ते होचुर्मा भगव
उत्क्रमीर्न वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुमिति तस्य वै मे बलिं कुरुतेति तथेति
१४/९/२/१४
सा ह वागुवाच यद्वा अहं वसिष्ठास्मि त्वं तद्वसिष्ठोऽसीति चक्षुर्यद्वा अहम्
प्रतिष्ठास्मि त्वं तत्प्रतिष्ठोऽसीति श्रोत्रं यद्वा अहं सम्पदस्मि त्वं
तत्सम्पदसीति मनो यद्वा अहमायतनमस्मि त्वं तदायतनमसीति रेतो यद्वा
अहं प्रजातिरस्मि त्वं तत्प्रजातिरसीति तस्यो मे किमन्नं किं वास इति यदिदं किं चा
श्वभ्य आ क्रिमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नमापो वास इति न ह वा अस्यानन्नं
जग्धं भवति नानन्नं प्रतिगृहीतं य एवमेतदनस्यान्नं वेद
१४/९/२/१५
तद्विद्वांसः श्रोत्रियाः अशिष्यन्त आचामन्त्यशित्वाचामन्त्येतमेव तदनमनग्नं
कुर्वन्तो मन्यन्ते तस्मादेवंविदशिष्यन्नाचामेदशित्वाचामेदेतमेव
तदनमनग्नं कुरुते
१४/९/३/१
स यः कामयते महत्प्राप्नुयामित्युदगयन आपूर्यमाणपक्षे पुण्याहे
द्वादशाहमुपसद्व्रती भूत्वौदुम्बरे कंसे चमसे वा वा सर्वौषधम्
फलानीति सम्भृत्य परिसमुह्य परिलिप्याग्निमुपसमाधायावृताज्यं संस्कृत्य
पुंसा नक्षत्रेण मन्थं संनीय जुहोति
१४/९/३/२
यावन्तो देवास्त्वयि जातवेदः तिर्यञ्चो घ्नन्ति पुरुषस्य कामान् तेभ्योऽहम्
भागधेयं जुहोमि ते मा तृप्ताः कामैस्तर्पयन्तु स्वाहा
१४/९/३/३
या तिरश्ची निपद्यसेऽहं विधरणी इति तां त्वा घृतस्य धारया यजे
संराधनीमहं स्वाहा प्रजापते न त्वदेतान्यन्य इति तृतीयां जुहोति
१४/९/३/४
ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहेति अग्नौ हुत्वा मन्थे संस्रवमवनयति प्राणाय
स्वाहा वसिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहेत्यग्नौ श्रोत्राय
स्वाहायतनाय स्वाहेत्यग्नौ> मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहेत्यग्नौ> रेतसे
स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/५
भूताय स्वाहेति अग्नौ> भविष्यते स्वाहेत्यग्नौ> विश्वाय स्वाहेत्यग्नौ> सर्वाय
स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/६
पृथिव्यै स्वाहेति अग्नौ> अन्तरिक्षाय स्वाहेत्यग्नौ> दिवे स्वाहेत्यग्नौ> दिग्भ्यः
स्वाहेत्यग्नौ> ब्रह्मणे स्वाहेत्यग्नौ> क्षत्राय स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/७
भूः स्वाहेति अग्नौ> भुवः स्वाहेत्यग्नौ स्वः स्वाहेत्यग्नौ> भूर्भुवः स्वः
स्वाहेत्यग्नौ>
१४/९/३/८
अग्नये स्वाहेति अग्नौ> सोमाय स्वाहेत्यग्नौ> तेजसे स्वाहेत्यग्नौ> श्रियै
स्वाहेत्यग्नौ> लक्ष्म्यै स्वाहेत्यग्नौ> सवित्रे स्वाहेत्यग्नौ> सरस्वत्यै
स्वाहेत्यग्नौ विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहेत्यग्नौ> प्रजापतये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा
मन्थे संस्रवमवनयति
१४/९/३/९
अथैनमभिमृशति भ्रमसि ज्वलदसि पूर्णमसि प्रस्तब्धमस्येकसभमसि
हिङ्कृतमसि हिङ्क्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि
प्रत्याश्रावितमस्यार्द्रे संदीप्तमसि विभूरसि प्रभूरसि ज्योतिरस्यन्नमसि
निधनमसि संवर्गोऽसीति
१४/९/३/१०
अथैनमुद्यच्छति आमोऽस्यामं हि ते मयि स हि राजेशानोऽधिपतिः स मा
राजेशानोऽधिपतिं करोत्विति
१४/९/३/११
अथैनमाचामति तत्सवितुर्वरेण्यम् मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः भूः स्वाहा
१४/९/३/१२
भर्गो देवस्य धीमहि मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधु
द्यौरस्तु नः पिता भुवः स्वाहा
१४/९/३/१३
धियो यो नः प्रचोदयात् मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमामस्तु सूर्यः
माध्वीर्गावो भुवन्तु नः स्वः स्वाहेति सर्वां च सावित्रीमन्वाह सर्वाश्च
मधुमतीः सर्वाश्च व्याहृतीरहमेवेदं सर्वं भूयासं भूर्भुवः स्वः
स्वाहेत्यन्तत आचम्य प्रक्षाल्य प्राणी जघनेनाग्निं प्राक्शिराः संविशति
१४/९/३/१४
प्रातरादित्यमुपतिष्ठते दिशामेकपुण्डरीकमस्यहम्
मनुष्याणामेकपुण्डरीकं भूयासमिति यथेतमेत्य जघनेनाग्निमासीनो वंशं
जपति
१४/९/३/१५
तं हैतमुद्दालक आरुणिः वाजसनेयाय याज्ञवल्क्यायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एनं
शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज्जायेरञ्चाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति
१४/९/३/१६
एतमु हैव वाजसनेयो याज्ञवल्क्यो मधुकाय पैङ्ग्यायान्तेवा>
१४/९/३/१७
एतमु हैव मधुकः पैङ्ग्यः चूडाय भागवित्तयेऽन्तेवा>
१४/९/३/१८
एतमु हैव चूडो भागवित्तिः जानकय आयस्थूणायान्तेवा>
१४/९/३/१९
एतमु हैव जानकिरायस्थूणः सत्यकामाय जाबालायान्तेवा>
१४/९/३/२०
एतमु हैव सत्यकामो जाबालो अन्तेवासिभ्य उक्त्वोवाचापि य एनं शुष्के स्थाणौ
निषिञ्चेज्जायेरञ्चाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति तमेतं नापुत्राय वानन्तेवासिने वा
ब्रूयात्
१४/९/३/२१
चतुरौदुम्बरो भवति औदुम्बरश्चमस औदुम्बर स्रुव औदुम्बर इध्म
औदुम्बर्या उपमन्थन्यौ
१४/९/३/२२
दश ग्राम्याणि धान्यानि भवन्ति व्रीहियवास्तिलमाषा अणुप्रियङ्गवो गोधूमाश्च
मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च तान्त्सार्धं पिष्ट्वा दध्ना मधुना
घृतेनोपसिञ्चत्याज्यस्य जुहोति
१४/९/४/१
एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधय ओषधीनां पुष्पाणि
पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः
१४/९/४/२
स ह प्रजापतिरीक्षां चक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति स स्त्रियं ससृजे तां
सृष्ट्वाध उपास्त तस्मात्स्त्रियमध उपासीत श्रीर्ह्येषा स एतं प्राञ्चं
ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत्तेनैनामभ्यसृजत्
१४/९/४/३
तस्या वेदिरुपस्थो लोमानि बर्हिश्चर्माधिषवणे समिद्धो मध्यतस्तौ मुष्कौ
स यावान्ह वै वाजपेयेन यजमानस्य लोको भवति तावानस्य लोको भवति य एवं
विद्वानधोपहासं चरत्या स स्त्रीणां सुकृतं वृङ्क्तेऽथ य इदमविद्वानधोपहासं
चरत्यास्य स्त्रियः सुकृतं वृञ्जते
१४/९/४/४
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणिराह एतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको
मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्कुमारहारित आह बहवो मर्या
ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वांसोऽधोपहासं
चरन्तीति
१४/९/४/५
बहु वा इदं सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेत स्कन्दति तदभिमृशेदनु वा मन्त्रयेत
यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद्यदोषधीरप्यसरद्यदपः इदमहं तद्रेत
आददे पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेज पुनर्भगः पुनरग्नयो धिष्ण्या
यथास्थानं कल्पन्तामित्यनामिकाङ्गुष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनौ वा भ्रुवौ
वा
निमृञ्ज्यात्
१४/९/४/६
अथ यद्युदक आत्मानं पश्येत् तदभिमन्त्रयेत मयि तेज इन्द्रियं यशो
द्रविणं सुकृतमिति
१४/९/४/७
श्रीर्ह वा एषा स्त्रीणाम् यन्मलोद्वासास्तस्मान्मलोद्वाससं
यशस्विनीमभिक्रम्योपमन्त्रयेत सा चेदस्मै न दद्यात्काममेनामपक्रीणीयात्सा
चेदस्मै नैव दद्यात्काममेनां यष्ट्या वा पाणिना वोपहत्यातिक्रामेदिन्द्रियेण ते
यशसा यश आदद इत्ययशा एव भवति
१४/९/४/८
स यामिच्छेत् कामयेत मेति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन मुखं
संधायोपस्थमस्या अभिमृश्य जपेदङ्गात्सम्भवसि हृदयादधि जायसे स
त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धविद्धामिव मादयेति
१४/९/४/९
अथ यामिच्छेत् न गर्भं दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन मुखं
संधायाभिप्राण्यापान्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदद इत्यरेता एव भवति
१४/९/४/१०
अथ यामिच्छेत् गर्भं दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन मुखं
संधायापान्याभिप्राण्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदधामीति गर्भिण्येव भवति
१४/९/४/११
अथ यस्य जायायै जारः स्यात् तं चेद्द्विष्यादामपात्रेऽग्निमुपसमाधाय प्रतिलोमं
शरबर्हि स्तीर्त्वा तस्मिन्नेतास्तिस्रः शरभृष्ठीः प्रतिलोमाः सर्पिषात्त्का
जुहुयान्मम समिद्धेऽहौषीराशापराकाशौ त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति मम
समिद्धेऽहौषीः पुत्रपशूंस्त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति मम समिद्धेऽहौषीः
प्राणापानौ त आददेऽसाविति नाम गृह्णाति स वा एष निरिन्द्रियो विसुकृदस्माल्लोकात्प्रैति
यमेवंविद्ब्राह्मणः शपति तस्मादेवंविच्रोत्रियस्य जायाया उपहासं नेच्छेदुत
ह्येवंवित्परो भवति
१४/९/४/१२
अथ यस्य जायामार्तवं विन्देत् त्र्यहं कंसे न पिबेदहतवासा नैनां वृषलो न
वृषल्युपहन्यात्त्रिरात्रान्त आप्लूय व्रीहीनवघातयेत्
१४/९/४/१३
स य इच्छेत् पुत्रो मे गौरो जायेत वेदमनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति क्षीरौदनम्
पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै
१४/९/४/१४
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे कपिलः पिङ्गलो जायेत द्वौ वेदावनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति
दध्योदनं पाचयित्वा>
१४/९/४/१५
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत त्रीन्वेदाननुब्रुवीत
सर्वमायुरियादित्युदौदनं पाचयित्वा>
१४/९/४/१६
अथ य इच्छेत् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं पाचयित्वा>
१४/९/४/१७
अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विजिगीथः समितिंगमः शूश्रूषितां वाचं भाषिता
जायेत सर्वान्वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति मांसौदनं पाचयित्वा
सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवा औक्ष्णेन वार्षभेण वा
१४/९/४/१८
अथाभिप्रातरेव स्थालीपाकावृताज्यं चेष्टित्वा स्थालीपाकस्योपघातं जुहोत्यग्नये
स्वाहानुमतये स्वाहा देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहेति हुत्वोद्धृत्य प्राश्नाति
प्राश्येतरस्याः प्रयच्छति प्रक्षाल्य पाणी उदपात्रं पूरयित्वा तेनैनां
त्रिरभ्युक्षत्युतिष्ठातो विश्वावसोऽन्यामिच्छ प्रफर्व्यम् सं जायां प्रत्या सहेति
१४/९/४/१९
अथैनामभिपद्यते अमोऽहमस्मि सा त्वं सा त्वमस्यमो अहं सामाहमस्मि
ऋक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् तावेहि संरभावहै सह रेतो दधावहै पुंसे
पुत्राय वित्तय इति
१४/९/४/२०
अथास्या ऊरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति तस्यामर्थं निष्ठाप्य मुखेन
मुखं संधाय त्रिरेनामनुलोमामनुमार्ष्टि विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा
रूपाणि पिंशतु आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते गर्भं धेहि सिनीवालि
गर्भं धेहि पृथुष्टुके गर्भं ते अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ
१४/९/४/२१
हिरण्ययी अरणी याभ्यां निर्मन्थतामश्विनौ देवौ तं ते गर्भं दधामहे
दशमे मासि सूतवे यथाग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण गर्भिणी वायुर्दिशां
यथा गर्भ एवं गर्भं दधामि तेऽसाविति नाम गृह्णाति
१४/९/४/२२
सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति यथा वातः पुष्करिणीं समीङ्गयति सर्वतः एवा ते
गर्भ एजतु सहावैतु जरायुणा इन्द्रस्यायं व्रजः कृतः सार्गडः सपरिश्रयः
तमिन्द्र निर्जहि गर्भेण सावरं सहेति
१४/९/४/२३
जातेऽग्निमुपसमाधाय अङ्क आधाय कंसे पृषदाज्यमानीय पृषदाज्यस्योपघातं
जुहोत्यस्मिन्त्सहस्रं पुष्यासमेधमानः स्वगृहे अस्योपसद्यां मा चैत्सीत्प्रजया
च पशुभिश्च स्वाहा मयि प्राणांस्त्वयि मनसा जुहोमि स्वाहा
१४/९/४/२४
यत्कर्मणात्यरीरिचम् यद्वा न्यूनमिहाकरमग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्वान्त्स्विष्टं
सुहुतं करोतु स्वाहेति
१४/९/४/२५
अथास्यायुष्यं करोति दक्षिणं कर्णमभिनिधाय वाग्वागिति त्रिरथास्य
नामधेयं करोति वेदोऽसीति तदस्यैतद्गुह्यमेव नाम स्यादथ दधि मधु
घृतं संसृज्यानन्तर्हितेन जातरूपेण प्राशयति भूस्त्वयि दधामि भुवस्त्वयि
दधामि भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामीति
१४/९/४/२६
अथैनमभिमृशति अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्रुतं भव आत्मा वै
पुत्रनामासि स जीव शरदः शतमिति
१४/९/४/२७
अथास्य मातरमभिमन्त्रयते इडासि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनथाः सा त्वं
वीरवती भव यास्मान्वीरवतोऽकरदिति
१४/९/४/२८
अथैनं मात्रे प्रदाय स्तनं प्रयच्छति यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो
रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे
करिति
१४/९/४/२९
तं वा एतमाहुः अतिपिता बताभूरतिपितामहो बताभूः परमां बत काष्ठां प्राप
श्रिया यशसा ब्रह्मवर्चसेन य एवंविदो ब्राह्मणस्य पुत्रो जायत इति
१४/९/४/३०
अथ वंशः तदिदं वयं भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रो
वात्सीमाण्डवीपुत्राद्वात्सीमाण्डवीपुत्रः पाराशरीपुत्रात्पाराशरीपुत्रो
गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रः पाराशरीकौण्डिनीपुत्रात्पाराशरीकौण्डिनीपुत्रो
गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रो गार्गीपुत्राद्गार्गीपुत्रो बाडेयीपुत्राद्बाडेयीपुत्रो
मौषिकीपुत्रान्मौषिकीपुत्रो हारिकर्णीपुत्राद्धारिकर्णीपुत्रो
भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रः पैङ्गीपुत्रात्पैङ्गीपुत्रः
शौनकीपुत्राचौनकीपुत्रः
१४/९/४/३१
काश्यपीबालाक्यामाठरीपुत्रात्काश्यपीबालाक्यामाठरीपुत्रः
कौत्सीपुत्रात्कौत्सीपुत्रो
बौधीपुत्राद्बौधीपुत्रो शालङ्कायनीपुत्राच्छालन्कायनीपुत्रो
वार्षगणीपुत्राद्वार्षगणीपुत्रो गौतमीपुत्राद्गौतमीपुत्र
आत्रेयीपुत्रादात्रेयीपुत्रो गौतमीपुत्राद्गौतमीपुत्रो वात्सीपुत्राद्वात्सीपुत्रो
भारद्वाजीपुत्राद्भारद्वाजीपुत्रः पाराशरीपुत्रात्पाराशरीपुत्रो
वार्कारुणीपुत्राद्वार्कारुणीपुत्र आर्तभागीपुत्रादार्तभागीपुत्रः
शौङ्गीपुत्राचौङ्गीपुत्रः सांकृतीपुत्रात्सांकृतीपुत्रः
१४/९/४/३२
आलम्बीपुत्रात् आलम्बीपुत्र आलम्बायनीपुत्रादालम्बायनीपुत्रो
जायन्तीपुत्राज्जायन्तीपुत्रो माण्डूकायनीपुत्रान्माण्डूकायनीपुत्रो
माण्डूकीपुत्रान्माण्डूकीपुत्रः शाण्डिलीपुत्राच्छाण्डिलीपुत्रो
राथीतरीपुत्राद्राथीतरीपुत्रः क्रौञ्चिकीपुत्राभ्यां क्रौञ्चिकीपुत्रौ
वैदभृतीपुत्राद्वैदभृतीपुत्रो भालुकीपुत्राद्भालुकीपुत्रः
प्राचीनयोगीपुत्रात्प्राचीनयोगीपुत्रः सांजीवीपुत्रात्सांजीवीपुत्रः
कार्शकेयीपुत्रात्कार्शकेयीपुत्रः
१४/९/४/३३
प्राश्नीपुत्रात् आसुरिवासिनः प्राश्नीपुत्र आसुरायणादासुरायण
आसुरेरासुरिर्याज्ञवल्क्याद्याज्ञवल्क्य उद्दालकादुद्दालकोऽरुणादरुण
उपवेशेरुपवेशिः
कुश्रेः कुश्रिर्वाजश्रवसो वाजश्रवा जिह्वावतो बाध्योगाज्जिह्वाया
बाध्योगोऽसिताद्वार्षगणादसितो वार्षगणो हरितात्कश्यपाद्धरितः कश्यपः
शिल्पात्कश्यपाच्छिल्पः कश्यपः कश्यपान्नैध्रुवेः कश्यपो नैध्रुविर्वाचो
वागम्भिण्या अम्भिण्यादित्यादादित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि वाजसनेयेन
याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते मणा ह्येष तेजसा सह पयसो रेत आभृतमिति पयसो
ह्येतद्रेत आभृतं तस्य दोहमशीमह्युत्तरामुत्तरां
समामित्याशिषमेवैतदाशास्तेऽथ चात्वाले मार्जयन्तेऽसावेव बन्धुः
॥इति शतपथब्राह्मणे चतुर्दश काण्डम् समाप्तम्॥
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