HinduMantavya
Loading...

ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १८

Google+ Whatsapp

[ऋषि-मेधातिथी काण्व। देवता- १-३ ब्रह्मणस्पति, ४ इन्द्र,ब्रह्मणस्पति,सोम ५-ब्रह्मणस्पति,दक्षिणा, ६-८ सदसस्पति,९,नराशंस। छन्द -गायत्री]



सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१॥

हे सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव! सोम का सेवन करने वाले यजमान को आप उशिज् के पुत्र कक्षीवान की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें॥१॥
यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२॥

ऐश्वर्यवान, रोगो का नाश करने वाले,धन प्रदाता और् पुष्टिवर्धक तथा जो शीघ्रफलदायक है, वे ब्रह्मणस्पति देव हम पर कृपा करें॥२॥

मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ्मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥

हे ब्रह्मणस्पति देव! यज्ञ न करनेवाले तथा अनिष्ट चिन्तन करनेवाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें॥३॥
स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रो ब्रह्मणस्पतिः । सोमो हिनोति मर्त्यम् ॥४॥
जिस मनुष्य को इन्द्रदेव,ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते है, वह वीर कभी नष्ट नही होता॥४॥
[इन्द्र से संगठन की, ब्रह्मणस्पतिदेव से श्रेष्ठ मार्गदर्शन की एव सोम से पोषण की प्राप्ति होती है। इनसे युक्त मनुष्य क्षीण नही होता। ये तीनो देव यज्ञ मे एकत्रित होते हैं। यज्ञ से प्रेरित मनुष्य दुःखी नही होता वरन् देवत्व प्राप्त करता है।
त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम् । दक्षिणा पात्वंहसः॥५॥

हे ब्रह्मणस्पतिदेव। आप सोमदेव, इन्द्रदेव और दक्षिणादेवी के साथ मिलकर् यज्ञादि अनुष्ठान करने वाले मनुष्य़ की पापो से रक्षा करें॥५॥
सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिं मेधामयासिषम् ॥६॥

इन्द्रदेव के प्रिय मित्र, अभीष्ट पदार्थो को देने मे समर्थ, लोको का मर्म समझने मे सक्षम सदसस्पतिदेव (सत्प्रवृत्तियो के स्वामी) से हम अद्‍भूत मेधा प्राप्त करना चाहते है॥६॥
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन । स धीनां योगमिन्वति ॥७॥
जिनकी कृपा के बिना ज्ञानी का भी यज्ञ पूर्ण नही होता, वे सदसस्पतिदेव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओ से युक्त करते है॥७॥
[सदाशयता जिनमे नही, ऐसे विद्वानो द्वारा यज्ञीय प्रयोजनो की पूर्ति नही होती।]
आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम् । होत्रा देवेषु गच्छति॥८॥

वे सदसस्पतिदेव हविष्यान्न तैयार करने वाले साधको तथा यज्ञ को प्रवृद्ध करते है और वे ही हमारी स्तुतियों को देवो तक पहुंचाते हौ॥८॥
नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम् । दिवो न सद्ममखसम् ॥९॥

द्युलोक से सदृश अतिदीप्तिमान्, तेजवान,यशस्वी और् मनुष्यो द्वारा प्रशंसित वे सदसस्पतिदेव को हमने देखा है॥९॥

Share This Article:

Related Posts

0 comments

डाउनलोड "दयानंद वेदभाष्य खंडनं " Pdf Book

डाउनलोड "दयानंद आत्मचरित (एक अधूरा सच)" Pdf Book

.

Contact Us

Name

Email *

Message *