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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २४

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[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति(कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र)। देवता १-प्रजापति,२अग्नि,३-४ सविता, ५ सविता अथवा भग,६-१५ वरुण।छन्द १,२,६-१५-त्रिष्टुप, ३-५ गायत्री।]

 
 
२५४.कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥१॥
हम अमरदेवो मे से किस देव के सुन्दर नाम का स्मरण करें ? कौन से देव हमे महती अदिति पृथ्वी को प्राप्त करायेंगे? जिअससे हम अपने पिता और माता को देख सकेंगे॥१॥
२५५.अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम। स नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च॥२॥
हम अमरदेवो मे प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का मनन करें। वह हमे महती अदिति को प्राप्त करायेंगे, जिससे हम अपने माता-पिता को देख सकेंगे॥२॥
२५६.अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥३॥
हे सर्वदा रक्षणशील सवितादेव! आप वरण करने वाले योग्य धनो के स्वामी है, अतः हम आपसे ऐश्वर्यो के उत्तम भाग को मांगते है॥३॥
२५७.यश्चिद्धि त इत्था भगः शशमानः पुरा निदः। अद्वेषो हस्तयोर्दधे॥४॥
हे सवितादेव! आप तेजस्विता युक्त निन्दा रहित,द्वेष रहित,वरण करने योग्य धनो को दोनो हाथो से धारण करने वाले हैं॥४॥
२५८.भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे॥५॥
हे सवितादेव! हम आपके ऐश्वर्य की छाया मे रहकर संरक्षण को प्राप्त करें। उन्नति करते हुये सफलताओ के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचकर भी अपने कर्तव्यो को पूरा करते रहे॥५॥
२५९.नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्॥६॥
हे वरुणदेव! ये उड़ने वाले पक्षी आपके पराक्रम ,आपके बल और सुनिति युक्त क्रोध(मन्युं) को नही जान पाते। सतत गमनशील जलप्रवाह आपकी गति को नही जान सकते और प्रबल वायु के वेग भी आपको नही रोक सकते॥६॥
२६०.अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः॥७॥
पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण(सबको आच्छादित करने वाले) दिव्त तेज पुञ्ज सूर्यदेव को आधारहित आकाश मे धारण करते है। इस तेज पुञ्ज सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की ओर है। इसले मध्य मे दिव्य किरणे विस्तीर्ण होती चलती हैं॥७॥
२६१.उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा उ। अपदे पादा प्रतिधातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्॥८॥
राजा वरुणदेव ने सूर्य गमन के लिये विस्तृतमार्ग निर्धारित किया है, जहाँ पैर भी स्थापित न हो, ऐसे अंतरिक्ष स्थान पर भी चलने के लिये मार्ग विनिर्मित करदेते है। और वे हृदय की पीड़ा का निवारण करने वाले हैं॥८॥
२६२.शतं ते राजन्भिषजः सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु। बाधस्व दूरे निरृतिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत्॥९॥
हे वरुणदेव! आपके पास असंख्य उपाय है। आपकी उत्तम बुद्धि अत्यन्त व्यापक और गम्भीर है। आप हमारी पाप वृत्तियो को हमसे दूर करें। किये हुए पापो से हमे विमुक्त करें॥९॥
२६३.अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः।अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति॥१०॥
ये नक्षत्रगण आकाश मे रात्रि के समय दिखते हौ, परन्तु दिन मे कहाँ विलीन होते हैं? विशेष प्रकाशित चन्द्रमा रात मे आता है। वरुण राजा के नियम कभी नष्ट नही होते है॥१०॥
२६४.तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥११॥
हे वरुणदेव! मन्त्ररूप वाणी से आपकी स्तुति करते हुये आपसे याचना करते है। यजमान हविस्यात्र अर्पित करते हुये कहता है - हे बहुप्रशंसित देव! हमारी उपेक्षा न करें, हमारी स्तुतियो को जाने। हमारी आयु को क्षीण न करें॥११॥
२६५.तदिन्नक्तं तद्दिवा मह्यमाहुस्तदयं केतो हृद आ वि चष्टे। शुनःशेपो यमह्वद्गृभीतः सो अस्मान्राजा वरुणो मुमोक्तु॥१२॥
रातदिन मे (अनवरत) ज्ञानियो के कहे अनुसार यही ज्ञान(चिन्तन) हमारे हृदय मे होते रहता है कि बन्धन मे पड़े शुनःशेप ने जिस वरुणदेव को बुलाकर मुक्ति को प्राप्त किया, वही वरुणदेव हमे भी बन्धनो से मुक्त करें॥१२॥
२६६.शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्॥१३॥
तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें॥१३॥
२६७.अव ते हेळो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविर्भिः। क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथः कृतानि॥१४॥
हे वरुणदेव! आपके क्रोध को शान्त करने के लिये हम स्तुति रूप वचनो को सुनाते है। हविर्द्रव्यो के द्वारा यज्ञ मे सन्तुष्ट होकर हे प्रखर बुद्धि वाले राजन! आप हमारे यहाँ वास करते हुये हमे पापो के बन्धन से मुक्त करें॥१४॥
२६८.उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥१५॥

हे वरुणदेव! आप तीनो तापो रूपी बन्धनो से हमे मुक्त करे। आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक पाश हमसे दूर हों तथा मध्य के एवं नीचे के बन्धन अलग करें! हे सूर्यपुत्र! पापो से रहित होकर हम आपके कर्मफल सिद्धांत मे अनुशासित हो, दयनीय स्थिति मे हम न रहें॥१५॥

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