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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३९

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[ऋषि - कण्व धौर । देवता- मरुद्‍गण । छन्द - बाहर्त प्रगाथ(विषमा बृहती, समासतो बृहती)]


४७२.प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ ।
कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतयः ॥१॥
हे कंपाने वाले मरुतो! आप अपना बल दूरस्थ स्थान से विद्युत के समान यहां पर फेंकते हैं, तो आप (किसके यज्ञ की ओर) किसके पास जाते हैं? किस उद्देश्य से आप कहां जाना चाहते हैं? उस समय आपका लक्ष्य क्या होता है?॥१॥

४७३.स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे ।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥२॥
आपके हथियार शत्रु को हटाने मे नियोजित हों। आप अपनी दृढ़ शक्ति से उनका प्रतिरोध करें। आपकी शक्ति प्रशंसनीय हो। आप छद्म वेषधारी मनुष्यो को आगे न बढ़ायें ॥२॥

४७४.परा ह यत्स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु ।
वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम् ॥३॥
हे मरुतो! आप स्थिर वृक्षो को गिराते, दृढ़ चट्टानो को प्रकम्पित करते, भूमि के वनो को जड़ विहीन करते हुए पर्वतो के पार निकल जाते हैं॥३॥

४७५.नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः ।
युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे ॥४॥
हे शत्रुनाशक मरुतो! न द्युलोक मे और न पृथ्वी पर ही, आपके शत्रुओं का आस्तित्व है। हे रूद्र पुत्रो! शत्रुओ को क्षत-विक्षत करने के लिए आप सब मिलकर अपनी शक्ति विस्तृत करें॥४॥

४७६.प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन् ।
प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वया विशा ॥५॥
हे मरुतो! मदमत्त हुए लोगो के समान आप पर्वतो को प्रकम्पित करते है और पेड़ो को उखाड़ कर फेंकते है, अतः आप प्रजाओ के आगे आगे उन्नति करते हुए चलें॥५॥

४७७.उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहितः ।
आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषाः ॥६॥
हे मरुतो! आपके रथ को चित्र-विचित्र चिह्नो युक्त(पशु आदि) गति देते हैं, उनमे लाल रंग वाला अश्व धुरी को खींचता है। तुम्हारी गति से उत्पन्न शब्द भूमि सुनती है, मनुष्यगण उस ध्वनि से भयभीत हो जातें हैं॥६॥

४७८.आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे ।
गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥७॥
हे रूद्रपुत्रो! अपनी संतानो की रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं। जैसे पूर्व समय मे आप भययुक्त कण्वो की रक्षा के निमित्त शीघ्र गये थे, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा के निमित्त शीघ्र पधांरे॥७॥

४७९.युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्व ईषते ।
वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥८॥
हे मरुतो! आपके द्वारा प्रेरित या अन्य किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित शत्रु हम पर प्रभुत्व जमाने आयें, तो आप अपने बल से, अपने तेज से और रक्षण साधनो से उन्हे दूर हटा दें॥८॥

४८०.असामि हि प्रयज्यवः कण्वं दद प्रचेतसः ।
असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युतः ॥९॥
हे विशिष्ट पूज्य,ज्ञाता मरुतो! कण्व को जैसे आपने सम्पूर्ण आश्रय दिया था, वैसे ही चमकने वाली बिजलियों के साथ वेग से आने वाली वृष्टि की तरह आप सम्पूर्न रक्षा साधनो को लेकर हमारे पास आयें॥९॥

४८१.असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः ।
ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम् ॥१०॥
हे उत्तम दानशील मरुतो! आप सम्पूर्ण पराक्रम और सम्पूर्ण बलो को धारण करते हैं। हे शत्रु को प्रकम्पित करने वाले मरुदगणो, ऋषियो से द्वेश करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाले बाण के समान आप शत्रुघातक (शक्ति) का सृजन करें॥१०॥

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