Rigved
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३४
[ऋषि - हिरण्यस्तूप अङ्गिरस। देवता -अश्विनीकुमार । छन्द - जगती, ९,१२ त्रिष्टुप]
३९९.त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वां याम उत रातिरश्विना ।
युवोर्हि यन्त्रं हिम्येव वाससोऽभ्यायंसेन्या भवतं मनीषिभिः ॥१॥
हे ज्ञानी अश्विनीकुमारो! आज आप दोनो यहां तीन बार(प्रातः,मध्यान्ह,सायं) आयें। आप के रथ और दान बड़े महान है। सर्दी की रात एवं आतपयुक्त दिन के समान आप दोनो का परस्पर नित्य सम्बन्ध है। विद्वानो के माध्यम से आप हमे प्राप्त हों॥१॥
४००.त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः ।
त्रय स्कम्भास स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥
मधुर सोम को वहन करने वाले रथ मे वज्र के समान सुदृढ़ पहिये लगे हैं। सभी लोग आपकी सोम के प्रति तीव्र उत्कंठा को जानते है। आपके रथ मे अवलम्बन के लिये तीन खम्बे लगे हैं। हे अश्विनीकुमारो ! आप उस रथ से तीन बार रात्री मे और तीन बार दिन मे गमन करते है॥२॥
त्रिर्वाजवतीरिषो अश्विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ॥३॥
हे दोषो को ढंकने वाले अश्विनीकुमारो! आज हमारे यज्ञ मे दिन मे तीन बार मधुर रसों से सिंचन करें। प्रातः , मध्यान्ह एवं सांय तीन प्रकार के पुष्टिवर्धक अन्न हमे प्रदान करें॥३॥
४०२.त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम् ।
त्रिर्नान्द्यं वहतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम् ॥४॥
हे अश्विनीकुमारो! हमारे घर आप तीन बार आयें। अनुयायी जनो को तीन बार सुरक्षित करें उन्हे तीन बार तीन विशिष्ट ज्ञान करायें। सुखप्रद पदार्थो को तीन बार हमारी ओर पहुंचाये। बलप्रदायक अन्नो को प्रचुर परिमाण मे देकर हमे सम्पन्न करें॥४॥
४०३.त्रिर्नो रयिं वहतमश्विना युवं त्रिर्देवताता त्रिरुतावतं धियः ।
त्रिः सौभगत्वं त्रिरुत श्रवांसि नस्त्रिष्ठं वां सूरे दुहिता रुहद्रथम् ॥५॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो हमारे लिए तीन बार धन इधर लायें। हमारी बुद्धि को तीन बार देवो की स्तुति मे प्रेरित करें। हमे तीन बार सौभाग्य और तीन बार यश प्रदान करें। आपके रथ मे सूर्य पुत्री (उषा) विराजमान हैं॥५॥
४०४.त्रिर्नो अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवानि त्रिरु दत्तमद्भ्यः ।
ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती ॥६॥
हे शुभ कर्मपालक अश्विनीकुमारो ! आपने तीन बार हमे(द्युस्थानीय) दिव्य औषधियां, तीन बार पार्थिव औषधियां तथा तीन बार जलौषधियां प्रदान की हैं। हमारे पुत्र को श्रेष्ठ सुख और संरक्षण दिया है और तीन धातुओ(वात-पित्त-कफ) से मिलने वाला सुख, आरोग्य एवं ऐश्वर्य प्रदान किया है॥६॥
४०५.त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम् ।
तिस्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम् ॥७॥
हे अश्विनीकुमारो! आप नित्य तीन बार यजन योग्य हैं। पृथ्वी पर स्थापित वेदी के तीन ओर आसनो पर बैठें। हे असत्यरहित रथारूढ़ देवो ! प्राणवायु और आत्मा के समान दूर स्थान से हमारे यज्ञो मे तीन बार आयें॥७॥
४०६.त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावास्त्रेधा हविष्कृतम् ।
तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तुभिर्हितम् ॥८॥
हे अश्विनीकुमारो! सात मातृभूत नदियो के जलो से तीन बार तीन पात्र भर दिये है। हवियो को भी तीन भागो मे विभाजित किया है। आकाश मे उपर गमन करते हुए आप तीनो लोको की दिन और रात्रि मे रक्षा करते हौं॥८॥
४०७.क्व त्री चक्रा त्रिवृतो रथस्य क्व त्रयो वन्धुरो ये सनीळाः ।
कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञं नासत्योपयाथः ॥९॥
हे सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! आप जिस रथ द्वारा यज्ञस्थल मे पहुंचते है, उस तीन छोर वाले रथ के तीन चक्र कहां है ? एक ही आधार पर स्थापित होने वाले तीन स्तम्भ कहां है ? और अति शब्द करने वाले बलशाली(अश्व या संचालक यंत्र) को रथ के साथ कब जोड़ा गया था ?॥९॥
४०८.आ नासत्या गच्छतं हूयते हविर्मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः ।
युवोर्हि पूर्वं सवितोषसो रथमृताय चित्रं घृतवन्तमिष्यति ॥१०॥
हे सत्यशील अश्विनीकुमारो ! आप यहां आएं। यहां हवि की आहुतियां दी जा रही हैं। मधु पीने वाले मुखों से मधुर रसो का पान करें। आप के विचित्र पुष्ट रथ को सूर्यदेव उषाकाल से पूर्व, यज्ञ के लिए प्रेरित करते है॥१०॥
४०९.आ नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह देवेभिर्यातं मधुपेयमश्विना ।
प्रायुस्तारिष्टं नी रपांसि मृक्षतं सेधतं द्वेषो भवतं सचाभुवा ॥११॥
हे अश्विनीकुमारो! आप दोनो तैंतीस देवताओ सहित हमारे इस यज्ञ मे मधुपान के लिए पधांरे। हमारी आयु बढा़ये और हमारे पापो को भलीं-भांति विनष्ट करें। हमारे प्रति द्वेष की भावना को समाप्त करके सभी कार्यो मे सहायक बने॥११॥
४१०.आ नो अश्विना त्रिवृता रथेनार्वाञ्चं रयिं वहतं सुवीरम् ।
शृण्वन्ता वामवसे जोहवीमि वृधे च नो भवतं वाजसातौ ॥१२॥
हे अश्विनीकुमारो! त्रिकोण रथ से हमारे लिये उत्तम धन-सामर्थ्यो को वहन करें। हमारी रक्षा के लिए आवाहनो को आप सुने। युद्ध के अवसरो पर हमारी बल-वृद्धी का प्रयास करें॥१२॥
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