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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १४

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[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता विश्वेदेवता। छन्द-गायत्री।]


१३५.ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये । देवेभिर्याहि यक्षि च ॥१॥
हे अग्निदेव! आप समस्त देवो के साथ इस यज्ञ मे सोम पीने के लिये आएँ एव हमारी परिचर्या उअर् स्तुतियो को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन्न करें ॥१॥


१३६. आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ॥२॥
हे मेधावी अग्निदेव! कण्व ऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यो की प्रशंसा करते हौ। अतः आप देवो के साथ यहाँ पधारे ॥२॥
 
१३७.इन्द्रवायू बृहस्पतिं मित्राग्निं पूषणं भगम् । आदित्यान्मारुतं गणम् ॥३॥
यज्ञशाला मे हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति,मित्र, अग्नि, पूषा,भग, आदित्यगण और मरुद्‍गण आदि देवो का आवाहन करते है॥३॥


१३८.प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः । द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ॥४॥
कूटपीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढा़ने वाला यह मधुर सोमरस अग्निदेव के लिये चमसादि पात्रो मे भरा हुआ है॥४॥


१३९.ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥५॥
कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा की कामना से, कुश आसन बिछाकर हविष्यान्न व अलंकारो से युक्त होकर अग्निदेव की स्तुति करते हैं॥५॥


१४०.घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः । आ देवान्सोमपीतये ॥६॥
अतिदीप्तिमान पृष्ठभाग वाले, मन के संकल्प मात्र से ही रथ मे नियोजित हो जाने वाले अश्वो(से नियोजित रथ) द्वारा आप सोमपान के निमित्त देवो को ले आएँ॥६॥


१४१.तान्यजत्राँ ऋतावृधोऽग्ने पत्नीवतस्कृधि । मध्वः सुजिह्व पायय ॥७॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ की समृद्धी एंव शोभा बढा़ने वाले पूजनीय इन्द्रादि देव को सपत्‍नीक इस यज्ञ मे बुलायें तथा उन्हे मधुर् सोमरस का पान करायें॥७॥


१४२.ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया । मधोरग्ने वषट्कृति ॥८॥
हे अग्निदेव! यजन किये जाने योग्य और् स्तुति किये जाने योग्य जो देवगण है, वे यज्ञ मे आपकी जिह्वा से आनन्दपूर्वक मधुर सोमरस का पान करें ॥८॥


१४३.आकीं सूर्यस्य रोचनाद्विश्वान्देवाँ उषर्बुधः । विप्रो होतेह वक्षति ॥९॥
हे मेधावी होतारूप अग्निदेव! आप प्रातः काल मे जागने वाले विश्वदेवि को सूर्य रश्मियो से युक्त करके हमारे पास लाते है॥९॥


१४४.विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना । पिबा मित्रस्य धामभिः ॥१०॥
हे अग्निदेव ! आप इन्द्र वायु मित्र आदि देवो के सम्पूर्ण तेजो के साथ मधुर् सोमरस का पान करें ॥१०॥


१४५.त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि । सेमं नो अध्वरं यज ॥११॥
हे मनुष्यो के हितैषी अग्निदेव! आप होता के रूप मे यज्ञ मे प्रतिष्ठ हों और हमारे इस् हिंसारहित यज्ञ हि सम्पन्न करें॥११॥


१४६.युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः । ताभिर्देवाँ इहा वह ॥१२॥
हे अग्निदेव ! आप रोहित नामक रथ को ले जाने मे सक्षम, तेजगति वाली घोड़ीयो को रथ मे जोते एवं उनके द्वारा देवताओ को इस यज्ञ मे लाएँ॥१२॥

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