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आर्यभट (Aryabhatta)

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आर्यभट भारत ही नही बल्कि प्राचीन विश्व के एक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे। आचार्य आर्यभट ने वैज्ञानिक उन्नति में केवल योगदान ही नही दिया बल्कि उसमें चार चांद लगाए।
इस महान वैज्ञानिक का जन्म भारत का स्वर्ण युग कहे जाने वाले गुप्त काल में हुआ था। गुप्त काल में आर्यभट जैसे महान वैज्ञानिको की बदौलत साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्रों में भारत ने काफी उन्नति की।
 

आर्यभट का जन्म

आर्यभट अपने जन्मकाल की स्पष्ट सूचना देने वाले पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था, आर्यभट ने अपने ग्रंथ आर्यभटीय में लिखा है कि उन्होंने इस ग्रंथ की रचना कलयुग के 3600 वर्ष बीत जाने के बाद की और इसे लिखते समय उनकी आयु 23 वर्ष है। इस प्रकार भारतीय कैलंडर के अनुसार आर्यभट का जन्म 476 ईसवी में हुआ था।
भले ही आर्यभट के जन्म के समय के बारे में स्पष्ट जानकारी है, पर उनके जन्मस्थान के बारे में विवाद है। इतिहासकारों के अनुसार उनका जन्म या तो पटना में हुआ था जा फिर महाराष्ट्र में। भले ही उनके जन्मस्थान के बारे में विवाद हो पर सभी इतिहासकार इस बात पर सहमत है कि उनके ग्रंथ आर्यभटीय से प्रभावित होकर गुप्त राजा बुद्धगुप्त ने उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय का प्रमुख बना दिया था।

 
 

आर्यभट की रचनाएं (ग्रंथ)

इतिहासकार मानते है कि आर्यभट ने कई ग्रंथो की रचना की थी, परंतु वर्तमान समय में उनके चार ग्रंथ ही उपलब्ध है – आर्यभटीय, दशगीतिका, तंत्र और आर्यभट सिद्धांत। आर्यभट सिद्धांत ग्रंथ पूरा उपलब्ध नही है, उसके केवल 34 श्लोक ही ज्ञात है। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
आर्यभट का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ आर्यभटीय है। इस ग्रंथ में वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल 3 पृष्ठों के समा सकने वाले 33 श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा 5 पृष्ठों में 75 श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया। आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कीं।
उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं।
आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर  ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाकार।

 
 

आर्यभटीय

आर्यभट के कार्य के प्रत्यक्ष विवरण सिर्फ़ आर्यभटीय से ही ज्ञात हैं। आर्यभटीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट ने स्वयं इसे नाम नही दिया होगा; यह उल्लेख उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में किया है। इसे कभी कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट के १०८)- जो की उनके पाठ में छंदों की संख्या है- के नाम से भी जाना जाता है। यह सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है, जहाँ प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने के लिए सहायता करती है। इस प्रकार, अर्थ की व्याख्या टिप्पणीकारों की वजह से है। समूचे ग्रंथ में १०८ छंद है, साथ ही परिचयात्मक १३ अतिरिक्त हैं, इस पूरे को चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित किया गया है
 
(१) गीतिकपाद : (१३ छंद) समय की बड़ी इकाइयाँ - कल्प, मन्वन्तर, युग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग एक ब्रह्माण्ड विज्ञान प्रस्तुत करते हैं जैसे कि लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईसवी पूर्व, इनमेंं जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए ४.३२ मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है।
 
(२) गणितपाद (३३ छंद) में क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु/ छायाएँ (शंकु-छाया), सरल, द्विघात, युगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है।
 
(३) कालक्रियापाद (२५ छंद) : समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, एक सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं।
 
(४) गोलपाद (५० छंद): आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक /त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशिचक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं।
इसके अतिरिक्त, कुछ संस्करणों अंत में कृतियों की प्रशंसा आदि करने के लिए कुछ पुश्पिकाएं भी जोड़ते हैं।
आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में, कुछ नवीनताएँ प्रस्तुत की, जो अनेक सदियों तक प्रभावशाली रही। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर प्रथम (भाष्य , ६०० और) द्वारा अपनी समीक्षाओं में किया गया है और अपने आर्यभटीय भाष्य (१४६५) में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा।

 
 

आर्यभट का योगदान

 
भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।
आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।
उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया, तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।
 
आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।
आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।

 
 

गणित: स्थानीय मान प्रणाली और शून्य

स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह की दलील है कि रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।
हालांकि, आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को जारी रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना।

 

अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में पाई

आर्यभट ने पाई ( π  ) के सन्निकटन पर कार्य किया, वह इस बात को जानते थे कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम (गणितपाद) के दूसरे भाग वह लिखते हैं। 
 
चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्त्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्य आसन्नौ वृत्तपरिणाहः॥
 
१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है।
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६
इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात (४ + १००) × ८ + ६२०००) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है।
 
आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल १७६१ में ही सिद्ध हो पाया था।

 

क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति

गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है-
 
त्रिभुजस्य फलाशारिरम समदलाकोटि भुजर्धसमवर्गः
 
इसका अनुवाद है: एक त्रिकोण के लिए, अर्ध-पक्ष के साथ लम्ब का परिणाम क्षेत्रफल है।
आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है "अर्ध-तंत्री"। आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दि।
अनिश्चित समीकरण
प्राचीन कल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैं। 
 
वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है।
अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। kuṭṭaka कुुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, ६२१ ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है। डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया।

 
 

बीजगणित

आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रृंखला के सुरुचिपूर्ण परिणाम प्रदान किये हैं।

और
 

 
 

खगोल विज्ञान

आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हे आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है।
 

सौर प्रणाली की गतियाँ

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लङ्कायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)

जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।
अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है। 
 
उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लङ्का-सम-पश्चिम-गस् भ-पञ्जरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०)

"उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं।
लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था।
आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की इस मॉडल में, जो पाया जाता है पितामहसिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज)

 

ग्रहचक्र

आर्यभट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है।

 

नक्षत्रों के आवर्तकाल

समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।

 
 

सूर्य केंद्रीयता

आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं।

 
 
 

विरासत

भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इसने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया।
 
आर्यभट के गणित और खगोल विज्ञान में 12 महत्वपूर्ण योगदान
 
1. आर्यभट ने पृथ्वी की परिधि (circumference) की लंबाई 39,968.05 किलोमीटर बताई थी जो असल लंबाई (40,075.01 किलोमीटर) से सिर्फ 0.2 प्रतीशत कम है।
 
2. आर्यभट ने वायुमंडल की ऊँचाई 80 किलोमीटर तक बताई थी। असल में वायुमंडल की ऊँचाई 1600 किलमीटर से भी ज्यादा है पर इसका 99 प्रतीशत हिस्सा 80 किलोमीटर की सीमा तक ही सीमित है।
 
3. आर्यभट्ट ने सूर्य से ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह वर्तमान माप से मिलता-जुलता है। आज पृथ्वी से सूर्य की दूरी लगभग 15 करोड़ किलोमीटर मानी जाती है। इसे 1 AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। आर्यभट्‌ट के मान और वर्तमान मान इस तरह हैं-
बुध : आर्यभट का मान 0.375 एयू - वर्तमान मान 0.387 एयू
शुक्र : आर्यभट का मान 0.725 एयू - वर्तमान मान 0.723 एयू
मंगल : आर्यभट का मान 1.538 एयू - वर्तमान मान 1.523 एयू
गुरु : आर्यभट का मान 4.16 एयू - वर्तमान मान 4.20 एयू
शनि : आर्यभट का मान 9.41 एयू - वर्तमान मान 9.54 एयू
 
4. आर्यभट ने तारों से सापेक्ष पृथ्वी के घूमने की गति को माप कर बताया था कि एक दिन की लंबाई 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सैकेंड होती है जो असल से सिर्फ 0.86 सैकेंड कम है। आर्यभट से पहले भी कई ग्रीक, युनानी और भारतीय वैज्ञानिकों ने एक दिन के समय की लंबाई को बताया था पर वो आर्यभट की गणना जितनी सटीक नही थी।
 
5. आर्यभट के अनुसार एक साल की लंबाई 365.25868 दिन के बराबर होती है जो कि आधुनिक गणना 365.25636 के लगभग बराबर है।
 
6. चांद के पूथ्वी के ईर्द – गिर्द चक्कर लगाने की अवधि को आर्यभट ने 27.32167 दिन के बराबर बताया था जो कि आधुनिक गणना 27.32166 के लगभग बराबर है।
 
7. अंकों को चिन्हों द्वारा लिखना शूरू किया – दोस्तो अक्सर आप ने सुना होगा कि आर्यभट ने जीरो की खोज़ की थी पर आपकी यह जानकारी गलत है। असल में उन्होंने गणनाओं को विशेष चिन्हों द्वारा लिखने की शूरूआत की थी। उनसे पहले किसी लेख में गणनाओं को शब्दों में लिखा जाता था (जैसे कि एक, दो , तीन , गयारा, पंद्रा, बीस आदि) पर उन्होंने गणनाओं को आधुनिक नंबर सिस्टम में लिखना शूरू किया ( जैसे कि 1, 2,
3, 11, 15 , 20 etc.) । (यहां पर ध्यान दें कि 1,2,3 अंग्रेज़ी चिन्ह है जबकि आर्यभट ने किन्हीं और चिन्हों का प्रयोग किया था जिनके बारे में अब पता नही।)
 
8. आर्यभट ने केवल यह ही नही बताया कि सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण क्यों लगते है बल्कि ग्रहण लगने का समय निकलने का फार्मूला भी बताया । उन्होंने ग्रहण कितनी देर तक रहेगा इस बात का पता करने का भी फार्मूला दिया था।
 
9. आर्यभट ने पाई की वेल्यू दशमल्व के चार अंकों (3.1416) तक सही बताई थी।
 
10. आर्यभट ने ही त्रिकोणमिती (Trigonometry) के Sin और Cosine की खोज़ की थी। आर्यभट ने इन्हें ‘ज्या’ और ‘कोज्या’ कहा है। ( Cosine कोज्या का ही बिगड़ा हुआ रूप है। ) इस का मतलब है आज पूरी दुनिया में जो त्रिकोणमिति पढ़ाया जाता है, वास्तविकता में उसकी खोज आर्यभट ने की थी।
 
11. आर्यभट ने ब्रम्हांड को अनादि-अनंत माना। भारतीय दर्शन के अनुसार अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन पांच तत्वों के मेल से इस सृष्टी का सृजन हुआ है।
 
12. आर्यभट ने उस समय की प्रचलित अवधारना को रद्द कर दिया कि पृथ्वी इस ब्रह्मांड के केंद्र में है। आर्यभट के अनुसार सूर्य सौर मंडल के केंद्र में स्थित है और पृथ्वी समेत बाकी ग्रह उसकी परिक्रमा करते है।
तो दोस्तो यह था हमारे प्राचीन भारत और महावैज्ञानिक आर्यभट का कमाल जिनकी वजह से हम कह सकते है कि हमारे भारत ने दुनिया को केवल जीरो ही नही दी बल्कि और भी बहुत कुछ दिया है।

 
 

आर्यभट को महासम्मान

भारत के इस महान सपूत को भारत ने ही नही बल्कि पूरी दुनिया ने भरपूर सम्मान दिया है। भारत ने अपने पहले उपग्रह का नाम आर्यभट रखा जिसे 19 अप्रैल 1975 को अंतरिक्ष में छोड़ा गया। भारत दुनिया पहला ऐसा देश है जिसने अपने पहले उपग्रह को किसी काल्पनिक देवी-देवता का नाम नही दिया, बल्कि अपने एक महान गणितज्ञ का नाम दिया।
साल 1976 में अर्न्तराष्ट्रीय संस्था यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500वीं जयंती मनाई थी। चन्द्रमा पर उपस्थित एक बड़ी दरार (गड्डे) का नाम आर्यभट रखा गया है। ISRO द्वारा वायुमंडल की समताप मंडल परत में खोज़े गए जीवाणुओं में से एक प्रजाति का नाम ‘बैसिलस आर्यभट’ रखा गया है। नैनीताल के निकट स्थित एक वैज्ञानिक संस्थान का नाम आर्यभट के सम्मान में ‘आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान’ रखा गया है।
 

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