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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २०

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[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- ऋभुगण। छन्द -गायत्री]


१९५.अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया । अकारि रत्नधातमः॥१॥

ऋभुदेवो के निमित्त ज्ञानियो ने अपने मुख से इन रमणीय स्तोत्रो की रचना की तथा उनका पाठ किया॥१॥
१९६.य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी । शमीभिर्यज्ञमाशत ॥२॥

जिन ऋभुदेवो ने अतिकुशलतापूर्वक इन्द्रदेव के लिये वचन मात्र से नियोजित होकर चलनेवाले अश्‍वो की रचना की, ये शमी आदि यज्ञ (यज्ञ पात्र अथवा पाप शमन करने वाले देवों) के साथ यज्ञ मे सुशोभित होते हैं॥२॥
[चमस एक प्रकार के पात्र का नाम है, जिसे भी देव भाव से सम्बोधित् किया गया है।]
१९७.तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् । तक्षन्धेनुं सबर्दुघाम्॥३॥

जिन ऋभुदेवो ने अश्‍विनीकुमारो के लिये अति सुखप्रद सर्वत्र गमनशील रथ का निर्माण किया और गौओ को उत्तम दूध देने वाली बनाया॥३॥
१९८. युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजूयवः । ऋभवो विष्ट्यक्रत ॥४॥

अमोघ मन्त्र सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले ऋभुदेवो ने मातापिता मे स्नेहभाव संचरित कर उन्हे पुनः जवान बनाया॥४॥
[यहाँ जरावस्था दूर करने की मन्त्र विद्या का संकेत है।]
१९९.सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वता । आदित्येभिश्च राजभिः॥५॥

हे ऋभुदेवो! यह हर्षप्रद सोमरस इन्द्रदेव, मरुतो और दीप्तिमान् आदित्यो के साथ आपको अर्पित किया जाता है॥५॥
२००. उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम् । अकर्त चतुरः पुनः ॥६॥

त्वष्टादेव के द्वारा एक ही चमस तैयार किया गया था, ऋभुदेवो ने उसे चार प्रकार का बनाकर प्रयुक्त किया॥६॥
२०१.ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥७॥

वे उत्तम स्तुतियो से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनो कोटि के सप्तरत्नो अर्थात इक्कीस प्रकार के रत्नो (विशिष्ट कर्मो) को प्रदान करें। (यज्ञ के तीन विभाग है - हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ एवं सोमयज्ञ। तीनो के सात-सात प्रकार है। इस प्रकार यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं।)।७॥
२०२.अधारयन्त वह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया । भागं देवेषु यज्ञियम् ॥८॥

तेजस्वी ऋभुदेवो ने अपने उत्तम कर्मो से देवो के स्थान पर अधिष्ठित होकर यज्ञ के भाग को धारण कर् उसका सेवन किया॥८॥

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