Rigved
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४७
[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द - बाहर्त प्रगाथ (विषमा बृहती, समासतो बृहती)।]
५५७.अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा ।
तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥
तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥१॥
हे यज्ञ कर्म का विस्तार करने वाले अश्विनीकुमारो ! अपने इस यज्ञ मे अत्यन्त मधुर तथा एक दिन पूर्व शोधित सोमरस का आप सेवन करें । यज्ञकर्ता यजमान को रत्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करें॥१॥
५५८.त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना ।
कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥
५५८.त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना ।
कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥२॥
हे अश्विनीकुमारो ! तीन वृत्त युक्त(त्रिकोण), तीन अवलम्बन वाले अति सुशोभित रथ से यहाँ आयें। यज्ञ मे कण्व वंशज आप दोनो के लिए मंत्र युक्त स्तुतियाँ करते हैं, उनके आवाहन को सुनें॥२॥
५५९.अश्विना मधुमत्तमं पातं सोममृतावृधा ।
अथाद्य दस्रा वसु बिभ्रता रथे दाश्वांसमुप गच्छतम् ॥३॥
हे शत्रुनाशक, यज्ञ वर्द्धक अश्विनीकुमारो ! अत्यन्त मीठे सोमरस का पान करें। आज रथ मे धनो को धारण कर हविदाता यजमान के समीप आयें॥३॥
५६०.त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् ।
कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥
५६०.त्रिषधस्थे बर्हिषि विश्ववेदसा मध्वा यज्ञं मिमिक्षतम् ।
कण्वासो वां सुतसोमा अभिद्यवो युवां हवन्ते अश्विना ॥४॥
हे सर्वज्ञ अश्विनीकुमारो ! तीन स्थानो पर रखे हुए कुश-आसन पर अधिष्ठित होकर आप यज्ञ का सिंचन करें। स्वर्ग की कामना वाले कण्व वंशज सोम को अभिषुत कर आप दोनो को बुलातें हैं॥४॥
५६१.याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना ।
ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥
५६१.याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना ।
ताभिः ष्वस्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥५॥
यज्ञ को बढ़ाने वाले शुभ कर्मो के पोषक हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो ने जिन इच्छित रक्षण-साधनो से कण्व की भली प्रकार रक्षा की, उन साधनो से हमारी भी भली प्रकार रक्षा करें और प्रस्तुत सोम रस का पान करें॥५॥
५६२.सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना ।
रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥
५६२.सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना ।
रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥६॥
शत्रुओं के लिए उग्ररूप धारण करने वाले हे अश्विनीकुमारो !रथ मे धनो को धारण कर आपने सुदास को अन्न पहुँचाया। उसी प्रकार अन्तरिक्ष या सागरों से लाकर बहुतो द्वारा वाञ्छित धन हमारे लिए प्रदान करें॥६॥
५६३.यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे ।
अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥
५६३.यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे ।
अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥७॥
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! आप दूर हो या पास हों, वहाँ से उत्तम गतिमान रथ से सूर्य रश्मियों के साथ हमारे पास आयें॥७॥
५६४.अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ।
इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥
५६४.अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ।
इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥८॥
हे देवपुरुषो अश्विनीकुमारो ! यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले आपके अश्व आप दोनो को सोमयाग के समीप ले आयें। उत्तम कर्म करनेवाले और दान देने वाले याजको के लिये अन्नो की पूर्ति करते हुए आप दोनो कुश के आसनो पर बैठें॥८॥
५६५.तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा ।
येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥
५६५.तेन नासत्या गतं रथेन सूर्यत्वचा ।
येन शश्वदूहथुर्दाशुषे वसु मध्वः सोमस्य पीतये ॥९॥
हे सत्य समर्थक अश्विनीकुमारो ! सूर्य सदृश तेजस्वी जिस रथ से दाता याजको के लिए सदैव धन लाकर देते रहे हैं, उसी रथ से आप मीठे सोमरस पान के लिएं पधारें ॥९॥
५६६.उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे ।
शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥
५६६.उक्थेभिरर्वागवसे पुरूवसू अर्कैश्च नि ह्वयामहे ।
शश्वत्कण्वानां सदसि प्रिये हि कं सोमं पपथुरश्विना ॥१०॥
हे विपुल धन वाले अश्विनीकुमारो ! अपनी रक्षा के निमित्त हम स्तोत्रो और पूजा-अर्चनाओं से बार बार आपका आवाहन करते है। कण्व वंशको की यज्ञ सभा मे आप सर्वदा सोमपान करते रहे हैं॥१०॥
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