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दयानंद सनातन धर्म का शत्रु ( Dayanand Sanatan Dharm Ka Shatru )

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✴✴ दयानंदभाष्य खंडनम् -३


दयानंद ने वेदआदि भाष्यों के साथ छेडछाड क्यों किया
इन सबके पिछे स्वामी जी का उद्देश्य क्या था ??
आइए देखते है
 
सत्यार्थ प्रकाश सप्तम संमुल्लास :- दयानन्द जी लिखते है ।
 
अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुर्वेद: सुर्यात्सामवेद: ।।
 
स्वामी जी इसका अर्थ लिखते है -
"ईश्वर ने सृष्टि की आदि मे अग्नि वायु आदित्य तथा अंगिरा ऋषियो की आत्माओ मे एक एक वेद का प्रकाशन किया"
अब आइये जरा इस मंत्र के अर्थ पर भी नजर डाल लेते है
अग्नेर्वा - अग्नि द्वारा
ऋगवेदो - ऋग्वेद
जायते - प्रकट हुआ /दोहन
वायोर्यजुर्वेद: - वायु द्वारा यजुर्वेद
सुर्यात्सामवेद: - सूर्य के द्वारा सामवेद
 
अब कोई आर्य समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी इस पर प्रकाश डालना चाहेंगे ???
की स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यहा पर अंगिरा और अथर्वेद कैसे जोड़ा ???? और इस मंत्र मे अग्नि सूर्य और वायु के लिए ऋषि शब्द का प्रयोग कहाँ हुआ है ???
 
यहाँ सिद्ध हो जाता है की दयानन्द को ज्ञान तो बिल्कुल भी नही था क्योंकि इस मंत्र को कोई भी जिसमे थोडी सी भी बुद्धि होगी या संस्कृत का मूल अध्धयन भी किया होगा तो वो समझ सकता है कि दयानंद ने इस मंत्र के द्धारा लोगों को किस प्रकार भ्रमित करने का प्रयास किया है ।।
 चलिए बढ़ते है आगे ।
 
प्रश्न करता पूछता है की
यो वै ब्राह्मणम् विदधाति पूर्वम् यो वै वेदंश्च प्रहिणोति तस्मैं ।।
इस मंत्र मे हो ब्रह्मा जी के हृदय मे किया है फिर अग्निआदि ऋषियो को क्यो कहा ??
( ये प्रश्न कर्ता का वाक्य है इसलिए इस पर गौर नही करेंगे क्योकि यहाँ प्रश्न कर्ता और जबाब देने वाला एक ही व्यक्ति है ये ढ़ोग बस लोगों को भ्रमित करने के लिए किया गया है )
 
स्वामी जी जवाब देते है ।
ब्रह्मा की आत्मा मे अग्निआदि द्वारा स्थापित कराया देखो मनुस्मृति मे क्या लिखा है -
 
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजु: समलक्षणम्॥- मनु (1/23)
 
स्वामी जी इसका भावार्थ लिखते है की
"जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर
अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए
उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया"
स्वामी जी के इस भावार्थ से साबित होता है की स्वामी जी केवल अज्ञानी ही नही अपितु मूर्ख भी थे ।
या फिर उन्होंने सरासर लोगो को भ्रमित करने का कार्य किया है ( इसकी बात भी अभी करेंगे )
बढ़ते है थोड़ा आगे
 
 
प्रश्न करता आगे पूछता है "उन चारो मे ही प्रकाशन किया इससे ईश्वर पक्षपाती होता है"
स्वामी जी उत्तर देते है
"वो ही चार सब जीवो से अधिक पवित्रात्मा थे , अन्य उनके सदृश नही थे । इसलिए पवित्र विद्या का उन्ही मे प्रकाश किया"
प्रश्न करता आगे कोई प्रश्न नहीं करता कुछ नही पुछता है इसका कारण कोई भी समझदार व्यक्ति समझ सकता है
लेकिन मैं पूछना चाहूँगा
की सृष्टि उत्पत्ति के समय कोई आत्मा सबसे पवित्र , कम पवित्र और अपवित्र कैसे हुई ???
स्वामी जी के अनुसार क्या ईश्वर पक्षपाती नही हुआ ???
और सृष्टि के आदि मे जब मनुष्य की उत्त्पत्ति हुई उस वक़्त तो कोई काम, लोभ, मोह, छल इत्यादि भी नही था जबकि पैदा हुआ बच्चा पाप पुण्य के बंधन से मुक्त होता है
फिर स्वामी जी का ये कथन की वो चार सबसे अधिक पवित्रात्मा थे क्या बेवकूफी भरा नही है ???
चलिए और आगे देखते है
 
 
प्रश्न करता सवाल करता है हालांकि बेवकूफी भरा सवाल है
" किसी देश की भाषा मे वेदों का प्रकाश ना करके संस्कृत मे ही वेदों का प्रकाश क्यों किया ??"
मानता हु की ये सवाल बेतुका है
मगर आर्य समाज के तथाकथित महाऋषि ने जो जवाब दिया वो वाकाइ मे इससे से ज्यादा बेतुका है
स्वामी जी कहते है
"जो किसी देश भाषा मे प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती होता क्योंकि जिस देश भाषा मे ईश्वर वेदों का प्रकाश करता वहाँ के लोगो को सुगमता और बाकियो को पढने मे कठिनता होती ।
इसलिए संस्कृत मे किया जो किसी देश भाषा मे ना होकर अन्य सभी भाषाओं का कारण है ।
क्या स्वामी जी का ये जवाब वाकई हास्यपद और बेवकूफी भरा नही है ??
मैं समस्त आर्य समाजियों से पूछता हुँ
कि सृष्टि उत्पत्ति के समय कितने देश थे ???
और कितनी भाषाए बोली जाती थी ???
जैसा स्वामी जी ने कहा है की संस्कृत हर भाषा का कारण है
तो क्या संस्कृत कभी बोली नही जाती थी ???
 
ये सवाल मैं पहले भी बहुत से आर्य समाजियों से पूछ चुका हु
उनके कुतर्क ऐसे आये
"जैसा सवाल था वैसा जवाब दिया स्वामी जी ने"
 
तो मैं फिर कहना चाहता हुँ
की क्या स्वामी जी किसी गधे या मूर्ख से सवाल जवाब कर रहे थे ???
 
क्या स्वामी जी ये भूल गए थे की वो एक ग्रंथ लिख रहे है
और ग्रंथ मे ऐसी मूर्खता पूर्ण बाते शोभा नही देती ??
 
और बड़ी बात ग्रंथ लिखने वाला कोई मूर्ख तो नही होगा
मतलब साफ है की स्वामी जी ने लोगो को भ्रमित करने का प्रयास किया है
इसकी भी पुष्टि मैं कर ही देता हुँ ।
 
 
जैसा स्वामी जी ने ऊपर लिखा था
 
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृग्यजु : समलक्षणम्॥- मनु (1/23)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर
अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए
उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से
ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
 
स्वामी जी ने इस मंत्र से भी वैसे ही छेड छाड़ करी है
जैसा अन्य मंत्रो के साथ किया है
और उनके इस भावार्थ से ये साफ हो जाता है की उन्हे संस्कृत का तनिक भी ज्ञान नहीं था यदि होता सोच विचार कर भावर्थ करते यू मुर्खों कि भांति नही करते या फिर ये षडयंत्र भी हो सकता है लोगो को भ्रमित करने के लिए
 
क्योंकि इस मंत्र मे लिखा है -
अग्निवायुरविभ्यस्तु - अग्नि वायु और सूर्य है ।
त्रयं ब्रह्म - तीन देव ( यहाँ पर ब्रह्म देव के लिए प्रयोग किया गया है ईश्वर के लिए नही )
दुदोह - प्रकट किया / उत्पन्न किया
यज्ञासिध्यार्थम् - यज्ञ सिद्धी के लिए
ऋग्यजु:साम् - ऋग यजु और साम
लक्षणम्- गुण वाले ।
 
भावार्थ- परमेश्वर ने यज्ञ सिद्धी के अग्नि वायु और सूर्य तीनो देव को और सम गुण वाले साम ऋग और यजु वेदों को दोहा/प्रकट किया ।।
 
अब बताये कोई इस मंत्र मे ऋषियों का उल्लेख कहाँ मिलता है ??
और अंगिरा ऋषि का भी कहा है ??
और स्वामी जी ने जो इसमे बकवास कर रखा है
जैसे
प्रारम्भ मे 4 ऋषि थे उनमे एक अंगिरा थे
इन चारो ने ब्रह्मा को वेद ज्ञान दिया
आइये देखते है सत्य क्या है ।
 
तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् ।
तस्मिञजज्ञेस्वयंब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ।। (मनुस्मृति 1/11)
 
प्रकृति मे आरोपित बीज अल्प काल से ही सूर्य के समान चमकीले अंडे के रूप मे परिणत हो गया और फिर उसी अंडे से सब लोगो के पितामह ब्रह्मा जी प्रकट हुए ।।
मनुस्मृति मे साफ शब्दों मे लिखा हुआ है की ब्रह्मा जी की उत्पत्ति सबसे पहले हुई और इस जग के पितामह वही है ।।
 
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनव:
ता यदस्यायनं पूर्व तेन नारायण: स्मृत: ।। (मनुस्मृति 1/12)
 
ब्रह्म (नर) द्वारा उत्पन्न होने के कारण आपका एक नाम नार है फिर इसी नार से ब्रह्मा की ब्रह्मरूप मे उत्पत्ति हुई ।
अतः ब्रह्मा जी का एक नाम नारायण भी है ।।
 
इन दोनो तथ्यों से पता चलता है की आदि सृष्टि मे मनुस्मृति के आधार पर ब्रह्मा जी सर्वप्रथम प्रकट हुए और ईश्वर ने स्वंय अपने स्वरूप को इस रूप मे प्रकट किया ।।
 
नोट- स्वामी दयानन्द जी खुद मानते है की मनुस्मृति सत्य है ।। फिर स्वामी जी सत्यार्थ प्रकाश मे ऐसी बेवकूफी क्यों लिखी की 4 ऋषियो ने ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान प्राप्त कराया ???
 
और आइये एक नजर देखते है अंगिरा ऋषि पर
सत्यार्थ प्रकाश मे स्वामी ने वेदों की उत्पत्ति के समय 4 ऋषियो का नाम लिया जबकि मनुस्मृति
केवल अग्नि वायु और सूर्य को मानती है ।।
जो की ऊपर मैं लिख चुका हु ।।
आइये देखते है अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति
देखिए स्वामी जी की बात कितनी सही और कितनी झूठ
 
मारीचिमत्र्यंगीरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च ।। (मनुस्मृति 1/37)
 
मनु द्वारा उत्पन्न दस ऋषियो के नाम मारीच अत्री अंगिरा पुलत्स्य पुलह क्रतु प्रचेता वशिष्ट भृगु नारद ।।
इन बातो के साथ और इन प्रमाणों के साथ मैं विश्वास से कह सकता हु की स्वामी दयानन्द सरस्वती एक षड़यंत्र के तहत आये थे और मंत्रो के साथ खिलवाड़ करके सबको भ्रमित करने में कुछ हद तक सफल भी हुए ।।

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