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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १९

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[ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता- अग्नि और मरुद्‍गण। छन्द -गायत्री]


 
१८६.प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि॥१॥
हे अग्निदेव! श्रेष्ठ यज्ञो की गरिमा के संरक्षण के लिये हम आपका आवाहन करते हैं, आपको मरुतो के साथ आमंत्रित करते हौ, अतः देवताओ के इस यज्ञ मे आप पधारे॥१॥
१८७. नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥२॥
हे अग्निदेव! ऐसा न कोइ देव है, न ही कोई मनुष्य, जो आपके द्वारा सम्पादित महान् कर्म को कर सके। ऐसे समर्थ आप मरुद्‍गणो से साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥२॥
१८८.ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥३॥

जो मरुद्‍गण पृथ्वी पर श्रेष्ठ जल वृष्टि की विधि जानते है या क्षमता से सम्पन्न है। हे अग्निदेव आप उन द्रोह रहित मरुद्‍गणो के साथ इस यज्ञ मे पधारें॥३॥
१८९. य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥४॥

हे अग्निदेव! जो अतिबलशाली, अजेय और अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य के सदृश प्रकाशक है। आप उन मरुद्‍गणो के साथ यहाँ पधारें॥४॥
१९०.ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः । मरुद्भिरग्न आ गहि॥५॥

जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठ बल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें॥५॥
१९१.ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥६॥

हे अग्निदेव! ये जो मरुद्‍गण सबके उपर अधिष्ठित,प्रकाशक,द्युलोक के निवासी है, आप उन मरुदगणो के साथ पधारें॥७॥
१९२.य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम् । मरुद्भिरग्न आ गहि॥७॥

हे अग्निदेव! जो पर्वत सदृश विशाल मेघो को एक स्थान से दूसरे सुदूरस्थ दूसरे स्थान पर ले जाते हैं तथा जो शान्त समुद्रो मे भी ज्वार पैदा कर देते है(हलचल पैदा कर देते है), ऐसे उन मरुद्‍गणो ले साथ आप इस यज्ञ मे पधारे॥७॥
१९३. आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥८॥

हे अग्निदेव! जो सूर्य की रश्मियो के साथ सर्व व्याप्त होकर समुद्र को अपने ओज से प्रभावित करते हैं उन मरुतो के साथ आप यहाँ पधारें॥८॥
१९४. अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥
हे अग्निदेव! सर्वप्रथम आपके सेवनार्थ यह मधुर सोमरस हम अर्पित करते हैं, अतः आप मरउतो के साथ यहाँ पधारें॥९॥

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