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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ६

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[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता- १-३,१० इन्द्र; ४,६,८,९ मरुद् गण;५-७ मरुद् गण और् इन्द्र;१० छन्द- गायत्री]


५१। युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुश्ष:। रोचन्ते रोचना दिवि ॥१॥

(वे इन्द्रदेव) द्युलोक मे आदित्य रूप मे, भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप् मे, अंतरिक्ष मे सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप मे उपस्थित है। उन्हे उक्त तीनो लोको के प्राणी अपने कार्यो मे देवत्वरूप से संबद्ध मानते है। द्युलोक मे प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह उन्ही इन्द्र के स्वरूपांश है। अर्थात तीनो लोको की प्रकाशमयी-प्राणमयी शक्तीयो के वे ही एकमात्र संगठक है ॥१॥

५२.युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे।शोणा धृष्णू नृवाहसा॥२॥

इन्द्रदेव के रथ मे दोनो ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यो को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित् रहते है ॥२॥


५३ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धिरजायथा:॥३॥

हे मनुष्यो! तुम रात्रि मे निद्राभिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर,प्रात: पुन: सचेत और सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो। प्रति दिन् अजन्म लेते हो ॥३॥

५४. आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे।दधाना नाम यज्ञियम् ॥४॥

यज्ञीय नाम वाले, धारण करने मे समर्थ मरुत् वास्तव मे अन्न की (वृद्धि की) कामना से बार बार (मेघ आदि) गर्भ को प्राप्त होते है॥४॥

५५. वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्रिभि: । अविन्द उस्त्रिया अनु ॥५॥

हे इन्द्रदेव। सुदृढ़ किले मे बन्दी को ध्वस्त करने मे समर्थ, तेजस्वी मरुद् गणो के सहयोग से आपने गुफा मे अवरुद्ध गौओं (किरणो) को खोजकर प्राप्त किया ॥५॥

५६. देवयन्तो यथा मतिमिच्छा विदद्वसुं गिर:। महानूषत् श्रुतम् ॥६॥

देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानी ऋत्विज् ,महान यशस्वी, ऐश्वर्यवान वीर् मरुद्गणो की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते है ॥६॥

५७.इन्द्रेण सं हि दृक्षसे सञ्जग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्चसा॥७॥

सदा प्रसन्न रहने वाले, समान् तेज वाले मरुद् गण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ संगठित अच्छे लगते है ॥७॥

५८. अनवद्यैरभिद्युभिर्मख: सहस्वदर्चति । गणैरिन्द्रस्य काम्यै: ॥८॥

इस यज्ञ मे निर्दोष, दीप्तिमान् , इष्ट प्रदायक, सामर्थ्यवान मरुद् गणो के साथी इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती है ॥८॥

५९. अत: परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिर: ॥९॥

हे सर्वत्र गमनशील मरुद् गणो ! आप अंतरिक्ष से, आकाश से, अथवा प्रकाशमान द्युलोक से यहां पर आयें क्योंकि इस यज्ञ मे हमारी वाणियां आपकि स्तुति कर रही हैं ॥९॥

इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि । इन्द्र महो वा रजस: ॥१०॥

इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक अथवा द्युलोक से कहीं से भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिये, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं ॥१०॥

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