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BHAGAVAD GITA SUMMARY in Hindi (गीता सार)

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    ● अर्जुन का कृष्ण से सम्बन्ध सखा -रूप में था । निःसंदेह इस मित्रता (संख्य-भाव )तथा भौतिक जगत में प्राप्य मित्रता में आकाश-पाताल का अंतर है । यह दिव्य मित्रता है जो हर किसी को प्राप्त नहीं हो सकती । निःसंदेह प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् से सीधा सम्बन्ध होता है और यह सम्बन्ध भक्ति की पूर्णता से ही जागृत होता है । किन्तु वर्तमान जीवन की अवस्था में हमने न केवल भगवान् को भुला दिया है ,अपितु हम भगवान् के साथ अपने शाश्वत सम्बन्ध को भी भूल चुके है । लाखो-करोडो जीवो में से प्रत्येक जीव का भगवान् के साथ नित्य विशिष्ट सम्बन्ध हैं । यह स्वरुप कहलाता है । भक्ति -योग की प्रक्रिया द्वारा यह स्वरुप जागृत किया जा सकता है । तब यह अवस्था स्वरुप -सिद्धि कहलाती है -यह स्वरुप की अर्थात स्वाभाविक या मूलभूत स्थति की पूर्णता कहलाती है ।

    ● भगवद्गीता है क्या? भगवद्गीता का प्रयोजन मनुष्य को भौतिक संसार के अज्ञान से उबारना है । प्रत्येक व्यक्ति अनेक प्रकार की कठिनाईयों में फ़सा रहता है जिस प्रकार अर्जुन कुरुक्षेत्र में कठिनाए में था..अर्जुन ने श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली ,फलस्वरूप इस भगवद्गीता का प्रवचन हुआ । न केवल अर्जुन बल्कि हममे से प्रत्येक इस भौतिक अस्तित्व के कारण चिन्ताओ से पूर्ण है । हमारा अस्तित्व ही अनस्तित्व के परिवेश में है । वस्तुतः हमे अनस्तित्व से भयभीत नहीं होना चाहिए । हमारा अस्तित्व सनातन है ,लेकिन हम किसी न किसी कारण से असत में दाल दिए गए है । असत का अर्थ उससे है जिसका अस्तित्व नहीं है


    ● कष्ट भोगने वाले अनेक मनुष्यों में केवल कुछ ही ऐसे है जो वास्तव में यह जानने के जिज्ञासु है की वे क्या है और वे इस विषम स्थति में क्यों डाल दिए गए है ,आदि आदि । जब तक मनुष्य को अपने कष्टों के विषय में जिज्ञासा नहीं होती ,जब तक उसे यह अनुभूति नहीं होती की वह कष्ट भोगना नहीं ,अपितु सारे कष्टों का हल ढूढना चाहता है ,तब तक उसे सिद्ध मानव नहीं समझना चाहिए । मानवता तभी शुरू होती है जब मन में इस प्रकार की जिज्ञासा उदित होती है । ब्रह्म सूत्र में इस जिज्ञासा को ब्रह्म -जिज्ञासा कहा गया है । मनुष्य के सारे कार्यकलाप तब तक असफल माने जाने चाहिए जब तक वह परब्रह्म के स्वभाव के विषय में जिज्ञासा न करे । अतएव जो लोग यह प्रश्न करना प्रारंभ कर देते है की वे क्यों कष्ट उठा रहे है ,या वे कहाँ से आये है और मृत्यु के बाद कहाँ जायेंगे ,वे ही भगवद्गीता को समझने वाले सुपात्र विद्यार्थी है । निष्ठावान विद्यार्थी में भगवान् के प्रति आदर भाव भी होना चाहिए । अर्जुन ऐसा ही विद्यार्थी था ।


    ● भगवान् भौतिक प्रकृति के समस्त कार्यो के ऊपर नियंत्रण रखते है। भौतिक प्रकृति स्वतंत्र नहीं है । वह परमेश्वर की अध्यक्षता में कार्य करती है । जैसा की भगवान् कृष्ण कहते है-मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम -भौतिक प्रकृति मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है । जब हम दृश्य जगत में विचित्र विचित्र बाते घटते देखते है ,तो हमे यह जानना चाहिए की इस जगत के पीछे नियंता का हाथ है । बिना नियंत्रण के कुछ भी हो पाना संभव नहीं । नियंता को न मानना बचपना होगा । उदाहरणार्थ एक बालक सोच सकता है की स्वतोचालित यान विचित्र होता है ,क्योंकि यह बिना घोड़े के या खीचने वाले पशु से चलता है । किन्तु अभिज्ञ व्यक्ति स्वतोचलित यान की आभियांत्रिक व्यवस्था से परिचित होता है । वह सदैव जानता है की इस यन्त्र के पीछे एक व्यक्ति,एक चालक होता है । इसी प्रकार परमेश्वर वह चालक है जिसके निर्देशन में सब कुछ चल रहा है । भगवान् ने जीवो को अपने अंश रुप में स्वीकार किया है । सोने का एक कण भी सोना है ,समुद्र के जल की बूँद भी खारी होती है । इसी प्रकार हम जीव भी परम-नियंता ईश्वर या भगवान् श्री कृष्ण के अंश होने के कारण सूक्ष्म मात्रा में परमेश्वर के सभी गुणों से युक्त होते है ,क्योंकि हम सूक्ष्म ईश्वर या अधीनस्थ ईश्वर हैं । हम प्रकृति पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रहे है ,और इस समय हम अंतरिक्ष या ग्रहों को वश में करना चाहते है ,और हममे नियंत्रण रखने की यह प्रवृति इसलिए है क्यूंकि यह कृष्ण में भी है । यद्यपि हममे प्रकृति पर प्रभुत्व जमाने की प्रवृति होती है ,लेकिन हमे यह जानना चाहिए की हम परम-नियंता नहीं है ।


    ॥ जय श्री कृष्णा,कृष्णा कृष्णा हरे हरे ,हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
     


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