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दयानंद की मक्कारी ( Dayanand Ki Makkari )

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दयानंद की मक्कारी किसी से छुपी नहीं है दयानंद ने  अपना स्वार्थ सिद्ध  करने के लिए पवित्र वेदो को भी नहीं छोड़ा अपनी गंदी सोच वेदों में भी डालने का प्रयास किया । 

दयानंद सत्यार्थ प्रकाश चतुर्थ सम्मुलास में लिखते है  

इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि।(ऋग्वेद 10-85-45)


भावार्थ : ‘‘हे वीर्य सेचन हार ‘शक्तिशाली वर! तू इस विवाहित स्त्री या विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर। इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष या नियुक्त पुरुषों से दस संतान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ।’’
 
आइये एक नजर डालते है इस मंत्र के शब्दों पर
इमां - इसको ।। त्वम - तुम ।।
इन्द्र - इन्द्रियों को वश मे करने वाला जितेन्द्रिय पुरुष
मिढ़्वा: - सब सुखो का सिंचन करने वाले पुरुष ।।
सुपुत्राम - उत्तम पुत्र ।। सुभगाम - उत्तम भाग्य वाली ।।
कृणु - कर
दश - दस ।। आस्याम - इस पत्नी मे ।।
पुत्राना - पुत्रो को ।। अधेही -
स्थापित कर ।। पतिम् - पति को ।।
एकादशां कृधि - ग्यारहवा कर ।।

 
भावार्थ - हे इन्द्रियों पर काबू पाने वाले और सुखो का सिंचन करने वाले पुरुष , तु अपनी पत्नी पर सुखो का वर्षण करता हुआ उसे सुपत्रा और सुभागा बना ।। ( वेदिक काल मे 10 पुत्रो की सीमा थी इसलिए यहा भी ये सीमा 10 ही लिखी है और कहा गया है की 10 पुत्रो के बाद ग्यारहवा खुद को समझ )

अब कोइ आर्य समाजी बताएगा ???
की स्वामी जी ने इस मंत्र को क्यों तोड़ा मरोड़ा और इसमे वीर्य , विधवा और नियोग शब्द कहा है ???
और स्वामी जी ने लिखा है "हे वीर्य सेचन हार"

ये वीर्य सेचन हार क्या होता है ???

मैं जानता हु कोई नही बताएगा
क्योंकि इन धूर्त आर्य समाजियों को सिर्फ दयानंद की राह पर चलकर नियोग को बढ़ावा देना है ।।

और अपनी मक्कारी से सनातन को कलंकित करना है ।।

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9 comments

  1. ऋ ग्वेद १०/८५/४४
    अघोरचक्षुरपत्घ्न्येधि शिवा पशुभ्य: सुमना: सुवर्चा:। वीरसूर्देवृकामा स्योना शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।
    इसमें देवृकामा शब्द नियोग को प्रमाणित करता है। देवर: द्वितीयोवर:। अर्थात् पति के देहान्त वा नपुंसक होने की अवस्था में सन्तान प्राप्ति हेतु नियोग किया जावे। यह एक उपचार है, व्यभिचार नहीं ।


    वेद समझाने के लिए explain किया ।
    जो भी वेदो में वर्णित है ।

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    Replies
    1. प्रिय मित्र शाहरूख जी दयानंद और चुतिये समाजीयों द्वारा लिखे गए वेदभाष्यों कि बात न ही करें तो अच्छा होगा

      क्योकि यहाँ आपने जो मंत्र Copy Paste मारा है ये मंत्र ही गलत है यहाँ "देवृकामा" नहीं बल्कि "देवकामा" लिखा है अर्थात देवों की उपासिका न कि देवर की आर्य समाज द्वारा तैयार किए गए वेदभाष्यों के अलावा ये शब्द आपको और कही नही दिखेगा

      आर्य समाजीयों की माँ बहन और बेटियाँ देवर की कामना करती होगी या फिर हो सकता है स्वामी जी की माता देवर की कामना करने वाली रही हो शायद इसलिए उन्होंने मंत्र को ही एडीट कर वहाँ "देवृकामा" कर दिया


      यह मंत्र इस प्रकार है -

      "अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः ।
      वीरसूर्देवकामा स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ (ऋग्वेद १०/८५/४४)

      अर्थात- हे स्त्री तु क्रोधशुन्य और पति का मंगल करने वाली हो, उत्तम मनवाली और वर्चस्विनी हो, वीर संतानों को जन्म देनेवाली और देवताओं की उपासिका हो, मनुष्य, पशुआदि सबके लिए शांति का कारण बने"

      अच्छा होगा चुतिये समाजीयों द्वारा तैयार किए गए वेदभाष्य न पढ़ें

      उदाहरण के लिए सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में दयानंद लिखते हैं

      सरस्वतीदृशद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
      तं देवनिर्मितं देशं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते ॥ (दयानंद द्वारा Edited गलत श्लोक)

      सही श्लोक इस प्रकार है -

      सरस्वतीदृशद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।
      तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते ॥ (मनुस्मृति २/१७)

      यहाँ दयानंद ने सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए बड़ी ही चतुराई के साथ 'ब्रह्मावर्तं' के स्थान पर देशमार्यावर्त्तं लिख दिया।

      इसी प्रकार अष्टम समुल्लास में ही एक स्थान पर 'मनुष्या ऋषयश्च ये' [यजु: अध्याय ३१, मुंडकोप० २/७/१] ये फर्जी मंत्र बनाकर इसे वेद वचन बोल दिया
      पर असल में यजुर्वेद के ३१ वे अध्याय के २२ में ऐसा कुछ नहीं लिखा है

      दयानंद द्वारा तैयार ऐसे अनगिनत फर्जी मंत्र और श्लोक भरे पड़े हैं जिससे दयानंद लोगों को भ्रमित करने का कार्य किया करता था
      इसलिए अच्छा होगा ऐसे चुतिये द्वारा तैयार किए फर्जी मंत्रों आदि के बारे में बात न करें

      Delete
    2. इस लिंक को खोलकर सही मंत्र की जांच कर लिजिए मैंने यहाँ मंत्र का Screenshot डाल रखा है

      https://m.facebook.com/polparkash/photos/p.747271352076392/747271352076392/?type=3&source=47

      Delete
  2. This comment has been removed by a blog administrator.

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  3. ये तो में नही जानता अर्थ का अनर्थ कैसे किया जाता है लेकिन आज देख लिया

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  4. नमस्ते श्रीमान

    आप जो भी है आपने जो भी कुतर्क किये है वे स्वीकार्य नहीं है अंतिम तीन पंक्तियाँ कतई स्वीकार नहीं की जायेगी

    आपको आरोप लगाने है लगाये परन्तु संयमित भाषा रखिये

    आशा है आप मेरी बात समझेंगे

    आपसे विनती है इसे हटा दें

    अन्यथा हमें आप पार कानूनी कार्यवाही करनी पड़ेगी

    ReplyDelete
  5. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete
  6. देखीए भ्राता आपकी इसमे भूल है। मानता हूं की आपको आर्यसमाज से घृणा होगी, पर इस्का अर्थ ये नहीं की आप बेवजह ही ऋषि दयानंद को मक्कार कहेंगे। ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में विवाह और नियोग दोनो का प्रश्न एक साथ सुलझाते हुए अपना उत्तर दिया है क्योंकि वहा प्रकरण दोनो(नियोग और साधारण विवाह) का है। वहा लिखा है की विवाहित स्त्री (सामान्य स्थिति) अथवा विधवा स्त्री (आपत्ति काल में नियोग द्वारा) 10 बच्चो तक ही पैदा करे। और ऐसा केवल इंद्र (अर्थात द्विज, भ्रह्मचारी, वीर्यवान, वीर्य सेचन में समर्थ पुरुष ही) करे बाकी नहीं। तो उनहोने भाष्य के साथ यह अपना एक उपदेश भी दिया है क्योंकि यहां केवल उसका भाष्य देने से वो किसके लिए मेंत्र है, ठीक से समज नही आता और नियोग और सामान्य विवाह के बीच थोडा सा ही अंतर होते हुए भी अलग अलग लिखना पडता। इसमे कोई तोड़ मरोड नही है क्योंकि उन्होने ऋग्वेद का भाष्य जो किया है वो आप देख लिजीए ।
    इ॒मा॑ त्वमि॑न्द्र मीह्वः सुपु॒त्रां सुभगा॑ कृणु ।
    दशा॑स्या॑ पु॒त्राना धे॑हि॒ पति॑मे॒काद॒शं कृ॑धि ।।
    हे इंद्र, तू इस वधू को शोभन पुत्रोंवाली अच्छी सोभाग्यवती कर (अस्यां दश पुत्रान्-आ धेहि) इस में दस पुत्रों का आधान कर (एकादशं पतिं कृधि) दश के ऊपर अपने को पति को समझ ॥४५॥
    और हा आर्यसमाज कोई संप्रदाय नही है। यह एक आंदोलन की तरह है जो वेदीक, सत्य, तार्किक एवम आस्तीक मत की ओर जाने को हर मनुष्य को प्रेरीत करता है।*
    आशा है कि आपको समझ आया होगा।"
    नमस्ते।

    ReplyDelete

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