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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ९

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 [ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]


 
८१. इन्द्रेहि ,मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभि:। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥१॥

हे इन्द्रदेव! सोमरूपी अन्नो से आप प्रफुल्लित होते है, अत: अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओ पर विजय श्री वरण करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप (यज्ञशाला मे) पधारें ॥१॥
८२. एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने । चक्रिं विश्वानि चक्रये॥२॥

(हे याजको !) प्रसन्नता देने वाले सोमरस को निचोड़कर तैयार् करो तथा सम्पूरण कार्यो के कर्ता इन्द्र देव के सामर्थ्य बढ़ाने वाले इस सोम को अर्पित करो॥२॥
८३. मतस्वा सुशिप्र मन्दिभि: स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा॥३॥
हे उत्तम शस्त्रो से सुसज्जित (अथवा शोभन नासिका वाले), इन्द्रदेव ! हमारे इन यज्ञो मे आकर प्रफुल्लता प्रदान करने वाले स्तोत्रो से आप आनन्दित हो ॥३॥
८४.असृग्रमिन्द्र ते गिर: प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम्॥४॥

हे इन्द्रदेव । आपकी स्तुति के लिये हमने स्तोत्रो की रचना की है। हे बलशाली और पालनकर्ता इन्द्रदेव ! इन स्तुतियो द्वारा की गई प्रार्थना को आप स्वीकार करें ॥४॥
८५.सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम् । असदित्ते विभु प्रभु॥५॥

हे इन्द्रदेव ! आप ही विपुल् ऐश्वर्यो के अधिपति हैं,अत: विविध प्रकार के श्रेष्ठ ऐश्वर्यो को हमारे पास प्रेरित् करें; अर्थात हमे श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
८६.अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राते रभस्वत:। तुविद्युम्न यशस्वत:॥६॥

हे प्रभूत् ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव! आप वैभव की प्राप्ति के लिये हमे श्रेष्ठ कर्मो मे प्रेरित करें, जिससे हम परिश्रमी और यशस्वी हो सकें॥६॥
८७. सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्याक्षितम्॥७॥

हे इन्द्रदेव ! आप हमे गौओ, धन धान्य से युक्त अपार वैभव एवं अक्षय पूर्णायु प्रदान करें॥७॥
८८. अस्मे धेहि श्रवो बृहद् द्युम्न सहस्रसातमम् । इन्द्र रा रथिनीरिष:॥८॥

हे इन्द्रदेव ! आप हमे प्रभूत यश एवं विपुल ऐश्वर्य प्रदान करें तथा बहुत से रथो मे भरकर अन्नादि प्रदान करें॥८॥
८९. वसोरिन्द्र वसुपतिं गीर्भिर्गृणन्त ऋग्मियम्।होम गन्तारमूतये॥९॥

धनो के अधिपति,ऐश्वर्यो के स्वामी,ऋचाओ से स्तुत्य इन्द्रदेव का हम स्तुतिपूर्वक आवाहन करते हैं। वे हमारे यज्ञ मे पधार कर, हमारे ऐश्वर्य की रक्षा करें॥९॥
९०.सुतेसुते न्योकसे बृहद् बृहत एदरि:। इन्द्राय शूषमर्चति ॥१०॥

सोम को सिद्ध(तैयार) करने के स्थान यज्ञस्थल पर यज्ञकर्ता, इन्द्रदेव के पराक्रम की प्रशंसा करते है॥१०॥

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