Rigved
ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ४६
[ऋषि- प्रस्कण्व काण्व । देवता - अश्विनीकुमार । छन्द - गायत्री]
५४२.एषो उषा अपूर्व्या व्युच्छति प्रिया दिवः ।
स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥
स्तुषे वामश्विना बृहत् ॥१॥
यह प्रिय अपूर्व(अलौकिक) देवी उषा आकाश के तम का नाश करती है। देवी उषा के कार्य मे सहयोगी हे अश्विनीकुमारो ! हम महान स्तोत्रो द्वारा आपकी स्तुति करते हैं॥१॥
५४३.या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् ।
धिया देवा वसुविदा ॥२॥
५४३.या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् ।
धिया देवा वसुविदा ॥२॥
हे अश्विनीकुमारो! आप शत्रुओं के नाशक एवं नदियों के उत्पत्तिकर्ता है। आप विवेकपूर्वक कर्म करने वालो को अपार सम्पति देने वाले हैं॥२॥
५४४.वच्यन्ते वां ककुहासो जूर्णायामधि विष्टपि ।
यद्वां रथो विभिष्पतात् ॥३॥
हे अश्विनीकुमारो ! जब आपका रथ पक्षियों की तरह आकाश मे पहुँचता है, तब प्रशसनीय स्वर्गलोक मे भी आप के लिये स्तोत्रों का पाठ किया जाता है॥३॥
५४५.हविषा जारो अपां पिपर्ति पपुरिर्नरा ।
पिता कुटस्य चर्षणिः ॥४॥
हे देवपुरुषो ! जलों को सुखाने वाले, पितारूप, कार्यद्रष्टा सूर्यदेव (हमारे द्वारा प्रदत्त) हवि से आपको संतुष्ट करते हैं,अर्थात सूर्यदेव प्राणिमात्र ले पोषण ले लिए अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करके प्रकृति के विराट यज्ञ मे आहुति दे रहे हैं॥४॥
५४६.आदारो वां मतीनां नासत्या मतवचसा ।
पातं सोमस्य धृष्णुया ॥५॥
असत्यहीन, मननपूर्वक वचन बोलने वाले हे अश्विनीकुमारों ! आप अपनी बुद्धि को प्रेरित करने वाले एवं संघर्ष शक्ति बढ़ाने वाले इस सोमरस का पान करें॥५॥
५४७.या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः ।
तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥
५४७.या नः पीपरदश्विना ज्योतिष्मती तमस्तिरः ।
तामस्मे रासाथामिषम् ॥६॥
हे अश्विनीकुमारों ! जो पोषक अन्न हमारे जीवन के अंधकार को दूर कर प्रकाशित करने वाला हो, वह हमे प्रदान करें॥६॥
५४८.आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे ।
युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥
५४८.आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे ।
युञ्जाथामश्विना रथम् ॥७॥
हे अश्विनीकुमारों ! आप दोनो अपना रथ नियोजितकर हमारे पास आयें। अपनी श्रेष्ठ बुद्धि से हमे दुःखो के सागर से पार ले चलें॥७॥
५४९.अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः ।
धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥
५४९.अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः ।
धिया युयुज्र इन्दवः ॥८॥
हे अश्विनीकुमारों ! आपके आवागमन के साधन द्युलोक (की सीमा) से भी विस्तृत हैं। (तीनो लोकों मे आपकी गति है।) नदियों, तीर्थ प्रदेशो मे भी आपके साधन है,(पृथ्वी पर भी) आपके लिये रथ तैयार है। (आप किसी भी साधन से पहुँचने मे समर्थ हैं।) आप के लिये यहाँ विचारयुक्त कर्म द्वारा सोमरस तैयार किया गया है॥८॥
५५०.दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे ।
स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥९॥
५५०.दिवस्कण्वास इन्दवो वसु सिन्धूनां पदे ।
स्वं वव्रिं कुह धित्सथः ॥९॥
कण्व वंशजो द्वारा तैयार सोम दिव्यता से परिपूर्ण है। नदियो के तट पर ऐश्वर्य रखा है। हे अश्विनीकुमारो ! अब आप अपना स्वरूप कहाँ प्रदर्शित करना चाहते हैं?॥९॥
५५१.अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः ।
व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥
५५१.अभूदु भा उ अंशवे हिरण्यं प्रति सूर्यः ।
व्यख्यज्जिह्वयासितः ॥१०॥
अमृतमयी किरणो वाले हे सूर्यदेव! अपनी आभा से स्वर्णतुल्य प्रकट हो रहे हैं। इसी समय श्यामल अग्निदेव, ज्वालारूप जिह्वा से विशेष प्रकाशित हो चुके हैं। हे अश्विनीकुमारो ! यही आपके शुभागमन का समय है॥१०॥
५५२.अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया ।
अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥११॥
५५२.अभूदु पारमेतवे पन्था ऋतस्य साधुया ।
अदर्शि वि स्रुतिर्दिवः ॥११॥
द्युलोक से अंधकार को पार करती हुई, विशिष्ट प्रभा प्रकट होने लगी है, जिससे यज्ञ के मार्ग अच्छी तरह से प्रकाशित हुए हैं। अतः हे अश्विनीकुमारो ! आपको आना चाहिये॥११॥
५५३.तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति ।
मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥
५५३.तत्तदिदश्विनोरवो जरिता प्रति भूषति ।
मदे सोमस्य पिप्रतोः ॥१२॥
सोम के हर्ष से पूर्ण होने वाले अश्विनीकुमारो के उत्तम संरक्षण का स्तोतागण भली प्रकार वर्णन करते हैं॥१२॥
५५४.वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा ।
मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥
५५४.वावसाना विवस्वति सोमस्य पीत्या गिरा ।
मनुष्वच्छम्भू आ गतम् ॥१३॥
हे दीप्तीमान(यजमानो के) मन मे निवास करने वाले, सुखदायक अश्विनीकुमारो ! मनु के समान श्रेष्ठ परिचर्या करने वाले यजमान के समीप निवास करने वाले(सुखप्रदान करने वाले हे अश्विनीकुमारो !) आप दोनो सोमपान के निमित्त एवं स्तुतियों के निमित्त इस याग मे पधारें॥१३॥
५५५.युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् ।
ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥
५५५.युवोरुषा अनु श्रियं परिज्मनोरुपाचरत् ।
ऋता वनथो अक्तुभिः ॥१४॥
हे अश्विनीकुमारों ! चारो ओर गमन करने वाले आप दोनो की शोभा के पीछे पीछे देवी उषा अनुगमन कर रहीं हैं। आप रात्रि मे भी यज्ञों का सेवन करतें है॥१४॥
५५६.उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् ।
अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥
५५६.उभा पिबतमश्विनोभा नः शर्म यच्छतम् ।
अविद्रियाभिरूतिभिः ॥१५॥
हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनो सोमरस का पान करें। आलस्य न करते हुये हमारी रक्षा करें तथा हमे सुख प्रदान करें॥१५॥
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