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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त २५

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[ऋषि- शुन:शेप आजीगर्ति। देवता वरुण।छन्द गायत्री।]


२६९.यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। मिनीमसि द्यविद्यवि॥१॥
हे वरुणदेव! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत अनुष्ठान मे प्रमाद करते है,वैसे ही हमसे भी आपके नियमो मे कभी कभी प्रमाद हो जाता है।(कृपया इसे क्षमा करें)॥१॥
२७०.मा नो वधाय हत्नवे जिहीळानस्य रीरधः। मा हृणानस्य मन्यवे॥२॥
हे वरुणदेव! आपने अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिये धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमे प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था मे भी हम पर कृपा कर क्रोध ना करें॥२॥
२७१.वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भिर्वरुण सीमहि॥३॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार रथी अपने थके घोड़ो की परिचर्या करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिये हम स्तुतियो का गान करते हैं॥३॥
२७२.परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥४॥
हे वरुणदेव! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलो की ओर दौड़ते हुये गमन करते है,उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिये दूर दूर तक दौड़ती है॥४॥
२७३.कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृळीकायोरुचक्षसम्॥५॥
बल ऐश्वर्य के अधिपति सर्वद्रष्टा वरुणदेव को कल्याण के निमित्त हम यहाँ (यज्ञस्थल मे) कब बुलायेंगे?(अर्थात यह अवसर कब मिलेगा?)॥५॥
२७४.तदित्समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः। धृतव्रताय दाशुषे॥६॥
व्रत धारण करने वाले(हविष्यमान)दाता यजमान के मंगल के निमित्त ये मित्र और वरुण देव हविष्यान की इच्छा करते है, वे कभी उसका त्याग नही करते। वे हमे बन्धन से मुक्त करें॥६॥
२७५.वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥७॥
हे वरुण देव! आकाश मे उड़ने वाले पक्षियो के मार्ग को और समुद्र मे संचार करने वाली नौकाओ के मार्ग को भी आप जानते है॥७॥
२७६.वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः। वेदा य उपजायते॥८॥
नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महिनो को जानते है और तेरहवे मास(पुरुषोत्तम मास) को भी जानते है॥८॥
२७७.वेद वातस्य वर्तनिमुरोरृष्वस्य बृहतः। वेदा ये अध्यासते॥९॥
वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत,दर्शनिय और अधिक गुणवान वायु के मार्ग को जानते है। वे उपर द्युलोक मे रहने वाले देवो को भी जानते हैं॥९॥
२७८.नि षसाद धृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतुः॥१०॥
प्रकृति के नियमो का विधिवत पालन कराने वाले,श्रेष्ठ कर्मो मे सदैव निरत रहने वाले वरुणदेव प्रजाओ मे साम्राज्य स्थापित करने के लिये बैठते है॥१०॥
२७९.अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा॥११॥
सब अद्‍भुत कर्मो की क्रिया विधि जानने वाले वरुणदेव, जो मर्म संपादित हो चुके है और जो किये जाने वाले है, उन सबको भली-भांति देखते है॥११॥
२८०.स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत्॥१२॥
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुणदेव हमे सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु को बढा़यें॥१२॥
२८१.बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशो नि षेदिरे॥१३॥
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हस्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है॥१३॥
२८२.न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातयः॥१४॥
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन(भयाक्रान्त होकर) जिनकी हिंसा नही कर पाते, लोगो के प्रति द्वेष रखने वाले , जिनसे द्वेष नही कर पाते ऐसे वरुणदेव को पापीजन स्पर्श तक नही कर पाते॥१४॥
२८३.उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥१५॥
जिन वरुणदेव ने मनुष्यो के लिये विपुल अन्न भंडार उत्पन्न किया है;उन्होने ही हमारे उदर मे पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है॥१५॥
२८४.परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम्॥१६॥
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की कामना करने वाली हमारी बुद्धीयाँ, वैसे ही उन तक पहुंचती है जैसे गौएँ श्रेष्ठ बाड़े की ओर जाती है॥१६॥
२८५.सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम्॥१७॥
होता (अग्निदेव) के समान हमारे द्वारे लाकर समर्पित की गई हवियो का आप अग्निदेव के समान भक्षण करे, फिर हम दोनो वार्ता करेंगे॥१७॥
२८६.दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिरः॥१८॥
दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं॥१८॥
२८७.इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके॥१९॥
हे वरुणदेव! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमे सुखी बनायें। अपनी रक्षा के लिये हम आपकी स्तुति करते है॥१९॥
२८८.त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥२०॥
हे मेधावी वरुणदेव ! आप द्युलोक, भूलोक और सारे विश्व पर आधिपत्य रखते है, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर ’ हम रक्षा करेंगे’ ऐसा प्रत्युत्तर दे॥२०॥
२८९.उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे॥२१॥
हे वरुणदेव! हमारे उत्तम(उपर के) पाश को खोल दे, हमारे मध्यम पाश काट दे और हमारे नीचे के पाश को हटाकर हमे उत्तम जीवन प्रदान करें॥२१॥

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