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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त १५

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[ऋषि - मेधातिथि काण्व। देवता-(प्रतिदेवता ऋतु सहित) १-५ इन्द्रदेव, २ मरुद्‍गण,३ त्वष्टा, ४,१२ अग्नि,६ मित्रावरुण, ७,१० द्रविणोदा,११ अश्‍विनीकुमार। छन्द-गायत्री।]



१४७.इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः । मत्सरासस्तदोकसः॥१॥

हे इन्द्रदेव! ऋतुओ के अनुकूल सोमरस का पान करें, ये सोमरस आपके शरीर मे प्रविष्ट हो; क्योंकि आपकी तृप्ति का आश्रयभूत साधन यही सोम है ॥१॥
१४८.मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद्यज्ञं पुनीतन । यूयं हि ष्ठा सुदानवः॥२॥

दानियो मे श्रेष्ठ हे मरुतो! आप पोता नामक ऋत्विज् के पात्र से ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें एवं हमारे इस यज्ञ को पवित्रता प्रदान करें ॥२॥

१४९.अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावो नेष्टः पिब ऋतुना । त्वं हि रत्नधा असि॥३॥
हे त्वष्टादेव! आप पत्नि सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करे, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें! आप निश्‍चय ही रत्नो को देनेवाले है॥३॥
१५०.अग्ने देवाँ इहा वह सादया योनिषु त्रिषु । परि भूष पिब ऋतुना॥४॥
हे अग्निदेव! आप देवो को यहाँ बुलाकर उन्हे यज्ञ के तीनो सवनो (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सांय) मे आसीन करें। उन्हे विभूषित करके ऋतु के अनुकूल सोम का पान करें ॥४॥
१५१.ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु । तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥५॥
हे इन्द्रदेव! आप ब्रह्मा को जानने वाले साधक के पात्र से सोमरस का पान करे, क्योंकि उनके साथ आपकी अविच्छिन्न मित्रता है॥५॥
१५२.युवं दक्षं धृतव्रत मित्रावरुण दूळभम् । ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥६॥

हे अटल व्रत वाले मित्रावरुण! आप दोनो ऋतु के अनुसार बल प्रदान करने वाले है। आप कठिनाई से सिद्ध होने वाले इस यज्ञ को सम्पन्न करते हैं॥६॥
१५३.द्रविणोदा द्रविणसो ग्रावहस्तासो अध्वरे । यज्ञेषु देवमीळते॥७॥

धन की कामना वाले याजक सोमरस तैयार करने के निमित्त हाथ मे पत्थर धारण् करके पवित्र यज्ञ मे धनप्रदायक अग्निदेव की स्तुति करते है॥७॥
१५४.द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शृण्विरे । देवेषु ता वनामहे॥८॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! हमे वे सभी धन प्रदान करे, जिनके विषय मे हमने श्रवण किया है। वे समस्त धन हम देवगणो को ही अर्पित करते हैं॥८॥
[देव शक्तियो से प्राप्त विभूतियो का उपयोग देवकार्यो के लिये ही करने का भाव व्यक्त किया गया है।]
१५५.द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥९॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! नेष्टापात्र (नेष्टधिष्ण्या स्थान-यज्ञ कुण्ड) से ऋतु के अनुसार सोमरस पीने की इच्छा करते है। अतः हे याजक गण! आप वहाँ जाकर यज्ञ करें और पुन: अपने निवास स्थान के लिये प्रस्थान करें ॥९॥
१५६.यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे । अध स्मा नो ददिर्भव॥१०॥
हे धन प्रदायक अग्निदेव! ऋतुओ के अनुगुत होकर हम आपके निमित्त सोम के चौथे भाग को अर्पित करते है, इसलिये आप हमारे लिये धन प्रदान करने वाले हो ॥१०॥
१५७.अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता । ऋतुना यज्ञवाहसा॥११॥

दिप्तिमान, शुद्ध कर्म करने वाले, ऋतु के अनुसार यज्ञवाहक हे अश्‍विनीकुमारो! आप इस मधुर सोमरस का पान करें॥११॥
१५८.गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनीरसि । देवान्देवयते यज ॥१२॥

हे इष्टप्रद अग्निदेव! आप गार्हपत्य के नियमन मे ऋतुओ के अनुगत यज्ञ का निर्वाह करने वाले हैं, अतः देवत्व प्राप्ति की कामना वाले याजको के निमित्त देवो का यजन करें॥१२॥

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