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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ८

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[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता - इन्द्र। छन्द- गायत्री।]



७१। एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१॥
हे इन्द्रदेव । आप हमारे जीवन संरक्षण के लिये तथा शत्रुओ को पराभूत करने के निमित्त हमे ऐश्वर्य से पूर्ण करें ॥१॥
७२. नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो न्यवर्ता ॥२॥

उस ऐश्वर्य के प्रभाव और् आपके द्वारा रक्षित अश्वो के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार् लर (शक्ति प्रयोअग द्वारा) शत्रुओ को भगा दे ॥२॥

७३. इन्द्र त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि । जयेम सं युधि स्पृध: ॥३॥

हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण वज्रो को धारण् कर हम युद्ध मे स्पर्धा करने वाले शत्रुओ पर् विजय प्राप्त करें ॥३॥
७४. वयं शूरेबिरस्तृभिरिन्द्र त्व्या युजा वयम्। सासह्याम पृतन्यत: ॥४॥

हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्रचालक वीरो के साथ हम अपने शत्रुओ को पराजित करे ॥४॥
७५. महाँ इन्द्र: परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शव: ॥५॥

हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान है। वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्युलोक् के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल की चतुर्दिक प्रशंसा हो ॥५॥
७६.समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायव: ॥६॥

जो संग्राम मे जुटते है, जो पुत्र के निर्माण् मे जुटते है और् बुद्धीपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिये यत्न करते है, वे सब इन्द्रदेव जी स्तुति से इष्टफल पाते है॥६॥
७७. य: कुक्षि: सोमपातम: समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो ब काकुद: ॥७॥

अत्याधिक सोमपान करने वाले इन्द्रदेव का उदर समुद्र की तरह विशाल हो जाता है । वह (सोमरस) जीभ से प्रवाहित होने वाले रसो की तरह सतत् द्रवित होता रहता है । सद आद्र बनाये रहता है ॥७॥
७८. एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे॥८॥

इन्द्रदेव की अति मधुर और् सत्यवाणी उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गो धन के दाता और पके फल वाली शाखाओ से युक्त वृक्ष यजमानो (हविदाता) को सुख देते है ॥८॥
७९. एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते। सद्यश्चित् सन्ति दाशुषे॥९॥
हे इन्द्रदेव ! हमारे लिये इष्टदायी और संरक्षण प्रदान करने वाली जो आपकी विभूतियाँ है, वे सभी दान देने(श्रेष्ठ कार्य मे नियोजन करने) वालो को भी तत्काल प्राप्त होती है ॥९॥
८०. एवा ह्यस्य काम्या स्तोम् उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये॥१०॥

दाता की स्तुतियाँ और उक्त वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय है। ये सब सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिये है ॥१०॥

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