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क्या चाणक्य मूर्तिपूजा विरोधी थे ? ( Arya Samaj Mat Khandan )

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आर्य समाजी इस पोस्ट का खंडन करके दिखाए !
आर्य समाजी हमेशा यह तर्क देते है कि महान ‪‎आचार्य_चाणक्य‬ मूर्तिपूजा विरोधी थे,लेकिन अपने पंथ को चलाए रखने के लिए ये इ
सी तरह के कई कुतर्क करते रहते है जो बिल्कुल निराधार साबित होते आए है-
प्रश्न- चाणक्य मूर्तिपूजा विरोधी थे ?
समीक्षा- चाणक्य मूर्तिपूजा विरोधी नही थे,क्योंकि उनकी अमर कृति चाणक्य_नीति‬ में कई श्लोक ऐसे है जो आर्य समाजियो के इस कुतर्क को निराधार साबित करते है-

“काष्ठपाषाणधातूनां कृत्वा भावेन सेवनम् !
श्रद्धया च तया सिद्धस्तस्य विष्णु: प्रसीदति !!”
चा.नी.-८/११

 

भावार्थ- लकड़ी,पत्थर अथवा धातु की मूर्ति में प्रभु की भावना और श्रद्धा उसकी पूजा की जाएगी तो सिद्धी अवश्य प्राप्त होती है ! प्रभु इस भक्त पर अवश्य प्रसन्न होतें है !
यदि चाणक्य ये श्लोक अपनी पुस्तक चाणक्य नीति में लिख सकते है तो इससे साफ हो जाता है कि मूर्तिपूजा से कोई हानि नही अथवा लाभ है ! लेकिन पुराण के अनुसार चाणक्य भी ये ही कहते है कि मूर्ति में भगवान नही बल्कि ध्यान केंद्रित करने का एक रास्ता है !इसी को समझाते हुए चाणक्य अपने अगले श्लोक में बोलते है-

न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये !
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम् !!८/१२

 

भावार्थ- देवता काठ या पत्थर की मूर्ति में नही है ! परमेश्वर तो मनुष्य की भावना में विद्यमान रहते हैं अर्थात् जहाँ मनुष्य भावना द्वारा उसकी पूजा करता है,वहीं वे प्रकट होते हैं !
इसका सीधा अर्थ चाणक्य समझाना चाहते है कि यदि मूर्ति को बिना किसी भावना के पूजोगे तो वह मूर्ति मूर्ति ही रहेगी लेकिन यदि उसके साथ मन की भावना जुड़ जाए तो देवता स्वयं प्रकट दर्शन और फल देते है !
प्रश्न- “प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिन:”४/२१ अर्थात् मुर्ख लोगो के लिए मूर्ति ही ईश्वर है,जिनकी बुद्धि समान है वे परमेश्वर को सर्वत्र पाते है !
तो ये चाणक्य ने क्यों लिखा ?

समीक्षा- यह पहले के ही श्लोक में चाणक्य ने यह कहा है कि मूर्ति ईश्वर स्वरूप है,ईश्वर नही ! जो लोग ईश्वर को धर्मशास्त्रो का बिना अध्ययन किये सिर्फ कर्मकाण्ड में ही विश्वास करते है उनको चाणक्य ने मुर्ख कहा है ! यही नही सिर्फ कर्मकाण्डो को उसके प्रयोजन को बिना जाने ही उसमें लीन रहता है उसकोपुराणो‬ ने भी मुर्ख ही कहा है !

आर्य समाजी लोगो के पास पूरे चाणक्य कृतियो में सिर्फ यह एकमात्र श्लोक है जिनको से अपना पंथ चलाने के लिए दुष्प्रचार करके भुनाते है और अन्य सभी श्लोको ही नही पूरी चाणक्य नीति को अस्वीकार कर देते है ! चाणक्य ने ऐसे पाखंडियो से भी बचने के लिए आदेश किया है ! कोई भी कुतर्की चाणक्य नीति के अन्य श्लोको पर विश्वास नही करता(उपरी दिखावा पोल खुलने के डर से) और अपने पंथ का पक्ष लेने के लिए हजारो झूठ बोल लेगा !
चलो अभी चाणक्य के उपर उठाए गए सारे कुतर्को का पर्दाफाश करते हैं !
प्रश्न- चाणक्य सिर्फ निरंकार ब्रह्म को मानते है !
समीक्षा- यह कुतर्क सिर्फ कुतर्कियो ने अपने पंथ को चलाने के लिए बनाया है और बिना चाणक्य के ग्रंथो को पढे भेड़चाल में चलना शुरू कर दिया है ! चाणक्य ग्रंथो से साफ दिखाई पड़ता है कि वे विष्णु भगवान् के परम् भक्त थे ! यही नही उन्होने अपनी अमर कृति की शुरूआत भगवान विष्णु की स्तुति से ही की है !
प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ! १/१
अर्थात् मैं तीनो लोको-पृथ्वी,अंतरिक्ष और पाताल के स्वामी सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक परमेश्वर
‪ ‎विष्णु‬
को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ !
इसी प्रकार श्लोक १०/१४ में चाणक्य कहते हैं-“जनार्दन( विष्णु ) को जो अपना पिता मानता है वही सर्वश्रेष्ठ है” !
इसी प्रकार १०/१७ श्लोक में भगवान विष्णु को सभी का पालनकर्ता बताया है और उसकी कृति का गुणगान किये है ! ये इनके भगवान विष्णु के प्रति आत्मीयता का भाव दर्शाता है !
प्रश्न- चाणक्य सिर्फ वैदिक ज्ञान को ही मानते थे,पुराण आदि उनके लिए मिथ्या थी !
समीक्षा- यह एक पूर्ण कुतर्क है क्योंकि चाणक्य मे अपनी कृतियो में कई पौराणिक कहानियो और मान्यताओ का समर्थन ही नही किया बल्कि आत्मीयता का भाव दर्शाया है ! जैसे-
श्लोक-१५/७ में चाणक्य ने पौराणिक मान्यता में भगवान
शंकर‬ के विषवमन की व्याख्या की है ! अन्य श्लोक १५/१६ में चाणक्य भगवान् विष्णु और लक्ष्मी के संवाद की व्याख्या पुराण माध्यम से करते हैं ! यही नही अन्य श्लोक १७/५ में पौराणिक कथा में शंख लक्ष्मी चंद्र सम्बंध को चाणक्य दर्शाते हैं !

प्रश्न- चाणक्य किस्मत में विश्वास नही करते थे !
समीक्षा- इन पंथ भक्तो कोयदि ईश्वर की ज्योतिष विद्या पर विश्वास नही तो इन्होने चाणक्य को भी बिना सोचे समझे अपने पंथ के समान घोषित कर दिया ! इसके प्रमाण इस प्रकार है-
श्लोक ४/१ में चाणक्य कहते है कि जब पुत्र माता के गर्भ में आता है तब ही उसके आयु, कर्म, धन, विद्या, मृत्यु निश्चित हो जाते है ! अन्य श्लोक ६/५ में चाणक्य कहते है कि जैसा भाग्य मनुष्य का जन्म से तय होता है उसकी बुद्धि,कार्य,व्यवसाय भी वैसे ही होते है तथा भाग्य के सहायक होते हैं ! श्लोक १०/५ में चाणक्य भाग्य की महिमा को अपरम्पार बताते है जो राजा को रंक और भिखारी को राजा बना देती है ! इसी प्रकार १३/१३ में सभी को भाग्य के अधीन बताया है !

इससे साफ पता चलता है कि वेद के स्वघोषित ठेकेदार वेद के ज्योतिषशास्त्र की विद्या को सिर्फ इसलिए नही मानते क्योंकि उनके पंथगुरू ने अपनी पंथ पुस्तक में इसका खंडन किया है ! प्रश्न- आर्य समाज और चाणक्य में अन्य क्या-क्या भेद है ?
समीक्षा- आर्य समाज और चाणक्य दोनो में भेद ही भेद है ! जिनमें से कुछ और भेद प्रस्तुत करूँगा !
श्लोक ४/११ में चाणक्य कहते हैं कि कन्या का एक ही बार कन्यादान अर्थात् कन्यादान होना चाहिए ! कलियुग में विधवा विवाह निषेध माना गया है जिसका समर्थन चाणक्य ने किया है !
श्लोक ९/१२ में चाणक्य के ये भाव है कि भावना से जो कार्य अच्छा लगता है,उसी विधी से हमें ईश्वर की पूजा करनी चाहिए जिसका उदाहरण स्वरचित माला,अपने हाथ से घिसा चंदन और स्वयं के द्वारा रचित भगवान के स्त्रोत से स्तुति करने का कहा है,और चाणक्य कहते हैं इसमें रम जाने से मनुष्य इन्द्र की धन सम्पति को भी वश में कर सकता है !

आर्य समाज कहते है कि राम कृष्ण महापुरूष हो सकते है लेकिन ईश्वर नही तो इसके लिए चाणक्य ने भगवान कृष्ण के लिए अपनी भावना प्रकट की है- “अहं कृष्णरसोतस्व:” १२/१२ अर्थात् मेरे लिए तो श्री कृष्ण के चरणो में ही उत्सव है ! यदि ये कृष्ण को ईश्वर न मानते तो कृष्ण के स्थान पर ब्रह्म,विष्णु,गुरू इत्यादि में से किसी के चरण में उत्सव की बात करते !
आर्य समाजियो के लिए चाणक्य का एक श्लोक एकदम सत्य बैठता है-११/८ कि जिस किसी में गुणो की श्रेष्ठता का ज्ञान नही वह सदा उनकी निंदा करता रहता है !
जैसा आर्य समाजियो का मुख्य कार्य हमेशा पुराण निंदा, साकारवाद निंदा आदि है ! ये कृष्ण राम को ईश्वर नही मानते क्योंकि इनको उनके स्वरूप का थोड़ा भी ज्ञान नही ! यदि ये सनातन धर्म की निंदा न करते तो मुझे भी आर्य समाजियो से कोई घृणा नही थी लेकिन जब पानी सिर से ऊपर चला जाए तो उसको उसी की भाषा में जवाब देना ही श्रेयस्कर होता है !
आर्य समाजियो से मुझे कोई वैर नही बल्कि मुझे उनके कृत्यो से वैर है ! इसलिए सभी को यही कहना चाहूँगा-
“आर्य बनो आर्य समाजी नही”

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