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स्वामी विवेकानंद का राष्ट्र चिंतन ( Swami Vivekanand )

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स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संत थे जिनका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था। उनके सारे चिंतन का केंद्रबिंदु राष्ट्र था। भारत राष्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए जितना चिंतन और कर्म इस तेजस्वी संन्यासी ने किया उतना पूर्ण समर्पित राजनी‍तिज्ञों ने भी संभवत: नहीं किया। अंतर यही है कि उन्होंने सीधे राजनीतिक धारा में भाग नहीं लिया। किंतु उनके कर्म और चिंतन की प्रेरणा से हजारों ऐसे कार्यकर्ता तैयार हुए जिन्होंने राष्ट्र रथ को आगे बढ़ाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

इस युवा संन्यासी ने निजी मुक्ति को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया था, बल्कि करोड़ों देशवासियों के उत्थान को ही अपना जीवन लक्ष्य बनाया। राष्ट्र के दीन-हीन जनों की सेवा को ही वह ईश्वर की सच्ची पूजा मानते थे।

सेवा की इस भावना को उन्होंने प्रबल शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था- 'भले ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े और जन्म-मरण की अनेक यातनाओं से गुजरना पड़े लेकिन मैं चाहूंगा कि मैं उसे एकमात्र ईश्वर की सेवा कर सकूं, जो असंख्य आत्माओं का ही विस्तार है। वह और मेरी भावना से सभी जातियों, वर्गों, धर्मों के निर्धनों में बसता है, उनकी सेवा ही मेरा अभीष्ट है।' सवाल यह है कि स्वामी विवेकानंद में राष्ट्र और इसके पीड़ितजनों की सेवा की भावना का उद्गम क्या था? क्यों उन्होंने निजी मुक्ति से भी बढ़कर राष्ट्रसेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया।

इस तथ्य को जानने के लिए स्वामी विवेकानंद की जीवन यात्रा पर एक दृष्टि डालना आवश्यक होगा। कलकत्ता के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में 12 जनवरी 1863 को जन्मे विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। नरेन्द्र विश्वनाथ और भुवनेश्वरी के सबसे बड़े पुत्र थे।

उनका प्रारंभिक जीवन तैराकी, संगीत और दौड़ जैसी भौतिक कलाओं के अर्जन में बीता। ज्ञान और सत्य के खोजी तो नरेन्द्र बचपन से ही थे। इसलिए वे जीवन के चरम सत्य की खोज के लिए छटपटा उठे वे यह जानने के लिए व्याकुल हो उठे कि क्या सृष्टि नियंता जैसी कोई शक्ति है जिसे लोग ईश्वर करते हैं।
 
सत्य की यही अनवरत खोज उन्हें दक्षिणेश्वर के संत श्री रामकृष्ण परमहंस तक ले गई और परमहंस ही वह सच्चे गुरु सिद्ध हुए जिनका सान्निध्य पाकर नरेन्द्र की ज्ञान पिपासा शांत हुई।

अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से प्रेरित स्वामी विवेकानंद ने साधना प्रारंभ की और परमहंस के जीवनकाल में ही समाधि प्राप्त कर ली। किंतु विवेकानंद को तो इस जीवन में कोई दूसरा ही कार्य करना था। इसलिए जब स्वामी विवेकानंद ने दीर्घकाल तक समाधि अवस्था में रहने की इच्छा प्रकट की तो उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें एक महान लक्ष्य की ओर प्रेरित करते हुए कहा- 'मैंने सोचा था कि तुम जीवन के एक प्रखर प्रकाश पुंज बनोगे और तुम हो कि एक साधारण मनुष्य की तरह व्यक्तिगत आनंद में ही डूब जाना चाहते हो... तुम्हें संसार में महान कार्य करने हैं, तुम्हें मानवता में आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न करनी है और दीनहीन मानवों के दु:खों का निवारण करना है।' स्वामी विवेकानंद के लिए यह संदेश आंखें खोलने वाला था।

रामकृष्ण परमहंस भी विवेकानंद के आश्वासन को पाकर अभिभूत हो गए और उन्होंने अपनी मृत्यशैया पर अंतिम क्षणों में कहा- 'मैं ऐसे एक व्यक्ति की सहायता के लिए बीस हजार बार जन्म लेकर अपने प्राण न्योछावर करना पसंद करूंगा।' सचमुच स्वामी विवेकानंद का राष्ट्र और मानवता की सेवा का निर्णय महान था।
  
भारत भ्रमण
जब 1886 में श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपना नश्वर शरीर त्यागा तब उनके 12 युवा शिष्यों ने संसार छोड़कर साधना का पथ अपना लिया, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने दरिद्रनारायण की सेवा के लिए एक कोने से दूसरे कोने तक सारे भारत का भ्रमण किया। उन्होंने देखा कि देश की जनता भयानक गरीबी से घिरी हुई है और तब उनके मुख से रामकृष्ण परमहंस के शब्द अनायास ही निकल पड़े- 'भूखे पेट से धर्म की चर्चा नहीं हो सकती।' किंतु इसके लिए उन्होंने धर्म को दोषी नहीं ठहराया।


उनकी मान्यता थी कि समाज की यह दुरावस्‍था (गरीबी) धर्म के कारण नहीं हुई बल्कि इस कारण हुई कि समाज में धर्म को इस प्रकार आचरित नहीं किया गया जिस प्रकार किया जाना चाहिए था।'

अपने रचनात्मक विचारों को मूर्तरूप देने के लिए 1 मई 1879 को स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन एसोसिएशन की स्थापना की। इसकी कार्यपद्धति इस प्रकार निश्चित की गई।

(1) ऐसे कार्यकर्ताओं को तैयार करना और प्रशिक्षित करना, जो देश की जनता के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए ज्ञान-विज्ञान के वाहक बन सके।

(2) कलाओं और उद्योगों को प्रोत्साहित करना।

(3) लोगों में इस प्रकार धार्मिक विचारों का प्रचार करना क‍ि वे रामकृष्ण परमहंस के विचारानुसार सच्चे मानव बन सकें।

वास्तव में विवेकानंदजी ने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन नाम से दो पृथक संस्थाएं गठित कीं। जिनके पृथक कोष और हिसाब-किताब होने के बावजूद साझा प्रबंध था। इनमें से प्रथम रामकृष्ण मठ समर्पित संन्यासियों की श्रृंखला तैयार करने के लि‍ए थी जबकि दूसरी रामकृष्ण मिशन जनसेवा की गतिविधियों के लिए थी। वर्तमान में इन दोनों संस्थाओं के विश्वभर में सैकड़ों केंद्र हैं और ये संस्थाएं शिक्षा, चिकित्सा, संस्कृति, अध्यात्म और अन्य सेवा कार्यों में ईमानदार आदर्श स्थापित कर चुकी हैं।

यह कार्य व्यवस्था स्थापित करने के बाद स्वामीजी केवल 5 वर्ष ही जीवित रह पाए। उन्होंने अपनी संपूर्ण जीवन शक्ति अपने लक्ष्य को साकार करने में झोंक दी। 1902 में अपने निर्वाण के समय स्वामीजी की आयु 40 वर्ष थी।
 
 
 
त्याग और बलिदान
स्वामीजी नैतिक पवित्रता और त्यागमय जीवन को अत्यधिक महत्व देते थे। उनकी मान्यता थी कि ये दो सद्गुण ही युवकों को पी‍ड़ित मानवता के उत्थान और जागरण के लिए प्रेरित कर सकते हैं। उन्होंने कहा था- 'कोई भी महान कार्य बलिदान के बिना संभव नहीं हो सकता। बलिदान की एक ऐसी श्रृंखला बना दो कि जिसके ऊपर से असंख्य लोग जीवन समुद्र को पार कर सकें। याद रखो महान लोग वही होते हैं, जो अपने हृदय रक्त से दूसरों के लिए राजमार्ग बनात हैं। उन्होंने देश की समस्याओं को समझने के लिए 7 वर्ष तक लगातार भारत भ्रमण किया।

स्वामीजी ने देखा कि जनता गहन अंधकार में भटकी हुई है। उन्होंने भारत में व्याप्त दो महान बुराइयों की ओर संकेत किया, पहली महिलाओं पर अत्याचार और दूसरी जातिवादी विषयों की चक्की में गरीबों का शोषण। उन्होंने देखा कि कोई नि‍यति के चक्र से एक बार निम्न जाति में पैदा हो गया तो उसके उत्थान की कोई आशा नहीं रहती।

आजादी पूर्व की स्थिति यही थी। स्वामी विवेकानंद जैसे मनीषी के चिंतन और क्रियान्वयन से बाद में गांधीजी ने भी देश की इन दुर्दशाओं को जाना, समझा और आज स्थि‍ति में काफी बदलाव आया, परंतु उस समय की कल्पना करें, जब विवेकानंद ने यह असंभव सा सपना देखा था।

उस समय तो निम्न जाति के लोग उस समय सड़क से गुजर भी नहीं सकते थे जिससे उच्च जाति के लोग आते-जाते थे। स्वामीजी ने जाति जन्मी इस भीषण दुर्दशा को देखकर आर्त स्वर में कहा था- 'आह! यह कैसा धर्म है, जो गरीबों के दुख दूर न कर सके।' उन्होंने कहा कि पेड़ों और पौधों तक को जल देने वाले धर्म में जातिभेद का कोई स्थान नहीं हो सकता। ये वि‍कृति धर्म की नहीं, हमारे स्वार्थों की देन है। स्वामीजी ने उच्च स्वर में कहा- 'जातिप्रथा की आड़ में शोषण चक्र चलाने वाले धर्म को बदनाम न करें।'

                                                      
 
 
जातिभेद का विरोध
स्वामीजी जातिभेद को दूर करने के लिए उच्च वर्णों को उदार बनकर नीचे उतरने का उपदेश नहीं देते थे। वे इसे व्यावहारिक नहीं मानते थे। उनकी मान्यता थी कि निम्न लोगों को इतना ऊंचा उठाओ क‍ि वे उच्च वर्णों के बराबर खड़े हो जाएं। उन्हें दया नहीं, सामर्थ्य प्रदान करो।'
 
विवेकानंद एक सुखी और समृद्ध भारत के निर्माण के लिए बेचैन थे। इसके लिए जातिभेद ही नहीं, उन्होंने हर बुराई पर प्रहार किया। वे समाज में समता के पक्षधर थे और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के प्रति उनके मन में गहरा रोष था। उन्होंने कहा- जब तक करोड़ों लोग गरीबी, भुखमरी और अज्ञान का शिकार हो रहे हैं, मैं हर उस व्यक्ति को शोषक मानता हूं, लेकिन उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा है।

स्वामी विवेकानंद के मन में समता के लिए वर्तमान समाजवाद की अवधारणा से भी ‍अधिक आग्रह था। उन्होंने कहा था- 'समता का विचार सभी समाजों का आदर्श रहा है। यह सारी मानवता का आदर्श है। संपूर्ण प्राणिमात्र के विरुद्ध जन्म, जाति, लिंग भेद अथवा किसी भी आधार पर समता के विरुद्ध उठाया गया कोई भी कदम एक भयानक भूल है। और ऐसी किसी भी जाति, राष्ट्र या समाज का अस्ति‍त्व कायम नहीं रह सकता, जो इसके आदर्शों को स्वीकार नहीं कर लेता।'

इससे भी बढ़कर उन्होंने समता के लिए ऐसे प्रखर उद्गार व्यक्त किए, जो मानवमात्र के किसी व्याख्याता और अध्येता ने भी नहीं व्यक्त किए होंगे। उन्होंने कहा- 'अज्ञान विषमता और आकांक्षा ही वे तीन बुराइयां हैं, जो मानवता के दु:खों की कारक हैं और इनमें से हर एक बुराई दूसरे की घनिष्ठ मित्र है।'
 
                                                                                                       साभार ~ धर्मपाल शर्मा

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3 comments

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  2. Tum chutiya ho...padhai karo abhi

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    1. तुम आर्य समाजी हो क्‍या ?

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