आर्य समाज एवं नास्तिको को जवाब,
दयानंद,
सत्यार्थ प्रकाश का कच्चा चिठा
सत्यार्थ प्रकाश के लेखक की उड़ रही हैं धज्जियाँ ( Dayanand Ki Ud Rahi He Dhajiya )
सत्यार्थ प्रकाश के लेखक की उड़ रही हैं धज्जियाँ यहाँ नकारते हुए प्रमाण विज्ञान की तरफ से।
चलिए आज जरा स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अद्भुत ज्ञान-विज्ञान पर दृष्टिपात करते हैं।
सब चिकित्सा से सम्बन्धित इस विषय को इतना तो अवश्य जानते होंगे जितना मैं जिक्र करने जा रहा हूँ...
पुरुष वीर्य में २ प्रकार के क्रोमोजोम वा गुणसूत्र होते हैं जिन्हें आधुनिक भाषा में x और y कहते हैं।
स्त्री में १ ही प्रकार के होते हैं x।
जब पुरुष का x स्त्री के x से मिलता है तो जन्म लेती है कन्या और यदि पुरुष का y स्त्री के x से मिलता है तो बनता है लड़का।
सम्भव है क्रोमोजोम्स के नाम में फेरबदल हो पर स्त्री में समान और पुरुष में २ भिन्न निश्चित हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि लडके या लड़की के जन्म का जो निर्धारण होता है वह पुरुष के वीर्य से होता है स्त्री के अंडे के क्रोमोजोम से नहीं। क्यूंकि स्त्री के तो लड़का-लडकी दोनों ही की सूरत में वही गुणसूत्र होते हैं।
ये तय हुआ कि पुरुष ही कारण है लिंग भेद का।
अब चर्चा करते है स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत की। ये वही स्वामी जो हैं जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की और जिन्हें आर्य समाजी महा ऋषि कहते हैं।
वे अपने सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक के चौथे सम्मुल्लास में गृहस्थ प्रकरण में लिखते हैं एक ऐसी विधि जिससे मनुष्य मनचाही सन्तान अर्थात चाहे तो पुत्र उत्पन्न कर सकते हैं या चाहे पुत्री स्वेच्छा से पैदा कर सकते हैं।
स्मरण रहे आधुनिक विज्ञान लिंग भेद का कारण पुरुष को सिद्ध करता है।
स्वामी जी लिखते हैं कि जिस तिथि को स्त्री रजस्वला होती है,उसकी ६,८,१०,१२ रात्रि यानि सम दिवस की रात्रि को स्त्री पुरुष संसर्ग करते हैं तो सन्तान लड़का होगा और यदि रजस्वला दिवस की ५,७,९,११,१३ यानि विषम रात्रि को यदि पत्नी-पति एक होते हैं तो कन्या जन्म लेगी। रजस्वला होने वाला आरम्भ का दिवस वा रात्रि भी गणना में सम्मिलित की जाती है।
विचार करने योग्य बात यह है कि स्त्री चाहे इनमे से किसी भी रोज पुरुष से संयुक्त हो उसके गुणसूत्र तो वही रहने हैं क्यूंकि उसमे हैं ही वे, लिंग भेद करने वाले गुणसूत्र तो पुरुष में हैं इससे उसका सम या विषम संख्या वाले दिनों में संसर्ग करना समान ही सिद्ध होता है।
हाँ यदि स्वामी जी पुरुष के x या y में से किसी एक गुणसूत्र को प्रभावी बनाने हेतु कोई औषधि बताते तो बात युक्तियुक्त थी परन्तु उन्होंने तो विज्ञान के(जो की आज प्रत्यक्ष है) विरूद्ध लडके-लडकी के जन्म में लिंग भेद का कारण पुरुष को न मानकर पूरी तरह स्त्री की ऋतुचर्या के समय को ही प्रधानता दी है। जबकि आज की चिकित्सा से इसके विपरीत पुरुष ही कारण सिद्ध है।
आप सब ही विचार करें हम दोनों में से किसी के ज्ञान को सत्य माने?
जो आज प्रत्यक्ष चिकित्सा विज्ञान और यंत्र हैं उन्हें नकारे या स्वामी दयानन्द सरस्वती की विचारधारा को ?
चलिए आज जरा स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के अद्भुत ज्ञान-विज्ञान पर दृष्टिपात करते हैं।
सब चिकित्सा से सम्बन्धित इस विषय को इतना तो अवश्य जानते होंगे जितना मैं जिक्र करने जा रहा हूँ...
पुरुष वीर्य में २ प्रकार के क्रोमोजोम वा गुणसूत्र होते हैं जिन्हें आधुनिक भाषा में x और y कहते हैं।
स्त्री में १ ही प्रकार के होते हैं x।
जब पुरुष का x स्त्री के x से मिलता है तो जन्म लेती है कन्या और यदि पुरुष का y स्त्री के x से मिलता है तो बनता है लड़का।
सम्भव है क्रोमोजोम्स के नाम में फेरबदल हो पर स्त्री में समान और पुरुष में २ भिन्न निश्चित हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि लडके या लड़की के जन्म का जो निर्धारण होता है वह पुरुष के वीर्य से होता है स्त्री के अंडे के क्रोमोजोम से नहीं। क्यूंकि स्त्री के तो लड़का-लडकी दोनों ही की सूरत में वही गुणसूत्र होते हैं।
ये तय हुआ कि पुरुष ही कारण है लिंग भेद का।
अब चर्चा करते है स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत की। ये वही स्वामी जो हैं जिन्होंने आर्य समाज की स्थापना की और जिन्हें आर्य समाजी महा ऋषि कहते हैं।
वे अपने सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक के चौथे सम्मुल्लास में गृहस्थ प्रकरण में लिखते हैं एक ऐसी विधि जिससे मनुष्य मनचाही सन्तान अर्थात चाहे तो पुत्र उत्पन्न कर सकते हैं या चाहे पुत्री स्वेच्छा से पैदा कर सकते हैं।
स्मरण रहे आधुनिक विज्ञान लिंग भेद का कारण पुरुष को सिद्ध करता है।
स्वामी जी लिखते हैं कि जिस तिथि को स्त्री रजस्वला होती है,उसकी ६,८,१०,१२ रात्रि यानि सम दिवस की रात्रि को स्त्री पुरुष संसर्ग करते हैं तो सन्तान लड़का होगा और यदि रजस्वला दिवस की ५,७,९,११,१३ यानि विषम रात्रि को यदि पत्नी-पति एक होते हैं तो कन्या जन्म लेगी। रजस्वला होने वाला आरम्भ का दिवस वा रात्रि भी गणना में सम्मिलित की जाती है।
विचार करने योग्य बात यह है कि स्त्री चाहे इनमे से किसी भी रोज पुरुष से संयुक्त हो उसके गुणसूत्र तो वही रहने हैं क्यूंकि उसमे हैं ही वे, लिंग भेद करने वाले गुणसूत्र तो पुरुष में हैं इससे उसका सम या विषम संख्या वाले दिनों में संसर्ग करना समान ही सिद्ध होता है।
हाँ यदि स्वामी जी पुरुष के x या y में से किसी एक गुणसूत्र को प्रभावी बनाने हेतु कोई औषधि बताते तो बात युक्तियुक्त थी परन्तु उन्होंने तो विज्ञान के(जो की आज प्रत्यक्ष है) विरूद्ध लडके-लडकी के जन्म में लिंग भेद का कारण पुरुष को न मानकर पूरी तरह स्त्री की ऋतुचर्या के समय को ही प्रधानता दी है। जबकि आज की चिकित्सा से इसके विपरीत पुरुष ही कारण सिद्ध है।
आप सब ही विचार करें हम दोनों में से किसी के ज्ञान को सत्य माने?
जो आज प्रत्यक्ष चिकित्सा विज्ञान और यंत्र हैं उन्हें नकारे या स्वामी दयानन्द सरस्वती की विचारधारा को ?
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