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ऋग्वेद-संहिता - प्रथम मंडल सूक्त ३१

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[ऋषि -हिरण्यस्तूप अंङ्गिरस। देवता- अग्नि। छन्द जगती ८,१६,१८ त्रिष्टुप।]
 
 
 
३५१.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरा ऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा ।
तव व्रते कवयो विद्मनापसोऽजायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥१॥
हे अग्निदेव! आप सर्वप्रथम अंगिरा ऋषि के रूप मे प्रकट हुये, तदनन्तर सर्वद्रष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवो के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरूद गण क्रान्तदर्शी कर्मो के ज्ञाता और श्रेष्ठ तेज आयुधो से युक्त हुये है॥१॥

३५२.त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् ।

विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥
हे अग्निदेव! आप अंगिराओ मे आद्य और शिरोमणि है। आप देवताओ के नियमो को सुशोभित करते है। आप संसार मे व्याप्त तथा दो माताओ वाले दो अरणियो से समुद्भूत होने से बुद्धिमान है। आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं॥२॥
३५३.त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते ।
अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसघ्नोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥
हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी कांप गये। होता रूप मे वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का संपादन किया। देवो का यजनकार्य पूर्ण करने के लिये आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥
३५४.त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः ।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले है। आपने मनु और सुकर्मा-पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ पितृ रूप दो काष्ठो के मंथन से उत्पन्न हुये, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये॥४॥

३५५.त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्यः ।
य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि ॥५॥
हे अग्निदेव! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक है। हविदाता, स्त्रुवा हाथ मे लिये स्तुति को उद्यत है, जो वषटकार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणी पुरुष के रूप मे प्रतिष्ठित करते है॥५॥

३५६.त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे ।
यः शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित्समृता हंसि भूयसः ॥६॥
हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव! आप पापकर्मियो का भी उद्धार करते है। बहुसंख्यक शत्रुओ का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषो को लेकर सब शत्रुओ को मार गिराते है॥६॥

३५७.त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे ।
यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥७॥
हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यो को दिनप्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते है, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनो की करते रहते है। वीर पुरुषो को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं॥७॥

३५८.त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवानः ।
ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥८॥
हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमे धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमे यशस्वी पुत्र प्रदान करें। नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें। द्यावा, पृथ्वी और देवगण सब प्रकार से रक्षा करें॥८॥

३५९.त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृविः ।
तनूकृद्बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे ॥९॥
हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवो मे चैतन्य रूप आप हमारे मातृ पितृ (उत्पन्न करने वाले) हैं। आप ने हमे बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दी, कर्म को प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित की। हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमे आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें॥९॥

३६०.त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् ।
सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ॥१०॥
हे अग्निदेव! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और बन्धु रूप है। आप उत्तमवीर, अटलगुण सम्पन्न, नियम-पालक और असंख्यो धनो से सम्पन्न है॥१०॥


३६१.त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् ।
इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
हे अग्निदेव! देवताओ ने सर्वप्रथम आपको मनुष्यो के हित के लिये राजा रूप मे स्थापित किया। तपश्चात जब हमारे (हिरण्यस्तूप ऋषि) पिता अंगिरा ऋषि ने आपको पुत्र रूप मे आविर्भूत किया, तब देवतओ ने मनु की पुत्री इळा को शासन-अनुशासन(धर्मोपदेश) कर्त्री बनाया॥११॥


३६२.त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वन्द्य ।
त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव व्रते ॥१२॥
हे अग्निदेव! आप वन्दना के योग्य है। आप रक्षण साधनो से धनयुक्त हमारी रक्षा करें। हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें। शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र-पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों॥१२॥

३६३.त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे ।
यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम् ॥१३॥
हे अग्निदेव आप याजको के पोषक है, जो सज्जन हविदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान्न देते है, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधको(उपासको) की स्तुति हृदय से स्वीकार करते है॥१३॥


३६४.त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पार्हं यद्रेक्णः परमं वनोषि तत् ।
आध्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शास्सि प्र दिशो विदुष्टरः ॥१४॥
हे अग्निदेव! आप स्तुति करने वाले ऋत्विजो को धन प्रदान करते गौ। आप दुर्बलो को पिता रूप मे पोषण देनेवाले और अज्ञानी जनो को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी है॥१४॥

३६५.त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः ।
स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥
हे अग्निदेव! आप पुरुषार्थी यजमानो की कवच रूप मे सुरक्षा करते है। जो अपने घर मे मधुर हविष्यान्न देकर सुखप्रद यज्ञ करता है वह घर स्वर्ग की उपमा के योग्य होता है॥१५॥

३६६.इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम दूरात् ।
आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्मर्त्यानाम् ॥१६॥
हे अग्निदेव! आप यज्ञ कर्म करते समय हुई हमारी भूलों को क्षमा करे, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये है, उन्हे भी क्षमा करें। आप सोमयाग करने वाले याजको के बन्धु और पिता है। सद्बुद्धि प्रदान करनेवाले ऐर ऋषिकर्म के कुशल प्रणेता है॥१६॥

३६७.मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे ।
अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ॥१७॥
हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव! (अंगो मे व्याप्त अग्नि) आप मनु, अंगिरा(ऋषि), ययाति जैसे पुरुषो के साथ देवो को ले जाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों। उन्हे कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुये सम्मानित करें॥१७॥

३६८.एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा ।
उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥
हे अग्निदेव! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें। अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यजन किया है, उससे हमे ऐश्वर्य प्रदान करें। बल बढाने वाले अन्नो के साथ शुभ मति से हमे सम्पन्न करें॥१८॥

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